भर्तहरि

 



भर्तहरि 

 डॉ रवीन्द्र पस्तोर 


 भाग एक 

तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा है, इसलिए क्षिप्रा नदी पूरे उफान पर है। रामघाट पर बने सब मंदिर डूब गए है। ऐसा लगता है की नदी का जल घाटों की दीवाल तोड़ कर नगर में प्रवेश करने पर उतारू दिख रहा है। पानी का वेग बहुत तीव्र है। मैं अकसर नदी को सिंधिया घराने की छतरियों से देखने जब तब आ जाता हूँ। आज रात नींद खुल जाने से यहाँ आ कर खड़ा ही हुआ था। हालांकि अभी आसमान में बहुत अधिक बादल थे। लेकिन बीच - बीच में चाँद बादलों में से झांक लेता था। ऐसे ही एक पल में मैंने देखा की नदी के उस पार जूना अखाड़े का विशाल त्रिशूल सामने चमक गया। दूसरे पल मुझे लगा की एक मानव आकृति नदी की और बढ़ रही है। कुछ और बाद जब चांदनी की रोशनी हुई तो दिखा कि वे एक साधु है जिन के शरीर पर एक कोपीन के अलावा कुछ नहीं था। उनकी लम्बी - लम्बी जटाए नीचे पाँव तक लटक रही है और वे नदी की ओर आ रहे है। कम रोशनी के कारण पहचानना कठिन था। वह नदी के घाट पर चढ़े और नदी के पानी पर ऐसे चलने लगे मानो जमीन पर चल रहे हो।  नदी के तेज बहाव को चीरते हुए वह नदी के इस ओर आ रहे थे। अभी रात्रि का चौथा पहर शुरू हो रहा था। बादलों से आसमान ढका था केवल बीच - बीच में आसमान पर बादल नहीं थे। जब चन्द्रमा बिन बादलों के आसमान में आता तभी पूर्णमा की चांदनी दिख जाती थी। हवा तीव्रता से चल रही थी। इस कारण नदी में ऊँची - ऊँची  लहरे उठ रही थी। बादल भी तीव्रता से उड़ रहे थे। वातावरण में नमी व ठंडक फैली थी। एक तो बरसात की रात तथा बादलों की काली परछाई के कारण नदी का पानी कुछ ज्यादा काला दिख रहा था। हवा में नमी के कारण थोड़ी - थोड़ी बूदाबंदी शुरू हो गई थी।  

दोनों किनारों पर लगी स्ट्रीट लाइट की रोशनी रहस्य पूर्ण लग रही थी। धीरे - धीरे वे साधु बीच नदी में आ गए थे।  नदी की तीव्र धार पर उनकी सुडौल लंबी टांगे पानी पर चल रही थी मानो यह उनका रोज  का काम हो। रवि उन साधु की हिम्मत तथा उत्साह को देख कर आश्चर्यचकित हो रहा था। ऐसा लग रहा था मानो  उनको जीवन का कोई मोह न हो। उनने शायद उनके डरो पर काबू पा लिया था। तभी तो वह प्रकृति के नियमों को चुनौती देने की हिम्मत रखते हैं । 

यह स्वप्न रवि को कुछ रातों से नियमित आता रहा है। जब - जब वह ठीक से सो नहीं पाता है और अचानक रात में गहरी नींद में वह यह स्वप्न देखता है।  स्वप्न में जैसे ही वह साधु के पास जाना चाहता है तो साधु गायब हो जाते है और स्वप्न टूट जाता है।  रवि का हर क्षण ही भयग्रस्त था। केवल सोने के समय को छोड़कर। हर क्षण उसे अज्ञात भय सताता रहता था। उसे उसके चोरों ओर लोग ऐसे जान पड़ते जैसे वे सब उसके खलाफ षड़यंत्र रच रहे हो। यदि कोई हंसता तो उसे लगता जैसे उसीका उपहास उड़ा रहा हो। 

बचपन से ही जब से उसने होश सम्हाला तब से उस के पिता जी उसकी तुलना पड़ोसियों के बच्चों से करते । जिन में किसी बच्चे का कद तेजी से बाद रहा था, तो किसी का रंग गोरा था, तो कोई पड़ने में होशियार था। कोई गाना गाता तो कोई कुछ बजाता तथा कोई - कोई खेल में अच्छे थे। जब वह खेलने जाता तो कहते पढ़ते क्यों नहीं हो, जब पड़ता तो कहते खेलते क्यों नहीं हो। यह सब सुन - सुन कर वह अपने प्रति पूरी तरह संशयग्रस्त हो गया, तथा आत्म विश्वास हिल गया था । हमेशा एक अज्ञात भय रहने लगा। इस का दुष्परिणाम यह हुआ कि हमेशा के लिए उसका बचपन नष्ट हो गया। बचपन की कोई मधुर स्मृति उसके मन में नहीं है। पिता के प्रति स्नेह का बन्धन कभी बना ही नहीं। जब उसके दोस्त उनके माता - पिता या दादा - दादी, नाना - नानी की कोई सुखद यादों की कहानियाँ सुनाते तो उसे लगता कि वे मनगढ़ंत कहानियाँ बना रहे है या फिर उनकी किस्मत अच्छी थी की उन्हें ऐसे परिवारों में जन्म मिला। 

रवि पढ़ने में बहुत होशियार था, हमेशा उसके परीक्षा में अच्छे नंबर आते रहे । कभी - कभी माँ व पिताजी में झगड़ा होता तो वह बाहर चला जाता। उसे दोनों का झगड़ना न तो अच्छा लगता न कारण समझ आता। शुरू - शुरू में उसने झगड़ा न करने के लिए दोनों को कहा पर उन पर कोई असर नहीं हुआ। धीरे - धीरे वह आत्म केंद्रित होता गया। उसके कोई ज्यादा दोस्त नहीं थे, न वह कोई और गतिविधि में भाग लेता। तो उसकी दोस्ती किताबों से हो गई। वह खूब पड़ने लगा । किताबें उसके अकेलेपन की सच्ची साथी बनती गई। उसके पास पड़ने के लिए खूब समय होता। घर में रखी धार्मिक पुस्तकें उसने पड़ ली, तो फिर वह जिला पुस्तकालय का सदस्य बन गया।  वह नियमित पुस्तकालय जाता, वहां पड़ने की खूब आजादी थी। बाचनालय  के आखरी काने में रखी खिड़की के पास की  बेंच उसका स्थाई अड्डा हो गया। पुस्तकें उसके अकेलेपन का सहारा थी तथा कहानियों के पात्र उसके दोस्त। जब वह पुस्तकालय की अलमारी से कोई पुस्तक निकलता तो कागज की महक उसे घेर लेती। जब उगली में थूक लगा कर पेज पलटा तो कागज का स्वाद बहुत भाता। वह किताबों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय गुजारने लगा। उम्र बढ़ने के साथ उसके लेखकों तथा विषयों का दायरा बढ़ता गया। जब वह किताब पड़ता तो उसके पात्र किताब से बाहर उसको घेर लेते और वह खुद को कहानी का हिस्सा महसूस करता। जैसे वह घटनाऐं अभी उसके सामने घट रही हो। कल्पना व वास्तविक संसार की सीमा समाप्त हो जाती तथा उसकी चेतना कहानी के संसार में विचरण करती।  वह पात्रों के दुःख से दुःखी व सुख से सुखी होता। यह आदत जुनून की हद तक चली गई। 

कालेज के समय वह खुद अपनी कहानियां लिखने लगा। पात्रों  को रचते समय उसे लगता की वह खुद सृष्टा हो। जैसे - जैसे पात्र का व्यक्तित्व व चरित्र बढ़ता जाता वह उससे स्वतंत्र हो जाता। पात्र अपने चरित्र का निर्माण खुद करने लगते। तब वह अर्ध चेतन अवस्था में चला जाता। मन तथा हाथ का सम्बन्ध जुड़ जाता। विचार मन में आते और हाथ कागज पर उतारता जाता।  वह केवल माध्यम ही रह जाता। यह अवस्था कभी कुछ मिनिट तो कभी घंटों चलती।  जब मन व हाथ का सम्बन्ध शीर्ण होता तो उसे फिर सोच कर लिखना पड़ता था तब वह भावप्रवणता नहीं रहती। तो फिर वह लिखना बंद कर देता और इंतजार करता उस अवस्था को प्राप्त करने की, जिस में वह बिना सोचे लिख सके। जब इस अवस्था में जो लिखा जाता वह लेखन अतीन्द्रिय व अदभुत होता। 

लेखन के कारण उसको अपनी कुंठाओं से बाहर निकलने में बहुत मदद मिली। उसका आत्मविश्वास लौट आया।  वह स्कूल व कालेज में बहुत अच्छा रिजल्ट लाता। इस कारण उसे हमेशा अच्छे संस्थानों में छात्रवृत्ति के साथ पढ़ने का मौका मिला। उसने खेलकूद, साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया।  इस कारण विद्यार्थियों के साथ - साथ  कालेज के स्टाफ का चहेता बन गया। वह संस्था के सभी आयोजनों में अबसे आगे रहता। धीरे - धीरे समय बीतते रहा और वह अपनी पढ़ाई के अंतिम वर्ष में आ गया। 

रवि की स्वच्छ छवि तथा पढ़ाई के अच्छे रिकॉर्ड के कारण जब वह कालेज के किसी कार्यक्रम में भाग लेता तो उसके साथी बड़े उत्साह के साथ उसका हौसला बढ़ाते थे। कालेज  में अनेक कंपनियां प्लेसमेंट के लिए आ रही थी। रवि केवल सबसे अच्छी तीन कम्पनियों के इंटरव्यू में गया और तीनों में वह चयनित हो गया। लेकिन उसने एक अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंसल्टेशन कम्पनी में प्लेसमेंट स्वीकार कर लिया। उसकी पोस्टिंग वाशिंगटन में हुई।  उसकी कंपनी के ऑफिस में उसकी ट्रेनिंग शुरू हुई। जब उसने नौकरी शुरू की तो शुरू के कुछ दिन बहुत कठिनाइयों भरे थे। सबसे ज्यादा परेशानी उसे अमरीकन संस्कृति के रीतरिवाज़ अपनाने में हुई। लेकिन रवि ने तेजी से अमरीकन संस्कृति को अपनाना शुरू किया तथा केवल छः माह के अंदर वह भीतर तथा बाहर से अमरीकन बन गया। ऐसी जीवन शैली की उसने कभी कल्पना नहीं की थी।  

उसके सेक्शन में समांथा, स्मिता, रमेश, तथा क्रिस्टीना काम करते थे।  इन सब को भारत पर मिले प्रोजेक्ट पर काम करना था। इस प्रोजेक्ट के तहत भारत सरकार द्वारा गरीबी हटाने के लिए चलाई जा रही योजनाओं व प्रोजेक्ट का अध्ययन कर अधिक कारगर बनाने पर सलाह देनी थी। प्रोजेक्ट का जमीनी सर्वे करने के लिए रवि व स्मिता को नई दिल्ली भेजा गया। दोनों नई दिल्ली के मौर्या शेरेटन होटल में ढहरे। दिन भर उन्हें विश्व बैंक व भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रायल के साथ मिल कर काम करना था। दिन की शुरुआत होटल की लॉबी में नाश्ते से होती। फिर वे निकल जाते, दिन प्रजेंटशन, स्प्रेडशीट पर आंकड़े देखने में निकल जाता। वे सवाल पूछते, नोट्स लेते व समझने की कोशिश करते। देर रात तक अपने कमरों में योजनाओं के दस्तावेजों का अध्यन करते। विभिन्न कमेटियों की रिपोर्ट पड़ते। रात के खाने के बाद दोनों में खूब बहस होती। हालांकि दोनों भारतीय पृष्ठभूमि  से आये थे लेकिन गरीबी की समझ व उसे दूर करने के तरीकों पर बहुत अधिक मत भिन्नता होने के कारण वे शायद ही किसी विषय पर सहमत होते थे। कभी - कभी यह बहस बहुत कटु हो जाती  और दोनों एक-दूसरे से बात करने से बचते थे। लेकिन व्यवसायिक मज़बूरी से दोनों को साथ काम करना पड़ रहा था। दोनों अभी बहुत भावुक व उत्साही थे। दोनों के लिए यह पहला प्रोजेक्ट था, इस कारण प्रोफेशनल व पर्शनल जीवन में अंतर नहीं कर पा रहे थे। पिछले दिनों जब वह रात के खाने पर गरीबी रेखा के सर्वेक्षण की रिपोर्ट पर बात कर रहे थे तो दोनों के बीच बजह इतनी तीखी हो गई कि रवि बिना खाना खाये उठ कर अपने कमरे में चला गया। सोने जाते समय उसका मन इतना परेशान तथा उदिग्न था कि वह विस्तार पर लेटा - लेटा अपने वर्तमान काम के बारे में सोच रहा था। कि  वह यह काम क्यों कर रहा हे ? जब काम करने की स्वत्रंता नहीं हे? जब टीम एक मत नहीं है ? इतना तनाव  किस बात के लिए ? रवि को एकाएक लगा की शायद  स्मिता उसे व्यक्तिगत तौर पर नफ़रत करती है। जिस कारण वह उसे पसंद नहीं करती है। इसलिए रवि जो भी कहे, स्मिता उसके ठीक विपरीत बालने लगती है। यह कहानी शायद उसी दिन शुरू हो गई थी जब भारत के लिए इस प्रोजेक्ट की टीम बनाई गई थी। स्मिता ने टीम की घोषणा के समय ही रवि के नाम पर ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया था। रवि को उम्मीद थी की स्मिता का यह व्यवहार शायद बदल जाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 

उसे हमेशा बोलने के पहले यह सोचना होता था कि स्मिता क्या प्रतिक्रिया देगी। यह उसके लिए कॉलेज के दिनों की तात्कालिक भाषण प्रतियोगता जैसा था, जिस में डब्बे से एक पर्ची निकल कर कभी बिषय के पक्ष्य में तो कभी विपक्ष्य में बोलना होता था। हालांकि उन दिनों यह उसकी प्रिय प्रतियोगिता होती थी।  क्योकि वह बोलते समय आमने मस्तिष्क के सभी ज्ञान का उपयोग पर्ची के विषय के आधार पर करता था। वह इस तरह की प्रितियोगता में कभी प्रथम तो कभी द्वितीत आता था। ऐसा शायद कभी नहीं हुआ जब वह हार गया हो। यह सोच कर उसको हसीं आ गई क्योंकि उस की कक्षा में भावना नाम की लड़की थी जिससे हमेशा उसका मुकाबला होता था। कभी भावना प्रथम आती तो कभी वह। यह सिलसिला लगभग तीन साल तक चला। फिर कालेज ख़तम होते ही दोनों के रस्ते अलग दिशाओं में निकल गए। धीरे - धीरे भावना से स्पर्धा करते - करते उसका लगाव उसकी तरह होने लगा था, लेकिन वह कभी उससे कुछ कह नहीं सका। इस बात की कशक उसके मन में आज तक है। लेकिन अब वह बात कहने का बक्त निकल गया था। कुछ किया नहीं जा सकता। 

कल रात स्मिता से बहस करते उसे उसी तरह का खिंचाव महसूस हुआ तो उसने सोचना शुरू किया कि इस बार वह ऐसा मौका हाथ से जाने नहीं देगा। अपनी तरफ से एक कोशिश वह जरूर करेगा। हालांकि उसे भरोसा नहीं था कि वह कभी इतनी हिम्मत जुटा सकेगा या नहीं। अगले दिन दोनों कृषि भवन में ग्रामीण विकास मंत्रालय में गरोबो के लिए हाल ही में शुरू की गई महात्मा गाँधी रोजगार गारंटी योजना, जिसे संशिप्त में मनरेगा योजना कहा जाता है का गरीबों पर होने वाले प्रभावों की रिपोर्ट की समीक्षा का प्रेजेंटेशन देख रहे थे। जब प्रेजेंटेशन के बाद चर्चा शुरू हुई तो स्मिता का कहना था की अस्थाई तौर पर रोजगार दे कर क्या गरीबी दूर हो सकती है? वह भी जब इस योजना पर इतना अधिक बजट खर्च होने के वाबजूद कोई स्थाई अधोसंरचना का निर्माण नहीं हो रहा है। इससे परिवारों को तात्कालिक लाभ तो मिलता है लेकिन बजट का लीकेज इतना अधिक है कि भ्रष्टाचार को बढ़ावा ही मिल रहा है। यदि गरीबों को सीधा लाभ देना भी है तो सीधे उनके खातों में मासिक राशि सीधे बैंक से स्थानांतरित की जा सकती है या उतने पैसे के मूल्य के वाउचर दिए जा सकते है।  

लेकिन रवि का तर्क था की बिना मेहनत के पैसा देना लोगों को आलसी व निक्क्मा बना देगा। अपात्र लोग भी अपना नाम योजना में जुड़वा कर गलत तरीकों से लाभ लेने में सफल हो जावेगे। जब की मनरेगा के मेहनत के काम को मांगने केवल जरूरतमंद ही आते है। इस में भुगतान काम के आधार पर किया जाता है ना कि दिन के आधार पर। इससे मेहनतकश व जरूरतमंद ही काम लेते है। लोगों में आत्मसम्मान व आत्मविश्वास भी बढ़ता है। यह बहस चल ही रही थी कि योजना के इंचार्ज जॉइंट सेक्रेटरी ने कहा की यह योजना संविधान में रोजगार की गारंटी के तहत दी जाती है, इस कारण यह योजना संविधान संशोधन के बिना बंद नहीं  हो सकती। इसलिए केवल इसके इम्प्लीमेंटेशन में सुधर किया जा सकता है। यह सुन कर  स्मिता को आगे  बहस करने में कोई रूचि न रही। उसका उत्साह खत्म हो गया और वह उदास हो गई। रवि ने इस बात को देखा लेकिन वह चुप रहा।  बैठक समाप्त हो गई और दोनों होटल वापिस आ गये। अधिकांश रास्ते में दोनों टैक्सी में चुप ही बने रहे।  

रात के खाने के लिए जब वह नीचे आये तो रवि ने देखा कि स्मिता अभी भी दुःखी नजर आ रही है। उसने यह बात जान कर स्मिता को कहा की खाना खाने के पहले क्यों न बार में चल कर एक - एक गिलास वाईन पी जाय। यह बात स्मिता को पसंद आई और दोनों बार में कोने की टेबिल पर आ कर बैठ गऐ। बार में रोशनी बहुत काम थी और अभी लोग भी अपेच्छाकृत कम थे। बार में शोरगुल न के बरावर था। स्मिता दीवाल की तरफ की कुर्सी पर बैठ कर मेनू कार्ड देखने लगी। उसने रवि से पूछा  ‘कौन सी वाइन लेगा।”

 रवि ने कहा “क्यों न आज सुला वाइन ट्राइ की जाय।”

 स्मिता ने इस ब्रांड का नाम नहीं सुना था, तो उसने पूछा  “यह कौन सी वाइन है?”

रवि ने बताया  “यह महराष्ट्र के नासिक में राजीव सावंत द्वारा शुरू किया गया ब्राण्ड है। यह भारत में बनाने बाली सबसे अच्छी वाइन बनाते है।”

  तब दोनों ने रेड वाइन का ऑर्डर किया। वेटर ने दो गिलास व रेड वाइन की बोतल ला कर टेबिल पर रखी। जैसे ही वह बोतल खोल कर सर्व करने को हुआ स्मिता ने उसके हाथ से बोतल ले कर रवि के गिलास में वाइन डाली, फिर खुद के गिलास में वाइन ले कर उसे गिलास में घुमाने  लगी। दोनों ने कम्पनी के बारे में बातें करना शुरू किया, लेकिन यह बातें कब अमेरिका से इण्डिया व प्रोफैशनल से पर्शनल हो गई पता ही ना चला।  

वाइन की बोतल ख़त्म हो रही थी, लेकिन बातें रोचक हो रही थी तो स्मिता ने बिना रवि से पूछे एक और बोतल का ऑर्डर किया। वह रवि की निजी ज़िंदगी के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाह रहीं थी। 

स्मिता ने पूछा "क्या उसने शादी की क्या ?"

 रवि ने कहा " अभी तक तो नहीं" 

जब हिम्मत कर रवि ने यहीं प्रतिप्रश्न किया तो स्मिता ने बताया की उसने कालेज के दिनों  के साथी मार्टिन से शादी की थी। शादी के कुछ दिन बात मार्टिन को साऊथ अफ्रीका अपने पेरेन्ट के पास जाना पड़ा और वह अमरीका में ही रुकी रही। अभी दो वर्ष पहले दोनों ने आपसी सहमति से तलाक ले लिया है। मार्टिन अब वही रह रहा है। अब दोनों में कोई सम्पर्क भी नहीं रहा। वह तीन साल से अकेली अपने माता पिता के साथ यही अमेरिका में रहती है। उसका एक छोटा भाई है जो उसकी गर्ल फ्रेंड के साथ अलग रहता है।  

दोनों वाइन खत्म कर खाने के लिए डायनिंग रूम में आ गये। अधिक पी लेने के कारण स्मिता को सहारा दे कर रवि टेबिल तक लाया। आज पहली बार रवि ने स्मिता को हाथों से छूआ था, दोनों के शरीर में करंट दौड़ गया।  टेबिल पर बैठ कर स्मिता ने आज रवि की पसंद की डिश आर्डर की। दोनों खाना खा कर उठे तो स्मिता फिर लड़खड़ा गई तब रवि ने उसे सहारा दे कर लिफ्ट से उसके कमरे तक ले गया। स्मिता ने डिजिटल की से कमरा खोलने की कोशिश की । लेकिन कमरा नहीं खुला।  तब रवि ने एक हाथ से उसे पकड़ा व दूसरे हाथ में उसकी की ले कर कमरा खोला। उसे सहारा दे कर बिस्तर तक ले गया।  स्मिता लगातार अपनी कहानी बता रही थी। तो रवि ने उसे बिस्तर पर लिटा कर कुर्सी पर, बिस्तर के पास बैठ गया। बाते करते करते स्मिता बिस्तर पर वह कुर्सी पर सो गए। सुबह जब स्मिता उठी तो उसे रात की कुछ - कुछ बाते ही याद आ रही थी। रवि को उसने जगाया तो रवि माफ़ी मांगता हुआ अपने कमरे में चला गया, जो स्मिता के कमरे के सामने ही था। 

 व्यक्ति का जीवन कितना जटिल है। इसमें अनेक परते है और हर परत पर कुछ न कुछ घटता रहता है।  व्यक्ति ऊपर से जैसा दीखता है अंदर से बैसा नहीं होता। अगर आप किसी के साथ रह रहे है तो भी आप उसके बारे में बहुत काम जान पाते है। कभी - कभी तो हम अपने साथ ही कितने अजनबी होते है पता नहीं होता। अभी तक ऐसा कोई यन्त्र नहीं बना जो व्यक्ति के विभिन्न तलो पर घटने बाली बातों का पता लगा सके।  रवि व स्मिता के साथ भी यही हो रहा था। क्योंकि इण्डिया से लौट कर दोनों लिव इन रिलेशन में एक साथ रहने लगे थे। स्मिता अपने माता पिता के आपर्टमेंट को छोड़ कर रवि के अपार्टमेंट में रहने आ गई थी। यहां दो कमरे थे एक रवि का तो दूसरा स्मिता का। किचिन, ड्राइंग कॉमन रूम थे। दोनों ने तय किया कि घर खर्च व आधा - आधा बाँट लेंगे। उन्होंने अपने संबन्धों की जानकारी कंपनी में दे दी थी। क्योंकि यह कंपनी की पॉलसी से जरुरी था।  

जैसे - जैसे दिन गुजरते गए दोनों एक दूसरे के अनछुए पहलूओ से परचित होने लगे। कि वे कितना भिन्न सोच रखते है।  कितना भिन्न महसूस करते तथा एक ही घटना पर कितनी भिन्न प्रतिकिया देते है। शुरू में सब कुछ बहुत रोमांटिक था, एक कहता तो दूसरा मन लेता था। लेकिन  धीरे - धीरे मत मतान्तर, पसंद नापसंद सामने आने लगी। रवि धीरे - धीरे अपने ऑफिस के कामों में ज्यादा व्यस्त हो कर  बक्त बिताने लगा। स्मिता भी घर से ज्यादा बाहर दोस्तों के साथ समय बिताती। अब वे कभी कभार केवल रात का खाना साथ खाते थे। कभी - कभी तो कौन सा खाना आर्डर करना, इसी बात पर बहस हो जाती। अंत में दोनों को लगने लगा था कि इस सम्बन्ध का अब और कुछ नहीं हो सकता। इसे आगे बढ़ाने या अगले स्तर पर ले जाने का कोई औचित्य नहीं बचा था। इस कारण  दोनों ने निश्चय किया कि वे फिर अलग - अगल रहेंगे। स्मिता अपना सामान ले कर अपने माँ पिताजी के पास चली गई। लेकिन उसका कुछ सामान अभी भी रवि के अपार्टमेंट में रह गया था। तो वह कभी - कभी फ़ोन कर कुछ - कुछ सामान लेने आती थी। लेकिन दोनों का व्यवहार एक दूसरे के प्रति इतना ठंडा हो गया था कि ऐसा लगता कि जैसे वे कभी मिले ही न हो। आमना - सामना होने पर वे एक दूसरे को उपेच्छा के भाव से ही देखते थे।  यह व्यवहार जानबूझ कर नहीं किया जा रहा था, वल्कि यहीं स्वाभाविक व्यवहार हो गया था।  

रवि को स्मिता का व्यवहार कभी - कभी बहुत परेशान कर देता था। ब्रेकअप के बाद उसे एक ही ऑफिस में काम करना अच्छा नहीं लगता था। रवि अपने रिलेशन को समझने की बहुत कोशिश करता। हमेशा से वह एक सामान्य ढंग से जीवन जीना चाहता था। वह जब देखता की स्मिता ऑफिस के दूसरे लड़कों से जब - जब हँस - हँस कर बातें करती या उनके साथ बाहर जाती तो उस के बर्दास्त से बाहर हो जाता। उसे हमेशा अपनी नाकामी का अहसास होता, कि वह एक रिश्ता ठीक से सम्हाल नहीं सका। यह रिजेक्शन उसके आत्मविश्वास को बहुत ठेस पहुँचता था। उसे हमेशा लगता की ऑफिस के लोग उसके बारे में ही बातें करते रहे है। यदि दो लोग आपस में हँस रहे होते तो उसे लगता जैसे वे उस पर ही हँस रहे है। इस हीन भावना से बाहर आने में उसे कई दिन लग जाते। इसका असर उसकी सेहत तथा काम पर बहुत बुरी तरह हो रहा था। धीरे - धीरे वह अवसादग्रस्त होने लगा था।  उसे रात - रात भर नींद नहीं आती और वह स्मिता के साथ बिताए दिन भूल ही नहीं पता। इस घर की हर वस्तु के साथ उसकी यादें जुड़ी है। दोनों ने उस के पसंद से ही अधिकांश चीजें खरीदी थी। जितना वह भूलने की कोशिश करता, उतना उन यादों के भॅवर में फसता चला जाता। वह ऑफिस के किसी भी काम पर ध्यान नहीं दे पा रहा था। उसे हर बात में अपनी कमी लगाती। वह अपने आप को कोसता रहता। इस कारण धीरे - धीरे उसका परफॉर्मेंस घटता गया और वह खूब छुट्टियां लेने लगा। 

इधर इण्डिया में उसका दोस्त अमन अपना एक स्टार्टअप शुरू कर रहा था। दोनों वीक एन्ड पर उसके बारे में ज़ूम काल या व्हाट्सएप्प पर बात करते थे। अमन बार - बार रवि को इण्डिया लोट कर स्टार्टअप ज्वाइन करने का बहुत आग्रह कर रहा था। लेकिन रवि अभी तक इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाया था कि नौकरी छोड़ कर वह स्टार्टअप ज्वाइन करे। अभी अमन के स्टार्टअप को कहीं से फंडिंग भी नहीं मिली थी। वह बूटस्ट्रैप ही कर रहा था। आज अमन ने फिर उसे ज़ूम काल किया। रवि वीक एंड होने से घर पर अकेला ही था। अब वह कही बाहर घूमने नहीं जाता था। अमन ने रवि को बहुत डिप्रेशेड देखा। वह बहुत बीमार लग रहा था। दाढ़ी बड़ी हुई थी, बाल बिखरे थे। कपड़े भी गंदे थे, शायद कल से कुछ न खाने से उसकी आवाज बहुत सुस्त लग रही थी। उसे स्मिता की कहानी पता थी। रवि उससे लगभग हर बात शेयर करता था। अमन ने उसे फिर से खूब समझाया कि “जिस तरह वह ऑफिस के कामों को ठीक से नहीं कर पा रहा है तो आज नहीं तो कल कम्पनी उस को टर्मिनेट कर देगी।  टर्मिनेशन के बाद यदि वह स्टार्टअप ज्वाइन करेगा तो उन्हें फण्डिंग मिलने में बहुत दिक्कत होगी। यदि वह अभी रिजाइन कर स्टार्टअप करने इण्डिया आता है तो उसकी वैल्यू बहुत होगी, जो आगे चल कर फण्डिंग उठाने में मददगार होगी। अमन अपनी वेंचर फण्ड की नौकरी छोड़ कर ही स्टार्टअप शुरू किया था।  इसलिए उसे पता था कि फण्डिंग कैसे मिलती है ? तथा किसको मिलती है?” 

अमन ने एक सोशल वेंचर स्टार्टअप ही शुरू किया था और वह जानता था कि यदि रवि अपनी कंसल्टेंट की जॉब छोड़ कर उसके स्टार्टअप को ज्वाइन करता है तो उसका अनुभव बहुत काम का होगा। रवि ग्रामीण विकास में गॉव, गरीब, रोजगार पर ही काम कर रहा था। अमन व रवि जब मैनेजमेंट कॉलेज में साथ थे तो वे इसी सेक्टर के प्रोजेक्ट किया करते थे। दोनों की रुचियाँ लगभग एक जैसी ही थी। वे हॉस्टल में साथ ही रहते थे।  तभी दोनों ने निश्चय किया था कि वे प्लेसमेंट से नौकरी ले कर कुछ साल एजुकेशन लोन चुकाने के लिए काम करेंगे, फिर अपना स्टार्टअप शुरू करेंगे। इसके बाद रवि अमेरिका की एक कम्पनी में कंसल्टेंट ज्वाइन किया था तथा अमन ने अमेरिका की ही वेंचर फर्म में इन्वेस्टमेंट मैनेजर के पद पर ज्वाइन किया था, जो इम्पैक्ट फण्डिंग का काम  बेंगलोर, इण्डिया से करती थी। अब अपने प्रॉमिस को पूरा करने का समय आ गया था। रवि अमन के तर्कों से सहमत था।  उसने साथ काम करने का निर्णय कर लिया। वह रिजाइन कर बेंगलोर, इण्डिया आ गया। 

उन दोनों ने सोशल वेंचर स्टार्टअप करने का ही निश्चय किया था। लेकिन उन्हें बहुत स्पष्ट आइडिया नहीं था, गॉव, गरीबी व बेरोजगारी की समस्या तो पता थी लेकिन यह पता था कि शुरू कहाँ से कैसे करना है? कालेज में प्रोजेक्ट करते करते दोनों को यह पता था की गॉव की समस्याओं पर यदि काम करना है तो खेती में अपार समस्याऐं है। उन्होंने एग्रीकल्चर सेक्टर पर बहुत रिसर्च कर खूब  डेटा इकट्ठा करना शुरू किया था। रवि अमन के साथ ही रह रहा था ताकि दोनों स्टार्टअप की रणनीति साथ - साथ डिस्कशन कर बना सके। इण्डिया के एग्रीकल्चर सेक्टर के डेटा से उन्हें पता चला की मध्य प्रदेश देश के अन्य राज्यों की तुलना में अधिक तेजी से विकास कर रहा है। यहाँ की कृषि विकास दर विगत वर्षो में बीस प्रतिशत ईयर ऑन ईयर है। इस राज्य को भारत सरकार द्वारा कृषि कर्मण अवार्ड भी निरंतर दिया जा रहा है। तो उन दोनों ने मध्य प्रदेश से अपना काम शुरू करने का निश्चय किया और वे बेंगलोर छोड़ कर इंदौर आ गए। इंदौर शहर देश का सबसे स्वच्छ शहर है तथा यह मध्य प्रदेश का व्यापारिक शहर भी है। एग्रीकल्चर सेक्टर की सभी कंपनियों के कार्यालय इंदौर में ही स्थित है।  हालांकि दोनों के लिए इंदौर शहर नया नहीं था, दोनों ने आईआईएम इंदौर से ही अपना एम बी ए पूरा किया था। तब वे हॉस्टल में रहते थे। उन दिनों कैम्पस नया - नया बन रहा था तो कॉलेज ने सिल्वर स्प्रिंग्स फेज वन में फ्लेट किराये पर ले कर स्टुडेंट्स को वहां रखा था। कॉलेज, लाने ले जाने के लिए बस भेजता था। इस लिए इंदौर के कुछ लोगों से उनका परिचय भी था।  

हालांकि ग्रामीण क्षेत्र की हर समस्या उन्हें स्टार्टअप शुरू करने के लिए उपयुक्त लगती, लेकिन जब वे बजट, प्रोजेक्शन, प्रॉफिट व लॉस के गणना कर बैलेंस शीट बनाते प्रोजेक्ट घाटे में चला जाता।  क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में जनसख्यां दूर - दूर निवास करती तथा एक जगह से दूसरी जगह की दूरी बहुत ज्यादा है।  इसी कारण ज्यादातर स्टार्टअप्स शहरी समस्याओं पर काम करते है। क्योंकि वहां जनसंख्या का धनत्व अधिक होता है। दूसरा कारण टेक्नोलॉजी का एडॉप्शन शहरी क्षेत्रों में ज्यादा है तथा लॉजिस्टिक के लिए सुविधाएँ आसानी से उपलब्ध है।  लेकिन इन दोनों ने निश्चय किया कि वे ग्रामीण क्षेत्र में ही काम शुरू करेगे, चाहे काम छोटा ही क्यों न हो। एक दिन अमन बंगाली चौराहे के सोमवार को लगने वाले साप्ताहिक बाजार में सब्जियाँ खरीदने गया।  वहां उसने देखा कि बहुत छोटे - छोटे दुकानदार जमीन पर बैठ कर या हाथ ठेले पर सामान बेच रहे है। लेकिन बाजार में सबसे ज्यादा सब्जी की दुकानें थी। उसने नोटिस किया कि ज्यादातर दुकानें महिलाओं ने सम्हाली हुई है। उसकी उत्सुकता इन दुकानदारों में बढ़ती गई। तो एक दुकान पर कम भीड़ देख कर उसके पास गया। उसने उससे कद्दू, पालक, लौकी व टमाटर ख़रीदे। उसे आलू भी चाहिए थे, पर उस दुकानदार महिला के पास आलू नहीं थे। पूछने पर उसने बताया की वह पास के गांव तिल्लोेर से आई है। ये सब्जियां उसने उसके खेत में ही उगाई है। लेकिन अभी आलू का सीजन नहीं है, इसलिए वह आलू नहीं बेच रहीं है। उसने बताया की अभी जो आलू  दुकानों पर है वे कोल्ड स्टोरेज से लाये है। बड़े किसान व व्यापारी आलू खुदने पर कोल्ड स्टोरेज में रख देते है। जैसे - जैसे सीज़न खतम होता तब ये लोग कोल्ड स्टोरेज से आलू निकाल कर मण्डी में आढ़त के माध्यम से बड़े दुकानदारों को बेचते तथा बड़े दुकानदार छोटे दुकानदारों को देते, वहां से हाथ ठेले वाले हाट में बेचने के लिए लाते है।  

अमन को यह सप्लाई चैन बहुत मजेदार लगी। जब वह वापिस आया तो उसने यह अनुभव रवि को बताया। अमन को तो मानो भगवान का वरदान ही मिल गया। रवि को भी लगा की बस यहीं हमारा बिजिनेस आईडिया है। अब से हम इस सप्लाई चैन को समझने पर काम करेंगे, कि कैसे किसान के खेत से सब्जियां किन - किन हाथों से गुजर कर हमारी थाली तक पहुँचती है? कौन - कौन किरदार क्या - क्या रोल अदा करता है? तथा उसकी लागत क्या है? कितनी सब्जियां खेत से चल कर रास्ते में दम तोड़ देती है? 

अब दोनों सुबह चार बजे उठ कर शहर की सबसे बड़ी  चौइथराम सब्जी मण्डी में नियमित रूप से जाने लगे। धीरे - धीरे उन्हें समझ आया की हिंदी में यह मुहावरा "क्या सब्जी मण्डी लगा राखी है " क्यों बना होगा। जब कोई किसी की बात सुनने को तैयार न हो और सब अपनी - अपनी बात बोलते रहे और किसी को कुछ समझ न आये तो यह मुहाबरा ही उपयोग में आता है। यह सप्लाई चैन एक रिले रेस जैसी है जिसमें हर खिलाड़ी बिना ज्यादा सोचे समझे अपने हिस्से की दूरी तैं कर, अपने हाथ का बेटन  अगले खिलाड़ी को पकड़ा देता है। किसान का काम है सब्जियां ऊगा कर मण्डी तक लाना, आढ़तिया का काम है बोली लगाना, थोक व्यापारी का काम है बोली लगा कर माल खरीदना, छोटे दुकानदार का काम है माल थोक दुकान से ले कर ठेले बालों, फेरी लगाने बालों, सप्ताहिक हाट के छोटे दुकानदारों को बेचना, ठेले बालों, फेरी लगाने बालों, सप्ताहिक हाट के छोटे दुकानदारों का काम है ग्राहक को  बेचना। ग्राहक इन से सब्जियां ले कर घर लाते है। सामान्यतः इस सप्लाई चैन में पांच से छह लोग होते है। कोई ग्रेडिंग के मानक नहीं, कोई स्थाई परिवहन का साधन नहीं, कोई निर्धारित  पैकिंग मटेरियल नहीं, कोई स्टैण्डर्ड बाजार का मूल्य नहीं।  सप्लाई चैन का खर्च व हर एक किरदार का प्रॉफिट घटा कर किसान को मूल्य मिलता है,  ऊपर से मांग एवं सप्लाई तथा मौसम की मार अलग। 

हालांकि मंडियों का संचालन सरकार द्वारा किया जाता है। जिसके लिए मंडियों के कानून तथा नियम निर्धारित है, लेकिन धरातल पर मंडियों का संचालन परम्परा के अनुरूप अपने हिसाब से ही हो रहा है। यह सिस्टम पिछले सत्तर सालों से ऐसे ही चल रहा है। किसी ने कभी इसको सुधारने की तरफ ध्यान नहीं दिया। रवि ने निश्चय किया कि वह अपने स्टार्टअप के माध्यम से किसानों की इस समस्या का समाधान निकलेगा। दोनों ने आस पास के गॉवों का भ्रमण करना प्रारभ्म किया। किसानों से बात कर उनकी समस्याओं को समझा। किसानों ने कहा की यदि उन्हें गांव में मण्डी से अच्छे भाव मिलेंगे तो वो अपनी सब्जियां उन्हें बेच सकते है। फिर उन्होंने सब्जियों के उपभोक्ताओं  को समझना शुरू किया। उन्होंने इन्हें  चार श्रेणियों में बाटा। पहली श्रेणी है व्यक्तिगत उपभोक्ता जो अपने घरों के लिए सब्जियां खरीदते है। इनकी खरीदी की मात्रा काम होती है लेकिन इनकी संख्या बहुत अधिक है। ये लोग अच्छी क्वालिटी बहुत काम दाम मैं चाहते है। यह नकद खरीदी करते है। दूसरे नम्बर पर आते है होटल, रेस्टोरेन्ट, हॉस्टल, हॉस्पिटल आदि जिसे संक्षेप में ‘होरेका’ कहते है। इन्हें क्वालिटी की जगह सस्ती कीमत में सामान लगता है। ये बड़ी मात्रा में सब्जियां प्रतिदिन खरीदते है लेकिन इन की संख्या पहली श्रेणी से काम है। यह साप्ताहिक भुगतान करते है। तीसरे स्थान पर है प्रसंस्करण करने वाले। ये बहुत बड़ी मात्रा में खरीद करते है  लेकिन इनकी संख्या दूसरी श्रेणी से भी कम होती है। इन्हें भी साल भर क्वालिटी की जगह सस्ती कीमत में सामान लगता है। यह मासिक भुगतान करते है, तथा चौथी श्रेणी में है निर्यातक व मार्डन रिटेल सप्लाई चैन के स्टार्टअप्स तथा ई -कामर्स एवं ऑनलाइन क्विक स्पलाई स्टार्टअप्स । इन्हे अच्छी क्वालिटी सा सामान बहुत सस्ती कीमत में चाहिए होता है। इनकी संख्या धीरे - धीरे बढ़ रही है। लेकिन यह तत्काल भुगतान करते है तथा कुछ पन्द्रह दिनों में भुगतान करते है।  

अब समस्या थी कि किस श्रेणी के ग्राहकों के साथ काम शुरू किया जाये। इन्हें महसूस हुआ कि  हालांकि घरेलू उपभोक्ता सबसे ज्यादा है लेकिन सीधे किसानों से मॉल ले कर उन्हें सप्लाई करना बहुत महॅगा है और इस सिगमेंट में स्पर्द्धा सबसे अधिक है। क्योंकि किसान बिना ग्रेड किये माल बेचते है। तो किसानों से खरीद कर गोदाम में मॉल लाना फिर ग्रेड करना फिर ग्राहकों को देना बहुत खर्चीला होता है। मार्जिन सबसे काम है इस कारण अभी इस सिगमेंट में काम नहीं किया जा सकता है। इसलिए रवि व अमन ने दूसरी तथा चौथी श्रेणी के ग्राहकों से काम शुरू करने का निर्णय लिया। यहाँ उन्हें लगा कि शुरू में यदि वह मण्डी के किसी ऐसे व्यापारी के साथ काम शुरू करे जिनके पास ग्रेडर हो तो कम खर्च में काम शुरू कर सकते है। उन्हें मुकेश नाम के व्यापारी मिले जो उनके साथ काम करने को सहमत हो गए।

 इस तरह इन लोगों का काम शुरू हो गया। शुरू में दोनों ही थे तो खुद ग्राहक से बात कर डील करते। मुकेश से सामान लेते, खुद बिल बनाते व सामग्री ट्रंसपोर्ट से डिस्पैच करते थे। शुरू - शुरू में दिन में दो - तीन आर्डर आते थे तो वह पूर्ति कर देते थे। बीच - बीच में वह गांव जाते तथा मण्डी में किसानों से बात करते हुए उन्हें समझ आया कि किसानों के पास अलग - अलग क्वालिटी का बहुत कम मात्रा में सब्जियां होती है, फिर किसानों की कीमतें उनकी शर्ते भी अलग - अलग होने से किसानों से सीधे खरीद कर बेचना कितना पेचीदा है? काम बढ़ाने के लिए आवश्यक था की वे सीधे मण्डी में खरीद करे, उनके पास उनका गोदाम, ग्रेडर तथा पैंकिंग यूनिट हो तो वे आसानी से काम बड़ा सकते है। दोनों ने अपनी बचत का पैसा लगा कर यह इंफ्रास्ट्रक्चर बनाया और काफी खर्च कर लिया। जब उन्होंने ग्राहक बढ़ाने की कोशिश की तो धीरे - धीरे उन्हें अहसास हुआ कि ग्राहकों की प्रतिक्रिया उतनी उत्साह जनक नहीं थी जितना उन्होंने सोचा था। इस बीच उन्होंने दो कर्मचारी भी नियुक्त कर लिए थे। लेकिन ग्राहक अग्रिम भुगतान देने को तैयार नहीं होते थे और उधार सामग्री सप्लाई करने के लिए उनके पास पैसे नहीं होते थे। पुरानी उधारी भी फंस गई थी। तो कई दिन वे लोग दिन भर बिना काम के ही बैठे रहते। जो समय - समय पर मजदूर लगते उन के भुगतान की भी समस्या हो जाती थी। मजदूरों को तो तत्काल भुगतान देना होता क्योंकि वे तो रोज कुआँ खोद कर पानी पीने वालों में से होते है। कम्पनी के बैंक खाते  से पैसे ऐसे निकल रहे थे जैसे फूटे घड़े से पानी।  

वे दोनों दूसरों की समस्याऐं  सुलझाने निकले थे और अब खुद समस्याग्रस्त हो गए थे। दोनों प्रतिदिन प्रोजेक्शन, प्रेजेंटेशन व पिच डेक बना कर इन्वेस्टर्स को ईमेल भेजते जो पूर्व परचित थे उन्हें फोन करते लेकिन बात नहीं बन रहीं थी। खर्चे रुकने का नाम नहीं ले रहे थे और बिजनिस बढ़ नहीं रहा था।  दोनों ने अपने खर्चे कम कर लिए थे।  पुरानी बचत के पैसों से अभी तक काम चल रहा था। दोनों तनाव में रहते। चिढ़ चिड़े हो गए थे। आपस में छोटी - छोटी बातों पर झगड़ा हो जाता था। कभी - कभी दोनों एक जगह घंटो बिना बात किया बैठे रहते थे। धीरे - धीरे मजदूरों ने काम पर आना बंद कर दिया था। जो कुछ ऑर्डर्स आते उन्हें सप्लाई देना मुश्किल हो रहा था। बिजली का बिल न दे पाने के कारण बिजली काट दी गई थी। दोनों को लगता जैसे समय उनके हाथों से रेत की तरह फिसला जा रहा है। दोनों को रात में नींद नहीं आती थी। मन में हमेशा निराशा घिरी रहती। कभी - कभी दोनों बात करते की क्या झंझट मोल ले ली? अपने हाल किसे से कह भी तो नहीं सकते थे। आँखों की नीचे काले घेरे बनना शुरू हो गए थे। जहां - जहां से पैसा मिलने की उम्मीद थी वह दिन प्रतिदिन समाप्त होती जाती थी। तनाव उनके चेहरों पर साफ दिखता था। दोनों के परिवार इन बातों से बेखबर थे तो वहां से शादी कर लेने का दवाब था। दोनों ने यह धंधा बेचने की कोशिश की लेकिन वह भी संभव नहीं दिख रहा था। 

रवि बहुत दिनों से उज्जैन महाकाल के दर्शन करने जाना चाहता था लेकिन धंधे की परेशानियों के कारण वह जा नहीं पा रहा था। एक दिन जब वह दोनों चाय पी रहे थे तो रवि ने अमन से उज्जैन चलने के लिए पूछा लेकिन उस का मन कही जाने का नहीं था तो रवि अपनी मोटर साइकिल से रात उज्जैन आ गया था। वह क्षिप्रा नदी के किनारे बने रुद्राक्ष होटल में रुका था। कई दिनों से वह अमन के साथ रह रहा था। स्टार्टअप शुरू करने की भागमभाग में उसे कभी अकेलापन महसूस नहीं हुआ था। उसने उज्जैन आ कर अच्छा किया था क्योंकि जब से वह अमेरिका से जॉब छोड़ कर आया तब वह सीधा अमन के साथ ही रहा है। इस बीच वह अक्सर अपने मन की बाते अमन के साथ शेयर कर लिया करता था। आज अकेला होने से उसका मन फिर से पुरानी यादों में खो गया। उसे उसके पिता जी याद आये। जो अब इस दुनियाँ में नहीं रहे। जब वह अमेरिका में था तब कोविड के समय उनकी मौत हो गई और वह आ भी नहीं पाया था। फिर तो यादों का सिलसिला चल निकला। उसे अपने जीवन की सब असफलता याद आने लगी। जब उसके पिता जी थे तब वे कहते की तुम जीवन में कुछ कर नहीं सकते। जब स्मिता उसके साथ रह रही थी तो अक्सर वह भी यही वाक्य जाने या अनजाने में दुहराती थी। जब स्मिता का ख्याल मन में आया तो उसे याद आया की जब वो दोनों दिल्ली में प्रोजेक्ट के लिए आये थे व उन्होंने डेटिंग शुरू ही की थी तो वह दोनों फील्ड विजिट पर उज्जैन ही आये थे। उन्होंने अपनी पहली रात क्षिप्रा होटल में ही बिताई थी। उस शाम वे दोनों घंटों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर राम घाट पर धूमते रहे थे। तब वह दोनों कितने उत्साहित थे की वह अपना रिलेशन महाकाल की नगरी से शुरू कर रहे है। आज जब वह इंदौर से उज्जैन अपनी मोटर साइकिल से आ रहा था तो यकायक बहुत तेज पानी बरसने लगा था तो वह निकट के होटल में आ गया था। इसलिए आज वह रुद्राक्ष में ही रुक गया था।

 शाम का खाना जल्दी खा कर वह सोने चला गया। रात को कब पानी बरसना बंद हो गया उसे पता न चला। रात भर स्मिता के साथ बिताए दिन याद आते रहे। सुबह जब उसकी नींद खुली तब घड़ी में तीन बज रहे थे। अब उसकी आँखों  में नींद न थी। बाहर पानी रुक गया था। उसे ख्याल आया की क्यों न वह उन जगहों पर जाय जहॉ - जहॉ वह स्मिता के साथ गया था। तो वह मोटर साइकिल से रामघाट पहुंचा। लेकिन क्षिप्रा उफान पर होने के कारण वह ऊपर दीवाल पर खड़ा हो गया। 

आसमान में पूर्णिमा का चाँद बादलों  में छिपा था। हवा तेज चल रही थी। बादल हवा के साथ आसमान में वह रहे थे और नीचे क्षिप्रा वह रही थी। बीच बीच में जब चाँद बादलों के छटने से निकलता तो चांदनी फ़ैल जाती। आज पूर्णिमा की रात थी। उसने चांदनी में सामने दत्त अखाड़े का त्रिशूल चमकता हुआ देखा। यह बहुत विशाल त्रिशूल है। वह एक टक नदी के उस पार आश्रम को निहार रहा था। उसे अपने जीवन की नाक़ामियाँ फिर याद हो आई।  आँखो में स्मिता का चेहरा घूम गया। उसे लगा कि इन नाकामियो से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है की वह क्षिप्रा में जल समाधि ले ले। वह मूर्क्षित जैसा घाट की दीवाल पर चढ़ गया। जैसे ही वह नदी में कूदने को हुआ उसे सामने नदी की धारा पर एक मानव शरीर चलता हुआ दिखा।  सहसा उसे भरोसा न हुआ की कोई कैसे इतनी उफनती नदी की धार पर चल सकता है। उनके शरीर पर एक कोपीन मात्र वस्त्र है तथा उनकी जटाये घुटनों के नीचे तक लटक रही है। उनकी बलिष्ठ बाहें आगे पीछे चलने के साथ हिल रही है।  चांदनी में साधु का कला वर्ण चमक रहा है। उनके नेत्रों से मानो अंगारे निकल रहे हो। वह रवि की मनः स्थिति भांप गये थे और वह उसके नदी में कूदने के पहले उस तक पहुंचने के लिए तेज - तेज कदम बढ़ा रहे थे। लेकिन ना चाहते हुए भी रवि ने यकायक नदी में छलांग लगा दी। लेकिन वह पानी में नहीं गिरा। उसका शरीर योगी की बाहों में झूल गया। योगी ने तेजी से उसे पकड़ लिया था। रवि इस आप्रत्याशित घटना से हतप्रभ हो उठा। साधु उसे फिर किनारे की दीवार तक लाये और उसे उठा कर ख़ुद दीवार पर चढ़ गये। उन्होंने बहुत स्नेह से उससे बोले "बच्चा ! अभी तुम्हारा समय नहीं आया है। " 

रवि ने अपनी आँखें  मीढ़तें  हुए कहा “महाराज ! आप ने मुझ अभागे को क्यों बचाया ?"

"अलख निरंजन" साधु ने जयकार किया। "बच्चा ईश्वर ने किसी को अभागा नहीं बनाया।" 

रवि को कुछ समझ नहीं आ रहा था। यह स्वप्न है या हकीकत में उसके साथ यह हो रहा है। वह कुछ बोलना चाह रहा था।तो साधु ने उसके मुँह पर उँगली रख दी। वह चुप रह गया। उसकी आँखे प्रश्नवाचक रूप में खुली थीं, कि साधु ने कहा "आदेश"

रवि विष्मृत था। चाँद बादलों के पीछे छुप गया था। साधु ने कहा "सुबह भर्तहरि की गुफा पर आना वहीं तुम्हें तुम्हारे सभी सवालों के जबाब मिल जायगे।"

उसने रवि को दीवार पर खड़ा किया। जब रवि ने चेहरा उठा कर देखा तो साधु गायब हो गया था। रवि ने चारों तरफ देखा, बीच - बीच में चांदनी की रोशनी में देखा कोई नहीं था। रवि वही दिवार पर बैठ गया। उसके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था। उस ने उसके स्वप्न  को हकीकत में बदलते देखा। लेकिन लग अभी स्वप्न ही रहा था। जब वह उठा तो देखा एक पुजारी उसे उठा रहा है। शायद उसे नींद आ गई थी। सुबह हो गई थी और लोग घाट पर नदी देखने आ रहे थे। पुजारी ने पूछा की "भाई दिवार पर क्यों सो रहे हो? नदी में गिर जाओगे।" 

रवि के चेहरे पर हंसी आ गई। वह कुछ नहीं बोला। उसने पुजारी से पूछा कि "भर्तहरि गुफा कहा है ?" 

पुजारी ने बताया कि "यदि आप मंगलनाथ मंदिर के पुल से नदी के उस तरफ जायगे तो सबसे अंत में नदी के किनारे भर्तहरि गुफा है।'

रवि ने पुजारी का धन्यवाद किया और बिना वक्त गवाए मोटर साइकिल स्टार्ट कर पुजारी के बताए मार्ग पर चल दिया। उसने ऊपर दुकान से फूल, पूजा का सामान व प्रसाद लिया व गुफा की ओर चलने बाला था की उसने दुकानदार से गुफा के बारे में पूछा " भईया! यह किसका मंदिर है ?" 

दुकानदार ने गुफा की ओर सिर झुका कर नमस्कार किया और बोले "यह एक ऐसी गुफा जंहा राजा भर्तहरि ने 12 साल तक तपस्या की थी। गुफा में तपस्या से इंद्र का सिंहासन डोल गया था। इंद्र ने वज्र प्रहार किया था, जिसके निशान आज भी मौजूद हैं, ऐसा दावा है कि इसी गुफा से राजा भर्तृहरि चारधाम के लिए जाया करते थे। इसी प्रकार कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भर्तहरि  के पंजे का निशान बन गया। यह निशान आज भी भर्तहरि  की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है। यह पंजे का निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजा भर्तहरि  की कद-काठी कितनी विशालकाय रही होगी।" 

दुकानदार को नमस्कार कर जब वह गुफा के द्वार पर गया। वहां उसने साथ लाये फूल चढ़ाये, प्रसाद लगाया, शीश नवाया। तभी उसके पास एक लड़का आया। रवि को लगा की प्रसाद लेने आया है। उनसे उसे प्रसाद दिया। वह लड़का  उसे गोरखनाथ के आश्रम ले गया। वहां उसकी मुलाकात एक योगी से हुई। जो आश्रम के महंत है। उन्होंने रवि को देख कर बैठने को एक आसन दिया। कमरे में रोशनी काम थी। रवि के बैठते ही योगी ने जोर से कहा "अलख निरंजन" "आदेश" रवि की समझ में कुछ नहीं आया। रवि के मन में सवालों का सैलाव उमड़ रहा था।  योगी ने कहा "बच्चा! तुम खुश किष्मत हो जो गुरु ने तुम्हें बचा लिया।" 

बातें रवि की बर्दास्त करने की सीमा से बाहर हो रही थी। उसे कुछ सिर पैर समझ नहीं आ रहा था। रवि ने योगी को ध्यान से देखा उसकी उम्र लगभग रवि जीतनी ही लगी। समवयस्क जानकर रवि को अच्छा लगा कि इनसे बात की जा सकती है। उन्होंने गेरुआ वस्त्र धारण किये थे, कानों में बड़े बड़े कुण्डल लटक रहे थे। उनकी बड़ी - बड़ी आँखे चमकदार थी। चेहरे पर अपूर्व शांति थी तथा ओठों पर मंद - मंद मुस्कान। ऐसे व्यक्तित्व से उसकी मुलाकात शायद कभी नहीं हुई थी। आश्रम के बाहर गाये चारा चर रहीं थी। कमरे में काला कुत्ता योगी के पास बैठा था जो थोड़ा डरावना लग रहा था। अन्दर भक्तगण भजन गए रहे है -

“नगर उज्जैन के राजा भर्तहरि ,

हो घोड़े असवार,

एक दिन राजा दूर जंगल में,

खेलन गए शिकार,

संग के साथी बिछड गए सब,

राजा भए लाचार,

किस्मत ने जब करवट बदली,

छूटा दिए घर बार,

होनहार टाली ना टले,

समझें ना दुनियाँ दीवानी,

राज पाट तज बन गया जोगी,

आ काई मन में ठानी,

राणी राजा भर्तहरि से अरज करे।…….”

रवि ने अपना धैर्य छोड़ते  हुए पूछा "महराज ! मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा, मेरी मति काम नहीं कर रही। रात से इतनी धटनाऐं मेरे साथ हो चुकी है कि आप ही कृपा कर बताऐ कि यह सब क्या है ?" योगी ने बताया की जब आप नदी में कूद रहे तो भर्तहरि महाराज ने आप को बचाया। यहाँ आने की प्रेरणा उन्हीं ने आप को दी तथा उन्हीं ने मुझे "आदेश " दिया। 

योगी ने पूछा कि "उज्जैन कब आये और घाट पर क्या कर रहे थे ?" 

रवि बोला “कल शाम  जब वह इंदौर से उज्जैन अपनी मोटर साइकिल से आ रहा था तो यकायक बहुत तेज पानी बरसने लगा था तो वह निकट के होटल में आ गया था। इसलिए वह रुद्राक्ष में ही रुक गया था। शाम का खाना जल्दी खा कर वह सोने चला गया। रात को कब पानी बरसना बंद हो गया उसे पता न चला। रात भर स्मिता के साथ बिताए दिन याद आते रहे। सुबह जब उसकी नींद खुली तब घड़ी में तीन बज रहे थे। अब उसकी आँखों  में नींद न थी। बाहर पानी रुक गया था। उसे ख्याल आया की क्यों न वह उन जगहों पर जाय जहॉ - जहॉ वह स्मिता के साथ गया था। तो वह मोटर साइकिल से रामघाट पहुंचा। लेकिन क्षिप्रा उफान पर होने के कारण वह ऊपर दीवाल पर खड़ा हो गया। 

"यह स्मिता कौन है ?" योगी ने अपने आसान पर सीधा बैठते हुए पूछा। 

स्मिता का ख्याल मन में आया तो उसे याद आया, रवि ने कहा “जब वो दोनों दिल्ली में प्रोजेक्ट के लिए आये थे व उन्होंने डेटिंग शुरू ही की थी तो वह दोनों उज्जैन फील्ड विजिट पर आये थे। उन्होंने अपनी पहली रात क्षिप्रा होटल में ही बिताई थी। उस शाम वे दोनों घंटों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर राम घाट पर धूमते रहे थे। तब वह दोनों कितने उत्साहित थे की वह अपना रिलेशन महाकाल की नगरी से शुरू कर रहे है।”

योगी महाराज ने जैसे ही अगला सवाल पूछने के लिए मुँह खोल रहे थे रवि यकायक बोल पड़ा, रवि ने फिर पूछा  "कालजयी उज्जैनी का रहस्य क्या है ? “महाराज भर्तहरि महाराज कौन थे ?"


भर्तहरि

भाग  दो 

नाथ आश्रम के महंत ने रवि को राजा भर्तहरि तथा उज्जैन के बारे में बताना शुरू किया। एक रात महाराज को नींद नहीं आ रही थी । वह पलंग पर लेटता फिर खिड़की तक जाता, उसे समझ नहीं आ रहा है कि नींद क्यों नहीं आ रहीं है। मन इतना अशांत क्यों है ? मन के अंदर विचार, बाहर विचार और विचारो की निरंतर शृंखला।  शरीर कांप रहा था लेकिन महाराज के महल की खिड़की से क्षिप्रा नदी के पार दूर टिमटिमाते दीपक तक जाती जो एक सन्यासी के आश्रम में जल रहा था और महाराज सोचता कि सन्यासी कितना सुखी है। रात पूर्णता निस्तब्ध थी और आसमान काला, केवल तारे टिमटिमा रहे थे। नीरव रात कितनी रहस्य मय होती है। केवल दूर से झींगुरों  की आवाज आ रही है व नदी तट पर जुगनू रह रह कर चमक रहे थे। कभी कभी सुदूर जंगल से कोई जानवर आवाज कर अपने साथियों को खतरे से आगाह करता या महल के नीचे गली में कुत्ते भौंकते या लड़ते आवाज कर देते जिससे महाराज  का ध्यान उधर चला जाता और विचार तन्द्रा टूट जाती। वह अक्सर सोचता की राजा बन कर मुझे क्या ही मिला है।

वह कल्पना करता की सन्यासी कितना सुखी होगा खूब गहरी नींद सो रहा होगा। यह सन्यासी नया था,  महाराज ने  उसे कुछ दिन पहले ही भिक्षा लेते महल के नीचे खिड़की से देखा था। जब कभी चिंताओं के कारण उसे नींद नहीं आती तो वह दूर नदी के उस पार  टीले पर बने आश्रम के दीपक को अक्सर देखा करता। सन्यासी की तरफ उस का आकर्षण बढ़ता जा रहा था। 

महाराज को गर्व है कि वह उस उज्जयिनी राज्य के राजा है  जिसको स्कन्द पुराण के अनुसार त्रिपुर राक्षस का वध करके भगवान शंकर ने बसाया था। महाराज ने पड़ा था कि  स्कन्द पुराण के अवंति खंड के अनुसार  सनकादि ॠषियों द्वारा दिया उज्जयिनी नाम दिया गया है। महाकाल की उज्जैयिनी कालजयी नगरी है। हमारे देस में सबसे प्रचीन नगरों को सप्त पूरी के रूप में जाना जाता हैं, इनमें अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, बनारस, कांचीपुरम, उज्जैन व द्वारका नगर हैं। वैदिक साहित्य में समय समय पर नगर को अनेक नामों से पुकारा गया। पर सृष्टि के आरम्भ से उज्जैन का अस्तित्व मिलता है। नगर को सप्त पुरियों में स्थान दिया गया तथा कुम्भ मेले का आयोजन सिंहस्थ के रूप में हर बारह साल में क्षिप्रा के किनारे किया जाता है। इन सब के कारण उज्जैन को मोक्षदायनी  मानते है। मोक्ष की अवधारणा सनातन धर्म का मूल आधार है। 

उज्जैन को समय के विभिन्न कालो में भिन्न भिन्न नामों  का उल्लेख मिलता है जैसे अवन्ति, उज्जयिनी, कनकश्रृंगा, पध्मावती, अमरावती, कुशस्थली, कामुद्वति, भोगवती, विशाला व प्रतिकल्पा आदि। इस  समय  भारत में जो सोलह जनपद थे उनमें अवंति जनपद भी एक था। अवंति उत्तर एवं दक्षिण इन दो भागों में विभक्त होकर उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन थी तथा दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति थी। 

महाराज के मन में आज विचारों की श्रृंखला चल निकली थी। उसने गुरु के आश्रम में इस शहर के इतिहास को पढ़ा था कि  पूर्व महाभारत में विद और अनुविंद उज्जयिनी के शासक थे, जो कुरुक्षेत्र के युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे। बौद्धकाल में यह एक विस्तृत राज्य के रूप में था, जिसमें उज्जयिनी एक बड़ी व्यापारिक मण्डी के रूप में विकसित थी। 

पाली साहित्यों के अनुसार यह नगरी राजा चंद्रप्रद्योत की राजधानी थी। यह राजा गौतम बुद्ध का समकालीन था। उसके तीन पुत्र तथा वासवदत्ता नामक एक पुत्री थी। वासवदत्ता ही बाद में कौशल सम्राट उदयन की प्रधान रानी हुई। धम्मपद की  टीका में इसका उल्लेख है। प्रद्योत ने धीरे धीरे अपना राज्य खूब बढ़ा लिया। दूसरे राजा उसके विस्तार से डरने लगे। लेकिन प्रद्योत की नजर पड़ोस के कौशांबी राज्य पर थी । जिसका राजा उदयन जितना विलासी था उतना ही वीर भी, उसके बारे में कहा जाता था कि वह वीणा बजाने और हाथी के शिकार में बहुत कुशल था । वीणा बजाकर हाथी पकड़ा करता था । उसकी इस कमजोरी को प्रद्योत ने अपना हथियार बनाया। अवंती और उदयन के राज्य वत्स की सीमा पर नकली हाथी छोड़ा गया, जिसने उदयन को लुभा लिया। दरअसल इस हाथी के अंदर हथियारबंद सिपाही थे। जैसे ही उदयन ने इस हाथी को पकड़ा, वैसे ही उसके अंदर बैठे सिपाहियों ने बाहर आकर उसे कैद कर लिया। महिनों उदयन उज्जैन की कैद में रहा। दण्डिन ने इसी आधार पर वासवदत्ता लिखी। प्रद्योत की बेटी का नाम वासवदत्ता था, जिसकी खूबसूरती और संगीतकला की चर्चाएं पौराणिक कथाओं में हुई है।  प्रद्योत ने कैदी राजा उदयन को अपनी बेटी को  वीणा सिखाने का काम दिया। वीणा सीखते - सिखाते दोनों में प्रेम हो गया। एक दिन हाथी पर वासवदत्ता को लेकर उदयन कौशांबी भाग गया। और वत्स राज्य फिर आजाद हो गया। 

फिर उज्जैन पर मगध के नन्दों का राज हुआ। जब चाणक्य और चंद्रगुप्त ने मिलकर नन्दों का संहार किया तो उज्जैन पर भी उसका अधिकार हो गया। चंद्रगुप्त ने उज्जैन को अपनी राजधानी बनाया. सम्राट अशोक उसका पोता था और प्रसिद्ध राजा होने से पहले वह उज्जैन का ही शासक रहा। उज्जैन दक्षिण के व्यापारिक पथ का बड़ा केंद्र था यह रास्ता श्रीवस्ती से विदिशा से उज्जैन या अवन्ति से महेश्वर या महिष्मति को भरुच या भृगु कच्छ के बंदरगाह द्रारा रोम तक को जोड़ता था। दक्षिण में उज्जैन से औरंगाबाद बड़ा व्यापारिक मार्ग भी जाता था। इस  जमाने में उज्जैन समुद्र से आने वाले माल और उत्तर से समुद्र की ओर जाने वाले माल की सबसे बड़ी मंडी बन गया। पूरे एशिया से लेकर यूरोप तक उज्जैन की ख्याति फैलने लगी। 

पृथ्वी तथा आकाश की सापेक्षता के सन्दर्भ में उज्जैन की स्थिति मध्य में होने के कारण इसे विश्व का नाभि स्थल माना गया। इसी कारण यहां समय या काल के अधिष्ठाता महाकाल के ज्योतिर्लिंग की स्थापना की गई। प्राचीन काल से ही  उज्जैन को केंद्र मान कर काल गणना की  जाती थी। उस समय के सभी पंचांग उज्जैन को केंद्र मन कर तैयार होते रहे है। 

महाकाल की आराधना वाम मार्ग से होने के कारण यह तांत्रिको का मुख्य केंद्र है। उज्जैन नगर को तंत्र शास्त्रों में मणिपुर केंद्र माना गया है।मणिपुर  चक्र को सिद्ध करने के कारण व्यक्ति की सृजन शक्ति बहुत बढ़ जाती है। इसी कारण आदि काल से उज्जैन विद्वानों, लेखकों, कवियों, गणतज्ञों, खगोलशास्त्रियों, ज्योतिष शास्त्री, चिंतक, साधकों, गायकों, कलाकारों का प्रमुख केंद्र बन गया। उज्जैन नगर का वास्तु शैव्य तांत्रिक आधार पर होने से यहाँ महाकाल, पार्वती, गणेश, कार्त्केय, कल भैरव, के अलावा गणकाएं,  मातृकाएं आदि शिव परिवार के मंदिर उस मान से बनाये गए। 

वैदिक कल गणना के अनुसार युग व हर युग के 84 कल्पों के प्रतीक के तौर पर 84 महादेव मंदिर बनाए गए। पृथ्वी के प्रतिनिधत्व के लिए सप्त सागर बनाए गए। यह सब तांत्रिक सिद्धांतों तथा खगोलीय गणनाओं को आधार मन कर स्थापित किये गए। इन सब के कारण उज्जैन को अनादि माना गया है।  इस लिए काल के अधिष्ठाता महाकाल का निवास देवताओं ने महाकाल वन में बनाया।

मेघदूत में महाकवि कालिदास ने उज्जयिनी का सुंदर वर्णन करते हुए कहा है कि जब स्वर्गीय जीवों को अपने पुण्य क्षीण होने की स्थिति में पृथ्वी पर आना पड़ा। तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने साथ स्वर्ग का एक खंड टुकड़ा भी ले चले। वही स्वर्गखंड उज्जयिनी है। आगे महाकवि ने लिखा है कि उज्जयिनी भारत का वह प्रदेश है जहां के वृद्धजन इतिहास प्रसिद्ध आधिपति राजा उदयन की प्रणय गाथा कहने में पूर्ण दक्ष है। जैन ग्रंथों के अनुसार राजा खादिरसार का शासन मगध में था। उनकी राजधानी उज्जैन थी। उनके शासन का समय 386 ईसा पूर्व था। राजा खादीरसार के पिता का नाम कुणिका था। जो कि 414 ईसा पूर्व के दौरान मगध के राजा थे। राजा खादिरसार की पत्नी का नाम चेलमा था। प्रारंभ में राजा खादिरसार बौद्घ धर्म के अनुयाई थे, परन्तु रानी चेलामा के उपदेश से प्रभावित होकर उन्होंने जैन धर्म अपना लिया और महावीर स्वामी जी के प्रथम भक्त बन गए। जिसे महाराज ने पढ़ा था। 

महाराज के पिता राजा गर्दभिल्ल उज्जैन में पहली शताब्दी के आरंभ से शासन कर रहे थे, वे एक वीर राजा थे, जिनके पराक्रम से शक शासक भी डरते थे । भर्तहरि अपने पिता का बड़ा बेटा था इसलिए उसके पिता ने कुल की परंपरा के अनुसार उसके छोटे भाई विक्रमादित्य के स्थान पर राजा बनाया था जब की न तो वह अपने छोटे भाई जितना प्रतापी, चतुर, बुद्धिमान व बलशाली था और न राजनीति में कुशल था। लेकिन उसे अपने पिता की बात मानना पड़ी। भर्तहरि की रूचि राजकाज में नहीं थी। 

उसका मन पड़ने लिखने में अधिक रमता था। उसने अपनी पहली रचना श्रृंगार शतक लिख ली थी। इसमें भर्तृहरि ने स्त्रियों के सौंदर्य और उनके हाव-भावों का वर्णन किया है। इस रचना में उन्होंने वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, और शिशिर ऋतु में स्त्री और स्त्री प्रसंग का भी ज़िक्र किया। शतक के मंगलाचरण में ही कामदेव  को नमस्कार करते हुये भर्तृहरि ने लिखा, जिसने विष्णु और शिव को मृग के समान नयनों वाली कामिनियों के गृहकार्य करने के लिये सतत् दास बना रखा है, जिसका वर्णन करने में वाणी असमर्थ है ऐसे चरित्रों से विचित्र प्रतीत होने वाले उस भगवान पुष्पायुध कामदेव को नमस्कार है। 

भर्तृहरि बताते हैं कि स्त्री किस प्रकार मनुष्य के संसार बन्धन का कारण है मन्द मुस्कराहट से, अन्तकरण के विकाररूप भाव से, लज्जा से, आकस्मिक भय से, तिरछी दृष्टि द्वारा देखने से, बातचीत से, ईर्ष्या के कारण कलह से, लीला विलास से इस प्रकार सम्पूर्ण भावों से स्त्रियां पुरूषों के संसार-बंधन का कारण हैं। इसके उपरान्त स्त्रियों के अनेक आयुध हथियार गिनाए हैं भौंहों के उतार-चढ़ाव आदि की चतुराई, अर्द्ध-उन्मीलित नेत्रों द्वारा कटाक्ष, अत्यधिक स्निग्ध एवं मधुर वाणी, लज्जापूर्ण सुकोमल हास, विलास द्वारा मन्द-मन्द गमन और स्थित होना-ये भाव स्त्रियों के आभूषण भी हैं और आयुध हथियार भी हैं। 

विभिन्न ग्रहों से स्त्रियों की तुलना कितनी आकर्षक है स्तन भार के कारण देवगुरू बृहस्पति के समान, कान्तिमान होने के कारण सूर्य के समान, चन्द्रमुखी होने के कारण चन्द्रमा के समान, और मन्द-मन्द चलने वाली अथवा शनैश्चर-स्वरूप चरणों से शोभित होने के कारण सुन्दरियां ग्रह स्वरूप ही हुआ करती है। महाराज का रसिक स्वभाव होने के कारन वह हमेशा सुन्दर स्त्रियों से धिरे रहते जो उनके मनोरंजन के लिए तरह तरह की लीला करती।  संगीत, नृत्य, नाटक, शाश्त्रार्थ, पठान पठान तथा लेखन में राजा का मन रमता था। 

महल में भोगविलास के साधनों की कमी न थी, लेकिन कभी कभी राजा का एकांत में होने का जी करता तो वह जंगल में चला जाता था। क्षिप्रा नदी कल कल कर सालभर बहती रहती। नदी के कारण महाकाल वन बहुत सधन वन है। जिसमें तरह तरह के जंगली जानवर निवास करते है। महराज को जंगल में शिविर लगा कर रहना प्रिय है, क्योंकि वह शिविर मैं रह कर शांति से लिखने पढ़ने का काम कर पाते  थे। कभी कभी वह अपनी शिकार करने की आदत को पूरा करते थे।  हालांकि शिकार करने का कोई विशेष शौक नहीं था। 

उन्हें  बेमन से राजा का उत्तराधिकारी बनना पड़ा था। जब लोग अपनी प्रकृति  के अनुसार अपनी वृत्ति नहीं चुन पाते है तो ऐसे लोग बाहर से जितने सफल लगते है उनके अन्दर उतना ही असंतोष का तूफान चलता रहता है । जिसका अंदाज किसी को नहीं होता है, क्योकि राजा कमजोर नहीं दिख सकता है। उसे हमेशा मजबूत, निडर, साहसी तथा उत्साह से भरा होना चाहिए। सो भर्तहरि ने हमेशा ऐसा ही किया वह बाहर से जितने शांत दिखते अंदर उतने ही अशांत होते । 

रात में जब वह अकेला होते तो यह अंदर की बैचेनी बाहर आ जाती। पिता ने बेटे की ख़ुशी के लिए उनकी  पहली शादी बचपन में कर दी तथा दूसरी शादी पड़ोसी राज्य के राजा की बेटी के साथ कर दी।  यह शादी भी दो पड़ोसी  राज्यों के बीच शांति बनाये रखने के लिए रिश्तेदारी में बदली गई थी। इस कारण भर्तहरि को पिता की मर्जी से शादी करना पड़ी। दो रानियों व अनेक दास दसियो के बावजूद भर्तहरि खुश नहीं थे। मालवा प्रदेश का उज्जैन राज्य बहुत विशाल हो गया था, क्योकि भर्तहरि के छोटे  भाई विक्रमादित्य निंरतर राज्य के विस्तार के लिए पड़ोसी राज्यों को लड़ाइयों में पराजित कर उनके राज्यों को उज्जैन में मिलाते जा रहा थे । 

 वह अक्सर बाहर ही रहते ,  राज्य के सभी कामकाज भर्तहरि को करना होते थे। एक तो राजकाज की समस्याओं  के कारण, दूसरे महल के अंदर की कलह व षड़यंत्रो के कारण भर्तहरि हमेशा परेशान व उदास रहते । उसका कोई अंतरंग मित्र भी नहीं था जिससे वह मन की बात कर अपना मन हल्का कर सके। वह अपने आप को हमेशा अकेला ही पाते। पिता तो अब थे नहीं और छोटा भाई जो उसका प्यारा, हमराज व विश्वास पात्र  था वह लड़ाइयों पर ही होता था। इस कारण वह जब भी अवसर पाते  शिकार करने जाने लगे  तथा अपने दूसरे ग्रन्थ नीतिशतक  को लिखने की शुरुआत कर दी थी ।

उज्जैन के महाकाल वन में एक दिन राजा शिकार के लिए गये थे।  कई  दिन शिकार के पीछे भाग - भाग कर राजा थक गये  थे। वह  शिकार ले कर राजमहल लौटना चाहता थे।  अभी सैनकों ने शिविर से तम्बू हटाना शुरू ही किया था की एकाएक भारी वारिस  के कारण उन्हें जंगल में अपने तम्बू में रुकना पड़ा। पानी ऐसे गिर रहा था जैसे बदल फट पड़ा हो। धीरे - धीरे अंधेरा बढ़  रहा था। राजा अपने तम्बू में आराम करने चले  गये । जंगल में जंगली जानवर, झींगुर तथा मेंढक विचित्र - विचित्र आवाजें निकालने लगे। जिन के कारण जंगल बहुत डरावना लग रहा था।  

खाना खा कर राजा जल्दी सो गये । थकान के कारण राजा गहरी नींद में थे । लेकिन एक जानवर ने राजा के तम्बू की तरफ आना चाहा तो पहरेदारों ने आवाजें लगाना शुरू किया तो जानवर भागते समय राजा के तम्बू से टकरा गया जिससे राजा की नींद खुल गई। जंगल रात में भी नीरव नहीं था। राजा को ऐसा लग रहा था जैसे रात में जंगल में एक अलग लोक ही जाग रहा हो। दिन में जंगल में जो आवाजें सुनाई देती है वे आवाजें रात में सुनाई नहीं दे रही थी। रात की आवाजें अलग थीं। राजा का यह अनुभव कुछ विचित्र था। उन्हें  महल से ज्यादा जंगल में शांति महसूस हो रहीं थी। पानी झर - झर कर पत्तों से अभी भी गिर रहा था। जंगल में एक अलग मिट्टी की भीनी - भीनी सुगंध आ थी। धीरे - धीरे पानी गिरना रुक गया। राजा का मन कविता कहने लगा। 

दिन में जब वह दरबारियों से घिरा रहता तब उसे अपने मन की आवाजें सुनाई नहीं देती थी। धीरे - धीरे उसे अंधेरे में कुछ - कुछ दिखने लगा था। वह सोच रहा था कि हमारी आँखें   कैसे उजाले व अंधेरे में देखने की अभयस्त  हो जाती है। अपने विस्तर पर लेटे - लेटे राजा का मन धीरे - धीरे उद्विग्न हो उठा। पुरानी यादों का कारवां चल निकला। हमारा मन भी कितना विचित्र है कि सुखद यादें आसानी से भूल जाता है लेकिन दुःखद यादें  हमेशा याद रखता है। चाह कर भी हम कभी भूल नहीं पाते है। जैसे ही वह अकेला होते  वह बेचैन हो जाते । बहार सब शांत होता लेकिन मन में विचारों का सैलाब आ जाता। दिमाग इतना गरम हो जाता मानो अभी फट जायेगा। 

जब दर्द असहनीय हो गया तो राजा पलंग छोड़ बाहर आ गये । फिर अकेले  ही जंगल के अनजान रास्ते पर मंत्रमुग्ध से निकल पड़े । चारों ओर जुगनू ऐसे चमक रहे थे मानो  जंगल में दीप माला जल बुझ रही हो। असंख्य जुगनू मेढ़कों  की कर कस टर्र - टर्र की आवाजें  जब जंगली सियारों की आवाज तथा पास के गॉव से कुत्तों के रोने की आवाजें आपस में मिलकर जंगल को डरावना बना रही थी। ऊपर के धुप्प काली रात तथा पानी बरसने से भीगी मिट्टी व पेड़ जंगल को रहस्यमय बना रहे थे। पेड़ों  पर सोते बन्दर यकायक उफ़ - उफ़ की आवाजें निकालने लगे व एक डाल से दूसरी डाल पर कूद कर अपने साथियों को किसी अनजान खतरे से सावधान करने लगे। 

अभी हल्की - हल्की भीगीं  हवा चल रही थी। लेकिन पास बहती क्षिप्रा पूरे उफान पर थी।नदी  की तीव्र गति  से बहती धारा का शोर लगातार आ रहा था। पानी से भीगे पत्ते जुगनू की रोशनी में यदा कदा चमक जाते थे।  राजा मंत्रमुग्ध हो नदी को देखने चले जा रहे थे  कि पास की झाड़ी से किसी खूख्वार जानवर ने यकायक राजा पर हमला कर दिया। तब राजा की तन्द्रा टूटी और उन्हें अहसास हुआ की वह बिना शस्त्र व सैनको के अकेले जंगल में आ गये थे । राजा ने पूरी ताकत लगा कर जानवर पर मुक्का मारा तो जानवर तिलमिला कर दूर जा गिरा लेकिन वह राजा के दूसरे हाथ का मांस अपने जबड़े में ले गया।  राजा के घायल हाथ से खून का फव्वारा वह निकला। राजा ने अपनी पगड़ी का वस्त्र फाड़ कर कस कर कंधे के पास हाथ पर बांध दिया। इससे खून बहना कम तो हुआ पर बंद नहीं हुआ।  बूद - बूद खून टपक रहा था। राजा के हाथ का दर्द इतना असहनीय था की वह मन का दर्द भूल गये । उनका चित्त बिलकुल शांत हो गया।  वह पानी व खून से तरबतर शिविर की और लोट रहे  थे कि उसकी आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा। उन्होंने शिविर में पहुंचने के लिए अपनी चाल तेज की लेकिन वे  शिविर से कुछ दूर गिर कर मूर्च्छित हो  गये । 

राजा की जब मूर्च्छा दूर हो रही थी तो उसने अर्धोन्मीलित आँखों से देखा की कमरे के दरवाजे पर जल रहे दीपक की लो धीरे - धीरे बुझने को हो रही है, शायद तेल खत्म हो रहा है। तभी राजा ने देखा की एक बहुत गौरवर्ण हाथ परदे के पीछे से निकला जिसने दीपक में बहुत सावधानी से बिना आवाज किये तेल डाला। तो दीपक की लौ स्थिर हुई। उसी समय महाराजा को सुन्दर सतरंगी कांच की चूड़ियों की छटा दीपक की लौ में दिखाई दी।  हाथ सावधानी से जैसे अंदर आया बैसे ही सावधानी से बापिस परदे के पीछे चला गया। महाराजा के मन मे जीवेषणा जाग उठी।  लेकिन परदे से अनायास हाथ के टकराने से चूड़ियों की खनक महाराजा के कानों में गूँज उठी।

 धीरे - धीरे महाराजा का बुख़ार टूट गया। हाथ का घाव  भी भर रहा था। जानवर के कटाने की जगह कुछ मांस सड़ गया था। जिसे राज वैद्य ने काट कर अलग कर दिया था तथा पत्तों में दवा घाव पर रोज दो बार बांध रहे थे। मूर्छित होने के बाद आज महाराजा ने आँखें  खोलकर देखा तो यह कमरा उन्हें राजभवन का नहीं लगा। क्योंकि महाराजा ने राजमहल के शयन कक्ष में जागते हुए, कमरे की छत निहारते हुए, कई रातें  बिताई थी। तो वे  उस छत की हर चीज को पहचानते थे। लेकिन कमजोरी के कारण  मुँह से अभी भी आवाज नहीं निकल पा रही थी।  केवल वह देख पा रहे थे।  लेकिन चाह कर भी वह किसी को पुकार नहीं पा रहे थे। तभी कमजोरी के कारन महाराजा की आँखों  में तन्द्रा छा  गई और बोझिल आँखें  बंद हो गई। 

महाराजा कुछ दिन बाद पूर्ण स्वस्थ हो कर राजमहल लौट गए। कुछ दिन बहुत व्यस्तता के रहे। राजा - काज के पुराने पड़े मामलों को निपटा कर जब महाराजा रात को विश्राम करने अपने शयन कक्ष में जाते तो नींद नहीं आती। उसकी दो - दो रानियाँ भी उसका मन नहीं बहला पाती थी। इसलिए महाराजा को अक्सर एकांत में उस रात दीपक की काँपती लौ में देखा सुन्दर चूड़ियों वाला हाथ दिखने लगता। धीरे - धीरे राजा की रुची यह जानने में होने लगी कि वह कौन थी ? राज मर्यादा व पद की गरिमा के कारण वह अपने मन की बात किसी से कह भी नहीं पाते थे। लेकिन जब मन की व्याकुलता दिन प्रीति दिन बढ़ने लगी। तो एक दिन एकांत में उन्होंने अपने विश्वस्त सेवक से आखिरकार पूछ ही लिया। सेवक ने नज़ारे नीची कर बताया की जब महाराज को गहरा जख्म हो गया और बरसात के कारण नदी उफान पर थी।  कमजोरी के कारण उस हालत में महल लौटाना जोखिम भरा होने से महामंत्री जी ने चिकित्सा का इंतजाम निकट के जागीरदार की हवेली में किया था। कुछ हालत ठीक होने पर दो दिन बाद आपको मूर्छित हालत में महल लाया गया था। 

हालांकि जागीरदार जी ने अपने सबसे अच्छे वैद्य को तथा सेवा के लिए राजकुमारी पिंगला को लगाया था। लेकिन राज वैद्य का आग्रह था कि आपका समुचित इलाज महल में ही हो सकता है तब उनके जोर देने पर आपको महल लाया गया था। राजकुमारी पिंगला का नाम सुनते ही राजा ने आँखें  नीचे कर ली तो आँखों में एक रंग बिरंगी चूड़ियों वाला हाथ तैर गया। 

महाराज महल से ही राजकाज किया करते थे। उनका छोटा भाई विक्रम बाहर के काम सम्हलता। महाराज ने विक्रम को राज्य का महामंत्री नियुक्त किया था। वह राजकाज में बहुत कुशल था। विक्रम साहसी, वीर, बुद्धिमान तथा पराक्रमी था। अनेक लड़ाइयों में वह अपने युद्ध कौशल को प्रदर्शित कर चुका था। राजकाज में उसकी रूचि थी।  राज्य की सीमाएँ बढ़ाने में उसे आनंद मिलता था। प्रजा के बीच वह बहुत लोकप्रिय था। जनता की कठिन से कठिन समस्या का समाधान हमेशा उसके पास होता। लोगों के झगड़े निपटना उसका प्रिय काम था।  इसलिए लोग उसे न्याय प्रिय मानते थे। महाराज का वह प्यारा भाई था।  न्हें उस पर बहुत भरोसा था। वह हमेशा उनकी बात मानते थे तथा जरूरत  से ज्यादा भरोसा भी करते थे। हालांकि वह उस के पिता गर्दभिल्ल की दूसरी रानी से पैदा हुआ, उससे उम्र में छोटा था। छोटे भाई के कारण महाराज को आराम करने का खूब समय मिल जाता था जो वह पढ़ने लिखने में लगते थे। 

उनके दरबार में एक से एक विद्वान थे। महाराज की भाषा पर अच्छी पकड़ थी तथा वे गद्य व पद्य दोनों तरह से लिख लेते थे। इसलिए उन्होंने अपना दूसरा ग्रन्थ नीति शतक पर फिर काम शुरू कर दिया था। जो घायल हो जाने के कारण रुक गया था। इसमें नीति से जुड़े  श्लोक लिख रहे है। यह भर्तृहरि के अपने अनुभवों और लोक व्यवहार पर आधारित श्लोक होते थे । नीति शतक में उन्होंने अज्ञानता, लोभ, धन, दुर्जनता, अहंकार जैसी चीज़ों की निंदा की है, वहीं, विद्या, सज्जनता , उदारता, स्वाभिमान, सहनशीलता , सत्य जैसे गुणों की भी तारीफ़ की है। महाराज का अधिकांश समय स्वाध्याय में ही व्यतीत होता तथा वे विद्वानों से घिरे रहते।  सारा दिन अलग - अलग विषयों पर चर्चा चलती रहती। दूर - दूर से विद्वान विचार विमर्श करने आते ही रहते।  लेकिन रात में जब वह अकेले होते तो अनायास ही वह हाथ उन्हें याद आ ही जाता। अनेक दिन इसी  उहापोह में निकल गए कि किसे व कैसे अपनी बात कह सके। 


भर्तहरि

भाग  तीन 

अनेक संकल्प विकल्पों के बाद एक दिन राजा ने निश्चय किया की वह जागीरदार के यहाँ खुद जा कर अपना आभार प्रकट करेंगे। राजा ने अपने संदेश वाहक से खबर भेजी की राजा कृतज्ञता ज्ञापित करने आना चाहते है। जागीरदार ने महाराजा के स्वागत की खूब तैयारी की। तैयारियों की जिम्मेदारी खुद पिंगला ने सम्हाल रखी थी। पिंगला तीक्ष्ण  बुद्धी  की  विदुषी थी, उसे उसके पिता ने सभी  कलाओं में पारंगत करवाया था। वह शस्त्र संचालन में निपुण थी तो सुन्दर कवितायेँ भी लिखती थी। राजकाज तथा राजनीति की समझ रखती थी। वह किसी भी विषय पर बेछीझक अपने विचार रख सकती थी। जागीरदार ने अपनी बिटिया को बहुत कुशलता से बड़ा किया था क्योंकि यही उसकी मात्र दो संतानें  थी। इसलिए इसकी शिक्षा दीक्षा बहुत अच्छे से हुई थी।

नियत दिन महाराज मय सैन्यदल के पधारे। खूब स्वागत सत्कार हुआ, नाच गाना, खाना, पीना पिलाना चल रहा था। उत्सव अपने चरम पर था। पर महाराज की नजर पिंगला पर ही टिकी रही। आज पिंगला ने अपना सम्पूर्ण शृंगार किया था। उसने अपनी सबसे सुन्दर चंदेरी की साड़ी पहनी थी। जी इतनी छीनी - छीनी थी कि शरीर को ढकती कम और दिखती ज्यादा थी। वह आज इतनी खूबसूरत लग रही थी की मानो रति ही धरती पर उतर आई हो। आज उसकी माँ ने समारोह में आने के पहले उसकी नजर उतरी थी। माथे पर आगे के बालों के पास काजल का टीका लगाया था। 

महाराज भी कई दिनों के बाद आज इतने बन ठन कर समारोह में आये थे। उन्होंने भी धोती कुर्ता तथा उस पर  अचकन पहना था।  मालवा का रंगबिरंगा पगड़ी बाधी थी, जो भैरूगढ़ में खास मौकों  के लिए ही बनी थी । उनकी बलिस्ट बाहें बहुत सुन्दर लग रही थी। पिंगला जब - जब कनखियों से महाराज को देखती तो वह महाराज को अपनी ओर  देखती पाती। महाराज रंग बिरंगी चूड़ियों से भरे हाथ देख रहे थे। जब - जब उनकी नजरें  मिलती तो पिंगला शर्मा कर अपनी नजर नीची कर लेती। जब तब वह अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करती तो चूड़ियाँ बज उठती। यह आँख मट्टके का खेल पूरे समारोह के दौरान चलता रहा। 

जागीरदार पूरे समय मेहमानों की खातिरदारी में लगा था। पिंगला ऐसी नजरें अच्छे से पहचानती थी। यह प्रकृति का औरत को दिया उपहार है। शर्म के मारे पिंगला की नजरें  नहीं उठ रही थी पर वह महाराज को देखना भी चाहती थी तो अपने मन से भी मजबूर थी। इसी दुविधा में समारोह कब खत्म हो गया पता ही नहीं चला। मानो समय रुक गया हो अभी शुरू हुआ और अभी खत्म भी हो गया।

महाराज को बरबस शृंगारशतकम् का श्लोक याद आ गया जिस में उन्होंने लिखा था कि सबसे उत्तम क्या है?  वे  गिनाते हैं- इस संसार में नव-यौवनावस्था के समय रसिकों को दर्शनीय वस्तुओं में उत्तम क्या है? मृगनयनी का प्रेम से प्रसन्न मुख। सूंघने योग्य वस्तुओं में क्या उत्तम है? उसके मुख का सुगन्धित पवन। श्रवण योग्य वस्तुओं में उत्तम क्या है? स्त्रियों के मधुर वचन। स्वादिष्ट वस्तुओं में उत्तम क्या है? स्त्रियों के पल्लव के समान अधर का मधुर रस। स्पर्श योग्य वस्तुओं में उत्तम क्या है? उसका कुसुम-सुकुमार कोमल शरीर। ध्यान करने योग्य उत्तम वस्तु क्या है? सदा विलासिनियों का यौवन विलास।हालांकि भर्तहरि की यौवन अवस्था अभी गई नहीं थी फिर भी उनकी व पिंगला की उमर का अंतर वह पूरी तरह से भूल गये थे और नवयुवक की तरह  व्यवहार कर रहे थे। पिंगला के रूप का जादू महाराजा के सर चढ़ कर बोल रहा था। वह पूरी तरह अशक्त थे। उन पर कामदेव ने अपना अधिकार कर लिया था।

महाराज तीन दिन जागीरदार के यहाँ रुके और पिंगला ने अपनी पूरी श्रद्धा व समर्पण से महाराज की सेवा की। प्रस्थान के एक दिन पहले रात के खाने के बाद महाराज ने जागीरदार को अपने कमरे में बुलवाया। बहुत सोच विचार कर उन्होंने अपने मन में निश्चय किया की जाने के पहले वह अपने मन की बात कह कर ही जाना चाहेंगे । महाराजा को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। जागीरदार तत्काल राजा के सामने उपस्थित हुए। महाराज ने अपने सामने तख्त पर बैठने का इशारा किया लेकिन जागीरदार हाथ जोड़ कर नजरे नीचे किये खड़े रहे। महाराज ने एक लम्बी सांस ले कर अपने मन की बात कहने का साहस किया। 

महाराज बोले  “पिछले दिनों उनकी देखभाल कर जान बचाने के लिए वह उनके आभारी है। वे पिंगला की सेवा से खुश हो कर बदले में उनकी पुत्री के विवाह कर ऋण चुकाना चाहते है बशर्ते पिंगला इस के लिए राजी हो तो।” 

जागीरदार को तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। उसने तो कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि उनकी पुत्री इतनी भाग्यशाली होगी। लेकिन जागीरदार ने महाराज से कुछ समय चाहा। फिर वह तेज कदमों से अपने शयन कक्ष में अपनी पत्नी के पास जा कर उसे यह खबर सुनाई। उनकी पत्नी महाराज की उमर तथा पूर्व से दो पत्नियाँ होने के कारण कुछ कहना चाही। लेकिन जागीरदार ने उतावले पन से कहा कि इस शुभ घड़ी में कुछ मत कहो, यह हमारी बिटिया के सौभाग्य की बात है कि महाराज ने खुद यह प्रस्ताव किया हैं। 

फिर माता ने कहा  "एक बार बिटिया की राय जान लो।" 

तब उन्होंने पिंगला को बुला भेजा, लेकिन पिंगला की सेविका उसे पहले ही यह बात बता चुकी थी। पिंगला के आने पर माँ ने प्यार से उसका हाथ पकड़ कर उसकी राय पूछी। तब पिंगला ने अपनी आँखें नीची झुकाकर अपनी सहमति दे दी। शुभ मुहूर्त में धूमधाम से महाराज का विवाह सम्पन्न हुआ। दुल्हन बन पिंगला राजभवन क्या आई उसकी महत्वाकांछाऐं आसमान छूने लगी। पिंगला महाराज  के मन की बात जानकर हर इच्छा बिना कहे ही पूरी करती। कोशिश करती कि महाराज हमेशा उसके पास रहे।

महाराज भी राजकाज अपने भाई पर छोड़ पूरे समय पिंगला के कक्ष में बिताते। जैसे - जैसे समय बीतता गया पिंगला के मन में असुरक्षा का डर समा गया कि यदि उम्र ढलने के कारण सुन्दर ना रही तो महाराज की उसमें रूचि  कम हो जाएगी और वह एक और शादी कर लेंगे। पहले भी वह ऐसा कर चुके थे। दूसरी ओर महाराज की उम्र बढ़ रहीं थीं और पिंगला की शारीरिक जरूरतें  पूरी करने मैं कमजोर पड़ जाते थे। पिंगला उनकी आखिर तीसरी पत्नी थी और उन्हें अपनी पूर्व की दोनों पत्नियों को भी समय देना होता था। पिंगला हालांकि महाराज से उम्र में आधी ही थी लेकिन वह बहुत बुद्धिमान थी। पिंगला अब तक यह भी जान गई थी कि महाराज अपना राजकाज अपने छोटे भाई विक्रम के कहने पर चलाते हैं। महाराज राजकाज में विक्रम की बातों को तबज्जो देता था और इस मामले पे वह पिंगला की सलाह नहीं मानता था। इन बातों तथा राजमहल की आंतरिक कलह के कारण उस में असुरक्षा निरंतर बढ़ रहीं  थीं। दूसरी दोनों रानियाँ राजाओं की बेटियां थीं तथा राजमहल में उनके पास उनके मायके से आये सेवक थे जबकि पिंगला के पिता जागीरदार मात्र थे। यह बातें पिंगला को बहुत सालती थीं और रानी के चाटुकार हमेशा उसे राजकाज में हस्तक्षेप करने के लिए उकसाते रहते थे। 

महाराज की चिन्ताएँ अपार थी। राज परिवार में अधिकार, पद तथा सुविधाओं को ले कर षड़यंत्र चलते रहते थे।  हालांकि भौतिक सुविधाओं की कमी न थी लेकिन मन को क्या करे वह भरता ही नहीं। महाराज अपने भाई विक्रम की मदद से राजकाज व सीमाओं की चिन्ताएँ तो सुलझा लेते थे लेकिन परिवार की समस्याओं का समाधान तो महाराज को ही करना होता था। जो भौतिक कम और मनोवैज्ञानिक तथा भावनात्मक अधिक होती थीं। जिनका कोई सीधा हल नहीं होता था। इस कारण महाराज कई दिनों तक मानसिक परेशानी में गुजारते थे।

असुरक्षा तथा असंतुष्टि के कारण धीरे - धीरे पिंगला की निकटता राजमहल के कोतवाल के साथ बढ़ती जा रहीं थीं। क्यों कि वह अपेक्षाकृत युवा था और युवा रानी की हर बात मानने को तैयार रहता। हालांकि पिंगला महाराज की प्रिय तथा प्रधान रानी थी और वह अपना अधिकांश समय उसी के साथ बिताता था। लेकिन रानी समय निकाल कर अपने प्रिय कोतवाल से अकेले में मिल लेती थीं। पिंगला महाराज के मनोरंजन के लिए समय - समय पर अनेक तरह के समारोह आयोजित करती थीं। इन समारोहों में महाराज के मनोरंजन के लिए तरह - तरह के कलाकार, विदूषक, गायक व नर्तक होते थे। 


भर्तहरि 

भाग चार 

महाराज को अपने विद्वानों की गोष्ठियों की कमी हमेशा खलती थी और वह नीतिशतकम  का नियमित लेखन भी नहीं कर पता था। शिकार पर जाना लगभग बंद सा ही था।  इन सब व्यस्तताओं के कारण महाराज राजकाज से भी विमुख से हो गए थे। कभी - कभी विक्रम के आग्रह के कारण किसी सभा में जाते थे। महाराज की यह विमुखता जनता के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी क्योंकि विक्रम ही जनता का ख्याल रखते थे।  समय धीरे - धीरे निकलता जा रहा था। राजा राजकाज से विमुख हो तो दरबारियों में तरह - तरह की कानाफूसी होनी शुरू हो जाती है। राजमहल में भी यह होने लगा था। धीरे - धीरे यह बात महल की दीवारों के बाहर चली गई। जब किसी बात की आधिकारिक जानकारी न हो तो लोग तरह - तरह के कयास लगाने लगते है। पिंगला और कोतवाल की निकटता भी राजमहल के सेवकों से छिपी न रह सकी। महाराज से तो किसी के कहने की हिम्मत न हुई। क्योंकि वह पिंगला के कक्ष से काम ही बाहर आते। पर बात धीरे - धीरे विक्रम तक पहुंच ही गई।

एक दिन रात्रि में विक्रम के एक दासी के इशारे पर रानी का पीछा किया। वह कोतवाल से मिलने अंधेरे में राजमहल के घोड़ों  के अस्तबल में गई थीं। हालांकि विक्रम पूर्ण सावधानी से पीछा कर रहा था पर अस्तबल में निकट आने पर विक्रम का प्रिय घोड़ा हिनहिना उठा। पिंगला जल्दी - जल्दी अपने कपड़े ठीक करती अंदर भागी लेकिन वह जान गई की विक्रम ने उसे देख लिया है। हड़बड़ी में भागते उसका पाव उसकी साड़ी में फंस गया वह गिर गई। लेकिन बदहवास कमरे में में आई तभी महाराज की नींद खुल गई और पिंगला की ऐसी हालत देख कर उन्होंने पूछा तो हड़बड़ी में रानी ने आँखों में आंसू भर कर अचानक अपनी प्रितिउत्पन्नमति  से कहा कि उनके छोटे भाई के कारण उसकी यह हालत हुई। 

पहले तो महाराज को अपने कानों पर भरोसा न हुआ लेकिन त्रिया चरित्र के कारण सत्य हार गया। पिंगला ने  तत्क्षण सोचा की यदि वह विक्रम का नाम नहीं लेगी तो विक्रम सुबह कोतवाल और उसके मिलने की बात महाराज को बता देगा। तब वह न घर की रहेगी न घाट की। महाराज के मन से विक्रम को गिराने के लिए उसके मन में हमेशा विचार आते रहते थे लेकिन वह कहने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाती। इसीलिए आज अचानक ना जाने कहाँ से इतनी हिम्मत आ गई और अचेतन मन की बात संकट की घड़ी में उसकी संकट मोचन बन गई।

रात भर महाराज सो न सके । तरह - तरह के विचार उनके मन में हलचल मचा रहे थे। लेकिन उनके पास इतनी हिम्मत न थी की वह विक्रम से कुछ कह सके। सुबह होते ही महाराज ने विक्रम को बुलावा भेजा।  विक्रम भी रात भर सोया नहीं था। उसके मन में हलचल थीं की वह अपनी माँ सामान भाभी के संबंध में कैसे कहे। अनेक संकल्प विकल्प मन में थे लेकिन उसे अपने भाई की सुरक्षा की चिन्ता भी थी। तो उसने सारी बात बताना ही उचित समझा। जैसे ही कक्ष में दोनों भाई अकेले थे विक्रम ने पूरी बात बता दी, लेकिन रात में पिंगला ने यहीं कहा था कि देखना विक्रम अपना दोष छिपाने के लिए कोतवाल का नाम लेगा और हुआ भी ऐसा, इससे पिंगला की बात सही निकलने के कारण महाराज ने विक्रम की बात का भरोसा न कर उसे पश्चिम की दूर सीमाओं की सुरक्षा के लिए तत्काल जाने को कहा।  विक्रम आज्ञाकारी भाई था उसके जान लिया की भाई अभी भाभी के प्यार में अंधा है इसलिए वह बिना सफाई दिए राजाज्ञा का पालन करने अपने साथियों के साथ तत्काल चला गया। 

 इधर पिंगला की हिम्मत बहुत बढ़ गई उसने महाराज से मिलने जुलने बालों का आना जाना बंद सा कर दिया। अब वह कोतवाल से जीतनी बार चाहती मिल लेती थी। कोई रोकने टोकने वाला नहीं था। राजमहल में कोतवाल ने केवल अपने विश्वास पात्र सैनको को तैनात कर दिया था। 

विक्रम के ना रहने से जनता की परेशानियां बढ़ती जा रही थीं। महाराज की हालत से दुःखी उनकी पहली रानी क्षिप्रा के उस पार के साधु  के आश्रम गई तथा चुपचाप मदद की गुहार लगाई। 

एक दिन अचानक राजमहल के दरवाजे पर एक तेजस्वी  साधु  ने अलख निरंजन का उद्घोष किया। द्वारपालों ने साधु  को जाने का कहा लेकिन वह अलख निरंजन कहता रहा। रानियाँ बाहर आ कर साधु को सत्कार पूर्वक राजमहल में ले कर गई। साधु की लाल - लाल बड़ी - बड़ी आँखें बाहर निकल रही थीं जो गुस्से से भरी थीं। उनके कानों में  बड़े - बड़े कुण्डल लटक रहे थे। मस्तिष्क पर जटा जूट बाधा था। हाथों में कमण्डल, त्रिशूल तथा कन्धे पर एक बड़ी छोली लटक रही थीं। 

द्वारपालों ने साधु को बहुत टाला लेकिन वह महाराज से मिलने की जिद पर अड़ा रहा। योगी का हट देख कर, हार थक कर महाराज को दरबार में आना पड़ा। योगी महाराज की दशा देख कर व्यथित हो उठा। उसने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि वह महाराज को इस दलदल से बहार निकालेगा। योगी ने महाराज को उपदेश दिया। राजकाज में रूचि लेने की बात कहीं। लेकिन महाराज में कोई उत्साह नजर न आने पर उनके वंश के पूर्व राजाओं की गाथाऐं सुनाई। पर महाराज जैसे थे वैसे ही बने रहे। उनकी मुखमुद्रा तनिक भी न बदली।  तब योगी ने महाराज को मृत्यु का भय बताया। लेकिन इसबात का ज्यादा असर नहीं हुआ।  

तब योगी ने महाराज को झोली से एक अदभुत लाल फल निकाल कर दे कर कहा कि यदि तुम यह फल खा लोगे तो तुम सदा के लिए जवान व बलवान बने रहोगे। महाराज ने वह फल प्रसाद जानकर श्रृद्धा पूर्वक ले लिया।साधु ने महाराज को आशीर्वाद दिया। फिर साधु बिना कुछ कहे बिना कुछ लिए यकायक उठा और अलख निरंजन की टेर लगाता हुआ राजमहल से निकल गया।

महाराज वह अधभुत फल ले कर अपने शयन कक्ष में पिंगला के पास आ कर सोचा कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है। चूंकि महाराज अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे, अत: उन्होंने सोचा कि यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी। यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया। पिंगला फल ले कर चली गई। बात आई गई हो गई, जीवन फिर पुराने ढर्रे पर चलने लगा। 

रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। यह बात राजा नहीं जानते थे। जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा। रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया। वह कोतवाल एक नगर वधू से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया। ताकि नगर वधू सदैव जवान और सुंदर बनी रहे। नगर वधू ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी। 

बहुत समय बाद महाराज को एक दिन अचानक प्रेरणा हुई की दरबार लगाया जाए। तो नियत समय पर महाराज का दरबार सजाया गया।  जब यह बात जनता में फैली तो बहुत सरे लोग अपनी फर्याद लेकर दरबार में उपस्थित हुए। भीड़ बहुत थी लोग लाइन से आते अपनी बात महाराज को बताते, महाराज समस्या का समाधान देते और लोग आगे बढ़ जाते। कुछ लोग महाराज को उपहार देते। सम्मान में झुकते और आगे बढ़ जाते।नगर वधू यह सोचकर चमत्कारी फल ले कर राज दरबार में गई कि यदि उसका राजा यह फल खायेगा तो अधिक समय तक प्रजा की सेवा कर पायेगा । लाइन से महिला महाराज के सामने आई और महिला ने महाराज को प्रणाम कर उपहार में एक फल भेट किया। महाराज वह अद्धभुत फल देख कर चौक गए।  

महाराज वह फल देखकर हतप्रभ रह गए। वह फल उसे जाना पहचाना लगा। महराज ने इशारा किया तो सैनकों ने उसे एक कमरे में चलने का आग्रह किया। महाराज दरबार से उठ खडा हुआ। दरबार समाप्त हो गया। महाराज कमरे में आया। महाराज ने महिला से पूछा कि यह फल उसे कहा से प्राप्त हुआ तथा वह कौन है ? महिला ने नीची नजरे  कर बताया की राजमहल के कोतवाल उससे मिलने आते है और वह नगर वधू है और यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। मैंने सोचा की मेरे महाराज दयालु, जनप्रिय तथा प्रतापी है, इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। मैंने ने सोचा  कि राजा हमेशा जवान रहेगा तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा, इसी कारण में इस फल को आपको भेट करने लाई थीं। महाराज ने उस महिला को जाने दिया। 

महाराज ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। कोतवाल को वह फल दिखाया। तो कोतवाल की घिंघि बंध गई। उसे अपनी आसान मृत्यु दिखाई देने लगी। क्योंकि पूरी दुनिया में वह एक ही फल था। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने निराशा के भाव व टूटती आवाज में उसने  बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया था। महाराज में महारानी से नहीं मिलना चाहता था। मै उन्हें प्यार नहीं करता। लेकिन जब वह बुलाती तो अपनी जान की रक्षा के कारण मजबरी  में मुझे जाना पड़ता था। मै तो उस नगर वधु से प्यार करता हूँ। कोतवाल की बातों मैं सचाई देख कर महाराजा ने उसे जाने दिया। 

फल ले कर महाराज पिंगला के कमरे में आये। पिंगला को फल दिखाए बिना उन्होंने उससे पूछा की मैने तुम्हें योगी से मिला फल खाने को दिया था, तुमने उस का क्या किया ? पिंगला ने बहुत आत्मविश्वास से कहा कि वह तो मैने उसी दिन खा लिया था। तब महाराज ने अपनी जेब से वह फल निकाल कर उसको दिखाया तो वह उसे तुरंत पहचान गई। लेकिन जब महाराज ने सख्ती से पूछा तो वह टूट गई और रोने लगी। महाराज तेजी से गुस्से में उसके कमरे से निकल गए । अब भर्तहरि  को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गया कि पिंगला उसे धोखा दे रही है। महाराज की आँखों  के सामने वह सतरंगी चूड़ियों वाला हाथ घूम गया। मानस पटल पर पिंगला की राजनीति उभर रही थी कि कैसे उसने उसके परिवार से उसे अलग कर दिया। कैसे विक्रम की बात पर भरोसा न कर उसे राजमहल से जाने का हुकुम दिया। वह यह स्वप्न में भी नहीं सोच पा रहा था। 

क्रोध, ग्लानि व पश्चाताप की आग में वह जल रहा था। नीतिशतकम  के एक श्लोक में भर्तहरि ने लिखा ‘जिस स्त्री का मैं अहो-रात्र चिन्तन करता हूँ, वह मुझसे विमुख है। वह भी दूसरे पुरुष को चाहती है। उसका अभीष्ट वह पुरुष भी किसी अन्य स्त्री पर आसक्त है। तथा मेरे लिये कोई अन्य स्त्री अनुरक्त है। अतः उस स्त्री को, उस पुरुष को, कामदेव को, मेरे में अनुरक्त इस नी को तथा मुझे धिक्कार है।’ इसलिए आज महाराज को नींद नहीं आ रही थीं। आज ही उसने नीतिशतक पूरा कर लिया था।  वह आज इतना विचलित था इतना वह कभी नहीं रहा। आज राजमहल, राजपाट , रानी, पटरानी, परिवार से तीव्र वेदना के साथ विरक्ति बढ़ती जा रही थीं।  उसने अनेक वार जीवन में ऐसे भावों का सामना किया था लेकिन वह विरक्त नहीं हो पाता था। लेकिन पिंगला का धोखा इतने गहरे लगा था की इस घाव ने उसकी अंतरात्मा को हिला कर रख दिया था।  

भर्तहरि ने  बिना देर किये  विक्रम को बापस बुला लिया। विक्रम तीन दिन चल कर रात में उज्जैन पहुंचा। भर्तहरि ने रात में ही राजपुरोहित को बुलाया। दरबारियों  को बुलाया तथा उसका मन पलटे उसके पहले उसने अपने प्रिय भाई को राजपाट सौंप कर उसका अपने हाथों से राज्याभिषेक किया। राजपुरोहितों ने स्वास्तिक मंत्रोच्चार कर  उसके सिर पर राज मुकुट पहनाया तथा गद्दी पर बैठाया। उसने अपने जीवन का सबसे कठिन अंतिम फैसला दरबार में सुना दिया था। 

खुद जोगी के वस्त्र पहन कर राजमहल से उस दीपक की दिशा में क्षिप्रा के उसपर टीले की और चल दिया। पूर्व दिशा में उषा की लालिमा छा रही थी तथा आशुतोष पश्चिम में अस्त हो रहे थे और पूर्व में सूर्य देव उदित हो रहे थे। उसके मन में महाराज की छवि धूमिल हो रही थीं। नगरवासियों  ने आश्चर्य से देखा की उनका महाराज जोगी का वेष धर कर क्षिप्रा के तट पर पहुंच गया था। क्षिप्रा की धारा शांत भाव से निरंतर बह रही थी। उसने देखा की उस ओर  वही योगी खड़ा उसे इशारों से पुकार रहा हैं। नदी के इस पार एक जीवन छूट रहा है। एक बार नदी के पार जाने पर नया जीवन उसका इंतजार कर रहा है। फिर वापिस लौटना नहीं होगा। भर्तहरि का मन यह दृश्य देख कर निर्मल हो उठा। पुराना कलुषित मन पीछे छूट गया। वह अब विरक्त भाव से नीचे सिर किए निर्भार गति से चला जा रहा था । 


भर्तहरि 

भाग पांच 

 भर्तहरि महाराज से योगी बनने की राह पर निकला था। धीरे - धीरे वह आश्रम के दरवाजे पर पहुँच गया। अभी पूरी तरह सबेरा नहीं हुआ था। पूरव में लालिमा धुँधली हो रही थीं। ऐसा लग रहा था मानो क्षिप्रा की धारा से एक बड़ा लाला वर्ण गोला ऊपर उठ रहा हो ।ऐसा ही भाव उसके अन्दर उठ रहा था। भर्तहरि ने आखिरी बार उज्जैनी की तरफ देखा। अपने मन में अपने निश्चय को पुनः दृढ़ किया और आश्रम की सबसे निचली सीढ़ी पर बैठ गया। हालांकि नीचे बैठने का उसका अभ्यास नहीं रहा था। वह सिंहासन पर ही बैठने का आदि था। 

मन को विचार मथ रहे थे। सारे दृश्य आँखों में तैर रहे थे। माथा दर्द से फट रहा था। एक अज्ञात भय हृदय में समा रहा था। उसे अपने निश्चय पर बार - बार शंका हो रही थीं। राजमहल में इतने दिनों रहने का जो अभ्यास था। सुख सुविधाओं का शरीर आदी था। वैराग्य भाव हालांकि मन में आ गया था।  संसार की मोह माया मन से हट गई थी पर वैराग्य भाव दृढ़ नहीं हुआ था। राजमहल आज रात उसे वासनाओं की अग्नि में जलता दिख रहा था। इस आग में सभी नाते रिश्ते जल रहे थे। उसने हालांकि तीन शादियां की थीं। जिन में दो पिता की इच्छा  से तथा एक अपनी पसंद से । उसे हमेशा दूसरे से सुख पाने की कामना रही थीं। जो कल रात जल गई थी। अब उसके मन में दूसरे से सुख पाने की कोई कामना नहीं बची थीं। 

बाल्यकाल में पढ़ाई के दौरान उसने पतंजलि का योग सूत्र पढ़ा था जिसका पहला श्लोक 'अथ योगानुशासनम्' का अर्थ समझाते हुए आचार्य ने कहा था कि जब तक जीवन में सांसारिक भोगों को पाने की लालसा रहती है तब तक जीवन मै योग का अनुशासन प्रारंभ नहीं होता है। तब उसको यह महर्षि  का कथन समझ में नहीं आया था। लेकिन आज उसे प्रत्यक्ष अपने जीवन में घटते देख रहा हैं। यह सोचते - सोचते कब नींद आ गई पता ही न चला। तभी आश्रम का दरवाजा खुला। किवाड़ों की आवाज से उसकी नींद टूट गई। आँखें खुली तो  योगी महाराज को सामने खड़ा पाया। योगी को सामने देख कर भर्तहरि उनके चरणों में प्रणिपात हो कर चरण वंदना करने लगा। यह योगी के चरणों में महाराजा का पूर्ण समर्पण था। महाराजा आज से जोगी बनाने की राह पर निकल पड़ा था। योगी ने दोनों हाथों से उसे उठा कर गले से लगा लिया। भर्तहरि को  योगी आश्रम के अंदर ले गया। न केवल वह शरीर से अंदर गया वह मन से भी अंदर चला गया। 

योगी ने उसे नहाने का आदेश दिया व नये वस्त्र पहनने के लिए दिए। नहा कर भर्तहरि ने नये वस्त्र धारण किये और आश्रम के बगीचे से फूल ले कर योगी के सामने दण्डवत प्रणाम  किया व चरणों में पुष्प अर्पण किये।  उसके अंदर स्वंम को अर्पण करने का भाव आया। इसके बाद उसने हाथ जोड़ कर नजरें नीची कर निवेदन किया “हे! योगी महाराज मैं अपना राजपाट व घरद्वार त्याग कर आपकी शरण में सन्यासी बनने आया हूँ। कृपा कर मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार करें।”

 योगी ने भर्तहरि की आँखों में सीधे दृष्टि को स्थिर कर देखा। लेकिन भर्तहरि उन आँखों का तेज न सह पाया।  उसने अपनी आँखें नीचे कर ली। योगी जान गया की भर्तहरि को अभी असल वैराग्य घटित नहीं हुआ हैं। यह मात्र घटना की तत्कालिक प्रतिक्रिया ही है। यह तो पत्नी व परिवार से मिले धोखे का मन का राग के विपरीत हो जाना, विराग मात्र ही है। यह वैराग्य नहीं हैं। लेकिन योगी ने जान लिया की भर्तहरि सच्चे भाव से आया है तो उसने भर्तहरि की सहायता करने का निश्चय किया। 

 भर्तहरि में उसे मुमुक्षु बनने की परछाई दिख रहीं थीं। वह कौतुहल वश नहीं आया था, उसका निश्चय दृढ़ था। योगी ने धीर गम्भीर आवाज में भर्तहरि को कहा “यद्यपि तुम परिवार, राजपाट, पत्नी व बच्चों को त्याग कर ही मेरे पास आये हो लेकिन अभी फल पका नहीं है, तुम्हें एक वर्ष तक ब्रम्ह्चर्य व्रत का पालन करना होगा। यदि तुम मेरे निर्देश बिना शर्त मान कर, धैर्य पूर्वक रहने में सफल हुए तो फिर तुम्हें शिष्य बनाने का निर्णय लूँगा। यदि तुमने मेरे आदेशों पर सवाल पूछे या शंका की तो तुम्हें पुनः फिर गृहस्थ जीवन में लौट जाना होगा।” 

योगी की ऐसी बातें सुनकर भर्तहरि तो आकाश से जमीन पर आ गिरा।  उसे तो लगा था कि वह राजपाट छोड़ कर आया है तो योगी उसे ख़ुशी - ख़ुशी शिष्य बना लेंगे। लेकिन उसे लगा की वह किनारा तो अब रहा नहीं और यह किनारा अभी मिला नहीं। उस का मन डोल उठा। 

योगी भर्तहरि की मानः स्थिति भांप कर बोले "तुम चाहो तो आश्रम के पास बनी गुफा मै  अपना बसेरा बना सकते हो।" 

भर्तहरि ने योगी को प्रणाम किया और गुफा की ओर चल दिया। उसने दृढ़ निश्चय किया की वह बिना शर्त योगी की आज्ञा का पालन करगा। चाहे अब वह बचे या मरे कोई फ़र्ख़ नहीं पड़ने वाला। अब उसके सामने योगी को पूर्ण समर्पण करने के अलावा अन्य कोई रास्ता भी तो नहीं बचा था। वह गुफा में घुसा तो देखा गुफा बहुत छोटी, अंधेरी व गंदगी से भरी है। लगता है कि कई दिनों से खाली पड़ी होने से कीड़े मकोड़ों, छिपकलियों, मकड़ियों तथा चमगादड़ों ने अपना घर बना लिया था। भर्तहरि के अब यही साथी थे। 

आश्रम से योगी ने एक दरी, कंबल, कमंडल का इन्तजाम कर दिया था। भर्तहरि ने पास से झाड़िया तोड़ कर गुफा इस तरह साफ की कि कोई जीव मर न जाए। भर्तहरि गुफा में तीन दिन योगी के आदेश की प्रतिक्षा करता पड़ा रहा। उसने देखा कि गुफा की छत पर एक मकड़ी का जोड़ा जाला बना कर रह रहा है। आज मकड़ी का जोड़ा आपस में गुथे हुए थे और मकड़ी अपने साथी को धीरे धीरे खा रही है और उसके साथी को इस बात का शायद अहसास भी नहीं है। क्योंकि वह छूट कर भागने की कोई कोशिश करता नहीं लग रहा था। भर्तहरि ने देखा कि दिन भर में मकड़ी ने उसके साथी को खा लिया था। अब मकड़ी उस जाले में अण्डे दे रहीं थीं। मकड़ी के नये बच्चे आस पास घूम रहे थे। भर्तहरि को महल में अपनी स्थिति का आभास हुआ। 

तीन दिन बीतने पर योगी का बुलावा आया। योगी ने आदेश दिया  “आज से तुम रोज सुबह जा कर महल के सामने झाड़ू लगा कर महारानी से भिक्षा मांग कर लाओ।”

 योगी ने पहनने  के लिए सफेद वस्त्र दिया। एक खप्पर खाना रखने के लिए, तुम्बा पानी रखने के लिए तथा एक लाठी दी। भर्तहरि को आज तीन दिन बाद नहाने, कपड़े बदलने को मिला। उसे अब भूख का अहसास भी हो रहा था। यह उसके जीवन में पहली बार था, अब तक नहाना, वस्त्र  बदलना व खाना  बिना नागा अपने आप होता रहा था। भर्तहरि को अपने मन की कोई जानकारी ही नहीं थीं। कि अब वह क्या लीला दिखने वाला है। जो व्यक्ति इस नगर का महाराजा रहा हो वह उसी नगर के उसी राजमहल के सामने झाड़ू लगा कर के उसकी ही महारानी से भिक्षा मांगेगा? 

भर्तहरि योगी से वचनबध्य था। वह करण नहीं पूछ सकता था। वह कल्पना कर रहा था कि वह उसी की राजधानी में झाड़ू लगा कर भिक्षा मांगने के लिए आवाज लगावे, तो उसे कितनी मर्मांतक पीड़ा होगी। लेकिन वह अब कुछ नहीं कर सकता था। 

जब उसने पहली बार झाड़ू उठाया तो मन ने सवाल उठाया “भर्तहरि ! तुम राज्य भोगने के लिए जन्मे हो झाड़ू लगाने व भिक्षा मांगने के लिए नहीं। लोग क्या कहेगे ? तुम्हारे परिवार की मर्यादा का क्या होगा ? कितनी लज्जा व शर्म की बात है ?” 

भर्तहरि का मन मलिन हो कर गला सूख गया। शर्म व अपमान की पीड़ा से शरीर कांप उठा। पसीने से शरीर भींग गया।  तनाव मन में इतना बड़ा की उसे चक्कर आ गया। आँखो  के सामने अंधेरा छा गया, वह गश खा कर भूमि पर गिर गया। उसकी चेतना धीरे - धीरे लौटी तो उसे योगी को दिया अपना वचन याद आया। उसे ख्याल आया की वापिस जाना अब सम्भव नहीं है। यदि वह दुबारा परिवार में लौटा तो राजमहल में उसके लिए कोई जगह नहीं है। उस में भी जग हसाई ही होगी। दोनों तरफ अपमान जान कर भर्तहरि ने निश्चय किया की वह योगी की बात मानेगा।  

ऐसा निश्चय मन में ठान कर मन की दुविधा मिट गई। शरीर में चेतना लौट आई।  वह उठ खड़ा हुआ तथा धीरे - धीरे कदम राजमहल की ओर उठ गए। राजमहल के द्वारपालों ने जब भर्तहरि को आता देखा तो इसकी सूचना तत्काल विक्रमादित्य को दी गई। वह दौड़ कर बाहर आया। अपने बड़े भाई की ऐसी हालत देख कर उसका मन रो पड़ा। सभी रानियाँ व बच्चे महल के झरोखों से झाँख रहे थे। जब विक्रम भाई को गले लगाने के लिए आगे बड़ा तो भर्तहरि ने उसे हाथ के इशारे से दूर ही रोक दिया। 

भर्तहरि ने नीचे मुँह कर राजमहल के नीचे गली में झाड़ू लगाना शुरू किया ही था कि महल के चारों तरफ लोगों की भीड़ लग गई। राजमहल के अंदर से रोने की आवाजें आने लगी। भर्तहरि ने लोगों पर ध्यान ना दे कर अपना काम जारी रखा। फिर उसने जोर से अलख निरंजन की अलख जगाई व राजमहल के द्वार पर भिक्षा मांगी। पटरानी ने रुंधे गले व कांपते हाथों से भर्तहरि के खप्पर में भिक्षा दी। भर्तहरि ने फिर अलख निरंजन की अलख जगाई और मुँह नीचे किये बिना किसी से कुछ कहे आश्रम की ओर चल दिया। 

नदी के किनारे तक भीड़ उसके पीछे - पीछे  चली। भीड़ के आगे विक्रम नंगे पाँव चल रहा था। क्षिप्रा नदी के किनारे उसने विक्रम को वापिस जाने का इशारा किया और खुद नदी के उस पार आश्रम के अंदर जा कर भिक्षा का पात्र योगी के सामने रख दिया। पहले योगी ने भगवान को भोग़ लगाया फिर खुद खाया व अपना जूठा बचा भाग भर्तहरि को खाने का आदेश दिया। भर्तहरि ने आज तीन दिन बाद कुछ मुँह में रखा था। इस जैसा स्वाद उसे कभी भी राजमहल में नहीं आया था। धीरे - धीरे रोज के इस क्रम से भर्तहरि का अहंकार गलता जा रहा था।  हर रोज वह पहले से अपने आप को मन में हल्का होता महशूस करता था। तब उसे समझ आया कि उसके अहंकार को गलाने की योगी की यह साधना थीं। भर्तहरि अपनी पहली परीक्षा में पास हो गया था। योगी उसकी प्रीतिदिन की चाल देख कर जान जाता था। 


भर्तहरि 

भाग छः 


धीरे - धीरे भर्तहरि अभ्यस्त हो रहा था तब योगी ने भर्तहरि को रानी पिंगला से भिक्षा माँग कर लाने का आदेश दिया। भर्तहरि की लिए यह आदेश मर्मांतक था। यह क्षण ऐसा था की वह सोच रहा था की पृथ्वी फट जाय और वह उस में समा जाय। आज कई दिनों के बाद उसने अपनी मृत्यु की कामना पूरी शृद्धा से की। उसने देखा की उसके मन में पिंगला के प्रति अभी भी द्वेष बचा है। उसने सब को माफ़ कर दिया था लेकिन वह पिंगला को अभी भी माफ़ नहीं कर पाया था। यहाँ तक की वह कोतवाल के घर से भी भिक्षा माँग कर लाया था। उसके मन में तब भी कोई द्वेष भाव नहीं था, लेकिन पिंगला की दी गई पीड़ा अचेतन मन में बहुत गहरे चली गई थी। वह धोखा भूल नहीं पाया था। 

भर्तहरि ने जाना की योगी उसके मन को पड़ने की विद्या जानते है। लेकिन योगी के आदेश का पालन तो करना ही था सो वह उठ कर चल दिया। जितना वह दृढ़ रहने की आज कोशिश करता मन उतना तेजी से भाग रहा था। वह रंगबिरंगी चूड़ियों का हाथ, वह विक्रम पर आरोप, वह फल का दुबारा उसके पास आना क्या महज संयोग मात्र था?  या विधि का विधान या फिर योगी का इंद्रजाल ? सवाल अनेक थे लेकिन प्रश्न अनुत्तरित ही थे।

आज जब मन इतना दुर्वल हो रहा था तब  नगर में वह जहां से गुजरता उसे महाराज के रूप में गुजरना याद आता। कोई परचित दिख जाता तो विचारों की पूरी शृंखला चल पड़ती। कैसे मन तरह - तरह के खेल खेल रहा हैं,  भर्तहरि दृष्टा की भांति सब देखते चला जा रहा था। अब गुफा में तपस्या करते - करते वह अपने आप को अपने मन के विचारों में दृष्टा व दृश्य के भेद को करने लगा था। उसे याद आया की गीता में कृष्ण ने इसे ही क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ कहा था।  

महाराज के रूप में मिले सम्मान का बार - बार स्मरण हो रहा था। मानस पटल पर स्मृतियों के छाया चित्र उभर आते। फिर वह अपने वर्तमान को देखता, अपनी वेशभूषा देखता तो स्वप्न टूट जाता। आज साधु के वेश में लोग उसे अलग नजरों से देख कर सम्मान से झुक जाते है। वह भिक्छुक  बनाने के संकल्प को बार - बार अंतःकरण में दुहराता तो यह विचार स्थिर हो जाता। 

कई बार यह आसान होता लेकिन अनेकबार कई दिन लग जाते। तब वह योगी के साथ चरणों में बैठ कर सत्संग करता। योगी उसके अशांत चित्र को पकड़ लेता। पर आज वह देख पा रहा था की पिंगला कभी चित से निकली नहीं थीं । उसका धोखा, उसके रूप का इंद्रजाल जिसमें वह खुद फॅसा था। वास्तव में देखें तो उस अबला नारी का तो कोई इरादा नहीं था वही यत्न कर शादी का प्रस्ताव ले कर गया था। वही अपनी उम्र का ख्याल किये बिना उस मासूम को व्याह कर लाया था। उसने सोचा था कि जो सुख उसे दो शादियों से नहीं मिला वह सुख वह तीसरी शादी कर पा लेगा, उसे समझ आया कि कैसे उनका मन उस मकड़े की तरह जाल में खुद मकड़ी के साथ उलझ गया और जब मकड़ी ने अपने प्राकृतिक गुण के कारण मकड़े को खा लिया तथा नई संतति को जन्म दिया तो हम मकड़ी के योगदान को भूल कर उसे मकड़े के खाने का दोषी मकड़ी को देने लगे। 

यह क्या पुरुष मानसिक्ता है कि आदि काल से पतन का कारण नारी को मानते रहे है, जबकि पुरुष अपनी वासना को महिमामंडित ही करता रहा हैं। जबकि पहल पुरुष ही करता है। “अहो! पिनगला ने मेरे जीवन में ‘अथ’ की स्थिति निर्मित कर दी थी उस दिन या तो मै आत्महत्या कर लेता या योगी बनने की राह पर जा सकता था।”  “हालांकि चुनना मुझे  ही था पर भला हो पिंगला का, की यह चुनाव में उस के कारण  कर सका। उस के धोखे ने मेरी राह आसान कर दीं, भला हो योगी का उसने रास्ता दिखा कर सन्यास की दिशा दिखा दी। हालांकि चुनाव सरल नहीं था लेकिन यह निर्णय कर सका।” इस तरह वह स्वः कथन कर रहा था। 

 जब विचार उस की ओर मुड़ गए तो उसके मन से पिंगला के प्रिति कलुष धुल गया। उसने जब अपना चेहरा क्षिप्रा के निर्मल जल में देखा तो जल के शांत तल पर उसे अपना चेहरा ही अनजान लगा। उसका चेहरा कितना बदल गया था। वहां न तो महाराज बाला रोबदार चेहरा था न वह गर्व। उसकी जगह निश्तेज़ चेहरा, धंसी आँखे, बड़ी दाढ़ी व विखरे बालों ने ले ली थी। वह उठा और निर्विकार रूप से पिंगला के सामने जा कर खड़ा हो गया। उसने देखा की पिंगला भी कितनी बदल गई थीं। वह तो साधु बन कर अपनी नई जिंदगी शुरू कर चुका था। लेकिन पिंगला क्या करे उसकी समझ नहीं आया। वह नीची नजरों से पिंगला के हाथों भिक्षा पा कर अपनी दूसरी परीक्षा पास कर चुका था।


भर्तहरि  

भाग  सात 


आज सुबह भर्तहरि क्षिप्रा के घाट पर आ कर बैठा था। सुबह की शीतल बयार चल रहीं थीं। भर्तहरि को आश्रम आए एक वर्ष से अधिक हो गया था लेकिन योगी ने अभी तक उसको शिष्य नहीं बनाया था। भर्तहरि ध्यान मग्न आखें बंद किये बैठा था कि धीरे से योगी ने पीछे से आ कर उसके कंधे पर रखा। भर्तहरि इस छुअन को पहचानता था। क्षिप्रा के निर्मल जल में उसने योगी की छवि देखी। उसने आखें खोली, योगी को नतमस्तक हो कर प्रणाम किया और बोला “आदेश।”

 योगी उसका ही गीत गाने लगा - ‘मरो वै जोगी मरौ, मरण है मीठा। मरणी मरौ जिस मरणी, गोरख मरि दीठा॥’ भर्तहरि योगी का मन्तव्य समझ गया। भर्तहरि ने श्रृद्धा वश योगी की चरण रज अपने माथे पर लगा ली। दोनों फिर आश्रम आ गए। शाम को भर्तहरि फिर नदी के किनारे गया। नदी की बहती धार देख कर उसे संसार के चलने का अहसास दिलाता। दूर सूरज डूब रहा था।इधर भर्तहरि का मन उदासी से घिरता जा रहा था। मानो बाहर फैलाती कालिमा मन के अंदर भी फैल रही थीं। 

चारों तरफ मंदिरों में घन्टियॉ बजना शुरू हो गई थीं। संध्या वंदन का समय था। वह तेजी से उठा और आश्रम की ओर चल दिया। आश्रम में योगी धूनी के सामने बैठे थे। वह यकायक योगी के चरणों में गिर गया। योगी ने पकड़ कर उठाया फिर दोनों धूनी के पास बैठ गए। पंछी घरों की और लौट रहे थे। बाहर पेड़ों पर कलरव बढ़ गया था. योगी का वेश, शांत चेहरा, बड़ी बड़ी चमकदार आखें, चेहरे पर सदा रहने वाली मंद - मंद मुस्कान तथा कानों में झूलते बड़े - बड़े कुण्डल, धूनी से उठता धुआँ वातावरण को रहस्यमय बना रहे थे। धूनी की राख में योगी का चिमटा गड़ा था तथा योगी के साथ रहनेवाला काला कुत्ता पास में चटाई पर लेटा था। 

योगी ने पूछा “बच्चा क्या बात है आज तुम सुबह से क्यों परेशान हो?’

 भर्तहरि ने सर झुकाकर निवेदन किया कि “महाराज पुरानी स्मृतियाँ पीछा नहीं छोड़ती है।”  “कभी - कभी जीवन लीला समाप्त करने का मन करता है।”

 योगी ने गुनगुनाना शुरू किया - “अवधू मन चंगा तो कठौती गंगा, बांध्या मेल्हा तौ जगत चेला। बदंत गोरख सत सरूप, तत विचारै तै रेख न रूप॥”’ 

योगी ने भजन के बाद कहा “प्रकृति के तीन गुण हैं - सत्व, रजस, और तमस. ये तीनों गुण ऊर्जा के गुण हैं और इनसे ही सृष्टि बनी है. ये गुण सभी भौतिक और मानसिक घटनाओं का आधार हैं । रजोगुण प्रभाव से जीवन की 84 लाख प्रजातियों के शरीर बनते है। रजस प्रभाव जीव को संतानोत्पत्ति के लिए प्रजनन करने को मजबूर करके, विभिन्न योनियों में प्राणियों की उत्पत्ति कराते हैं।”

“सतोगुण जीवों का उनके कर्मों के अनुसार का पालन-पोषण करते हैं और सतोगुण सत्व के प्रभाव जीव मे प्रेम और स्नेह विकसित करके, इस अस्थिर लोक की स्थिति को बनाए रखते हैं। और तमोगुण विनाश का प्रतिनिधित्व करते हैं। तमोगुण तमस के प्रभाव की भूमिका प्राणियों को अंततः नष्ट करने की है। इन सभी का सृष्टि के संचालन मे योगदान है। मनुष्य की चेतना तीन गुण सत्व, तम और रज से जुड़ी है जो न केवल मनुष्य की चेतना निर्धारित करते हैं बल्कि उसके जीवन के कर्म, मिलने वाले फल और उसके मृत्यु के बाद की दशा भी तय करते हैं। सत्व गुण हल्कापन देता है, रज गुण गति और तम गुण मोह व आलस्य देता है। इन गुणों के कारण ही मन में बदलाव आता रहता है।” 

“मनुष्यों के गुणों और कर्मों के अनुसार चार वर्णों की रचना की गयी है।सो नियमपूर्वक वे आपके ही मार्गका अनुसरण क्यों करते हैं दूसरेके मार्गका क्यों नहीं करते, ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णोंका नाम चातुर्वर्ण्य है। सत्त्व रज तम इन तीनों गुणों के विभाग से तथा कर्मों के विभाग से यह चारों वर्ण  ईश्वरद्वारा रचे हुए उत्पन्न किये हुए हैं।”

योगी ने  कहा “बच्चा मन की धारा को समझों। जब तुम्हें कोई याद आए तो सुखी को मित्रता का भाव से, दुःखी के प्रति  करुणा का भाव , पुण्य आत्मा के प्रति हर्ष तथा पापात्मा के प्रति उपेक्षा का भाव रखने का अभ्यास करो। किसी विचार को अपना ना मानो केवल दूर से देखो। अच्छे बुरे का भाव मत लाओ।”

“ इस अभ्यास से चित निर्मल होता है। जैसे नदी पर करते समय पैरों से नीचे की गंदगी ऊपर आ जाती है बैसे ही पुरानी स्मृतियाँ उभर आती है। जैसे नदी के जल को स्वच्छ करने के लिए धैर्य के साथ प्रतिक्षा करना होती है उसी प्रकार चित को शांत करने के लिए सीधे कुछ नहीं किया जा सकता।” 

योगी ने  कहा  “लेकिन यदि तुम स्थूल शरीर के शुरू करो तो फिर धीरे - धीरे मन, विचार, चित व अनुभूतियों के साथ कुछ किया जा सकेगा।”

  योगी ने समय आया जान कर धीरे - धीरे भर्तहरि को योग में दीक्षित करने का निश्चय किया। लेकिन एक बाधा थी।  वह थी भर्तहरि का शरीर। वह बहुत कमजोर था।  योगी जनता था कि कमजोर शरीर से योग साधना करना कठिन हैं। अतः शरीर पुष्ट करने के लिए योगी ने भर्तहरि को सबसे पहले शरीर शोधन के लिए षट्कर्म धौति -  धौति क्रिया, पाचन तंत्र को साफ़ करने का एक योग अभ्यास सिखाया।

यह षट् कर्म यानी छह शुद्धिकरण प्रक्रियाओं में से एक है। वस्ति क्रिया एक आयुर्वेदिक उपचार है । इसमें गुदा मार्ग से औषधीय द्रवों को शरीर में डाला जाता है । यह बड़ी आंत को साफ़ करती है और शरीर से विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालती है । वस्ति क्रिया के दो तरीके हैं - स्थल बस्ती और जल बस्ती ।

 नेति क्रिया दो तरह की होती है- जलनेति और सूत्रनेति । जलनेति में पानी से नाक की सफ़ाई की जाती है, जबकि सूत्रनेति में गीली डोरी या पतली ट्यूब का इस्तेमाल किया जाता है । 

त्राटक योग का उपयोग सबसे पहले मन की अस्थिरता को दूर करने और एकाग्रता को बढ़ावा देने के साथ-साथ आंखों की मांसपेशियों को मजबूत करने के लिए किया जाता है । 

नौली क्रिया, योग की एक शुद्धि क्रिया है. यह पेट की मांसपेशियों को गोल-गोल घुमाती है और पाचन अंगों की सफ़ाई करती है । 

कपाल भाति प्राणायाम करने के लिए रीढ़ को सीधा रखते हुए किसी भी ध्यानात्मक आसन, सुखासन या फिर कुर्सी पर बैठें। इसके बाद तेजी से नाक के दोनों छिद्रों से साँस को यथासंभव बाहर फेंकें। साथ ही पेट को भी यथासंभव अंदर की ओर संकुचित करें, आदि का अभयास करवाना शुरू किया। 

शुरूआती दिनों में यह सब क्रियाएँ करना भर्तहरि को बहुत ही कठिन थी। रोज उसे लगता की यह क्रियाएँ असंभव है। लेकिन कुशल हाथों में होने के कारण धीरे - धीरे उसका शरीर इन सब के लिये अनुकूल होता गया।

 इस के बाद योगी ने सिद्ध आसन, पदमासन, सिंहासन ताड़ासन, वृक्षासन, अधोमुख आसन, शव आसन, कोणआसन, पश्चिमोत्तार आसन, सेतुबंध आसन, शलभासन, उत्तानपाद आसन व भद्रासन आदि का अभ्यास करना सिखाया। 

फिर बारी आई बंध सीखने की। तो उसे मूलबन्ध, उड्डियानबन्ध, जालन्धरबन्ध, सिखाए गए।  योगी ने अपने एक कुशल शिष्य को भर्तहरि के अभ्यास के दौरान उसके साथ हमेशा रखा। जो नियत समय पर भर्तहरि को अभ्यास करबाता तथा उनके खान पान का ख्याल रखता था। 

फिर प्राणायाम का अभ्यास शुरू हुआ। इसके तहत कुम्भक, रेचक, सूर्य भेदन, सीत्कारी, भस्त्रिका, भ्रामरी, आदि का कठिन अभ्यास शुरू हुआ। इसके साथ महा मुद्रा जैसे खेचरी, विपरीतकर्णी, वज्ज्रोली, सहजौली, अमरोली, शाम्भवी, उन्मनी आदि सिखाई गई। 

इन अभ्यासों के कारण भर्तहरि के शरीर की शुद्धी हुई, शरीर दृढ़ हुआ, शरीर की स्थिरता बढ़ गई शरीर हल्का हो गया। अब भर्तहरि का मन इन सब में लगाने लगा। 

योगी भजन गा रहा था - “गगन मंडल मैं ऊँधा कूवा, वहाँ अमृत का बासा। सगुरा होई सु भरि भरि पीवै, निगुरा जाई पियासा॥”

 पहले भी उसने योगी को यह गाते सुना था लेकिन तब समझ कुछ नहीं आता था।  अब वह इस का गूढ़ अर्थ जान गया है।  उसे कुछ - कुछ अनुभव होने लगा है। भर्तहरि के साथी ने उसके लिए कुश, कम्बल व सफेद चादर बिछा कर योग काने के लिये एक आसन तैयार किया जो न तो बहुत ऊंचा था और न बहुत नीचा। इसी आसन पर वह रोज नियत समय पर शुरू में सुख आसन में बैठता। रीढ़ को सीधी रखता। 

आज योगी का वह शिष्य भी योगी का भजन गा रहा था “गगनि मंडल में गाय बियाई, कागद दही जमाया। छांछि छांणि पिंडता पीवी, सिधां माखण खाया॥”

 अब इन सब उलट बासियों  को समझना भर्तहरि के लिए सरल था।  

भर्तहरि प्रतिदिन यौगिक क्रियाओं का नियमित अभ्यास करने लगे। योगी उन्हें यौगिक परंपरा के अनुसार नियमित स्वाध्याय करते।

योग विज्ञान के मुताबिक, इंसान के शरीर की पांच परतें होती हैं: अन्नमय कोष, मनोमय कोष, प्राणमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनंदमय कोष के विज्ञान से परचित करवाया गया। 

इंसान के तीन शरीर होते हैं: स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर । इन तीनों शरीरों के होने का मकसद अलग है और इनकी क्षमताएं भी अलग हैं ।

हमारे शरीर में  मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार चक्र होते है। योगी ने बताया कि हम इन सात चक्रों की ऊर्जा का ठीक प्रबंधन कर लें तो असाधारण सफलता भी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। 

सामान्यत: हमारी सारी ऊर्जा मूलाधार चक्र होती है । ध्यान के माध्यम से मूलाधार में स्थित अपनी ऊर्जा को सहस्त्रार तक लाते हैं। सांसों के नियंत्रण और ध्यान से इस ऊर्जा को ऊपर खींचा जा सकता है। जैसे-जैसे हम ऊर्जा को एक-एक चक्र से ऊपर उठाते जाते हैं ।

 हमारे व्यक्तित्व में चमत्कारी परिवर्तन दिखने लगते हैं। तो आज मैं तुम्हें बताता हूँ कि आखिर ये चक्र हैं क्या? “मनुष्य के शरीर में कुल मिलाकर 114 चक्र हैं। वैसे तो शरीर में इससे कहीं ज्यादा चक्र हैं, लेकिन ये 114 चक्र मुख्य हैं।”

 आप इन्हें नाड़ियों के संगम या मिलने के स्थान कह सकते हैं। यह संगम हमेशा त्रिकोण की शक्ल में होते हैं। वैसे तो ‘चक्र‘ का मतलब पहिया या गोलाकार होता है। चूंकि इसका संबंध शरीर में एक आयाम से दूसरे आयाम की ओर गति से है, इसलिए इसे चक्र कहते हैं, पर वास्तव में यह एक त्रिकोण है।

हमारा शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना है, जिसमें पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश शामिल है. ये 5 तत्व शरीर के 7 मुख्य चक्रों में बंटे हुए हैं. इन्हीं पांच तत्वों और सात चक्रों के संतुलन से शरीर स्वस्थ बनता है ।

मूलाधार चक्र - आपका मूलाधार चक्र आपके शरीर की जड़ या नींव माना जाता है। मूलाधार या मूल चक्र प्रवृत्ति, सुरक्षा, अस्तित्व और मानव की मौलिक क्षमता से संबंधित है। यह जनेंन्द्रिय और अधिवृक्क मज्जा से जुड़ा होता है। मूलाधार का प्रतीक लाल रंग और चार पंखुडिय़ों वाला कमल है। इसका मुख्य विषय कामवासना, लालसा और सनक में निहित है। शारीरिक रूप से मूलाधार काम-वासना को, मानसिक रूप से स्थायित्व को, भावनात्मक रूप से इंद्रिय सुख को और आध्यात्मिक रूप से सुरक्षा की भावना को नियंत्रित करता है। इस क्षेत्र में एक मांसपेशी होती है, जो यौन क्रिया में स्खलन को नियंत्रित करती है। शुक्राणु और डिंब के बीच एक समानांतर रूपरेखा होती है, जहां जनन संहिता और कुंडलिनी कुंडली बना कर रहता है। मूलाधार का प्रतीक लाल रंग और चार पंखुडिय़ों वाला कमल है। इसका मुख्य विषय काम—वासना, लालसा और सनक में निहित है। शारीरिक रूप से मूलाधार काम-वासना को, मानसिक रूप से स्थायित्व को, भावनात्मक रूप से इंद्रिय सुख को और आध्यात्मिक रूप से सुरक्षा की भावना को नियंत्रित करता है। आप इस चक्र को प्राणायाम और बुनियादी योग मुद्राओं के माध्यम से संतुलित कर सकते हैं जैसे: ताड़ासन, वृक्षासन, शवासन। इसका बीजाक्षर है – “लं” व्यक्ति के अन्दर अत्यधिक भोग की इच्छा और आध्यात्मिक इच्छा इसी चक्र से आती है।

स्वाधिष्ठान च्रक - स्वाधिष्ठान चक्र त्रिकास्थि यानी कमर के पीछे की तिकोनी हड्डी में अवस्थित होता है और अंडकोष या अंडाशय के परस्पर के मेल से विभिन्न तरह का यौन अंत:स्राव उत्पन्न करता है जो प्रजनन चक्र से जुड़ा होता है। स्वाधिष्ठान को आमतौर पर मूत्र तंत्र और अधिवृक्क से संबंधित भी माना जाता है। त्रिक चक्र का प्रतीक छह पंखुडिय़ों और उससे परस्पर जुड़ा हुआ नारंगी रंग का एक कमल है। स्वाधिष्ठान का मुख्य विषय संबंध, हिंसा, व्यसनों, मौलिक भावनात्मक आवश्यकताएं और सुख है। शारीरिक रूप से स्वाधिष्ठान प्रजनन, मानसिक रूप से रचनात्मकता, भावनात्मक रूप से खुशी और आध्यात्मिक रूप से उत्सुकता को नियंत्रित करता है।त्रिक चक्र का प्रतीक छह पंखुडिय़ों और उससे परस्पर जुदा नारंगी रंग का एक कमल है। स्वाधिष्ठान का मुख्य विषय संबंध, हिंसा, व्यसनों, मौलिक भावनात्मक आवश्यकताएं और सुख है। शारीरिक रूप से स्वाधिष्ठान प्रजनन, मानसिक रूप से रचनात्मकता, भावनात्मक रूप से खुशी और आध्यात्मिक रूप से उत्सुकता को नियंत्रित करता है।इस चक्र का बीज मंत्र है “वं” इस चक्र को तामसिक चक्र माना जाता है।

मणिपुर चक्र - मणिपुर चक्र आपके ऊपरी पेट और छाती की हड्डी के बीच  में स्थित है। आपके जिगर, पित्ताशय, पेट, तिल्ली और अग्न्याशय से जुड़ा हुआ, यह तीसरा चक्र आपकी व्यक्तिगत शक्ति या आपकी सहज प्रवृत्ति का स्रोत माना जाता है। आपका करियर, क्षमताएं और आत्म-सम्मान इस चक्र से प्रभावित होते हैं। शारीरिक रूप से, आपका मणिपुर चक्र आपके पेट से जुड़ा होता है और आपके चयापचय और पाचन तंत्र से संबंधित हर चीज को नियंत्रित करता है। जब यह अवरुद्ध हो जाता है, तो आपको पेट के अल्सर, अग्नाशयशोथ , पित्ताशय विकार, मधुमेह और अन्य पाचन विकार हो सकते हैं। ये पाचन में, शरीर के लिए खाद्य पदार्थों को ऊर्जा में रूपांतरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसका प्रतीक दस पंखुडिय़ों वाला कमल है। मणिपुर चक्र से मेल खाता रंग पीला है। मुख्य विषय जो मणिपुर द्वारा नियंत्रित होते हैं, ये विषय है निजी बल, भय, व्यग्रता, मत निर्माण, अंतर्मुखता और सहज या मौलिक से लेकर जटिल भावना तक के परिवर्तन, शारीरिक रूप से मणिपुर पाचन, मानसिक रूप से निजी बल, भावनात्मक रूप से व्यापकता और आध्यात्मिक रूप से सभी उपादानों के विकास को नियंत्रित करता है।इस चक्र का बीज मंत्र है- “रं” ।

अनाहत चक्र - आपका चौथा चक्र, या अनाहत आपकी छाती में, हृदय क्षेत्र के पास स्थित है। यह चक्र दूसरों के लिए प्यार, रोमांस और सहानुभूति की भावनाओं से जुड़ा हुआ है। अवरुद्ध हृदय चक्र आपको हृदय संबंधी बीमारियों, तंत्रिका टूटने, स्तन कैंसर, रीढ़ की हड्डी का पार्श्व वक्र, उच्च रक्तचाप , नींद संबंधी विकार और बहुत कुछ के लिए अधिक प्रवण बना सकता है। यह चक्र तनाव के प्रतिकूल प्रभाव से भी बचाव का काम करता है। अनाहत का प्रतीक बारह पंखुडिय़ों का एक कमल है। अनाहत हरे या गुलाबी रंग से संबंधित है। अनाहत से जुड़े मुख्य विषय जटिल भावनाएं, करुणा, सहृदयता, समर्पित प्रेम, संतुलन, अस्वीकृति और कल्याण है। शारीरिक रूप से अनाहत संचालन को नियंत्रित करता है, भावनात्मक रूप से अपने और दूसरों के लिए समर्पित प्रेम, मनासिक रूप से आवेश और आध्यात्मिक रूप से समर्पण को नियंत्रित करता है।इस चक्र का बीज मंत्र है – “यं” 

विशुद्धि चक्र - यह चक्र गलग्रंथि, जो गले में होता है, के समानांतर है और थायरॉयड हारमोन उत्पन्न करता है, जिससे विकास और परिपक्वता आती है। इसका प्रतीक सोलह पंखुडिय़ों वाला कमल है। विशुद्ध की पहचान हल्के या पीलापन लिये हुए नीले या फिरोजी रंग है। यह आत्माभिव्यक्ति और संप्रेषण जैसे विषयों, जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है, को नियंत्रित करता है। इसका प्रतीक सोलह पंखुडिय़ों वाला कमल है। विशुद्ध की पहचान हल्के या पीलापन लिये हुए नीले या फिरोजी रंग है। यह आत्माभिव्यक्ति और संप्रेषण जैसे विषयों, जैसा कि ऊपर चर्चा की गयी हैं, को नियंत्रित करता है। शारीरिक रूप से विशुद्ध संप्रेषण, भावनात्मक रूप से स्वतंत्रता, मानसिक रूप से उन्मुक्त विचार और आध्यात्मिक रूप से सुरक्षा की भावना को नियंत्रित करता है।इसका बीज मंत्र है – “हं”।

आज्ञा चक्र - मानसिक दृढ़ता और क्षमा भाव देता है, आज्ञा चक्र दोनों भौहों के मध्य स्थित होता है। आज्ञा चक्र का प्रतीक दो पंखुडिय़ों वाला कमल है और यह सफेद, नीले या गहरे नीले रंग से मेल खाता है। आज्ञा का मुख्य विषय उच्च और निम्न अहम को संतुलित करना और अंतरस्थ मार्गदर्शन पर विश्वास करना है। आज्ञा का निहित भाव अंतज्र्ञान को उपयोग में लाना है। मानसिक रूप से, आज्ञा दृश्य चेतना के साथ जुड़ा होता है। भावनात्मक रूप से, आज्ञा शुद्धता के साथ सहज ज्ञान के स्तर से जुड़ा होता है।चक्र के दो अक्षर और दो बीज मंत्र हैं – ह और क्ष 

सहस्रार चक्र - सहस्रार को आमतौर पर शुद्ध चेतना का चक्र माना जाता है। यह मस्तक के ठीक बीच में ऊपर की ओर स्थित होता है। इसका प्रतीक कमल की एक हजार पंखुडिय़ां हैं और यह सिर के शीर्ष पर अवस्थित होता है। सहस्रार का आतंरिक स्वरूप कर्म के निर्मोचन से, दैहिक क्रिया ध्यान से, मानसिक क्रिया सार्वभौमिक चेतना और एकता से और भावनात्मक क्रिया अस्तित्व से जुड़ा होता है। जब आपका सहस्रार  चक्र अवरुद्ध या असंतुलित होता है, तो आपको माइग्रेन, मिर्गी दौरा विकार और आपकी दाहिनी आंख से संबंधित परेशानियों का अनुभव हो सकता है। इसका प्रतीक कमल की एक हजार पंखुडिय़ां हैं और यह सिर के शीर्ष पर अवस्थित होता है। सहस्रार बैंगनी रंग का प्रतिनिधित्व करती है और यह आतंरिक बुद्धि और दैहिक मृत्यु से जुड़ी होती है। सहस्रार का आतंरिक स्वरूप कर्म के निर्मोचन से, दैहिक क्रिया ध्यान से, मानसिक क्रिया सार्वभौमिक चेतना और एकता से और भावनात्मक क्रिया अस्तित्व से जुड़ा होता है।इस चक्र का न तो कोई धयान मंत्र है और न ही कोई बीज मंत्र , इस चक्र पर केवल गुरु का ध्यान किया जाता है।ओम या आह का जाप करें । 


भर्तहरि 

भाग आठ 


रोग शरीर की जीवन शक्ति या प्राण के असंतुलन से उत्पन्न होते हैं। इस जीवन शक्ति का संतुलन तीन शारीरिक गुणों के संतुलन से निर्धारित होता है जिन्हें दोष कहा जाता है: वात, पित्त और कफ। हम सभी का शरीर इन तीनों में से किसी एक प्रवृत्ति का होता है, जिसके अनुसार उसकी बनावट, दोष, मानसिक अवस्था और स्वभाव का पता लगाया जा सकता है। शरीर में मौजूद पांच वायुओं के नाम ये हैं - प्राण, अपान, उदान, समान, और व्यान. इन वायुओं को पंच प्राण भी कहा जाता है । ये वायुएं शरीर के भीतर गतिशील रहती हैं और शरीर के कई कार्यों में मदद करती हैं,  प्राणायाम करते या श्वास लेते समय हम तीन क्रियाएं करते हैं- 1.पूरक 2.कुम्भक 3.रेचक। उक्त तीन तरह की क्रियाओं को ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्बक कहते हैं।

कुंडलिनी जागरण एक आध्यात्मिक यौगिक प्रक्रिया है जिसमें शरीर में ऊर्जा का जागरण होता है. इस प्रक्रिया में शरीर के सात चक्र जागृत होते हैं और प्राण ऊर्जा शरीर के निचले हिस्से से ऊपर की ओर बहने लगती है। इसका अर्थ है कि आप अब तक जिन सच्चाईयों से भागते थे, उन्हें स्वीकारना शुरु कर देते हैं जिसे कई लोग आत्मज्ञान का प्राप्त होना कहते हैं। उनमें कई विषयों को लेकर जागरुकता आ जाती है। कुण्डलिनी जागरण ना केवल आपके भौतिक जीवन बेहतर करता है बल्कि आपका आध्यात्मिक जीवन भी एक अलग स्तर पर ले जाता है।कुंडलिनी की प्रकृति कुछ ऐसी है कि जब यह शांत होती है तो आपको इसके होने का पता भी नहीं होता। जब यह गतिशील होती है तब अपको पता चलता है कि आपके भीतर इतनी ऊर्जा भी है। इसी वजह से कुंडलिनी को सर्प के रूप में चित्रित किया जाता है। कुंडली मारकर बैठा हुआ सांप अगर हिले-डुले नहीं, तो उसे देखना बहुत मुश्किल होता है। 

कुंडलिनी योग एक शक्तिपूर्ण योग प्रक्रिया है, जिसमें ऊर्जा को जागृत किया जाता है। अगर इसे सही ढंग से किया जाए, तो यह आपके जीवन को बदल सकता है, कुण्डलिनी जागरण के लिए सबसे पहले अपनी सभी नाड़ियों को शुद्ध करना होता है। नाड़ियों में प्राण ऊर्जा प्रवाहित होती है। उसके साथ-साथ मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक ऊर्जा की भी शुद्धिकरण करनी पड़ती है।भर्तहरि का अभ्यास व स्वाध्याय निरंतर जारी था। अब उसे इस सब में मजा आने लगा था। उसका पूरा समय इन्हीं क्रियाओं में लग रहा था। इससे शरीर स्वस्थ हो गया तथा योगाभ्यास से हल्का महसूस होता था।  ऐसी अनुभूति उसे कभी नहीं हुई थी। यह नया जीवन की ओर प्रस्थान था।  

भर्तहरि को योगी के साथ सत्संग करते - करते बहुत कुछ ज्ञान हो रहा था तथा अभ्यास से प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ हो रही थी। हालांकि साधना कठोर है पर जीवन में करने जैसी है। शुरू - शुरू में शरीर साथ नहीं देता था तो वह अपने आसन पर सुख आसन में बैठता, रीढ़ को सीधा रखता तथा स्वास पर अभ्यास करता था। कई महीने यह करते निकल गए। फिर धीरे - धीरे पद्मासन में बैठ कर रेचक, पूरक व कुम्भक का अभ्यास शुरू किया। इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना नाड़ी पर प्रयोग शुरू हुआ। चन्द्र नाड़ी व सूर्य नाड़ी का विस्तार से योगी ने विवरण दिया। 

योगी ने बताया की प्राण वायु द्वारा मन का सम्बन्ध शरीर से जुड़ता है यदि हम प्राण वायु को नियंत्रित कर होश पूर्वक साँस लेते है तो हम चित को शांत कर सकते है।श्रवण, स्पर्श, दृष्टि, स्वाद और गंध - और पाँच इंद्रिय बोध और पाँच इंद्रिय-अंगों के अनुरूप पाँच तन्मात्राएँ हैं।इन पर ध्यान एकाग्र करने पर चित शांत हो जाता है। भर्तहरि ने यह अभ्यास करके जाना। 

योगी ने बताया कि “राग हीं पुरुष मन को बांधने वाला होता है। हमारे अन्तःकरण के चार आयाम है।  जिन्हें हम मन, बुद्धि , चित व अहंकार के रूप में जानते है।  लेकिन सामान्य मनुष्य बाहर से इन्हें एक ही जानता है।” 

इसके अलावा योगी ने बताया की स्वप्न व निद्रा का आलंबन करने वाला भी चित को स्थिर कर सकता है। एक इष्ट को धारण करने व एक मन्त्र का जाप करने से भी चित शांत होता है। पुरुष को अपनी प्रकृति के आधार पर इनमें से एक विधि का चयन कर साधना करना चाहिए। योगी ने भर्तहरि को कहा  “जो विधि तुम्हें सहज लगे उसी का निरंतर शृद्धा के साथ निरंतर अभ्यास करो।”

 योगी के उठाने पर भर्तहरी के मुँह से अनायास निकला - “आदेश” और वह दण्डवत हो गया। 

भर्तहरि अभ्यास करने आसान पर बैठ गया। उसकी चेतना श्वास पर स्थिर थी और चेतना दीपक की लौ की तरह बिना काँपे सीधी रीढ़ के निचे मूलाधार में महशूस हो रही थी। यह अवस्था कब तक रही भर्तहरि को समय का भान न रहा। जब उसकी तंद्रा टूटी तो बाहर दूर कुकर व शियारो का शोर हो रहा था। गुफा से बाहर आ कर आकाश की और देखा तो उसे तारो की स्थिति देख कर पता चला की मध्य रात्रि हो रही है। भर्तहरि ने क्षिप्रा नदी को देखा तो उसे शांत नदी सोती हुई लगी। आकाश में चाँद नदी की शांत सतह पर चमक रहा था। मानो चाँद नदी में नहा रहा हो। भर्तहरि का चित शांत था वह पुनः गुफा में सोने चला गया।  


भर्तहरि 

भाग नौ  


आश्रम में सेवा देते, नगर में भिक्षा मांगते तथा योग साधना करते आज एक वर्ष बीतने को आ गया था। केवल तीन दिन शेष थे। पूर्णमासी का दिन भर्तहरि को अवलम्बी की दीक्षा दे कर साथी बनाने के लिए योगी ने निश्चित किया। आश्रम में उत्सव का माहौल था, लेकिन भर्तहरि उदास था। कल पूर्णमासी का दिन है। कल योगी भर्तहरि के गुरु बन जायगे। मन में भविष्य की कल्पनाओ का रेला चल रहा है। आज की रात साधना में मन नहीं लग रहा है। 

वह नाथ संप्रदाय का अधिकृत सदस्य होने जा रहा है। गुरुऔ कि परम्परा की कहानियां मन में धूमने लगी। कितने किस्से, कितनी बातें अपार ज्ञान। सुबह भर्तहरि को तैयार किया गया। मुंडन किया गया। क्षिप्रा के शीतल जल में तीन डुबकी लगा कर स्नान कराया गया। बिना सिला वस्त्र पहनाया गया। गले में काली ऊन का एक जनेऊ पहनाया, जिसे 'सिले' कहते हैं। इस में तीन धागें होते है जो इड़ा, पिंगला व सुष्मना नाड़ियों के प्रतीक है। यह शरीर की 72,000 नाड़ियों को पवित्र बनाने की प्रतिज्ञा का स्मृति चिन्ह है। अब उसे नाथ साधु के रूप में परिव्राजक जीवन बिताना हैं। उसे  भगवा रंग के बिना सिले वस्त्र धारण करना हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं। उनके एक हाथ में चिमटा, दूसरे हाथ में कमण्डल, दोनों कानों में कुण्डल, कमर में कमरबन्ध होगा। जटाधारी रहना होगा ।अब से नाथपन्थी भजन गाते हुए घूमना हैं और भिक्षाटन कर जीवन यापन करना हैं।

अब भर्तहरि गुरु के समक्ष जिज्ञासा कर सकता है। आगम पढ़ सकता है।अब से उसे गुरु के बताये पांच यम अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह व ब्रम्हचर्य का पालन करना अनिवार्य होगा। इसी तरह भर्तहरि को  पाँच नियम शौच, संतोष, तप, स्वध्याय व ईश्वरप्रणनीधान गुरु द्वारा पालन करने का आदेश दिया गया। रोज सभी योगी गुरु के उनके आसन पर बिराजमान होने पर उन्हें प्रणिपात कर प्रणाम करते “आदेश”  बोलकर दृढ़ आसन में बैठ जाते। गुरु प्रीति दिन व्याख्यान देते, जिन्हें योगी बार - बार दुहरा कर स्मरण करते। आश्रम में नियमित योगाभ्यास अपनी गुफा में करना होता। बीच - बीच में गुरु के आदेश से अलग - अलग गांवों में भिक्षाटन के लिये जाते थे। आश्रम में दिए गये काम साधना का भाग मान कर बिना शिकायत करते। 

गुरु का आदेश सर्वोपरि था। आश्रम में यह क्रम निर्वाध रूप से चलता रहता, लेकिन कभी - कभी कोई शिष्य दैहिक, दैविक व भौतिक कारणों से बीमार हो जाते। तब गुरु ने एक दिन सब को योग में होने बाले इन अंतरायों व्यवधानों के निदान पर उपदेशित किया।

 गुरु के कहा कि “मुख्य रूप से नौ व्याधियाँ है जो योग में अंतराय बन जाती है। इन में पहली व्याधि शारीरक बीमारी है। इस का इलाज धोती, वस्ति, नेति, त्राटक, नौलि व कपालभाती का प्रयोग कर किया जाता है।” सभी शिष्यों को प्रयोग कर इन सभी क्रियाओं में परंगत किया गया।इस व्याधि का उपाय आर्युर्वेद में दी गई औषधयों द्वारा है। शिष्यों को इन उपायों का ज्ञान जानना अनिवार्य किया गया ताकि वे अपने इलाज के साथ - साथ दूसरों का इलाज भी कर सके। 

“दूसरी व्याधि है स्त्यान। इस अवस्था में शरीर तो स्वस्थ रहता है लेकिन मन विचलित रहता है। इसका निदान नाद योग अभ्यास करने से होता है। तीसरी व्याधि शंशय है। जब मन में पंथ के प्रिति सन्देह उत्पन्न हो जाता है। इसका निदान पंथ व गुरु के प्रति एक निष्ट निष्ठा बढ़ा कर किया जाता है। चौथी अगली व्याधि में मन में प्रमाद व्याप्त हो जाता है। योग में मन नही लगता, साधना से मन उचट - उचट जाता है।  स्वाध्याय नहीं होता। इस अवस्था में चित को शांत व स्थिर करने के लिये प्राणायाम करने के निर्देश है। जिस के अंतर्गत सूर्य भेदन, शीतकारी, शीतला, भस्तिका, भ्रामरी, व प्लावनि अदि के प्रयोग गुरु द्वारा सिखाए गये।पांचमी व्याधि है आलश्य।  यह शरीर के स्तर की व्याधि है जब शरीर में तमस बढ़ जाता है। कुछ करने का मन नहीं करता। जब मन तो होता हे लेकिन शरीर साथ नहीं देता। इस व्याधि को दूर करने के लिए गुरु द्वारा आसन व मुद्राएँ सिखाई गई।  जिनमें सुख आसन, स्वस्तिक आसन, गो मुख आसन, वज्रासन, हलासन, उत्तानपाद आसन, ताड़ आसन, चक्र आसन, मयूर आसन, कूर्म आसन, कुक्कुट आसन, धनुषासन, शीर्ष आसन अदि प्रमुख आसन है। मुद्राओं में प्रमुख महामुद्रा, खेचरी मुद्रा, विपरीत करणी तथा वज्रोली है। छठी व्याधि है अविरति।  अविरति में विषय भोगों के प्रति आसक्ति बढ़ जाती है। इस को दूर करने के लिए बांधों के प्रयोग कराये गए। इनमें मूलबंध, जालंधर बंध, उड्डियान बंध, तथा महा बंध प्रमुख है। सातवीं व्याधि है भ्रांत दर्शन।  इस अवस्था में तरह - तरह की आवाजें सुनाई देना, ऐसी चीजें दिखाई देना जो है ही नहीं। इस अवस्था को दूर करने के लिए ध्यान तथा धारणा का अभ्यास सिखाया गया। आठवीं व्याधि हे अलब्ध भूमिकत्व। यह अवस्था तब आती है जब साधक अथक प्रयत्न करने पर भी सफलता नहीं पाता। अतः उसका भरोसा डगमगा जाता है।  इस अवस्था में साधक को अपने दूसरे साधकों तथा गुरु का आलंबन मिलता है और वह निरंतर शृद्धा के साथ निरंतर अभ्यास में लगा रहता है।  नौवीं व्याधि है अवस्थितान । इस व्याधि में साधक एक अवस्था में बहुत अधिक समय तक ठहर नहीं पता है तथा एक वार जो अनुभव पुनः ना होने से निराश हो जाता है।” गुरु ने बताया की इस अवस्था में बिना फल की कामना के निरंतर अभ्यास से ही छुटकारा मिलता है।     

भर्तहरि ने गुरु के उपदेशों का अभ्यास कठोरता के करना शुरू किया। जब जहाँ बाधा होती गुरु की शरण में जाता।  प्रश्न पूछता, शंका समाधान कर फिर अभ्यास मै लग जाता।  गुरु भी उसकी उपलब्धियों से  संतुष्ट रहते । भर्तहरि प्राकृतिक नियमों से ऊपर उठ मुक्त हो कर औघड़ की स्थिति प्राप्त करने की दिशा में बड़ रहा था। रात दिन योगाभ्यास के उसकी सभी वृत्तियाँ क्षीण हो रही थी तथा चित स्फटिक की भांति निर्मल हो रहा था। वह निरंतर अपनी चित वृतियों पर ध्यान लगता। गुरु ने अनेक वार अपने उपदेशों में उल्लेख किया था की चित की पाँच भूमियां है, जहां चित पैदा होता हैं। उन्हें  क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ़, तथा एकाग्र निरुद्ध के रूप में कहा गया है।  चित की वृत्तियाँ अनुभव के आधार पर किलिष्ट व अकिलिष्ट होती है। वृत्तियाँ मूलतः पॉँच प्रकार की होती है, जिन्हें प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा तथा स्मृति के रूप में जाना जाता है।  

गुरु महाराज ने इनके विबरण में बताया की प्रमाण तीन तरह के है प्रत्यक्ष, अनुमान, व आगम। समय - समय पर भर्तहरि ने इन का अनुभव अपने जीवन में किया था इसलिए वह गुरु की बातों को अनुभव कर  रहा था। यह उसके लिए कोरा ज्ञान न हो कर भोगा गया यथार्थ था। पिछले एक साल में उसने अनेक उतार चढ़ाओ देख लिए थे लेकिन गुरु महराज की कृपा से शृद्धा के साथ निरंतर अभ्यास से हर बाधा पार कर सका था। यह ईश्वर का प्रसाद ही था वरना उसकी क्या हैसियत थी।  सब प्रारब्ध व संचित कर्मों का फल था। 

गुरु महाराज ने पुरुष व प्रकृति का भेद बताया। क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ का अंतर समझाया। तब वह यह जान पाया कि पुरुष चेतन तत्व व प्रकृति अचेतन तत्व कैसे काम करते है। प्रकृति के तीन तत्व सत, राज तथा तम से कैसे प्रकिति के पाँच महाभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश का निर्माण करते है। इन त्वत्तो का अनुभव शरीर में पाँच कर्म इन्द्रियों मुँह, हाथ, लिंग, गुदा, पैर के माध्यम से उनकी तन्मात्राओं गंध, रूप, रस, स्पर्श, व शब्द के माध्यम से जानते है। इनसे हम स्थूल कार्य करते है। आँख, कान, नाक, त्वचा तथा जीभ पाँच वाह्य इन्द्रियाँ है तथा  मन, बुद्धि, चित और अहंकार हमारे अन्तःकरण है। इन्द्रियों के माध्यम से हमें विषयों का ज्ञान होता है। इन्हीं अनुभवों को हम मन में सुख अथवा दुःख के रूप में अनुभव करते है।  


भर्तहरि 

भाग दस


मनुष्य शरीर की संरचना का विस्तृत ज्ञान गुरु महाराज द्वारा भर्तहरि को कराया गया तथा प्रयोग कर दिखया गया। इससे अब भर्तहरि शरीर के अंदर व बाहर की हर प्रकिया को कारण काम के सम्बन्ध को समझते है। इसी क्रम में गुरु महराज ने नाड़ी विज्ञान का बोध करबाते हुए बताया की इड़ा नाड़ी रीढ़ के वाई तरफ है जो मस्तिष्क के दाये भाग से जुड़ी है।  इसको चंद्र  स्वर  या चंद्र नाड़ी भी कहते है।  पिंगला नाड़ी रीढ़ के दाई तरफ है जो मस्तिष्क के वायें भाग से जुड़ी है।  इसको सूर्य स्वर या नाड़ी भी कहते है। रीड़ के मध्य भाग में सुषुम्ना नाड़ी है।  शरीर के 108 केंद्र स्थूल शरीर को शूक्ष्म शरीर से जोड़ते है।  मानव शरीर के पाँच तल अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष तथा आनंदमय कोष है। शरीर के मध्य भाग में रीढ़ पर सात चक्र मूलाधार, स्वधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्वि, आज्ञा व सहत्रधार सात चक्र है। इन्ही नाड़ियों व चक्रों के माध्यम से प्राण ऊर्जा का प्रवाह शरीर में होता है। ऊर्जा के प्रवाह को निर्वाध संचारित करने के लिए ही नाड़ी शोधक प्राणयाम किया जाता है। मूलाधार चक्र में कुंडलनी तीन कुण्डली मार के सुषुप्ता अवस्था में स्थित है।  जिसे योग के माध्यम से जागृत कर मूलाधार से सहत्रधार तक ले कर योगी जाते है। 

मानव शरीर की अदभुत संरचना तथा उनकी शक्तियों को जानकर भर्तहरि अभिभूत हो उठे। लेकिन जब गुरु बार - बार पिंगला नाड़ी का उल्लेख करते तब -तब भर्तहरि के मानस पटल पर पिंगला रानी की सूरत उभर आती। जब आखिरी बार भर्तहरि महल में गुरु के आदेश पर पिंगला से भिक्षा लेने गया था तब उसने पिंगला की आशा भरी आखों में जो कातरता देखी थी वे नजरे उसे फिर दिखाई दे गई और उसका चित डोल गया लेकिन व्यैराग्य के अभ्यास के कारण वह अपनी कामनाओं पर काबू कर गया। यदा कदा गहन ध्यान की अवस्था में वे कातर आँखें उसका पीछा करती थी। अनेक बार भर्तहरि को पिंगला के साथ बिताए गए अनंत अंतरंग पल याद हो आते तब यादों का सैलाव रोकना कठिन हो जाता। हालांकि वह इन यादों से मुक्त होने के लिए गुरु महारज के सानिध्य में अथक प्रयास कर रहा था। लेकिन अभी समाधि दूर थी।  

नाथ संप्रदाय को अपनाने के बाद 7 से 12 साल की कठोर तपस्या के बाद ही सन्यासी को दीक्षा दी जाती थी। विशेष परिस्तिथियों में गुरु अनुसार कभी भी दीक्षा दी जा सकती है‍‌‍‍‍‍‍। दीक्षा देने से पहले वा बाद में दीक्षा पाने वाले को उम्र भर कठोर नियमो का पालन करना होता है। वो कभी किसी राजा के दरबार में पद प्राप्त नहीं कर सकता, वो कभी किसी राज दरबार में या राज घराने में भोजन नहीं कर सकता परन्तु राज दरबार वा राजा से भिक्षा जरुर प्राप्त कर सकता है। उसे बिना सिले भगवा वस्त्र धारण करने होते है ।हर साँस के साथ मन में आदेश शब्द का जाप करना होता है किसी अन्य नाथ का अभिवादन भी आदेश शब्द से ही करना होता है । सन्यासी योग व जड़ी- बूटी से किसी का रोग ठीक कर सकता है पर एवज में वो रोगी या उसके परिवार से भिक्षा में सिर्फ अनाज या भगवा वस्त्र ही ले सकता है। वह रोग को ठीक करने के लिए किसी भी प्रकार के आभूषण, मुद्रा आदि ना ले सकता हैऔर न इनका संचय कर सकता। भर्तहरि को अब इसी समय की प्रतीक्षा थी। जब उम्र के अंतिम चरण में वे किसी एक स्थान पर रुककर अखण्ड धूनी रमाते हैं तथा  कुछ नाथ साधक हिमालय की गुफाओं में चले जाते।

भर्तहरि की श्रद्धा पूर्वक की जा रही कठोर साधना व एक निष्ठा को देख कर गुरु महाराज ने औघड़ दीक्षा देने का दिन निश्चय किया। ब्रम्ह महूर्त में भर्तहरि को क्षिप्रा में स्नान के लिए ले जाया गया। घाट पर पहले मुण्डन किया गया फिर स्नान। इसके बाद गुरु महराज ने कोटी, भभूत व लगोट का संस्कार करवाया गया तथा 'संयम' करने का आदेश दिया गया। जिसके तहत गुरु महराज ने धारणा, ध्यान और समाधि का अभ्यास काने की विधियां बताई गई।  इसी से ऋतम्भरा प्रज्ञा का जन्म होने पर साधक पुरानी स्मृतियों से मुक्त हो सकता है। ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न होने वाले संस्कारों से पूर्व के संस्कार कट जाते है। क्योकि इसके पहले चित के पांच क्लेश अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश चित में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, व मत्सर उत्पन्न करते रहते है। 

 चूकि समय - समय पर इनके उदय होने पर भर्तहरि ने समय - समय पर गुरु महराज से निदान जानना चाहे थे तब महाराज ने कहा था की “बच्चा ! समय आने पर में खुद तुम्हें अवगत करा दूगा।”

 अब वह समय आ गया था। गुरु महाराज बता रहे थे कि “अविद्या के कारण काम की उत्पत्ति होती है। यह क्लेश चित में सदा तनु, विच्छिन्न, व उदार स्वरूप में विद्यमान रहता है। अनित्य, अपवित्र, दुःख और आत्मा से भिन्न पदार्थ में यथा क्रम से नित्य, पवित्र, सुख, और आत्म भाव की अनुभूति अविद्या कहलाती है। अतः जब साधक अनित्य में नित्य, अपवित्र में पवित्र, दुःख में सुख एवं  अनात्मा में आत्मा भाव का अनुभव करता है तो ही अविद्या का नाश होता है।  दृक शक्ति तथा दर्शन शक्ति को एक स्वरुप मन लेना ही अस्मिता क्लेश है। अथार्त जब साधक क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ के भेद को नहीं जानते है तब यह क्लेश उत्पन्न होता है।  दूसरो से सुख भोगने की इक्छा ही राग क्लेश है तथा दुःख को ना भोगने की इक्छा द्वेष क्लेश है।  जीवन के प्रति ममत्व ही अभिनिवेश क्लेश है।”

 गुरु महराज के श्रीमुख से यह व्याख्या सुन भर्तहरि यह समझ सके कि उन्हें 'संयम' में क्या अभ्यास करना है।  

अब भर्तहरि पांच क्लेशों के विलय के लिए अभ्यास कर रहे थे। क्योंकि उन्हें पांच क्लेशों को प्रकृति में विलय करना था। इसके बिना पिंगला की उन आँखों से मुक्ति पाने का कोई उपाय न था जो उसके चित में समय - समय पर उभरती रहती थीं। 

अभी तक जो त्यागने योग्य था वह त्यागा जा चुका था, जो छोड़ने योग्य था वह छोड़ा जा चुका था। भर्तहरि ने 'हान' की स्थिति तो प्राप्त करली थीं लेकिन 'विवेकख्याति' प्राप्त करना अभी बाकी था। भर्तहरि समझते थे की जीवन जीने के दो विकल्प मनुष्य के पास हमेशा रहते है जिस में एक मार्ग को कहते है श्रेयस का मार्ग तथा दूसरे मार्ग को कहते है प्रेयस का मार्ग। चयन का अधिकार हमेशा हमारे पास ही होता है अतः हम अपने चुनाव का दोष किसी दूसरे पर नहीं डाल सकते। जैसे कई लोग भाग्य को, तो कुछ भगवान को या किसी अन्य को दोषी मानते है। जो अपनी जवाबदारी से मुँह मोड़ना है।  हमारे जिस चयन में प्रारम्भ  में कष्ट तथा अंत में सुख मिलता है उसे श्रेयस का मार्ग कहते है तथा जिस चयन में शुरू में सुख तथा अंत में  दुःख मिलता है उसे प्रेयस का मार्ग कहते है।

 पूर्व जीवन में उन्होंने हमेशा प्रेयस का मार्ग ही हमेशा चुना था लेकिन आश्रम में आने के बाद वह श्रेयस के मार्ग पर चल रहे है। जिस के तहत वह पांच यम साध चुके है। उन्होंने अहिंसा को साध कर प्राणी भाग से वैरभाव त्याग चुके है।  सत्य में दृढ़ होने से कर्म फल त्याग चुके है। अस्तेय के भाव के दृढ़ होने के कारण सभी तरह की चोरी की वृति  के भाव विलीन हो गए है। ब्रम्हचर्य का का पालन करने से समर्थ का लाभ ले रहे है। अपरिग्रह का भाव दृढ़ होने से यह जान चुके है कि पूर्व जन्म किन कारणों से हुए थे तथा उन जन्मों में सम्बन्ध किन कारणों से बने थे ।   

इसी तरह भर्तहरि ने कढ़ाई से पांच नियमों का अभी तक पालन कर उनसे प्राप्त होने बाली सिद्धियों की प्राप्ति की है। जिसमें शौच का पालन कर दूसरे से शारीरिक सुख प्राप्त काने की कामना समाप्त हो गई है। संतोष की साधना से मन शुद्धी हुई है तथा चित की एकाग्रता बड़ी है और इन्द्रियों पर नियंत्रण हो गया है। तप करने से इन्द्रियाँ बलवान हो गई है । स्वाध्याय करने से वे जान गए है कि प्रकाश क्रिया व स्थिति जिसका स्वाभाव  है, भूत और इन्द्रियाँ जिसका स्वरुप है, पुरुष के लिए भोग और मुक्ति जिसका प्रयोजन है वह दृश्य है। 

इसमें पाँच तन्मात्राएँ अहंकार, लिंग व अलिंग सम्मिलित है।जो चेतना मात्र ज्ञान स्वरुप आत्मा है वह शुद्ध वृति के अनुरूप देखने वाला दृष्टा है। आत्मा का किसी काल में नास नहीं होता है अतः वह सनातन है, तथा सनातन को मानाने वाला सनातन धर्मी है। मूल के विद्यमान रहनी तक उस कर्माशय का परिणाम जन्म, आयु, व भोग के रूप में प्राप्त होता रहता है। वे हर्ष व दुःख रूपी कर्मफल देते है। लेकिन विवेकी के लिए सभी कर्मफल दुःख रूप ही हो जाते है।  भर्तहरि को अब पिंगला से उनका सम्बन्ध व् धोखा स्पष्ट हो गया कि वे उनके ही पूर्व जन्म के कर्मो के परिणाम थे और कुछ नहीं। यह ज्ञान होते ही उनका चित निर्मल हो गया। सब यादें तिरोहित हो गई। अब ध्यान चित में गहराने लगा।  भर्तहरि को दृढ़ आसन सिद्ध हो जाने से उन्हें गर्मी, सर्दी, भूख, प्यास, लाभ, हानि, द्वन्द के आघात समाप्त हो गये थे।

भर्तहरि 

भाग ग्यारह 


प्राणायाम का अभ्यास निरंतर करने से वाह्य वृत्तियाँ, आभ्यान्तर वृत्तियाँ, स्तवन वृति तथा स्थान, समय, व गणना लम्बी व हल्की करने की शक्ति मिल गई । कर्मों  का त्याग  हो गया।  प्राणायाम के अनुष्ठान से विवेक ज्ञान के ऊपर पड़े अज्ञान की परत कमजोर हो गई  और मन की एकाग्रता बढ़ गई। प्रत्याहार से इन्द्रियों का निग्रह हो आया।  धारणा से चित को एक स्थान पर लगाने से चित वृतियां एकरूप हो गई।  अब समाधी की तरह बढ़ने का समय धीरे - धीरे पास आ रहा था।  क्योंकि कृत कारित व अनुमोदित कर्म समाप्त हो गए थे। चित की भूमियाँ क्षिप्त, विक्षिप्त, मूड़ आदि का नाश हो कर एकाग्र भूमि के निरंतर उदय से समाधि गहराने लगी। 

 धीरे - धीरे भर्तहरि विभिन्न विभूतियों का अनुभव अनायास ही करने लगे। इनमें पदार्थ के धर्म, लक्षण व अवस्था में संयम से बहुत व भविष्य का ज्ञान होने लगा। शब्द व उनके अर्थ ज्ञान का जुड़ाव होने से सभी प्राणियो की बोली समझ में आने लगी। अपना चित शंशय रहित होने से दूसरे के चित को पड़ना आसान हो गया। मृत्यु का पूर्व ज्ञान भी होने लगा।  भर्तहरि हर जीव से मैत्री, करुणा, व मुदिता के भाव से भर कर सम्बन्ध रखने लगे।  अब उनके चित में भूत व भविष्य का चिंतन नहीं रहा। चित वर्तमान में स्थिर रहने लगा।  

अब बुद्धि व जीवात्मा की शुद्धि के प्रयास तेज होने लगे। वे धीरे - धीरे केवल्य की ओर अग्रसर हो रहे थे।  गुरु समय - समय पर मार्गदर्शन करते। अब भर्तहरि अपनी गुफा से तभी बहार आते जब उन्हें कोई जरुरी काम हो अन्यथा अधिकांश समय वह गुफा में ही दृढ़ आसन पर चित एकाग्र कर ध्यान लगाये बैठे रहते। चेतना बांस की तरह सीधी खड़ी रहती तथा जैसे निष्कंप दीपक की लौ जलती। उनकी चेतना का वही स्वरुप हो गया।  यह प्रतीति इतनी तीव्र व स्पष्ट थी कि शब्दों में उसे किसे से कहा नहीं जा सकता।  

यह अवस्था इतने आनंद से भरी रहती कि वे उस अवस्था से बाहर नहीं निकलना चाहते थे। अब उन्होंने विवेक ज्ञान से कैवल्य की स्थिति पाली थी। अब वे धर्म मेघ समाधि की ओर अग्रसर हो रहे थे। आज अनेक दिनों बाद भर्तहरि ने गुरु चरणों में दंडवत प्रणाम किया।  अब न प्रश्न शेष थे न क्लेश। दृश्य व दृष्टा अपने स्वरूप में थे। गुरु ने अब भर्तहरि को दर्शनी दीक्षा देने का मन में निश्चय किया।दर्शनी दीक्षा में उनके कण में छेद कर पक्के कुण्डल धारण करवाए गए। भभूत लगाया गया। पञ्च संस्कार पूर्ण किये गए। उन्होंने अलख निरंजन का घोष किया जिसे आश्रम में सभी ने दुहराया। यह धोष दिग्दिगंत में गुंजायमान हो उठा। अब वह साधु से कनफटा योगी बन गए थे। अब वह 'क्रम' में अवस्थित थे। वह अनुभव कर चुके थे कि आत्मा का अपने मूल स्वरुप में स्थित हो जाना ही मोक्ष है।  उनके अंदर बाहर का भेद समाप्त हो गया था। यह सब करते - करते बारह वर्ष कब व्यतीत हो गए पता ही नहीं चला। जब उन्हें ज्ञान हो गया तो फिर आदेश से उन्होंने वैराग्य शतक की रचना प्रारम्भ की।  



भर्तहरि 

भाग बारह  


'संयम' पर विजय प्राप्त करने पर बुद्धि समाधी परक प्रकाश में आलोकित हो जाती है। भर्तहरि ने संयम का अभ्यास पहले स्थूल से शुरू किया फिर सूक्ष्म भूमियों काम करके संयम को साधा। इससे भर्तहरि के चित की भूमियां क्षिप्त, विक्षिप्त, व मूढ़ आदि का नाश हो गया तथा एकाग्रता का उदय हुआ। संयम से पदार्थ के अतीत, वर्तमान, व भविष्य में जो एक तत्व समान रहता है वही तत्व उस पदार्थ का धर्म है। यह भर्तहरि को अच्छे से ज्ञात हो गया। पदार्थ के तीनो परिणामों धर्म, लक्षण तथा स्थान का ज्ञान होने से पदार्थ की भूत तथा भविष्य को जानने में सक्षम हो गए।  शब्द व उनके अर्थ अभिधा, लक्ष्णा व व्यंजना का जुड़ाव जान जाने से अब भर्तहरि सभी जीवों के शब्द समझने में सक्ष्म हो गए।  संयम धारण करने से पूर्व जन्मों का ज्ञान प्राप्य हो गया। वह यह स्पष्ट देख सके कि योगी जब अनेक शरीरों का निर्माण करता है तब वह अस्मिता का प्रयोग करके अनेक चित निर्मित कर लेता है। सभी चितों  का विलय समाधि की अवस्था में हो जाने से उनके कर्म भी पाप पुण्य रहित हो गए।

 लेकिन पूर्व जन्मों के संचित संस्कारों कि अनुभूति उन्हें अभी भी आती जाती रहती है।  कभी - कभी गहन अंधकार में गुफा के अंदर पिंगला की उपस्थिति महसूस करते। उसकी कातर आँखें स्पष्ट चमकती दिखती। तब वे पसीने से लथपथ हो जाते। भर्तृहरि को याद आता हैं कि “स्त्री किस प्रकार मनुष्य के संसार बन्धन का कारण है। उन्होंने कैसे  शृंगारशतकम् में लिखा था कि मन्द मुस्कराहट से, अन्तकरण के विकाररूप भाव से, लज्जा से, आकस्मिक भय से, तिरछी दृष्टि द्वारा देखने से, बातचीत से, ईर्ष्या के कारण कलह से, लीला विलास से-इस प्रकार सम्पूर्ण भावों से स्त्रियां पुरूषों के संसार-बंधन  का कारण हैं।”

 शृंगारशतकम् में भरथरी ने स्त्रियों के अनेक आयुध हथियार गिनाए हैं- “भौंहों के उतार-चढ़ाव आदि की चतुराई, अर्द्ध-उन्मीलित नेत्रों द्वारा कटाक्ष, अत्यधिक स्निग्ध एवं मधुर वाणी, लज्जा पूर्ण सुकोमल हास, विलास द्वारा मन्द-मन्द गमन और स्थित होना-ये भाव स्त्रियों के आभूषण भी हैं और आयुध हथियार भी हैं।” किसी समय जीवन के पडाव पर वह इसी तरह के विचारों को सत्य मानते थे।

पिंगला का जन्म भर्तहरि से मिलने के लिए ही हुआ था। वह जागीरदार की छोटी बेटी थी उसकी बड़ी बहन का नाम इड़ा था। इड़ा व पिंगला जुड़वाँ बहनें थी। उनकी माँ ने दोनों बहनों  को बड़े लड़ प्यार व जतन से पाल पोस कर बड़ा किया था। उन्होंने अपनी पुत्रियों की शिक्षा दीक्षा सांदीपनि ऋषि के आश्रम के आचार्यों  की देखा रेख  मै चौषट कलाओं में दिलवाई थी। पिंगला गान, वाद्य, नृत्य, नाट्य, चित्रकारी, श्रृंगार, इन्द्रजाल, कूटनीति, वशीकरण, चिकित्सा, उच्चाटन, विधि, सांकेतिक भाषा, रत्न शास्त्र, व धूत कीड़ा आदि कलाओं में विशेष रूचि होने से अतिशय पारंगत थी। वह बचपन से ही महत्वाकांक्षी व नई - नई चुनौतियाँ स्वीकार करने वाली थी। जीतने की असीम इच्छा व पिता की लाड़ली होने से राजकाज एवं न्याय में पारंगत  हो गई थी।  

भर्तहरि को यह ध्यान था की वह उम्र में छोटी है लेकिन विभिन्न ग्रहों से स्त्रियों की तुलना कितनी आकर्षक है- “स्तन भार के कारण देवगुरू बृहस्पति के समान, कान्तिमान होने के कारण सूर्य के समान, चन्द्रमुखी होने के कारण चन्द्रमा के समान, और मन्द-मन्द चलने वाली अथवा शनैश्चर-स्वरूप चरणों से शोभित होने के कारण सुन्दरियां ग्रह स्वरूप ही हुआ करती है।” पिंगला को देख कर उसे शृंगारशतकम् में लिखा अपना यह श्लोक बरवस याद आ गाथा था।  

उन्होंने हट पूर्वक उससे विवाह किया था। पिंगला ने गुरुकुल में भर्तहरि का शृंगार शतक पड़ा था। उसे भर्तहरि बहुत विद्वान, पराक्रमी तथा रसिक लगते थे। हालांकि उसकी माँ ने बहुत उत्साह नहीं दिखाया था। लेकिन पति हट तथा जिद के कारण उसकी नहीं चली थी। उसने पिंगला की बिदा के पूर्व महाराज की बढ़ती उम्र का हवाला दे कर ऊंच - नीच का ज्ञान  करवाया था।  

लेकिन जब वह महल में आई तो उसका वैसा  स्वागत नहीं किया गया जैसी उसने अपने मन में कल्पना की थी। महाराज की दो पत्नियों तथा उनके बच्चों की व्यस्तता के कारण उसे अकेलेपन का सामना करना पड़ता था। महल में गृह कलह कभी - कभी बहुत कटु हो जाती थी। तब अक्सर वह अपने आप को अपने कमरे में बन्द कर लेती थी। महाराज राजकाज में व्यस्त रहते। कभी - कभी रात को वह वेश बदलकर नगर में प्रजा का हाल चाल जानने जाते थे। 

भर्तहरि ने अपने अनुभवों के आधार पर नीतिशतकम् के कुछ  श्लोक विक्रम को कहें। “धन का जीवन में महत्त्व कितना है भर्तहरि ने कहा जिसके पास वित्त होता है, वही कुलीन, पण्डित, बहुश्रुत और गुणवान समझा जाता है ।वही वक्ता और सुन्दर भी गिना जाता है । सभी गुण स्वर्ण पर आश्रित हैं ।” अज्ञानी व्यक्ति के सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि “ हिताहितज्ञानशून्य नासमझ को समझाना बहुत आसान है, उचित और अनुचित को जानने वाले ज्ञानवान को राजी करना और भी आसान है; किन्तु थोड़े से ज्ञान से अपने को पण्डित समझने वाले को स्वयं विधाता भी सन्तुष्ट नहीं कर सकता । यदि मनुष्य चाहे तो मकर की दाढ़ों की नोक में से मणि निकल लेने का उद्योग भले ही करे; यदि चाहे तो चञ्चल लहरों से उथल-पुथल समुद्र को अपनी भुजाओं से तैर कर पार कर जाने की चेष्टा भले ही करे, क्रोध से भरे हुए सर्प को पुष्पहार की तरह सर पर धारण करने का साहस करे तो भले ही करे, परन्तु हठ पर चढ़े हुए मूर्ख मनुष्य के चित्त की असत मार्ग से सात मार्ग पर लाने की हिम्मत कभी न करे ।”


भर्तहरि 

भाग तेरह   


जब रात को पिंगला अकेली होती तो वह महल के झरोखे से क्षिप्रा नदी को निहारती। नदी की धारा निर्बाध अल्हड़ पन से बहती रहती। नदी की धार नीरव में पिंगला के मन में कामनाओं की बाढ़ देती। सम्पूर्ण महल निद्रा की गोद में होता केवल द्वारपालों की आवाजें कभी - कभी नीरवता भंग करती थी। द्वारपाल अक्सर अपनी लाठी ठोक कर आवाज करते।  एक रात पिंगला जब महल के गवाक्ष में बैठ कर नदी निहार रही थी तो उसे दूधिया चांदनी में नीचे सैनिक वेश भूषा में एक युवक दिखा। वह सैनिक वर्दी में वहुत आकर्षक,सुडौल व सुन्दर लग रहा था।  

उसे यह जानने की उत्सुकता हुई कि यह युवक कौन है? उसने अपनी दासी से सुबह पूछा तो दासी ने बताया की वह नगर कोतवाल है जो कभी - कभी महल की सुरक्षा व्यवस्था देखने  रात में आता है। रानी मन मसोस  कर रह गई कुछ न बोली। एक रात वह छत पर अकेले टहल रही थी।  उसे नींद नहीं आ रही थी। कमरे में गर्मी अधिक होने से वह छत पर नदी की और से आ रही ठंडी हवा में आ बैठी थी। 

तभी छत पर वह युवक आया। उसने बड़ी  विनम्रता से सिर झुका कर अभिवादन किया और अनुरोध किया की रात्रि के दूसरे पहर अकेले छत पर जाना सुरक्षा की दृष्टि से ठीक नहीं है। तब रानी ने कहा कि महाराज राजकाज से बाहर गए है, कमरे में बड़ी गर्मी थी इस कारण वह अकेली छत पर आई थी। फिर रानी उससे इधर उधर के सवाल करती और वह युवक बड़ी विनम्रता से उत्तर दे रहा था। रानी ने उसके काम के बारे में जानना चाहा तो उसने बताया की तीन वर्ष पूर्व उसने महाराज को शिकार के समय हुए हमले में संकट के समय उनकी रक्षा की थी तभी उसके बाद से उसे इस पद पर नियुक्त किया गया था। उसका परिवार गॉव में है तथा वह अकेला राजमहल के पास राज्य से मिले आवास में रहता है।  इसी तरह बातों - बातों में समय बीतता रहा। पिंगला को पता ही न चला।  अधिक समय हुआ जानकर कोतवाल आज्ञा ले कर चला गया।  

पिंगला भी अपने कमरे में आ गई।  पलंग पर लेटते ही उसे वह घटना याद आ गई जब एक दिन सुबह महाराज को उसके  घर घायल अवस्था में लाया गया था। कैसे उसने मन लगा कर उनकी सेवा की थी। सोचते सोचते जाने कब उसे नींद आ गई पता ही नहीं चला।     

रानी जब अकेली होती तो अब वह रात में छत पर इस आशा में टहलती रहती की शायद उसकी मुलाकात फिर कोतवाल से हो जाए। लेकिन कोतवाल कई दिनों तक उधर नहीं आया। पिंगला के मन से युवा कोतवाल का चेहरा हटता नहीं था। लेकिन उसे अपने पद की गरिमा का ख्याल आता तो वह कोई कदम नहीं उठा पाती।  उसे महाराज से बहुत प्यार था। लेकिन मन कभी - कभी इतना विचलित हो जाता कि वह अपने मन के सामने हरने लगती। 

 विचारों  की उहापोह व संकल्प - विकल्प निरंतर चलता रहता।  वह अपने आप से लड़ रही थी। लेकिन इस बार महाराज भी महीनों से महल नहीं लौट सके थे। ऐसे तीन दिन बीत गए। लेकिन अपनी अदम्य वासना के कारण उसने अपनी विश्वस्त दासी से कोतवाल को बुला भेजा।आज वह छत की जगह महल के एक खाली पड़े कक्ष में उससे मिली। फिर वे अक्सर मिलने लगे। कहते है की दीवारों के भी कान होते है। एक कहावत  है कि  “खैर, खून, खांसी, खुशी, वैर, प्रीत व मदपान छुपाने से भी नहीं छुपते है” और कहावत सत्य हो गई। 

इन दोनों के मिलने की खबर महल के गलियारों से महाराज के भाई विक्रम तक पहुँच गई। विक्रम ने अपने जासूस लगा दिए। एक रात खबर मिलने पर विक्रम ने रानी को रंगे हाथों पकड़ लिया। वह रानी को छुप कर देख रहे थे लेकिन रानी को निकलते समय विक्रम दिख गए। वह रानी का बहुत सम्मान करते थे  इसलिए सामने से कुछ न कह सके।  

 विक्रम ने कोतवाल को इधर न आने का हुकुम दिया। वह बहुत डर गया था महाराज अभी भी बाहर ही थे। 

 कुछ दिन शांति से बीत गए। लेकिन पिंगला के हट के कारण बुलाने पर उसे आना ही पड़ता था। कोतवाल विवश था। क्योंकि वह यह जनता था की उसकी यह हरकत कभी भी उसका सिर धड़ से अलग करवा सकती है।  रानी से एक दो बार उसने अपनी शंका रखने की कोशिश की। लेकिन रानी ने कुछ नहीं सुनने को तैयार थी। एक रात रानी ने उसे अस्तबल में मिलने के लिए बुला भेजा। जब वह उधर जा रहा था उसका सामना विक्रम से होने को था। लेकिन विक्रम की नजर उस पर पड़े उसके पहले ही वह एक खंभे की ओट में छिप गया। लेकिन सतर्क विक्रम को दिख ही गया। वह कुछ न कहे आगे बढ़ गया क्योंकि उसके साथ दूसरे लोग भी थे।   

उस दिन कोतवाल का शरीर पीला पद गया था। वह बहुत उदास था उसने कई बार सोचा कि वह वापिस चला जाय लेकिन वह रानी से बहुत डरता था। उसे डर था की रानी कुछ उल्टा सीधा कांड न कर दे। रानी अनेक मौकों  पर अपनी जान तक देने की बात कर चुकी थी। इस कारण वह रानी के त्रिया चरित्र से डरता - डरता पहुँचा। उसे इतना डरा देख कर रानी ने उससे कारण जानना चाहा तो डर के मारे उसने सही - सही बात बता दी। रानी उसे अंक में भर कर शांत होने को कह रही थी। दोनों बहुत अस्त व्यस्त थे तभी कुछ आवाज हुई और रानी बदहवास हालत में अपने कमरे की ओर भागी तथा महाराज से झूठ बोल कर विक्रम को राजमहल से बहार भिजवा दिया था।  भर्तहरि व विक्रम दोनों के पिता महाराज की दो पत्नियों से पैदा हुए थे। दोनों भाइयों में कभी मतभेद नहीं हुआ लेकिन पिंगला के कारण दोनों भाइयो में मतभेद हुआ था। विक्रम के राजमहल से जाने के बाद पिंगला का राजकाज में दखल बढ़ गया था। 

भर्तहरि के प्रति राज्य में असंतोष बढ़ जाने के कारण गुरु गोरखनाथ तक यह खबर पहुंची थी तब वे फल का उपहार देने राजमहल आये थे और वह फल रानी से होता हुआ वैश्या द्वारा फिर भर्तहरि तक आ गया था। तब भर्तहरि को व्यैराग्य उत्पन्न हुआ और वह राजपाट विक्रम को दे कर आश्रम आ गया था। भर्तहरि ने तपोबल से सच्ची बात जान ली थी। 

वैराग्यशतकम् के एक श्लोक में इस घटना को इस तरह लिखा था-  “मैं जिसका सतत चिन्तन करता हूँ वह पिंगला मेरे प्रति उदासीन है। वह पिंगला भी जिसको चाहती है वह  तो कोई दूसरी ही स्त्री राजनर्तकी में आसक्त है। वह राजनर्तकी मेरे प्रति स्नेहभाव रखती है। उस पिंगला को धिक्कार है ! उस व्यक्ति को धिक्कार है ! उस राजनर्तकी को धिक्कार है ! उस कामदेव को धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है !”

पिंगला उस समय अपनी चल में कामयाब रही थी और भर्तहरि ने विक्रम की बातों पर भरोसा न कर उसे राजमहल से चले जाने को कहाँ था। हालांकि भर्तहरि जानते थे कि  “जिन्होंने न विद्या पढ़ी है, न तप किया है, न दान ही दिया है, न ज्ञान का ही उपार्जन किया है, न सच्चरित्रों का सा आचरण ही किया है, न गुण ही सीखा है, न धर्म का अनुष्ठान ही किया है - वे इस लोक में वृथा पृथ्वी का बोझ  व मनुष्य की सूरत-शकलमें,चरते हुए पशु हैं ।” “बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। जो अपने रिश्तेदारों के प्रति उदारता, दूसरों पर दया, दुष्टों के साथ शठता, सज्जनों के साथ प्रीति, राज सभा में नीति, विद्वानों के आगे नम्रता, शत्रुओं के साथ क्रूरता, गुरुजनों के सामने सेहेनशीलता और स्त्रियों में धूर्तता या चतुरता का बर्ताव करते हैं - उन्ही कला कुशल नर पुंङ्गवो से लोक मर्यादा या लोक स्थिति है; अर्थात जगत उन्ही पर ठहरा हुआ है ।”

भर्तहरि राजा राजपाट छोड़ कर इतनी तपस्या कर चुके थे लेकिन पिंगला की आँखें अभी भी पीछा करती थी । उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर वैराग्यशतकम् में लिखा कि “मैंने अब तक बहुत- देशों और विषम दुर्गो में भ्रमण सकया तो भी कुछ फल न मिला। अपनी जाति और कुल के अभिमान को छोड़कर जो दूसरों की सेवा की वह भी व्यर्थ ही गई। अपने मान की चिन्ता न करते हुए पराये घर में काक के समान भोजन किया, तो भी हे पापकर्म  में निरत दुरमति रूप तृष्णे ! तू सन्तुष्ट नहीं हो सकी। हे तृष्णे! अब तो मेरा पीछा छोड़ देख, तेरे जाल में पड़ कर मैंने धन की खोज में पृथ्वी  खोद डाली, रसायन-सिच्द्धी  की इक्छा से  पर्वत  की बहुत सी धातुएं भस्म कर डाली, रत्नों की कामना से  नदियों के पति  समुद्र को भी पार किया और मन्त्रों की सिद्धि  के उद्देश्य मन लगाकर अनेक रात्रियाँ श्मशान में बिताई तो भी एक कानी कौड़ी हाथ न लग सकी।” 

“भोग करने पर रोग का भय, उच्च कुल मे जन्म होने पर बदनामी का भय, अधिक धन होने पर राजा का भय, मौन रहने पर दैन्य का भय, बलशाली होने पर शत्रुओं का भय, रूपवान होने पर वृद्धावस्था का भय, शास्त्र मे पारङ्गत होने पर वाद-विवाद का भय, गुणी होने पर दुर्जनों का भय, अच्छा शरीर होने पर यम का भय रहता है। इस संसार मे सभी वस्तुएँ भय उत्पन्न करने वालीं हैं। केवल वैराग्य से ही लोगों को अभय प्राप्त हो सकता है।”

एक दिन अवसर पा कर उन्होंने गुरु चरणों में अलख जगाया और आदेश का जयकार किया। गुरु समझ गए।  उन्होंने उपदेश दिया कि वत्स जैसे पूर्व जन्मों के संचित कर्मो से चित में पाँच क्लेश उत्पन्न होते है उसी तरह इस जन्म के संस्कारों को छटा क्लेश मान। विवेक ज्ञान होने के बाद भी बीच - बीच में संचित संस्कारों के कारण व्युथान की स्थिति विवेक ज्ञान के साथ आती जाती रहती है। विवेक ज्ञान से उत्पन्न सिद्धियों से अनासक्त हो जाने पर सर्वथा विवेकख्याति होने से मेघ समाधि की प्राप्ति होती है। जिससे क्लेश मूलक कर्म समुदाय की समाप्ति हो जाती है। अतः इसे तुम उपेच्छा के भाव से ही देखो।  क्योंकि गन अपने कारण में लीन हो जाने पर कैवल्य प्राप्त हो कर तुम आत्मा के अपने वास्तिविक स्वरुप में स्थित हो जाओगे।  भर्तहरि की शंका का समाधान गुरुवाणी से होने के बाद उन्होंने आदेश कह अभिवादन किया। तब गुरु ने उन्हें उज्जैन छोड़ कर परिभ्र्रमण करने का निर्देश दिया। भर्तहरि ने वैराग्यशतकम् में अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर लिखा - 

" भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः। 

कालो न यातो वयमेव यातास्त्रणा जीणाज वयमेव जीणाजः।"  

हमने विषयो को नहीं भोगा, वरन् विषयो  ने ही हमें भोग लिया।  हमने तपस्या नहीं की, वरन् तपस्या ने ही हमें तप्त कर दिया। हमसे काल व्यतीत न हुआ वरन् हम ही व्यतीत हो गए।  तृष्णा जीर्ण न हुई, वरन्  हम ही जीर्ण हो गए। 



भर्तहरि 

भाग   चौदह  


भरथरी “आदेश” कह अकेले ही उज्जैन से चल पड़े। उनके पास कंधों पर दो जोड़ कपड़ा, कम्बल, एक में हाथ कमण्डल तथा दूसरे हाथ में दण्ड था। पैरों में खड़ाऊ पहने थे। वे समय - समय पर राहगीरों के मिलने पर “अलखनिरंजन” का उद्धोष करते। वे चौदह साल बाद उज्जैन से बाहर जा रहे थे। जिस गॉंव में शाम हो जाती उसी जगह किसी से आश्रय मांग कर सो जाते या कभी - कंभी पेड़ों के नीचे सो जाते। भूख लगने पर एक वार भिक्षा मांग कर खाते। लोगों के साथ सत्संग करते। बीमारों को दबा देते तथा बच्चों के साथ खेलते भ्रमण कर रहे थे।  पहली बार उन्होंने समाज को इतने करीब से जाना था। समाज में वर्ण व्यवस्था, जाति, गोत्र, धर्म, संप्रदाय तथा धार्मिक मान्यताओं में इतनी भिन्नताएँ थी जो उनकी कल्पना से बाहर था। समाज पूर्णता विभाजित था। छुआ छूत, ऊच नीच, को कभी उन्होंने जाना नहीं था। हालांकि जब वे राजकुमार और बाद में महाराज के रूप में समाजजनों से निरंतर मिलना जुलना होता था पर वहाँ मर्यादा बहुत थी। राज औपचरिकताएँ हर किसी को पालन करना होती थी तो इतना विस्तार से जानकारी नहीं हो सकी थी। 

ऊपर से हम समाज को सनातनी हिन्दू ही मानते है। लेकिन रोटी बेटी, चिलम, सुल्फी, हुक्का पानी आदि का बहुत पेचीदा तानाबाना है।  इसे लोगों के बीच रहकर ही समझा जा सकता है। धर्म के नाम पर समाज में जितनी मत भिन्नता दिखीं उतने ही रीत रिवाज दिखें।  इससे समाज के कुछ वर्ग विशेष के साथ बहुत अत्याचार व भेदभाव प्रचलित हो गए है। तब भर्तहरि बहुत दुःखी हुए और उन्होंने निश्चय किया की वे धर्म के नाम पर समाज में व्याप्त कुरूतियों को दूर करने के लिए काम करेंगे। उन्हें गुरु महाराज का यही “आदेश” लगा जब उन्होंने भर्तहरि को जाने  का आदेश दिया। 

भर्तहरि धूमते - धूमते अरावली की पहाड़ियों में तथा थार मरुस्थल में बसे गॉवों में परिभ्र्रमण कर रहे थे। यहाँ ज्यादातर जनजातियों के कबीलों की बस्तियाँ थी। इनमें कुछ चरबाहे व् धुमन्तु जातियाँ थी। इन में कूड़ा पंथ, चोली पंथ, कांचलिया पंथ आदि मान्यताओं  की विभिन्न रीतियाँ प्रचलित थी।इनके अलावा सगुण व निर्गुण सम्प्रदाय, शैव्य व वैष्णव संप्रदाय मानाने वाले लोग बड़ी संख्या में रहते थे। इन के अलावा अनेकों साधू संतों के मानने बाले समाज के लोगों  से भर्तहरि की मुलाकातें  हुई। 

आज रात के सनाटे में जब भर्तहरि की नींद टूटी तो उसे मन में ख्याल आया कि कैसे उसके परिवार वालों ने उसे मोह मुक्त कर दिया। कई सालों राजपाट त्यागने के बाद भी कई सालों तक परिवार के लोग मिलने आते रहे। जब परिवार का जो मिलाने आता उसकी याद कई दिनों तक आती रहती। धीरे - धीरे भर्तहरि उनके किसी प्रयोजन का नहीं रहा तो लोगों ने आना बंद कर दिया। सब अपने - अपने संसार में व्यस्त हो गये। केवल उसका एक भतीजा गोपीचंद उससे प्रभावित हो कर सन्यस्त हुआ। 

वह निरंतर निर्भार महसूस कर रहा था। उसे पहलीवार अहसास हुआ कि पारिवारिक सम्बन्धों का मानसिक बोझ कितना होता है। उसे गुरु की बात याद हो आई कि संस्कार नष्ट नहीं होते बल्कि तनु हो जाते है। क्योंकि प्रकृति में कोई ताकत ऐसी नहीं है जो संस्कारों को पूर्णतः नष्ट करदे । गुरु ने कहा था की इन्हें भी पाँच क्लेशों की भाती  समझना चाहिए।

भर्तहरि जहाँ भी जाते अलख जागते। मढ़िया की स्थापना करते। धूना जलाते कुछ दिन रह कर अपने किसी योग्य शिष्य को गद्दी पर बैठा कर आगे चल देते।भर्तहरि ऐसा करते करते वह पांच नदियों के प्रदेश में आ गये थे। यहां रावी, सतजल, चिनाव व सिन्धु नदियों के सहारे बस्तियां बसी हुई थी। इस क्षेत्र के सन्यासियों के स्थानों को डेरा कहा जाता है। हर चार पांच गावों के बीच में एक डेरा जरूर होता है। इन डेरो के भक्तो दिए दान से इनका खर्च चलता है। डेरा प्रमुख मुख्य गुरु होता है। भर्तहरि लगातार एक डेरे से दूसरे डेरे में जाते रहे तथा अलख जागते रहे। इन डेरो के बीच झगडे भी खूब चलते रहते थे। जिन में खून खराबा, मर पीट, हत्या जैसी धटनाऐ बहुत मामूली बात थी। भर्तहरि की कोशिश से इन डेरो को व्यवस्थित किया जा सका। 

 आगे बढ़ते - बढ़ते भर्तहरि हिमालय पहुंचे। जहां उन्होंने अनेक वर्षों तक तपस्या की। जब जब मन विचलित होता तब वह ध्यान लगाते। कुछ दिन बाद गुरु की प्रेरणा से गंगा यमुना के मैदानी इलाके में विचरण करने लगे। वह हाथ में चिमटा और कमण्डल रखते।  कानों में कुण्डल धारण करते।  कमर में कमरबंध बांधते। जटाजूट रखते, तथा गले में सिंगी सेली धारण करते। निरंतर चलते - चलते  में काशी पहुंच गए।काशी ब्राह्मणों की नगरी है। वहां अनेक विद्वानों से विचार विमर्श चलता रहा। 

उन्हें तरह तरह- तरह के लोग मिलने आते तथा भिन्न - भिन्न तरह की समस्याऐं  ले कर समाधान की उम्मीद में आते।  लोगों  के चित अशांत होते। मन में अनचाहे विचार चलते रहते।  विचार हवा के झोके की तरह आते। उनके चित तरह तरह की अनुभूतियाँ संगृहीत करते। जीवन को नकारात्मकता बहुत बुरी तरह प्रभावित करती। इन समस्यों  के समाधान खोजते खोजते भर्तहरि नए - नए प्रयोग करते। लोगों को नई - नई विधियां बताते।  प्रयोग करवाते। अभ्यास कर परिणामों का विश्लेषण करते व विधियों को कारगर बनाने के लिए संसोधन करते थे। जब उन्हें कोई समाधान न सूझता तो गुरु से पूछते रहते थे। धीरे - धीरे गोरख पंथ में इतनी विधियां हो गई कि लोग इस पंथ का नाम ‘गोरखधंधा’ रख दिए। हालांकि यह कोई पंथ की प्रशंसा नहीं थी। लेकिन चुकि अलग - अलग लोगों की अलग - अलग प्रकृति होती है इसलिए उन पर अलग - अलग विधियां काम करती है। इस का प्रभाव यह हुआ की पंथ आम लोगों में बहुत जल्दी प्रसिद्ध हो गया। समाज के कथा कथित सबसे निचले तबके के लोग इस पंथ से सर्वाधिक आकर्षित हुए। 

क्योकि शुरु से ही इस पंथ में जाति प्रथा को मान्यता नही दी गई। समाज में उनकी जाति, महिला पुरूषों के लिए पूर्व से ही अनेक रीति रिवाज थे। इस कारण इन पंथ में महिला व पुरुषों में भेद नहीं किया गया। दोनों को समान अधिकार दिए गए। पहली बार यह स्थापित किया गया कि महिलायें भी मोक्ष की उतनी ही अधिकारणी है जितना पुरुष। इससे पहली वार समाज की विदुषी महिलाऐं बड़ी संख्या में इस पंथ की ओर आकर्षित हुई। महिलाओं के प्रयास की निरंतरता व लगाव बहुत गहरा था। 

बड़ी संख्या में तथा सारे  देस में पंथ की संख्या बहुत बढ़ने से बारह पन्थों  का निर्माण  शुरू हुआ।ये आई , सत्य नाथी , नटेश्वर , धर्म नथी, वैराग्य, कपलनी , पागल , गंग नाथी, मनो नाथी, रावल तथा ध्यज पंथ है।  तरह तरह का साहित्य लिखा जाने लगा। नाथ पंथ के माध्यम से जितने लोग सिद्धि को प्राप्त कर सके उतने किसी और के माध्यम से प्राप्त नहीं कर सके। इस कारण इस पंथ में नौ नाथ व चौषट योगियों को मान्यता दी गई। जो साथी समाधि को उपलब्ध होते उनको समाधि दी जाती तथा अन्य को अग्नि दी जाती।   

उज्जैन के राजा भर्तहरि  के पास 365 पाकशास्त्री यानि रसोइए थे, जो राजा और उसके परिवार और अतिथियों के लिए भोजन बनाने के लिए। एक रसोइए को वर्ष में केवल एक ही बार भोजन बनाने का मोका मिलता था। लेकिन इस दौरान भर्तहरि जब गुरु गोरखनाथ जी के चरणों में चले गये तो भिक्षा मांगकर खाने लगे  थे।

एक बार गुरु गोरखनाथ जी ने अपने शिष्यों से कहा, “देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है।”

 शिष्यों ने कहा, ‘गुरुजी ! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहां 365 तो बावर्ची रहते थे। ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आए हुए राजा और कैसे काम, क्रोध, लोभ रहित हो गए?” 

गुरु गोरखनाथ जी ने राजा भर्तहरि से कहा, ‘भर्तहरि ! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियां ले आओ।”

 राजा भर्तहरि नंगे पैर गए, जंगल से लकड़ियां एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे। गोरखनाथ जी ने दूसरे शिष्यों से कहा, “जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझ गिर जाए।”

 चेले गए और ऐसा धक्का मारा कि बोझ गिर गया और भर्तहरि गिर गए। भर्तहरि ने बोझ उठाया, लेकिन न चेहरे पर शिकन, न आंखों में आग के गोले, न होंठ फड़के। गुरु जी ने चेलों से कहा,  “देखा! भर्तहरि ने क्रोध को जीत लिया है।”

शिष्य बोले, “गुरुजी! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।”

 थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ जी भर्तहरि को महल दिखा रहे थे। युवतियां नाना प्रकार के व्यंजन आदि से सेवक उनका आदर सत्कार करने लगे। भर्तहरि युवतियों को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गए।

गोरखनाथ जी ने शिष्यों को कहा, अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया है कि भर्तहरि ने काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है। शिष्यों ने कहा, गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिए। गोरखनाथ जी ने कहा, अच्छा भर्तहरि  हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है। “जाओ, तुमको एक महीना मरुभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी।”

 भरथरी अपने  निर्दिष्ट मार्ग पर चल पड़े। पहाड़ी इलाका लांघते-लांघते राजस्थान  की मरुभूमि में पहुंचे। धधकती बालू, कड़ाके की धूप मरुभूमि में पैर रखो तो बस जल जाए। एक दिन, दो दिन यात्रा करते-करते छः दिन बीत गए। सातवें दिन गुरु गोरखनाथ जी अदृश्य शक्ति से अपने प्रिय चेलों को भी साथ लेकर वहां पहुंचे। गोरखनाथ जी बोले, “देखो, यह भर्तहरि जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूं। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।”

 अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भर्तहरि का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े, मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो। ‘मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया?  छायावाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया? गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की।”

 कूदकर दूर हट गए। गुरु जी प्रसन्न हो गए कि देखो! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। “जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।’ गोरखनाथ जी दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए, लेकिन और शिष्यों के मन में ईर्ष्या थी। शिष्य बोले, “गुरुजी! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।”

 गोरखनाथ जी, रूप बदल कर, भर्तृहरि से मिले और बोले, “जरा छाया का उपयोग कर लो।’

 भर्तहरि बोले, “नहीं, मेरे गुरुजी की आज्ञा है कि नंगे पैर मरुभूमि में चलूं।”

 गोरखनाथ जी ने सोचा, “अच्छा! कितना चलते हो देखते हैं।” थोड़ा आगे गए तो गोरखनाथ जी ने योगबल से कांटे पैदा कर दिए। ऐसी कंटीली झाड़ी कि कंथा फटे-पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र फट गया। पैरों में शूल चुभने लगे, फिर भी भर्तहरि ने ‘आह’ तक नहीं की। भर्तहरि तो और अंतर्मुख हो गए, ’यह सब सपना है, गुरु जी ने जो आदेश दिया है, वही तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है’। 

अंतिम परीक्षा के लिए गुरु गोरखनाथ जी ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भर्तहरि के प्राण कंठ तक आ गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी। एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरु आज्ञा भंग तो नहीं हो रही है। उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिए। भर्तहरि ने दंडवत प्रणाम किया। गुरुजी बोले, ”शाबाश भर्तहरि, वर मांग लो। अष्टसिद्धि दे दूं, नवनिधि दे दूं। तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिए, युवतियां तुम्हारे चरण पखारने के लिए तैयार थीं, लेकिन तुम उनके चक्कर में नहीं आए। तुम्हें जो मांगना है, वो मांग लो।  भर्तृहरि बोले, ‘गुरुजी! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है। आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गए।” 

गोरखनाथ बोले, “नहीं भर्तहरि! अनादर मत करो। तुम्हें कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ मांगना ही पड़ेगा।’ इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सूई दिखाई दी। उसे उठाकर भरथरी बोले, “गुरुजी! कंठा फट गया है, सूई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंठा सी लूं।”

गोरखनाथ जी और खुश हुए कि ’हद हो गई! कितना निरपेक्ष है, अष्टसिद्धि-नवनिधियां कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ मांगो, तो बोलता है कि सूई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया। कोई अपेक्षा नहीं? भर्तृहरि तुम धन्य हो गए! कहां उज्जयिनी का सम्राट नंगे पैर मरुभूमि में। एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गए।’

जब वह उत्तर से दक्षिण की ओर जाने लगे तो वर्षा काल में चातुर्मास के लिए चुनार में रुक गए। इस यात्रा में उनके साथ उनके शिष्य गोपीचन्द साथ - साथ चल रहे थे। क्योंकि अब उनकी उम्र बहुत अधिक हो गई थी।  एक रात उन्हें आभास हुआ कि अंत सयम निकट है। उन्होंने अपने प्रिय शिष्य गोपीचन्द को यह बात बताई।  समय आने पर भर्तहरि ने देह त्याग दी।  उस स्थान पर उनके भाई विक्रमादित्य ने समाधि का निर्माण करवा दिया। शरीर छूट जाने के बाद अशरीरी रूप में भर्तहरि अब केवल उज्जैन में रहते है।   







भर्तहरि 

भाग  पन्द्रह   

 

योगी उठ के अंदर आश्रम में चले गए थे। रवि थक गया था। उसकी आँख आसन पर ही लग गई। उसने देखा कि वही साधु उसके सामने खड़े है । रवि का सिर शृद्धा से उनके चरणों में झुक गया। साधु ने प्यार से पूछा " बच्चा ! क्या जानना चाहते हो ?'"

रवि बोला "महाराज ! समझ नहीं आ रहा कि जीवन कहाँ जा रहा ?"

"सब संचित कर्मों का फल है बच्चा" साधु उसके सिर पर हाथ फिराते बोले। 

रवि ने कहा "महाराज अपनी शरण में ले लो।" 

महाराज ने कहा "बच्चा अभी तुम्हारे जीवन में  'अथ' का उदय नहीं हुआ है।  अभी तुम्हारा फल कच्चा है।  इसे पकने दो यदि अभी तोड़ लोगे तो घाव बन जायेगा।" रवि ने फिर पूछा "महराज यह 'अथ' क्या है और यह जोवन में कब आता है?"

महाराज बोले  'अथ'  शब्द का शाब्दिक अर्थ है "अब' यह अथ जीवन के रस्ते के चयन में व्यक्ति के जीवन में तब आता है जब वह या तो अपने जीवन में अनके नौकरियाँ करने के बाद पूरी तरह से निराश और हताश हो गया है या अभी वह विद्यार्थी है और अपनी शिक्षा पूरी कर महाविद्यालय या विश्वविद्यालय से बाहर आने वाला है। व्यक्ति जब हर रिलेशन में फेल हो जाता है और दूसरे से सुख पाने की आशा समाप्त हो गई है तो इन  परिस्थितिया में हम एक ऐसे चौराहे पर अपने आप को खड़ा पाते है और यह निर्णय नहीं कर पाते है कि हमें कहाँ जाना है। यदि हमें सन्यास का पथ ज़्यादा आकर्षित कर रहा है तो अब यह क्षण आत्मलोकन  करने का है कि यह आकर्षण  कहाँ से आ रहा है? क्या यह आकर्षण लोगों की सफलता की कहानियां देख, सुन या पढ़ कर आ रहा है, या वास्तव में हम में वह मनोवैज्ञानिक कारक या तत्व है, जो सन्यास के लिए आवश्यक है। व्यक्ति जो कर्म करता है उसके मनोवैज्ञानिक लक्षण उस व्यक्ति की प्रकृति  में ही होते हैं।" 

रवि ने जिज्ञासा रखी "हम कैसे पता करे की हमारी प्रकृति क्या है ?"

महाराज ने बैठते हुए कहा "व्यक्ति जो कर्म करता है उसके मनोवैज्ञानिक लक्षण उस व्यक्ति की प्रकृति  में  ही होते हैं। इसलिए हम लोगों को देख कर, सुन कर व हाव भाव से लोगों की प्रकृति को बहुत‌ हद तक जान जाते है।

इस प्रश्न का सबसे अच्छा उधारण गीता के अध्याय 2 के श्लोक 54  में अर्जुन श्री कृष्ण से प्रशन करते है- “स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥” अर्थात स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के क्या लक्षण है स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?” 

ये ही वह प्रश्न है जो हमें जानना चाहिए कि हमारे  क्या लक्षण है ?  हमारे सनातन धर्म में प्रकृति तीन गुणों सत्व,रज तथा तम से निर्मित मानी गई है। श्री कृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय के 13 वें  श्लोक में चार वर्णों का उल्लेख करते हुए कहा है कि " चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः।” अर्थात् प्रकृति के तीन गुण- सत्व, रज और तम गुणों के अनुसार मेरे द्वारा चार वर्णों की रचना की है। सत्व गुण प्रधान व्यक्ति में शम, दम व तप कर्म की प्रवृति के कारण ब्राम्हण वर्ण, रजोगुण प्रधान शूरवीरता, तेज प्रवृति के कारण क्षत्रिय वर्ण, तमोगुण व रजोगुण के कारण व्यापार, उद्यम की प्रवृत्ति के कारण वैश्य वर्ण तथा तमोगुण की प्रधानता के कारण सेवक की प्रवृत्ति  के कारण शूद्र वर्ण के कर्म करने में प्रवृत होता है। 

वर्ण व्यवाथा का अर्थ जाति व्यवस्था से बिलकुल भी नहीं है। न ही कर्म का निर्धारण व्यक्ति  के जन्म से है, बल्कि प्राकृतिक गुणों की प्रधानता होने पर  ही व्यक्ति अपनी प्रकृति व स्वभाव से अपना कर्म अर्थात् व्यसाय चुनता है। तभी वह न केवल अपने व्यवसाय में सफल होता है बल्कि अपने जीवन से संतुष्ट भी होता है। जब व्यक्ति की प्रवृति व वृत्ति में तालमेल नहीं रहता है तब वह अपने कर्म को कुशलता पूर्वक नही कर पाता है। वह हमेशा अपने व्यवसाय व जीवन से असंतुष्ट ही रहता है। क्योकि गीता में  कृष्ण कहते  है कि "योग: कर्मसु कौशलम् ” अध्याय 2 श्लोक 50 कुशलता पूर्वक कर्म करना ही योग है। जब मन, बुद्धि व शरीर एक लय व दिशा में कार्य करते है तो व्यक्ति सहज मन से कर्म कर पाता है।"

 "तो हम कैसे जाने कि हमारी प्रकृति क्या है ?" रवि ने सकुचाते हुए प्रश्न किया। 

महाराज ने धैर्य पूर्वक धीरे - धीरे गम्भीर होते हुए कहा "श्री कृष्णा गीता के तीसरे अध्याय के 35 वें श्लोक में कहते है कि ''स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः '' यहाँ स्वधर्म” का अर्थ है आपका स्वभाव या आपकी प्रवृति। अपने स्वभाव या प्रवृति में चलना श्रेयस्कर है।यदि आप क्षत्रिय वृति वाले है तो आप वैश्य वर्ण के कर्मों में सहजता अनुभव नही कर सकते । व्यक्ति को सन्यासी बनना है या नही उसे अपने स्वभाव के आधार पर ही निर्णय करना होगा।" 

"अब तुम्हीं सोच कर बताओ कि क्या तुम्हारे मन में तुम्हारे स्टार्टअप को सफल बनाने की लालसा है या नही।" महाराज ने प्रतिप्रश्न किया।

 रवि ने सर झुका लिया।  वह बहुत देर सोचता रहा, लेकिन कोई उत्तर नहीं सुझा।

महाराज ने अपने योग बल से जान कर बताया कि "तुम्हारे अंदर सफल होने की लालसा है। यह तामसिक गुण प्रधान व्यक्ति के लक्षण है। जो बहुत शुभ है। अभी तुम्हें सतोगुण का उत्कर्ष नहीं हुआ है। अतः  अभी तुम्हारे कर्म बाकी है।  तुम्हें सांसारिक दायित्व पूरे करने है। तुम्हें उन्हें निभाना ही होगा।"

रवि ने पूछा "अब हम में ताकत नहीं है न ही उत्साह बचा है। तो हम क्या करे?"

महाराज ने कहा " कृष्णा ने गीता के 2 अध्याय श्लोक 41 में कहा है “व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन, बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्” जिन की बुद्धि निश्चयात्मक होती है वे एक ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। लेकिन संकल्पहीन मनुष्य की बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है। गीता के अध्याय 4 के श्लोक 40 में श्री कृष्ण कहते है “अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥”  इस का आशय है कि किन्तु  जिन अज्ञानी लोगों में न तो श्रद्धा और न ही ज्ञान है और जो संदेहास्पद प्रकृति के होते हैं उनका पतन होता है। संदेहास्पद जीवात्मा के लिए न तो इस लोक में और न ही परलोक में कोई सुख है। इसलिए तुम्हारी  प्रकृति उद्यमी बनने की है तो तुम  “अथ उद्यमॊ योगानुशासनम्" प्रारम्भ कर सकते है।' 

रवि को उस के प्रश्नों के उत्तर मिल गए थे। महराज अन्तर्ध्यान हो गये थे। उसने आखें खोली तो योगी प्रसाद लिए सामने खड़े थे।  रवि ने श्रद्धापूर्वक प्रसाद ग्रहण किया और उत्साहित मन से अपनी मोटर साइकिल से उज्जैन की ओर चल दिया। वह संकल्प से भरा था और उसके चेहरे पर ठंडी हवा ताजगी भर रही थी। 








  





  

 





 

















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