राय प्रवीन "ओरछा की कोकिला"
"ओरछा की कोकिला"
राय प्रवीण
डॉ.रवीन्द्र पस्तोर
विवेक का मर जाना
राय प्रवीन के जाने के बाद महाराज बहुत आत्म ग्लानि से भर गए। हालाँकि उन्होंने राय प्रवीण से विधिवत शादी नहीं की थी लेकिन वह यह जानते थे कि उन्होंने गंदर्भ विवाह किया था। समय के साथ - साथ पुनिया की उम्र व ज्ञान दोनों में अभूतपूर्व उन्नति हुई। जैसे जंगल में जब फूल खिलता है तो उसकी खुशबु चारों ओर फ़ैल जाती है वैसे ही जब पुनिया जवान हुई तो उसके रूप, नृत्य, गायन व काव्य की चर्चा सारे इलाके के रजबाड़ों, राज दरबारों व कला प्रेमियों में होने लगी। लेकिन राज्य रक्षिता होने से किसी की कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती थी।
महाराज को याद आया कि गणगौर के सांस्कृतिक अनुष्ठान में पुनिया को विशिष्ट नज़रों से देखा था। उन्हें लगा कि यह उसकी की उपस्थिति का जश्न मना रहे हो। पुनिया की कोमल कमनीय देह नव पल्ल्वित लता जैसी लग रही थी और सहायक उपकरण और आभूषण उसकी अद्भुत सुंदरता में चार चांद लगा रहे थे ।
उन्हें याद आया कि सोलह श्रृंगार के सोलह आभूषण, चंद्रमा के सोलह चरणों से संबंधित हैं, जो पुनिया को दुल्हन की तरह बेहद खूबसूरत बना रहे थे। यह अनुष्ठान खूबसूरत दुल्हन को देवी लक्ष्मी के साथ भी जोड़ता है क्योंकि वह प्रजनन और सुंदरता की देवी हैं। राजमहल की परिचारकाओं ने सोलह श्रृंगार अनुष्ठान में पारंपरिक दुल्हन के आभूषण और सौंदर्य सहायक उपकरणों से राय प्रवीन का शृंगार किया था। जिससे उसका अल्हड़ बुंदेली बाला का रूप पारंपरिक दुल्हन जैसा लग रहा था।
उसकी कुशलता से वेणी बनाई गई थी। चोटी को सजाने के लिए गजरे का इस्तेमाल किया गया था। गजरे से उसकी खूबसूरती में चार चांद लग गये थे। गजरा चमेली और मोगरा के सुंगंधित फूलों से बनाया गया था। हाथों, कलाइयों तथा पॉवों में मेहंदी लगाई गई थी।आंखों व रूप को निखारने के लिये कटीला काजल लगाया गया था जिससे वह मीनाक्षी लग रही थी ।
उसकी देह से इत्र की खुशबू आ रही थी। यह खस का इत्र था जो महाराज को बहुत भाता था। इत्र की खुशबू से महाराज को पुनिया की ओर आकर्षित करने का काम कर रही थी। पुनिया लहँगा चोली के ऊपर चंदेरी की ओढ़नी ओढ़ी थी ।
कानों में कर्णफूल, नाक में पुंगरिया, माथे पर बेदी, गले में हसली, काठला, गुलुबंद, बिचौली, तिदना, हाथों में बाजूबंद, चूड़ियां, उँगलियों में अगुठियां, पावों में पैंजना, झाँजर, कमर में करधौनी पहने थी।
उसने हाथों में कांच, लाख़, सोने, चांदी की चूड़ियां भर - भर कर पहनी थी। जिनके नगीने रह - रह कर चका उठते थे। जब - जब वह अपनी चुनरी सम्हालती तो चूड़ियां छन्न - छन्न बज उठती थी।
राय प्रवीन एक पतिव्रता नारी थी। उन दोनों का प्यार सच्चा था। महराजा को लग रहा था की यदि सम्राट अकबर उनकी पटरानी को इस तरह बुलाता तो वह क्या ऐसे जाने देते। क्या एक बुन्देला का कर्तव्य वो नहीं निभाते? क्या वह रानी कि आबरू बचाने के लिए जान पर नहीं खेल जाते?
ऐसे विचार महराज को लगातार कचोट रहे थे। उस दिन से उन्होंने खाना पीना सब छोड़ दिया था। उनके मित्र केशव भी नहीं थे। इस समय वह अकेले पड़ गए थे। वह लज्जा एवं संकोच के कारण, महल के अपने कमरे से भी बाहर नहीं निकले थे। रह -रह कर एक - एक कर सब चित्र मन को मथ रहे थे।
वे मन ही मन राय प्रवीन की कल्पना करते की सम्राट के महल में उस पर क्या बीत रहीं होगी। कितनी लज्जा, कितना अपमान केवल उन के कारण। न वह उसे ओरछा लाते न वह इस स्थिति में पड़ती। यह उनकी ही कायरता थीं कि वह लोक लाज का हवाला दे कर किस तरह शादी न करने से बचे। दूसरी ओर अपने स्वार्थ के कारण उसे हमेशा अपने उपभोग की वस्तु समझा। जबकि वह भी एक जीती जागती नारी थी, उसे भी समाज में सिर ऊंचा कर सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार था। जो उन्होंने उसे नहीं दिया। उसने उन्हें अपना निश्छल प्यार दिया। महाराज उसके पहले प्रेमी थे लेकिन उनकी तो पटरानी व दूसरी महिला मित्र थी। फिर भी कोई शिकायत नहीं। कोई शिकवा नहीं पूर्ण आत्म समर्पण। क्या नारी थी ? क्या नारी का ह्रदय ? वह महान थी। महाराज याद करते है की किस तरह पुनिया को उन्होंने जब गणगौर के कार्यक्रम में देखा था तो उन्हें लगा था कि जैसे उसकी आँखें बातें कर रही हो, उनके मुँह से बरवस निकला -
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही से सब बात॥
महाराज राय प्रवीन व अपने व्यबहार की निरंतर तुलना कर अपने आप को पापी, हीन व दुश्चरित्र मान रहे थे। वे किसी को मुँह दिखने के लायक नहीं बचे थे। रात को चुप चाप राम राजा के मन्दिर गये। भगवान की शयन आरती की फिर भगवान को प्रणाम कर कमरे में आ गये। उन्होंने मन में कुछ तो निश्चय भगवान के सामने प्रार्थना करते हुए कर लिया था।आज उन्होंने कक्ष्य में दीया नहीं जलने दिया था। उन्हें अंधेरे में अच्छा लग रहा था। सदा रोशनी में रहने वाला रोशनी से डर रहा था।
महाराज की शिक्षा बनारस के प्रसिद्धि गुरुकुल में हुई थी। जहां उन्हें गीता पढ़ाई गई थी। राय प्रवीन के बारे में सोचते - सोचते महाराज की मनोदशा ऐसी हो गई जैसा कृष्ण गीता में कहते है कि -
"ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥"
‘विषय-वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है।’
“क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥”
‘क्रोध से मनुष्य की मति-बुदि्ध मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है, कुंद हो जाती है। इससे स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही का नाश कर बैठता है।’ महाराज का डमाडोल मन स्थिर हो गया था और उन्होने ने भी अपना नाश करने का ठान लिया था।
बरंधुआ ग्राम
"कच्ची ईंट बाबुल देरी न धरियों, बिटिया न दियो परदेस मोरे लाल। ........" लोकगीत की आवाज दूर से राजकुमार इन्द्रजीत सिंह के कानों में तब पड़ी जब वह अपनी जागीर कछौआ के गॉंव बरंधुआ से निकल रहें थे।
बुन्देलखण्ड में बहुत छोटे - छोटे गांव होते है। बीच बीच में छोटी - छोटी पहाड़ियां होती है। जिन्हें स्थानीय लोग टोरिया कहते है। दो पहाड़ियों की सकरी जगह मिट्टी के बांध राजाओं ने बनवा दिये है। जिन से ये लोग पीने का पानी लेते है। जानवरों को पानी पिलाते है। अपना निस्तार करते है तथा कहीं - कहीं ज्यादा पानी होने पर खेतों में सिंचाई भी होती है। ऐसी ही दो टोरियों के बीच यह गांव बसा है। अभी कार्तिक का महीना चल रहा है और खेतों में ज्वार तथा मूंग की पकी फसल खड़ी है।
कुछ खेतों में कोदो की फसल लहलहा रही है। कोदो की फसल कुछ - कुछ तामियां या काळे जैसे रंग की होती है, जबकि ज्वार तथा मूंग की फसल हरी होती है। इस कारण खेत बड़े रंग बिरंगे दिख रहे है। जगह - जगह पानी भरा है। मेड़ों पर घास उग आने से घोड़ों को चलने में दिक्कत हो रही है। बीच - बीच हरी - हरी घास देख कर उनका मन ललचा जाता है।
बरंधुआ गांव में सभी जाति के मुश्किल से चालीस घर होंगे। सभी घर कच्ची मिट्टी के बने है व ऊपर मिट्टी के खपरा कवेलू लगा कर छावनी की गई है। केवल मुखिया का घर चूना से बना है और घर की छत भी पक्की है। गांव के घरों को मिट्टी तथा गोबर से लीप कर गेरू से चित्रकारी कर सजाया गया है। घर के फर्श के किनारे चूने से बाउण्ड्री पोत कर सफ़ेद लाइन बनाई है तथा गोबर से लीपा है। कुछ घरों के सामने रांगोळी बनी है।
जगह -जगह नीम, जामुन और आम के हरे भरे पेड़ लहलहा रहे है। घरों के आगे नावदान का गन्दा पानी सड़क पर बह रहा है। घरों के बाहर खेती के औजार हल, बख्खर तथा बैल गाड़ियां रखी है।कुओं से महिलायें पानी ढोकर ला रही है। बच्चे गली में खेल रहे है। कुछ लोग चबूतरों पर बैठ कर धूप सेक रहे है तथा चिलम पी रहे है।
राजकुमार कभी - कभी अपनी जनता का हाल - चाल जानने अपनी जागीर के गॉंवों में जाते रहते थे। उन के साथ उनके सेवक तथा पीछे - पीछे घोड़ों पर सिपाही चल रहे थे।
एकाएक राजकुमार ने अपने घोड़े की लगाम खींची तो घोड़ा रुक गया। यकायक घोड़ा रुकने का कारण किसी की समझ में नहीं आया की क्या हुआ ? राजकुमार का खास सेवक रामदास दौड़ कर आगे आया। इंद्रजीत ने उससे पूछा "ये आवाज सुनते हो"
रामदास अचकचा गया। "कौन सी आवाज? महाराज "
"जो गाने की" इंद्रजीत ने आवाज की ओर इशारा किया।
रामदास ने ध्यान से सुना कोई बच्चा लोकगीत गा रहा था। बुन्देलखण्ड के गाँवों में यह आम बात है। जब कोई ठलुआ बैठा हो या कोई काम करता हो, चाहे महिला हो या पुरुष सभी लोकगीत जरूर गाते रहते हैं। बुन्देलखण्ड की खास बात यह है कि इस संस्कृति में हर अवसर के लिए अलग -अलग गीत है। इलाके के हर गांव में गवैये, बजैया तथा लेखक मिल जाते हैं। चाहे वे पढ़े लिखे न हो लेकिन अपनी विधा में पारंगत बहुत होते है।
इस कारण बाहर बाले लोग गाने बजाने बालों पर बहुत ध्यान नहीं देते। लेकिन जब बात राजकुमार ने की हो तो सब को ध्यान देना ही पड़ा।
यह वक्त था जब गांव के लोग आपस में हंसी खुशी से रहते थे, पहले के वक्त में गांवों के लोग पुलिस थाने में जाते तक नहीं थे, क्योंकि किसी के बीच किसी प्रकार न तो मतभेद होते थे और न ही लड़ाई झगड़े. लेकिन आज के वक्त में यह बात थोड़ी मुश्किल है। आज हर गांव में विवाद, लड़ाई झगड़े की स्थिति बनती रहती है।
लेकिन अगर आप से कहा जाए कि बुंदेलखंड अंचल में एक ऐसा गांव है जहां आज भी बड़े - बड़े विवाद गांव में ही सुलटा लिए जाते हैं। सालों से यहां का कोई मामला थाने में नहीं पहुंचा है। गांव के लम्बरदार सभी झगड़ों का निराकरण गांव की अथाई पर करते है। लम्बरदार के घर के आगे जामुन का पेड़ है, उसी के नीचे चबूतरा बना है, यहीं गांव की अथाई लगती है।
गांव की संस्कृति बहुत ही निराली है और बहुत ही ज्यादा आत्मनिर्भर भी। वह किसी भी चीज के लिए बाहरी वस्तुओं पर ज्यादा आश्रित नहीं होते हैं। उन के पास जो भी सामान है, वह अपनी जरूरतों और मुश्किलों को हल करने के लिए उस का इस्तेमाल करते हैं। अथाई के आगे से कोई जूते चप्पल पहन कर नहीं निकलता है। गांव के सभी लोग इस चबूतरे की इज्जत करते है, क्योंकि इसी पर पंच परमेश्वर बैठ कर फैसला करते है। गांव के धार्मिक आयोजन कथा, वार्ता, आल्हा, रामायण महाभारत की कथा का आयोजन अथाई पर होता है।
ऐसा कहा जाता है कि भारत में कला और संस्कृति को करीब से देखना या समझना चाहते हैं, तो इंसान को एक बार देश के गांवों में जरूर जाना चाहिए। भारत के हर गांव की अपनी अलग कहानी है। इन गांवों का अनुभव लेने के लिए आपको भी अपने जीवन में एक बार गांव जरूर जाना चाहिए।
राजकुमार ने आवाज की दिशा में अपना घोड़ा मोड़ दिया। काफिला गांव ने अंदर आ गया। गांव का मुखिया जो अभी राजकुमार को विदा कर अपने घर के अन्दर घुसा ही रहा था, गांव के चौकीदार की पुकार सुन बाहर आ गया। राजकुमार ने मुखिया से पूछा "कि यह कौन गा रहा है?"
मुखिया ने ध्यान से सुना और बोला "कि अरे ये तो गांव के लोहार की बिटिया पुनिया है, महाराज।"
"मुझे उनके घर ले चलो" राजकुमार ने मुखिया को आदेश दिया।
"वहां कहाँ जाएगे महाराज" मुखिया ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया।
"उनको यही बुलावा लेत है, महाराज"
"नहीं, वही चलो" राजकुमार ने घोड़े पर बैठे घोड़ा उस ओर बड़ा दिया।
मुखिया व चौकीदार आगे - आगे चल रहे थे। वे लोहार के दरवाजे के सामने रुक गये। यह बहुत ही छोटा एक कमरे का कच्चा घर था, जिस के ऊपर घास फूस छाया गया था।
घर के बाहर एक छप्पर था जिस में लोहार खेती के औजार बनाता था। सभी किसानो की लिए हंसिया, खुरपी, कुल्हाड़ी, हल बैलगाड़ी की धाउ चढ़ाने का काम लुहार का था। खेती के बैलों को बधिया करना, उनके खुरों में नाल लगाने का काम लोहार बहुत कुशलता से करता था।
घोड़ों की टॉपें तथा बहुत से लोगों की आवाजों से अंदर लड़की ने गाना बंद कर दिया और बाहर आ गई। घर के बाहर गली में बैठा कुत्ता जोर - जोर से. भोंकने लगा। मुखिया ने कड़क आवाज में पूछा
"घर में और कौन है ?"
लड़की कुछ अचकचा गई। लड़की की उम्र दस साल से कम ही रहीं होगी
सकुचाते बोली "कोउ नइयां। मै अकेली हूँ "
"कौन गा रहा था ?" राजकुमार ने नरम आवाज में पूछा। वह घोड़े से उतर आया था, उसके साथी भी उतर गये।
लड़की कुछ ज्यादा डर गई। वह घर के दरवाजे की ओट से किवाड़ पकड़ कर बोली "मेई गा रही थी"
मुखिया ने भी नरम आवाज कर पूछा 'तोय बाप किते है?"
"खेत पे गए" लड़की बोली।
और "मताई किते है ?
"बा भी खेत पे गई। " लड़की ने बताया।
राजकुमार आगे बढ़ कर लड़की के सामने पहुँचा और बोला "कुछ गा कर हमें भी सुनाओ।" पहले तो लड़की अजनबियों को देख कर सकुचा गई। उसने अपनी औढनी का सिरा दातों से दबा लिया। लेकिन मुखिया ने बार - बार नर्म आवाज में गाने का अनुरोध किया, लड़की ने निडरता से विवाह में गाने वाली गारी गई -
“आगड़ दम बागड़ दम, नोन ज्यादा मिर्ची कम
खाओ तुम और परसे हम
घर में से निकरे रिपट परे जीना पे
जा दार बगर गई, दोना काये न लिआय
जो भात बगर गओ, जा कड़ी बगर गई
दोना काये न लिआय
दोना लियाये ना पातर लियाये
हात हिलाओत आ गये
जा मई भग जा, जा बाहर कड़ जा
आप तो खाएं जलेबी, हमारे लिए कड़ी कम
आप तो खाएं बिरयानी, हमारे लिए खिचड़ी कम
आप तो खाएं हलवा पूरी, हमारे लिए दाल रोटी कम
दोना काये न लिआय
अब की बेरा दोना लियाईओ पातर लियाईओ
आगड़ द म बागड़ दम”
"वह ! कितना सुन्दर गला है। बहुत अच्छा गाती हो। "
राजकुमार की यह बात सुन कर सबकी जान में जान आई। लड़की की समझ में कुछ नहीं आया। सब लोग लड़की की वेबाकि देख कर ढंग रह गये। राजकुमार खूब हॅसने लगे। राजकुमार के सभी साथी जोर - जोर से हँस - हँस कर लोटपोट हो गये। लड़की शर्मा गई। उसने अपनी आँखें नीचे कर ली और अपने पैर के नाख़ून से जमीन खुरचने लगी।
राज कुमार ने एक कल्दार निकाल कर लड़की की तरफ बढ़ाया। लेकिन उसने नहीं लिया। तब मुखिया ने बहुत नरम स्वर में कहा "बेटा ले लो। महाराज तोय इनाम आ दे रये। लड़की ने सकुचाते हाथ बड़ा दिया। हाथ बहुत गन्दा था। महाराज ने कल्दार लड़की के हाथ पर रख दिया।
राजकुमार ने मुखिया से कहा "कल इसके बाप को ले के किले पे आना।"
"जी हजूर" मुखिया ने कहा।
काफिला जिस रास्ते आया था, उसी रास्ते वापिस चला गया। सड़क कच्ची है तथा आस पास के खेतों की मेड़ों से नीची होने से घोड़ों की टापों से धूल उड़ रही थी। चूँकि राजकुमार का घोड़ा सबसे आगे था तो उसे तो धूल नहीं लग रहीं थी। लेकिन पीछे आ रहे सभी लोग धूल से सन गये थे। उन्होंने धूल से बचने के लिए गमछों से अपने मुँह बांध रखे थे।
दीपावली के त्यौहार के कारण जगह - जगह रास्ते में मोनियों के झुण्ड चल रहे थे जो घोड़ों की आवाज सुन कर किनारे पर खड़े हो कर रास्ता दे रहे थे।
बुंदेलखंड में दिवाली के जश्न की अलग ही परंपरा है, जो पूरे तेरह दिन तक चलती है। दिवाली के अगले दिन से शुरू होकर देवउठनी एकादशी तक मौनी नृत्य और बरेदी नृत्य का आयोजन होता है। विशेषकर यादव समाज के लोग इसे मनोकामना या मन्नत के लिए करते हैं।
दिवाली के दूसरे दिन गांव गांव से निकलने वाले मोनिया और जगह-जगह पर होने वाले मौनी नृत्य। व्रत करने वाला मोर के पंखों का मूठा लेकर घुटनों तक धोती पहने, माथे पर चंदन लगाये, पैरों में घुंघरू बांधे नृत्य की वेशभूषा में तेजी से चलकर अपने गाँव की परिक्रमा करता है और इसी तरह आगे बढ़ता जाता है। उन्हें एक ही दिन में बारह गांव की मेड, 'हद' पैदल पार करना होती है। यह मौन व्रत बारह वर्ष तक रखना पड़ता है।
जहां से यह यात्रा शुरू करते हैं वहीं पर इसका समापन होता है समापन के दौरान यह खूब नृत्य करते हैं और भगवान की आराधना करते। इस नृत्य को मौनी नृत्य कहते है यह बुंदेलखंड के बाद्य यंत्र ढोलक मंजीरा नगरिया मृदंग के बजने पर होता है।
जहां पर नृत्य होता है वहां मौजूद दूसरे लोग दिवारी गीत भी गाते हैं। दिवारी गीत और नृत्य मूलतः संस्कृति के गीत है, यही कारण है की इन गीतों में जीवन का यथार्थ मिलता है। फिर चाहे वह सामाजिकता हो, या धार्मिकता, अथवा श्रृंगार या जीवन का दर्शन। ये वे गीत हें जिनमे सिर्फ जीवन की वास्तविकता के रंग हें , बनावटी दुनिया से दूर, सिर्फ चरबाही संस्कृति का प्रतिबिम्ब। अधिकाँश गीत निति और दर्शन के हें । ओज से परिपूर्ण इन गीतों में विविध रसों की अभिव्यक्ति मिलती है।
नृत्य को देखने वाले लोग ताल से ताल मिलाकर इनका उत्साह वर्धन करते हैं। मौनी नृत्य करने वाले ग्वाले समूह में होते हैं। गाँव के अहीर - गडरिया और पशु पालक तालाब नदी में नहा कर, सज-धज कर मौन व्रत लेते हें। इसी कारण इन्हे मोनिया भी कहा जाता है ।
शुरुआत में पांच मोर पंख लेने पड़ते हैं प्रतिवर्ष पांच-पांच पंख जुड़ते रहते हैं। इस प्रकार उनके मुट्ठे में बारह वर्ष में साठ मोर पंखों का जोड़ इकट्ठा हो जाता है। परम्परा के अनुसार पूजन कर पूरे नगर में ढोल,नगड़िया की थाप पर दीवारी गाते, नृत्ये करते हुए हुए अपने गंतव्य को जाते हैं। इसमें एक गायक ही लोक परम्पराओं के गीत और भजन गाता है और उसी पर दल के सदस्य नृत्य करते हैं ।
मोनिया कोंड़ियों से गुथे लाल पीले रंग के जांघिये और लाल पीले रंग की कुर्ती या सलूका अथवा बनियान पहनते हें । जिस पर कोड़ियो से सजी झूमर लगी होती है , पाँव में भी घुंघरू ,हाथो में मोर पंख अथवा चाचर के दो डंडे का शस्त्र लेकर जब वे चलते हें तो एक अलग ही अहसास होता है। मोनियों के इस निराले रूप और उनके गायन और नृत्य को देखने लोग ठहर जाते हें ।
मौन साधना के पीछे सबसे मुख्य कारण पशुओं को होने वाली पीड़ा को समझना है। वे बताते हैं कि जिस तरह किसान खेती के दौरान बैलों के साथ व्यवहार करता है। उसी प्रकार प्रतिपदा के दिन मौनिया भी मौन रहकर हाव-भाव करते हैं। वे प्यास लगने पर पानी जानवरों की तरह ही पीते हैं। पूरे दिन कुछ भी भोजन नहीं करते हैं।
एक टोली का सरदार टेर लगा कर सुमरनी गा रहा है
"सदा भवानी दाहिनी, सनमुख रहे गणेश। तीन देव रक्षा करें, ब्रह्मा, विष्णु, महेश ।।
वृन्दावन बसवौ तजौ, अरे हौन लगी अनरीत।
तनक दही के कारने, बहिया गहत अहीर।।"
बाजे बज उठे, नृत्य शुरू हुआ, रमतूला बजने लगा।
बुन्देलखण्ड
मधुकरशाह के आठ पुत्र थे, उनमें इंद्रजीत खूब होशियार बच्चा था। राजकुमार इंद्रजीत को उनके पिता ने जब उन्हें पढ़ने के लिये बनारस भेजा तो गुरु से अनुरोध किया गया कि इसे राजकाज के लिए दक्ष बनाना है अतः इसे बुन्देलखण्ड के बारे में अच्छा ज्ञान होना जरुरी है। इसलिए इंद्रजीत को बुन्देलखण्ड का इतिहास बहुत विस्तृत रूप से पढ़ाया गया।
पहले दिन गुरु ने जब बच्चे को पढ़ाने बिठाया तो इन्द्रजीत के प्रश्न किया "गुरु जी हमारे देश के किस भाग को बुंदेलखंड कहते है ?"
गुरु जी ने कागज पर बना नक्शा दिखा कर समझाना शुरू किया "बुंदेलखंड क्षेत्र की सीमा उत्तर में गंगा यमुना का मैदान तथा दक्षिण में विंध्याचल पर्वत बनाता है। यह मध्यम ढलान वाली उच्च भूमि है। बुन्देलखण्ड की सीमाओं के बारे में एक दोहा प्रचलित है -
"इत जमना उत नर्मदा, इत चम्बल उत टोस।
छत्रसाल से लरन की, रहीं न काउ होस।"
"इस क्षेत्र में इतनी गरीबी क्यों है?" इन्द्रजीत ने अगला सवाल किया। गुरु ने बताया कि इस क्षेत्र में मानसून की वर्षा काम होती है। कभी -कभी पानी इतना कम बरसता है की सूखे की स्थिति बन जाती है। ज्यादा तर खेती मानसून पर आधारित है इसलिए अधिकांश गावों में खरीफ की फसल ही होतो है। उन्होंने हसते हुए कहा, इस क्षेत्र में पानी की कमी के कारण एक कहावत प्रचलित है -
"मेघ करोटा ले गओ, इन्द्र बांध गऔ टेक।
बैर मकोरा यो कहे, मरन ना पावे एक।"
ज्वार तथा कोदों मुख्य फैसले है लेकिन जब सूखा पड़ता है तो गरीब आदमी महुआ और बेर खा कर गुजर बसर करते है जो बुंदेलखंड के लोगों का सबसे प्रिय भोजन है। ये दोनों वृक्ष इस जगह के लोकप्रिय वृक्ष हैं। यहाँ महुआ को मेवा, बेर को कलेवा नास्ता और गुलचुल का सबसे बढ़िया मिष्ठान माना जाता है, जैसा कि इस पंक्ति से स्पष्ट होता है
"मउआ मेवा बेर कलेवा गुलचुल बड़ी मिठाई।
इतनी चीज़ें चाहो तो गुड़ाने करो सगाई।।"
"तो फिर इस क्षेत्र का इतिहास क्या है?" इन्द्रजीत ने विनम्रता से पूछा।
उन्होंने कहा “बुंदेलखंड सुदूर अतीत में शावर, कोल, किरात, पुलिन्द और निषादों का प्रदेश था। आर्यों के मध्यदेश में आने पर जन जातियों ने प्रतिरोध किया था।
वैदिक काल से बुंदेलों के शासनकाल तक दो हज़ार वर्षों में इस प्रदेश पर अनेक जातियों और राजवंशों ने शासन किया है और अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से इन जातियों के मूल संस्कारों को प्रभावित किया।
विभिन्न शासकों में मौर्य, सुंग, शक, हुण, कुषाण, नाग, वाकाटक, गुप्त, कलचुरि, चन्देल, अफगान, मुगल, बुंदेला, बघेल, गौड़, मराठे और अंग्रेज मुख्य हैं।
महाभारत और रघुवंश के आधार पर माना जाता है कि मनु के उपरांत इस्वाकु आऐ और उनके तीसरे पुत्र दण्डक ने विन्धयपर्वत पर अपनी राजधानी बनाई।
मनु के समानान्तर बुध के पुत्र पुरुखा माने गए हैं, इनके प्रपौत्र ययति थे, जिनके ज्येष्ठ पुत्र यदु और उसके पुत्र कोष्टु भी जनपद काल में चेदि, वर्तमान बुंदेलखंड से संबंद्ध रहे हैं।
पौराणिक काल में बुंदेलखंड प्रसिद्ध शासकों के अधीन रहा है, जिनमें चन्द्रवंशी राजाओं का आधिपत्य रहा। पौराणिक युग का चेदि जनपद ही इस प्रकार प्राचीन बुंदेलखंड है।”
आज का समय समाप्त हो जेने से इंद्रजीत अपने कमरे में खाना खाने तथा आराम करने जाने लगे तो गुरु ने खजुराहो पर एक किताब उन्हें पड़ने के लिये दी।
रात्रि को विश्राम के पूर्व उन्होंने उसे पढ़ाना शुरू किया।किताब के शुरू में पहले अध्याय में उन्होंने पढ़ा
‘बुंदेलखंड में, खजुराहो के मंदिर के निर्माण के संबंध में एक जनश्रुति प्रचलित है। कहा जाता हैं कि एक बार राजपुरोहित हेमराज की सुपुत्री हेमवती शाम के समय झील में स्नान करने पहुंची, उस समय चंद्रदेव ने स्नान करती अति सुंदर हेमवती को देखा तो चंद्रदेव पर उनके प्रेम की धुन सवार हो गयी।
उसी क्षण चंद्रदेव अति सुन्दर हेमवती के सामने प्रकट हुए और उनसे विवाह का निवेदन किया।
कहा जाता हैं कि उनके मधुर संयोग से एक पुत्र का जन्म हुआ और उसी पुत्र ने चंदेल वंश की स्थापना की थी। हेमवती ने समाज के डर के कारण उस पुत्र को वन में करणावती नदी के तट पर पाला था। पुत्र को चंद्रवर्मन नाम दिया, अपने समय में चंद्रवर्मन एक प्रभावशाली राजा माना गया।
चंद्रवर्मन की माता हेमवती ने उसके स्वप्न में दर्शन दिए और ऐसे मंदिरों के निर्माण के लिए कहा, जो समाज को ऐसा संदेश दें जिससे समाज मे कामेच्छा को भी जीवन के अन्य पहलुओं के समान अनिवार्य समझा जाए और कामेच्छा को पूरा करने वाला व्यक्ति कभी दोषी न हो।
माता हेमवती के स्वप्न मे दर्शन देने के पश्चात् चंद्रवर्मन ने मंदिरों के निर्माण के लिए खजुराहो को चुना। खजुराहो को अपनी राजधानी बनाकर उसने यहां पचासी वेदियों का एक विशाल यज्ञ किया। बाद में पचासी वेदियों के स्थान पर ही पचासी मंदिर बनवाए थे, जिन मंदिरों का निर्माण चंदेल वंश के आगे के राजाओं ने जारी रखा।’
पचासी मंदिरों में से आज यहां केवल बाइस मंदिर ही बाकी हैं। चौदहवीं शताब्दी में चंदेल खजुराहो से प्रस्थान कर दिए थे और उसी के साथ वह दौर खत्म हो गया। कहते हैं कि चंदेल राजाओं के समय इस क्षेत्र में तांत्रिक समुदाय की वाममार्गी शाखा का वर्चस्व था। ये लोग योग और भोग दोनों को मोक्ष का साधन मानते थे।
अगले दिन इंद्रजीत ने गुरु से खजुराहो के संबंध में जानना चाहा। तब गुरु ने उन्हें बताया कि “ये मूर्तियां उनके क्रियाकलापों की ही देन हैं। महोबा चन्देलों का केन्द्र था। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद गहरवारों ने इस पर अधिकार कर लिया था, चन्देलों का आदि पुरुष नन्नुक को माना जाता है।
इसके बाद वाक्यपति का नाम आता है। वाक्यपति के दो पुत्र हुए जयशक्ति और विजयशक्ति। जयशक्ति को वाक्यपति के बाद सिंहासन में बैठाया गया और इसके नाम से ही बुंदेलखंड क्षेत्र का नाम "जेजाक-मुक्ति' पड़ा”
उन्होंने आगे कहा “बुंदेल क्षत्रीय जाति के शासक थे तथा सुदूर अतीत में सूर्यवंशी राजा मनु से संबन्धित हैं। बनारस के राजा करनपाल के तीन पुत्र थे- वीर, हेमकरण और अरिब्रह्म। करनपाल ने हेमकरन को अपने सामने ही गद्दी पर बैठाया था। इसे करनपाल की मृत्यु पर शेष दो भाईयों ने पदच्युत कर देश निकाला दे दिया था।
अपने भाइयों से त्रस्त होकर हेमकरन ने राजपुरोहित गजाधर से परामर्श लिया। उसने विन्धयवासिनी देवी की पूजा के लिए प्रेरित किया।
मिर्जापुर में विन्ध्यवासिनी देवी की पूजा में चार नरबलियाँ दी गई, देवी प्रसन्न हुई और हेमकरन को वरदान दिया परंतु हेमकरन के भाईयों का अत्याचार हेमकरन के लिए अब भी कम नही हुआ।
कालांतर में उसने एक और नरबलि देकर देवी को प्रसन्न किया। देवी नें पाँचों नरबलियों के कारण उसे पंचम की संज्ञा दी। इसके बाद वह विन्ध्यवासिनी का परम भक्त बन गया। जन समाज में वह "पंचम विन्ध्येला' कहलाया।”
“एक अन्य कथा के अनुसार हेमकरन ने देवी के समक्ष अपनी गर्दन पर जब तलवार रखी और स्वयं की बलि देनी चाही तो देवी ने उसे रोक दिया परंतु तलवार की धार से हेमकरन के रक्त की पांच बूंदें गिर गई थीं इन्हीं के कारण हेमकरन का नाम पंचम बुंदेला पड़ा था।
इसके बाद का चक्र बड़ी तेजी से घूमा और वीरभद्र ने गदौरिया राजपूतों से अँटेर छीन लिया और महोनी को अपनी राजधानी बनाया।
"फिर बुन्देलों का समय कहां से शुरू होता है ?" इन्द्रजीत की उत्सुकता बाद गई थी। गुरु ने बताया
“गढ़ कुंढार के खंगारों को तीन कुरी के ठाकुर ने एक गठबंधन बनाकर हरा दिया।गढ़कुण्डार इसके बाद बुंदेलों की राजधानी बनी। रुद्रप्रताप के साथ ही ओरछा के शासकों का युगारंभ होता है। वह सिकन्दर और इब्राहिम लोधी दोनों से लड़े थे। ओरछा की स्थापना सन पंद्रह सौ तीस में हुई थी।
रुद्रप्रताप बड़े नीतिज्ञ थे, ग्वालियर के तोमर नरेशों से उन्होंने मैत्री संधी की। हुमायूँ को जब शेरशाह ने पदच्युत करके सिंहासन हथियाया था तब उसने बुंदेलखंड के जतारा स्थान पर दुर्ग बनवा कर हिन्दु राजाओं को दमित करने के निमित्त अपने पुत्र सलीमशाह को रखा।”
इन्द्रजीत ने गुरु को बताया कि एक दिन मेरे पिता जी महाराज मधुकर शाह ने कहानी सुनते समय बताया कि
“महाराज रूद्र प्रताप सिंह बुन्देला ने राजधानी गढ़ कुड़ार से हटा कर बेतवा नदी के किनारे रोहणी नक्षत्र में ओरछा में बना ली थी। कालिदास ने मेघदूत में इसका उल्लेख किया है। बेतवा का प्राचीन नाम बेत्रवती है। महाकवि कालिदास ने इसे बेत्रवती सम्बोधन करते हुए लिखा है कि-
"तेषां दिक्षु प्रथित विदिसा लक्षणां राजधानीम्
गत्वा सद्यः फलं विकलं कामुकत्वस्य लब्धवा।
तीरोपान्तस्तनितसुभगं पस्यसि स्वादु दस्मात्,
संभ्रु भंगमुखमिव पदो वेत्रवत्याश्चलोर्मि।।"
‘हे मेघकुम्भ! विदिशा नामक राजधानी में पहुँचकर शीघ्र ही रमण विलास का सुख प्राप्त करोगे, क्योंकि यहाँ बेत्रवती नदी बह रही है। उसके तट के उपांग भाग में गर्जनपूर्वक मनहरण हरके उसका चंचल तरंगशाली सुस्वादु जल प्रेयसी के भ्रुभंग मुख के समान पान करोगे।’
“शेर शाह सूरी को खदेड़ने के बाद राजा भारती चन्द्र जू देव के छोटे भाई मैं गद्दी पर बैठा। इसके बाद मैंने स्वतंत्र ओरछा राज्य की स्थापना की।”
महाराज मधुकर शाह ने ओरछा के लिए लिखा -
"ओड़छो वृन्दावन सो गांव,
गोवर्धन सुखसील पहरिया जहाँ चरत तृन गाय,
जिनकी पद-रज उड़त शीश पर मुक्ति मुक्त है जाय।
सप्तधार मिल बहत बेतवा, यमुना जल उनमान,
नारी नर सब होत कृतारथ, कर-करके असनान।
जो थल तुण्यारण्य बखानो, ब्रह्म वेदन गायौ,
सो थल दियो नृपति मधुकर कौं,
श्री स्वामी हरिदास बतायौ।"
यहां पर विकास की एक सीढ़ी चढ़ना दुभर है। बुन्देलखण्ड का प्रत्येक ग्राम भूख और आत्महत्याओं की करुण कहानियों से भरा है। कुंठा, निराशा, अवसाद ने उनके संघर्ष की शक्ति क्षीण कर दी और वे भयंकर कदम उठा बैठते हैं। बुंदेलखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और ऐतिहासिक महत्व ने इसे एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल बना दिया है। बुंदेलखंड में लगभग चौतीस किले और ऐतिहासिक इमारतें हैं। बेतवा तथा धसान बुन्देलखण्ड के पठार की प्रमुख नदियाँ हैं।
समाज में व्याप्त जड़ता उदासी और अकर्मण्यता के स्थान पर भक्ति की ओर प्रवृत्ति मिलती है। बुन्देलखण्ड में भक्ति की उस पावन धार के दर्शन नहीं होते जो बृज प्रदेश में प्रवाहित हुए। यहां सभी प्रकार की उपासनाओं का जोर रहा।
गोस्वामी तुलसीदास भी इसी भू-भाग से जुड़े हुये थे। प्रसिद्ध कवि रहीम भी बुन्देलखण्ड की संस्कृति के प्रति श्रद्धावान थेा जो उनकी उक्ति "चित्रकूट में रम रहे रहिमन अवध नरेश। जा पर विपदा पड़त है सो आवत इहि देश।।" से विदित होता है। जब राम को विपत्ति आई तो वह भी बुंदेलखंड में आये थे।
इस तरह धीरे - धीरे इन्द्रजीत की शिक्षा काशी में पूर्ण हुई। वे ओरछा लोट आये।
ओरछा
इस समय ओरछा में बुन्देलों का प्रभाव बढ़ने लगा था।
इस समय ग्वालियर का राज्य कमजोर पड़ रहा था तथा ओरछा उत्तर से दक्षिण के व्यापार मार्ग पर होने से बड़ी तरक्की कर रहा था।
बुंदेलखण्ड क्षेत्र महत्वपूर्ण था, क्योंकि इस के माध्यम से दक्कन से यमुना-गंगा दोआब तक का मार्ग गुजरता था। लेकिन ये पहाड़ी, दुर्गम और नियंत्रित करने में कठिन था।
पहाड़ काट कर बहुत सुंदर नगर बसया जा रहा था। बहुत सुन्दर बड़े - बड़े महल, राज प्रसाद, बाजार व बेतवा नदी पर पुल और घाट बनाये जा रहे थे। ओरछा नगर इतना समृद्ध हो गया कि कहते है कि वेतबा के घाट पर नगर की महिलायें नहाते समय जब अपने सोने के गहने रेत से माज कर चमकाती तो उनके स्वर्ण आभूषणों के क्षरण से प्रतिदिन लगभग सवा मन सोना घिसकर बह जाता था।
बेतवा का कंचना घाट नाम इस कारण पड़ा गया। कंचना घाट ओरछा के सबसे प्रसिद्ध घाटों में से एक है और यह ओरछा किला परिसर के भीतर स्थित है।
व्यापारियों को रुकने के लिए धर्मशालाऐं, सराय रास्तों पर कुआँ बाबड़ियां तथा सुरक्षा के लिए सैनिक चौकियां बनवाई गई। ओरछा में बने हर महल, मन्दिर व भवनों की रोचक कहानियाँ है। इनमें सबसे रोचक कहानी एक मंदिर की है।
इद्रजीत के पिता ने एक बहुत रोचक अपनी कहानी उसे सुनाई दरअसल, यह मंदिर भगवान राम की मूर्ति के लिए बनवाया गया था, लेकिन मूर्ति स्थापना के वक्त यह अपने स्थान से हिली नहीं। एक दिन ओरछा नरेश मधुकर शाह बुंदेला ने अपनी पत्नी गणेश कुंवर राजे से कृष्ण उपासना के इरादे से वृंदावन चलने को कहा। लेकिन रानी राम भक्त थीं। उन्होंने वृंदावन जाने से मना कर दिया। क्रोध में आकर राजा ने उनसे यह कहा कि तुम इतनी राम भक्त हो तो जाकर अपने राम को ओरछा ले आओ।
रानी ने अयोध्या पहुंच कर सरयू नदी के किनारे लक्ष्मण किले के पास अपनी कुटी बनाकर साधना आरंभ की। इन्हीं दिनों संत शिरोमणि तुलसीदास भी अयोध्या में साधना रत थे। संत से आशीर्वाद पाकर रानी की आराधना दृढ़ से दृढ़तर होती गई।
लेकिन रानी को कई महीनों तक राम राजा के दर्शन नहीं हुए। अंतत: वह निराश होकर अपने प्राण त्यागने सरयू की मझधार में कूद पड़ी। यहीं जल की अतल गहराइयों में उन्हें राम राजा के दर्शन हुए।
रानी ने उन्हें अपना मंतव्य बताया। राम राजा ने ओरछा चलना स्वीकार किया किन्तु उन्होंने तीन शर्तें रखीं- पहली, यह यात्रा पैदल होगी, दूसरी- यात्रा केवल पुष्प नक्षत्र में होगी, तीसरी- राम राजा की मूर्ति जिस जगह रखी जाएगी वहां से पुन: नहीं उठेगी।
जो मूर्ति ओरछा में विद्यमान है उसके बारे में बताया जाता है कि जब राम वनवास जा रहे थे तो उन्होंने अपनी एक बाल मूर्ति मां कौशल्या को दी थी। मां कौशल्या उसी को बाल भोग लगाया करती थीं। जब राम अयोध्या लौटे तो कौशल्या ने यह मूर्ति सरयू नदी में विसर्जित कर दी। यही मूर्ति गणेश कुंवर राजे को सरयू की मझधार में मिली थी।
रानी ने राजा को संदेश भेजा कि वो राम राजा को लेकर ओरछा आ रहीं हैं। राजा मधुकर शाह बुंदेला ने राम राजा के विग्रह को स्थापित करने के लिए लाखों की लागत से चतुर्भुज मंदिर का निर्माण कराया।मंदिर के ऊपर सवा मन सोने का कलश चढ़ाया गया।
जब रानी ओरछा पहुंची तो उन्होंने यह मूर्ति अपने महल में रख दी। यह निश्चित हुआ कि शुभ मुर्हूत में मूर्ति को चतुर्भुज मंदिर में रखकर इसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी। लेकिन राम के इस विग्रह ने चतुर्भुज जाने से मना कर दिया।
कहते हैं कि राम यहां बाल रूप में आए और अपनी मां का महल छोड़ कर वो मंदिर में कैसे जा सकते थे। लेकिन मंदिर बनने के बाद कोई भी मूर्ति को उसके स्थान से हिला नहीं पाया।
राम आज भी इसी महल में विराजमान हैं और उनके लिए अरबों से बना चतुर्भुज मंदिर आज भी वीरान पड़ा है। यह मंदिर आज भी मूर्ति विहीन है।
इसे ईश्वर का चमत्कार मानते हुए महल को ही मंदिर का रूप दे दिया गया और इसका नाम रखा गया राम राजा मंदिर। विवाह पंचमी के दिन रीति-रिवाज अनुसार सम्पूर्ण वैभब के साथ उनका विवाह करने पश्चात ओरछा के तत्कालीन शासक मधुकरशाह ने, उनकी पत्नी द्वारा दिए गये वचन का पालन करते हुए उनका राजतिलक कर दिया था। बुंदेलखंड में ओरछा के तत्कालीन शासक मधुकरशाह को भगवान श्रीराम के पिता और महारानी गणेश कुंअर को मॉं का दर्जा प्राप्त है।
शास्त्रोक्ति के अनुसार ऐसी मान्यता है कि भगवान श्रीराम के पिता महाराज दशरथ का वचन घर्म निभाने के दौरान निधन हो गया था और उनका वहां राजतिलक नहीं हो सका था।
तब ओरछा के तत्कालीन शासक मधुकर शाह और महारानी गणेश कुंअर ने माता-पिता होने का धर्म निभाते हुए ओरछा में भगवान श्रीराम का राजतिलक कर पिता होने का दायित्व पूरा कर ओरछा नगरी को राजतिलक में भेट कर दी थी और राजा मधुकर शाह ने भगवान राम को ओरछा का राजा घोषित किया था और खुद को कार्यकारी नरेश के रूप में स्थापित किया था। तभी से उनके वंशज इस परम्परा को निभाते चले आ रहे हैं।
महाराज मधुकर शाह अपने पुत्र इंद्रजीत को बहुत प्यार करते थे। हालांकि उनका ज्यादातर समय ओरछा के बाहर अकबर की सेना से लड़ाइयों में बीत रहा था। लेकिन वे जब ओरछा में होते तो अपने बेटों को ओरछा नगर का इतिहास बताते थे।
महाराज ने एक दिन ओरछा की कहानी सुनते - सुनते बताया था कि “ओरछा नाम का अर्थ है ‘छिपा हुआ। ओरछा का पौराणिक नाम तुंगारण्य है, क्योंकि यह महर्शि तुंग की तपोभूमि है। यहाँ पर सारस्वत ऋषि ने अन्य ऋषियों को वेदाध्ययन कराया था। ओरछा जामनी और वेतवा नदियों के संगम से निर्मित एक छोटे दीप पर बसाया गया है।
बेतवा नदी, जिसे प्राचीन काल में वेत्रवती के नाम से जाना जाता था, मध्य और उत्तरी भारत में बहने वाली एक महत्वपूर्ण नदी है, जो यमुना नदी की सहायक है। बेतवा प्राचीन नदियों में से एक मानी गयी है।
बेतवा नदी घाटी की नागर सभ्यता लगभग पाँच हजार वर्ष पुरानी है। एक समय निश्चित ही बंगला की तरह इधर भी जरूर बेंत संस्कृत में वेत्र पैदा होता होगा, तभी तो नदी का नाम वेत्रवती पड़ा होगा।
पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार- ‘सिंह द्वीप नामक एक राजा ने देवराज इन्द्र से शत्रुता का बदला लेने के लिए कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर वरुण की स्त्री वेत्रवती मानुषी नदी का रूप धारण कर उसके पास आयी और बोली- मै वरुण की स्त्री वेत्रवती आपको प्राप्त करने आयी हूँ। उसने कहा स्वयं भोगार्थ अभिलिषित आयी हुई स्त्री को जो पुरुष स्वीकार नहीं करता, वह नरकगामी और घोर ब्रह्मपातकी होता है। इसलिए हे महाराज! कृपया मुझे स्वीकार कीजिये।’ राजा ने वेत्रवती की प्रार्थना स्वीकार कर ली तब वेत्रवती के पेट से यथा समय बारह सूर्यों के समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ जो वृत्रासुर नाम से जाना गया। जिसने देवराज इन्द्र को परास्त करके सिंह द्वीप राजा की मनोकामना पूर्ण की।
शत्रुघ्न के पुत्र शत्रुघाती ने विदिशा पर शासन किया था। जिसकी राजधानी कुशावती थी। मौर्य सम्राट अशोक ने विदिशा के महाश्रेष्ठि की पुत्री श्रीदेवी से विवाह किया था, जिससे उसे पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा प्राप्त हुए थे। अशोक ने साँची विदिशा, भरहुत सतना एवं कसरावद निमाड़ में स्तूप तथा रूपनाथ जबलपुर, वंसनगर, पवाया, एरण, रामगढ़ अम्बिकापुर में स्तम्भ स्थापित कराये थे।
साँची में विश्व प्रसिद्ध बौद्ध स्तूप है, जहाँ विश्वभर के बौद्ध भिक्षु और बौद्ध भक्त यहाँ आराधना, साधना और दर्शन लाभ के लिए आते हैं। साँची को काकणाय, काकणाद वोट, वोटश्री पर्वत भी कहा जाता है। मौर्य सम्राट अशोक की पत्नी श्रीदेवी विदिशा की निवासी थीं, जिनकी इच्छा के मुताबिक यहाँ सम्राट अशोक ने एक स्तूप विहार और एकाश्म स्तम्भ का निर्माण कराया था। साँची में बौद्ध धर्म के हीनयान और महायान के पुरावशेष भी हैं।
बेतवा यमुना की सखी है, बहन है। बेतवा की यह जन्मभूमि वस्तुतः श्रांत पथिक के लिए एक अद्भुत, आनन्ददायक सुखकर भूमि है। बेत्रवती के तीन रूप अपनी जीवन यात्रा में हैं। उसके मायके में यानी भोजपाल में उसके उद्गम स्थान पर चिरगाँव के निकट संयत जीवन बिताते हुए और ओरछा में अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में जब-जब लोग बेतवा को देखते है उसके विचित्र प्रभाव से वे प्रभावित हुए नहीं रहते हैं।”
बाणभट्ट ने कादम्बरी में विन्ध्याटवी का अद्भुत वर्णन किया है-
"मज्जन मालवविलासिनी कुचतट स्फालन
जर्ज्जरितोर्मि मालयाजवालव गाहनावतारित,
जय कुन्जर सिंदूर सन्ध्यामान सलिलया
उन्मद कलहंस कुल-कोलाहल मुखरित कूलया।"
‘विदिशा के चारों तरफ बहती बेत्रवती नदी में स्नान के समय विलासिनियों के कुचतट के स्फालन हिलने से उसकी तरंग श्रेणी चूर्ण-विचूर्ण हो जाती थी और रक्षकों द्वारा स्नानार्थ आनीत विजाता स्त्रियों के अग्रभाग में लिप्त सिंदूर के फैलने से सांध्य आकाश की भाँति उसका पानी लाल हो जाया करता था और उसका तट देश उन्मत कलहंस मण्डली के कोलाहल से सदा मुखरित रहता था।’
महाराज ने बताया कि तीन तरफ से बेतवा नदी से घिरे किले का रणनीतिक स्थान प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान करता है, जिससे यह राज्य के गढ़ के लिए एक आदर्श स्थल है।
बेतवा नदी पर बुन्देलवंशीय राजाओं ने यह महल बनवाया था। जो राजाओं के शौर्य, पराक्रम और वीरतापूर्ण गौरव गाथाओं का गुणगान कर रहा है। ओरछा महल के भीतर अनेक प्राचीन मन्दिर हैं जिनमें चतुर्भुज मंदिर, रामराजा मन्दिर और लक्ष्मीनारायण मन्दिर बुन्देला नरेशों की कलाप्रियता के प्रतिमान हैं।
बेतवा को पुराणों में ‘कलौ गंगा बेत्रवती भागीरथी’ कहा गया है।
‘बेत्रवती ने अपने चंचल प्रवाहों से सारे बुन्देलखण्ड को सिक्त कर रखा है।’ ओरछा सात मील के परकोटे पर बसा पौराणिक एवं ऐतिहासिक नगर है।”
इंद्रजीत का बचपन इन्हीं स्थानों पर खेलते कूदते बीता था। इसलिए एक - एक जगह उनके मानस पटल पर अंकित है।
इंद्रजीत के पिता ने एक दिन एक महत्वपूर्ण घटना के बारे में बताया कि “बुन्देलखण्ड तथा देश के अनेक राजा उनसे प्रेरित होकर माथे पर तिलक लगाते थे तथा वे उन्हें गुरुवत मानते थे। जब अकबर के दरबार की घोषणा होती तब अकबर के दरबार में जुहार करने के लिए मुग़ल सम्राज्य के अधीन सभी राजाओं व जागीरदारों को आना पड़ता था।
एक बार अकबर ने घोषणा की कि कोई भी हिन्दू राजा दरबार में तिलक लगा कर तथा माला पहन कर नहीं आयेगा। जो राजा राज्य आज्ञा का उलंघन करेगा उसका माथा गरम भाले से दाग दिया जायगा।
लेकिन जब अकबर ने दरबार में तिलक लगाकर आने पर पाबंदी लगा दी, मैं इस फरमान पर रात भर विचार करता रहा। रात को सो न सका, यकायक मेरे मानस पटल पर गीता में दिया कृष्ण का उपदेश याद आया -’जिस प्रकार अज्ञानी जन फल की आसक्ति से कार्य करते हैं, उसी तरह विद्वान जनों को चाहिए कि वे लोगों को उचित पथ पर ले जाने के लिए अनासक्त रहकर कार्य करें।’
मैंने निश्चय किया की चाहे जान भले चली जाय लेकिन मैं स्वधर्म से मुँह नहीं मोडूगा। विचार करते - करते सुबह हो गई और नित्य कर्म से निर्वृत हो कर मैं पूजा गृह में गया और पूजा के उपरान्त मैंने बहुत गाढ़ा तिलक लगाया और माला पहनी।
तब मैंने भरे दरबार में तिलक लगा कर तथा माला पहन कर बगावत कर दी।”
अकबर ने मुझे देख कर पूछा "आपने कल शाही फरमान नहीं सुना था क्या?"
मैंने कहा कि "हे सम्राट में कल दरबार में आया था व शाही फरमान भी सुना था, लेकिन में स्वधर्म से विमुख नहीं हो सकता।"
तब अकबर ने कहा "तुम अकेले ऐसे राजा हो जिसने ऐसी हिम्मत की है। इसलिए तिलक आज से तुम्हारे नाम से ही जाना जाएगा।"
उनके तेवर के चलते अकबर को अपना फरमान वापस लेना पड़ा। अकबर ने मेरे विरुद्ध अनेक बार लड़ाईयाँ लड़ी। अंत में जब अकबर के बुलाने पर मैं दरबार में नही पहुँचा तो सादिख खाँ को ओरछा पर चढ़ाई करने भेजा गया।”
इंद्राजीत ने क्षोभ तथा दुःख के साथ बताया कि युद्ध में मधुकरशाह हार गए। मधुकर शाह की मृत्यु के समाचार के साथ उसका सिर बादशाह को पेश किया गया। दरवारियों को लगा की अकबर खुश होगा। लेकिन अकबर उदास हो गया। उसने कहा ऐसा दुश्मन फिर कहाँ मिलेगा। ये खुदा! जन्नत का दरवाजा खुला रखना बुन्देलखण्ड का शेर आ रहा है।
मधुकरशाह के आठ पुत्र थे, इसलिए उन्होंने अपने राज्य को आठ जागीरों में बाट कर एक - एक जागीर उन्हें दी थी। मधुकर शाह की मृत्यु के पश्चात उनके उनमें सबसे ज्येष्ठ पुत्र रामशाह के द्वारा बादशाह से क्षमा याचना करने पर उन्हें ओरछा का शासक बनाया गया।
वीर सिंह जू देव प्रथम को बड़ौनी व इंद्रजीत सिंह को कछौआ की जागीरें प्राप्त हुई तथा राम शाह जू देव ओरछा की गद्दी पर बैठे, लेकिन राजकाज में रूचि न होने के कारण उन्होंने अपनी गद्दी इंद्रजीत सिंह को सौप दी थी।
दतिया,चंदेरी,अजयगढ़,पन्ना,चरखाई,बांदा,विजावर, जैसे सभी राज्य ओरछा राजवंश के फुटान से बने। धीरे - धीरे बुन्देलखण्ड राज्य छोटी -छोटी जागीरों में बट गया।
समय के साथ - साथ ओरछा राजवंश के राजकुमारों को जहां जो जागीरों दी गई थी वहां उन्होने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये थे। बुन्देलखण्ड, ओरछा का राज्य आठ बेटों में बट जाने से छोटी - छोटी जागीरें हो जाने के कारण अधिकांश राजाओं को सुरक्षा कारणों से मुगलों से सन्धि करना पड़ी।
इस समय आराजकता लूटपाट व गुर्रिल्ला लड़ाइयों का दौर पुरे बुन्देलखण्ड में चलता रहा। जिसका प्रभाव यहां से गुजरने वाले व्यापारिक मार्ग पर पड़ा। सुरक्षा न होने के कारण धीरे - धीरे यहां का व्यापारिक मार्ग का उपयोग काम हो गया।
जो शासक सुरक्षा देने के लिए थे वे ही लूटपाट करने वालों को प्रश्रय देने लगे।
इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर ना होने से पलायन बढ़ता गया। आर्थिक पिछड़ेपन का दृष्टि से भारत के मानचित्र में बुन्देलखण्ड का स्थान सबसे ऊपर है।
केशवदास इंद्रजीत के सखा, मित्र सलाहकार तथा विश्वासपात्र कवि बने। केशवदास इस काल के अन्यतम् कवि हैं। इनकी समस्त कविताओं का आधार संस्कृत के ग्रंथ हैं पर कवि प्रिया, रसिक प्रिया, रामचन्द्रिका, वीरसिंह बुंदेला चरित्र, विज्ञान गीता, रतन वादनी और जहाँगीर रसचन्द्रिका में कवि की व्यापक काव्य भाषा प्रयोगशीलता एवं बुन्देल भूमि की संस्कृति रीति रिवाज भाषागत प्रयोगों से केशव बुन्देली के ही प्रमुख कवि हैं।
रीति और भक्ति का समन्वित रूप केशव काव्य में आद्योपान्त है। रीतिवादी कवि ने कविप्रिया, रसिकप्रिया में रीति तत्व तथा विज्ञान गीता एवं रामचन्द्रिका में भक्ति तत्व को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में प्रस्तुत किया है।
आचार्य कवि केशवदास ने बुन्देली गारी लोकगीत को प्रमुखता से अपने काव्य में स्थान दिया और सवैया में इसी गारी'गीता को परिष्कृत रूप में रखा है। रामचन्द्रिका के सारे सम्वाद सवैयों में है ऐसी सम्बाद योजना दुर्लभ है। एक तरफ संस्कृति की रक्षा के लिए लोकसंस्कृति बहुत प्रभावशाली बनी थी, तो दूसरी तरफ विदेशी संस्कृति के तत्त्व धीरे-धीरे जगह बना रहे थे। दोनों पक्षों को समाहित करने वाली भक्तिभरक भावना प्रधान बनकर एक समन्वयवादी संस्कृति की संरचना कर रही थी। इसी समन्वय को लेकर महाकवि तुलसी तले थे, लेकिन उन्होंने बुंदेलखंड की लोकप्रवृत्ति कभी नहीं त्यागी, वरन् उसी के कारण धरती से जुड़े । बुंदेलखंडी ज्यौंनार काफी प्रसिद्ध हो चुकी थी। महाराज इन्द्रजीत स्वयं "धीरज नरेन्द्र" उपनाम से कविता करते थे।
बुन्देलखण्ड में उर्दू की मान्यता राजा महाराजों के पत्रों में प्राप्त है, सिरनामें तथा विवरण में मालगुजारी, आवोहवा, खादिम, खिदमत आदि शब्द बहुलता के साथ प्राप्त हैं। महाराज छत्रसाल के जमाने में संत प्राणनाथ के साहित्य में फारसी, अरबी शब्दों की अधिकता दृष्टिगत होती है।
खड़ी बोली के गद्य साहित्य का विकास इसी समय प्रारम्भ हो गया।
अपने परिवार की एक और घटना इंद्रजीत को हमेशा प्रेरणा देती रही है। इंद्रजीत के चाचा हरदौल मरणोपरान्त अपनी बहन कुन्जावती की पुत्री के विवाह में बारातियों से मिले थे और भात भी खाया था।
इसी स्मृति स्वरूप बुन्देलखण्ड में विवाह के अवसरों पर हरदौल को खिचड़ी चढ़ाने की प्रथा भी बरकरार है। हरदौल यहाँ जन-जन के देवता माने जाते हैं। जिनकी मढ़ियाँ गाँव-गाँव में हैं। विवाहोपरान्त इन मढ़ियों में दूल्हा-दूल्हन के हाथे लगते हैं और लोग मन्नतें मानते हैं।
ओरछा के रामराजा मंदिर परिसर में हरदौल विषपान स्थल है। जिसे बुन्देलखण्डवासी श्रद्धा और भक्तिपूर्वक अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। यहीं पर हरदौल बैठका, पालकी महल, सावन-भादों स्तम्भ, कटोरा, फूलबाग चौक आदि भी दर्शनीय हैं।
ओरछा किला परिसर राजपूत और मुगल स्थापत्य शैली का एक सामंजस्यपूर्ण मिश्रण है। जो जटिल शिल्प कौशल और भव्य डिजाइनों को प्रदर्शित करता है। किले में कई महल, मंदिर और अन्य संरचनाएं हैं। जिनमें से प्रत्येक का अपना अनूठा आकर्षण और ऐतिहासिक महत्व है।
किले के भीतर सबसे पुराना महल, राजा महल, राजा रुद्र प्रताप सिंह द्वारा बनाया गया था। इसकी बाहरी दीवारें धार्मिक विषयों और दैनिक जीवन के दृश्यों को दर्शाती जीवंत भित्तिचित्रों से सजी हैं, जबकि अंदरूनी हिस्से में सुंदर नक्काशीदार खिड़कियां, बालकनी और छतें हैं।
बुंदेलखंड की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर आधारित है। लेकिन भूमि की बंजरता, कम उत्पादकता, अनुचित भूमि वितरण जिसमें कुछ मध्यम और बड़े किसानों के पास भूमि जोत का बड़ा हिस्सा है, सिंचाई सुविधाओं की कमी और कृषि में आधुनिक तरीकों का उपयोग न करने के मामले में अवैज्ञानिक खेती ने कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को केवल निर्वाह के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया।
पुनिया का ओरछा आना
अगले दिन इंद्रजीत से मिलने लौहार गॉव के मुखिया के साथ ओरछा के किले पर आये। राजा ने लोहार से पूछा "तुम्हारी बिटिया की कितनी उम्र है?"
"महाराज इतना तो ज्ञान नईयां, पर इत्तो पतों है कि जोन साल सूखा पारो तो उई साल चैत में भईती।" लोहार ने डरते डरते बताया।
महाराज के मंत्री ने हिसाब लगाकर बताया की ग्यारह साल हो गए है।
महाराज ने फिर पूछा "बिटियां को गाना किसने सिखाया"
" कोउने नई महाराज, ऐ सेई घर में सुन - सुन कर सीख गई।" अब लोहार थोड़ा डर गया था।
लेकिन महाराज ने कहा "तुम उसे ओरछा भेज दो, हम खर्चा पानी देंगे, रहने व पड़ने तथा गाना सीखने का खर्च उठायगे। तुम्हें परिवार सहित ओरछा में रहने की सुविधा होगी तथा तुम राज्य के शस्त्रागार में हथियार बनाने का काम करना। "
"जैसी आज्ञा महराज" लोहार के मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे। उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। वह सर नीचे किये खड़ा था।
तो गॉव के मुखिया ने बात सम्हालते हुए कहा "महराज मोड़ी तो आपकी आय पर यदि मोड़ी की मताई व मोड़ी से पूछने की आज्ञा हो तो दो तीन दिन की मोहलत मिल जाये।"
महाराज को इस बात में कोई बुराई नजर नहीं आई। तब दोनों गॉव लोट गए। बेतवा नदी के किनारे किनारे वे दोनों महाराज की बातों का अर्थ अपने - अपने मन में सोचते - सोचते जा रहे थे। बेतवा के दूर किनारे पर छतरियों के पार सूरज डूब रहा था।
ग्वालियर में तोमर वंश का प्रभाव कम होने पर कलाकार, साहित्यकार, गायक, नर्तक, कवि. शिल्पकार तथा विभिन्न बिषयों के विद्वान ग्वालियर छोड़ कर ओरछा आ गये थे।
बुंदेला राजा अपना नाम इतिहास में दर्ज कराने को लालायित थे। इस कारण इन सब को ओरछा में राज्याश्रय आसानी से मिल रहा था। धन धान्य की कमी न थी। लक्ष्मी माँ की कृपा थी। महाराजा ने बेतवा के किनारे एक बहुत सुन्दर फूलबाग बनवाया था। इसी में पढ़ने पढ़ाने की व्यवस्था होती थी।
पुनिया एक दिन अपने बाप के साथ आ कर इसी पाठशाला में दाखिल हो गई। इस पाठशाला में संगीत सिखाने के लिए ग्वालियर से गायक आये थे, बैजनाथ जो बैजू बावरा के नाम से ख्यात थे। चित्रकारी सीखने के लिए नाथद्वारा के कलाकार थे तो कत्थक नृत्य सीखने के लिए वृन्दावन की रास मण्डली के संस्थापक गोस्वामी जी स्वयं आ कर ओरछा रहने लगे थे।
इस पाठशाला के प्रधानाचार्य स्वयं कवि केशव दास थे। स्त्री शिक्षा का अनुपम उदाहरण है यह काल और यह स्थान जहाँ नगर की बेटियाँ जो हर कला में दक्ष हो रही थीं।
ये अलग बात है कि अपनी इन कलाओं का प्रदर्शन उन्होंने सार्वजनिक रूप से कभी नहीं किया। राजघरानों में भी राजकुमारियों को नृत्य की शिक्षा दी जाती थी, लेकिन ये भी स्वांतः सुखाय ही होती थी।
महाराज ने केशव दास से कह कर सभी विधाओं में पुनिया की शिक्षा की व्यवस्था की थी। ओरछा के महल में अनेक त्यौहार साल भर मनायें जाते थे। इन में फूलबाग की पाठशाला के विद्यार्थी बढ़ चढ़ कर भाग लेते थे।
यहां गनगौर नामक एक त्यौहार है जो चैत्र शुक्ल तीज को होता है। जिसे सुहागन स्त्रियां ही मनाती हैं। जिसमें वह पार्वती की पूजा करतीं हैं। यह सौभाग्य को देने वाला त्यौहार है। चैत्र मास की पूर्णिमा को ही चैती पूनै नामक एक पर्व मनाया जाता है।
यहां पर कार्य सिद्धि के लिए मनाया जाने वाला प्रमुख त्यौहार असमाई है। जो वैशाख की दूज को मनाया जाता है। यहां पर अकती या अक्षय तृतीया पर्व का अपना एक बड़ा महत्व है। कहा जाता है कि इसी दिन से सतयुग प्रारंभ हुआ था और प्रसिद्ध तीर्थ बद्रीनाथ के कपाट भी इसी दिन खुलते हैं। यह त्यौहार वैशाख शुक्ल तीज को मनाया जाता है।
बरा बरसात या बट सावित्री ब्रत में वट वृक्ष की पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि इस व्रत को करने से पुत्र और पति की आयु बढ़ती है तथा स्त्रियां अखंड सौभाग्यवती होती हैं।
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गृह बधुओं का पूजन किया जाता है। जिस त्यौहार हो कुनघुसूँ पूनै कहां जाता है। यह मुख्यतः नारियों के सम्मान में किया जाता है। हरी जोत त्यौहार सावन मास की अमावस्या को मनाया जाता है जो कुनघुसूँ पूनै के समान ही है। इसमें बेटियों की पूजा की जाती है।
राखी का त्यौहार श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन के रूप में मनाया जाता है। यह भाई बहनों के लिए बहुत ही पवित्र त्यौहार है। हरछठ का त्यौहार भादो मास के कृष्ण पक्ष को मनाया जाता है। कहा जाता है कि इस दिन श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म हुआ था। कन्हैया आठें त्यौहार जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है। कहा जाता है कि इसी दिन भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ था।
बुंदेलखंड में सौभाग्यवती स्त्रियां तीजा त्यौहार मानतीं हैं जिसे घर-घर मनाया जाता है। इसमें रात्रि जागरण का भी विधान है। जाने अनजाने में हुए पाप की क्षमा याचना के लिए भादो की शुक्ल पक्ष की पंचमी को रिसि पांचे त्यौहार मनाया जाता है।
बुंदेलखंड में मनाए जाने वाले अन्य त्योहारों में महालक्ष्मी नौरता, दसरओ, शरद पूने जिसे शरद पूर्णिमा भी कहा जाता है। इस दिन से ही बुंदेलखंड में कार्तिक स्नान शुरू हो जाता है।
पुराणों के अनुसार इस रात्रि में चंद्रमा से अमृत की वर्षा होती है। जिससे व्यक्ति के जीवन में हर्ष और उल्लास की प्राप्ति होती है। धनतेरस कार्तिक मास की कृष्ण त्रयोदशी को मनाया जाता है। इसमें देवताओं के वैद्य भगवान धनवंतरी की पूजा की जाती है। इसे नरक चतुर्दशी के नाम से भी जानते हैं।
कार्तिक मास में ही बुंदेलखंड के सबसे बड़े त्यौहारों में माना जाने वाला प्रमुख त्यौहार दिवारी है। जिसे दीपावली के नाम से भी जानते हैं। कवि केशव दास के निर्देश पर कवित्त गायन होता, नृत्य होते तथा नाटक खेले जाते।
पुनिया अपने गुरुओं के निर्देशन में इन सब में भाग लेती तथा सबसे प्रशंसा पाने पर खुश होती। इन गतिविधियों से उसके गुणों का निखार खूब हुआ।
पुनिया खूब मन लगा कर हर कुछ सीखती थी। महाराज समय - समय पर आ कर पुनिया का गाना सुनते। उसकी पढ़ाई, लिखाई, नृत्य, गायन की परीक्षा लेते। महाराज की कृपापात्र होने के कारण सभी गुरुजन उस पर विशेष ध्यान देते थे।
बुंदेलखंड के प्रमुख लोक नृत्य राई नृत्य, सेरा नृत्य, नृत्य, कछियाई नृत्य, मोनिया नृत्य प्रमुख हैं। यहां के लोकप्रिय नृत्य कबीर पंथी नृत्य, जुगिया नृत्य, जबारा नृत्य, रावला नृत्य, ढोला मारु नृत्य, दिलदिल घोड़ी नृत्य, सपेरा नृत्य हैं। इन सब नृत्यों को पुनिया को सिखाने की व्यवस्था की गई और महाराज पुनिया के नृत्य व गायन के बहुत बड़े प्रशंसक थे।
कवि केशव अपने ग्रंथ कविप्रिया में, जो उन्होंने राय प्रवीण के लिए ही लिखा था, उनका उल्लेख कुछ इस प्रकार करते हैं-
“राय प्रवीण की शारदा, शुचि रुचि राजत अंग।
वीणा पुस्तक भारती, राजहंस युत संग।।
वृषभ वाहिनी अंग युत, वासुकि लसत प्रवीन।
सिव संग सोहे सर्वदा, सिवा की राय प्रवीन।।”
अब तक पुनिया भी मन ही मन महाराज को चाहने लगी थी। जब तक पुनिया छोटी थी तो लोग महाराज की प्रशंसा करते की एक गरीब बालिका पर महराज की विशेष कृपा है। लेकिन उम्र के साथ - साथ पाठशाला में अन्य बच्चों तथा विशेषकर राजकुमारियों से स्पर्धा जीतने के कारण महाराज का पुनिया के प्रति आकर्षण चर्चा का विषय हो गया था।
लेकिन अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ था जिस पर लोग ऊँगली उठा सके तो बात बड़ी नहीं थी। महाराज भी बात का बतंगड़ नहीं बनाना चाहते थे। इसलिए वे ऐसे अवसर की तलाश में थे जहां वे प्रणय निवेदन कर पुनिया के मन को जान सके। क्योंकि पुनिया की ओर से भी कोई अनुचित चेष्टा नहीं की गई थी। उन दोनों के बीच उम्र का अंतर तो था ही। उनकी सामाजिक स्थितियां भी बहुत आसमान थी।
पुनिया कभी - कभी सोचती की महाराज की इतनी कृपा क्या काम है? वह बहुत आज्ञाकारी थी। गुरुजन विशेष कर केशव दास की वह सबसे प्रिय शिष्या थी। वे बहुत लगन से उसे भाषा की बारीकियां सिखाते थे। व्याकरण व शब्द उच्चारण पर बहुत ध्यान देते थे। तभी एक दिन राज्य के मंत्री ने महाराज से कछौआ महोत्सव की बात जी जो हर साल वसंत ऋतु में पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है।
तब मन ही मन महाराज ने निश्चित किया की कछौआ महोत्सव में वह पुनिया का गायन रखेंगे। सही समय जान कर महाराज ने कछौआ में बहुत बड़ा गायन का आयोजन करने का निश्चय किया।
कछौआ महोत्सव महाराज ने जब शुरू किया था जब उन्हें वह जागीर मिली थी। तब से इस समारोह का आकार बहुत विशाल हो गया है। क्योंकि अब वह ओरछा के भी राजा थे। जब से पूरे देश से प्रसिद्ध गायक इस समारोह में आमन्त्रित किया जाते थे। आस पास के राजे रजवाड़े भी बड़ी संख्या में आमन्त्रित होते थे।
उन दिनों यह ओरछा राज्य का प्रमुख कार्यक्रम होता था। इसकी तैयारियां कई महीने पहले से होती थी। इस बारे में महाराज ने केशव दास से चर्चा कर पुनिया की विशेष तैयारी शुरू करवाई। केशव ने एक बार अपनी शिष्या की परीक्षा ली और पूछा " कनक छारी सी कामनी, कहे को कटी छीन। "
पुनिया ने जबाब दिया "कटि को कंचन काट के कुचन मध्य धर दीन।"
केशव ने पुनः पूछा “जो कुच कंचन के बने, मुख कारो किहि कीन । "
पुनिया ने जबाब दिया " जीवन ज्वर के जोर में, मदन -मुहर कर दीन। "
इस तरह केशव जब तब उसकी परीक्षा लेते रहते थे।
वह उसकी प्रतिभा के दीवाने थे।
कछौआ संगीत समारोह
जबसे मानव सभ्यता के इतिहास ने आँखें खोली हैं तभी से संगीत का अस्तित्व है। मानव की सहज स्फूर्त कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति के अनेक रूपांकन प्रगट हुए जिनमें संगीत एक प्रमुख नाम है।
ऐतिहासिक विकास क्रम की टेढ़ी-मेढ़ी राहों पर चलता "देशी संगीत" कब "मार्गी" बना यह निश्चित करना कठिन है। विश्व के प्राचीनतम तथा हमारी सांस्कृतिक अस्मिता के श्रेष्ठतम प्रतीक वेद ग्रंथों की ऋचाओं का उद्गाता- सामगान के सुमधुर प्रवाह से समस्त चराचर को आप्लावित करता आ रहा है, जिसकी आभा से समस्त विश्व आलोकित हुआ है, नतशिर हुआ है।
बुन्देखण्ड की पहचान हमेशा यहाँ के संगीत से होती रही है। बुन्देलखण्ड राज्य की स्थापना से ही संगीत समारोहों का आयोजन किया जाता रहा है। इस समारोह का न कोई कार्ड छपता है, न न्योता, फिर भी हज़ारों की संख्या में लोग आते है. जानते हैं क्यों ? क्योंकि यह समारोह शास्त्रीय संगीत के अभिजात्य को तोड़ उसे आम आदमी तक पहुंचाता है ।
समारोह में जमा भीड़ और उसकी एकाग्रता साबित करती है कि शास्त्रीय संगीत सिर्फ पढ़े लिखे संभ्रांत लोगों की चीज नहीं है । इस चोटी के संगीत समारोह में किसी भी धर्म, जाति, पंथ का आदमी बिना टिकट, पास या निमंत्रण के शामिल हो सकता है।
गायन, वादन और नृत्य तीनों का समन्वित रूप ही संगीत है। शुरुआत में इस समारोह में सिर्फ स्थानीय कलाकार ही होते थे। पर बाद में इसे देशव्यापी आकार दिया।
देश का कोई कलाकार नहीं होगा जो कभी न कभी यहां न आया हो। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में स्थापित किया कि स्वर मानव शरीर से उत्पन्न हुआ, और फिर गायन तथा घनवाद्यों में संचारित हुआ। भरत मुनि इस चर्चा में दो ऋषियों के नाम लेते हैं। एक नारद और दूसरे स्वाति। स्वाति गजब के प्रयोगधर्मी ऋषि थे। कमल के पत्तों पर बारिश की बूंदे गिरने से जो स्वर पैदा होता था।
उसे देख स्वाति को एक वाद्ययंत्र बनाने का विचार आया। इंजीनियर विश्वकर्मा बुलाए गए। उन्होंने कमलपत्तों पर बजती वर्षा की ध्वनि को आधार बना कर मृदंग, पुष्कर और दंदुभी वाद्यों का आविष्कार किया । यह देवों का वाद्य था।
भरत ने स्वरों के दो अधिष्ठान तय किए, एक मानव शरीर दूसरी वीणा। भरत मुनि ने कंठ स्वरों और वीणा स्वरों में समानता बताई है । जब वाद्य बने तो ये सीधे मंदिर में आए । आराध्य को संगीत से सम्बद्ध किया गया। मृदंग और वीणा दक्षिण के वैष्णव संगीत के साथ हो लिए, और शैव मंदिरों के हिस्से आए नगाड़े, डमरू जैसे मढ़े हुए वाद्य यंत्र। धीरे-धीरे यह वाद्य मंगल पर्वों, राज्योत्सव और युद्धों के मौकों पर प्रयोग होने लगे।
मंदिरो से होकर ध्रुपद दरबारों तक आया। संगीतकारों की रचनात्मक प्रतिभा नए शिखर छू रही थी। पंद्रहवीं सदी में ग्वालियर नरेश मानसिंह तोमर के राज्य काल में भारतीय संगीत की धारा बदल गई । दरबारी संगीत एक नए स्वरुप में उभरा था। बैजू ने ब्रज भाषा के आधार पर ध्रुपद की एक ऐसी शैली का निर्माण किया जो मध्य भारत से गुजरात तक फैल गई ।
बैजू ने बख्शू को संगीत सिखाया और बख्शू ने तानसेन को। बख्शू ग्वालियर दरबार में थे। इन तीन संगीत विशारदों ने मंदिरों के ध्रुपद को नया कलेवर दे दिया था ।
भारतीय शास्त्रीय संगीत का सबसे पुराना घराना 'ग्वालियर घराना' है, जो अपने संगीत के लिए देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर है। यह घराना ख़याल गायकी का सबसे मशहूर घराना है। इस घराने ने संगीत की दुनिया को कई अनमोल रत्नों से सजाया है। ग्वालियर शहर को संगीत की नगरी के नाम से जाना जाता है, जहाँ संगीत के सात सुर हवाओं में घुले-मिले हैं। इस शहर की सुबह और शाम राग-रागिनियों की गूंज से गूंजती है। इस शहर की इमारतें संगीत की विरासत के अलाप गाती हैं और शहर के निवासी अपने पूर्वजों की परंपराओं की मधुर धुन सुनाते हैं।
ग्वालियर को ध्रुपद की जन्मभूमि और ख्याल की परिष्कार भूमि माना जाता है। ग्वालियर में भारतीय संगीत की जो प्राचीन और समृद्ध परंपरा है, उस पर पूरा देश गर्व कर सकता है।
इस परंपरा का इतिहास प्रसिद्ध संगीत जोड़ी मानसिंह-मृगनयनी से शुरू होता है, जिनकी संगीतशाला में ध्रुपद गायन को परिष्कृत और संरक्षित किया गया था। मानसिंह तोमर की संगीतशाला में ही तानसेन जैसी महान संगीत प्रतिभा विकसित हुई, जिसने ग्वालियर, रीवा और दिल्ली तक अपनी प्रतिभा की खुशबू फैलाई और आज संगीत के क्षेत्र में उन्होंने जो काम किया है, वह अविस्मरणीय है।
राजा मानसिंह द्वारा निर्मित मान-मंदिर आज भी भारतीय स्थापत्य कला का अनूठा उदाहरण माना जाता है। इसी तरह उन्होंने मनकूतोहल नामक संगीत ग्रंथ की भी रचना की। मानसिंह और मृगनयनी ने एक संगीत विद्यालय भी स्थापित किया, जो संभवतः संगीत के नियोजित और सामूहिक अभ्यास का सबसे पुराना उदाहरण है।
इन्द्रजीत पुनिया का शृंगार देख कर हतप्रभ थे। कहाँ गरीब गांव के लोहार की बेटी और कहाँ आज की साकछात अप्सरा। पुनिया ने आज लहँगा चोली के ऊपर चंदेरी की ओढ़नी ओढ़ती।
कानों में कर्णफूल, नाक में पुंगरिया, माथे पर बेदी, गले में हसली, काठला, गुलुबंद, बिचौली, तिदना, हाथों में बाजूबंद, चूड़ियां, उँगलियों में अगुठियां, पावों में पैंजना, झाँजर, कमर में करधौनी पहनतीं। राजकुमारियों जैसा सोलह श्रृंगार किया। गाने की रसधार के साथ आज मादक यौवन की छटा ऐसी बिखेरी की इंद्रजीत को सुध ना रही।
पुनिया को मंच पर पहली बार प्रस्तुत किया जा रहा था अतः पाठशाला के प्रधानाचार्य के नाते केशव तथा उनके सभी गुरु जन भी उसकी प्रस्तुति की तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ सकते थे।
समय आने पर पुनिया का नाम पुकारा गया। वह परदे के पीछे से मंच पर आई। मानो मंच पर इंद्र की सभा से कोई परी उतरी हो। उसका रुप देख कर तालियों की गड़गड़ाहट से मैदान बहुत देर तक गूँजता रहा। ऐसा लगा मानो यह मंच तथा कार्यक्रम केवल पुनिया के लिए ही आयोजित किया गया हो।
आज पुनिया ने ऐसी रास धार बहाई की बड़े - बड़े संगीतकार इस की प्रतिभा देख कर चमत्कृत हो उठे। इंद्रजीत ने उसे देखते ही उनके मुँह से एक दोहा निकल पड़ा
"वह हेरन, अरु वह हसन, वह माधुरी मुस्कान।
वह खेचन मरसानकी, हिये में खटकत आन। "
गायन की समाप्ति पर महाराज ने भगवान को चढ़ाने वाली माला पुनिया के गले में डाल दी तथा मिठाई का दोना उसके आँचल में रख दिया।
पुनिया ने हाथ जोड़ व सिर नवा कर महाराज को प्रणाम किया। महाराज ने भरी सभा में घोषणा की, “कि पुनिया का आज से नाम प्रवीन होगा तथा राज्य की ओर से राय की पदवी दी जाती है। इसलिए आज से इन्हें राय प्रवीन के नाम से पुकारा जाए।”
"राय प्रवीण" का अर्थ है "कुशल राय" या "प्रतिभाशाली राय।"
वह अपूर्व सुंदरी लग रही थी। चाँदनी सा उजला रंग, घने काले लम्बे केश, अत्यंत सुन्दर नेत्र, मोहक हंसी और राज हंसनि जैसी पद पदगति। रूप अप्सरा सा और कंठ में सरस्वती, कवित्त रचना में प्रवीण, गायन और नर्तन में स्नात राय प्रवीन ओरछा का गौरव थी।
मन ही मन ग्रामीण भोली बाला ने इस हार को ही वरमाला मान लिया और खुद को इंद्रजीत की पत्नी। समारोह समापन की ओर था। रात्रि में खान पान चला। महाराज बहुत व्यस्त थे। सभी गायकों को यथोचित सम्मान व दक्षिणा दे कर पहुँचा दिया गया। पुनिया ओरछा से अपने गांव आ गई।
पुनिया का हट
महाराजा इंद्राजीत रसिक राजा थे। वे राय प्रवीन को ओरछा में राज नर्तकी बना कर रखना चाहते थे। पुनिया के इस संकल्प से इंद्रजीत सिंह अनभिज्ञ थे। वे अपनी पत्नी रावरानी से बहुत प्रेम करते थे। पुनिया उम्र में छोटी थी और वे उसके गायन पर मंत्रमुग्ध थे, उन्होंने उस वक्त तक स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी कि वे पुनिया के प्रेम में पड़ेंगे।
पुनिया के इस संकल्प का पता उसके पिता को तब चला, जब उन्होंने पुनिया के ब्याह की बात उठायी। दृढ़ संकल्प वाली पुनिया ने तब कहीं भी विवाह करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। अब इस बात का खुलासा सबके सामने हो गया था।
बात इंद्रजीत सिंह तक भी पहुँची। अत्यंत रूपवती पुनिया के गायन पर मोहित इंद्रजीत सिंह ने पहले तो पुनिया को समझाने की कोशिश की, लेकिन कोशिशें बेअसर होती देख उन्होंने भी यथास्थिति को स्वीकार किया।
लेकिन राय प्रवीन इस के लिये तैयार ना थी। राजा ने कई बार राय प्रवीन को सदेशा भिजवाया पर वह नहीं आती।
महाराज ने तब राय प्रवीन के गुरु केशव दास को उसके पास भेजा। केशव भी चाहते थे की उनकी यह काबिल शिष्या ओरछा राज दरबार में रहे। उसे अपनी प्रतिभा दिखने का अवसर केवल राज्याश्रय के कारण ही मिल सकता है।
वह गुरु केशव की बातों से सहमत तो थी पर एक बार महाराज से मिलना चाहती थी। वह पूरे समय अपने संगीत की साधना करती और कवित्त लिखती थी, पुनिया अपने घर में गांव में रही।
राय प्रवीण के माँ बाप ने उसकी शादी करवाने की बहुत कोशिश की। लेकिन वह तैयार न थी। वह महराज को अपना पति मान बैठी थी। यह बात चारों तरफ आग की तरह फ़ैल गई। सब इसी बात की चर्चा करते। इस बात के लिए पुनिया की खूब जग हसाई हो रही थी।
लेकिन राय प्रवीन बहुत माननी नारी थी। उसका मानना था कि हिंदू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे कि किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता।
अग्नि के सात फेरे ले कर और ध्रुव तारा को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संम्बंध से अधिक आत्मिक संम्बंध होता है और इस संम्बंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।
हिंदू महिलाएं विभिन्न रीति-रिवाजों का पालन करती हैं। अधिकतर सिंदूर, मंगलसूत्र और चूड़ी को विवाहित महिला की निशानी माना जाता है।
'मंगलसूत्र', एक हार जिसे दूल्हा दुल्हन के गले में बांधता है, विवाहित जोड़े को बुरी नजर से बचाने के लिए माना जाता है और पति के जीवन की लंबी उम्र का प्रतीक है, अगर मंगलसूत्र खो जाता है या टूट जाता है तो यह अशुभ होता है। महिलाएं इसे हर दिन अपने पति के प्रति अपने कर्तव्य की याद के रूप में पहनती हैं।
यह बात जब केशव दास को पता लगी तो बात महराज को बताई गई। वे प्रवीन को खोना भी नहीं चाहते थे।
इंद्रजीत का द्वन्द
महाराज भी प्रवीन को बहुत प्रेम करने लगे थे। वह उसके सौंदर्य जाल में उलझ गए थे। वह उसे बहुत चाहने लगे थे। लेकिन एक तो उनकी उम्र प्रवीन से अधिक थी दूसरे वे अपनी पत्नी रावरानी से बहुत प्यार करते थे। इस कारण निर्णय नहीं कर पा रहे थे।
इंद्रजीत कुशल प्रशासक, दानी, धर्मात्मा, साहित्य कला मर्मज्ञ थे। संगीत प्रेम ने उनके दरवार को इंद्र सभा की भांति बना दिया था।
इंद्रजीत का दरवार तो परियों का अखाड़ा था। कामनी व कंचन का मेल संगीत, कविता लेखन, गायन व नृत्य से इतना धनिष्ट हो गया था की उसे अलग करना संभव नहीं था। ओरछा के दरवार की ख्याती चारों ओर फैल जाने से तरह -तरह के कलाकारों का जमाबाबड़ा लगा ही रहता था, हमेशा उत्सव जैसा माहौल रहता। महाराज इंद्रजीत के रंग महल में छः नर्तकियां थी इन के नाम राय प्रवीन, नवरंग राय, विचित्र नैना, तरंग, रंग राय और रंग मूर्ति थे।
लेकिन राय प्रवीन का व्यक्तित्व इन सबसे निराला था। क्योकि वह गोरी, मृगनयनी, तन भंगी, कोमलांगी, संगीत, नृत्य कला में मर्मय तथा कवित्त रचना में प्रवीण थी। महाराज की सभा में राय प्रवीन दीप शिखा जैसी जगमगाती थी। उसके रूप में उर्वशी, कंठ में सरस्वती, वीणा वादन में अलौकिक रस था। श्रोता मन्त्र मुग्ध रह जाते। अपने गुणों के कारण उसने महाराज के अंतर्मन पर विजय प्राप्त कर ली थी। वे उसके प्रेम में आबध्य हो गए। राय प्रवीण भी महाराज को देवता के सामान पूजने लगी।
आचार्य केशव दास ने उनकी समानता कृष्ण व सत्यभामा से करते हुए लिखा -
सत्या राय प्रवीनचुत, सुरतरु सुरतरु गेह।
इंद्रजीत तासो बंधे, केशव दास सनेह। "
महाराज राय प्रवीन की मादकता में अनुरक्त हो गए। राय परवीन हर क्षण महाराज की यादों में खोई रहती और महाराज अंतरंग क्षणों में राय प्रवीन के सानिध्य में विश्रांति का अनुभव करते थे।
उन्हें उसकी मोहक छवि, मधुर कंठ रस शिक्त कविता, भाव पूर्ण नर्तन, स्वरों की मादक सरिता आकंठ निमग्न कर जाती। केशव दास ने अपनी रचना कविप्रिया राय प्रवीन की प्रेरणा से लिखी थी। उन्हीने लिखा था -
"सविता जू कविता दई. तकहाँ परम प्रकास।
ताके कारज कविप्रिया, कीन्हि केशव दास।"
इंद्रजीत को अपने परिवार की कहानियां याद आ रही थी। अपने भाई भारती चंद के उत्तराधिकारी बनने के बाद मधुकर शाह लगातार उत्तरी शासकों से लड़ रहे थे। फिर भी, वे ओरछा के एक योग्य शासक थे और जब मुगल सम्राट अकबर ने उनके दृढ़ धार्मिक विश्वासों के बारे में सुना तो उन्होंने तुरंत उन्हें परखने का फैसला किया। उन्होंने माला और माथे पर तिलक लगाना गैरकानूनी घोषित कर दिया।
मधुकर ने हार नहीं मानी और मुगल दरबार में आने के दौरान उन्होंने दोनों मालाएं पहनीं। मधुकर शाह ने सोचा की यदि वह अकबर के फरमान का पालन करेगा तो इतिहास उसके बारे में क्या लिखेगा क्योकि मानव श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण यानी जो-जो काम करते हैं, दूसरे मनुष्य आम इंसान भी वैसा ही आचरण, वैसा ही काम करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं। गीता में कृष्ण यही कहते है -
"यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥"
सम्राट उनके साहस और धर्मनिष्ठा से काफी प्रभावित हुए। मधुकर शाह अपने लोगों के नायक बन गए और उस दिन से उनका तिलक बुंदेलों की विशिष्ट परंपरा बन गई।
मधुकर शाह ने अकबर की दूसरी बार अवहेलना की जब उन्होंने आदेश दिए जाने पर शेर का वध नहीं किया, क्योंकि उनका मानना था कि यह नरसिंह का प्रतीक है, जो विष्णु का अवतार है। अकबर का एकमात्र पुत्र शहजादा सलीम जो अनारकली से बेइंतहा मोहब्बत करता था।
अकबर को जब यह बात पता चली तो वह इसके खिलाफ थे। अकबर ने सलीम को समझाना चाहा, लेकिन वह नहीं माना। इस पर एक दिन दोनों आमने-सामने हो गए और दोनों में युद्ध होने लगा।
युद्ध में पुत्र सलीम को अकबर से जान बचाकर भागना पड़ा। सलीम जान बचाने के लिए कई राजाओं के पास गया, लेकिन अकबर के प्रभाव के कारण सभी ने उसे शरण देने से मना कर दिया। आखिर में वह ओरछा राजा मधुकर बुंदेला के पास गया। मधुकर बुंदेला ने उसे शरण दे दी।
सलीम उनके पुत्र वीर सिंह बुंदेला के साथ रहने लगा। इसकी जानकारी लगने पर अकबर ने अपनी सेना को ओरछा राज्य पर हमले का आदेश दिया। सेना ने ओरछा के बाहर डेरा डाल दिया।
हमले की भनक लगने पर ओरछा राजा मधुकर बुंदेला ने रात को एक अनोखी युक्ति से काम किया। रात में जिस समय सैनिक आराम कर रहे थे, उस समय ओरछा राजा ने अपने राज्य की सभी भैंस और भैंसा के सींगों पर मशाल लगाकर सैनिकों के बीच में दौड़ा दिया। जहां सैनिकों का शस्त्र भंडार था, उसमें विस्फोट करा दिया। इससे अकबर की सेना के अनगिनत सैनिक मारे गए।
युद्ध में हुई अप्रत्याशित हार के बाद अकबर ने राजा मधुकर बुंदेला के पास शांति प्रस्ताव भेजा। साथ ही सलीम को वापस करने की मांग की। ओरछा राजा ने शर्त रखी कि वह सलीम को एक ही शर्त पर वापस करेगा। वह शर्त थी कि अकबर उसे फांसी नहीं देगा। इस शर्त पर ओरछा राजा मधुकर बुंदेला ने सलीम को पिता अकबर को वापस कर दिया।
इस अवज्ञा से अकबर क्रोधित हो गया और कई मौकों पर उसने ओरछा पर कब्ज़ा करने की कोशिश की। एक युद्ध में मधुकरशाह हार गए उनकी मृत्यु के बाद उनके सबसे बड़े पुत्र रामशाह के द्वारा बादशाह से क्षमा याचना करने पर उन्हें ओरछा का शासक बनाया गया।
उन्हें राज काज में रूचि ना होने से अपने भाई इंद्रजीत को ओरछा की गद्दी दे दी थी।
इन्द्रजीत का भाई वीरसिंह देव सदैव मुसलमानों का विरोध किया करता था। उस समय मधुकर शाह के छोटे बेटे वीर सिंह देव की ख्याति अपने शौर्य और वीरता के लिए चारों तरफ थी। वीर सिंह को दतिया में बरौनी की जागीर मिली, जो उन्हें अपनी योग्यता के मुताबिक नहीं लगी। इसीलिए वीर सिंह ने भाई रामचंद के खिलाफ बगावत कर दी। यह वही समय था जब मुगलिया सल्तनत में शहंशाह अकबर और उनके बेटे जहांगीर के बीच दूरियां बढ़ रही थीं।
जहांगीर ने बाद में अपने संस्मरण में इसकी वजह अकबर के बेहद करीबी और नवरत्नों में एक अबुल फजल को बताया। अबुल फजल जाने-माने विद्वान और अकबर के खास सलाहकार थे। जहांगीर और अकबर के बीच एक समय दूरी इतनी बढ़ गई कि जहांगीर ने बगावत कर दी और इलाहाबाद में अलग दरबार बना लिया।
इसी बीच में जहांगीर की मुलाकात वीर सिंह बुंदेला से हुई। इससे पहले रामचंद कई बार मुगल सेना की मदद लेकर वीर सिंह पर हमला कर चुके थे, लेकिन नाकाम रहे थे।
अबुल फजल को जहांगीर अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। उन्हें लगने लगा था कि अबुल फजल के रहते वह शायद कभी अपने पिता के पास लौट नहीं पाएंगे। जहांगीर को खबर मिली कि एक दौरे पर गए अबुल फजल दक्षिण से आगरा की तरफ लौटने वाले हैं और उनका काफिला बुंदेलखंड से होकर गुजरेगा। जहांगीर ने दोस्त वीर सिंह से मदद मांगी।
दक्षिण से लौटते हुए अबुल फजल के काफिले पर ग्वालियर के पास वीर सिंह और उनके साथियों ने हमला बोल दिया। अबुल फजल की मौत हो गई। यह खबर सुन अकबर क्रोधित हो उठे। उन्होंने वीर सिंह को पकड़ने के लिए सेना रवाना कर दी। लेकिन, जहांगीर ने अपने दोस्त को सचेत कर दिया था।
हालांकि वीर सिंह के लश्कर को अकबर की सेना ने हरा दिया, फिर भी वीर सिंह पकड़ में नहीं आए। उन्होंने पहले एरच के किले में शरण ली, लेकिन जब उसे भी घेर लिया गया तो वह दतिया पहुंच गए। वहां उनका इंतजार खुद जहांगीर कर रहे थे।
इंद्रजीत यही सोच - सोच कर परेशान हो रहा है की यदि उसने अपनी उम्र तथा जाति में छोटी पुनिया से विवाह कर लिया तो वह किस तरह अपने खानदान की मर्यादा की रक्षा कर सकेगा।
गन्धर्व विवाह
जब महाराज अपने अन्तर्द्वन्द में उलझें थे तो एक दिन उन्होंने अपने मित्र, विश्वास पात्र केशव की राय मांगी। महाराज के मित्र कवि केशव ने सनातन परंपरा के हवाले से कहा हिन्दू परम्परा में, ब्रह्म विवाह को सबसे उत्तम और आदर्श माना जाता है, जिसमें वर-वधू की सहमति से, वैदिक रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह संपन्न होता है। ब्रह्म विवाह: यह विवाह का सबसे उत्तम रूप माना जाता है, जिसमें वर-वधू की सहमति से, वैदिक रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह संपन्न होता है। दैव विवाह: यह विवाह पुरोहितों या धार्मिक कार्यों के लिए किया जाता है, जिसमें वर को कन्या के पिता द्वारा कुछ दक्षिणा या उपहार देकर संपन्न होता है। आर्ष विवाह: यह विवाह ऋषियों या संतों के साथ किया जाता है, जिसमें वर को कन्या के पिता को गाय या बैल देकर दिया जाता है।
प्रजापत्य विवाह: यह विवाह कन्या के पिता द्वारा वर को गृहस्थ धर्म का पालन करने का आदेश देकर किया जाता है।
असुर विवाह: यह विवाह कन्या को धन देकर खरीदकर किया जाता है, जो कि आजकल दहेज प्रथा के रूप में जाना जाता है।
गंधर्व विवाह: यह विवाह प्रेम विवाह के रूप में जाना जाता है, जिसमें वर-वधू एक दूसरे से प्रेम करके विवाह करते हैं।
राक्षस विवाह: यह विवाह कन्या को बलपूर्वक या जबरदस्ती करके किया जाता है। पैशाच विवाह: यह विवाह कन्या को धोखे से या नशे में रखकर किया जाता है, जो कि सबसे निम्न कोटि का विवाह माना जाता है। केशव ने कहा आजकल, ब्रह्म विवाह और गंधर्व विवाह प्रेम विवाह अधिक प्रचलित हैं, जबकि अन्य प्रकार के विवाह कम ही होते हैं।
केशव ने महाराज की दुभिधा व राय प्रवीन का मान रखने की दृष्टि से, गंधर्व विवाह का सुझाब दिया। गंधर्व विवाह, जिसे प्रेम विवाह का प्राचीन रूप भी माना जाता है, एक ऐसा विवाह है जो आपसी प्रेम और सहमति पर आधारित होता है, जिसमें परिवार या समाज की सहमति ज़रूरी नहीं होती ।
महाराज का मन शंकाओं से भर गया। उन्होंने पूछा “की क्या कुछ पुराने उदाहरण इस विवाह के है?”
तो कवि ने भारतीय परिप्रेक्ष्य में “शकुंतला-दुश्यंत, पुरुरवा-उर्वशी, वासवदत्ता-उदयन के गंधर्व-विवाह के प्रख्यात उदाहरण गिनाए।”
महाराज ने प्रवीन को सहमत करने का काम केशव दास को सौपा। पहले प्रवीन इस तरह के विवाह के विरुद्ध थी। लेकिन कवि राज ने महाराजा की विवश्ता तथा राज पद की मर्यादा का हवाला दे कर अपने तर्कों से पुनिया को मानाने में कामयाब हो गए।
तब त्रियाहट से हार कर महराज को पुनिया से गन्दर्भ विवाह करना पड़ा। पुनिया की माँ को दुःख था कि उसकी बेटी के विवाह में सगाई, मातृ पूजन, निकासी, चीकट, सुहागली खिलाना, तेल बान, कंकन बंधाई, कन्या दान, फेरे, सिंदूर और मंगलसूत्र तथा गृह प्रवेश आदि की परम्परायें उस तरह नहीं निभाई गई जैसी बुन्देलखण्ड के विवाह में, वे करती आई थी।
महाराज बड़े धूम धाम से उसे आनंद भवन में रहने के लिए ले आये। इस अवसर पर बुंदेलखंडी मशहूर मिठाई जलेबी, मालपुआ और कलाकंद ‘रसखीर’ जो दूध और बाजरा के साथ महुआ के फूलों के अर्क से बनती है तथा पूरी के लड्डू, करौंदे का पकवान अनवरिया, थोपा बफौरी, महेरी एक ज्वार आदि पकवान बनवाए गये।
महाराज ने राय प्रवीन को बुंदेलखंड में महिलाओं की पारंपरिक पोशाक में लहंगा, चोली और ओढ़नी लाल और काले जैसे रंगों में भेंट की। समारोह में बुंदेलखंड के लोक नृत्यों में ‘राई’ का आयोजन किया गया। राई मतलब होता है सरसों के दाने । जिस तरीके से तश्तरी में रखे सरसों के दाने घूमते हैं। उसी तरह बुंदेली नर्तक भी नगाड़ा, ढोलक, झीका और रमतूला के पारंपरिक वाद्ययंत्रों की थाप पर नाचते हैं। इस में राज्य के कई नामी कलाकारों ने भाग लिया।
इस में बेड़नी जाति की महिलाएं राई नृत्य करने आई जिन्होंने नृत्य करने के लिए सोलह कली का रंग बिरंगा घांघरा और चोली पहनी। नृत्य करने वाली महिलाओं का चेहरा दिखता रहे इसके लिए दो लोग मशाल लिए नर्तकी के दोनों ओर थे । नृत्य के साथ मृदंग, ढोलक, मजीरा, टिमकी व बीच - बीच रमतूला भी बजाया जा रहा था ।
दिन भर की थकान के बाद महाराज का मन राय प्रवीन के सानिध्य में उमंग व उत्साह से भर उठता था।महाराज क लिए प्रवीन ओरछा का जगमगाता रत्न थी तो राय प्रवीन के लिए महाराज साक्षात शिव शंकर थे। दोनों एक दूसरे के पूरक थे। कवि राय प्रवीन ने लिखा -
'वृषभ बाहनी अंग उर, वासुकी लसत प्रवीन।
शिव संग सोहे सदा शिवा की राय प्रवीन।"
उसके रचित छन्द महाराज को भाव विभोर कर जाते थे। वह महाराज की उपासना पति रूप में करती थी। उसकी एक - एक साँस महाराज को समर्पित थी और वह थी पतिव्रता का साकार रूप।
"महाराज ने राय प्रवीन के बारे में एक छंद लिखा -
“शोभा सुभ सानी परमार्थ निधानी दीहा कलुष कृपाणी मणि सब जग जानी है ।
पूरव के पूरे पुण्य सुनी जय परवीन राय तेरी वाणी मेरी रानी, गंगा कैसो पानी है।"
यह एक अजीब विडबना है की पुरुष अपने प्यार को छिपाना चाहता है, जबकि महिला उसे सब को बताना चाहती है और अपने सबन्ध को एक सामाजिक स्वीकृति दिलबाना चाहती है।
प्यार करने के लिए पुरुष को मौका चाहिए और औरत को कारण।राय प्रवीन की कविताओं में संयोग शृंगार के बहुतेरे चित्र मिलते थे और उन गीतों की नायिका राय प्रवीन तथा नायक राजा इंद्रजीत थे। भले ही वह गायिका और इंद्रजित राजा थे लेकिन दोनों के बीच प्रेम की डोर बहुत मजबूत थी।
उत्कट शृंगार की कविताओं के साथ ही राय प्रवीन ने कुछ विवाह गीत और गारियां भी लिखी थीं। दरबारी गायिकाएँ राजा परिवार के विभिन्न समारोहों में भी गायन करती थीं और राय प्रवीन ने उन अवसरों के लिए इन गीतों का सृजन किया।
आनंद भवन
उन्होंने उसके लिए एक महल बनवाना शुरू किया। महल में तीन मंजिलें हैं। दूसरी मंजिल पर एक केंद्रीय हॉल है जिसमें प्रवीण राय के विभिन्न चित्र और चित्रण हैं। महल से जुड़ा एक बगीचा भी है जो दो भागों में विभाजित है। महल में एक बड़ी हवेली है, और उसके साथ, बड़ी खिड़कियों वाले छोटे कक्ष हैं। अच्छी रोशनी और हवा का संचार होता है। महल के अर्ध-भूमिगत ग्रीष्मकालीन कमरे को निष्क्रिय शीतलन का उपयोग करके बाहरी तापमान से अधिक नीचे हवा को ठंडा करने के लिए है। राय प्रवीन महल अद्भुत वास्तुकला का एक आदर्श गढ़ है जो प्रकृति की सुंदरता से घिरा हुआ है। राय प्रवीण महल के एक किनारे से बेतवा नदी का अद्भुत दृश्य भी देखने को मिलता है।
जिसे महाराज ने आनंद भवन या राय प्रवीन महल नाम दिया। उसमें भित्ती चित्रों के माध्यम से गायन,नर्तन की सुन्दर छवियां बनाई है। ये चित्र राय प्रवीन की कला मुद्राओं का विवरण है तथा विभिन्न प्रणय मुद्राएं उनकी प्रणय गाथा का चित्रण है। दूसरी मंजिल को भारतीय नृत्य की मुद्राओं से सजाया गया है। महल के अन्दर कई भित्ति चित्र है। जो यह दर्शाते है राय प्रवीन कैसी दिखती थी।
महल में राजा और नृत्य करती राय प्रवीन के बने चित्र इस प्रेम कहानी को जीवंत बनाए हुए हैं। महल में प्यार की गाथा लिखी गई है। इसमें बने चित्र में राय प्रवीन फूल लेकर राजकुमार की ओर चलती हुई प्रतीत होती हैं। कुछ ही दूरी पर घोड़े पर सवार राजकुमार भी अपनी प्रेमिका की तरफ बढ़ता दिखता है।
यहाँ के द्वारों, छीजिरियों तथा हर दीवाल में नृत्य व संगीत गूँज रहा है। नूपुरों की झंकार सुनाई देती है। यह महल राय प्रवीन की कला को समर्पित महाराज की ओर से एक तोफा था।
राय प्रवीन को फूलों से बहुत प्यार था इसलिए महल के बाहर बहुत सुन्दर बगीचा बनवाया। जिसके पुष्प लता गुल्म, लताओं की वल्लरियाँ सब कुछ अनुपम है। गुणकारी महाराज ने राय प्रवीन को सब सुख सुविधाएं ओरछा में उपलब्ध करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह भवन जैसे राय प्रवीन का न हो, देव लोक का अंश हो। कवि केशव दास ने इस भवन की तुलना देवलोक से की थी।
राय प्रवीन के कहने पर महाराज ने अपनी आँखे बंद कर ली । आँखे बंद किये हुये कुछ पल भी नही बीते कि पूरा प्रांगण संगीत की सुमधुर स्वर लहरियों से गूंज उठा । ढोल, तबला, सारंगी की मधुर स्वर मन को मस्त कर रहे थे । महाराज भी मदहोश होकर उस मधुरिम स्वर में खो गये।
फिर उसकी अमृतमयी सरगम ने उन्हें आँखे खोलने पर मजबूर कर दिया। जैसे ही उन्होंने आँखे खोली तो देखते ही रह गये। सामने राय प्रवीन महल के प्रांगण में बने चबूतरे पर मनमोहक फर्श बिछा हुआ है। सम्पूर्ण प्रांगण को धवल चांदनी से ढक दिया है। चांदनी के अंदर विभिन्न रंगो के झाड़ फानूस जगह जगह चांदनी की छत से झूल रहे है।
चांदनी में लटके रंगीन झाड़ फानूसों से रंगीन प्रकाश सम्पूर्ण पंडाल और मंच को इंद्रधनुषी रंग में प्रकाशित कर रहे थे। कार्तिक अमावस्या की घनघोर अँधेरी रात में पूरा ओरछा दीप मालाओं से सजा हुआ है। मानो चांदनी धरती पर उतर आई हो ।
दूर से दुर्ग और महलों के परकोटे, बुर्ज पर लाखों दीपक ऐसे टिमटिमा रहे है, जैसे किसी उपवन में जुगनुओं की फ़ौज बैठी हो। दीपावली की इस रात्रि में ओरछा नरेश राजा इंद्रजीत सिंह रामराजा और लक्ष्मी पूजन के पश्चात् राज महल से सीधे अपनी प्रेयसी राय प्रवीन के महल की ओर आने की सूचना द्वारपाल ने दी। सूचना मिलते ही रायप्रवीन महल में हलचल बढ़ गयी।
तभी आकाश में आतिशबाजी होने लगी, अभी तक घने अँधेरे में गुमसुम सा बैठा आसमान किसी नवबधु की भांति खिल उठा। आकाशीय आतिशबाजी के प्रतिबिम्ब बेतवा के जल पर रोशनियों की लहरें बना रहे थे।
दुंदुभी की आवाज़ से राय प्रवीन महल में महाराज जू का स्वागत हुआ। द्वार पर राय प्रवीन की खास सखी और दासी महुआ ने महाराज जू को कुमकुम और हल्दी-चावल माथे पर लगाकर स्वागत किया। महाराज जू अपने विशिष्ट आसन पर विराजे। वादक गणों को छोड़ कर अन्य सभी लोग वहां से हट गए। सुरक्षा प्रहरी महल के चारो तरफ फ़ैल गए। पूरा माहौल सुगन्धित इत्र से महक रहा था ।
छन - छन - छन की आवाज़ ने वातावरण में मधुरता घोली। महल के अंदर से महाराज जू की ह्रदय सम्राज्ञी रूप सुंदरी राय प्रवीन का आगमन हुआ। आज दीपावली के विशेष श्रृंगार ने राय प्रवीन के सौंदर्य को चार चाँद लगा दिए।
राय प्रवीन के कमर की स्वर्ण करधनी एवं पैरों का नुपुर रुन-झुन की सुमधुर ध्वनि पैदा कर रहे थे। स्वर्ण तारों और सितारों के साथ मोतियों से टँकी चन्देरी सिल्क की रानी रंग का लहंगा, चुनरी एवं चोली में वह स्वर्ग की अप्सरा लग रही थी।
राय प्रवीन के नाक में नगीनों जड़ा नकमोती एवं नथिया, कानों में हीरे-मोतियों की जड़ाऊ झुमकी, हाथों की कलाइयों में रत्न जड़ित कंगन राय प्रवीन के अनुपम यौवन को अत्यधिक मादक बना रहे थे। पैरों में गाढ़ा महावर, हाथों में गाढ़ी मेहंदी उसके अनिंध यौवन को आकर्षक एवं दैवीय रूप प्रदान कर रही थी ।
उसके ललाट पर लटक रहे हीरा-मोती जड़ा मांग टीका जिससे जल रहे दीपों का प्रकाश इंद्रधनुषी प्रकाश उत्पन्न कर रहा था। राय प्रवीन उद्दाम यौवन का मद बिखेरते हुए सधे कदमों से चल रही थी।
उसके गदराये बदन के सुगंध से सम्पूर्ण वातावरण सुगन्धित हो उठा था। उसकी गजगामिनी चाल लोचदार कटिबन्ध उसे कामदेव की रति का रूप प्रदान कर रही थी। उसका गौरांग शरीर अमावस्या की अँधेरी रात्रि में चमक रहा था। राय प्रवीन के नितम्ब पर झूलते लंबे बालों की बेणी काली नागिन का आभास दे रही थी।
राय प्रवीन ने घूँघट में रहते हुए श्रीरामराजा, भगवान जुगल किशोर, भगवान चतुर्भुज और बुंदेला वंश की कुलदेवी मन विंध्यवासिनी के मंदिर की दिशा में उन्मुख होकर सिर झुकाकर करबद्ध प्रणाम किया।
घूमकर अपने पूज्य गुरुदेव हिंदी साहित्य के प्रथम आचर्य केशवदास को प्रणाम करने के पश्चात् अपने प्रिय महाराजा इंद्रजीत जू को करबद्ध प्रणाम किया। महाराजा जू उसके सम्मोहक सौंदर्य के मायाजाल में उलझकर एकटक देख रहे थे। राय प्रवीन ने अपना मनमोहक नृत्य से न केवल महाराज जू को प्रसन्न किया, बल्कि उपस्थित चराचर जीव भी मुग्ध हो गए ।
रावरानी का षड़यंत्र
राजघरानों से जुड़ी दिलचस्प किंवदंतियाँ हमेशा रोमांस और भव्यता से भरी होती हैं। राज घराने की सभी औरतें पटरानी व उनके परिवार के लोग भी कछौआ संगीत समारोह में थे। रावरानी ने पुनिया के बारे में सुना जरूर था की, किसी लोहार की लड़की फूलबाग की पाठशाला में संगीत सीखती है। कभी - कभी महराज उसका संगीत सुनाने जाते है। तब रावरानी ने इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था। लेकिन उन्होंने पुनिया को आज पहलीबार मंच पर जब देखा तब पुनिया का रूप देख और गाना सुन कर उनके मन में एक शंका घर कर गई।
कहते है कि कभी - कभी अपने गुण और शोहरत खुद के लिए मुसीबत बन जाते है। महाराज का गन्धर्व विवाह पूर्णतयः गोपनीय था इस कारण इस की खबर राज भवन के रनिवास तक नहीं पहुंची। लेकिन कहते है कि "खैर, ख़ून, खाँसी, खुशी, मद , प्रीत, मदपान। ये छुपाये से न छुपे जानत सकल जहांन। "
राय प्रवीण, जिसपर न केवल सरस्वती की कृपा थी अपितु उसे रूप एवं सौन्दर्य भी विधाता ने खुले हाथों से प्रदान किया था।ओरछा के महाराजा इंद्रजीत की प्रेमिका थीं। राय प्रवीन ने महाकवि केशव का शिष्यत्व ग्रहण कर स्वयं को काव्य सृजन में समर्पित कर दिया था।
रूप था ही, कविता थी। और उस पर ओरछा के रामराजा मंदिर में राम भजन गाती तो पूरा शहर स्थिर हो जाता। पूरे ओरछा में राय प्रवीन के सौन्दर्य और कंठ की प्रशंसा फैलती चली गयी। उसके बाद उसने कुशल संगीतज्ञ हरिराम व्यास के चरणों में बैठकर संगीत और उसकी गहराइयों को समझा एवं उनके निर्देशन में दक्षता प्राप्त की।
धीरे धीरे रंग महल के कलाकारों से बीच राय प्रवीन को ले कर ईर्ष्या बढ़ती जा रही थी। लेकिन महाराज तथा केशव दास के कारण सब के मुँह सिले थे। लेकिन करते है की दीवारों के भी कान होते है। लोग आपका दुःख तो देख सकते है, लेकिन सुख बर्दाश्त करना उनकी सीमा से बाहर होता है।
राय प्रवीन की ख्याति से जलने वालों की कमी न थी। महाराज ने उसे राज नतर्की पद से नवाजा। वह एक सुंदर कवि और संगीतकार थी, जिससे "ओरछा की कोकिला" के रूप में भी जाना जाने लगा।
तब रावरानी के लोगों को लगा की इस बात से रावरानी को अवगत होना चाहिए। बात पटरानी तक पहुँच गई। पटरानी का सम्बन्ध ग्वालियर से था। उसके परिवार के कुछ लोग सम्राट अकबर के दरबार में नियुक्त थे। पटरानी ने उनके माध्यम से राय प्रवीन के रूप सौंदर्य, नृत्य कौशल, गायकी तथा कवित्त रचने के बातें बड़ा चढ़ा कर अकबर तक पहुंचाई।
उसके रूप गुणों की ख्याति अकबर तक रावरानी ने अपने एक बहुत विश्वस्त दूत से भिजबाई। उसे इस मुसीबत से छुटकारे का यहीं सरल उपाय लगा कि सम्राट की बात महाराजा टाल नहीं सकता और यदि राय प्रवीण सम्राट के दरबार में चली जायगी तो सांप भी मर जायगा और लाठी भी न टूटेगी।
लेकिन रावरानी को अपने किये के परिणामों की कल्पना भी नहीं थी। न उन्हें महाराज की चिंता थी न राय प्रवीन की। वह तो प्रतिशोध की ज्वाला में जल रही थी।
उन्हें चिंता थी तो अपने पद की, अपनी सन्तान के भविष्य की। उन्हेंने इस समय एक क्षण यह नहीं सोचा की यदि महाराज ने प्रवीन को भेजने से मना कर दिया तो सम्राट क्या करेगा? क्या वह ओरछा पर आक्रमण कर देगा? क्या महराज की अवस्था अब युद्ध करने की है? क्या ओरछा मुग़ल साम्राज्य की सेना का सामना कर सकता है? बुन्देल राजा की इज्जत का क्या होगा आदि।
महरानी ना तो इतनी कूटनीति जानती थी ना राजनीति। उनका पूरा समय महलों में ऐशो आराम में बीता था। बचपन में पिता के संरक्षण में और बाद में पति के। उन्हें पढ़ाई लिखाई में कोई रूचि नहीं रहीं। ना उन्हें किसी कला में कोई रूचि थी। वे केवल बच्चे पालने में माहिर थी। अब तीर कमान से निकल चुका था और निशाने पर लगा था।
राजा ने अपनी प्रेयसी की सम्मान रक्षा के लिए उसे बादशाह के दरबार में भेजने से इंकार कर दिया, तो बादशाह ने उसे पकड़ मंगबाने का आदेश दिया और राजा पर एक करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का जुर्माना भी ठोंक दिया। अकबर के आदेश से महाराज के आत्मा सम्मान को बहुत ठेस पहुंची। किसी भी कीमत पर राय प्रवीन को मुग़ल दरबार में नहीं भेजना चाहते थे।
लेकिन ओरछा की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया था। महाराज अपने महल में परेशान धूम रहे थे। नींद आँखों से कोसों दूर थी। केशव दास उनके महल में समस्या का समनंजनक हल खोजने में लगे थे।
प्रवीन अपने महल में परेशान थी। उसे पुरानी बातें याद आ रही थी।
जब ओरछा में महराज मधुकरशाह का शासन था, तो अपने एक पुत्र इंद्रजीत को महाराज जू ने कछौआ, वर्तमान शिवपुरी जिले में, का जागीरदार बना दिया। वही माधव नाम का एक लुहार हथियार बनाता था। उसी की पुत्री पूनिया, उसके सौंदर्य पर इंद्रजीत सिंह रीझ गए ।
जब महाराज मधुकरशाह की मृत्यु हुई तो इंद्रजीत ओरछा राजगद्दी के उत्तराधिकारी बने, फिर उन्होंने माधव लुहार को भी ओरछा ही बुला लिया। तभी एक दुर्घटना में माधव की मृत्यु हो गयी। महाराज ने माधव की विधवा सत्या और पुत्री पुनिया की विशेष व्यवस्था की।
पुनिया को ओरछा राज्य के कुलगुरु और हिंदी साहित्य के प्रथम आचार्य कवि पंडित केशवदास के संरक्षण में शिक्षा-दीक्षा मिली।
पुनिया के अनुपम सौंदर्य के कारण दरबार के कई लोग की निगाहे पुनिया पर रही , अतः आचार्य केशवदास ने पुनिया को नृत्य, संगीत और काव्य के साथ ही शस्त्र चलाना भी सिखाया । पुनिया की हर विद्या में प्रवीणता को देखकर महाराज जू ने उसे रायप्रवीन की उपाधि दी।
राय प्रवीन के मोहपाश में बंधे महाराज इंद्रजीत सिंह ने आखिरकार अपनी प्रेयसी से गंदर्भ विवाह करना स्वीकार कर किया और ओरछा के राजमहल के निकट ही राय प्रवीन महल बनाकर उपहार दिया ।
महाराज जू के राय प्रवीन के प्रेमपाश में जकड़े रहने के कारण राजकाज की व्यवस्थाएं शिथिल हो गयी । ओरछा की महारानी जू के लिए ये सौतन मुसीबत बन गयी। अतः राय प्रवीन को ओरछा से अलग करने के लिए षड्यंत्र रचे गए।
उसी के अंतर्गत तत्कालीन मुग़ल बादशाह अकबर को राय प्रवीन के सौंदर्य का बखान कर पत्र लिखे गए और गुप्त सन्देश वाहक भेजे गए । अंततः रानी की चालें कामयाब रही।
अकबर ने ओरछा के महाराज इंद्रजीत को फरमान भेजा कि राय प्रवीन को जल्द से जल्द आगरा दरबार में हाजिर किया जाये । महाराज जू बड़े धर्मसंकट में फंस गए ।
वह अपने - आप को कोस रही कि उस के कारण राजा तथा राज्य पर इतना संकट आ गया। उसने सुबह महाराजा को बुला भेजा। वह मन ही मन निश्चय कर चुकी थी की वह राजा, राज्य और अपने आत्मसम्मान की रक्षा करेगी।
केशव दास का मानना थी कि राय प्रवीन की मुक्ति का केवल एक उपाय था उसकी वाक शक्ति। क्योंकि जो काम शब्द से हो सकता है वह शास्त्र से नहीं हो सकता। आचार्य ने उसे उसकी शक्ति का स्मरण करवा कर उसे आत्मविश्वास से भर दिया था।
महाराज की चिंताओं की ख़बर राय प्रवीण तक भी पहुँची, उसे कृष्ण केअर्जुन से कहे शब्द याद आये -’हे कौन्तेय , और निश्चय करके युद्ध करो…’ “हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥”
यदि तुम युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि विजयी होते हो तो धरती का सुख पा जाओगे... इसलिए उठो, हे कौन्तेय, और निश्चय करके युद्ध करो।
तब उसने एक कवित्त के जरिए इंद्रजीत सिंह को अपनी बात समझायी-
“आई हों बूझन मंत्र तुमें, निज सासन सों सिगरी मति गोई,
प्रानतजों कि तजों कुलकानि, हिये न लजो, लजि हैं सब कोई।
स्वारथ और परमारथ कौ पथ, चित्त, विचारि कहौ अब कोई।
जामें रहै प्रभु की प्रभुता अरु-मोर पतिव्रत भंग न होई।”
केशव का परामर्श सुन उसने महाराज से अपना निर्णय सुनाया।
महराज के कहा “ऐ कैसा हट है प्रवीन।”
वह बोली “हट नहीं महाराज कर्तव्य। आपकी चरण राज लेने आई हूँ अन्नदाता ओरछा का सूर्य ऐसी भांति जगमगाता रहे। यदि प्राण रहे तो फिर भेट होगी। दासी को आशीर्वाद दे, अन्नदाता महाराज की जय, भूतल के इंद्रा की जय,” बुंदेलखंड मतलब महिलाओं के शौर्य, वीरता, त्याग और बलिदान की धरती। उसने गीता के श्लोक की बरबस याद हो आई -
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥"
‘कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फलों में कभी नहीं। इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो’ कर्तव्य-कर्म करने में ही तेरा अधिकार है फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।
आगरा का सफर बहुत लंबा तथा जोखिम भरा था। महाराज ने अपने सबसे अच्छे बैल हीरा और मोती की जोड़ी शाही बैलगाड़ी ले जाने के लिए तैयार करवाई। बैलों को खूब सजाया गया। बैलगाड़ी के ऊपर बहुत सुन्दर छाँव के लिए कपड़ा बांधा गया। महाराजा के गाड़ीवान हीरामन को गाड़ी हांकने की जबाबदारी महाराज ने दी।
एक सैनिक टुकड़ी साथ चली। आने जाने के सफर में खाने पीने दल को ठहरने की रास्तों में व्यवस्था की गई। खर्च के लिए पर्याप्त धन दिया गया। अकबर को देने के लिये उपहार दिये गये।
राय प्रवीन के परिवार के सदस्य उसकी हिम्मत बढ़ाने के लिए साथ गये। केशव दास ने मुग़ल दरबार में अपने मित्रों को सहायता के लिए अग्रिम दूत भेज कर सूचना भेजी। सभी व्यवस्थाऐं यथोचित होने पर महाराज ने जाने की आज्ञा दी।
लेकिन वे आंनद भवन के बाहर राय प्रवीन को छोड़ने नहीं आये। राय प्रवीन महाराज का दुःख समझ रही थी। केशव दास ने महाराज को आश्वासन दिया था की वह राय प्रवीन को सुरक्षित लौटा लायेगे।
राय प्रवीन ने भी महाराज को खूब अकेले में रात भर समझाया था। लेकिन महाराज की डूबी आखें, सूखे ओठ, रुंधा गला व कांपते हाथ देख कर राय प्रवीन बहुत चिन्तित हो उठी थी। लेकिन उसे तो यात्रा पर जाना ही था तो वह चल दी।
उस के अविभावक व केशव दास को लेकर जब काफिला चला तो बैल गाड़ियों की लाइन बहुत लम्बी हो गई। सर्पाकार मार्गों पर काफला निर्बाध गति से आगे बड़ा।
जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर
तैमूरी वंशावली के मुगल वंश के तीसरा शासक थे। अकबर का जन्म पूर्णिमा के दिन हुआ था इसलिए उनका नाम बदरुद्दीन मोहम्मद अकबर रखा गया था। बद्र का अर्थ होता है पूर्ण चंद्रमा और अकबर उनके नाना शेख अली अकबर जामी के नाम से लिया गया था। अकबर का जन्म राजपूत शासक राणा अमरसाल के महल उमेरकोट, सिंध वर्तमान पाकिस्तान में हुआ था। यहां बादशाह हुमायुं अपनी हाल की विवाहिता बेगम हमीदा बानो बेगम के साथ शरण लिये हुए थे। इस पुत्र का नाम हुमायुं ने एक बार स्वप्न में सुनाई दिये के अनुसार जलालुद्दीन मोहम्मद रखा।
अकबर को अकबर-ऐ-आज़म अर्थात अकबर महान, शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाने जाते हैं। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो के पुत्र थे।
बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था अर्थात् उनके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। अकबर के शासन में मुगल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकाश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था।
हुमायूँ को पश्तून नेता शेरशाह सूरी के कारण फारस में अज्ञातवास बिताना पड़ रहा था। किन्तु अकबर को वह अपने संग नहीं ले गया वरन रीवां वर्तमान मध्य प्रदेश के राज्य के एक ग्राम मुकुंदपुर में छोड़ दिया था। अकबर की वहां के राजकुमार राम सिंह प्रथम से, जो आगे चलकर रीवां का राजा बना, के संग गहरी मित्रता हो गयी थी। ये एक साथ ही पले और बढ़े और आजीवन मित्र रहे।
कालांतर में अकबर सफ़ावी साम्राज्य वर्तमान अफ़गानिस्तान का भाग में अपने एक चाचा मिर्ज़ा अस्कारी के यहां रहने लगा। पहले वह कुछ दिनों कंधार में और फिर काबुल में रहा। हुमायूँ की अपने छोटे भाइयों से बराबर ठनी ही रही इसलिये चाचा लोगों के यहाँ अकबर की स्थिति बंदी से कुछ ही अच्छी थी।
यद्यपि सभी उसके साथ अच्छा व्यवहार करते थे और शायद दुलार प्यार कुछ ज़्यादा ही होता था। किंतु अकबर पढ़ लिख नहीं सका वह केवल सैन्य शिक्षा ले सका। उसका काफी समय आखेट, दौड़ व द्वंद्व, कुश्ती आदि में बीता, तथा शिक्षा में उसकी रुचि नहीं रही।
जब तक अकबर आठ वर्ष का हुआ, जन्म से लेकर अब तक उसके सभी वर्ष भारी अस्थिरता में निकले थे जिसके कारण उसकी शिक्षा-दीक्षा का सही प्रबंध नहीं हो पाया था। अब हुमायूं का ध्यान इस ओर भी गया। उसने अकबर की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए काबुल में एक आयोजन किया। किंतु ऐन मौके पर अकबर के खो जाने पर वह समारोह दूसरे दिन सम्पन्न हुआ।
मुल्ला जादा मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया। मगर मुल्ला असमुद्दीन अक्षम सिद्ध हुए।
तब यह कार्य पहले मौलाना बामजीद को सौंपा गया, मगर जब उन्हें भी सफलता नहीं मिली तो मौलाना अब्दुल कादिर को यह काम सौंपा गया। मगर कोई भी शिक्षक अकबर को शिक्षित करने में सफल न हुआ। असल में, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाजी, घुड़सवारी और कुत्ते पालने में अधिक थी।
किन्तु ज्ञानोपार्जन में उसकी रुचि सदा से ही थी। कहा जाता है, कि जब वह सोने जाता था, एक व्यक्ति उसे कुछ पढ़ कर सुनाता रह्ता था। समय के साथ अकबर एक परिपक्व और समझदार शासक के रूप में उभरा, जिसे कला, स्थापत्य, संगीत और साहित्य में गहरी रुचि रहीं।
शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह के उत्तराधिकार के विवादों से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठा कर हुमायूँ ने दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। इसमें उसकी सेना में एक अच्छा भाग फारसी सहयोगी ताहमस्प प्रथम का रहा।
इसके कुछ माह बाद ही हुमायूँ का आकस्मिक निधन अपने पुस्तकालय की सीढ़ी से भारी नशे की हालात में गिरने के कारण हो गया। तब अकबर के संरक्षक बैरम खां ने साम्राज्य के हित में इस मृत्यु को कुछ समय के लिये छुपाये रखा और अकबर को उत्तराधिकार हेतु तैयार किया।
अकबर का राजतिलक हुआ। ये सब मुगल साम्राज्य से दिल्ली की गद्दी पर अधिकार की वापसी के लिये सिकंदर शाह सूरी से चल रहे युद्ध के दौरान ही हुआ। तेरह वर्षीय अकबर का कलनौर, पंजाब में सुनहरे वस्त्र तथा एक गहरे रंग की पगड़ी में एक नवनिर्मित मंच पर राजतिलक हुआ। ये मंच आज भी बना हुआ है। उसे फारसी भाषा में सम्राट के लिये शब्द शहंशाह से पुकारा गया। वयस्क होने तक उसका राज्य बैरम खां के संरक्षण में चला।
बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह थे, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे।
अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया, बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने, अकबर मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने पिता नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायुं की मृत्यु उपरांत दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा थे।
अपने शासन काल में उसने शक्तिशाली पश्तून वंशज शेरशाह सूरी के आक्रमण बिल्कुल बंद करवा दिये थे, साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिन्दू राजा हेमू को पराजित किया था। अपने साम्राज्य के गठन करने और उत्तरी और मध्य भारत के सभी क्षेत्रों को एकछत्र अधिकार में लाने में अकबर को दो दशक लग गये थे। उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था और इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। सम्राट के रूप में अकबर ने शक्तिशाली और बहुल हिन्दू राजपूत राजाओं से राजनयिक संबंध बनाये और उनके यहाँ विवाह भी किये।
अकबर यह नहीं चाहता था की मुग़ल साम्राज्य का केन्द्र दिल्ली जैसे दूरस्थ शहर में हो; इसलिए उसने यह निर्णय लिया की मुग़ल राजधानी को फतेहपुर सीकरी ले जाया जाए जो साम्राज्य के मध्य में थी।
कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। कहा जाता है कि पानी की कमी इसका प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार बनाया जो कि साम्राज्य भर में घूमता रहता था इस प्रकार साम्राज्य के सभी कोनो पर उचित ध्यान देना सम्भव हुआ। उत्तर पश्चिमी राज्य के सुचारू राज पालन के लिए अकबर ने लाहौर को राजधानी बनाया।
अपनी मृत्यु के पूर्व अकबर ने आगरा को राजधानी बनाया और अन्त तक यहीं से शासन संभाला। आगरा शहर का नया नाम दिया गया अकबराबाद जो साम्राज्य की सबसे बड़ा शहर बना। शहर का मुख्य भाग यमुना नदी के पश्चिमी तट पर बसा था। यहां बरसात के पानी की निकासी की अच्छी नालियां-नालों से परिपूर्ण व्यवस्था बनायी गई। लोधी साम्राज्य द्वारा बनवायी गई गारे-मिट्टी से बनी नगर की पुरानी चारदीवारी को तोड़कर नयी बलुआ पत्थर की दीवार बनवायी गई।
पानीपत के बाद मुगलों ने आगरा किले पर कब्ज़ा कर लिया साथ ही इसकी अगाध सम्पत्ति पर भी। इस सम्पत्ति में ही एक हीरा भी था जो कि बाद में कोहिनूर हीरा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। तब इस किले में इब्राहिम के स्थान पर बाबर आया। उसने यहां एक बावली बनवायी। यहीं हुमायुं का राजतिलक भी हुआ। हुमायुं इसी बिलग्राम में शेरशाह सूरी से हार गया व किले पर उसका कब्ज़ा हो गया। इस किले पर अफगानों का कब्ज़ा पांच वर्षों तक रहा, जिन्हें अन्ततः मुगलों ने पानीपत के द्वितीय युद्ध में हरा दिया। इस की केन्द्रीय स्थिति को देखते हुए, अकबर ने इसे अपनी राजधानी बनाना निश्चित किया।
आगरा में ऐसा प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर है जहां पर उस समय के बादशाह अकबर ने भी इस मंदिर की चौखट पर अपना सिर झुकाया था। मंदिर के बारे में कई कहानियां ऐसी फेमस है जो इसे बेहद चमत्कारी होने का दावा करती हैं।
आगरा के राजा मंडी बाजार में दरियानाथ मंदिर में खुद अकबर चलकर माथा टेकने गया था, कहा जाता है उस समय आगरा में भयंकर अकाल पड़ा था और उस अकाल से निजात पाने के लिए अकबर उस समय के महंत के पास गए थे. उनके चमत्कार के कारण ही आगरा का सूखा खत्म हुआ था।
आंबेर के कछवाहा राजपूत राज भारमल ने अकबर के दरबार में अपने राज्य संभालने के कुछ समय बाद ही प्रवेश पाया था। इन्होंने अपनी राजकुमारी हरखा बाई का विवाह अकबर से करवाना स्वीकार किया। विवाहोपरांत मुस्लिम बनी और मरियम-उज़-ज़मानी कहलायी। उसे राजपूत परिवार ने सदा के लिये त्याग दिया और विवाह के बाद वो कभी आमेर वापस नहीं गयी। उसे विवाह के बाद आगरा या दिल्ली में कोई महत्त्वपूर्ण स्थान भी नहीं मिला था, बल्कि भरतपुर जिले का एक छोटा सा गाँव मिला था।
भारमल को अकबर के दरबार में ऊंचा स्थान मिला था और उसके बाद उसके पुत्र भगवंत दास और पौत्र मानसिंह भी दरबार के ऊंचे सामन्त बने रहे। हिन्दू राजकुमारियों को मुस्लिम राजाओं से विवाह में संबंध बनाने के प्रकरण अकबर के समय से पूर्व काफी हुए थे, किन्तु अधिकांश विवाहों के बाद दोनों परिवारों के आपसी संबंध अच्छे नहीं रहे और न ही राजकुमारियां कभी वापस लौट कर घर आयीं।
हालांकि अकबर ने इस मामले को पिछले प्रकरणों से अलग रूप दिया, जहां उन रानियों के भाइयों या पिताओं को पुत्रियों या बहनों के विवाहोपरांत अकबर के मुस्लिम ससुराल वालों जैसा ही सम्मान मिला करता था, सिवाय उनके संग खाना खाने और प्रार्थना करने के। उन राजपूतों को अकबर के दरबार में अच्छे स्थान मिले थे। सभी ने उन्हें वैसे ही अपनाया था सिवाय कुछ रूढ़िवादी परिवारों को छोड़कर, जिन्होंने इसे अपमान के रूप में देखा था।
अन्य राजपूर रजवाड़ों ने भी अकबर के संग वैवाहिक संबंध बनाये थे, किन्तु विवाह संबंध बनाने की कोई शर्त नहीं थी। दो प्रमुख राजपूत वंश, मेवाड़ के सिसोदिया और रणथंभौर के हाढ़ा वंश इन संबंधों से सदा ही हटते रहे। अकबर के एक प्रसिद्ध दरबारी राजा मानसिंह ने अकबर की ओर से एक हाढ़ा राजा सुर्जन हाढ़ा के पास एक संबंध प्रस्ताव भी लेकर गये, जिसे सुर्जन सिंह ने इस शर्त पर स्वीकार्य किया कि वे अपनी किसी पुत्री का विवाह अकबर के संग नहीं करेंगे। अन्ततः कोई वैवाहिक संबंध नहीं हुए किन्तु सुर्जन को गढ़-कटंग का अधिभार सौंप कर सम्मानित किया गया।
अन्य कई राजपूत सामन्तों को भी अपने राजाओं का पुत्रियों को मुगलों को विवाह के नाम पर देना अच्छा नहीं लगता था। गढ़ सिवान के राठौर कल्याणदास ने मोटा राजा राव उदयसिंह और जहांगीर को मारने की धमकी भी दी थी, क्योंकि उदयसिंह ने अपनी पुत्री जगत गोसाई का विवाह अकबर के पुत्र जहांगीर से करने का निश्चय किया था।
अकबर ने ये ज्ञान होने पर शाही फौजों को कल्याणदास पर आक्रमण हेतु भेज दिया। कल्याणदास उस सेना के संग युद्ध में काम आया और उसकी स्त्रियों ने जौहर कर लिया। इन संबंधों का राजनीतिक प्रभाव महत्त्वपूर्ण था।
हालांकि कुछ राजपूत स्त्रियों ने अकबर के हरम में प्रवेश लेने पर इस्लाम स्वीकार किया, फिर भी उन्हें पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता थी, साथ ही उनके सगे-संबंधियों को जो हिन्दू ही थे; दरबार में उच्च-स्थान भी मिले थे।
इनके द्वारा जनसाधारण की ध्वनि अकबर के दरबार तक पहुँचा करती थी।
दरबार के हिन्दू और मुस्लिम दरबारियों के बीच सम्पर्क बढ़ने से आपसी विचारों का आदान-प्रदान हुआ और दोनों धर्मों में संभाव की प्रगति हुई। इससे अगली पीढ़ी में दोनों रक्तों का संगम था जिसने दोनों सम्प्रदायों के बीच सौहार्द को भी बढ़ावा दिया।
परिणामस्वरूप राजपूत मुगलों के सर्वाधिक शक्तिशाली सहायक बने, राजपूत सैन्याधिकारियों ने मुगल सेना में रहकर अनेक युद्ध किये तथा जीते। अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति ने शाही प्रशासन में सभी के लिये नौकरियों और रोजगार के अवसर खोल दिये थे। इसके कारण प्रशासन और भी दृढ़ होता चला गया।
तत्कालीन समाज में वेश्यावृति को सम्राट का संरक्षण प्रदान था। उसकी एक बहुत बड़ी हरम थी जिसमें बहुत सी स्त्रियाँ थीं। इनमें अधिकांश स्त्रियों को बलपूर्वक अपहृत करवा कर वहां रखा हुआ था। तब कहा जाता है कि अकबर के कुछ लोग जिस सुन्दर स्त्री को सती होते देखते थे, बलपूर्वक जाकर सती होने से रोक देते व उसे सम्राट की आज्ञा बताते तथा उस स्त्री को हरम में डाल दिया जाता था।
इस प्रकार बादशाह सलामत ने सती प्रथा का विरोध किया व उन अबला स्त्रियों को संरक्षण दिया।
कहते हैं कि बेगमें, कुलीन, दरबारियो की पत्नियां अथवा अन्य स्त्रियां जब कभी बादशाह की सेवा में पेश होने की इच्छा करती हैं तो उन्हें पहले अपने इच्छा की सूचना देकर उत्तर की प्रतीक्षा करनी पड़ती है; जिन्हें यदि योग्य समझा जाता है तो हरम में प्रवेश की अनुमति दी जाती है।
अकबर अपनी प्रजा को बाध्य किया करता था की वह अपने घर की स्त्रियों का नग्न प्रदर्शन सामूहिक रूप से आयोजित करे जिसे अकबर ने खुदारोज प्रमोद दिवस नाम दिया हुआ था। इस उत्सव के पीछे अकबर का एकमात्र उदेश्य सुन्दरियों को अपने हरम के लिए चुनना था।
अकबर ने उसकी बहन और पुत्रबधू को बलपूर्वक अपने हरम में डाल दिया। अकबर ने यह प्रथा भी चलाई थी कि उसके पराजित शत्रु अपने परिवार एवं परिचारिका वर्ग में से चुनी हुई महिलायें उसके हरम में भेजे।
आगरा में स्थित मीना बाजार को आगरा के किले में बनाया गया था, जो कि सेना के क्षेत्राधिकार में हुआ करता था। यहां महिलाएं आती थीं और बाजार लगाया करती थी, लेकिन ये कोई आम महिलाएं नहीं होती थीं। बल्कि मीना बाजार में शाही परिवार की महिलाएं, राजपूतों की रानियां कई बड़ी-बड़ी हस्तियां यहां आकर दुकानें लगाया करती थीं।यहां केवल मुगल घरानों से नाता रखने वाले कुछ ही लोगों को खरीदारी करने की इजाजत हुआ करती थी। इसके अलावा दूसरे राजा की पत्नियाँ यहां खरीदारी करने के लिए आ सकती थी।
मुग़ल दरवार
इन दिनों अकबर का दरबार आगरा में स्थित होता था। दरबार क्षेत्र में आम जनता और मंत्रिमंडल के सदस्यों के अलावा अनेक विद्वान, कलाकार, और लोग शामिल होते थे। इस दरबार में राजनीतिक मामलों का निर्णय लिया जाता था, कला, संस्कृति, और साहित्य का विकास होता था, और सम्राट की वाणी और न्याय प्रकट होता था।
मुगल दरबार मुगल साम्राज्य का शक्ति का केंद्र था, जिसमें राजनीतिक संबंध, प्रजा की समस्याओं और अपराध पर लगाम लगाने के लिए चर्चा की जाती थी। मुगल दरबार में बादशाह अपने हिसाब से दरबारी नियुक्त करते थे। लेकिन अकबर के शासन काल में न सिर्फ दरबार का विस्तार हुआ बल्कि अकबर के नवरत्न का भी निर्माण हुआ।
सम्राट अकबर ने राय प्रवीन को दरवार में प्रस्तुत करने का आदेश दिया। राय प्रवीन एक महान कलाकार होने के साथ बहुत खूबसूरत थीं। उनके बारे में सुनकर ही अकबर ने उन्हें बुलावा भेजा था।
आगरा में बादशाहे हिन्द का दरबार प्रतिदिन के नियत समय से पूर्व ही लग गया। चोकीदार ने घण्टा पर ज़ोरदार प्रहार किया, और तेज आवाज़ में चिल्लाया -
बाअदब, बामुलाहिजा, होशियार,जिल्लेइलाही, हजरत मुगले आजम, शहंशाहे हिन्द जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर तशरीफ़ ला रहे है .....।
दरबार में शांति छा गयी । दरबार में हाजिर सभी दरबारी बारी बारी से बादशाह को झुककर सलाम कर रहे थे। अकबर के दरबार के नौ रत्न थे बीरबल, तानसेन, अबुल फजल, फैजी, टोडर मल, राजा मान सिंह, अब्दुल रहीम खान-ए-खाना, फकीर अज़ियाओ-दीन और मुल्ला दो पियाज़ा। वे विभिन्न क्षेत्रों में निपुण थे और स्वयं सम्राट उनका बहुत सम्मान करते थे।
राजकुमार की मर्जी के बिना राय प्रवीण को अकबर के पास आगरा भेज दिया गया। अकबर उसकी सुंदरता से बेहद प्रभावित हुआ।
अकबर के नवरत्नों में से एक अब्दुर्रहीम खानखाना जो कि हिंदी प्रसिद्ध कवि भी थे, ने अपने स्थान से उठकर महाकवि केशवदास और उनकी शिष्या राय प्रवीन का परिचय दिया। केशवदास जी और राय प्रवीन ने बादशाह अकबर को हाथ जोड़कर प्रणाम किया । अकबर दोनों का प्रणाम स्वीकार कर हाथ उठाकर अभिवादन किया और केशवदास जी से पूछा - "आजकल आप क्या लिख रहे है ?"
केशवदास- "हुजूर, मेरी दो रचनायें पूर्ण हो गयी है, जिनमे एक महाकाव्य रसिकप्रिया है और दूसरी रचना शिक्षा का काव्य कविप्रिया कुछ दिन पूर्व ही पूर्ण हुआ है ।"
"आप अपनी रचनाओं में से कुछ सुनायें " सम्राट ने आदेश दिया।
अकबर के शाबाशी देने पर महाकवि ने अकबर को वृद्धावस्था में कामातुर होने की स्थिति के अनुसार सवैया सुनाया -
"हाथी न साथी न घोरे चेरे न गांव न ठाँव को नाम विलैहें ।
तात न मात न मित्र न पुत्र व् वित्त अंगहु संग न रैहैं ।
केशव नाम को राम विसारत और निकाम न कामहि अइहें ।
चेत रे चेत अजौं चित्त अंतर अन्तक लोक अकेले हि जैहें ।"
रहीम द्वारा सवैया का अर्थ समझाने पर अकबर लज्जित हो गया।
वो कला और कलाकारों की बड़ी कद्र करता था, अपनी झेंप मिटाने के लिए अकबर ने काव्य के ऊपर अनेक प्रश्न किये, उसने अपनी निर्भीकता, ज्ञान व स्पष्टा से दिए गए जवाबो से अकबर प्रशन्न हुआ और आदेश दिया-
"महाकवि केशव दास की शिष्या ओरछा की नर्तकी रायप्रवीन अपनी कवित्त रचना पेश करे ।"
रायप्रवीन पर्दा हटाकर दरबार के मध्य में अर्ध घूँघट में आकर खड़ी हो गयी। उसी स्थिति में घूमकर सभी दरबारियों का अभिवादन किया। दरबारी उसके नैसर्गिक सौंदर्य को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए । राय प्रवीन और अकबर के बीच काव्य संवाद इस प्रकार हैं-
"अकबर - जुवन चलत तिर देह की,
चटक चलत केहि हेत।
राय प्रवीन- मन्मथ वारि मसाल को,
सांति सिहारे लेत।
अकबर- ऊंचै ह्वै सुर बस किए,
सम ह्वै नर बस कीन्ह।
राय प्रवीण- अब पाताल बस करन को,
ढरक पयानो कीन्ह।"
रायप्रवीन ने अपना कवित्त सुनाना आरम्भ किया -
"स्वर्ण ग्राहक तीन, कवि, विभिचारि, चोर
पगु न धरात, संसय करत तनक न चाहत शोर।
पेड़ बड़ौ छाया घनी, जगत केरे विश्राम
ऐसे तरुवर के तरे मोय सतावै घाम।
कहाँ दोष करतार को, कूर्म कुटिल गहै बांह
कर्महीन किलपत फिरहिं कल्पवृक्ष की छाँह।"
वाह-वाह ओरछा की शायरा नर्तकी । तुम मेरे हरम की नायाब नगीना बन जाओ। तुम्हें ओरछा से हजार गुना सुख-सुविधा मिलेगी । अकबर जनता था कि इस तरह के व्यक्तित्व बिरले ही देश को प्राप्त होते हैं।
"जिल्ले इलाही मेरे विनम्र निवेदन को सुनने की कृपा करे।"
"हाँ , हाँ सुनाओ" अकबर ने उत्साहित हो कर कहा। राय प्रवीन ने पूर्ण शृद्धा से माँ विंध्यवासनी को मन ही मन याद कर कहा माँ अब तुम्हारी इस बेटी की लाज तुम्हारे हाथों में है। “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।” उसने अपने आप को माँ के हाथों में सौप कर निर्भयता तथा पूर्ण आत्म संयम से अपनी प्रितिउत्पन्नमति से यह दोहा पढ़ा -
“विनती राय प्रवीण की, सुनिए साह सुजान,
झूठी पातर भखत हैं, बारी-बायस-स्वान”
उसने बहुत ही समझदारी से बातों - बातों में अकबर को यह दोहा सुनाया।
एकाएक दरबार में चल रहे आयोजन में राय प्रवीन के शब्दों को सुनकर सन्नाटा छा गया। कवित्त सुनते ही अकबर का चेहरा तमतमा गया।
अकबर राजा की इच्छा के विरुद्ध उसे अपने हरम में रखना चाहता था। उसने मुगल सम्राट को यह कहकर विफल कर दिया, कि "केवल नौकर, कुत्ता या कौवा ही होता है, जो किसी दूसरे द्वारा पहले से ही अपवित्र की गई चीज़ को खाना पसंद करेगा।"
इतनी हिमाकत! इतनी हिमाकत, और वह भी एक औरत की? होगी बहुत सुन्दर या होगा अकबर साठ बरस का, इतनी हिम्मत एक नर्तकी की कि वह बादशाह को बायस माने कौवा, या स्वान कुत्ता जैसे शब्द बोले! अकबर का पारा उस सुन्दर नर्तकी को देख देखकर और चढ़ता जा रहा था। उसने एक उड़ती - उड़ती नज़र उस पर डाली।
बादशाह उस अलौकिक सौन्दर्य से एक बार पुन: चकित हो गया, वह उस सौन्दर्य से पराजित सा होने लगा और दूसरी तरफ वह अकेली खड़ी थी। दरबार में अकेली, जैसे द्रौपदी खड़ी हो कौरवों की सभा में। द्रौपदी को बचाने के लिए कृष्ण आए थे, यहाँ पर उसे बचाने कौन आएगा? हालांकि कृष्ण ने कहा था जब-जब धर्म की ग्लानि-हानि यानी उसका क्षय होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयं की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥"
पर जिसके प्रेमी पर इस अकबर ने एक करोड़ रूपए का दंड लगा दिया हो, और जिस ने उस को अकबर के दरबार में भेज दिया हो! उसे बचाने किसी के आने की उम्मीद नहीं है। उसे स्वयं पर भरोसा करना होगा। उसे ही हिम्मत से काम लेना होगा।
कौन जानता था कि माधव लोहार की बेटी पुनिया एक दिन वाकई पूर्णिमा का चाँद बन जाएगी। परन्तु यह तो दिल्ली के दरबार में चाँद जैसी चमक रही थी। उसके स्वरों में इन्द्रजीत को दिया गया आश्वासन भी झलक रहा था, जो अभी भी उसकी पसीजी हथेलियों में था।
“चिंता न करें, महाराज! अकबर मुझे कभी प्राप्त नहीं कर पाएगा, उसे पराजित होना होगा! वह मेरी कविता से ही पराजित होगा। जब वह कविता से पराजित हो सकता है, उसके लिए तलवार क्या उठाना?”
दरबार में राय प्रवीन जिस प्रकार दृढता से खड़ी थी, उसकी दृढता ने अकबर को विचलित कर दिया। यह औरत? इतनी हिम्मत? भरे दरबार में मुझे क्या कह रही है?
“बादशाह, मैंने आपसे कुछ नहीं कहा! मैंने बस स्वयं के विषय में कहा है कि मैं अब और किसी की नहीं हो सकती, क्योंकि इन्द्रजीत सिंह मेरे हो चुके हैं और मैं
उनकी हो चुकी हूँ! तो दूसरे की जूठन को कौन खाता है इस विषय में मैं आपसे क्या कहूं?”
युवावस्था होती तो उसका भरे दरबार में सिर भी कलम करा दिया जाता, परन्तु अकबर यहाँ पर लज्जित सा बैठा था, इस आयु में कामवासना और औरत के लालच ने कैसा काण्ड करा दिया था? वह न ही दरबार में सिर उठा पा रहा था और न ही अपनी गलती को स्वीकार कर पा रहा था।
उसने स्वयं से ही जैसे पूछा “क्या करूँ?” फिर भीतर के काम को पराजित करते हुए केशवदास के अनुरोध पर राय प्रवीन को उपहार देकर विदा किया तथा इन्द्रजीत पर लगा हुआ एक करोड़ का अर्थदंड भी क्षमा कर दिया।
प्रेम जीता था, कामुकता हारी थी, कामुक बादशाह हारा था, कवि ह्रदया राय प्रवीन जीती थी। लेकिन राय प्रवीण ने अपनी पूरी बुद्धि से अकबर के दिल की बात कह दी और अपने प्रेमी के प्रति उसकी वफादारी से प्रभावित होकर, अकबर ने राय परवीन को उसकी गरिमा और उसके राज्य दोनों को बरकरार रखते हुए ओरछा वापस लाने का फैसला किया। उसने उसे सुरक्षित ओरछा वापस भेज दिया।
प्रयाण काल
यह समाचार चारों ओर फ़ैल चुका था कि राय प्रवीण ने अपनी वाक्पटुता से सम्राट अकबर का मन जीत लिया और वे मुग़ल दरबार से बहुत सारे उपहार ले कर मुग़ल सैनिको के साथ वापिस ओरछा आ रही है।
लेकिन हाय री किस्मत, महाराजा इन्दर सिंह यह गौरव देखने के लिये जिन्दा नहीं थे।
महाराज ने रात अपने कमरे में बिस्तर पर अपनी कटार अपने सीने में उतर ली थी। राज महल में सुबह हाहाकार मच गया। वेतबा के किनारे बने राज परिवार के शमशान में उनके पुरखों की छतरियों के पास पुर राजकीय सम्मान के साथ उनके पुत्र ने मुखाग्रअग्नि दी।
इधर राय प्रवीन अपने काफिले के साथ नगर ओरछा में प्रवेश कर रही थी। उनकी उम्मीदों के विपरीत न तो नगर को सजाया गया था।
न कोई स्वागत के लिए था। उन्हें यह सब उल्टा देखा कर आश्चर्य हो रहा था। तभी राज महल का राज ध्वज उन्हें दिखाई दिया जो आधा झुका हुआ था। आशंका से मन बिचलित हो उठा। वह समझ गई कि जिस अनहोनो को उन्होंने अपने प्राणों को दांव पर लगा कर रोकने की कोशिश की थी विधाता के विधान से वह अनहोनी घट गई थी। आज आनन्द भवन सूना था। हालांकि राय प्रवीन की खबर आने पर उसे ठीक ठाक किया गया था।
ओरछा में राजकीय शोक के कारण चारों तरफ सन्नाटा पसरा था। बुन्देलखण्ड के सभी राजा शोक व्यक्त करने आ रहे थे। इंद्रजीत की इज्जत सारे इलाके में थी।
उनके मन में हमेशा से यह डर उसी दिन से था जिस दिन महाराज ने पहली वार सम्राट के दूत को वापस भेजा था। उसे यही गहन चिंता थी की महराज न तो अकबर से लड़ सकते है, न ही राष्ट व उसके सम्मान को बचा सकते है। यदि उन्हें इस दलदल से निकलना है तो वह अपनी जान दे कर एक सच्चे बुंदेले का धर्म निभायेगे।
और वह महाराज को कितना सही - सही समझती थी। वह महाराज का मन पढ़ लेती थी। इसीलिए वह बिना बोले समझ जाती थी कि उनकी क्या इच्छा है। और वह बिना कहे उस बात को पूरा कर देती थी।
वे दोनों दो शरीर एक जान थे। वह जानती थी की 'प्रेम गली अति साकरी जा में दो न समाए।' उसके मन में महाराज के प्रीति कोई मलाल ना था। महाराज ने अपने कर्तव्य की पूर्ति कर दी थी और अब उसकी वारी थी।
राज पुरोहित द्वारा महल में गरुड़ पुराण सुनाया जा रहा था, जिस की धीमी - धीमी आवाज आ रही थी। उसे अपना आखरी कर्तव्य पूरा करना ही होगा। इस भीड़ में केवल एक व्यक्ति था जो राय प्रवीन की मनःस्थिति को समझ पा रहा था और वो थे केशव दास। लेकिन आज वह भी कुछ कह कर राय प्रवीन की राह नहीं रोकना चाहते थे।
वह जानते थे कि चकवा के मर जाने पर चकवी ज्यादा दिन जिन्दा नहीं रहेगी। वे चुप चाप सूनी आँखों से उसकी ओर निहार रहे थे। उसने वहां उपस्थित अपने परिवार से छमा मांगी। पाठशाला के गुरु जनों को प्रणाम किया।
राय प्रवीन महाराज से मिलने के लिए इतनी आतुर थी की उसने अपना सोलह शृंगार सुबह ही अपनी प्रिय दासी से करवाया था। सब कुछ महाराज की पसन्द का पहनावा था।
शृंगार बेकार न हो तो उसने अपना काफिला छतरियों की ओर मोड़ने का अनुरोध किया। जो बेतवा नदी के किनारे बनी है। सदियां बदली लेकिन नदियों ने अपना मार्ग नहीं बदला।
बेतवा नदी, जिसे प्राचीन काल में वेत्रवती कहा जाता था, मध्य भारत में बहने वाली यमुना की एक सहायक नदी है, जिसका उल्लेख महाभारत में भी मिलता है, बेतवा ने बुन्देलों को यहां बसते देखा और उनके पुर्वजों के देवलोक गमन की भी साक्षी रही है। बुंदेला राजाओं और उनके परिवार के सदस्यों की याद में छतरियाँ, शाही स्मारकों के रूप में बनाई गई हैं।
इन समाधि स्थलों को स्थानीय लोग छतरी ‘छाता’ कहते हैं। वे एक जैसे दिखते हैं, सिवाय एक के जो वीर सिंह देव के लिए बनाया गया था- सबसे सफल बुंदेला राजा। इस छतरी का प्रवेश द्वार बेतवा नदी की ओर है, ऐसा माना जाता है कि मृत शासक अपने अगले जन्म में नियमित रूप से स्नान और नदी की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लेते है।
छतरियों का निर्माण मधुकर शाह, भारती चंद, सावन सिंह, बहार सिंह, पहाड़ सिंह और उदय सिंह जैसे शासकों की याद में किया गया। यह गाथा इन छतरियों ने अपनी आँखों से देखी।
छतरी का आकार शायद उन शासकों के शासनकाल की लंबाई के आधार पर तय किया गया था। ये समाधि स्थल अपनी विशाल संरचना पर राजाओं की कहानियों के बारे में बात करते हैं। ये चौदह अंतिम संस्कार स्मारक बुन्देलखण्ड के राजाओं को भारतीय इतिहास में जीवित रखने के लिए बनाए गए । हिंदू धर्म में, शवों का दाह संस्कार किया जाता है और राख को नदी में विसर्जित किया जाता है। इसलिए ओरछा की समाधि अगले जन्म के लिए शवों को संरक्षित करने के लिए नहीं बनाई गई।
इन समाधि स्थलों का डिज़ाइन अनोखा है। ये ऊंची, चौकोर इमारतें हैं, जो ऊंचे चबूतरे पर बनी हैं और ऊपर एक गुंबददार मंडप है जिसे छतरी कहा जाता है। यह एक प्रकार का ट्रेबीट गुंबददार छत्र है, जो छतरी जैसा दिखता है। यहाँ मुख्य छतरियाँ दो पंक्तियों में हैं, जो सुखद और अच्छी तरह से बनाए गए बगीचों के बीच स्थापित हैं।
इन स्मारकों का विशाल आकार ऐसा लगता है मानो आप महलों के बीच चल रहे हों।
मृत्यु के बाद, हिंदुओं का मानना है कि भौतिक शरीर का कोई उद्देश्य नहीं होता, और इसलिए इसे संरक्षित करने की आवश्यकता नहीं होती। वे अपने प्रियजनों का दाह संस्कार करना चुनते हैं क्योंकि उनका मानना है कि यह आत्मा को मुक्त करने और पुनर्जन्म में मदद करने का सबसे तेज़ तरीका है। ऐतिहासिक रूप से, हिंदू दाह संस्कार भारत नदी पर होते है।
गीता में कहा गया है कि ‘मृत्यु’ जीवन का अंतिम और अटल सत्य है, जिसे कोई टाल नहीं सकता है। जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु अटल है और मत्यु के बाद उसका पुन: जन्म भी निश्चित है। जीवन और मृत्यु एक च्रक के समान है जिससे हर व्यक्ति को गुजरना पड़ता है।
हिंदू धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक कुल सोलह संस्कार होते हैं। इनमें मृत्यु आखिरी यानी सोलहवां संस्कार होता है। जिसमें शव दहन, अश्थि विसर्जन, श्राद्ध संस्कार, पिण्ड दान आदि संस्कार किये जाते है।
सूरज की रोशनी पड़ने पर ये छतरियाँ सुनहरे रंग की हो जाती हैं भोर में उगता हुआ सूरज उन्हें रोशन कर देता है और सूर्यास्त के समय उनकी शानदार आकृतियाँ नदी के पानी पर धुंधली हो जाती हैं। अभी ये सुनहरे रंग में चमक रही है।
मानो राय प्रवीन का स्वागत कर रहो हो।
महाराज की अर्थी से अभी भी धुआँ उठ रहा था। इस स्थान पर केवल शाही परिवार के लोगों के अंतिम संस्कार किया जाते थे। उसे पता था कि जिस परिवार ने जीते जी उसे उसका स्थान नहीं दिया था वह मरने के बाद क्यों कर देगा?
वह अपने वाहन से उतर कर धीरे - धीरे चिंता के पास गई। राय प्रवीन की श्रद्धा है कि मृत्यु के बाद भी जन्म है और वह अगले जन्म में भी इन्द्रजीत से ही मिलेगी। उसने गीता पढ़ी है जिसमें कृष्ण कहते है कि "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥” इसका मतलब है कि आत्मा को कोई शस्त्र नहीं काट सकता, न आग उसे जला सकती है, न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है. भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा के अजर-अमर और शाश्वत होने की बात कही है। वह यह बातें मन में सोच रही है।
महाराज के चरणों की ओर पूरा लेट कर प्रणाम किया। उसका दुल्हन का शृंगार पूरा था केवल माँग सूनी थी। उसने महराज के चरणों की तरफ से एक चुटकी राख उठा कर अपनी सूनी माँग गर्व के साथ भर ली और फिर बेतबा की सहस्त्र धारा में शांति के साथ चल दी अपने प्रीतम पिया से मिलान के लिए।
वेतबा की धार भी अपार दयालु है उसने अपनी इस अभागी बेटी को अपने आँचल में जल्दी से छिपा लिया। घाट पर खड़े लोग हाहाकार कर उठे।
केशव ने देखा पश्चिम में सूर्य अपने रथ पर बैठे अस्ताचल को जा रहे है और उनकी प्रिय शिष्या राय प्रवीन वेतबा की लहरों पर चढ़ अपने प्रिय से मिलान को आतुर है। वेतवा की तेज धार बहुत तेजी से राय प्रवीन को उसके प्रेमी इंद्रजीत से मिलाने ते जा रही थी। केशव दास कहानी का ऐसा अंत देख कर मन ही मन रो पड़े।
उन्होंने कभी ऐसी कल्पना नहीं की थी कि बुन्देलखण्ड का गौरव, सौंदर्य की प्रतिमान, विदुषी, पतिव्रता नारी का ऐसा अंत होगा। जब समाज अपनी मान्यताओं के कारण हीरा खो देता है तब उसे हुए नुकसान का अंदाजा होता है और तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। उन्हें लगा की उपस्थित जान समुदाय भी रो रहा है। चारों ओर अंधेरा घिरने लगा था और आकाश में दो तारे बहुत पास - पास चमक रहे थे।
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