Final ओरछा की कोकिला : राय प्रवीन

 





ओरछा की कोकिला : राय प्रवीन 


घुमक्क्ड़ी 


मैं आनन्द मिश्रा, मिश्रा परिवार का सबसे छोटा बेटा हूँ। मुझे अपने परिवार में ‘डिफेक्टिव पीस' समझा जाता है। पिताजी ने मुझे सुधारने में अपनी आधी जवानी खपा दी, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात। ‘मैं ठहरा कुत्ते की पूँछ, जो टेढ़ी की टेढ़ी।’ आनन्द मिश्रा नारायण और सुधा मूर्ति के बारे में सोचने लगा। 

मेरे आदर्श पुरुष हैं नारायण मूर्ति, हाँ, आप ठीक समझे, इंफोसिस वाले। ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री के ससुर। क्या अद्भुत व्यक्तित्व ! कहते हैं कि एक बार वे पीठ पर अपना झोला [बैक पैक] ले कर यूरोप की सैर पर निकल पड़े। पास में पैसे थे नहीं, पर घूमने का था जुनून। सो हुआ यूं कि आवारागर्दी करते-करते उन्हें इंफोसिस कंपनी का विचार सूझ गया।

लोगों के बीच में कहा जाता है कि पैसा तो हवा में उड़ रहा है, बस उसे पकड़ने के लिए एक 'जाल' चाहिए। सो, उन्होंने वह जाल बना लिया। अपनी पत्नी से दस हज़ार रुपये उधार लिए। नारायण मूर्ति को देखकर शायद आप कभी यह अंदाज़ा भी न लगा सके कि वे भी कभी किसी के प्रेम में गिरफ्त हुए होंगे।

दोनों की प्रेम कहानी किसी फ़िल्मी दास्तान से कम नहीं। नारायण मूर्ति और उनकी पत्नी सुधा मूर्ति की प्रेम कहानी आरंभ हुई पुणे में। जब नारायण मूर्ति सुधा के साथ डेट पर जाते, तो अक्सर बिल का भुगतान सुधा ही करतीं। भाई, प्रेमिका हो तो ऐसी ! क्योंकि उस समय मूर्ति के पास ज़्यादा पैसे होते नहीं थे। एक दिन नारायण मूर्ति ने सुधा से अपने दिल की बात कह ही दी, वह भी फ़िल्मी अंदाज़ में।

उन्होंने कहा, "मेरी लंबाई पाँच फुट चार इंच है। मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से आता हूँ। मैं कभी अपनी ज़िंदगी में अमीर नहीं बन सकता। तुम होशियार हो, क्या तुम मुझ से शादी करोगी?" 

और भाई, सुधा बेन भी कम नहीं ! परिवार को मनाकर उन्होंने "हाँ" कर दी।

सुधा मूर्ति का टेल्को में नौकरी पाने का किस्सा बहुत मशहूर है। यह सब बातें सुधा मूर्ति ने एक इंटरव्यू में बताई थी। 

सुधा ने बताया - “मैं बेंगलरु में टाटा इंस्टीट्यूट से एमटेक कर रही थी। मैं अपनी क्लास में अकेली लड़की थी। मैंने बीई किया था। उस साल भी पूरी यूनिवर्सिटी में मैं अकेली लड़की थी। बाकी सब लड़के थे। मुझे अमेरिका में पीएचडी करने के लिए स्कॉलरशिप मिल रहीं थी। मैं हॉस्टल को आ रही थी। तभी मुझे नोटिस बोर्ड पर एक विज्ञापन दिखा। टेल्को पुणे और जमशेदपुर में इंजीनियर ढूंढ रही थी। लेकिन नीचे लिखा था- लेडीज स्टूडेंट्स नीड नोट अप्लाई। जैसे सिगरेट के पैकेट पर लिखा होता है कि सिगरेट स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। ऐसे ही यह डिस्क्लेमर लिखा था।” 

“मुझे बहुत गुस्सा आ गया। मैं बाईस साल की थी। गुस्सा उस समय ज्यादा आता था, आजकल नहीं। उस नोटिस को पढ़ने  के बाद में हॉस्टल गई और एक पोस्टकार्ड लिया। मैंने अपनी सहेलियों से चर्चा की। जेआरडी टाटा हमारे इंस्टीट्यूट में हर साल आते थे। मैं बहुत दूर से उनको देखती थी।” 

“हम स्टूडेंट्स थे। मिडिल क्लास फैमिली बैकग्राउंड था। ऐसे बड़े-बड़े लोगों को नजदीक से जाकर बोलने की हिम्मत नहीं थी। और जेआरडी टाटा बहुत हैंडसम थे।”

इण्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस की स्थापना जमशेदजी नुसरवानजी टाटा, भारत सरकार और मैसूर राजघराने के संयुक्त प्रयासों से आजादी से पहले हुई थी। टाटा ने इस विचार की कल्पना की और इसके शुरुआती विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो उन्हें स्वामी विवेकानन्द से चर्चा के बाद आया था। 

मैंने लेटर लिखा - “सर जेआरडी टाटा, जब देश आजाद नहीं था, तब आपका ग्रुप शुरू हुआ। आपका ग्रुप केमिकल, लोकोमोटिव और आयरन एंड स्टील इंडस्ट्री में काम करता हैं। आप हमेशा समय से आगे की सोचते हैं। और समाज में महिला और पुरुष दोनों बराबर होते हैं। महिलाओं को अगर आप चांस नहीं दे रहे हैं, तो आप महिलाओं को सेवाओं से वंचित रह रहे हैं।” 

“इसका मतलब है कि आपका देश प्रोग्रेस नहीं कर पाएगा। कभी महिलाओं को एजुकेशन नहीं। कभी उनको जॉब अपॉर्च्यूनिटी नहीं, तो ऐसा कंट्री और ऐसा समाज कभी ऊपर नहीं आता है। यह आपकी कंपनी की गलती है कि आप महिलाओं को मौके नहीं दे रहे हैं। ऐसे मैंने लिख दिया।” 

“लेकिन उनका एड्रेस मुझे मालूम नहीं था। हम हुबली के हैं। उन दिनों में इंटरनेट भी नहीं था। फिर मैंने सोचा कि किसने यह लिखा है लेडीज स्टूडेंट नीड नोट टू अप्लाई.. टेल्को कंपनी ना ! ओके, तो मैंने जेआरडी टाटा, टेल्को बॉम्बे... इतना लिखकर ही पोस्टकार्ड पोस्ट कर दिया।”

“जेआरडी तो काफी बड़ी हस्ती थे। उनको वो पोस्टकार्ड मिला। वह पढ़ने के बाद उनको गुस्सा आ गया। उन्होंने स्टाफ को बुलाया और कहा- एक लड़की यह पूछ रही है और यह अन्याय है। उसको एक चांस देना चाहिए। उसने अच्छा नहीं किया तो हम फेल कर देंगे। उस समय मैं लेडीज हॉस्टल में थी। वहां फोन नहीं होता था, क्योंकि बॉयज को लड़कियां फोन करती थीं। लेकिन बिना टेलीफोन भी पत्र लिख सकते हैं ना।” 

“एनीवे, हमें एक टेलीग्राम मिला। ‘प्लीज अटेंड टेल्को फाइनल इंटरव्यू इन पुणे एट अवर एक्सपेंस फर्स्ट क्लास ट्रेन टिकट।’ उस समय पुणे और बेंगलुरु में प्लेन नहीं था। मेरी सहेलियां थीं, सब पीएचडी करती थीं। उन्होंने कहा आप जाइए। पुणे में साड़ी बहुत अच्छी मिलती है। उन्होंने मिल कर तीस रुपये इकट्ठे किये और एक साड़ी गिफ्ट में दी।”

“मैं साड़ी पहन कर वहां गई। मैं टेक्निकली बहुत-बहुत अच्छी हूं। मैंने सारे टेक्निकल सवालों के जवाब दिए।” 

तब मैंने पूछा - “वाई आर यू नॉट टेकिंग वुमन?”

इस पर उन्होंने कहा, “बेटा प्लीज अंडरस्टेंड, तुम बहुत अच्छी इंजीनियर हो। लेकिन हमारा एक प्लांट जमशेदपुर में और एक प्लांट पुणे में। वहां अभी तक एक भी लड़की ने ज्वाइन नहीं किया। वहां शिफ्ट में काम होता है। मर्दों के साथ काम करना होता है और आप अकेले होते हो। नहीं तो आप आर एंड डी या फिर पी एचडी में बराबर काम कर सकती हो।”

“मैंने बताया कि मेरे नाना जी इतिहास के टीचर थे। उन्होंने कहा था कि दस हजार कदमों की यात्रा हमेशा एक कदम से शुरू होती है। इसलिए हमने बोला कि अगर आप ऐसे ही सोचते रहेंगे तो इस दुनिया में कभी भी लड़कियां आगे नहीं आ पाएंगी। एक ना एक दिन तो उन्हें आगे आना ही होगा और आपको यह शुरू करना चाहिए।” 

“फिर मुझे जॉब मिल गई। मैं मेरे फादर के साथ काफी फ्रेंडली थी। मैंने अपने पापा से कहा कि मैंने ऐसे एक पत्र लिखा था और मुझे ऐसे जॉब मिली।” 

मेरे पापा ने पूछा -“तुम यह जॉब करोगी क्या?”

 मैंने कहा -”मैं नहीं करूंगी। मैं अमेरिका जाऊंगी पीएचडी करने के लिए।” 

पिताजी ने पूछा- “तब तुमने वह पत्र क्यों लिखा था।” 

मैंने कहा- “मैंने उन लोगों को दिखाने के लिए लिखा कि लेडीज चुप नहीं रहेंगी। लड़कियां भी होशियार हैं, यह दिखाने के लिए मैंने लिखा।” 

“लेकिन मेरे पिताजी ने बोला यह गलत है। जब तुमने शुरुआत की है और समानता की मांग की है तो तुम्हें जॉब करनी चाहिए।”

“बहुत अच्छी एक सलाह दी मेरे पिताजी ने। यू शुड वॉक द टॉक इन योर लाइफ। मतलब जो बोलो सो वो करो भी।”

“मैंने दो तीन दिन सोचा फिर अपना अमेरिका का स्कॉलरशिप तथा एडमिशन का लेटर फाड़ दिया और टेल्को में जॉब जॉइन की। मैं टाटा ग्रुप की पहली महिला इंजीनियर थी।”

यह छह यार, नारायण मूर्ति, नंदन नीलेकणी, एस. गोपालकृष्णन, एस. डी. शिबुलाल, के. दिनेश और अशोक अरोड़ा मिले और पटनी कंप्यूटर्स कंपनी शुरू हुई। बात है सन् उन्नीस सौ इक्यासी की।

पुणे के इन छह व्यक्तियों ने ढाई सौ डॉलर एकत्रित कर इंफोसिस जैसी एक प्रमुख भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनी खड़ी कर दी, जो व्यापार परामर्श, सूचना प्रौद्योगिकी और आउटसोर्सिंग सेवाएँ प्रदान करती है।

नारायण मूर्ति कहते हैं, "इन वर्षों की अपनी यात्रा में, हमने कुछ ऐसे बड़े बदलावों को गति दी, जिनकी वजह से भारत सॉफ्टवेयर सेवा प्रतिभाओं के लिए वैश्विक गंतव्य के रूप में उभरा है। हमने ग्लोबल डिलीवरी मॉडल की शुरुआत की और नैस्डेक पर सूचीबद्ध होने वाली भारत की पहली आईटी कंपनी बनाई। हमारे कर्मचारी स्टॉक विकल्प कार्यक्रम ने भारत के कुछ पहले वेतनभोगी करोड़पतियों को जन्म दिया।" 

आनन्द मिश्रा सोचने लगे “जिनमें से एक मैं भी हूँ। धन्य हैं वे लोग ! भगवान उनका भला करे। एक बार भारत के एक प्रधानमंत्री ने कहा था कि ‘पैसा पेड़ पर नहीं उगता’, किंतु यह ग़लत है। पैसा हवा में भी उगता है। इस कारण, आज देश की दूसरी सबसे बड़ी आईटी कंपनी है इंफोसिस। यहीं भारत की सॉफ्ट पॉवर है। ”

“मैं 'वर्क फ्रॉम एनीवेयर' कार्य संस्कृति के ज़माने का व्यक्ति हूँ। कंप्यूटर साइंस में आई आई टी से डिग्री लेकर कंपनी जॉइन की। कैंपस सलेक्शन-जीवन का शॉर्टकट। कोई परीक्षा नहीं, न रट्टा मारना, न यूपीएससी जैसी परीक्षा, जो आज भी अंग्रेजों के ज़माने से बिना बदले वैसी ही चली आ रही है। और वेतन का तो क्या कहना ! सो, मज़ा ही मज़ा। खूब घूमो, मज़े करो और खूब काम करो।”

एक चीनी कहावत है, ‘हजारों मील की यात्रा करना हजारों किताबें पढ़ने से बेहतर है।’ यात्रा करने के कई लाभ, तनाव कम होना, खुशी में वृद्धि, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार और व्यक्तिगत विकास, दृष्टिकोण का विस्तार, नए कौशल सीखना और रिश्तों को मजबूत करना सम्मिलित है।

मिश्रा - “मैं साल में एक सोलो लॉन्ग ट्रिप और दो शॉर्ट ट्रिप करता ही हूँ। शादी की नहीं, सो रोकने-टोकने वाला कोई है नहीं। पिताजी ने भी मान लिया और मैंने भी ठान लिया कि ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीनी है। मैं हूँ पैदाइशकी।”

“तकनीकी रूप से उन्नत दुनिया में पालन-पोषण के कारण  ‘जनरेशन ज़ेड’ को अक्सर "डिजिटल नेटिव्स/मूल निवासी" कहा जाता है। जब तनख्वाह कम पड़ने लगती है तो कभी-कभी 'मूनलाइटिंग' भी कर लेता हूँ। अरे नहीं समझे मूनलाइटिंग का मतलब?” 

“कोई बात नहीं, यह हमारे ज़माने का न्यू नॉर्मल है। इसका सरल सा मतलब है कि दूसरी नौकरी, अक्सर अपनी पहली कंपनी की जानकारी के बिना। यह अनिवार्य रूप से आपके मुख्य रोज़गार के अलावा एक ‘साइड हसल या गिग’ है। यह प्रथा ‘गिग इकोनॉमी’ में अधिक प्रचलित हो गई, जहाँ व्यक्ति अपनी आय बढ़ाने या व्यक्तिगत हितों को आगे बढ़ाने के लिए फ्रीलांस, पार्ट-टाइम या कॉन्ट्रेक्ट काम करते हैं।”

“मुझे पता है कि आपने 'गिग इकोनॉमी' शब्द भी नहीं सुना। यह वह अर्थव्यवस्था है जहाँ शॉर्ट टर्म या अस्थायी वर्कर काम करते हैं। मतलब, ज़रूरत हो तो कर्मचारी रख लो; ज़रूरत न हो तो निकाल दो। मतलब, 'क्विक हायर एंड क्विक फायर', यह दुनिया मतलबी लोगों की है।”

“अभी तक मैंने भारत के अनेक स्थानों का भ्रमण किया, लेकिन बुंदेलखंड पहली बार। लोगों में बुंदेलखंड घूमने के लिए बहुत पॉपुलर डेस्टिनेशन नहीं है। न तो इसके बारे में सोशल मीडिया पर बहुत कुछ है और न फिल्मों में। सरकार भी बुन्देलखण्ड के पर्यटन स्थलों के लिये कुछ खास काम नहीं कर रही है।” 

कभी-कभी हिंदी सिनेमा गहरा असर डालता है। तो हुआ ऐसा कि आनन्द अपनी नई-नवेली दोस्त के साथ 'बाजीराव मस्तानी' मूवी देख रहा था। जिसमें बुंदेलखंड का ज़िक्र तो नहीं है, लेकिन बाजीराव की मस्तानी बुंदेलखंड के राजा छत्रसाल की बेटी थीं। बाजीराव मस्तानी फ़िल्म पेशवा बाजीराव प्रथम और मस्तानी के बीच के रिश्ते पर आधारित है। इस फ़िल्म को देखकर मेरी दोस्त ने आनन्द से बुंदेलखंड का इतिहास पूछा और आनन्द नहीं जानता था। घर आ कर आनन्द ने नेट पर सर्च किया और बुन्देलखण्ड के छत्रशाल के बारे में पढ़ा। 

छत्रसाल, बुंदेलखंड के एक राजा थे, जिन्होंने मुगलों के खिलाफ़ विद्रोह किया था। मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब द्वारा छत्रसाल के पिता चंपत राय की हत्या जब की गई, तब छत्रसाल की उम्र मात्र बारह साल की थी। यह एक छोटे बालक के लिए बहुत कठिन समय था, क्योंकि उनकी माँ लाल कुँवर पति के साथ सती हो गई थीं।

तब बालक छत्रसाल को मिर्ज़ा राजा जय सिंह ने अपने अधीन ले लिया। कुछ बड़े होने पर उन्हें मुग़ल सेना में शामिल कर लिया गया। उन्हें मराठा नायक छत्रपति शिवाजी के विरुद्ध लड़ने के लिए दक्कन भेजा गया। छत्रसाल को इस बात का दुःख हमेशा रहा कि उन्हें अपने पिता के हत्यारे की सेना में छत्रपति शिवाजी से लड़ना पड़ा। उनकी बहादुरी के लिए उन्हें ‘मनसब’ की उपाधि दी गई।

उन्होंने मुग़ल सेना छोड़ दी तथा शिवाजी महाराज से मिलने रायगढ़ किले में गए। उन्हें उम्मीद थी कि उन्हें मराठा सेना में काम करने को मिलेगा, लेकिन शिवाजी महाराज ने उन्हें वापस बुंदेलखंड जाकर मुगलों के विरुद्ध लड़ने की सलाह दी। जब बुंदेलखंड के दूसरे राजा-रजवाड़े मुगलों के साथ हो लिए थे, वहीं चंपत राय तथा उनके पुत्र छत्रसाल हमेशा मुगलों से गुरिल्ला युद्ध करते रहे। जब छत्रसाल बाईस साल के हुए, तब उन्होंने केवल पाँच घुड़सवार तथा पच्चीस सैनिकों के साथ मुगलों से गुरिल्ला युद्ध शुरू कर दिया। उनके बारे में एक लोक कवि ने लिखा -

“तालन में भीमताल और सब तलैयाँ | 

राजन में छत्रसाल और सब राजाइयाँ ||”

छत्रसाल ने पन्ना के गोंड सूबेदार को हराकर पन्ना के जंगलों से औरंगज़ेब के विरुद्ध युद्ध शुरू किया। पन्ना में हीरे मिलते हैं। उसके संबंध में किंवदंती है:

“छत्ता तेरे राज में, धक धक धरती होये | 

जित जित घोड़ा पग धरे, तित तित हीरा होय ||”

यहीं से उन्होंने मुग़ल किले ग्वालियर, कालपी तथा कालिंजर के किलों पर आक्रमण किए। औरंगज़ेब ने अपने इलाहाबाद के गवर्नर खान मुहम्मद बंगश को आक्रमण करने का आदेश दिया।

जब मुहम्मद बंगश ने छत्रसाल पर आक्रमण किया, तब अस्सी साल की उम्र के राजपूत राजा छत्रसाल मुगलों से घिर गए। और बाकी राजपूत राजाओं से कोई उम्मीद न थी, तो उम्मीद का एकमात्र सूर्य था बाजीराव पेशवा प्रथम। छत्रसाल ने बाजीराव से मदद माँगी और पेशवा को यह दोहा लिखकर भेजा:

"जो गति ग्राह गजेंद्र की, सो गति भई है आज। 

बाजी जात बुंदेल की, राखो बाजी लाज।।"

इसका मतलब है कि जैसे ग्राह (मगरमच्छ) के चंगुल से गजेंद्र (हाथी) को बचाने के लिए भगवान विष्णु तत्परता से आए थे, उसी प्रकार बुंदेलों की रक्षा के लिए बाजीराव से अनुरोध है। यह दोहा गजेंद्र-मोक्ष की पौराणिक कथा से प्रेरित है। कथा के अनुसार, एक हाथी गजेंद्र पानी में मगरमच्छ ग्राह द्वारा पकड़ा जाता है। वह भगवान विष्णु से प्रार्थना करता है और भगवान विष्णु उसे मगरमच्छ से बचाते हैं। बाजीराव ने बुंदेलों की रक्षा के लिए तत्परता से सहायता की, जैसे भगवान विष्णु ने गजेंद्र की रक्षा की थी।

जब पत्र  बाजीराव पेशवा को दिया गया, वह उस वक़्त खाना खा रहे थे। उनकी पत्नी ने कहा, "खाना तो खा लीजिए।" तब बाजीराव ने कहा, "अगर मुझे पहुँचने में देर हो गई तो इतिहास लिखेगा कि एक क्षत्रिय राजपूत ने मदद माँगी और ब्राह्मण भोजन करता रहा।"

ऐसा कहते हुए भोजन की थाली छोड़कर बाजीराव अपनी सेना के साथ राजा छत्रसाल की मदद को बिजली की गति से दौड़ पड़े। दस दिन की दूरी बाजीराव ने केवल पाँच सौ घोड़ों के साथ अड़तालीस घंटे में पूरी की, बिना रुके, बिना थके। ब्राह्मण योद्धा बाजीराव बुंदेलखंड आए और बंगश खान की गर्दन काटकर जब राजपूत राजा छत्रसाल के सामने गए, तब उन्होंने आभार में बाजीराव को अपनी बेटी मस्तानी से शादी और अपने राज्य का एक हिस्सा दिया था।

"छत्रसाल" नाम से दो रचनाएँ प्रसिद्ध हैं: "छत्रसाल दशक" और "छत्रप्रकाश"। "छत्रसाल दशक" भूषण की रचना है, और "छत्रप्रकाश" लाल कवि की रचना है। उन्होंने लिखा:

“महाराजा अधिपति भये, महाराजा छत्रसाल | 

राजन में राजा भये, असुरन केरे काल ||”

अब आनन्द को बुंदेलखंड के बारे में विस्तार से जानने की इच्छा हुई तो आनन्द ने अगला ट्रिप बुंदेलखंड का प्लान किया-सोलो साइकिल ट्रिप, नगर ओरछा।

ट्रिप के दौरान रहने के लिए, झाँसी रेलवे स्टेशन से ग्यारह किमी दूर स्थित एक सर्टिफाइड विलेज फ़ार्म में बुकिंग कर ली। जिसमें बगीचे के नज़ारे, मुफ़्त वाईफ़ाई, निजी पार्किंग, लाउंज एरिया, लॉन्ड्री, इस्त्री सेवाएँ, खाना, दैनिक हाउसकीपिंग, इलेक्ट्रिक केतली, रसोई, किचन, किराये पर साइकिल और डॉक्टर ऑन कॉल की सुविधा थी।

इस विलेज फ़ार्म का संचालन संजय पचौरी दंपति द्वारा किया जाता है। वे दोनों प्रकृति और पशु प्रेमी हैं और बेहतर पर्यावरण की दिशा में लगातार काम कर रहे हैं, जिसमें मनुष्य और जानवर सद्भाव और शांति से रह सकें। संजय पचौरी एक कवि, गायक, लेखक भी हैं और उन्होंने बॉलीवुड के लिए भी कुछ गाने लिखे हैं-ऐसा विवरण आनन्द ने पचौरी दंपति के बारे में नेट पर पढ़ा।

आनन्द का अटल विश्वास है कि पर्यावरण की रक्षा 'पंच-ज' सिद्धांत से की जा सकती है। अर्थव्यवस्था के केंद्र में मनुष्य को न मान कर प्रकृति को केंद्र माने तथा जल, जंगल, जमीन, जानवर तथा जन में सन्तुलन कायम करने पर आधारित अर्थव्यवस्था का विकास हो। तब स्थाई, सन्तुलित 'सर्व जान हिताय सर्व जान सुखाय' विश्व अर्थव्यवस्था का निर्माण हो सकता है। 

आनन्द धीरे-धीरे नेट पर ओरछा के बारे में पढ़ने लगा, ताकि जाने से पहले यह जान सके कि उस जगह क्या-क्या देखने लायक है। वहाँ की संस्कृति, खान-पान तथा घूमते समय क्या ध्यान रखना ज़रूरी है।

भारत में मध्य प्रदेश का एक भुला दिया गया शहर, ओरछा, जिसको अक्सर पर्यटक नेट तथा सोशल मीडिया पर 'हिडन जेम' [छिपे हुए रत्न] और 'ज़रूर देखने लायक' जगह के रूप में वर्णित करते हैं। ख़ास तौर पर इसके समृद्ध ऐतिहासिक स्थलों और अनूठी स्थापत्य शैली के लिए। यह एक सोता हुआ शहर है, जहाँ शांत वातावरण और धार्मिक तथा सांस्कृतिक आकर्षणों का मिश्रण है।

बेतवा और जामनी नदियों द्वारा निर्मित एक द्वीप पर ओरछा का स्थित होना इसके आकर्षण को बढ़ाता है, जहाँ नाव की सवारी से मनोरम दृश्य दिखाई देते हैं। आनन्द ने खुद को इस ट्रेज़र हंट का चैलेंज दिया और आ गया।

दिल्ली से शताब्दी से टिकट आनंद की बुक थी। यह ट्रेन सुबह छह बजे दिल्ली से सही समय पर चली। शताब्दी चेयर कार वाली सुपरफ़ास्ट ट्रेन है। ट्रेन में अख़बार, पानी की बोतल, नाश्ता तथा दोपहर का शाकाहारी खाना परोसा गया। खूब बड़ी-बड़ी काँच की खिड़कियों से बाहर का ख़ूब अच्छा नज़ारा देखने को मिला, क्योंकि आनंद की सीट खिड़की के पास थी। आनंद ने परदा हटा दिया।

ट्रेन के दिल्ली छोड़ते ही खेत ही खेत। फसल लहलहा रही थी। भोर का समय था, सूरज निकल रहा था। आसमान लालिमा से भर गया। पक्षियों के झुंड आसमान में उड़ रहे थे। किसान परिवार खेतों में काम कर रहे थे। भारत में सड़क पर बैलगाड़ी से लेकर लग्ज़री कार एक साथ चलते दिखना आम बात है। 

ट्रेन जिस शहर से गुज़रती, तो उस शहर के संबंध में हिंदी-अंग्रेज़ी में संक्षिप्त अनाउंसमेंट होता। शहरों की सड़कों पर भीड़ ही भीड़ थी। इस ट्रेन में अधिकांश पर्यटक ही होते हैं। शताब्दी में हर रंग तथा हर आकार के पर्यटक देखकर लगता है कि दुनिया कितनी विविधता से भरी है। ट्रेन सही समय तीन बजे झाँसी आ गई।

संजय ने फ़ार्म की लोकेशन गूगल मैप पर भेज दी थी। मैं टैक्सी लेकर शाम होते-होते फ़ार्म पर पहुँच गया। संजय वहीं मिले। मेरे मन में राहुल सांकृत्यायन की किताब में पढ़ी कविता याद आ गई:

"सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल जिंदगानी फिर कहाँ, 

ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ?"

यह आनन्द के जीवन का आदर्श वाक्य हो गया, जो जीवन दर्शन को दर्शाता है। यात्रा और ज्ञान की खोज में समर्पित। आनन्द सांकृत्यायन की तरह एक महान घुमक्कड़ बनना चाहता है।

                                                        

                                       




हरबोले

सायंकाल आनन्द अकेला बैठा था। तभी संजय आकर आनन्द के पास बैठ गए। उनका सान्निध्य आनन्द को सुखद लगा। संजय ने आनन्द से पूछा "तुम ट्रेवल क्यों करते हो ?"

आनंद ने बताया कि एक बार मुझे बेचैनी परेशान करने लगी। नींद पूरी नहीं होती थी। विचार दिमाग में दौड़ते रहते थे। तब में अपनी दोस्त की सलाह पर उसकी परचित मनोवैज्ञानिक डॉक्टर को दिखने गया। डॉक्टर ने बताया था कि जब विचार लगातार दिमाग में दौड़ते रहे तब यह केवल तनाव नहीं वल्कि एंजायटी चिंता होती है। 

तनाव जीवन की स्थितियों से आता है जबकि चिंता विचारो से।  दोनों के लक्षण एक जैसे होते है इस कारण लोग अन्तर नहीं कर पाते है। तनाव अस्थाई होता है लेकिन जब विचार नियंत्रण से बहार चले जाते है तो मानसिक सेहत बिगड़ सकती है। क्षमता से ज्यादा काम या एकाएक जिम्मेदारियां या डेडलाइन आ जाने से तनाव होता है। 

इससे में चिड़चिड़ापन, गुस्सा और उदासी महसूस करता था। दिल की धड़कन तेज हो जाती थी। मांसपेशियों में खिंचाव बड़ जाता था। जब मेरा शरीर 'फाइट और फ्लाइट' मोड में कोर्टिसोल व एड्रेनालाइन को शरीर में बड़ा देता था। तब मनोवैज्ञानिक डॉक्टर ने भ्रमण करने की सलाह दी। तब से घुम्मकड़ी मेरे जीवन का हिस्सा बन गई।” 

बातों का सिलसिला निजी विषयों से आरंभ होकर शीघ्र ही बुंदेलखंड की ओर मुड़ गया।

आनन्द ने संजय से पूछा - “मुझे ओरछा नगर की यात्रा किस के साथ करनी चाहिए।” 

संजय - “यदि तुम्हें यहाँ का इतिहास जानना हो तो किसी हरबोले के साथ नगर घूमो। वह तुम्हें ऐसी बातें बताएँगे जो न तो इतिहास की किताबों में हैं और न टूरिस्ट गाइड बता सकेंगे।”

उन्होंने आनन्द से पूछा, "क्या तुम 'बुंदेले हरबोलों' के विषय में जानते हो?" 

आनन्द ने 'ना' में सिर हिलाया ही था कि संजय ने बताया कि- 'बुंदेले' संबोधन बुंदेला राजपूतों के लिए प्रयुक्त होता है, और 'हरबोलों' का अर्थ है रणक्षेत्र में राजाओं के अग्रिम पंक्ति में चलने वाली सैन्य टुकड़ी-हरावल या हिरावल के सैनिक।

सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखित कविता, झाँसी की रानी के वे बोल मुझे स्मरण हो आए- 

“बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी। 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।”

आनन्द को अपनी कक्षा छह की हिंदी की पाठ्य पुस्तक याद आ गई, जिसमें रानी श्वेत अश्व पर आरूढ़, हाथ में तलवार लिए और उनकी पीठ पर बँधा एक छोटा बच्चा। आनन्द को अपनी माँ का स्मरण हो आया, जैसे आनन्द को उनकी पीठ पर बँधा वह छोटा बच्चा हो।

संजय ने बताया - “हरबोलों का एक और अर्थ है, ‘घूम-घूम कर’ वीरों अथवा राजाओं की गौरव गाथा का वर्णन करने वाले।"

संजय बताते है कि बुंदेलखंड लोक कथाओं, किंवदंतियों और ऐतिहासिक आख्यानों का एक अक्षय कोष है। जो बुन्देलखण्ड के वीरतापूर्ण अतीत, गहरी जड़ें जमाई परंपराओं और इसके निवासियों के समक्ष आई चुनौतियों को प्रतिबिंबित करते हैं। 

ये "बोलियाँ"-मौखिक परंपराएँ, कहावतें और कहानियाँ-केवल मनोरंजन का साधन नहीं हैं। वे सांस्कृतिक ताने-बाने का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। जो इतिहास को संरक्षित करती हैं। नैतिक शिक्षा देती हैं और नायकों का यशोगान करती हैं। यह कहानियां मुख्यरूप से बुन्देलखण्ड के वीरों की वीरता की कहानियां है।

आनन्द को संजय की बातों में रूचि आने लगी। उसने पूछा कि बुंदेलखंड के वीरों के बारे में कुछ और बतायें। रात ढल रही थी और मौसम में ठण्डक बढ़ती जा रही थी।  

संजय - “आल्हा-ऊदल की कहानी बुंदेलखंड और वस्तुतः उत्तर भारत के अधिकांश भागों में अब तक का सर्वाधिक प्रसिद्ध और व्यापक रूप से प्रचलित मौखिक महाकाव्य है।”

लोक मान्यता के अनुसार महाभारत के कौरव पांडवों का पुनर्जन्म महोबा में हुआ था। ऐसी कथा है कि महाभारत समाप्त होने पर पांडवों ने कृष्ण से कहा की लड़ाई तो जीत ली लेकिन लड़ने की अभिलाषा तो मन में ही रह गई। युद्ध में केवल भीम ने दुर्योधन समेत उसके सौ भाइयों का वध किया था। अर्जुन ने कर्ण और भीष्म पितामह को मारा था। शेष ने किसी का वध नहीं किया था। तब कृष्ण ने सभी को कलियुग में उनकी लड़ाई की अभिलाषा पूरी कराने का वचन दिया। इस कारण उन सब का जन्म कलियुग में महोबा में हुआ।”

आनन्द ने कहा -”अरे ! यह तो मजेदार बात है। ऐसा तो नहीं सुना था।” 

तब संजय ने फार्म के रास्ते की लाइट जलाते हुए आल्हा-ऊदल की रोमांचकारी कहानी की बात आगे बड़ाई- “आल्हा और ऊदल राजा परमल की सेना में सेनापति रहे दो महान योद्धा भाई थे। वे अपनी अद्वितीय बहादुरी, निष्ठा और युद्ध कौशल के लिए विख्यात। 

"बड़े लड़ैया महोबा वाले, इनकी मार सही ने जाए। 

एक को मारे दुई मर जावे, तीसरा ख़ौफ़ खाए मर जाए॥"

राजा परमाल के दरबारी कवि जगनिक द्वारा लिखे 'आल्हा खंड' में दोनों भाइयों की बावन लड़ाइयों का रोमांचकारी और वीरतापूर्ण युद्ध कृत्यों का वर्णन है। संजय और आनन्द अलाव पर हाथ सेकते हुए बात कर रहे थे। 

यह कहानी शुरू होती है  महोबा के चंदेल राज परमाल से। इस वक्त राजा परमाल ने कालिंजर से महोबा को अपने राज्य की राजधानी घोषित किया था। उसी दौरान, लगभग एक ही समय राजा परमाल के राज्य में पाँच पुत्रों का जन्म हुआ, जो आगे चलकर महोबा के पंच वीर कहलाए। 

राजा परमाल की रानी ने राजकुमार ब्रह्मकुमार को जन्म दिया। वहीं राजा परमाल के राजपुरोहित के घर पर ढेबा नाम के बालक का जन्म हुआ। यह बालक वीर होने के अतिरिक्त ज्योतिष विद्या का भी ज्ञानी था। ढेबा को परिभाषित करते हुए कहा गया है -

"मीत विपतिया के ढेबा है। 

ऐसो मीत मिलन को नाही।" 

अर्थात विपत्ति के मित्र ढेबा हैं और ढेबा जैसे मित्र आसानी से नहीं मिलते।

तिलका रानी महोबा के राजा परमाल की पत्नी, रानी मल्हना की बहन थीं। उन्हें देवला के नाम से भी जाना जाता था। तिलका मलखान नाम के पुत्र को जन्म देती हैं। कहा जाता है कि मलखान का शरीर वज्र की तरह कठोर था और युद्ध के समय वह पैर जमाकर लड़ते थे। मलखान के बारे में कहा गया है :-

"पाँव पिछाड़ी दैन न जाने, जंघा टैक लड़े मलखान।"

दक्षराज और बच्छराज, आल्हा और ऊदल के पिता और चाचा थे। वे बुंदेलखंड के बनाफर वंश के वीर योद्धा थे, जो राजा परमाल के दरबार में सेनापति थे। वे बनाफर वंश के थे, जो चंद्रवंशी क्षत्रिय वंश है। आल्हा और ऊदल ने अपने पिता और चाचा से वीरता और युद्ध कौशल की शिक्षा प्राप्त की थी। 

परमाल की सेना के ये दो वीर बहुत गहरे मित्र थे। देवला सेनापति दक्षराज की पत्नी थी। देवलदे ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम था आल्हा। आल्हा के जन्म के बाद देवला पुनः गर्भवती हुईं। उसी समय मांडोंगढ़ [वर्तमान माण्डू धार ] के बघेल राजा जमबे ने महोबा पर आक्रमण कर दिया। 

इस युद्ध में राजा जमबे ने दक्षराज और बच्छराज को कैद कर लिया। राजा जमबे ने उन दोनों को मारकर उनके सिर मांडोंगढ़ में बरगद के वृक्ष पर टाँग दिए। फिर कुछ महीनों बाद ऊदल का जन्म होता है। कहते हैं कि -

"जा दिन जनम भवा ऊदल कै, धरती धंसी अढ़ाई हाथ।" 

अर्थात जिस दिन ऊदल का जन्म हुआ, उस दिन धरती ढाई हाथ धँस गई थी।

ऊदल के जन्म से देवला प्रसन्न नहीं थीं, न ही उन्होंने ऊदल को पुत्र रूप में स्वीकार किया। इसीलिए ऊदल का पालन-पोषण परमाल की पत्नी मलहना ने किया था।

"धर्म की माता है मलहने, जो ऊदल को लियो बचाए।"

राजा परमाल ने इन पाँचों वीरों को एक साथ पढ़ाया, लिखाया और अस्त्र-शस्त्र शिक्षा प्रदान की। इनके बड़े होते-होते इनकी वीरता के चर्चे होने लगे थे। एक दिन जब परमाल सभी वीरों की प्रशंसा कर रहे थे, तब ऊदल का नाम आते ही उनका मामा माहिल ऊदल की निंदा करता है, वह कहता है -

"बाप का बैरी जो ना मारे, ओकर मांस गिद्ध ना खाए।" 

अर्थात जो पिता के शत्रु का वध नहीं करता, उसका मांस गिद्ध भी नहीं खाता। 

यदि ऊदल सच में एक शूरवीर है, तो मांडोंगढ़ जाकर उनके टंगे हुए सिर यहाँ लाए और उनका अंतिम संस्कार करे।

उसी समय वहाँ ऊदल आ जाते हैं और महाराज से पूछते हैं, "महाराज, किसके सिर और कहाँ टंगे हैं?" 

राजा परमाल इस बात को टालने का प्रयत्न करते हैं। परंतु माहिल ऊदल से कहते हैं कि ऊदल के किसी पूर्वज का सिर मांडोंगढ़ में टंगा हुआ है। फिर माहिल कहते हैं कि "पूरा सत्य ऊदल को अपनी माँ  देवला से पता चलेगा।"

ऊदल एक क्षण व्यर्थ किए बिना ही अपनी माँ  देवला के पास जाते हैं। ऊदल के बहुत पूछने के बाद  देवला उन्हें बताती हैं -

"टँगी खुपड़िया बाप चचा की, मांडोंगढ़ बरगद की डार। 

आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार- पुकार।"

ऊदल को सत्य का पता चल जाता है कि उनके पिता और चाचा के सिर मांडोंगढ़ में टंगे हैं। वह अपनी माँ देवला और अपनी धर्म माँ मलहना का आशीर्वाद लेकर मांडोंगढ़ राजा जमबे से लड़ने जाना चाहते हैं। राजा परमाल उनसे कहते हैं कि मांडोंगढ़ को भेदना आसान नहीं है और अभी तुम्हारी आयु ही क्या है? 

ऊदल राजा परमाल से कहते हैं कि क्षत्रिय की आयु अधिक होनी भी नहीं चाहिए। ऊदल कहते हैं -

"बारह बरस लौ कूकर जीवै, सोरह लौ जियै सियार। 

बरस अठारह क्षत्री जीवै, आगे जीवै को धिक्कार॥"

यह सुनकर राजा परमाल उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहते हैं- 'यदि युद्ध में पराक्रम के साथ बुद्धि का उपयोग करोगे तो तुम्हारी विजय निश्चित है।' 

उसी दिन राजा परमाल आल्हा को महोबा का सेनापति घोषित कर देते हैं और फिर उन पाँच वीरों को पाँच घोड़े देते हैं। इसके साथ ही महोबा की सेना मांडोंगढ़ की ओर चल पड़ती है। 

आनन्द ने संजय से पूछा कि मांडोंगढ़ कहा है?

संजय बताते है कि वर्तमान मध्य प्रदेश के धार जिले का माण्डू ही मांडोंगढ़ था। 

 मांडोंगढ़ में राजा जमबे के पुत्र कलिंगर से आल्हा ऊदल का युद्ध होता है। राजा जमबे का पुत्र कलिंगर आल्हा की आँखों में धूल झोंककर सीधे ऊदल पर वार करता है। उसी समय ऊदल का घोड़ा अपनी चाल बदल देता है और ऊदल के प्राण बचा लेता है। कलिंगर का भाला धरती में धँस जाता है।

"गज भर धरती चीरत - फारत , भाला धरती गया समाय। 

धन्य - धन्य है घोड़ बैदुला, जो स्वामी को लियो बचाए।"

इसके बाद ऊदल कलिंगर पर यह कहते हुए टूट पड़ा - 

"पहली वाणी में बोलत नहीं, दूजी में करते नहीं रार। 

और तीजी वाणी में छोड़त नहीं, मुँह में ठूँस देइ तलवार।"

ऊदल के पहले वार में ही कलिंगर घायल हो जाता है और युद्ध भूमि छोड़कर चला जाता है। इसके बाद ऊदल और कलिंगर के भाई सूरज में द्वंद्व युद्ध आरंभ होता है। 

"भुजा बहादुर फड़कन लागे, नाचन लगे मुच्छ के बाल। 

कट - कट मुंड गिरे खेतन में, उठ-उठ रुंड करे तकरार।"

कलिंगर पुनः ऊदल से लड़ने आता है। कलिंगर ऊदल पर वार करते-करते थक जाता है और मौका देखते ही ऊदल अपनी तलवार से कलिंगर का सर धड़ से अलग कर देते हैं। युद्ध का निर्णय उसी क्षण हो जाता है। सूरज ढलने के कारण दोनों सेनाएँ अपने शिविर में चली जाती हैं। 

अगले दिन की सुबह राजा जमबे सुरंग से भागने का प्रयत्न करता है। लेकिन ऊदल सुरंग खुलने के मार्ग पर  राजा जमबे की प्रतीक्षा कर रहे थे।  राजा जमबे को बिना कोई मौका दिए वह उसका सर काट देते हैं। युद्ध समाप्त हो जाता है और चारों ओर महोबा की सेना की जय ध्वनि बजने लगती है।”

संजय ने बताया, “प्रायः आल्हा का ढोलक और अन्य वाद्ययंत्रों के साथ गायन शैली शक्तिशाली, नाटकीय और वीर रस से ओतप्रोत होती है। इसे ऊँची आवाज़ में गाया जाता है। जो दर्शकों को घंटों तक बाँधे रख सकती है। विशेषकर मानसून के मौसम में। यह एक जीवंत इतिहास है। इसे निरंतर रूपांतरित किया जा रहा है और नित नये अर्थ वर्तमान संदर्भों से दिए जा रहे है। नये अर्थ मिलाए जाते है। जिससे यह स्थानीय समुदायों के लिए अत्यंत प्रासंगिक बन जाता है।”

आनन्द ने संजय से पूछा - “बुन्देलखण्ड का और कौन प्रसिद्ध वीर रहा है।” 

संजय - “महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड की लोककथाओं और इतिहास में एक महान व्यक्ति हैं। जिन्होंने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का प्रचंड प्रतिरोध किया।”

संजय ने आगे बताया, “छत्रसाल चंपत राय के पुत्र थे, जो एक अन्य बुंदेला सरदार थे जिन्होंने मुगलों के विरुद्ध संघर्ष किया था। अपने माता-पिता की दुखद मृत्यु के पश्चात्, छत्रसाल महान मराठा योद्धा छत्रपति शिवाजी से अत्यंत प्रेरित हुए। उनकी शिवाजी से भेंट हुई, जिन्होंने उन्हें अपनी भूमि की स्वतंत्रता के लिए लड़ने हेतु प्रोत्साहित किया।”

“गुरिल्ला युद्ध और प्रतिरोध, छत्रसाल बुंदेलखंड लौटे और एक छोटी सेना संगठित की। उन्होंने शक्तिशाली मुग़ल सेनाओं के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई, धीरे-धीरे अपने क्षेत्र का विस्तार किया और पन्ना के आस-पास अपना राज्य स्थापित किया।” 

आनन्द ने जाना छत्रसाल स्वतंत्रता, साहस और दमनकारी शासन के विरुद्ध बुंदेली भावना के प्रतीक हैं। उनकी कहानियाँ रणनीतिक प्रतिभा, अपने उद्देश्य में अटूट विश्वास और गठबंधनों के महत्व को उजागर करती हैं।

बुन्देलखण्ड की एक और वीर महिला है  झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई । इसका इतिहास बुंदेलखंड से गहराई से जुड़ा है और रानी लक्ष्मीबाई की कहानी संपूर्ण क्षेत्र में सर्वोपरि है।

संजय ने बताया - “झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई मणिकर्णिका तांबे के रूप में जन्मी, उन्होंने झाँसी के राजा गंगाधर राव से विवाह किया।”

“अपने पति की मृत्यु और ब्रिटिश साम्राज्य की 'हड़प नीति' के पश्चात् झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने राज्य को समर्पित करने से इनकार कर दिया। 1857 के भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम युद्ध के दौरान उनके प्रतिरोध ने उन्हें एक प्रतीक बना दिया।” 

कहानियाँ उनकी असाधारण बहादुरी को स्मरण कराती हैं। जहाँ वे अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को अपनी पीठ पर बाँधकर युद्ध में अश्वारोहण करती थीं। अपनी सेना का नेतृत्व करती थीं। और अंग्रेजों के विरुद्ध भीषण युद्ध लड़ी थीं। ग्वालियर के निकट उनकी वीरतापूर्ण मृत्यु पर युद्ध समाप्त हुआ था। 

उनका प्रसिद्ध कथन, "मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी" अत्यंत गहराई से प्रतिध्वनित होता है। रानी लक्ष्मीबाई साहस, देशभक्ति और विदेशी आधिपत्य के विरुद्ध प्रचंड प्रतिरोध का प्रतीक हैं। उनकी किंवदंती प्रेरणा और राष्ट्रीय गौरव का एक शक्तिशाली स्रोत है, विशेषकर बुन्देलखण्ड की महिलाओं के लिए।

संजय ने बताया - हरबोलों द्वारा गए जाने बाले गीतों में लोक कथाएँ और नैतिक कहानियां, ऐतिहासिक घटनाओं से परे बुंदेलखंड में रोज़मर्रा की लोक कथाओं की समृद्ध परंपरा है। जिनमें प्रायः नैतिक शिक्षाएँ होती हैं। सामाजिक रीति-रिवाजों को दर्शाया जाता है या फिर केवल मनोरंजन किया जाता है। ऐसी कहानियाँ जिनमें बात करने वाले जानवर होते हैं। जिनमें अक्सर मानवीय गुण होते हैं। जो ज्ञान, चालाकी, लालच या दयालुता के बारे में सबक सिखाते हैं।

ऐसी कहानियाँ जहाँ सामान्य जन अपनी बुद्धिमत्ता और चतुराई से शक्तिशाली या भ्रष्ट व्यक्तियों को मात दे देते हैं। अलौकिक प्राणियों की कहानियाँ, जो प्रायः बच्चों का मनोरंजन करने या खतरों के बारे में चेतावनी देने के लिए सुनाई जाती हैं।

रामायण महाकाव्य की अनूठी स्थानीय प्रस्तुतियाँ, कभी-कभी क्षेत्रीय विविधताओं के साथ और कुछ पात्रों या प्रसंगों पर ज़ोर देते हुए, बुंदेली सांस्कृतिक मूल्यों को दर्शाती हैं।

ये कहानियाँ अक्सर गाँवों में शाम की सभाओं के दौरान साझा की जाती हैं, सामान्यतः एक केंद्रीय स्थान पर जिसे 'अथाई' कहा जाता है। जहाँ बुजुर्ग तथा युवा पीढ़ी को ज्ञान और मनोरंजन प्राप्त होता है। गीत और कहावतें, लोकगीत और लोक सुभाषित-बोला गया शब्द ही एकमात्र माध्यम नहीं है। गीत और कहावतें बुंदेली मौखिक परंपरा में बहुत बड़ी भूमिका निभाती हैं।

संजय ने बताया, “हरबोलों द्वारा गए जाने बाले गीतों में फाग, वसंत और होली के उत्सव के गीत, जो आनंद, प्रेम और कृषि विषयों से परिपूर्ण होते हैं। वे लयबद्ध और ऊर्जावान होते हैं। राई, एक नृत्य होने के बावजूद, साथ में गाए जाने वाले गीत अक्सर कहानियाँ सुनाते हैं कभी भक्तिपरक, कभी रोमांटिक, कभी हल्के-फुल्के। कजरी, मानसून के गीत जो वर्षा से मिलने वाली राहत और खुशी को व्यक्त करते हैं। प्रकृति की उदारता का जश्न मनाते हैं। दादरे, छोटे, गीतात्मक गीत जो अक्सर प्रेम, लालसा और घरेलू जीवन के विषयों से संबंधित होते हैं।”

संजय - “हरबोलों द्वारा गए जाने बाले गीतों में बुंदेली कहावतों और मुहावरों से समृद्ध है। जो जीवन, कृषि, मानव स्वभाव और चुनौतियों के बारे में सदियों के ज्ञान, अवलोकन और अनुभव को समेटे हुए हैं। कई गाँवों में अपने स्थानीय देवता,ग्राम देवता या पूजनीय संत होते हैं और उनके चमत्कार, आशीर्वाद या ऐतिहासिक महत्व की कहानियाँ स्थानीय लोककथाओं का एक सुदृढ़ हिस्सा होती हैं।”

ये बोलियाँ स्थिर नहीं हैं। वे समय के साथ विकसित होती हैं, किंतु उनका मूल संदेश और चरित्र बुंदेलखंड की पहचान के लिए बने हुए हैं। वे एक ऐसे क्षेत्र में मौखिक परंपरा की स्थायी शक्ति का प्रमाण हैं जिसने सदियों से परिवर्तन, संघर्ष और सांस्कृतिक आदान-प्रदान देखा है। बुंदेलखंड के हरबोलों के कारण यह ख़ज़ाना आज भी बचा हुआ है। हरबोले यह सब बहुत ख़ूबसूरत तरीक़े से गाकर, नाचकर तथा प्रहसन कर सुनाते और दिखाते हैं।

किसी गाँव या कस्बे में आबादी के बीच, जब पेड़ की डाली पर कड़ाके की सर्दी के बीच बैठे, हरबोला अपनी सुमधुर बुंदेली में  ईश्वर की प्रार्थना करता, वीरता भरे दोहे व गीत सुनाता, तो तेज़ आवाज़ सुनकर गाँव भर के लोग जमा हो जाते।

चंदा एकत्र कर हरबोले की मान-मनुहार करते हुए उसे पेड़ से नीचे उतारते। हरबोले गाते रहते और लोग मानते रहते। इस पूरी प्रक्रिया में घंटों का समय लग जाता। अब बदलते परिवेश व लुप्त होती परंपरा के बीच हरबोले कभी-कभार ही नज़र आते हैं।

अब आबादी के बीच न तो पेड़ मिलते जिस पर हरबोला बैठ सके, और न ही उसे नीचे लाने के लिए लोग किसी तरह की मान-मनुहार करते हैं। हरबोला समाज के बुजुर्ग आज भी इस परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं।

"हरबोले कहाँ के निवासी हैं?" आनन्द ने उत्सुकता से पूछा।

संजय - “यह समुदाय मूलतः बुंदेलखंड इलाके में निवास करता है।”

"हरबोला" शब्द संभवतः बुंदेली लोकगीतों को संदर्भित करता है, विशेष रूप से ओरछा के महान व्यक्ति हरदौल को समर्पित गीत। ये गीत, जो अक्सर तंबूरा “एक तार वाला वाद्य” का उपयोग करके गाए जाते हैं, हरदौल ओरछा के राजकुमार थे। जो अपनी बहादुरी और भक्ति के लिए जाने जाते थे।

वे बुंदेलखंड में एक पूजनीय व्यक्ति हैं और उन्हें अक्सर स्थानीय लोकगीतों में देवता के रूप में दर्शाया जाता है। ओरछा के हरदौल से संबंधित कहानियों और किंवदंतियों का वर्णन करते हैं। गीतों में अक्सर हरदौल के जीवन, उनके वीरतापूर्ण कार्यों और उनकी अंतिम दुखद मृत्यु को दर्शाया जाता है।

आनन्द ने उनसे एक हरबोला ढूँढने का अनुरोध किया। संजय ने सुबह हमारे साथ चलकर हरबोले की तलाश करने का वादा किया। मैं खाना खाकर जल्दी सोने चला गया।

सुबह हम लोग साइकिल से नगर की ओर गए। संजय कुछ लोगों को जानते थे। मंगलवार सुबह खरला मोहल्ले में श्रीलालजी महाराज की बगीची की दीवार पर बैठकर हरबोला हुकुम सिंह अपनी सुमधुर बुंदेली भाषा में गायन कर रहे थे।

“महादेव बाबा ऐसे जो मिले रे, 

ऐसे जो मिले रे जैसे मिल गये महतारी और बाप रे, 

महादेव बाबा हो, 

महादेव बाबा बड़े रसिया रे बड़े रसिया रे, 

रानी गौरा से जोड़े बैठे गांठ रे, 

महादेव बाबा हो, 

महादेव बाबा बड़े रसिया रे, 

बड़े रसिया रे हर साल करा रये अपनो ब्याव रे, 

महादेव बाबा हो।”

हुकुम सिंह ने सफ़ेद अचकन तथा घुटनों तक उठाई हुई सफ़ेद धोती पहनी थी। सिर पर रंगीन साफा बुंदेलखंडी तरीके से बँधा था। उनके पास एकतारा वाद्य यंत्र गले में लटका था, तथा छोटे-छोटे पीतल के मजीरे हाथ में थे।

संजय ने उनसे बात की। वे हमारे साथ जाने को तैयार हो गए। संजय घर वापस चले गए और आनन्द और हुकुम सिंह दोनों अपनी-अपनी साइकिलों से ओरछा के बाज़ार आ गए।

हम लोग ब्लू स्काई रेस्तरां में बैठे। यह चतुर्भुज और राम राजा मंदिर से लगभग सौ मीटर दूर है। यह किलों और मंदिरों के आस-पास का एकमात्र रेस्तरां नहीं है, बल्कि किले और मंदिरों के आस-पास पचास से ज़्यादा रेस्तरां हैं।

डोकरा के धातु के काम, गढ़े हुए लोहे की वस्तुएँ और अन्य उपहार जैसे स्मृति चिन्ह और शोपीस ओरछा के बाज़ारों में प्रमुखता से पाए जाते हैं। इस कला रूप में आदिवासी संस्कृति और परंपरा की स्पष्ट झलक देखी जा सकती है। 

आनंद ने पूछा- “डोकरा हस्तशिल्प क्या है ?”

आस-पास हस्तशिल्प की अनेक दुकानें सजी हैं, जिनमें डोकरा हस्तशिल्प की वस्तुएँ टंगी हैं। जो अपने आप में बहुत अनूठा है, इस प्राचीन आदिवासी कला रूप अब ओरछा के बाज़ारों में बहुत लोकप्रिय है।

हुकुम सिंह - “इस प्राचीन आदिवासी कला रूप की उत्पत्ति और विकास आदिलाबाद जिले के उषा घाम नामक एक सुदूर गाँव के आदिवासी समुदाय द्वारा किया गया था। और अब यह ओरछा के बाज़ारों में बहुत लोकप्रिय है। ज़्यादातर जानवरों और पक्षियों की प्रतिकृतियां; देवी-देवताओं की आकृतियाँ बनाई गई हैं। उल्लेखित दो विशिष्ट बाज़ार हैं- विलेज बाज़ार और सिपरी बाज़ार। ये बाज़ार विभिन्न प्रकार के स्थानीय हस्तशिल्प, स्मृति चिन्ह और पारंपरिक वस्तुएँ प्रदर्शित करते हैं।

जिससे आगंतुकों को अनोखे उपहार या स्मृति चिन्ह खोजने का अवसर मिलता है।”


आनन्द ने जानना चाहा - "शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत में क्या अन्तर है?"

हुकुम सिंह ने लोक कला के बारे में बताया - “शास्त्रीय संगीत नाट्यशास्त्र में निर्धारित नियमों का पालन करता है और एक गुरु-शिष्य परंपरा से चलता है, जिसे घराना कहा जाता है। लोक परंपरा लोगों का संगीत है और इसके कोई सख्त नियम नहीं हैं। लोकगीत विविध विषयों पर आधारित होते हैं और संगीतमय ताल से भरे होते हैं। उन्हें बीट्स पर भी सेट किया जाता है ताकि वे नृत्य-उन्मुख हो सकें। बुंदेलखंड में जीवन के हर क्षेत्र से जुड़े लोकगीत तथा उन्हें गाने की विधियाँ और लोक वाद्य यंत्रों की संगीत धुनें अलग-अलग हैं।” 

हुकुम सिंह ने अपनी बुंदेली बोली में हमें बताया - “जब रेडियो, टीवी, फ़िल्में तथा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नहीं थे, तब स्थानीय समुदायों ने अपने - अपने मनोरंजन के साधनों का आविष्कार आदिकाल से किया था। आज इंटरनेट के कारण यह विविधता समाप्त हो रही है। कला का व्यापारिक पक्ष प्रमुख हो जाने के कारण 'जो बिकता है वह बनता है' की भावना से अब जुनून, पेशा बन रहा है। रचनात्मकता के मायने बदल गए हैं।”

आनन्द ने देखा मार्केटिंग करने का ठेठ देशी अंदाज़। जिसके विकास पर ओरछा वासियों को है नाज़। और हो भी क्यों न? दुकानें ख़ूब चलती हैं। यह आपको विदेश में कहीं भी देखने को नहीं मिलेगा। ख़ूब प्यार, मनुहार और क्या-सबसे सस्ता सामान। तो भाई, और क्या बच्चे की जान लोगे?

हरबोला हुकुम सिंह ने बताया - “ओरछा विभिन्न देशों से पर्यटकों को आकर्षित करता है। इनमें अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ्रांस और अन्य यूरोपीय देशों के पर्यटक शामिल हैं। इसके अलावा, थाईलैंड, चीन, इण्डोनेशिया और मलेशिया जैसे दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से भी पर्यटक ओरछा आते हैं। शहर के ऐतिहासिक स्थल, मंदिर और प्राकृतिक सुंदरता, खजुराहो जैसे अन्य लोकप्रिय स्थलों से इसकी निकटता इसे अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों के लिए आकर्षक बनाती है।”

आनन्द तथा हुकुम सिंह शीघ्र ही अच्छे मित्र बन गए। आनन्द प्रश्न पूछता और हुकुम सिंह कहानियाँ सुनाते। संजय ने सही व्यक्ति का चुनाव किया था। हमारा नाश्ता आ गया। 



टोरिया 

शुरुआत में आनन्द को लगा कि हुकुम सिंह को बातूनीपन की बीमारी है। किंतु धीरे-धीरे बातें करते-करते आनन्द को उनकी बातों तथा कहानियों में रस आने लगा। जब आप स्वयं को तलाशते हैं, तभी आपको अपनी हकीकत ज्ञात होती है। जिसे केवल आप ही बदल सकते हैं  कोई दूसरा नहीं। हुकुम सिंह ने फिर से अपनी बात एक कहानी से आरंभ की।

एक समय की बात है जब धरती पर राजाओं का शासन था। प्रत्येक राजा अपनी शक्ति व प्रतिष्ठा के लिए युद्ध करता। यह कहानी भी ऐसे ही एक साम्राज्य की है। मधुकर शाह ने अपने राज्य को आठ जागीरों में बांटकर अपने आठ पुत्रों को एक-एक जागीर दे दी। इंद्रजीत को पहले केबल कछौआ की जागीर मिली। बाद में उनके भाई राम सिंह ने उन्हें ओरछा की गद्दी भी सौंप दी। ओरछा पर राजा इंद्रजीत सिंह का शासन था। हुकुम सिंह ने  कहा कि ओरछा के राजा इंद्रजीत सिंह की कहानी बहुत रोचक तरीके से शुरू हुई थी।

राजा को वह पहला दिन याद आ रहा था जब वह पुनिया के गाँव गए थे। ऐसी ही दो ‘टोरियों’ के बीच बसा गाँव था बरंधुआ। 

आनन्द ने पूछा ‘टोरिया’ किसे कहते है?

हुकुम सिंह- “दो पहाड़ियों के बीच की संकरी जगह  जिन में छोटी पहाड़ियाँ होती हैं, जिन्हें स्थानीय लोग ‘टोरिया’ कहते हैं। ‘टोरियों’ के बीच राजाओं ने मिट्टी के बाँध बनवा दिए।  जिनसे लोग पीने का पानी लेते। जानवरों को पानी पिलाते। अपना निस्तार करते। कहीं ज़्यादा पानी होने पर खेतों में सिंचाई भी होती। 

अभी कार्तिक का महीना चल रहा था। खेतों में ज्वार तथा मूँग की पकी फ़सल खड़ी थी। कुछ खेतों में कोदो की फ़सल लहलहा रही थी। कोदो की फ़सल कुछ तामिएँ या काले जैसे रंग की होती है। जबकि ज्वार तथा मूँग की फ़सल हरी होती है। इस कारण खेत बड़े रंग-बिरंगे दिख रहे थे। जगह-जगह पानी भरा था। मेड़ों पर घास उग आने से घोड़ों को चलने में दिक्कत हो रही थी। बीच में हरी घास देखकर उनका मन ललचा जाता था।

बरंधुआ गाँव में सभी जाति के मुश्किल से चालीस घर होंगे। सभी घर कच्ची मिट्टी के थे। ऊपर मिट्टी के खपरा-कवेलू लगाकर छावन की गई थीकी गई थी। केवल मुखिया का घर चूने से बना थाकी गई थी। घर की छत भी पक्की थी। गाँव के घरों को मिट्टी तथा गोबर से लीपकर गेरू से चित्रकारी कर सजाया गया था । 

घर के फ़र्श के किनारे चूने से बाउंड्री पोतकर सफ़ेद लाइन बनाई थी। गोबर से लीपा था। कुछ घरों के सामने रांगोली बनी थी। जगह-जगह नीम, जामुन और आम के हरे-भरे पेड़ लहलहा रहे थे। घरों के बाहर खेती के औज़ार-हल, बख्खर तथा बैलगाड़ियाँ रखी थी।

कुओं से महिलाएँ पानी ढोकर ला रही थी। बच्चे गली में खेल रहे थे। कुछ लोग चबूतरों पर बैठकर धूप सेंक रहे थे। चिलम पी रहे थे। राजा कभी-कभी अपनी जनता का हाल-चाल जानने अपनी जागीर के गाँवों में जाते रहते। उनके साथ उनके सेवक तथा पीछे घोड़ों पर सिपाही चल रहे थे। एकाएक राजा ने अपने घोड़े की लगाम खींची तो घोड़ा रुक गया। घोड़ा रुकने का कारण किसी की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ? 

राजा का ख़ास सेवक रामदास दौड़कर आगे आया। 

दूर से किसी के लोकगीत गाने की आवाज आ रही थी -

“कच्ची ईंट बाबुल, देरी न धरियो,

ओ बेटी ना दियो परदेस मोरे लाल।

लाल के परदेसी मोरे लाल।

भैया जेठ बाबुल, देरी न धरियो,

ओ बेटी ना दियो परदेस मोरे लाल।

बेटी ना दियो परदेस मोरे लाल।” 

राजा इंद्रजीत ने पूछा, "ये आवाज़ सुनते हो?" रामदास अचकचा गया। 

"कौन सी आवाज़? महाराज।" 

"जो गाने की।" राजा इंद्रजीत ने आवाज़ की ओर इशारा किया। 

रामदास ने ध्यान से सुना, कोई बच्चा लोकगीत गा रहा था।

हुकुम सिंह ने बताया - बुंदेलखंड के गाँवों में यह आम बात है। जब कोई ठलुआ बैठा हो या कोई काम करता हो, चाहे महिला हो या पुरुष, सभी लोकगीत ज़रूर गाते। बुंदेलखंड की ख़ास बात यह है कि इस संस्कृति में हर अवसर के लिए अलग - अलग गीत हैं। इलाक़े के हर गाँव में गवैये, बजैया तथा लेखक मिल जाते हैं।

चाहे वे पढ़े-लिखे न हों, लेकिन अपनी विधा में बहुत पारंगत होते हैं। इस कारण लोग गाने-बजाने वालों पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते, लेकिन जब बात राजा ने की हो तो सबको ध्यान देना ही पड़ा।

हुकुम सिंह अपने बचपन की याद करते हुए बोले - यह वह वक़्त था जब गाँव के लोग आपस में हँसी - ख़ुशी से रहते थे। पहले के वक़्त में गाँवों के लोग पुलिस थाने में जाते तक नहीं थे, क्योंकि किसी के बीच किसी प्रकार न तो मतभेद होते थे और न ही लड़ाई - झगड़े। लेकिन आज के वक़्त में यह बात थोड़ी मुश्किल है। 

आज हर गाँव में विवाद, लड़ाई-झगड़े की स्थिति बनती रहती है, लेकिन अगर आपसे कहा जाए कि बुंदेलखंड अंचल में एक ऐसा गाँव है जहाँ आज भी बड़े से बड़े विवाद गाँव में ही सुलटा लिए जाते थे। 

आनन्द ने आश्चर्य से हुकुम सिंह को देखते हुए पूछा "यह 'अथाई' क्या है?"

हुकुम सिंह ने अपने नाना गांव को याद करते हुए बताया कि बुन्देलखण्ड में पटेल को 'लम्बरदार' कहते थे। यह प्रशासन तथा प्रजा के बीच की कड़ी था। जो गांव में जमीन की व्यवस्था पटवारी के साथ मिल कर करते थे। लगान वसूलने में मदद करते थे। फसल की गिरदावरी, आनाबारी  तथा फसल प्रयोग करवाते। बकाया लगान वसूलने में पटवारी की मदद करते थे। 

पटेल की मदद के लिये हर गांव में कोटवार होते है। हर गांव में एक चबूतरा होता है। जिसे 'अथाई' कहते है। इस चबूतरे के उपयोग गांव के झगड़े सुलझाने के लिए होता। जहां पंचायत बैठती। जब गांव में कोई सरकारी कर्मचारी आता वह इसी चबूतरे पर बैठते। 

‘अथाई’ के आगे से कोई जूते-चप्पल पहनकर नहीं निकलता। गाँव के सभी लोग इस चबूतरे की इज़्ज़त करते, क्योंकि इसी पर पंच परमेश्वर बैठकर फ़ैसला करते। गाँव के धार्मिक आयोजन, कथा, वार्ता, आल्हा, रामायण-महाभारत की कथा का आयोजन ‘अथाई’ पर होता।

सालों से यहाँ का कोई मामला थाने में नहीं पहुँचा था। गाँव के लंबरदार सभी झगड़ों का निराकरण गाँव की ‘अथाई’ पर करते  थे। लंबरदार के घर के आगे जामुन का पेड़ था। उसी के नीचे चबूतरा बना था। यहीं गाँव की ‘अथाई’ लगती। गाँव की संस्कृति बहुत ही निराली, बहुत ही ज़्यादा आत्मनिर्भर। 

वह किसी भी चीज़ के लिए बाहरी वस्तुओं पर ज़्यादा आश्रित नहीं होते। उनके पास जो भी सामान होता, अपनी ज़रूरतों और मुश्किलों को हल करने के लिए उसका इस्तेमाल करते। गुजारा कर लेते। 

ऐसा कहा जाता है कि अगर आप भारत में कला और संस्कृति को क़रीब से देखना या समझना चाहते हैं, तो आप को एक बार गाँवों ज़रूर जाना चाहिए। भारत में हर गाँव के पास अपनी अलग कहानी है।

राजा ने आवाज़ की दिशा में अपना घोड़ा मोड़ दिया। काफ़िला गाँव के अंदर आ गया। गाँव का मुखिया, जो अभी राजा को विदा कर अपने घर के अंदर घुसा ही रहा था, गाँव के चौकीदार की पुकार सुनकर बाहर आ गया।

राजा ने मुखिया से पूछा, "यह कौन गा रहा है?" 

मुखिया ने ध्यान से सुना और बोला, "अरे…, यह तो गाँव के लोहार की बिटिया पुनिया है, महाराज।" 

"मुझे उनके घर ले चलो," राजा  ने मुखिया को आदेश दिया। 

"वहाँ कहाँ जाएँगे महाराज," मुखिया ने हाथ जोड़कर निवेदन किया। "उनको यहीं बुलवा लेते हैं, महाराज।"

 "नहीं, वहीं चलो," राजा ने घोड़े पर बैठे-बैठे घोड़े को उस ओर बढ़ा दिया।

मुखिया व चौकीदार आगे चल रहे थे। वे लोहार के दरवाज़े के सामने रुक गए। यह बहुत ही छोटा, एक कमरे का कच्चा घर, जिसके ऊपर घास-फूस का छप्पर। घर के बाहर एक छप्पर जिसमें लोहार खेती के औज़ार बनाता। सभी किसानों के लिए हँसिया, खुरपी, कुल्हाड़ी, हल, बैलगाड़ी की धौ चढ़ाने का काम लुहार का। बैलों को बधिया करना, उनके खुरों में नाल लगाना और लड़ाई के लिये अस्त्र - शस्त्र बनाना।  

घोड़ों की टापों तथा बहुत से लोगों की आवाज़ों से अंदर लड़की ने गाना बंद कर दिया और बाहर आ गई। घर के बाहर गली में बैठा कुत्ता ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगा।

मुखिया ने कड़क आवाज़ में पूछा, "घर में और कौन है?"

 लड़की कुछ अचकचा गई। लड़की की उम्र कुछ दस साल से कम ही रही होगी। 

सकुचाते हुए बुंदेली में बोली, "कोउ नइयां। मैं अकेली हूँ।" 

"कौन गा रहा था?"  राजा ने नरम आवाज़ में पूछा। 

वह घोड़े से उतर आया था, उसके साथी भी उतर गए। 

लड़की कुछ ज़्यादा डर गई। वह घर के दरवाज़े की ओट से किवाड़ पकड़कर बोली, "मैं ही गा रही थी।"

मुखिया ने भी नरम आवाज़ कर पूछा, "तोय बाप किते है?" 

"खेत पे गए," लड़की बोली। 

और "मताई किते है?" 

"मताई नइयां।" लड़की ने बताया। 

राजा आगे बढ़कर लड़की के सामने पहुँचे और बोले, "कुछ गाकर हमें भी सुनाओ।" 

पहले तो लड़की अजनबियों को देखकर सकुचा गई। उसने अपनी ओढ़नी का सिरा दाँतों से दबा लिया। 

मगर मुखिया ने बार-बार नर्म आवाज़ में गाने का अनुरोध किया। लड़की ने निडरता से विवाह में गाने वाली गारी गाई:

“आगड़ दम बागड़ दम, 

नोन ज्यादा मिर्ची कम,

खाओ तुम और परसे हम, 

घर में से निकरे, रिपट परे जीना पे, 

जा दार बगर गई, 

दोना काये न लिआय 

जो भात बगर गओ, 

जा कड़ी बगर गई,

दोना काये न लिआय।” 

"वाह ! कितना सुन्दर गला है। बहुत अच्छा गाती हो।" राजा की यह बात सुनकर सबकी जान में जान आई। 

लड़की की समझ में कुछ नहीं आया। सब लोग लड़की की बेबाकी देखकर दंग रह गए। राजा खूब हँसने लगे। राजा के सभी साथी ज़ोर-ज़ोर से हँस-हँसकर लोटपोट हो गए। लड़की शर्मा गई। उसने अपनी आँखें नीचे कर लीं और अपने पैर के नाख़ून से ज़मीन खुरचने लगी। 

राजा ने एक ‘कल्दार’ (चाँदी का सिक्का) निकालकर लड़की की तरफ़ बढ़ाया, लेकिन उसने नहीं लिया। तब मुखिया ने बहुत नरम स्वर में कहा, "बेटा, ले लो। महाराज तोय इनाम देत हैं।" 

लड़की ने सकुचाते हुए हाथ बढ़ाया। हाथ बहुत गंदा था। राजा ने ‘कल्दार’ लड़की के हाथ पर रख दिया।

राजा ने मुखिया से कहा, "कल इसके बाप को लेकर किले पे आना।" 

"जी हजूर," मुखिया ने कहा। 

हुकुम सिंह ने राजा इंद्रजीत सिंह के काफिले के बारे में बताया कि काफ़िला जिस रास्ते आया था, उसी रास्ते वापस चला गया। सड़क कच्ची तथा आसपास के खेतों की मेड़ों से नीची होने से घोड़ों की टापों से धूल उड़ रही थी। चूँकि राजा का घोड़ा सबसे आगे था तो उसे तो धूल नहीं लग रही थी, लेकिन पीछे आ रहे सभी लोग धूल से सन गए। 

उन्होंने धूल से बचने के लिए गमछों से अपने मुँह बाँध रखे थे। दीपावली के त्योहार के कारण जगह - जगह रास्ते में मोनियों के झुंड चल रहे थे, जो घोड़ों की आवाज़ सुनकर किनारे पर खड़े होकर रास्ता दे रहे थे।

बुंदेलखंड में दिवाली के जश्न की अलग ही परंपरा है, जो पूरे तेरह दिन तक चलती है। दिवाली के अगले दिन से शुरू होकर देवउठनी एकादशी तक मौनी नृत्य और बरेदी नृत्य का आयोजन होता। 

विशेषकर यादव समाज के लोग इसे मनोकामना या मन्नत के लिए करते। दिवाली के दूसरे दिन गाँव से निकलने वाले मोनिया और जगह - जगह पर होने वाले मौनी नृत्य। 

व्रत करने वाला मोर के पंखों का मूठा लेकर घुटनों तक धोती पहने, माथे पर चंदन लगाए, पैरों में घुँघरू बाँधे नृत्य की वेशभूषा में तेज़ी से चलकर अपने गाँव की परिक्रमा करता और इसी तरह आगे बढ़ता जाता। मौनी नृत्य करने वाले ग्वाले समूह में होते। गाँव के अहीर, गड़रिया और पशुपालक तालाब, नदी में नहाकर, सज - धज। 

कौड़ियों से गुंथे लाल - पीले रंग के जांघिये और लाल - पीले रंग की कुर्ती या सलूका अथवा बनियान पहनते। जिस पर कौड़ियों से सजी झूमर लगी होती। पाँव में भी घुँघरू, हाथों में मोर पंख अथवा चाचर के दो डंडे का शस्त्र लेकर जब चलते तो एक अलग ही अहसास होता। मोनिया मौन व्रत लेते इसी कारण इन्हें मोनिया भी कहा जाता। 

शुरुआत में पाँच मोर पंख लेने पड़ते, प्रतिवर्ष पाँच-पाँच पंख जुड़ते रहते। इस प्रकार उनके मुट्ठे में बारह वर्ष में साठ मोर पंखों का जोड़ इकट्ठा हो जाता। परंपरा के अनुसार पूजन कर पूरे नगर में ढोल, नगाड़िया की थाप पर दिवारी गाते, नृत्य करते हुए अपने गंतव्य को जाते। इसमें एक गायक ही लोक परंपराओं के गीत और भजन गाता और उसी पर दल के सदस्य नृत्य करते।

मोनियों के इस निराले रूप और उनके गायन और नृत्य को देखने लोग ठहर जाते। मौन साधना के पीछे सबसे मुख्य कारण पशुओं को होने वाली पीड़ा को समझना। वे बताते कि जिस तरह किसान खेती के दौरान बैलों के साथ व्यवहार करता, उसी प्रकार प्रतिपदा के दिन मौनिया भी मौन रहकर हाव - भाव करते। वे प्यास लगने पर पानी जानवरों की तरह ही पीते। पूरे दिन कुछ भी भोजन नहीं करते।

उन्हें एक ही दिन में बारह गाँव की मेड़, 'हद' [सीमा] पैदल पार करनी होती। यह मौन व्रत बारह वर्ष तक रखना पड़ता। जहाँ से यह यात्रा शुरू करते, वहीं पर इसका समापन होता। समापन के दौरान खूब नृत्य करते और भगवान की आराधना करते।

इस नृत्य को मौनी नृत्य कहते हैं। यह बुंदेलखंड के वाद्य यंत्रों जैसे ढोलक, मंजीरा, नगाड़िया, मृदंग के बजने पर होता है। जहाँ पर नृत्य होता है, वहाँ मौजूद दूसरे लोग दिवारी गीत भी गाते हैं। दिवारी गीत और नृत्य मूलतः लोक संस्कृति के गीत हैं। यही कारण है कि इन गीतों में जीवन का यथार्थ मिलता है, फिर चाहे वह सामाजिकता हो, या धार्मिकता, अथवा श्रृंगार या जीवन का दर्शन। 

ये वे गीत हैं जिनमें सिर्फ़ जीवन की वास्तविकता के रंग, बनावटी दुनिया से दूर, सिर्फ़ चरवाही संस्कृति का प्रतिबिंब। अधिकांश गीत नीति और दर्शन के। ओज से परिपूर्ण इन गीतों में विविध रसों की अभिव्यक्ति मिलती। नृत्य को देखने वाले लोग ताल से ताल मिलाकर इनका उत्साहवर्धन करते। 

एक टोली का सरदार टेर लगाकर सुमरनी गा रहा है -

"सदा भवानी दाहिनी, सनमुख रहे गणेश। 

तीन देव रक्षा करें, ब्रह्मा, विष्णु, महेश।। 

वृंदावन बसवौ तजौ, अरे हौन लगी अनरीत। 

तनक दही के कारणे, बहिया गहत अहीर।।"

बाजे बज उठे, नृत्य शुरू हुआ, रमतूला बजने लगा। 

हुकुम सिंह का विवरण आनन्द को उसकी नानी के गांव में ले गया। बचपन की यादों का सिलसिला चल निकला। आनन्द सोचने लगा कि ग्राम्य संस्कृति कितनी उत्सव पूर्ण। हर व्यक्ति एक दूसरे से सम्बंधित होता है। जबकि शहरी संस्कृति कितनी एकाकी। एक पड़ोसी दूसरे का नाम तक नेमप्लेट देख कर ही जनता है। साथ में उत्सव मनाना तो बड़ी बात। आनन्द को अपनी बिल्डिंग का फ्लैट बहुत नीरस जान पड़ा। 

तभी हुकुम सिंह पुनः राजा इंद्रजीत की कहानी पर लौटे और बोले - “असल कहानी तब आरंभ हुई जब राजा इंद्रजीत एक दिन ग्राम भ्रमण पर निकले। राजा ऐसे ही अश्व पर सवार होकर अपने राज्य का निरीक्षण करते। राजा इंद्रजीत कई वर्षों पश्चात् इस बरंधुआ गाँव में आए थे। कई दिनों से वे राजकाज तथा मुग़ल दरबार के मामलों में उलझे हुए थे।”

राजा इंद्रजीत अपनी प्रजा का पालन अपनी संतान के समान करते थे। अपनी न्यायप्रियता व दयालुता के कारण इंद्रजीत अत्यंत लोकप्रिय थे। उनके राज्य में विद्वानों और साहित्यकारों का विशेष सम्मान था। राजा भगवान राम के परम उपासक थे।

लोहार का नाम था शंकर। लोहार जाति भारत में एक पारंपरिक कारीगर जाति है, जो लौहकर्मी और धातुकर्मी के रूप में अपने कार्य के लिए जानी जाती है। वह महल के लिए तलवारें, भाले और युद्ध के अन्य अस्त्र बनाता था। उसकी पुत्री का नाम था पुनिया, जिसे पूरे गाँव में उसकी सुंदरता, सादगी, लोकगीत गायन और लेखिका के रूप में जाना जाता था। वह केवल रूपवती ही नहीं, अपितु चतुर और साहसी भी थी।

पुनिया अपने पिता के साथ उनकी भट्टी में हाथ बँटाती। धधकती अग्नि के समक्ष भी अपने तेज और आत्मविश्वास को बनाए रखती। जब राजा इंद्रजीत कारीगरों की बस्ती से गुज़रे, तब उन्होंने पुनिया को देखा। पुनिया लोहार की भट्टी चला रही थी। वह धौंकनी से भट्टी में हवा दे रही थी।

बीच-बीच में जब लोहार गरम लाल लोहा भट्टी से निकालकर निहाई पर रखता, तब पुनिया लोहे का बड़ा हथौड़ा उठाकर लोहा पीटती। लोहार गरम लोहे को अलग - अलग दिशाओं में घुमाता।

जब इंद्रजीत की दृष्टि उस पर पड़ी, उस समय उसके एक हाथ में हथौड़ा था और दूसरे हाथ से वह अपने माथे का पसीना पोंछ रही थी। उसने घोड़े की टाप सुनकर कनखियों से, तिरछी नज़र से उस ओर देखा। तब पसीने की बूँदों पर सूर्य की किरणें हीरे-सी चमक उत्पन्न कर गईं। घोड़ा देखकर वह अनायास मुस्कुरा उठी।

सूर्य की किरणें उसके चेहरे पर पड़ रही थीं और उसके बालों की लटें हवा में लहरा रही थीं। राजा को ऐसा प्रतीत हुआ, मानो उन्होंने किसी नैसर्गिक सौंदर्य की देवी को देख लिया हो।

वह कुछ क्षण वहीं रुके, किंतु फिर आगे बढ़ गए। लेकिन उस एक झलक ने उसके भीतर कुछ बदल दिया। राजा इंद्रजीत के मुख से एक दोहा निकल पड़ा -

"वह हेरन, अरु वह हसन, वह माधुरी मुस्कान। 

वह खेचन मसान की, हिये में खटकत आन।"

राजा इंद्रजीत अपने ज्ञान, साहस, न्यायप्रियता तथा युद्ध कौशल के लिए प्रसिद्ध थे। किंतु उसकी एक दुर्बलता थी उसका - हृदय। यह हृदय किसी शत्रु से नहीं, अपितु एक साधारण लोहार की पुत्री से बँध चुका था। राजा इंद्रजीत का राज्य विशाल था। उसकी सेना अजेय मानी जाती थी। उसके दरबार में बड़े - बड़े विद्वान, कलाकार, कवि और योद्धा सुशोभित होते।

राजा इंद्रजीत के हृदय में जो अग्नि प्रज्वलित हो रही थी, वह किसी युद्ध या षड्यंत्र से अधिक प्रचंड थी। वह अग्नि थी, लोहार की पुत्री की। जिसे देखने के पश्चात् वह कभी पहले जैसे न रह सके।

हरबोला हुकुम सिंह का ऐसा वाक्य विन्यास और कहानी कहने का अद्भुत कौशल। आनन्द ने हुकुम सिंह से उनके विषय में पूछा, तो उस ने बताया “मैंने झाँसी विश्वविद्यालय से इतिहास में एम ए किया। परिवार था निर्धन, तो बचपन से ओरछा आकर पर्यटकों के साथ घूमता, कभी कुछ पैसे मिलते, तो कभी केवल भोजन।”

हुकुम सिंह बोले-  “मैंने धीरे-धीरे जाना कि लोग टूरिस्ट गाइड की अपेक्षा पारंपरिक वेशभूषा में 'हरबोला' को अधिक पसंद करते । तो मैं इसी रूप को धारण कर पर्यटकों का मनोरंजन करता हूँ।”

आनन्द बड़े ध्यान से हुकुम सिंह को सुन रहा था। हुकुम सिंह ऐसे शब्द चित्र बना रहे थे जिससे लगता था कि आप मध्यकालीन बुंदेलखंड समाज के बीच खड़े हो और कहानी के हिस्से हो। सब कुछ आपके सामने घटित हो रहा हो। दिन कब गुज़र गया, पता ही नहीं चला। कल सुबह सात बजे ब्लू स्काई रेस्तरां पर मिलने का वादा कर हम दोनों अपने - अपने ठिकानों पर चले गए।

रात को आनन्द तथा संजय ने भोजन तो अलग किया, किंतु खाने के बाद दोनों बातें करते हुए बहुत देर तक घूमते रहे। फिर आनन्द सोने चला गया। आनन्द के दिमाग में हुकुम सिंह की कहानी की नायिका की तस्वीर तैरती रही।

आनन्द ने सड़क किनारे लोहा पीटती लड़कियों के सौंदर्य को कई दफ़ा देखा था। ऐतिहासिक रूप से ‘गाड़िया लोहार’ महाराणा प्रताप की सेना के लिए हथियार और औजार बनाने का काम करते थे। जब मेवाड़ मुगलों के अधीन हो गया तो इस समुदाय ने यह शपथ ली कि जब तक मेवाड़ विदेशी शासन से मुक्त नहीं हो जाता तब तक वे स्थायी रूप से कहीं नहीं बसेंगे। इसी प्रतिज्ञा के कारण लोहार बैलगाड़ियों पर घूमते हुए अपना जीवन बिताने लगे और इसीलिए उन्हें 'गाड़िया लोहार' कहा जाने लगा। यह कुशल लोहारों का समुदाय राजस्थान से जुड़ा है।

यह समुदाय अपनी उत्कृष्ट कारीगरी और अपनी परंपराओं से जुड़े रहने के लिए जाना जाता है। आज भी, ‘गाड़िया लोहार’ समुदाय के कई लोग अपनी पारंपरिक लोहारगिरी का काम करते हैं। हालांकि आधुनिक समय में उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन, अपनी प्रतिज्ञा का अभी भी पालन कर रहे है। कहते है कि भारत के आजाद होने के बाद भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जब चितौड़गढ़ आये तब उन्होंने इस समुदाय के लोगों से स्थाई घर बना कर रहने का आग्रह किया। मगर इन्होंने अपने पूर्वजों की प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी। 

आनन्द अक्सर सोचता कि जब भगवान ने स्त्रियों को इतना असीम सौंदर्य दिया, तो फिर और अतिरिक्त सौंदर्य प्रसाधनों की आवश्यकता क्यों? केवल मार्केटिंग के कारण लड़कियों में सौंदर्य के ऐसे मानक बना दिए गए कि कितनी लड़कियां 'बॉडी शेमिंग' के दर्द से गुज़र रहीं हैं।


विरह

अगले दिन जब आनन्द प्रातः सात बजे ब्लू स्काई रेस्तरां पहुँचा, तो हुकुम सिंह को वहीं लोगों से बात करते खड़ा पाया। प्रभात के औपचारिक अभिवादन के साथ आनन्द ने नाश्ते का आदेश दिया। हुकुम सिंह ने अपनी कहानी आगे बढ़ाई।

राजा जब महल लौटे, तो उनका ध्यान कार्य में नहीं लग रहा था। दरबार में सभासद कुछ कह रहे थे, परंतु उनकी आँखों के समक्ष वही चेहरा घूम रहा था। वह पहली बार किसी स्त्री के लिए इतने विचलित हुए थे।

अगले कुछ दिनों तक राजा बार - बार किसी न किसी बहाने बरंधुआ गाँव की बस्ती में जाने लगे। कभी वे व्यापारियों से मिलने, कभी हथियारों की गुणवत्ता पर चर्चा करने के बहाने शंकर के पास पहुँचते।

शंकर गर्व के साथ अपने बनाए शस्त्र राजा को दिखाते और पुनिया एक आदर्श पुत्री की भाँति अपने पिता का सम्मान बढ़ाने के लिए राजा का सत्कार करती। छोटी उम्र से ही, यह स्पष्ट था कि पुनिया एक साधारण युवती के शांत जीवन से कहीं बढ़कर थी। 

पुनिया की आवाज़  जंगल के फूलों के अमृत की तरह मधुर थी। जो पेड़ों के पक्षियों को भी मोहित कर सकती थी। जब वह नाचती थी तो उसके कदम गिरते हुए पंख की तरह हल्के होते। फिर भी मूर्तिकार की छेनी की तरह सटीक होते। और उसका मस्तिष्क किसी भी तलवार से तीव्र और तीक्ष्ण कविताओं का खजाना था। जो एक स्पष्ट पहाड़ी झरने की तरह बहता।

पुनिया की आँखों में राजा के लिए कोई विशेष आकर्षण नहीं था। वह अपने साधारण जीवन से संतुष्ट थी। उसे कभी किसी से प्रेम नहीं हुआ। वह कल्पना में भी नहीं सोच सकती थी। राजा के मन में एक अनजानी जलन उत्पन्न होने लगी।

प्रेमी की अनुपस्थिति के कारण राजा इंद्रजीत पर गहरा मनोवैज्ञानिक और शारीरिक प्रभाव पड़ रहा था। यह उदासी से परे की बात थी और राजा राजकाज ठीक से नहीं कर पा रहे थे। राजा तीव्र भावनात्मक संकट की ओर बढ़ रहे थे।

गहरी उदासी, खालीपन और निराशा की भावना पैदा हो गई थी। प्रेमी की उपस्थिति के बिना दुनिया नीरस और आनंदहीन लग रही थी। लालसा और तड़प बढ़ रही थी। प्रेमी की उपस्थिति, स्पर्श और आवाज़ की अतृप्त इच्छा उत्पन्न हो गई थी। यह एक गहरी, दर्दनाक भावना थी जो छाती तथा पेट में शारीरिक रूप में दर्द बनकर उभर रही थी। यह वर्तमान में अप्राप्य इच्छा का एक छद्म रूप था।

प्रेमी के रिश्ते से भविष्य और अलगाव की अवधि के बारे में चिंता, घबराहट और आराम करने में असमर्थता बढ़ रही थी। इस कारण राजा इन्द्रजीत सिंह में कुंठा और चिड़चिड़ापन आ गया था। निरंतर अकेलापन और अलगाव महसूस होता रहता। दोस्तों और परिवार से घिरे होने पर भी भावनात्मक जुड़ाव गायब हो गया था।

हुकुम सिंह के इतने मार्मिक विवरण से आनन्द को अपना पहला प्यार याद हो आया। 

इन्द्रजीत सिंह ओरछा का राजा था। उसने बड़े-बड़े युद्धों में विजय प्राप्त की थी, पर एक लोहार की बेटी के मन में अपने लिए कोई स्थान नहीं बना पा रहा था। राजा इन्द्रजीत सिंह के इस विचलन को महल के कुछ खास दरबारियों ने भाँप लिया।

एक दिन राजा इन्द्रजीत सिंह के दरबारी कवि, मंत्री और गुरु केशवदास ने राजा से कहा, "महाराज! मैं देख रहा हूँ कि इन दिनों आप कुछ व्याकुल रहते हैं। क्या कोई चिंता आपको परेशान कर रही है?"

राजा इन्द्रजीत सिंह ने कुछ क्षण सोचा और फिर मुस्कुराकर बोले, "कभी-कभी मनुष्य को वह चीज़ भा जाती है जो उसके अधिकार में नहीं होती।"

राजकवि अनुभवी व्यक्ति थे। उन्होंने राजा इन्द्रजीत सिंह के हाव-भाव को पढ़ लिया और धीरे से कहा, "महाराज! राजा की इच्छाएँ सीमित नहीं होतीं। संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो सम्राट की शक्ति से परे हो।"

राजा इन्द्रजीत सिंह को केशव की बात सुनकर ऐसा लगा जैसे किसी ने उनकी भावनाओं को सही शब्द दे दिए हों। उस रात राजा ने निश्चय किया कि वह पुनिया को ओरछा लाएगा।

हुकुम सिंह यह कहानी केशव महल के सामने खड़े होकर सुना रहे थे। जहाँ आनन्द और हुकुम सिंह बातें करते - करते आ गए थे। इंद्रजीत को पहली नज़र में प्यार हो गया था। जिसे वह अक्सर अपनी कविताओं में रोमांटिक रूप में प्रस्तुत करने लगे थे। वह पहली मुलाकात में ही एक त्वरित और गहन रोमांटिक संबंध अनुभव कर रहे थे।

हुकुम सिंह ने आनन्द को बताया कि राजा इंद्रजीत को प्यार के दौरान अनुभव की जाने वाली तीव्र भावनाएँ सच्चे, गहरे बँधे हुए, दीर्घकालिक प्रेम के समान ही प्रतीत हो रही थीं।

सच्चा प्यार अंतरंगता प्रतिबद्धता और निरंतर जुनून की विशेषता था। समय के साथ यह और विकसित होता जा रहा था। वह अधिक सटीक रूप से तीव्र आकर्षण, मोह या एक शक्तिशाली भावनात्मक और शारीरिक प्रतिक्रिया है। जो दूसरे व्यक्ति को बेहतर तरीके से जानने की तीव्र इच्छा पैदा करती है।

इन्द्रजीत सिंह अकेले में सोचते रहते थे कि अगर यह सच्चा प्यार नहीं है, तो क्या हो रहा है?

हुकुम सिंह ने बताया कि प्यार में शरीर डोपामाइन रिलीज़ करता है। यह "अच्छा महसूस कराने वाला" न्यूरोट्रांसमीटर, जो इनाम और आनंद से जुड़ा है। यह मस्तिष्क में भर जाता है, जिससे उत्साह और उत्तेजना की भावना पैदा होती है। यह नशे की लत वाले पदार्थों के समान मस्तिष्क में प्रतिक्रिया करता है।

ऑक्सीटोसिन के कारण समय के साथ बंधन और लगाव बढ़ जाता है। ऑक्सीटोसिन का जल्दी स्राव एक नए व्यक्ति के साथ भी विश्वास की भावना और निकटता की इच्छा में योगदान देता है। दिलचस्प बात यह है कि तीव्र आकर्षण के शुरुआती चरणों में सेरोटोनिन का स्तर कम हो जाता है, जो नए व्यक्ति के बारे में जुनूनी विचारों को पैदा करता है।

हमारा मस्तिष्क आकर्षण के बारे में अविश्वसनीय रूप से तेज़ी से 0.13 सेकंड से भी कम समय में निर्णय लेता है। इससे 'हेलो इफ़ेक्ट' उत्पन्न होता है। उस व्यक्ति में हम अधिक सकारात्मक गुण जैसे दयालुता, बुद्धिमत्ता, भरोसेमंद देखने लगते हैं। जिन्हें हम शारीरिक रूप से आकर्षक पाते हैं। जो प्रारंभिक प्रभाव को और भी गहरा बना सकता है।

अवचेतन संकेत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। चेहरे की समरूपता, शरीर की गंध (फेरोमोन) और यहाँ तक कि सूक्ष्म अशाब्दिक संकेत जैसे कारक इस तात्कालिक आकर्षण में भूमिका निभाते हैं।आनन्द ने शायद यही सब तब अनुभव लिया था जब उसे प्यार हुआ था। 

हुकुम सिंह के ज्ञान ने आनन्द चमत्कृत कर दिया। उसने पहली नजर के प्यार की इतनी वैज्ञानिक व्याख्या की उम्मीद नहीं की थी। इसके बाद  बातों - बातों में पता चला कि हुकुम  सिंह ने रसायन शास्त्र से बीएससी सागर विश्व विद्यालय से किया था। 

रीतिकाल के जन्मदाता और बुंदेली के महान कवि जिन्हें 'कठिन काव्य का प्रेत' कहा जाता है। इंद्रजीत के मन की भाव - दशा देखकर कवि का मन भी विह्वल हो उठा।

ऐसे विचारों के साथ आनन्द और हुकुम सिंह केशव भवन के अंदर घूम रहे थे और केशव की आत्मा को महसूस कर रहे थे कि सौंदर्य के कवि कहाँ बैठकर काव्य रचना करते होंगे? 

इस महल का उचित रख - रखाव न होने के कारण मन में ख़्याल आया कि अपने कलाकारों और लेखकों की ऐसी उपेक्षा हम कब बंद करेंगे? 

कलाकार और लेखक लोग समाज का नमक होते हैं। इस सांस्कृतिक धरोहर को अगर अभी नहीं सँजोएँगे तो अगली पीढ़ी को क्या सौपेंगे? 

क्या वे हमें इस अपराध के लिए माफ़ करेंगे?

ओरछा में केशव भवन, रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि आचार्य केशवदास का निवास स्थान था। आज भी इसे केशव भवन के नाम से जाना जाता है और इसमें एक छोटा पुस्तकालय चलता है। यह भवन ओरछा में स्थित है और ऐतिहासिक और साहित्यिक महत्व रखता है। 

केशव भवन, केशवदास के साहित्यिक कार्यों का एक महत्वपूर्ण स्थल है। भवन की जर्जर हालत और उपेक्षा के कारण इसे  संरक्षण की आवश्यकता है। भवन का मेहरावदार दरवाजा, ऊपर तीन खिड़कियां हमारा स्वागत करती है। ये स्मारक हिंदू और मुगल वास्तुकला का अद्भुत मिश्रण है।

केशव भवन से बाहर जब हुकुम सिंह और आनन्द निकल रहे थे, तब हुकुम सिंह ने पुनः कहना आरंभ किया कि महाराज के लिए यह केवल प्रेम ही नहीं, अपितु अधिकार का प्रश्न भी था। दूसरी ओर पुनिया को भी आभास होने लगा था कि राजा की दृष्टि उस पर अधिक समय तक टिकने लगी है।

उसने पिता से इस बारे में कुछ कहने का विचार किया, लेकिन यह सोचकर चुप रह गई कि शायद यह सब उसका भ्रम हो। फिर एक दिन ऐसा आया जब राजा ने अपने सैनिकों को हुक्म दिया कि वे शंकर को महल में बुलाएँ।

जब शंकर राजा इन्द्रजीत सिंह के समक्ष उपस्थित हुआ, तो राजा ने उसकी कला की प्रशंसा की और उसे ओरछा में स्थायी रूप से रहने का प्रस्ताव दिया।

"तुम्हारी कारीगरी अद्भुत है, शंकर ! मैं चाहता हूँ कि तुम ओरछा में रहकर केवल मेरे लिए शस्त्र बनाओ। तुम्हें हर सुविधा मिलेगी और मैं तुम्हें सोने में तौल दूँगा।" राजा ने प्रस्ताव रखा।

"महाराज ! मैं धन के लिए काम नहीं करता। मेरी भट्टी मंदिर के समान है और मैं उसे छोड़कर कहीं नहीं जा सकता।" शंकर ने अति संकोच एवं अति विनम्रता से निवेदन किया। शंकर ने राजा के प्रस्ताव को विनम्रता से ठुकरा दिया।

राजा इन्द्रजीत सिंह को ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं थी। राजा को यह उत्तर पसंद नहीं आया। लेकिन उन्होंने क्रोध प्रकट नहीं किया। राजा ने सोचा कि अगर शंकर ओरछा में रहने को तैयार नहीं, तो क्या पुनिया भी ओरछा नहीं आएगी?

राजा इन्द्रजीत सिंह को कामयाबी न मिलती देख राजा ने अपने मित्र केशव से राय ली। केशव ने एक बाप का अपनी संतान के प्रति मोह का लाभ उठाने की सलाह दी। 

केशव दास ने कहा - "यदि आप शंकर को कहें कि पुनिया को राज संरक्षण में फूलबाग की पाठशाला में पढ़ाने की व्यवस्था कर देंगे, जिससे उसकी कला निखर सके, तो मुझे उम्मीद है कि शंकर मना नहीं कर पाएगा।"

कोई पिता बेटी के भविष्य पर अपने उसूलों के दाँव नहीं लगाएगा। राजा इन्द्रजीत सिंह ने सोचा कि यह उचित नहीं है, लेकिन दिल और दिमाग की लड़ाई कब आसान हुई है?

जैसे-जैसे शंकर की बेटी पुनिया की आयु बढ़ रही थी। शंकर की चिंताएँ उसी अनुपात में बढ़ती जा रही थीं। कहते हैं कि पुत्रियाँ पिता की अपेक्षा से भी तीव्र गति से बड़ी होती हैं। बुंदेलखंड के एक निर्धन ग्राम के पिता की चिंता। जिसकी एक रूपवती और बुद्धिमती अविवाहित पुत्री थी। 

शंकर के मन में बेटी के भविष्य को लेकर सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक दबावों का जटिल जाल था। यह चिंता का केवल एक प्रकार न होकर अपितु अनेक गहरे जड़े जमाए हुए भयों का संयोजन था।

निर्धन पिता होने के कारण शंकर के लिए सर्वाधिक तात्कालिक और भारी चिंता दहेज एवं विवाह व्यय की थी। शंकर जानता था कि बुंदेलखंड में अवैध होने पर भी, दहेज प्रथा विशेषकर ग्रामीण अंचलों में सुदृढ़ थी। एक पिता पर वधू पक्ष को पर्याप्त धन, स्वर्ण तथा गृहस्थी का सामान एकत्र करने का अत्यधिक दबाव होता है।

सुंदर और बुद्धिमती पुत्री अनेक अर्थों में संपत्ति होने पर भी भावी वर पक्षों से अधिक दहेज की माँग को बढ़ा सकती थी। क्योंकि वर पक्ष उसके गुणों को अधिक दहेज के रूप में देखते। 

दहेज के अतिरिक्त विवाह स्वयं का वृहत् वित्तीय खर्च है। ग्राम में होने वाले साधारण विवाहों में भी भोजन, सज्जा, समारोह और संबंधियों हेतु उपहारों पर काफ़ी व्यय होता है। 

ये व्यय एक निर्धन परिवार को वर्षों या पीढ़ियों तक गहन ऋण में डुबो सकते हैं। आर्थिक दुर्बलता के कारण पिता कदाचित् अपना निर्वाह भी कठिनाई से कर पाता था। इस पर भारी अपरिहार्य व्ययों की संभावना निरंतर बनी रहती थी। 

जिससे निरंतर तनाव, अनिद्रा और हताशा होती। शंकर साहूकारों से उच्च ब्याज वाले ऋण नहीं ले सकता। शंकर के पास अपनी थोड़ी सी भूमि गिरवी रखने को थी और कोई संपत्ति भी बेचने के लिए नहीं थी। 

ग्रामीण बुंदेलखंड में समाज बृहत् भूमिका निभाता है। विवाह एक सार्वजनिक विषय है। जो संपूर्ण परिवार को प्रभावित करता है। ग्राम में परिवार का सम्मान, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा इज़्ज़त (मान) पुत्री के सफल विवाह से संबद्ध होती है। यदि पुनिया निश्चित आयु के पश्चात् अविवाहित रहती अथवा कोई उपयुक्त वर नहीं मिलता, तो यह परिवार के लिए लज्जा अथवा बदनामी का कारण बनता।

"लोग क्या कहेंगे?" यह प्रश्न शंकर की चिंता का प्रबल कारण था। 

शंकर को पुत्री का उचित प्रकार से विवाह न करने पर गपशप और सामाजिक बहिष्कार का अत्यधिक भय था। जाति एवं समुदाय का दबाव भी था। सजातीय विवाह (अपनी जाति के भीतर विवाह करना) अब भी ग्रामीण बुंदेलखंड में एक दृढ़ मापदंड है। इससे विचलित होने पर गंभीर सामाजिक प्रतिक्रिया होती है। अपनी जाति के भीतर एक उपयुक्त युवक ढूँढना, जो आर्थिक रूप से स्थिर हो और सामान्य दहेज स्वीकार करने को तत्पर हो, निर्धन परिवार के लिए अविश्वसनीय रूप से कठिन है। 

पितृसत्तात्मक समाज में पुत्री को पारंपरिक रूप से दूसरे परिवार में विवाह हेतु 'पराया धन' के रूप में देखा जाता है। उसकी प्राथमिक भूमिका प्रायः उसकी वैवाहिक स्थिति से परिभाषित होती है। यह सामाजिक अपेक्षा शंकर पर भारी पड़ रही थी।

पुत्री के विवाह का दबाव आयु के साथ बढ़ रहा था। शंकर अपनी पुत्री के भविष्य को सुरक्षित करने हेतु एक गहन उत्तरदायित्व का अनुभव करता। शंकर को चिंता थी कि वह अपनी पुत्री को एक उत्तम जीवन देने के अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं कर सकता है। शंकर चाहता था कि उसकी पुत्री प्रसन्न और सुरक्षित रहे। शंकर जानता था कि उत्तम विवाह के बिना पुनिया का जीवन आर्थिक और सामाजिक दोनों दृष्टियों से अविश्वसनीय रूप से कठिन हो सकता है। 

पुनिया की बुद्धिमत्ता उसे अधिक समझदार बनाती थी। जिससे एक उपयुक्त साथी खोजने में जटिलता की एक और परत जुड़ जाती थी। शंकर पुनिया की सुरक्षा और भलाई के विषय में चिंता करता। बुन्देलखण्ड में एक अविवाहित युवती, विशेषकर रूपवती युवती, ग्रामीण परिवेश में असुरक्षित मानी जाती है। विवाह को प्रायः सुरक्षा के रूप में देखा जाता है।

शंकर की पुत्री की बुद्धिमत्ता, जो उसके लिए गर्व का स्रोत थी, पारंपरिक ग्रामीण परिवेश में विशिष्ट चिंताएँ भी ला रही थी। बुद्धिमती पुत्री को ऐसा वर ढूँढने में संघर्ष करना पड़ता है जो उसकी बुद्धि अथवा आकांक्षाओं से मेल खाता हो। 

यदि ग्राम में उपलब्ध अधिकांश युवा अल्पशिक्षित हों अथवा अधिक पारंपरिक विचार रखते हों। इससे उसकी पुत्री पुनिया विवाह से अप्रसन्न हो सकती है अथवा दबा हुआ अनुभव कर सकती है। 

कुछ रूढ़िवादी मानसिकताओं में एक अति बुद्धिमती अथवा शिक्षित वधू को नियंत्रित करना चुनौतीपूर्ण माना जाता है। जिससे वह पारंपरिक वधू की तलाश करने वाले परिवारों के लिए कम वांछनीय संयोग बन जाती है। 

यह बुंदेलखंड की दुःखद वास्तविकता है। पुनिया स्वयं अग्रिम शिक्षा की आकांक्षा रखती थी। यह बात पुनिया अनेक बार अपने पिता को बता चुकी थी।

कुछ ही दिनों में राजा इन्द्रजीत सिंह ने शंकर को द्वितीय प्रस्ताव प्रेषित किया। इस बार इन्द्रजीत सिंह ने शंकर के साथ पुनिया के लिए प्रस्ताव भेजा-

"आपकी पुत्री सर्वगुण संपन्न है। उसकी लेखन, गायन तथा नृत्य की कला को निखारने हेतु कवि केशव की फूलबाग की पाठशाला में राज्य की ओर से निवास की व्यवस्था की जा सकती है। जिससे उसकी प्रतिभा गुरुजनों के निर्देशन में विकसित हो सके। मुझे एक विशेष तलवार चाहिए, जो केवल महल की भट्टी में निर्मित करना संभव होगा, तो आप महल की भट्टी में तलवार बनाएँ।"

शंकर पुत्री पुनिया के भविष्य को दाँव पर नहीं लगाना चाहता था। शंकर भी बचपन से लेखन तथा गायन का शौक़ रखता था। परंतु बिना राज्याश्रय के कलाओं तथा कलाकारों का विकास संभव नहीं होता। शंकर जानता था कि यदि पुनिया का जीवन सुखी बनाना है, तो उसके लिए यह एक अवसर है, जो कदाचित् उसके जीवन में पुनः न आए। राजा का प्रस्ताव अस्वीकार करने योग्य नहीं था। पिता में अपनी पुत्री के भविष्य को संवारने की लालसा जागृत हो उठी।

पुनिया की माता का देहांत पुनिया को जन्म देते समय हो गया था। शंकर ने माता तथा पिता बनकर पुनिया का लालन - पालन किया था। अब तक पुनिया को उसने ही शिक्षित किया था। जब राजा का प्रस्ताव शंकर ने पुनिया को बताया, तो प्रारंभ में पुनिया ने इसका विरोध किया। परंतु उसे लोहार के कार्य में रुचि नहीं थी। वह केवल पिता का हाथ बँटाने हेतु उनकी सहायता करती थी। बचपन से ही पाठशाला में अध्ययन करने का पुनिया का मन था। पुनिया ने ओरछा जाने की स्वीकृति दे दी। शंकर ने राजा के आदेश को टालना उचित न समझा और वे दोनों ओरछा आ गए।

हुकुम सिंह की कहानी अत्यंत रोचक तथा रोमांचक होती जा रही थी। जब आनन्द ओरछा आ रहा था, तब उसे इतनी रोचक कहानी की अपेक्षा नहीं थी। आनन्द को लग रहा था कि मेरा यहाँ आने का निर्णय उचित था। आनन्द ने आगे की कहानी सुनाने का आग्रह किया। 


किस्सागोई

हुकुम सिंह की किस्सागोई का अंदाज़ अत्यंत अनूठा था। तिस पर वे शिक्षित एवं अनुभवी हरबोले थे। उनकी संवाद अदायगी तथा उनके हाव - भाव से कहानी की रोचकता निरंतर बढ़ती जा रही थी। उन्होंने कहना जारी रखा-

ओरछा नगर की उन्नत दीवारें पुनिया के मार्ग में बाधा बनकर खड़ी थीं, किंतु पुनिया का संकल्प इन प्राचीरों से कहीं अधिक सुदृढ़ था। उसे यह आशा न थी कि इस दिवस के पश्चात् उसका जीवन परिवर्तित होने वाला है।

अगले दिन राजा से भेंट हेतु महल की ओर पुनिया के चरण पिता के साथ जा रहे थे, परंतु उसका मन अंतर्द्वंद्व से घिरा था। वह भली-भाँति जानती थी कि एक साधारण लोहार की पुत्री का राजमहल में प्रवेश असंभव था। मगर पुनिया के हृदय का भय उसे रोक नहीं पा रहा था।

दिन का आलोक पुनिया के लिए पथ-प्रदर्शक बन चुका था। पुनिया अपने मुख को घूँघट से आच्छादित किए मुख्य द्वार तक पहुँची। महल के द्वार पर सघन पहरा था। सैनिकों की तीक्ष्ण दृष्टियाँ किसी भी आगंतुक को भीतर प्रविष्ट नहीं होने देती थीं।

पुनिया के पिता ने अपनी चाल धीमी की, उन्होंने अपनी श्वासों को नियंत्रित किया और हाथों से अपना घूँघट थाम लिया। पुनिया के पिता ने वहाँ खड़े सैनिक से कहा- "महाराज ने राजमहल में मिलने का आदेश दिया है। मुझे महाराज तक जाने दिया जाए।"

सैनिकों ने उन पर संशय भरी दृष्टि डाली। यह सामान्य नियम था कि कोई भी नवागंतुक सीधे महल के भीतर प्रवेश नहीं कर सकता। परंतु महल में कुछ न कुछ आयोजन निरंतर चलते रहते और लोग भीतर-बाहर आते-जाते रहते।

एक सैनिक ने पूछा- "तुम्हें किसने बुलाया है?"

शंकर ने अविचलित होकर उत्तर दिया- "महाराज ने।"

महाराज का नाम सुनते ही सैनिक सतर्क हो गए। सैनिक राजा के सर्वाधिक विश्वासपात्र थे। वे राजा की आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सकते थे।

एक सैनिक ने संदेह से परिपूर्ण होकर कहा "ठहरो! मैं भीतर जाकर पूछता हूँ।"

शंकर ने कहा "अवश्य पूछो, परंतु यदि महाराज के आदेश के पालन में विलंब हुआ तो तुम्हारा सर कलम हो सकता है।"

सैनिकों के मध्य हलचल मच गई। सभी सोच रहे थे कि कहीं यह सत्य तो नहीं। वे परस्पर फुसफुसाए और एक ने अंततः कहा "ठीक है, परंतु तुम केवल राज दरबार तक जाओगे। वहाँ से आगे बढ़ने की अनुमति नहीं है।"

पुनिया का प्रथम चरण महल के भीतर पड़ चुका था। उसने मन ही मन माँ विंध्यवासिनी का स्मरण किया। महल के भीतर एक नवीन संसार था। जगमगाते झुमके, संगमरमर की दीवारें और सैकड़ों सेवक-सेविकाएँ इधर-उधर भाग-दौड़ कर रहे थे।

पुनिया की दृष्टियाँ इधर - उधर विचरण करने लगीं। उन्हें दरबार में जाना था। तभी वहाँ एक सैनिक आया जो उन्हें दरबार में ले गया। उन दोनों ने धीमे - धीमे राजदरबार में प्रवेश किया। यह उनके जीवन का प्रथम अनुभव था। तभी चारों ओर हलचल होने लगी। राजा इंद्रजीत सिंह दरबार में आ रहे थे।

पुनिया ने अपने घूँघट से देखा राजा अपनी शाही वेशभूषा में गर्वीली चाल से आगे बढ़ रहे थे। उनके मुख पर संतोष झलक रहा था। मानो उन्हें विश्वास हो कि उनका अभिप्राय पूर्ण होने वाला है। पुनिया की मुट्ठियाँ भिंच गईं। यदि उसे जीवन में अपने लक्ष्य तक पहुँचना है तो उसे और भी जोखिम उठाने होंगे।

राजसिंहासन मध्य में स्थापित था। दोनों ओर दरबारियों के बैठने हेतु सुव्यवस्थित कुर्सियाँ लगी थीं। ऊपर छत पर चित्रकला बनी थी। रोशनदानों से प्रकाश आ रहा था। धूप की सुगंध दरबार में फैल रही थी।

उन दोनों को द्वार के समीप खड़ा किया गया। महाराज अपने आसन पर आकर विराजे। एक मंत्री ने महाराज को दोनों के आगमन की सूचना दी। उन्हें महाराज के समक्ष खड़ा किया गया।

शंकर ने झुककर महाराज का अभिवादन किया। पुनिया घबराई हुई, अस्त-व्यस्त खड़ी थी। वह एकटक महाराज को देख रही थी। पुनिया का हृदय तेज़ी से धड़क रहा था, परंतु उसकी आँखों में अत्यधिक दृढ़ता थी।

दरबार में किसी को अनुमान भी न था कि एक ग्राम की साधारण लोहार की कन्या ओरछा को विजित करने आई थी। पुनिया की श्वासें तीव्र थीं, पर आँखों में संकल्प की ज्वाला थी। उसे जीवन में सफल होना ही था, किसी भी मूल्य पर।

"लोहार की बेटी हूँ। हथौड़े के साथ-साथ मस्तिष्क भी चलाना जानती हूँ।"  मन ही मन में पुनिया ने कहा। पुनिया ने कक्ष में दृष्टि दौड़ाई। वहाँ दीवारों पर स्थान-स्थान पर चित्रकला बनी थी। कहीं-कहीं शस्त्र टाँगे गए थे। मृत - सिंह, व्याघ्र और हरिण के सिर दीवार पर सुशोभित थे।

राजा ने लोहार से पूछा- "तुम्हारी बिटिया की कितनी आयु है?"

"महाराज! इतना तो ज्ञान नहीं है, पर इतना ज्ञात है कि जिस वर्ष सूखा पड़ा था, उसी वर्ष चैत मास में यह जन्मी थी।" लोहार ने भयभीत होकर बताया।

महाराज के मंत्री ने गणना कर बताया- "पंद्रह वर्ष हो गए हैं, महाराज।"

महाराज ने पुनः पूछा- "बिटिया को गायन किसने सिखाया?"

"किसी ने नहीं महाराज, ऐसे ही घर में सुनकर सीख गई।" अब लोहार कुछ भयभीत हो गया था।

"शंकर, तुम भयभीत हो।" महाराज ने शंकर से पूछा।

"महाराज ! मैं एक साधारण मनुष्य हूँ। मुझे भेंट करने का अधिकार तो नहीं?" शंकर ने विनम्रता से कहा।

महाराज ने धीमे स्वर में कहा "कभी-कभी भाग्य हमें वहाँ ले आता है जहाँ हमारा अधिकार नहीं, हमारी आवश्यकता होती है।"

पुनिया ने प्रथम बार महाराज की आँखों में झाँका। उसे लगा जैसे वह स्वयं को देख रही हो - अकेली, भग्न परंतु जीवित। उस दिवस से दोनों के मध्य एक अनकहा संबंध निर्मित होने लगा।

महाराज ने कहा - "तुम ओरछा में निवास करो, व्यय हम वहन करेंगे, रहने, पढ़ाने तथा गायन सिखाने का खर्च उठाएँगे। तुम्हें परिवार सहित ओरछा में रहने की सुविधा होगी तथा तुम राज्य के शस्त्रागार में शस्त्र निर्माण का कार्य करना।"

हुकुम सिंह और आनन्द राजमहल के प्रांगण से चलकर उस कक्ष में आकर खड़े हुए थे, जहाँ महाराज का राजदरबार लगता था। आनन्द ने अपनी आँखें बंद कर कल्पना की कि आज इस रिक्त कक्ष की सज्जा उन दिनों कैसी होती होगी?

आनन्द और हुकुम सिंह बातें करते चलते हुए फूल बाग में आ गये। हुकुम सिंह ने एक खंडहर की ओर संकेत कर बताया कि पुनिया एक दिवस अपने पिता के साथ आकर इसी पाठशाला में प्रविष्ट हुई थी। इस पाठशाला में संगीत शिक्षण हेतु ग्वालियर से गायक आए थे। बैजनाथ, जो बैजू बावरा के नाम से विख्यात थे।

चित्रकला सीखाने हेतु नाथद्वारा के कलाकार उपस्थित थे। वहीं, कथक नृत्य सिखाने  के लिए वृंदावन की रास मंडली के संस्थापक गोस्वामी जी स्वयं आकर ओरछा में निवास करने लगे थे।

इस पाठशाला के प्रधानाचार्य स्वयं कवि केशव दास थे। केशव दास का जन्म ओरछा में हुआ था। वे जिझौतिया ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम काशीनाथ था। ओरछा के राजदरबार में उनके परिवार का अत्यधिक मान था।

केशव दास स्वयं ओरछा नरेश महाराज इंद्रजीत सिंह के दरबारी कवि, मंत्री और गुरु थे। इंद्रजीत सिंह की ओर से इन्हें इक्कीस ग्राम प्राप्त हुए थे। वे आत्मसम्मान के साथ विलासमय जीवन व्यतीत करते थे। केशवदास संस्कृत के उद्भट विद्वान थे।

उनके कुल में भी संस्कृत का ही प्रचलन था। यहाँ तक कि नौकर - चाकर भी संस्कृत बोलते। ऐसे कुल में संस्कृत त्याग कर हिंदी भाषा में कविता करना उन्हें कुछ अपमानजनक-सा लगा था। उन्होंने लिखा था-

"भाषा बोल न जानहीं, जिनके कुल के दास। 

तिन भाषा कविता करी, जड़मति केशव दास।।"

केशव बड़े भावुक और रसिक व्यक्ति थे। केशव दास द्वारा रचित ग्रंथ रसिकप्रिया, कविप्रिया, नखशिख, छंदमाला, रामचंद्रिका, वीरसिंहदेव चरित, रतनबावनी, विज्ञानगीता और जहाँगीर जसचंद्रिका हैं।

यह पाठशाला स्त्री शिक्षा का अनुपम उदाहरण थी। उस काल में जब स्त्री शिक्षा का निषेध था, तब  ओरछा में इस स्थान पर नगर की कन्याएँ प्रत्येक कला में निपुण हो रही थीं। यह पृथक् बात है कि उन्होंने अपनी इन कलाओं का प्रदर्शन सार्वजनिक रूप से कभी नहीं किया। 

यह बुन्देलखण्ड की पहली बालिका पाठशाला थी। राजघरानों में भी राजकुमारियों को नृत्य की शिक्षा दी जाती थी, परंतु वह भी स्वांतः सुखाय ही होती। महाराज ने केशवदास से कहकर सभी विधाओं में पुनिया की शिक्षा की व्यवस्था की। दोनों (पुनिया और शंकर) को रहने की व्यवस्था महल की भट्टी के समीप बनी बस्ती में की गई।

शंकर तलवार बनाने में संलग्न हो गया। वह अत्यंत कुशल कारीगर था। प्रतिदिन प्रातः शीघ्र जाना और देर रात्रि घर लौटना उसका दैनिक कार्य हो गया।

कुछ दिनों पश्चात् पुनिया फूलबाग की पाठशाला जाने लगी। कवि केशवदास ने उसकी परीक्षा ली। कुछ उसके स्वरचित लोकगीत सुने। फिर कवि ने 'गारी' गाने को कहा तो उसने अत्यधिक मस्ती में थिरक - थिरक कर सुनाया - 

"बारी में के चार बिलौटा, दो कारे दो लाल रे" 

दो तो सारे घूँघटा खोलें दो सारे पछतायँ रे। बारी...

दो तो सारे गलुआ काटें दो सारे पछतायँ रे। बारी में...

दो तो सारे बहिया मरोड़े दो सारे पछतायँ रे। बारी में…”

कवि अत्यंत प्रसन्न हुए। पुनिया की शिक्षा - दीक्षा आरंभ हुई। प्रारंभ में वह पिता के साथ रह रही थी, परंतु पिता अधिकांश समय भट्टी में कार्य करते थे। अतः कवि केशव ने पुनिया के रहने की व्यवस्था पाठशाला में अन्य विद्यार्थियों के साथ कर दी, ताकि वह अधिकाधिक समय अभ्यास में लगा सके। 

पुनिया पाठशाला में अध्ययन करती और महाराज कभी - कभी वहाँ आते। दोनों एक - दूसरे को देखते और फिर महाराज केशवदास से वार्ता कर चले जाते। परंतु यह खामोशी, ये छिपे हुए जज़्बात अधिक दिनों तक छिपे नहीं रह सके।

बुंदेलखंड में बुंदेलों का राज करीब दो सौ साल रहा। मध्य प्रदेश में बसी मध्यकालीन नगरी ओरछा जितनी खूबसूरत, उतनी ही अकेली, उतनी ही वीरान। यह आज भी वैसी ही है, जैसी तब थी जब सारे लोग उसे छोड़कर यहां से चले गए थे। मगर तब ऐसा क्या हुआ था? ये लोग यहां से इतना भव्य और शाही महल छोड़कर क्यों चले गए थे?

क्या इस महल के वीरान होने के पीछे आपसी रंजिश थी या ये किसी तांत्रिक के श्राप की कहानी थी। या मुगलों और मराठों के बीच ओरछा के राजा के संबंध खराब होने का नतीजा? या फिर राजमहल के आपसी क्लेश की वजह से ओरछा वीरान हो गया।

वीराने का नाम सुनकर खंडहरों की तस्वीर सामने आती हैं। मगर ओरछा में ऐसा नहीं है। यह जगह वीरान तो हुई, लेकिन बर्बाद नहीं हुई। दोस्ती, मोहब्बत, धोखा और बदिलान की कहानी राजमहल की दीवारें और यहां रहने वाले लोग आज भी सुनाते हैं। ये सारी बातें यहां कई बार हुई हैं।

राजमहल महाराजा रुद्र प्रताप सिंह ने बनवाना शुरू किया। मगर उनके जीवन काल में यह बनकर पूरा नहीं हो पाया था। उनके बेटे भारतीचंद ने उस राज महल को पूरा करवाने की कोशिश की। मगर वह सिर्फ उसका बाहरी हिस्सा ही बनवा पाए। फिर उनके बेटे मधुकर शाह ने महल को साल 1531 में पूरा करवाया।

राजमहल के अंदर बुंदेली चित्रकारी के नायाब नमूने देखने को मिलते हैं। अंदर रामायण की चित्रकारी की गई। कहीं राम की मूछें दिखाई गई, तो कहीं विशिष्ट चित्रकारी की गई। यह देखने में वास्तविक और सजीव लगती है। इसके साथ ही ओरछा में संगीत और नृत्य को भी बहुत बढ़ावा मिला।

स्थानीय लोग मानते हैं कि ओरछा का पतन आपसी मुठभेड़ों की वजह से हुआ। कुछ लोग कहते हैं कि किले के सुरक्षित न होने के कारण यह किला वीरान हो गया। वहीं, मुगलों और मराठों ने स्थानीय लोगों से कर लेने की कहानी भी कुछ लोग बताते हैं, जिससे लोग यहां से चले गए।

ओरछा के घने जंगल यहां के राजाओं की सुरक्षा का काम करते थे। एक समय ऐसा आ गया कि उनके इतने दुश्मन हो गए कि वही जंगल राजाओं के लिए खतरा बन गए। जंगल उनको बचा सकते थे, तो जंगल ही उनके दुश्मनों को छिपा भी सकते थे। 

राजपरिवार ओरछा छोड़कर टीकमगढ़ जा बसा क्योंकि वह जगह यहां से ज्यादा सुरक्षित थी। प्राकृतिक कारण भी ऐसे हुए कि पानी की कमी हुई और सूखा पड़ा।

मुगलों और मराठों ने भी कर में बड़ा हिस्सा लेना शुरू कर दिया। इसकी वजह से लोग आतंकित हो गए और गरीब होते चले गए। लिहाजा, लोग किसी दूसरी सुरक्षित जगह पर चले गए।

हुकुम सिंह जो कह रहे थे उसके कुछ निशान दीवारों पर दृष्टिगोचर हो रहे थे। कहीं-कहीं आज के प्रेमियों ने उनके साथ अपनी प्रेमिका का नाम दीवार पर लिख दिया था। यह कितनी मूर्खतापूर्ण क्रिया है। राजमहल की दयनीय दशा यह इंगित कर रही थी कि कभी यह इमारत भव्य थी। 'खण्डहर बताते है कि इमारत बुलद थी’ वैभव चिरस्थायी नहीं रहता।

ओरछा का भी नहीं रहा। जब ओरछा का व्यापारिक मार्ग लूटपाट में वृद्धि के कारण बाधित हो गया, तो ओरछा की समृद्धि को किसी की नज़र लग गई।

सुरक्षा कारणों से आगामी राजाओं ने राजधानी टीकमगढ़ स्थानांतरित कर दी। ओरछा खंडहर में परिवर्तित हो गया। राजदरबारी, कर्मचारी, सैनिक तथा श्रेष्ठिजन टीकमगढ़, झाँसी तथा दतिया चले गए। पीछे रह गया सन्नाटा। भग्न इमारतें।

खजाने के लालच में स्थान-स्थान पर खोदे गए कक्ष के फर्श तथा दीवारें। मूर्ति चोरों, तस्करों द्वारा निर्दयतापूर्वक उखाड़ी गई बहुमूल्य कलाकृतियों के अवशेष।

यहाँ तक कि लोगों का लालच इतना बढ़ा कि मंदिरों में पूजी जाने वाली प्रतिमाएँ भी तस्करों को उन्हीं हाथों ने विक्रय कर दीं जो हाथ उनकी पूजा करते थे। उन्हीं हिंदुओं ने विक्रय कर दीं जिनकी पूजा उनके पूर्वज श्रद्धापूर्वक करते रहे थे।

हुकुम सिंह ने अत्यंत दुखी मन से बताया कि ओरछा के रामराजा मंदिर के शिखर पर स्थापित स्वर्ण कलश चोरी हो गया। यह कलश लगभग पचास किलोग्राम स्वर्ण का था, जिसकी उस समय कीमत पंद्रह करोड़ रुपये थी। यह कलश मंदिर के बुंदेला शासकों द्वारा तीन सौ वर्ष पूर्व स्थापित किया गया था।

बुंदेलखंड मूर्ति तस्करों का स्वर्ग बन गया। नगर के खंडहरों से गुज़रते हुए आनन्द ऐसा अनुभव कर रहा था मानो इतिहास के उस कालखंड में आ गया हो जहाँ मनुष्यता की समस्त संवेदनाएँ मृत हो गई। बेतवा के सुदूर तट पर छतरियों के पार सूर्य अस्त हो रहा था।

हुकुम सिंह आनन्द को खिलाने के लिये ओरछा के जहांगीर महल होटल में ले गए। हुकुम सिंह ने बुन्देलखण्डी खाने के बारे में बताया कि दाल बाफले दाल बाटी के समान ही होते हैं, लेकिन इनमें देसी घी का अधिक उपयोग होता है, जिससे ये अधिक नरम और स्वादिष्ट बनते हैं। 

आनंद ने कहा "दाल तो समझ में आती है पर यह बाटी क्या है ?" 

हुकुम सिंह न बताया - “बाफले/बाटी गेहूं के आटे में थोड़ा बेसन, नमक, अजवाइन और पर्याप्त घी का मोयन डालकर सख्त गूंधा जाता है। इसकी छोटी-छोटी लोइयां बनाकर गोल या अंडाकार आकार दिया जाता है। इन्हें पहले उबलते पानी में उबाला जाता है जब तक ये तैरने न लगें। फिर इन्हें या तो धीमी कंडे की आंच पर सुनहरा होने तक सेका जाता है, और अंत में खूब सारे देसी घी में डुबोया जाता है।” 

दाल आमतौर पर पंचमेल दाल (पांच दालों का मिश्रण - अरहर, चना, मूंग, मसूर, उड़द) बनाई जाती है। दालों को उबालकर हल्दी, नमक और अन्य मसालों के साथ पकाया जाता है। अंत में घी, हींग, जीरा, लहसुन, प्याज, टमाटर और लाल मिर्च का जोरदार तड़का लगाया जाता है। होटल ने दाल बाफले को पूरी थाली के रूप में परोस।  जिसमें दाल, बाफले, कचरिया तली हुई सूखी सब्जी, चटनी और छाछ शामिल थे। खाना बहुत ही अलग तथा स्वादिष्ट था। 





हरदौल 

चौथे दिन आनन्द और हुकुम सिंह फूलबाग में मिले। हमेशा की तरह, उत्साह से परिपूर्ण। हुकुम सिंह अपनी चिर-परिचित मुस्कान लिए उपस्थित। उन्होंने बताया कि ग्वालियर में तोमर वंश का प्रभाव क्षीण होने पर कलाकार, साहित्यकार, गायक, नर्तक, कवि, शिल्पकार तथा विभिन्न विषयों के विद्वान ग्वालियर छोड़कर ओरछा आ गए।

बुंदेला राजा अपना नाम इतिहास में अंकित कराने हेतु लालायित थे। इस कारण इन सभी को ओरछा में राज्याश्रय सहजता से प्राप्त हो रहा था। धन-धान्य की कोई कमी न थी, लक्ष्मी माँ की कृपा थी। महाराज ने बेतवा के तट पर यह अत्यंत सुंदर फूलबाग बनवाया था। इसी में शिक्षण - प्रशिक्षण की व्यवस्था थी।

बगीचे के प्रांगण में एक दृष्टिहीन कलाकार अपना एकतारा लिए स्वरचित लोकगीत झूम-झूम कर गा रहा था। उसके समीप देशी-विदेशी दर्शकों की भारी भीड़ थी। हम दोनों भी उसे सुनने के लिए खड़े हो गए।

"गौरा सांची बताओं कैसे करवालओ, भोले बाबा से वियाओ। 

पानी की चिन्ता तुम्हें नईयाँ बैन, भोला की मूढ़ पर लगी पाइप लेन। 

खूब सपरो सपराओ, पानी बगराओ। 

लाइट की चिन्ता तुम्हें नईया बैन, भोला के माथे पे लगी लालटेन। 

चाहे पंखा चलाओ, चाहे कूलर चलाओ। 

गौरा सांची बताओं कैसे करवालओ, भोले बाबा से वियाओ। 

नौकर की चिन्ता तुम्हें नईया बैन, भुतई परितन की लगी द्वार लेन। 

चाहे झाड़ू लगाबाओ, चाहे पोछा लगबाओ, 

गौरा सांची बताओं कैसे करवालओ, भोले बाबा से वियाओ। 

वाहन की चिन्ता तुम्हें नईयाँ बैन, भोला के द्वारे बंधो दूड़ो बैल, 

चाहे खूबई दौड़ाओ, चाहे जितनो भगाओ।

गौरा सांची बताओं कैसे करवालओ, भोले बाबा से वियाओ। 

भोला की है नईया कोनऊ ड्रेस। तो कहे के काज बटन काहे की प्रेस। 

गौरा सांची बताओं कैसे करवालओ, भोले बाबा से वियाओ।"

एक - दो टूरिस्ट गाईड उनके समूह के लोगों को अपनी टूटी - फूटी भाषा में अनुवाद के साथ लोकगीत का अर्थ समझाने का असफल प्रयास कर रहे थे। लोकगीत किसी भी भाषा का हो, उसका अनुवाद असंभव है। क्योंकि वह भाव - प्रवण गीत होता है और भाव को अनुवाद से नहीं अपितु अनुभव कर समझा जाता है।

सभी लोग करतल ध्वनि कर गायक का उत्साहवर्धन कर रहे थे तथा यथोचित दान उसके कटोरे में डाल रहे थे। आनन्द भी अपना अंश डालकर आगे बढ़ गया।

फूलबाग घूमते आनन्द ने पत्थर का एक विशाल कटोरा देखा। आनन्द ने हुकुम सिंह से पूछा कि इतने बड़े कटोरे में कौन खाता था। 

तब हुकुम सिंह ने आनंद को लाला हरदौल की कहानी सुनाते हुए कहा कि यह बुंदेले राजाओं की अनोखी कहानी है। अपने परिवार की एक और घटना इंद्रजीत को हमेशा प्रेरणा देती रही है। इंद्रजीत के चाचा हरदौल मरणोपरांत अपनी बहन कुंजावती की पुत्री के विवाह में बारातियों से मिले और भात भी खाया। इसी स्मृति स्वरूप बुंदेलखंड में विवाह के अवसरों पर हरदौल को खिचड़ी चढ़ाने की प्रथा बरकरार है। हरदौल यहाँ जन-जन के देवता माने जाते हैं, जिनकी मढ़ियाँ गाँव-गाँव में हैं। विवाह का प्रथम निमंत्रण हरदौल को दिया जाता है। विवाहोपरांत इन मढ़ियों में दूल्हा-दुल्हन के हाथे लगते हैं और लोग मन्नतें मानते हैं।

ओरछा के रामराजा मंदिर परिसर में हरदौल विषपान स्थल है, जिसे बुंदेलखंडवासी श्रद्धा और भक्तिपूर्वक अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। यहीं पर हरदौल बैठका, पालकी महल, सावन-भादों स्तंभ, कटोरा, फूलबाग चौक आदि भी हैं। ओरछा किला परिसर राजपूत और मुगल स्थापत्य शैली का एक सामंजस्यपूर्ण मिश्रण है, जो जटिल शिल्प कौशल और भव्य डिज़ाइनों को प्रदर्शित करता है। किले में कई महल, मंदिर और अन्य संरचनाएँ हैं, जिनमें से प्रत्येक का अपना अनूठा आकर्षण और ऐतिहासिक महत्व है।


मैं तुम्हें बताता हूँ, ओरछा, बुंदेलखंड का वह प्राचीन राज्य जहाँ पहाड़ों की घाटियों में बुंदेले राजाओं ने अपनी वीरता और बुद्धिमत्ता से इतिहास रचा। बुंदेलखंड में ओरछा पुराना राज्य था। इसके राजा बुंदेले थे। इन बुंदेलों ने पहाड़ों की घाटियों में अपना जीवन बिताया था।

इसी ओरछा के केंद्र में, पालकी महल के पार्श्व में स्थित है फूलबाग। जिसे आज भी लोग हरदौल वाटिका के नाम से जानते हैं। यह वाटिका दीवान हरदौल की स्मृति में बनी है। उस वीर राजकुमार की याद में जिसने अपनी निर्दोषता सिद्ध करने के लिए अपने जीवन का बलिदान दे दिया। 

आनन्द ने पूछा - "उस समय ओरछा का राजा कौन था ?"

हुकुम सिंह ने बताया - “उस समय ओरछा के राजा थे जुझार सिंह, जो अपने साहस और बुद्धिमत्ता के लिए थे विख्यात। जब मुग़ल मुल्क को लुटते - पीटते ओरछा की ओर आए, तो राजा जुझार सिंह ने उनका डटकर सामना किया। 

जुझार सिंह की इस वीरता से शाहजहाँ अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने तुरंत जुझार सिंह को दक्खन का शासन - भार सौंप दिया। जिस दिन शाही दूत खिलअत और सनद लेकर आए  उस दिन ओरछा में उत्सव का माहौल था। जुझार सिंह को बड़े काम करने का अवसर मिल गया।”

राजा वीर सिंह के आठ पुत्रों में सबसे बड़े थे जुझार सिंह और सबसे छोटे हरदौल। जुझार सिंह को मुग़ल दरबार और हरदौल को ओरछा से राज्य संचालन का जिम्मा मिला। लोग जुझार सिंह को कान का कच्चा और हरदौल को ब्रह्मचारी व धार्मिक प्रवृत्ति का मानते। हरदौल की वीरता और ब्रह्मचर्य के किस्से हर बुंदेली की जुबां पर थे।

आनन्द ने पूछा "फिर ऐसा क्या हुआ कि दोनों भाइयों में झगड़ा हो गया?"

हुकुम सिंह ने रहस्य मय अन्दाज में कहा - “सोलहवीं शताब्दी के अंत में, सेनापति पहाड़ सिंह, प्रतीत राय और महिला हीरादेवी के बहकावे में आकर राजा जुझार सिंह के मन में अपने छोटे भाई हरदौल के प्रति संदेह के बीज बो दिए।” 

जब जुझार सिंह दक्खन जाने की तैयारी कर रहे थे, उन्होंने हरदौल को बुलाकर कहा, "भैया, मैं तो जाता हूँ। अब यह राज - पाट तुम्हारे सुपुर्द है। तुम भी इसे जी से प्यार करना ! न्याय ही राजा का सबसे बड़ा सहायक है। न्याय की गढ़ी में कोई शत्रु नहीं घुस सकता। तुम्हारा काम केवल न्याय ही करना न होगा, बल्कि प्रजा को अपने न्याय का विश्वास दिलाना भी होगा।" 

यह कहकर उन्होंने अपनी पगड़ी उतारकर हरदौल के सिर पर पहना दी। हरदौल रोता हुआ उनके पैरों से लिपट गया तथा आशीर्वाद लिया। 

इसके बाद जुझार सिंह रानी चंपावती से विदा लेने रनिवास आए। रानी दरवाज़े पर खड़ी रो रही थी। राजा को देखते ही उनके पैरों पर गिर पड़ी। 

जुझार सिंह ने उन्हें उठाकर छाती से लगाया और बोले, "रानी, यह रोने का समय नहीं है। बुंदेलों की स्त्रियाँ ऐसे अवसर पर रोया नहीं करतीं। मैंने राज - पाट हरदौल को सौंपा है। वह अभी लड़का है। अपनी सलाहों से उसकी मदद करती रहना।" 

रानी ने कलेजे पर पत्थर रख आँसू पी लिए और एक दर्दभरी मुस्कराहट के साथ राजा की ओर देखने लगी। आरती उतारी, तिलक किया और कमर में तरवार बांध राजा को बिदा दी। 

जुझार सिंह के चले जाने के बाद हरदौल सिंह ने राज करना शुरू किया। थोड़े ही दिनों में उनके न्याय और प्रजा - वात्सल्य ने प्रजा का मन हर लिया। लोग जुझार सिंह को भूल गए। हरदौल का कोई शत्रु न था, सब मित्र ही थे। वह इतना हँसमुख और मधुर भाषी था कि जिससे बात कर लेता, वही जीवन भर उसका भक्त बना रहता। 

ओरछा को कभी ऐसा सर्वप्रिय राजा नसीब न हुआ था। वह उदार, न्यासी, विद्या और गुण का ग्राहक था। पर सबसे बड़ा गुण उसकी वीरता। प्रजा ने उसे अपने मन का भी राजा बना लिया।

आनन्द को कहानी में मजा आ रहा था। उसने हुकुम सिंह के निकट आ कर पूछा - "यह सब कितने दिन चला ?"

हुकुम सिंह ने कहा - “लगभग एक वर्ष बीत गया। दक्खन में जुझार सिंह ने शाही दबदबा जमाया। इधर ओरछा में हरदौल ने प्रजा पर मोहन - मंत्र फूँक दिया।” 

हुकुम सिंह ने अपनी मूछों पर हाथ फिरते हुए कहा - “फाल्गुन का महीना था, अबीर-गुलाल से ज़मीन लाल हो रही थी। तभी दिल्ली का नामवर फेकैती कादिर खाँ ओरछा आया। बड़े-बड़े पहलवानों ने उसका लोहा माना था।” 

उसने होली के दिन पूरे ओरछा में सूचना दी, "खुदा का शेर दिल्ली का कादिर खाँ ओरछे आ पहुँचा है। जिसे अपनी जान प्यारी हो, आ कर अपने भाग्य का निपटारा कर ले।" यह सुनकर ओरछा के बुंदेले सूरमा गरम हो उठे।

ओरछा का अखाड़ा पहलवानों और फेकैतों का सबसे बड़ा अड्डा था। संध्या को सारे शहर के सूरमा वहाँ जमा हुए। कालदेव और भालदेव, बुंदेलों की नाक थे। सैकड़ों मैदान मारे हुए। यही दोनों पहलवान कादिर खाँ का घमंड चूर करने गए।

अगले दिन किले के सामने तालाब के किनारे बड़े मैदान में ओरछा के छोटे-बड़े सभी जमा हुए। युवा और वृद्ध सभी वीरता की बातें कर रहे थे। हरदौल ने ललकार कर कहा, "खबरदार, बुंदेलों की लाज रहे या न रहे; पर उनकी प्रतिष्ठा में बल न पड़ने पाए!"

सूर्य उदय हुआ। नगाड़े पर चोट पड़ी और कालदेव तथा कादिर खाँ शेरों की तरह अखाड़े में उतरे। तीन घंटे तक वे दोनों मल्लों की तरह लड़ते रहे। मैदान में आधी रात का-सा सन्नाटा छाया था। अचानक कादिर खाँ 'अल्लाहो-अकबर' चिल्लाया और कालदेव पर बिजली सा गिर पड़ा। कालदेव के गिरते ही बुंदेलों में का धैर्य न रहा। हजारों आदमी अखाड़े की तरफ दौड़े, पर हरदौल ने कहा, "खबरदार! अब कोई आगे न बढ़े।"

रात आई, पर बुंदेलों की आँखों में नींद कहाँ। उनके जातीय घमंड पर गहरा घाव लगा था। अगले दिन तीन लाख बुंदेले तालाब के किनारे पहुँचे। भालदेव शेर की तरह अखाड़े की तरफ चला। दिलों में धड़कन - सी थी, क्योंकि आज आशा की जगह डर घुसा हुआ था। 

भालदेव अपने भाई से फुर्तीला और तेज़ था।  उसने कई बार कादिर खाँ को नीचा दिखाया था। पर दिल्ली का पहलवान हर बार संभल जाता था। तीन घंटे तक दंगल चलता रहा। अचानक आवाज़ हुई और भालदेव जमीन पर आ गिरा। वह फिर उठ नहीं पाया। उसने दंगल ना करने  का फैसला दिया।

हताश बुंदेले अपने - अपने घरों को लौटे। हरदौल ने उन्हें तसल्ली दी, "भाइयों, हमारी हार उसी समय हो गई जब पहलवान जमीन पर आ गिरा।"

रनिवास में चंपावती ने पूछा, "लाला, आज दंगल कैसा रहा?" 

हरदौल ने सिर झुकाकर जवाब दिया, "आज भी वही कल का-सा हाल रहा।" 

चंपावती की चिंता बढ़ गई। 

हरदौल ने कहा, "हमारे पहलवानों में वैसा कोई नहीं जो उससे बाजी ले जाए। भालदेव की हार ने बुंदेलों की हिम्मत तोड़ दी। ओरछे की और बुंदेलों की लाज अब जाती है।" 

चंपावती ने पूछा, "क्या अब कोई आस नहीं है?" 

हरदौल बोले, "ओरछे में केवल एक मैं हूँ जो उससे लड़ सकता हूँ। यदि आप मुझे आशीर्वाद दे तो मैं कल उससे दंगल करूगां।"

चंपावती सोचने लगी, राजा की आज्ञा थी कि हरदौल को हर खतरे से बचा कर रखना। किसी दूसरे की परछाईं भी उस पर न पड़े। इस समय राजा की आज्ञा का उल्लंघन करना ही आज्ञा मानना था। यह सोचकर चंपावती ने हरदौल को लड़ने की इजाजत दे दी।

सवेरा होते ही यह खबर फैल गई कि राजा हरदौल कादिर खाँ से लड़ने जा रहे हैं। लोग पागलों की तरह अखाड़े की ओर दौड़े। अखाड़े में बिजलियाँ - सी चमक रही थीं। कादिर खाँ एक - एक दांव लगा रहा था और हरदौल की एक - एक काट से मनों में आनंद की लहरें उठती थीं। 

आखिर घड़ियाल ने पहला पहर बजाया और हरदौल ने घोडा पछाड़ दांव यकायक लगाया कादिर अखाड़े में चित्त गिर पड़ा।  हरदौल उसके सीने पर चढ़ कर बैठ गये। यह देखते ही बुंदेले आनंद से उन्मत्त हो गए। हरदौल की इस वीरता ने उसे हर एक बुंदेले के दिल में उच्च स्थान दिला दिया था। 

दक्षिण में जुझार सिंह ने अपनी योग्यता का परिचय दिया। जुझार सिंह सही समय, सही जगह, सही काम कर रहे थे। वे केवल लड़ाई में ही वीर न थे, बल्कि राज्य - शासन में भी अद्वितीय थे। उन्होंने अपने सुप्रबंध से दक्षिण प्रांतों को बलवान राज्य बना दिया। 

वर्ष भर के बाद बादशाह से आज्ञा लेकर वे ओरछा की तरफ चले। ओरछा की याद उन्हें सदैव बेचैन करती। राजा के लौटने का समाचार पाते ही नगर में प्रसन्नता की दुंदुभी बजने लगी।

आज रानी चंपावती ने अपने हाथों भोजन बनाया। 

दासी ने आकर कहा, "महाराज, भोजन तैयार है।" 

दोनों भाई भोजन करने गए। भूल से रानी ने सोने का थाल हरदौल के आगे और चाँदी का राजा के सामने रख दिया। हरदौल ने ध्यान न दिया, पर जुझार सिंह तिलमिला गए। वे कुछ न बोले, पर उनके तेवर बदल गए और मुँह लाल हो गया। रानी की तरफ घूरकर देखा और भोजन करने लगे। पर ग्रास विष मालूम होता था। दो - चार ग्रास खाकर उठ आए। रानी उनके तेवर देखकर डर गई।

राजा जुझार सिंह शीशमहल में लेटे। 

रानी चंपावती गहरे सोच में पड़ी थी। 

उन्होंने सोचा, 'क्या मैं उनके पास भिखारिन के भेष में जाऊँ? मैं उनसे क्षमा माँगूँगी।' 

उन्होंने अपने सारे गहने उतार दिए और रोने लगीं। भिखारिन का भेष बनाकर रानी शीशमहल की ओर चलीं। पैर आगे बढ़ते, पर मन पीछे हट जाता। 

जुझार सिंह बोले, "कौन है? चंपावती! भीतर क्यों नहीं आ जाती?"

चंपावती ने जी कड़ा करके कहा, "महाराज, कैसे आऊँ? मैं अपनी जगह क्रोध को बैठा पाती हूँ।"

राजा ने कहा, "इसका प्रायश्चित करना होगा।"

चंपावती ने पूछा, "कैसे?"

राजा बोले, "हरदौल के खून से।"

चंपावती सिर से पैर तक काँप गई। बोली, "क्या इसलिए कि आज मेरी भूल से ज्योनार [भोजन] के थालों में उलट - फेर हो गया?"

राजा का उत्तर था, "नहीं, इसलिए कि तुम्हारे प्रेम में हरदौल ने उलट - फेर कर दिया!"

रानी का मुँह लाल हो गया। क्रोध की अग्नि सद्भावों को भस्म कर देती है। रानी ने आत्मदमन की अंतिम चेष्टा से अपने को संभाला और केवल इतना बोली - "हरदौल को अपना लड़का और भाई समझती हूँ।"

राजा कुछ नर्म स्वर में बोले, "नहीं, हरदौल लड़का नहीं, लड़का मैं हूँ, जिसने तुम्हारे ऊपर विश्वास किया, स्त्री का प्रेम पानी की धार है, जिस ओर ढाल पाता है, उधर ही बह जाता है।"

चंपावती ने रोते हुए राजा से कहा "तुम्हारे इस संदेह को कैसे दूर करूँ? 

राजा ने कहा- “हरदौल के खून से।"

रानी ने पूछा, "मेरे खून से दाग न मिटेगा?"

राजा का उत्तर था, "तुम्हारे खून से और पक्का हो जाएगा।"

रानी ने फिर पूछा, "और कोई उपाय नहीं है?"

राजा ने दृढ़ता से कहा, "नहीं। यह मेरा अंतिम विचार है। देखो, तुम खीर बनाओ और उस में यह जहर मिला दो। तुम्हारे सतीत्व की परीक्षा यही है कि तुम हरदौल को इसे अपने हाथों से खिला दो। मेरे मन का भ्रम उसी समय निकलेगा जब इस घर से हरदौल की लाश निकलेगी।"

रानी ने घृणा की दृष्टि से जहर की शीशी को देखा और उलटे पैर लौट आई। 

वह सोचने लगी, 'क्या हरदौल के प्राण लूँ? 

निर्दोष, सच्चरित्र वीर हरदौल की जान से अपने सतीत्व की परीक्षा दूँ? 

यह पाप मुझसे नहीं होगा।' 

फिर उसने सोचा, 'राजा, तुम्हारा हृदय ऐसा ओछा और नीच है? 

तुम मुझसे हरदौल की जान लेने को कहते हो? 

क्यों स्वयं अपने हाथ से उसका सिर नहीं काटते और मुझसे वह काम करने को कहते हो?' 

अंततः, चंपावती के विचारों ने पलटा खाया, 'तुम्हें पाप करना ही होगा। तुम्हारे पतिव्रत पर संदेह किया जा रहा है और तुम्हें इस संदेह को मिटाना होगा।'

आधी रात को एक दासी रोती हुई हरदौल के पास गई और उसने सब समाचार अक्षरश: कह सुनाया। हरदौल राजा का ढंग देखकर पहले ही ताड़ गया था कि राजा के मन में कोई काँटा अवश्य खटक रहा है। दासी की बातों ने उसके संदेह को और भी पक्का कर दिया। उसने दासी से कड़ी मनाही कर दी कि यह बात किसी दूसरे के कानों में न पड़े और वह स्वयं मरने को तैयार हो गया।

हरदौल बुंदेलों की वीरता का सूरज था। यदि जुझार सिंह खुले मैदान उसका सामना करते तो अवश्य मुँह की खाते। परंतु उस समय एक स्त्री को उसके खून की ज़रूरत थी। उसका साहस उसके कानों में कहता था कि एक निर्दोष और सती अबला के लिए अपने शरीर का खून देने में मुँह न मोड़ो। 

'इस समय मेरा धर्म है कि अपने प्राण देकर उनके इस संदेह को दूर कर दूँ। मैं खुशी से खीर खाऊँगा। इससे बढ़ कर शूर - वीर की मृत्यु और क्या हो सकती है?'

दूसरे दिन हरदौल ने खूब सुबह स्नान किया। बदन पर अस्त्र - शस्त्र सजाकर मुस्कराता हुआ राजा के पास गया। राजा भी तुरंत उठे थे। सामने संगमरमर की चौकी पर तश्तरी में खीर का कटोरा रखा हुआ था। हरदौल का खिला हुआ मुखड़ा देखकर राजा की ईर्ष्या की आग और भी भड़क उठी। 

हरदौल ने कहा “महाराज मैं शिकार को जाता हूँ। विजय का आशीर्वाद दीजिए। खीर से मुँह मीठा कराइये।” 

जुझार सिंह ने खीर का कटोरा हाथ में उठाया। वे एक क्षण तक कुछ सोचते रहे, फिर मुस्करा कर हरदौल को खीर का कटोरा दे दिया। 

हरदौल ने सिर झुकाकर खीर का कटोरा लिया, उसे माथे पर उठाया। एक बार बड़ी ही करुणा के साथ चारों ओर देखा और फिर खीर के कटोरा को मुँह में लगा लिया लिया।

विष हलाहल था, कंठ के नीचे उतरते ही हरदौल के मुखड़े पर मुरदनी छा गई और आँखें बुझ गईं। उसने एक ठंडी साँस ली, दोनों हाथ जोड़कर जुझार सिंह को प्रणाम किया और ज़मीन पर बैठ गया। उसके ललाट पर पसीने की ठंडी-ठंडी बूँदें दिखाई दे रही थीं और साँस तेजी से चलने लगी थी; पर चेहरे पर प्रसन्नता और संतोष की झलक दिखाई देती थी। उसने कहा भैय्या भाभी निर्दोष और निष्पाप है। मेरी माँ के सामान है। 

महज तेईस साल की उम्र में हरदौल की मौत हो गई।

हरदौल के शव को बस्ती से अलग बीहड़ में दफनाया गया। उसकी मृत्यु ने ओरछा को गहरे शोक में डुबो दिया। राजा जुझार सिंह का क्रोध शांत होने के बाद, वे पश्चाताप और दुःख से भर गए, उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने अपने निर्दोष भाई के साथ कितना बड़ा अन्याय किया। हालाँकि, रानी को अपराध बोध का सबसे भारी बोझ उठाना पड़ा।

आनन्द ने पूछा- “फिर हरदौल को पुरे बुन्देलखण्ड में क्यों पूजा जाने लगा?”

हुकुम सिंह ने बड़ी शृद्धा के साथ अपना सर नवाया। हरदौल को प्रणाम कर बोले - “जुझार की बहन कुंजावती, जो दतिया के राजा रणजीत सिंह को ब्याही थी। अपनी बेटी के ब्याह में भाई जुझार से भात मांगने गई तो उसने यह कहकर दुत्कार दिया कि वह हरदौल से ज़्यादा स्नेह करती थी। श्मशान में जाकर उसी से भात माँगे। कुंजावती रोती-बिलखती हरदौल की समाधि (चबूतरा) पहुँची और मर्यादा की दुहाई देकर भात माँगा तो समाधि से आवाज आई कि वह भात लेकर आएगा।”

साल बीत गया, और रानी की बेटी की शादी होने वाली थी। बुन्देलखण्ड के मामा शादी की रस्मों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उपहार और आशीर्वाद देते हैं। लेकिन रानी का भाई, जो उसकी एकमात्र उम्मीद था, दूर था और उपस्थित होने में असमर्थ था। व्याकुल होकर, कुंजावती भाग्य पर विलाप करती रही, और चाहती थी कि उसका प्रिय भाई हरदौल वहाँ हो।

बुन्देलखण्ड के लोगों में ऐसी मान्यता है कि  हरदौल ने अपने आध्यात्मिक रूप में अपनी बहन कुंजावती की दिल से की गई विनती सुनी। शादी के दिन, जब समारोह शुरू होने वाले थे, एक चमत्कारी घटना घटी। ढोल और तुरही की आवाज़ हवा में गूंज उठी, और नश्वर आँखों से अदृश्य एक जुलूस आया। भोजन तैयार किया गया और उपहार रखे गए। कुंजावती रानी, ​​भावनाओं से अभिभूत, जानती थी कि यह हरदौल था, जो समाधि से परे अपना कर्तव्य निभा रहा था।

पास में बैठे ओरछा के ही एक अन्य बुजुर्ग सुखदेव ने आनन्द को बताया, "कुंजावती की बेटी की शादी में हुए चमत्कार के बाद आस - पास के हर गांव में ग्रामीणों ने प्रतीक के तौर पर 'हरदौल चबूतरा' का निर्माण कराया, जो गांवों में अब भी मौजूद हैं।"

“उस दिन से, राजा हरदौल को देवता के रूप में पूजा जाने लगा, खास तौर पर बुंदेलखंड में। उन्हें सम्मान के रक्षक, भाईचारे के प्रेम के प्रतीक और एक दयालु आत्मा के रूप में पूजा जाता है । जो शादियों को उनके सुचारू संचालन को सुनिश्चित करते हैं और आशीर्वाद देते हैं।” हुकुम सिंह ने अश्रु पूरित नेत्रों से बात पूरी की और शृद्धा से सिर नवाया। 

आज भी, बुंदेलखंड क्षेत्र में किसी भी शादी से पहले, राजा हरदौल को औपचारिक निमंत्रण दिया जाता है और शादी की दावत का एक हिस्सा उनके लिए अलग रखा जाता है। माना जाता है कि उनकी आत्मा मौजूद रहती, जो मिलन का आशीर्वाद देती और परिवार के सम्मान की रक्षा करती है।

आनन्द ने हुकुम सिंह के साथ कहानी सुनते - सुनते संपूर्ण परिसर का भ्रमण कर अवलोकन किया, जिसे मध्य प्रदेश शासन भली - भाँति व्यवस्थित रखता है। चारों ओर मंदिर में दर्शन करने वाले स्थानीय निवासी तथा विभिन्न देशों से आए पर्यटक उपस्थित थे। दोनों की त्वचा के भिन्न - भिन्न रंग, एक-दूसरे को आश्चर्यचकित होकर आँखें फाड़कर देख रहे थे।

जहाँ एक ओर चाँदी के भारी आभूषण, भिन्न - भिन्न चटख रंगों की साड़ी पहने, घूँघट से मुख ढकी स्त्रियाँ थीं, तो दूसरी ओर हाफ़ पेंट तथा ब्रा और दुपट्टे रहित टी - शर्ट पहने विदेशी महिलाएँ। वे सभी पुरुषों के लिए किसी दूसरे ग्रह से आए जीव प्रतीत होते थे।



कविप्रिया 

हुकुम सिंह और आनन्द ने फूलबाग में बैठकर साथ लाया भोजन ग्रहण किया। आज हुकुम सिंह बुन्देलखण्डी भोजन अपने घर से बनवा कर साथ लाये थे। 

आनन्द के मन में अभी भी हरदौल की कहानी गुज रही थी। लेकिन उन्हें पुनिया की कहानी भी आकर्षित कर रही थी। उन्होंने हुकुम सिंह से राजा इंद्रजीत से सम्बन्ध में पूछा। 

कुछ देर बाद हुकुम सिंह ने राजा इंद्रजीत के बारे में बताना शुरू किया - “समय-समय पर राजा पाठशाला आते और पुनिया से कुछ सुनाने का आग्रह करते। यद्यपि, वह राजा के अभिप्राय से अनभिज्ञ नहीं थी। उसे यह भी विश्वास था कि उसके पिता शीघ्र ही गाँव लौट सकेंगे। पाठशाला में कानाफूसी होने लगी थी।”

जैसे-जैसे समय व्यतीत होने लगा पुनिया का मन पाठशाला में रमने लगा। पुनिया को यह समझने में देर न लगी कि राजा ने उसके पिता से उसे पृथक करने के लिए ही ओरछा बुलाया है। अब प्रश्न यह था कि पुनिया क्या करे? इधर पुनिया की कलाओं का अभ्यास अत्यंत बढ़ गया था। उधर उसे यह ज्ञात न था कि भविष्य में क्या घटित होगा?

पुनिया के पिता शंकर को भिन्न-भिन्न कार्य दिए जा रहे थे। पुनिया ने अपना मन अध्ययन में लगाया। पुनिया जानती थी कि राजा से टकराव का अर्थ है मृत्यु, परंतु इससे उसे कोई भय न था। गाँव के लोहार की निर्धन पुत्री होने पर भी उसमें वह साहस था जो बड़े-बड़े योद्धाओं में भी नहीं होता।

पुनिया से उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं करवाया जा सकता। ओरछा के महल में वर्ष भर अनेक त्योहार मनाए जाते। इनमें फूलबाग की पाठशाला के विद्यार्थी बढ़ - चढ़कर भाग लेते थे।

पुनिया अपने गुरुओं के निर्देशन में इन सभी गतिविधियों में भाग लेती तथा सबकी प्रशंसा प्राप्त कर प्रसन्न होती। इन क्रियाकलापों से उसके गुणों का खूब उत्कर्ष हुआ। पुनिया को लोकगीत लेखन, कवित्त लेखन तथा समस्त बुंदेली साहित्य से परिचित कराया गया।

आनन्द ने पूछा - "बुन्देलखण्ड में किस तरह के लोक गीत गाये जाते है ?"

हुकुम सिंह ने अपने ज्ञान के खजाने को टटोलते हुए कहा- “इसमें लोकगीत आल्हा, गारी, रावला, ढिमरयाई, कछयाई, धोबयाई, लेद, राई, लमटेरा, दादरा, मुदन्ना, कार्तिक, सोहर, दिवारी, बनरा, बिलवारी, फाग, होरी, चैती, धूनी भजन, कजरी, मल्हार, शैर, तमूरा भजन, रसिया, बधाई, लावनी, ख्याल, गैलहाई, राछरों, पाई, मनौवा, बुलौआ, टांकोरि, रेखता, मतवारी, निहोरा, मधुरला, सहाना, गौरी, झूलना, हँसौंवा, बारहमासी, लांगुरिया, अटका, अकती, लिमड़ी, अछरी, दिनरी, दुलरी, गोट, पौंडवा, जिकड़ी, मड़वा, चीकट उतराई, मैर पूजा, हल्दी, माटी पूजन, बन्ना, बन्नी, भावर, चढाव, कुँवर कलेवा, बधाई, बिदाई, कुआँ पूजन, गोद भराई, जनम गीत प्रमुख है।”

पुनिया अत्यंत लगन से सब कुछ सीखती थी। महाराज समय - समय पर आकर पुनिया का गायन सुनते। पुनिया की पढ़ाई, लिखाई, नृत्य तथा गायन की परीक्षा लेते। महाराज की कृपापात्र होने के कारण सभी गुरुजन भी उस पर विशेष ध्यान देते।

बुंदेलखंड के प्रमुख लोक नृत्य राई नृत्य, सेरा नृत्य, कछियाई नृत्य, मोनिया नृत्य हैं। यहाँ के लोकप्रिय नृत्य कबीर पंथी, जुगिया नृत्य, जबारा नृत्य, रावला नृत्य, ढोला मारु नृत्य, दिलदिल घोड़ी नृत्य, सपेरा नृत्य हैं। पुनिया को इन सभी की विधिवत शिक्षा दी गई। 

पुनिया ने महाराज को एक दिन राई नित्य करके दिखाया। राई नृत्य बुंदेलखंड क्षेत्र के सबसे प्रमुख और ऊर्जावान लोक नृत्यों में से एक है। यह एक आकर्षक प्रदर्शन है जो खुशी, उत्सव और समुदाय की भावना को दर्शाता है। जिसे अक्सर त्योहारों, शादियों, बच्चे के जन्म और अच्छी फसल जैसे शुभ अवसरों पर किया जाता है।

पुनिया के साथ अन्य महिला नर्तकियाँ जीवंत बेड़नी जैसी लग रही थी। उन्होंने  विस्तृत पारंपरिक बुंदेली पोशाक पहनी थी। जिनमें सबसे खास है "नव गज लहंगा" (एक लंबी, घुमावदार स्कर्ट जो दस  से बारह मीटर लंबी हो सकती है)। ये लहंगे, जो अक्सर चमकीले गुलाबी, पीले, हरे और नीले रंग के होते हैं, नर्तकियों के मुड़ने और घूमने के दौरान आश्चर्यजनक दृश्य पैटर्न बनाते हैं। पुनिया ने खुद को "बेंदा", "टिकुली", "करधनी" और "पैंजना" जैसे भारी पारंपरिक गहनों से सजाया था। घूंघट  उनकी पोशाक का एक अनिवार्य हिस्सा था। जो शालीनता का प्रतीक और नृत्य के सौंदर्य आकर्षण को बढ़ाता है।

उस दिन नृत्य के समय पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्रों, मुख्य रूप से नगारा (एक बड़ा ढोल) और ढोलक (एक छोटा ढोल) की लयबद्ध धड़कनों पर नृत्य किया गया था।  प्रदर्शन के समय बजने वाले अन्य वाद्ययंत्रों में झीका, रमतूला, मंजीरा, हारमोनियम और ढपली शामिल थे। 

तेज गति से बजने वाले ढोल की थाप और नर्तकों के जटिल कदमों के बीच प्रतिस्पर्धा हुई, जिसमें पुनिया नृत्य को एक आनंदमय और ऊर्जावान चरमोत्कर्ष की ओर ले गई थी। उस दिन सब का खूब मनोरंजन हुआ। यह नृत्य उस उत्सव का सर्वोत्कृष्ट नृत्य था। 

राई शब्द सुनकर आनन्द के मन में उत्सुकता जगी कि  “इस नृत्य का नाम राई नृत्य क्यों है ?” आनन्द ने हुकुम सिंह से यह सवाल किया। 

हुकुम सिंह ने बताना शुरू किया - "राई" नाम खुद "राई" से निकला है जिसका अर्थ है सरसों का बीज। नृत्य की हरकतों की तुलना अक्सर सरसों के बीजों से की जाती है जो तश्तरी में रखे जाने या गर्म तेल में फूटने पर तेजी से घूमते और हिलते हैं। यह सादृश्य नृत्य की गतिशील और जीवंत प्रकृति को पूरी तरह से दर्शाता है, जिसमें तेज़ पैरों की हरकत, सुंदर घुमाव और तरल शरीर की हरकतें शामिल हैं।

यह बुंदेलखंडी संस्कृति और विरासत का मजबूत प्रतीक, जो क्षेत्र की जीवंत परंपराओं को दर्शाता है। राई नृत्य में विविध विषय को प्रस्तुत किया जाता है। जिसमें दैनिक जीवन, प्रेम, भक्ति और उत्सव को दर्शाते विषय होते है। नृत्य के साथ गाने पुरुषों और महिलाओं के बीच चंचल मज़ाक से लेकर हिंदू पौराणिक कथाओं जैसे भगवान कृष्ण और गोपिकाओं की कहानियों या भगवान राम और देवी सीता की स्तुति प्रस्तुत की जाती। 

राई नृत्य केवल एक प्रदर्शन नहीं है; यह एक जीवंत परंपरा है जो बुंदेलखंड की ऊर्जा और भावना से स्पंदित है, जो अपने गतिशील आंदोलनों, रंगीन वेशभूषा और लयबद्ध संगीत के साथ दर्शकों को मंत्रमुग्ध करती है।

हुकुम सिंह ने पुनिया की पढ़ाई के बारे में बताया कि इन सभी नृत्यों को पुनिया को सिखाने की व्यवस्था की गई और महाराज पुनिया के नृत्य व गायन के बहुत बड़े प्रशंसक थे। अब पाठशाला की फुसफुसाहट कानाफूसी में परिवर्तित हो चुकी थी। यह अब किसी से छिपा नहीं रहा था कि महाराज पुनिया को चाहते हैं। दरबारियों और मंत्रियों ने इसे अशुभ संकेत कहना प्रारंभ कर दिया।

पुनिया भी अब पूर्ववत् नहीं थी। उस पर यौवन का निखार और विद्वत्ता की चमक थी। उसका साहस बढ़ गया था और वह अपनी बातें निर्भीकता से कहने लगी थी।

अब तक, पुनिया भी मन ही मन महाराज को चाहने लगी थी। जब तक पुनिया छोटी थी तो लोग महाराज की प्रशंसा करते कि एक गरीब बालिका पर महाराज की विशेष कृपा है। लेकिन उम्र के साथ-साथ पाठशाला में अन्य बच्चों तथा विशेषकर राजकुमारियों से स्पर्धा जीतने के कारण महाराज का पुनिया के प्रति आकर्षण चर्चा का विषय हो गया था।

अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ था जिस पर लोग ऊँगली उठा सकें, तो बात बड़ी नहीं थी। महाराज भी बात का बतंगड़ नहीं बनाना चाहते थे। इसलिए वे ऐसे अवसर की तलाश में थे जहाँ वे प्रणय निवेदन कर पुनिया के मन को जान सकें। पुनिया की ओर से भी कोई अनुचित चेष्टा नहीं की गई थी। दोनों के बीच उम्र का अंतर तो था ही, उनकी सामाजिक स्थितियाँ भी बहुत असमान थीं।

पुनिया कभी-कभी सोचती कि महाराज की इतनी कृपा किस काम की?

आनन्द को अब समझ आने लगा था कि पुनिया की कहानी क्या है। लेकिन उसे पुनिया से राय प्रवीन नामकरण का रहस्य समझ नहीं आ रहा था। आनन्द ने हुकुम सिंह से यह सवाल का उत्तर चाहा। 

हुकुम सिंह ने बड़े गर्वीले अंदाज में कहा - पुनिया बहुत आज्ञाकारी थी। गुरुजनों विशेषकर केशवदास की वह सबसे प्रिय शिष्या थी। वे बहुत लगन से उसे भाषा की बारीकियाँ सिखाते थे। व्याकरण व शब्द उच्चारण पर बहुत ध्यान देते थे। तभी एक दिन राज्य के मंत्री ने महाराज से कछौआ महोत्सव की बात की, जो हर साल वसंत ऋतु में पूर्णिमा के दिन मनाया जाता था।

तब मन ही मन महाराज ने निश्चय किया कि कछौआ महोत्सव में वह पुनिया का गायन रखेंगे। सही समय जानकर महाराज ने कछौआ में बहुत बड़ा गायन का आयोजन करने का निश्चय किया। कछौआ महोत्सव महाराज ने तब शुरू किया था जब उन्हें कछौआ की जागीर मिली थी।

तब से इस समारोह का आकार बहुत विशाल हो गया, क्योंकि अब वह ओरछा के भी राजा थे। पूरे देश से प्रसिद्ध गायक इस समारोह में आमंत्रित किए जाते। आस - पास के राजे - रजवाड़े भी बड़ी संख्या में आमंत्रित होते।

यह ओरछा राज्य का प्रमुख कार्यक्रम होता था। इसकी तैयारियाँ कई महीने पहले से होती थीं। इस बारे में महाराज ने केशवदास से चर्चा कर पुनिया की विशेष तैयारी शुरू करवाई। 

केशव ने एक बार अपनी शिष्या की परीक्षा ली और पूछा -

"कनक छारी सी कामनी, कहे को कटी छीन।" 

पुनिया ने जवाब दिया - "कटि को कंचन काट के, कुचन मध्य धर दीन।" 

केशव ने पुनः पूछा - “जो कुच कंचन के बने, मुख कारो किहि कीन।" 

पुनिया ने जवाब दिया - "जीवन ज्वर के जोर में, मदन-मुहर कर दीन।"

हालांकि यह काव्य उस समय के एक अन्य प्रसिद्ध कवि का था, पर यह हाज़िरजवाबी का बेहतरीन उदाहरण है। इस तरह केशव जब - तब उसकी परीक्षा लेते रहते। वह उसकी प्रतिभा के दीवाने थे।

केशव दास इस काल के अन्यतम कवि हैं। इनकी समस्त कविताओं का आधार संस्कृत के ग्रंथ हैं।इनमें कविप्रिया, रसिकप्रिया, रामचंद्रिका, वीरसिंह बुंदेला चरित्र, विज्ञान गीता, रतन बावनी और जहाँगीर जसचंद्रिका में कवि की व्यापक काव्य भाषा प्रयोगशीलता एवं बुंदेल भूमि की संस्कृति, रीति-रिवाज, भाषागत प्रयोगों से केशव बुंदेली के ही प्रमुख कवि हैं।

रीति और भक्ति का समन्वित रूप केशव काव्य में आद्योपान्त है। रीतिवादी कवि ने कविप्रिया, रसिकप्रिया में रीति तत्व तथा विज्ञान गीता एवं रामचंद्रिका में भक्ति तत्व को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में प्रस्तुत किया है। कवि केशवदास ने बुंदेली गारी लोकगीत को प्रमुखता से अपने काव्य में स्थान दिया और सवैया में इसी गारी गीत को परिष्कृत रूप में रखा है।

रामचंद्रिका के सारे संवाद सवैयों में हैं। ऐसी संवाद योजना दुर्लभ है। एक तरफ संस्कृति की रक्षा के लिए लोक संस्कृति बहुत प्रभावशाली बनी थी, तो दूसरी तरफ विदेशी संस्कृति के तत्व धीरे-धीरे जगह बना रहे थे।

दोनों पक्षों को समाहित करने वाली भक्तिपरक भावना प्रधान बनकर एक समन्वयवादी संस्कृति की संरचना कर रही थी। इसी समन्वय को लेकर महाकवि तुलसीदास चले थे। उन्होंने बुंदेलखंड की लोक प्रवृत्ति कभी नहीं त्यागी, वरन् उसी के कारण धरती से जुड़े। बुंदेलखंडी ज्यौंनार काफी प्रसिद्ध हो चुकी थी। 

महाराज इंद्रजीत स्वयं "धीरज नरेन्द्र" उपनाम से कविता करते। जब से मानव सभ्यता के इतिहास ने आँखें खोली, तभी से संगीत का अस्तित्व है। मानव की सहज स्फूर्त कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति के अनेक रूपांकन प्रकट हुए, जिनमें संगीत प्रमुख है। ऐतिहासिक विकास क्रम की टेढ़ी-मेढ़ी राहों पर चलता देसी संगीत कब मार्गी बना, यह निश्चित करना कठिन है।

बुंदेलखंड की पहचान हमेशा यहाँ के संगीत से होती रही है। बुंदेलखंड राज्य की स्थापना से ही संगीत समारोहों का आयोजन किया जाता रहा था। इस समारोह का न कोई कार्ड छपता, न न्योता, फिर भी हज़ारों की संख्या में लोग आते। जानते हैं क्यों? यह समारोह शास्त्रीय संगीत के अभिजात्य को तोड़ उसे आम आदमी तक पहुँचाता है।

उस समय यह संगीत समारोह बुंदेलखंड की जान हुआ करता था। इस समारोह में सर्वश्रेष्ठ नर्तकी का चयन किया जाता और उसे राज नर्तकी का गौरव प्रदान किया जाता।

आनन्द ने पूछा- "राज नर्तकी कौन होती है ?"

हुकुम सिंह ने इस पुरानी परम्परा के सबन्ध में बताया - “राज नर्तकी कोई वेश्या नहीं होती बल्कि उस समय के समाज में स्वतंत्र स्त्री का एक उच्च पद होता था। राज नर्तकी का पद राजरानी से समानांतर होता था और वह राजकीय सम्मान की अधिकारी होती थी।

हालांकि राज नर्तकी कुलबधू नहीं बन पाती, पर पुरुष से प्रेम के चयन का अधिकार उसका अपना होता था। साथ ही, केवल नृत्य की प्रतिभा ही राजनर्तकी बनाने के लिए काफी नहीं थी, बल्कि उसे विदुषी, भाषा मर्मज्ञ और राजकीय क्रियाकलापों, नियमों और व्यवहारों की जानकारी होना आवश्यक होता। राजपुत्रों, पुत्रियों, मंत्री तथा राजपुरुषों की शिक्षा-दीक्षा राज नर्तकी के महल में ही संपन्न होती थी।”

किसी कारण ओरछा में राज नर्तकी का पद रिक्त हो गया था। इसलिए इस समारोह में राज नर्तकी का चयन होना था। इस कारण इस साल का समारोह विशिष्ट था। देश के तत्कालीन प्रमुख सात नृत्याचार्यों ने अपनी-अपनी श्रेष्ठ शिष्याओं को भेजा था। ओरछा एक बड़ा राज्य था। वहाँ समृद्धि थी। वहाँ कला का विकास अपने चरम पर था। सातों शिष्याएँ अपने आप में अद्भुत और विलक्षण प्रतिभा की धनी थीं।

इन्हीं में से एक का चयन होना था। समारोह में जमा भीड़ और उसकी एकाग्रता साबित करती कि शास्त्रीय संगीत सिर्फ पढ़े-लिखे संभ्रांत लोगों की चीज नहीं थी। इस चोटी के संगीत समारोह में किसी भी धर्म, जाति, पंथ का आदमी बिना टिकट, पास या निमंत्रण के शामिल हो सकता था।

गायन, वादन और नृत्य तीनों का समन्वित रूप ही संगीत है। शुरुआत में इस समारोह में सिर्फ स्थानीय कलाकार ही होते थे, पर बाद में इसे देशव्यापी आकार दे दिया गया। देश का कोई ऐसा कलाकार नहीं होगा जो कभी न कभी यहाँ न आया हो। 

बैजू ने ब्रज भाषा के आधार पर ध्रुपद की एक ऐसी शैली का निर्माण किया जो मध्य भारत से गुजरात तक फैल गई। बैजू ने बख्शू को संगीत सिखाया और बख्शू ने तानसेन को। बख्शू ग्वालियर दरबार में थे। इन तीन संगीत विशारदों ने मंदिरों के ध्रुपद को नया कलेवर दे दिया था।

ग्वालियर घराना भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक प्रमुख घराना है, जो ख्याल गायकी के लिए प्रसिद्ध है। यह सबसे पुराने घरानों में से एक है और इसे ख्याल गायकी का "गंगोत्री" माना जाता है। इस घराने की स्थापना मुगल काल में हुई थी और इसने ख्याल गायकी के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ओरछा का सम्बन्ध ग्वालियर से रहा है। 

ओरछा में संगीत को अधिक महत्त्व दिया गया। इस शहर की सुबह और शाम राग-रागिनियों की गूँज से गूँजती। इस शहर की इमारतें संगीत की विरासत के आलाप गाती और शहर के निवासी अपने पूर्वजों की परंपराओं की मधुर धुन सुनाते। 

पुनिया जब केशव दास की पाठशाला में लेखन की शिक्षा ग्रहण कर रही थी और नृत्याचार्य से नृत्य तथा संगीत की शिक्षा ले रही थी, उसने बचपन के आँगन को छोड़कर यौवन के प्रांगण में कदम रखा, तो जैसे सुंदरता की देवी ने अथाह सुंदरता उसे सौगात में दे दी। पुनिया अद्भुत सौंदर्य की स्वामिनी हुई।

पुनिया को मंच पर पहली बार प्रस्तुत किया जा रहा था, अतः पाठशाला के प्रधानाचार्य के नाते केशव तथा उनके सभी गुरुजन भी उसकी प्रस्तुति की तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ सकते थे। समारोह प्रारंभ हुआ।

एक के बाद एक नृत्य प्रस्तुत किए गए। छह नर्तकियों ने अपने - अपने कौशल का प्रदर्शन किया। सभी का नृत्य विलक्षण था। अंत समय आने पर पुनिया का नाम पुकारा गया।

वह परदे के पीछे से मंच पर आई। मानो मंच पर इंद्र की सभा से कोई परी उतरी हो। उसका रूप देखकर तालियों की गड़गड़ाहट से मैदान बहुत देर तक गूँजता रहा। ऐसा लगा मानो यह मंच तथा कार्यक्रम केवल पुनिया के लिए ही आयोजित किया गया हो। 

पुनिया ने ऐसी रस धार बहाई कि बड़े - बड़े संगीतकार इसकी प्रतिभा देखकर चमत्कृत हो उठे। जब पुनिया ने अपने नृत्य को प्रारंभ किया और उसके पैरों ने लय पकड़ी, तो देखने वालों के ऊपर एक अलौकिक प्रभाव छा गया, जैसे कोई जादू सा चल गया हो। उसने परंपरागत लोक मानस में प्रचलित एक लोक गीत गाया तथा नृत्य किया -

"कभऊ जा दुकनियाँ, कभऊ बा दुकनियाँ। 

नाय माय फिरती जगाती मोहानियाँ। 

एक की मोखे हरदी दे दे, दो की दे दे धनियाँ। 

बोेल सुने से तौल भूलगउ नई उमर को बनियाँ।

 कभऊ तो निरखे टिपकी कुंडल, कभऊ नथुनियाँ। 

सज धज बेला निकरी, हाट बाजारे। 

ओछी अगियाँ पै, बातो अचरा सम्हारे। 

छू छू जाबे जगियाँ, कमर करधनियाँ। 

कभऊ जा दुकनियाँ, कभऊ बा दुकनियाँ। 

नाय माय फिरती जगाती मोहानियाँ। 

गैल घाट के छैल छिकनियाँ, भौरा से मढ़राबे। 

कोउ तो उप्टा खा गिर जाबे, कोउ देखत रे जाबे। 

बड़ी बूढ़ी कावे कैसी चढ़ी है जुवनियाँ। 

कभऊ जा दुकनियाँ, कभऊ बा दुकनियाँ। 

नाय माय फिरती जगाती मोहानियाँ।"

पुनिया के नृत्य समापन पर संपूर्ण सभा उठ खड़ी हुई और तालियों की गड़गड़ाहट से आसमान गूँज उठा। सभा उसको विजेता घोषित कर चुकी थी।

पुनिया सभी योग्यताओं पर खरी उतरती थी। वह सौंदर्य की देवी, विद्वत्ता की प्रतिमूर्ति, वाणी में सम्मोहन, स्वर में खनक और पैरों में लय के स्वर्गीय संगम की स्वामिनी थी। ये सब गुण उसे एक अद्वितीय व्यक्तित्व प्रदान करते थे।

युवाओं में आश्चर्य था और वयोवृद्ध कला मर्मज्ञों ने कहा - "उन्होंने अपने जीवन भर इस तरह का नृत्य कभी नहीं देखा था।"

गायन की समाप्ति पर महाराज पुनिया के संगीत तथा रूप जाल में उलझ कर नींद में चलनेवाले व्यक्ति के सामान उठे और भगवान को चढ़ाने वाली माला पुनिया के गले में डाल दी तथा मिठाई का दोना उसके आँचल में रख दिया। मन ही मन, ग्रामीण भोली बाला ने इस माला को ही वरमाला मान लिया और खुद को इंद्रजीत की पत्नी। पुनिया ने हाथ जोड़ व सिर नवा कर महाराज को प्रणाम किया।

राजा इंद्रजीत पुनिया का शृंगार देखकर हतप्रभ थे। कहाँ गरीब गाँव के लोहार की बेटी और कहाँ आज की साक्षात अप्सरा। पुनिया ने आज लहँगा-चोली के ऊपर चंदेरी की ओढ़नी ओढ़ी थी। कानों में कर्णफूल, नाक में पुंगरिया, माथे पर बेदी, गले में हसली, काठला, गुलुबंद, बिचौली, तिदना, हाथों में बाजूबंद, चूड़ियाँ, उँगलियों में अगुठियाँ, पाँवों में पैंजना, झाँजर, कमर में करधौनी पहनी। राजकुमारियों जैसा सोलह शृंगार किया।

महाराज ने भरी सभा में घोषणा की: "पुनिया का आज से नाम प्रवीन होगा तथा राज्य की ओर से राय की पदवी दी जाती है। इसलिए आज से इन्हें राय प्रवीन के नाम से पुकारा जाए।"

"राय प्रवीन" का अर्थ है "कुशल राय" या "प्रतिभाशाली राय।" चाँदनी सा उजला रंग, घने काले लंबे केश, अत्यंत सुंदर नेत्र, मोहक हँसी और राजहंसनी जैसी पदगति। रूप अप्सरा सा और कंठ में सरस्वती, कवित्त रचना में प्रवीण, गायन और नर्तन में स्नातक, राय प्रवीन ओरछा का गौरव बन गई।

गाने की रसधार के साथ आज मादक यौवन की छटा ऐसी बिखेरी कि इंद्रजीत को सुध न रही। वह अपूर्व सुंदरी लग रही थी। इस तरह पुनिया 'राज नर्तकी' बना दी गई। समारोह समापन की ओर था। रात्रि में खान - पान चला। महाराज बहुत व्यस्त थे।

महाराजा की यह चाहत समाज और महल के रीति - रिवाजों से टकरा रही थी। सभी गायकों को यथोचित सम्मान व दक्षिणा देकर विदा कर दिया गया।

बुंदेले हरबोले की बातें अत्यंत रोचक थीं। हम लोग साइकिल से नगर के उन स्थानों का भ्रमण कर रहे थे और कहानी सुन रहे थे। इतिहास की पुस्तकों से परे, लोक मानस का इतिहास बोध अद्भुत था। इस ज्ञान से आनन्द का साक्षात्कार प्रथम बार हो रहा था।

आनन्द ने सोचा मनुष्य को अपने जीवन में कम से कम तीन कार्य अवश्य करने चाहिए: प्रथम, विश्व में जितना संभव हो भ्रमण करना चाहिए; द्वितीय, कम से कम एक कला में दक्षता प्राप्त करनी चाहिए; तथा तृतीय, अच्छी पुस्तकों को पढ़ने की आदत डालनी चाहिए। ताकि जब आप इस संसार से विदा हों तो कुछ सीख कर जाएँ, क्योंकि एक अच्छी पुस्तक लेखक के पूरे जीवन का निचोड़ होती है। तुम वह ज्ञान कुछ ही घंटों के अध्ययन से प्राप्त कर लेते हो। इस प्रकार तुम अपने छोटे से जीवन में सदियों का ज्ञान, सदियों का अनुभव पा सकते हो।

कल प्रातः सात बजे ब्लू स्काई रेस्तरां पर मिलने का वचन देकर हम लोग अपने - अपने ठिकानों पर चले गए। शाम का भोजन संजय ने अपने परिवार के साथ रखा था। उनके परिवार में उनकी पत्नी, एक पुत्र तथा एक छोटी पुत्री हैं।

उनकी पत्नी एक कुशल गृहणी तथा इस स्थान की मुख्य संचालिका हैं। बातचीत में संजय ने बताया कि यद्यपि, अदृश्य स्तर पर भी सृजन हो रहा है। यह सृजन इस खोज से संबंधित है कि ओरछा में जो कुछ भी है, वह संरक्षित करने और विश्व के साथ साझा करने योग्य हो।

यह एक प्रकार से पुरानी विरासत का संरक्षण है। निश्चित रूप से इस पर्यटन उछाल से पूर्व भी ओरछा के लोगों में अपनी विरासत के प्रति सम्मान था। पिछले बीस वर्षों ने उन्हें अपनी पहचान पर अधिक गहराई से चिंतन करने के लिए प्रेरित किया। अपनी विरासत को देखने के लिए इतनी दूर यात्रा करने के इच्छुक लोगों को देखकर कदाचित् ओरछा की एक नवीन पहचान का निर्माण हुआ, जो नदी के किनारे एक रहस्यमय और कथाओं से परिपूर्ण स्थान से कहीं अधिक है।

सभी पर्यटक ओरछा के मध्यकालीन इतिहास में कुछ हद तक रुचि लेकर आते। चाहे वह रुचि भारत के इतिहास की गहन समझ प्राप्त करने की हो, या यह कल्पना करने की हो कि इंद्रजीत सिंह तथा बीर सिंह के समय में जीवन कैसा रहा होगा? संजय ने मुझे ओरछा के लाइट एंड साउंड शो को देखने का सुझाव दिया


ध्रुवतारा 

प्रातः नौ बजे राम राजा रेस्तरां में हुकुम सिंह से मिलने का निश्चय हुआ था। आनन्द  समय पर पहुँच गया, लेकिन हुकुम सिंह  विलंब से आये। राम राजा रेस्तरां किला परिसर से लगभग पचास मीटर की दूरी पर स्थित है। आनन्द ने राम राजा रेस्तरां के स्वामी से बातचीत आरंभ की। उन्होंने पुनिया की गाथा सुनाई और वताया कि राजा इंद्रजीत एक रसिक नरेश थे।

इंद्रजीत राय प्रवीन को ओरछा में राज नर्तकी के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे। परंतु राय प्रवीन इसके लिए तैयार नहीं हो रही थीं। उसने राज को अपना पति स्वीकार कर लिया था। यह बात चारों दिशाओं में अग्नि की भाँति फैल गई। सब इसी विषय पर चर्चा करते। इस कारण राय प्रवीन की अत्यधिक जग हँसाई हो रही थी। जब राय प्रवीन के शादी के हठ की बात केशव दास को ज्ञात हुई, तो उन्होंने महाराज को सूचित किया।

राय प्रवीन अत्यंत माननीया नारी थीं। उनका यह विश्वास था कि हिंदू विवाह पति और पत्नी के मध्य जन्म-जन्मांतरों का संबंध होता है, जिसे किसी भी परिस्थिति में तोड़ा नहीं किया जा सकता।

राय प्रवीन मानती थीं कि अग्नि के समक्ष सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मानकर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बँध जाते। हिंदू विवाह में पति और पत्नी के मध्य शारीरिक संबंध की अपेक्षा आत्मिक संबंध अधिक महत्वपूर्ण होता, और इस संबंध को अत्यंत पवित्र माना गया।

हिंदू महिलाएँ विभिन्न रीति-रिवाजों का पालन करती। सिंदूर, मंगलसूत्र और चूड़ी को विवाहित महिला की पहचान माना जाता।

आनन्द ने पूछा - "मंगलसूत्र इतना महत्वपूर्ण क्यों है?"

उन्होंने कहा - 'मंगलसूत्र', एक हार जिसे वर वधू के गले में बाँधता, विवाहित जोड़े को कुदृष्टि से बचाने और पति के दीर्घायु का प्रतीक है। यदि मंगलसूत्र खो जाए या टूट जाए तो इसे अशुभ माना जाता। महिलाएँ इसे प्रतिदिन अपने पति के प्रति अपने कर्तव्य की स्मृति के रूप में धारण करती। 

पुनिया को भी बचपन से यही शिक्षा दी गई थी।

राय प्रवीन के पिता ने उनका विवाह संपन्न कराने के अनेक प्रयास किए। राय प्रवीन के इस संकल्प का ज्ञान उनके पिता को तब हुआ, जब उन्होंने राय प्रवीन के विवाह का प्रस्ताव रखा। दृढ़ संकल्प वाली राय प्रवीन ने तब कहीं भी विवाह करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। अब इस बात का सबके समक्ष अनावरण हो चुका था। यह बात इंद्रजीत सिंह तक भी पहुँची।

राय प्रवीन के इस संकल्प से इंद्रजीत सिंह अनभिज्ञ थे। वे अपनी पत्नी राव रानी से असीम स्नेह करते थे। राय प्रवीन आयु में छोटी थीं और इंद्रजीत उनके गायन पर मंत्रमुग्ध थे, उन्होंने उस समय तक स्वप्न में भी यह कल्पना नहीं की थी कि वे राय प्रवीन के प्रेम में पड़ जाएँगे।

ऐसा प्रतीत होता कि इंद्रजीत सिंह राय प्रवीन के साथ एक चुनौतीपूर्ण काल से गुज़र रहे थे। राय प्रवीन बन जाने पर भी वह अन्दर से लोहार की लड़की पुनिया ही थी पुनिया संबंध जारी रखने के बजाय एक उचित विवाह की आकांक्षा कर रही थीं और इंद्रजीत का रुख स्पष्ट नहीं था।

राय प्रवीन की पारिवारिक परिस्थितियों ने इस दृष्टिकोण को जन्म दिया था, जिस कारण विवाह पर इतना दृढ़ रुख अपनाने को विवश थीं। इसमें प्रथम कारण सुरक्षा और प्रतिबद्धता की अभिलाषा थी। द्वितीय कारण भावनात्मक सुरक्षा। तृतीय कारण वित्तीय और सामाजिक सुरक्षा थी।

पुनिया के लिए, विवाह एक परिवार स्थापित करने, संतान उत्पन्न करने और एक साथ दीर्घकालिक भविष्य की योजना बनाने की आधारशिला थी। इसके बिना, ये योजनाएँ अनिश्चित तथा अपूर्ण प्रतीत नहीं होती।उस के बाल मन में भी बचपन से सफ़ेद घोड़े पर बैठ कर आने बाले राजकुमार का सपना बैठा दिया गया था। अब जब वह राजकुमार सचमुच उसके जीवन में आ ही गया था तो वह किसी भी कीमत पर उसको पाना चाहती थी। 

विशेषकर बुंदेलखंड में, सामाजिक और सांस्कृतिक अपेक्षाएँ, परिवार, संबंधों और विवाह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। पुनिया के परिवार की ओर से पुनिया पर विवाह करने का अत्यधिक दबाव था। विशेषकर जब पुनिया विवाह की निश्चित आयु तक पहुँच चुकी थीं। पुनिया विवाह की औपचारिक प्रतिबद्धता के बिना दीर्घकालिक संबंध को स्वीकार नहीं कर सकती थीं।

जो अविवाहित जोड़े बिना विवाह के साथ रहते या दीर्घकालिक संबंध में रहते, उन्हें बुंदेलखंड के समाज में सामाजिक कलंक का सामना करना पड़ता। विवाह सामाजिक स्वीकृति और वैधता प्रदान करता है।

पुनिया का पालन - पोषण पारंपरिक मूल्यों के साथ हुआ था। जहाँ विवाह को एक गंभीर संबंध की स्वाभाविक और आवश्यक प्रगति के रूप में देखा जाता है। वे व्यक्तिगत मूल्यों के रूप में विवाह की पवित्रता और महत्व में विश्वास करती थीं।

इंद्रजीत की अनिच्छा या विवाह का प्रस्ताव देने में विलंब को पुनिया उनकी ओर से गंभीर प्रतिबद्धता की कमी के रूप में देखती थीं। उचित विवाह के बिना संबंध जारी रखने में पुनिया की रुचि नहीं थी।

यदि संबंध विवाह तक नहीं पहुँचता, तो पुनिया को हृदय टूटने, निराशा, हताशा और समय के अपव्यय का अनुभव होता। पुनिया की प्रतिबद्धता की इच्छा पूर्ण न होने पर पुनिया स्वयं को कमतर महसूस करती थीं।

इससे पुनिया दुःख, क्षति, अपराध बोध और पश्चाताप का अनुभव करती। पुनिया इंद्रजीत को अपना पति मान चुकी थीं। अतः इस महत्वपूर्ण संबंध को समाप्त करना भावनात्मक रूप से कष्टप्रद था। यह स्थिति इंद्रजीत के लिए गहन आत्मनिरीक्षण का अवसर प्रस्तुत कर रही थी। अपने स्वयं के कारणों को समझना महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने आप से सवाल पूछें -

वह विवाह को लेकर क्यों संकोच कर रहे हैं? 

क्या यह प्रतिबद्धता का भय है? 

क्या वित्तीय चिंताएँ हैं? 

क्या विभिन्न जाति के होने से असमानता का भय है? 

क्या आयु के अंतर का भय है? 

या बस वह तैयार महसूस नहीं कर रहे हैं? 

इस समय उनके लिए विवाह इतना अस्वीकार्य क्यों है? 

उनकी अंतर्निहित आवश्यकताएँ और भय क्या हैं? 

लेकिन जब उन्हें स्वयं से संतोषजनक जबाव नहीं मिले तब उन्होंने ने अपनी अभिलाषा की चर्चा केशव को बताई। 

इंद्रजीत ने कहा: "क्या मेरा प्रेम अपवित्र है?"

केशव ने कहा: "प्रेम अपवित्र नहीं होता है महाराज। अपवित्र होती है वह सोच जो प्यार को जाति-पाति, ऊँच-नीच में तौलती है।"

वहीं राय प्रवीन इसके लिए सहमत न थीं। राजा इंद्रजीत ने कई बार राय प्रवीन को संदेश भिजवाया परंतु वे नहीं आईं। तब इंद्रजीत ने राय प्रवीन के गुरु केशवदास को उनके पास भेजा। वह जानते थे कि राय प्रवीन केशव दास की बात नहीं ठुकराएगी। 

केशव भी चाहते थे कि उनकी यह योग्य शिष्या ओरछा राज दरबार में रहे। राय प्रवीन को अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का अवसर केवल राज्याश्रय के कारण ही मिल सकता था।

राय प्रवीन पूरे समय अपने संगीत की साधना करतीं और कवित्त लिखती थीं। राय प्रवीन अपने घर में रहीं। महल के बाहर वायु शीतल थी परंतु महाराज की अंतराग्नि उन्हें गर्म रख रही थी।

इस बीच हुकुम सिंह का आगमन हुआ। पूड़ी सब्जी खाते हुए हमारी चर्चा आगे बढ़ी, और उन्होंने इंद्रजीत की कथा का प्रसंग आगे बढ़ाया। 

महाराज राय प्रवीन को खोना नहीं चाहते थे। वस्तुतः, महाराज भी राय प्रवीन से गहन प्रेम करने लगे थे। वे उसके सौंदर्य के जाल में इस प्रकार उलझ गए थे कि उससे विलग होना असंभव सा प्रतीत होता था।

महाराज राय प्रवीन को हृदय से चाहते थे, एक तो उनकी आयु राय प्रवीन से अधिक थी, दूसरे वे अपनी धर्मपत्नी राव रानी से असीम स्नेह करते थे। इस द्वंद्व के कारण वे कोई निर्णय नहीं ले पा रहे थे।

इंद्रजीत एक कुशल प्रशासक, उदार, धर्मात्मा और साहित्य तथा कला के मर्मज्ञ थे। संगीत के प्रति उनके प्रेम ने उनके दरबार को इंद्रलोक की सभा जैसा बना दिया था। इंद्रजीत का दरबार तो मानो परियों का अखाड़ा था। सौंदर्य और स्वर्ण का संयोग, संगीत, कविता लेखन, गायन और नृत्य से इस कदर घनिष्ठ हो चुका था कि उसे पृथक करना संभव ही न था।

ओरछा के दरबार की ख्याति चारों दिशाओं में फैल जाने से भाँति-भाँति के कलाकारों का जमावड़ा लगा रहता था और वहाँ सदैव उत्सव जैसा वातावरण विद्यमान रहता था।

महाराज इंद्रजीत के रंग महल में छह नर्तकियाँ थीं: राय प्रवीन, नवरंग राय, विचित्र नैना, तरंग, रंग राय और रंग मूर्ति। राय प्रवीन का व्यक्तित्व इन सबसे निराला था क्योंकि वह गौर वर्ण की, मृगनयनी, सुडौल शरीर वाली, कोमल अंगों वाली, संगीत और नृत्य कला में पारंगत तथा कवित्त रचना में प्रवीण थीं।

महाराज की सभा में राय प्रवीन दीपशिखा के समान जगमगाती। उनके रूप में उर्वशी, कंठ में सरस्वती का वास, और वीणा वादन में अलौकिक रस प्रवाहित होता था। श्रोतागण मंत्रमुग्ध रह जाते थे। अपने असाधारण गुणों के कारण राय प्रवीन ने महाराज के अंतर्मन पर विजय प्राप्त कर ली थी।

महाराज राय प्रवीन के प्रेम में आबद्ध हो गए थे। राय प्रवीन भी महाराज को देवता तुल्य पूजने लगी थीं। केशव दास उनकी समानता कृष्ण और सत्यभामा से करते थे। महाराज राय प्रवीन की मादकता में अनुरक्त हो गए। राय प्रवीन हर क्षण महाराज की स्मृतियों में खोई रहतीं और महाराज अंतरंग पलों में राय प्रवीन के सानिध्य में विश्रांति का अनुभव करने की कल्पना करते।

उनकी मोहक छवि, मधुर कंठ से निकली रससिक्त कविता, भावपूर्ण नृत्य, और स्वरों की मादक सरिता उन्हें आकंठ निमग्न कर जाती थी। केशवदास ने अपनी रचना कविप्रिया राय प्रवीन की प्रेरणा से लिखी थी। उन्होंने लिखा था:

"सविता जू कविता दई, तकहाँ परम प्रकास। 

ताके कारज कविप्रिया, कीन्हि केशव दास।।"

इंद्रजीत को अपने परिवार की पुरानी गाथाएँ स्मरण आ रही थीं। अपने अग्रज भारती चंद के उत्तराधिकारी बनने के पश्चात् मधुकर शाह निरंतर उत्तरी शासकों से युद्धरत रहे।

आनन्द ने मधुकर शाह के संबंध में विस्तार से जानने के लिए पूछा। हुकुम सिंह बोले, "महाराज मधुकर शाह अपने पुत्र इंद्रजीत को बहुत प्यार करते थे। हालाँकि उनका अधिकतर समय ओरछा के बाहर अकबर की सेना से लड़ाइयों में व्यतीत हो रहा था, किंतु जब वे ओरछा में होते तो अपने बेटों को ओरछा नगर का इतिहास बताते थे।"

मधुकर शाह से प्रेरित होकर बुंदेलखंड तथा देश के अनेक राजा माथे पर तिलक लगाते थे तथा वे उन्हें गुरुवत मानते थे। जब अकबर के दरबार की घोषणा होती, तब मुगल साम्राज्य के अधीन सभी राजाओं व जागीरदारों को जुहार करने के लिए अकबर के दरबार में जाना पड़ता था।

एक बार अकबर ने घोषणा की कि कोई भी हिंदू राजा दरबार में तिलक लगाकर तथा माला पहनकर नहीं आएगा। जो राजा राज आज्ञा का उल्लंघन करेगा, उसका माथा गरम भाले से दाग दिया जाएगा। किंतु जब अकबर ने दरबार में तिलक लगाकर आने पर पाबंदी लगा दी, मधुकर शाह इस फरमान पर रात भर विचार करते रहे। वे रात को सो न सके। 

मधुकर शाह ने विचार किया कि यदि वे अकबर के फरमान का पालन करेंगे, तो इतिहास उनके विषय में क्या लिखेगा? श्रेष्ठ पुरुष जो आचरण करते हैं, अर्थात जो कार्य करते हैं, अन्य सामान्य मनुष्य भी वैसा ही आचरण, वैसा ही कार्य करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, समस्त मानव - समुदाय उसी का अनुसरण करने लगता है।

यकायक मधुकर शाह के मानस पटल पर गीता में दिया कृष्ण का उपदेश उभर आया: 'जिस प्रकार अज्ञानी जन फल की आसक्ति से कार्य करते हैं, उसी तरह विद्वान जनों को चाहिए कि वे लोगों को उचित पथ पर ले जाने के लिए अनासक्त रहकर कार्य करें।'

मधुकर शाह को विचार करते-करते सुबह हो गई। मधुकर शाह ने निश्चय किया कि चाहे जान भले चली जाए, किंतु मैं स्वधर्म से मुँह नहीं मोड़ूँगा। और नित्य कर्म से निवृत्त होकर मधुकर शाह पूजा गृह में गए और पूजा के उपरांत उन्होंने बहुत गाढ़ा तिलक लगाया और माला पहनी। तब उन्होंने भरे दरबार में तिलक लगाकर तथा माला पहनकर बगावत कर दी।

अकबर ने मधुकर शाह को देखकर पूछा, "आपने कल शाही फरमान नहीं सुना था क्या?" 

मधुकर शाह ने कहा, "हे सम्राट! मैं कल दरबार में आया था व शाही फरमान भी सुना था, किंतु मैं स्वधर्म से विमुख नहीं हो सकता।" 

फिर भी, वे ओरछा के एक योग्य शासक थे, और जब मुगल सम्राट अकबर ने उनके दृढ़ धार्मिक विश्वासों के विषय में सुना, तो उन्होंने तत्काल उनकी परख करने का निश्चय किया। उन्होंने माला धारण करने और माथे पर तिलक लगाने को गैरकानूनी घोषित कर दिया।

किंतु मधुकर ने हार नहीं मानी और मुगल दरबार में उपस्थित होते समय उन्होंने माला और माथे पर तिलक दोनों  धारण किये। 

तब अकबर ने कहा, "तुम अकेले ऐसे राजा हो जिसने ऐसी हिम्मत की है। इसलिए तिलक आज से तुम्हारे नाम से ही जाना जाएगा।" 

सम्राट उनके साहस और धर्मनिष्ठा से अत्यधिक प्रभावित हुए। मधुकर शाह अपने लोगों के नायक बन गए और उस दिन से उनका तिलक बुंदेलों की विशिष्ट परंपरा बन गया।

उनके तेवर के चलते अकबर को अपना फरमान वापस लेना पड़ा। मधुकर शाह ने अकबर की दूसरी बार अवहेलना तब की, जब आदेश दिए जाने पर भी उन्होंने शेर का वध नहीं किया। क्योंकि उनका मानना था कि यह नरसिंह का प्रतीक है, जो विष्णु का अवतार है। अकबर का एकमात्र पुत्र शहजादा सलीम अनारकली से असीम प्रेम करता था। जब अकबर को यह बात ज्ञात हुई, तो वे इसके विरुद्ध थे।

अकबर ने सलीम को समझाने का प्रयास किया, किंतु वह नहीं माना। इस पर एक दिन दोनों आमने-सामने आ गए और दोनों में युद्ध छिड़ गया। युद्ध में पुत्र सलीम को अकबर से प्राण बचाकर भागना पड़ा। सलीम प्राण बचाने के लिए कई राजाओं के पास गया, किंतु अकबर के प्रभाव के कारण सभी ने उसे शरण देने से मना कर दिया। अंततः वह ओरछा नरेश मधुकर बुंदेला के पास पहुँचा। मधुकर शाह बुंदेला ने उसे शरण प्रदान की।

सलीम उनके पुत्र वीर सिंह बुंदेला के साथ रहने लगा। इसकी जानकारी मिलने पर अकबर ने अपनी सेना को ओरछा राज्य पर आक्रमण का आदेश दिया। सेना ने ओरछा के बाहर डेरा डाल दिया। आक्रमण की भनक लगते ही ओरछा नरेश मधुकर शाह बुंदेला ने रात्रि में एक अनोखी युक्ति का प्रयोग किया।

रात्रि में, जब सैनिक विश्राम कर रहे थे, उसी समय ओरछा नरेश ने अपने राज्य के सभी भैंसा और भैंसों के सींगों पर मशालें बांध कर उन्हें सैनिकों के तम्बुओं के बीच दौड़ा दिया। जहाँ सैनिकों का शस्त्र भंडार था, उसमें विस्फोट करा दिया। इससे अकबर की सेना के अनगिनत सैनिक मारे गए।

युद्ध में हुई अप्रत्याशित पराजय के पश्चात् अकबर ने राजा मधुकर शाह बुंदेला के पास शांति प्रस्ताव भेजा, साथ ही सलीम को वापस करने की माँग की। ओरछा नरेश ने शर्त रखी कि वे सलीम को एक ही शर्त पर वापस करेंगे- वह शर्त थी कि अकबर उसे फाँसी नहीं देगा। इस शर्त पर ओरछा नरेश मधुकर शाह बुंदेला ने सलीम को उसके पिता अकबर को वापस कर दिया।

इस से अकबर क्रोधित हो उठे और कई अवसरों पर उन्होंने ओरछा पर कब्ज़ा करने का प्रयास किया। एक युद्ध में मधुकर शाह पराजित हुए। अकबर ने मधुकर शाह के विरुद्ध अनेक बार लड़ाइयाँ लड़ीं। अंत में जब अकबर के बुलाने पर मधुकर शाह दरबार में नहीं पहुँचे तो सादिख खाँ को ओरछा पर चढ़ाई करने भेजा।

हुकुम सिंह ने क्षोभ तथा दुःख के साथ बताया कि युद्ध में मधुकर शाह हार गए। मधुकर शाह की मृत्यु के समाचार के साथ उनका सिर बादशाह को पेश किया गया। दरबारियों को लगा कि अकबर खुश होगा, किंतु अकबर उदास हो गया। उसने कहा, "ऐसा दुश्मन फिर कहाँ मिलेगा। हे खुदा! जन्नत का दरवाजा खुला रखना, बुंदेलखंड का शेर आ रहा है।"

उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके ज्येष्ठ पुत्र रामशाह द्वारा बादशाह से क्षमा याचना करने पर उन्हें ओरछा का शासक बनाया गया। राजकाज में रुचि न होने के कारण उन्होंने अपने भाई इंद्रजीत को ओरछा की गद्दी सौंप दी।

उस समय मधुकर शाह के छोटे पुत्र वीर सिंह देव की ख्याति अपने शौर्य और वीरता के लिए चारों ओर फैली हुई थी। इंद्रजीत के भाई वीरसिंह सदैव मुसलमानों का विरोध करते थे। वीर सिंह को दतिया में बरौनी की जागीर मिली, जो उन्हें अपनी योग्यता के अनुरूप नहीं लगी।

इसीलिए वीर सिंह ने भाई रामचंद्र के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। यह वही समय था जब मुगलिया शासन में शहंशाह अकबर और उनके पुत्र जहाँगीर के मध्य दूरियाँ बढ़ रही थीं। जहाँगीर ने बाद में अपने संस्मरण में इसकी वजह अकबर के अत्यंत करीबी और नवरत्नों में से एक अबुल फजल को बताया।

अबुल फजल जाने-माने विद्वान और अकबर के विशेष सलाहकार थे। जहाँगीर और अकबर के मध्य एक समय दूरी इतनी बढ़ गई कि जहाँगीर ने विद्रोह कर दिया और इलाहाबाद में अपना पृथक दरबार स्थापित कर लिया।

इसी बीच जहाँगीर की भेंट वीर सिंह बुंदेला से हुई। इससे पूर्व रामचंद्र कई बार मुगल सेना की सहायता से वीर सिंह पर आक्रमण कर चुके थे, किंतु असफल रहे थे। अबुल फजल को जहाँगीर अपना सबसे बड़ा शत्रु मानते थे। उन्हें लगने लगा था कि अबुल फजल के रहते वे कदाचित ही अपने पिता के पास लौट पाएँगे।

जहाँगीर को सूचना मिली कि एक दौरे पर गए अबुल फजल दक्षिण से आगरा की ओर लौटने वाले हैं और उनका काफिला बुंदेलखंड से होकर गुजरेगा। जहाँगीर ने मित्र वीर सिंह से सहायता माँगी।

दक्षिण से लौटते हुए अबुल फजल के काफिले पर ग्वालियर के समीप वीर सिंह और उनके साथियों ने आक्रमण कर दिया। अबुल फजल की मृत्यु हो गई। यह समाचार सुन अकबर क्रोधित हो उठे। उन्होंने वीर सिंह को पकड़ने के लिए सेना भेजी। किंतु, जहाँगीर ने अपने मित्र को सचेत कर दिया था।

यद्यपि वीर सिंह के लश्कर को अकबर की सेना ने पराजित कर दिया, फिर भी वीर सिंह पकड़ में नहीं आए। उन्होंने पहले एरच के किले में शरण ली। किंतु जब उसे भी घेर लिया गया, तो वे दतिया पहुँच गए। वहाँ उनका प्रतीक्षा स्वयं जहाँगीर कर रहे थे।

इंद्रजीत यही सोच-सोचकर परेशान हो रहे थे कि यदि उन्होंने अपनी आयु तथा जाति में छोटी राय प्रवीन से विवाह कर लिया, तो वे किस प्रकार अपने खानदान की मर्यादा की रक्षा कर सकेंगे?

अत्यंत रूपवती राय प्रवीन के गायन पर मोहित इंद्रजीत सिंह ने पहले तो राय प्रवीन को समझाने का प्रयास किया। किंतु जब प्रयास निष्प्रभावी होते दिखे, तो उन्होंने भी यथास्थिति को स्वीकार किया। 

अब यह कहानी एक रोचक मोड़ पर आ गई थी। हुकुम सिंह इसे किस्तों में सुनाकर और भी रहस्यमय बना रहे थे।

संजय के सुझाव पर आनन्द ध्वनि और प्रकाश शो देखने गया, जो फोर्ट पैलेस कॉम्प्लेक्स में शाम को होता है। यह एक दिलचस्प ऑडियो-विजुअल माध्यम में ओरछा के इतिहास और इसकी महिमा को दर्शाता है। 

आनन्द के लिये ओरछा किले में आयोजित होने वाला लाइट एंड साउंड शो, इस ऐतिहासिक साम्राज्य के समृद्ध इतिहास और किंवदंतियों को जीवंत करने वाला एक मनमोहक अनुभव रहा। यह शो ओरछा किला परिसर के भीतर आयोजित होता है, जिसमें जहाँगीर महल, शीश महल और दीवान-ए-आम जैसी शानदार संरचनाओं का उपयोग प्रक्षेपण और प्रकाश व्यवस्था के लिए पृष्ठभूमि के रूप में किया जाता है। 

आनन्द शाम सात बजे वहां पहुंच गया था। आनन्द ने टिकिट लिया तथा दर्शक दीर्घा में बैठ गया। यह शो ओरछा के इतिहास को बताने के लिए ध्वनि, प्रकाश और कभी-कभी दृश्य प्रक्षेपण का उपयोग करता है। कहानी कालानुक्रमिक रूप से सामने आती है, जिसमें बुंदेला राजवंश के प्रमुख काल और महत्वपूर्ण हस्तियां शामिल हैं। 

शो की शुरुआत बुंदेला प्रमुख रुद्र प्रताप सिंह की कहानी से होती है, ओरछा की स्थापना की और किले का निर्माण शुरू किया। वाचन में बताया गया है कि बेतवा नदी के किनारे इस रणनीतिक स्थान को कैसे चुना गया। इस शक्तिशाली साम्राज्य की प्रारंभिक नींव कैसे रखी गई। कथा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा राजा मधुकर शाह और उनकी धर्मनिष्ठ पत्नी, रानी गणेश कुंवरी के इर्द-गिर्द घूमता है।

कहानी उस किंवदंती को बयां करती है कि कैसे रानी गणेश कुंवरी अयोध्या से भगवान राम की एक मूर्ति ओरछा लाईं। रानी इसे नव-निर्मित चतुर्भुज मंदिर में स्थापित करना चाहती थीं। हालांकि, चूंकि मंदिर अभी भी निर्माणाधीन था, इसलिए मूर्ति को अस्थायी रूप से महल में रखा गया था। किंवदंती के अनुसार, भगवान राम को ओरछा आने के लिए तीन शर्तें थीं। 

जब मूर्ति को चतुर्भुज मंदिर में ले जाने का समय आया, तो वह चमत्कारिक रूप से महल से टस से मस नहीं हुई। इस प्रकार, महल का वह हिस्सा जहां मूर्ति रखी गई थी, राम राजा मंदिर बन गया, जहां भगवान राम की अद्वितीय रूप से एक राजा के रूप में पूजा की जाती है, और आज भी, उन्हें प्रतिदिन पुलिस गार्ड ऑफ ऑनर दिया जाता है। 

यह शो राजा बीर सिंह देव के शासनकाल पर प्रकाश डालता, जिन्हें सबसे महान बुंदेला राजाओं में से एक माना जाता। मुगल सम्राट जहांगीर के साथ उनका विवादास्पद लेकिन मजबूत संबंध एक प्रमुख केंद्र बिंदु है।

बीर सिंह देव ने राजकुमार सलीम (बाद में सम्राट जहांगीर) के कहने पर अकबर के करीबी सलाहकार अबुल फजल की हत्या कर दी थी। इस कृत्य से, हालांकि शुरू में अकबर ने ओरछा पर आक्रमण किया, अंततः बीर सिंह देव और जहांगीर के बीच एक मजबूत दोस्ती बन गई। किले परिसर के भीतर शानदार जहाँगीर महल का निर्माण बीर सिंह देव ने जहांगीर के ओरछा दौरे के सम्मान में किया था। शो इस महल में बुंदेला और मुगल शैलियों के वास्तुशिल्प मिश्रण पर जोर देने के लिए प्रकाश व्यवस्था का उपयोग करता है, जो उनके अद्वितीय गठबंधन का प्रतीक है।

राजा इंद्रजीत सिंह (बीर सिंह देव के उत्तराधिकारी) की प्रिय और प्रसिद्ध कवयित्री, गायिका और नर्तकी राय प्रवीन की मनमोहक कहानी। यह शो बताता है कि कैसे राय प्रवीन की सुंदरता और प्रतिभा सम्राट अकबर तक पहुंची, जिन्होंने उन्हें अपने दरबार में बुलाया। 

हालांकि, राय प्रवीन, राजा इंद्रजीत सिंह के प्रति गहरी निष्ठा से समर्पित थीं, उन्होंने चतुराई से एक दोहा सुनाया जिसने उनकी अटूट निष्ठा और प्रेम को व्यक्त किया, जिससे अकबर प्रभावित होकर उन्हें ओरछा वापस भेज दिया। उनके लिए एक मुगल-शैली के बगीचे के भीतर एक सुंदर निवास, राय प्रवीन महल का निर्माण किया गया था, जो उनकी अद्वितीय स्थिति और राजा के स्नेह का प्रमाण है।

बीर सिंह देव के पुत्र और जुझार सिंह के भाई लाला हरदौल की मार्मिक कहानी। यह शो हरदौल की दुखद कहानी को बयां करता है, जिन पर उनके ईर्ष्यालु भाई जुझार सिंह ने अपनी भाभी, रानी चंपावती के साथ अवैध संबंध का झूठा आरोप लगाया था। अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए, रानी चंपावती को हरदौल को ज़हरीला भोजन देने के लिए मजबूर किया गया था। 

हरदौल, जहर से वाकिफ होने के बावजूद, अपनी भाभी के सम्मान की रक्षा के लिए इसे खा लिया। उनकी मृत्यु के बाद, उनकी बेगुनाही का एहसास हुआ। किंवदंती है कि हरदौल की आत्मा बुंदेलखंड में शादियों को आशीर्वाद देना जारी रखती है, जिसमें पहला निमंत्रण अभी भी उनके मंदिर में भेजा जाता है। यह कहानी बलिदान, वफादारी और विश्वास के विषयों पर जोर देती है।

विशिष्ट कहानियों के अलावा, शो ओरछा किला परिसर की स्थापत्य भव्यता पर भी प्रकाश डालता है, जिसमें शामिल हैं: राजा महल: इसकी जटिल प्रांगणों और खंभों का प्रदर्शन। चतुर्भुज मंदिर: इसकी अनूठी वास्तुकला और राम राजा मंदिर से इसके संबंध की कहानी। छतरियां (स्मारक): बेतवा नदी के किनारे स्थित शाही छतरियां, बुंदेला शासकों की याद दिलाती हैं। फूल बाग: अपनी प्राचीन शीतलन प्रणाली के साथ शाही बगीचा।

यह शो अक्सर पारंपरिक बुंदेलखंडी संगीत और प्रकृति की ध्वनियों (जैसे दौड़ते घोड़े और शेर) का उपयोग एक प्रभावशाली वातावरण बनाने के लिए करता है, जो क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति और प्राकृतिक सुंदरता को दर्शाता है।

ओरछा लाइट एंड साउंड शो ने ने आनन्द के लिये ऐतिहासिक तथ्यों, स्थानीय किंवदंतियों और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि का एक मिश्रण प्रस्तुत किया, जिस में प्राचीन किले को एक जीवंत कैनवास में बदल दिया जाता है। आनन्द के लिये ओरछा के गौरवशाली अतीत को समझने के लिए यह एक मूल्यवान अनुभव बन गया। 

ओरछा एक जीवंत शहर है, जबकि किला एक प्रमुख आकर्षण। शहर में भी चहल - पहल रहती, जो स्थानीय लोगों से बातचीत करने और दैनिक जीवन का अनुभव करने का अवसर प्रदान करता है। रात बहुत हो गई तो आनन्द बाहर खाना खाकर सोने के लिए फार्म पर आ गया।




गंधर्व विवाह

जब मैं सुबह सात बजे ब्लू स्काई रेस्तरां पहुँचा, तो हुकुम सिंह वहीं थे। सुबह के औपचारिक अभिवादन के साथ हमने नाश्ते का आदेश दिया। हुकुम सिंह ने अपनी कहानी आगे बढ़ाई।

हरबोले हुकुम सिंह बताने लगे महाराज अपने अंतर्द्वंद्व में गहन निमग्न थे, जब एक दिवस उन्होंने अपने परम विश्वसनीय मित्र केशव से परामर्श किया। 

राय प्रवीन गुरु केशव की बातों से  तो सहमत थीं। पर वह विवाह को शर्त पर अडिग थी। केशव दस ने यह बात महाराज को बताई। 

महाराज ने कहा, "क्या एक लोहार-पुत्री का बुंदेला कुल में विवाह संभव है? 

क्या यह असंभव नहीं? 

क्या यह धर्म के प्रतिकूल न होगा? 

क्या इससे राजमहल की गरिमा भंग न हो जाएगी?"

केशव ने धीर-गंभीर स्वर में उत्तर दिया, "महाराज, राजमहल की प्रतिष्ठा आपके हृदय से कदापि उच्च नहीं है। यह संघर्ष केवल प्रेम का नहीं, अपितु उस जातिगत तथा सामाजिक विधान के विरुद्ध है जो प्रेम पर जातीयता एवं पदवी को वरीयता देता है। किंतु, प्रत्येक प्रेम-गाथा सुगम नहीं होती।" 

कवि केशव ने महाराज की दुविधा का निवारण करने तथा राय प्रवीन के मान की रक्षा हेतु, ‘गंधर्व-विवाह’ का सुझाव दिया।

आनन्द ने हुकुम सिंह से पूछा "हिन्दू धर्म में कितने तरह से विवाह करने का प्राबधान है?"

हुकुम सिंह ने सनातन धर्म की परंपराओं का उल्लेख करते हुए कहा, “आठ तरह के वैवाहिक तरीकों का विवरण मिलता है जिनमें- 

पहला है ब्रह्म - विवाह को सर्वोत्तम एवं आदर्श माना गया है, जहाँ वर - वधू की पारस्परिक सहमति एवं वैदिक रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह संपन्न होता है।

विवाह का द्वितीय प्रकार है दैव - विवाह। यह विवाह पुरोहितों अथवा धार्मिक अनुष्ठानों हेतु संपन्न किया जाता है, जिसमें कन्या के पिता द्वारा वर को दक्षिणा अथवा उपहार देकर कन्या दान किया जाता है।

विवाह की तृतीय पद्धति है आर्ष - विवाह। यह विवाह ऋषियों अथवा संतों के साथ अनुष्ठित होता है, जिसमें कन्या के पिता को एक गाय अथवा एक बैल प्रदान किया जाता है।

चतुर्थ विवाह पद्धति है प्रजापत्य - विवाह। इस विवाह में कन्या का पिता वर को गृहस्थ धर्म का पालन करने का आदेश देकर कन्यादान करता है।

पंचम पद्धति है असुर - विवाह, जिसमें कन्या को धन देकर क्रय किया जाता है। 

षष्ठम् प्रकार है गंधर्व-विवाह, जिसे प्रेम-विवाह के रूप में भी जाना जाता है। इसमें वर-वधू पारस्परिक प्रेम के वशीभूत होकर परिणय-सूत्र में बंधते हैं।

सप्तम प्रकार है राक्षस-विवाह, जो कन्या का बलपूर्वक अपहरण कर संपन्न किया जाता है।

और अष्टम तथा अंतिम प्रकार है  पैशाच-विवाह । यह विवाह कन्या को छलपूर्वक अथवा अचेतावस्था में रखकर किया जाता है।

हुकुम सिंह ने आगे कहा, "वर्तमान में, ब्रह्म-विवाह और गंधर्व-विवाह ही अधिक प्रचलित हैं, जबकि अन्य प्रकार के विवाह विरले ही होते हैं।" 

आनन्द ने गंधर्व विवाह के सम्बन्ध में प्रश्न किया। 

हुकुम सिंह ने बताया - “गंधर्व-विवाह, जिसे प्रेम-विवाह का प्राचीन रूप भी माना जाता है, एक ऐसा परिणय जो आपसी प्रेम और सहमति पर आधारित होता। जिसमें परिवार या समाज की स्वीकृति अनिवार्य नहीं होती। गंधर्व-विवाह पूर्णतः वर और वधू के बीच आपसी प्रेम, सहमति और अनुराग पर आधारित एक मिलन है। जो बड़े पैमाने पर पारंपरिक अनुष्ठानों, माता-पिता की स्वीकृति अथवा सामाजिक भागीदारी को दरकिनार करता है।”

"गंधर्व" शब्द हिंदू पौराणिक कथाओं में दिव्य संगीतकारों अथवा प्राणियों को संदर्भित करता है। जो संगीत, सौंदर्य और प्रायः उनके सहज मिलन के प्रति प्रेम के लिए विख्यात हैं। 

यह नाम विवाह के एक दिव्य और स्वतंत्र स्वरूप का सुझाव देता है। ऋग्वैदिक काल के दौरान, गंधर्व-विवाह विवाह के लोकप्रिय और स्वीकृत रूपों में से एक था। विशेषकर क्षत्रिय योद्धा वर्ग के मध्य। इसने पुरुष और स्त्री दोनों के लिए पसंद की स्वतंत्रता पर बल दिया।

गंधर्व-विवाह का मूल सिद्धांत यह है कि युगल एक - दूसरे को उपयुक्त पाते हैं। प्रेम में लीन हो जाते हैं, और साथ रहने का निर्णय लेते हैं। उनका आपसी आकर्षण और सहमति ही एकमात्र मानदंड है। यह दो व्यक्तियों के मध्य एक निजी निर्णय था। 

सामान्यतः प्रेम, प्रसन्नता और आजीवन प्रतिबद्धता के सरल वादे। एक सामान्य प्रतीकात्मक कर्म पुष्प-मालाओं (जयमाला) का आदान-प्रदान। यह पति और पत्नी के रूप में एक-दूसरे को स्वीकार करने का संकेत देता। यह एक निजी स्थान में हो सकता, जैसे कि वृक्ष के नीचे, नदी के तट पर अथवा मंदिर में। 

महाराज का मन शंकाओं से भर गया। उन्होंने पूछा, "क्या इस विवाह के कुछ प्राचीन उदाहरण उपलब्ध हैं?"

कवि ने भारतीय परिप्रेक्ष्य में "शकुंतला - दुष्यंत, पुरुरवा - उर्वशी, वासवदत्ता - उदयन" के गंधर्व-विवाह के प्रख्यात उदाहरण गिनाए।

महाराज ने राय प्रवीन को सहमत करने का कार्य केशव दास को सौंपा। पूर्व में राय प्रवीन इस प्रकार के विवाह के विरुद्ध थीं। महाराज राय प्रवीन की एक मुस्कान के लिए सब कुछ करने का मन बना चुके थे। उनकी आँखों में एक दृढ़ संकल्प आ गया। 

कविराज महाराजा की विवशता तथा राजपद की मर्यादा का हवाला देकर, अपने तर्कों से राय प्रवीन को मनाने में सफल रहे। कवि केशव दास ने अपने मित्र ज्योतिषी से शुभ मुहूर्त निकलवाकर चुपचाप गंधर्व - विवाह संपन्न करवा दिया। त्रियाहट से विवश होकर महाराज को राय प्रवीन से गंधर्व - विवाह करना पड़ा।

राय प्रवीन के पिता को दुःख था कि उनकी बेटी के विवाह में सगाई, मातृ-पूजन, निकासी, चीकट, सुहागली खिलाना, तेल-बान, कंकण-बंधाई, कन्यादान, फेरे, सिंदूर, मंगलसूत्र तथा गृह-प्रवेश आदि की परंपराएँ उस रीति से नहीं निभाई गईं जैसी बुंदेलखंड के विवाहों में होती आई थीं।

आनंद भवन के विशाल प्रांगण में खड़े होकर हुकुम सिंह ने कहा, "महाराज बड़े धूम-धाम से उन्हें आनंद भवन में रहने के लिए ले आए।" इस अवसर पर बुंदेलखंडी प्रसिद्ध मिठाइयाँ, जैसे जलेबी, मालपुआ और कलाकंद ('रसखीर' जो दूध और बाजरे के साथ महुआ के फूलों के अर्क से बनती है) तथा पूड़ी के लड्डू, करौंदे का पकवान 'अनवरिया', थोपा बफौरी, महेरी आदि पकवान बनवाए गए।

महाराज ने राय प्रवीन को बुंदेलखंड में महिलाओं की पारंपरिक पोशाक, जिसमें लहंगा, चोली और ओढ़नी, लाल एवं काले जैसे रंगों में समाहित थी, भेंट की। समारोह में बुंदेलखंड के लोक नृत्यों में 'राई' का आयोजन किया गया।

नृत्य करने वाली महिलाओं का मुख स्पष्ट दिखे, इसके लिए दो व्यक्ति मशाल लिए नर्तकी के दोनों ओर उपस्थित थे। नृत्य के साथ मृदंग, ढोलक, मजीरा, टिमकी व बीच-बीच में रमतूला भी बजाया जा रहा था। दिन भर की थकान के उपरांत महाराज का मन राय प्रवीन के सान्निध्य में उमंग व उत्साह से भर उठा।

महाराज के लिए राय प्रवीन ओरछा का जगमगाता रत्न थीं, तो राय प्रवीन के लिए महाराज साक्षात शिव शंकर। दोनों एक-दूसरे के पूरक । राय प्रवीन ने इस अवसर पर लिखा -

"वृषभ बाहनी अंग उर, वासुकी लसत प्रवीन। 

शिव संग सोहे सदा शिवा की राय प्रवीन।"

उनके रचित छंद महाराज को भाव - विभोर कर जाते। वह महाराज की उपासना पति रूप में करती। उनकी एक-एक साँस महाराज को समर्पित थी और वह थी पतिव्रता का साकार रूप।

महाराज ने राय प्रवीन के बारे में एक छंद लिखा -

 "शोभा सुभ सानी, परमार्थ निधानी दीहा।

 कलुष कृपाणी मणि, सब जग जानी है। 

पूरव के पूरे पुण्य, सुनी जय परवीन। 

राय तेरी वाणी मेरी रानी, गंगा कैसो पानी है।" 

आनन्द और हुकुम सिंह बातें करते - करते आनंद भवन आ गए थे।

यह एक विचित्र विडंबना है कि जहाँ पुरुष अपने प्रेम को छिपाना चाहता है, वहीं स्त्री उसे सामाजिक स्वीकृति दिलाकर सबको बताना चाहती है। पुरुष को प्रेम करने के लिए अवसर चाहिए, और स्त्री को कारण।

महाराज इंद्रजीत और राय प्रवीन के प्रेम की डोर  थी अत्यंत सुदृढ़। राय प्रवीन की कविताओं में संयोग श्रृंगार के अनेकों चित्र मिलते हैं, और उन गीतों की नायिका राय प्रवीन स्वयं तथा नायक राजा इंद्रजीत थे। यद्यपि वह एक दरबारी गायिका थीं और वे राजा थे। फिर भी दोनों एक-दूसरे के बिना व्याकुल रहते थे।

उत्कट श्रृंगार की कविताओं के साथ ही राय प्रवीन ने कुछ विवाह गीत और गारियाँ भी रचीं। राज परिवार के विभिन्न समारोहों में दरबारी गायिकाओं के गायन हेतु राय प्रवीन ने इन गीतों का सृजन किया था।

हुकुम सिंह ने महल की ओर इशारा करते हुए बताया कि महाराज ने राय प्रवीन के लिए इस आनंद भवन का निर्माण करवाया था। तीन मंजिला इस महल की दूसरी मंजिल पर एक केंद्रीय कक्ष है। जिसकी भित्तियों पर राय प्रवीन के विभिन्न रूपों के चित्र और चित्रण उत्कीर्ण हैं। महल से जुड़ा एक भव्य उद्यान भी है, जो दो भागों में विभाजित है।

यह महल एक विशाल हवेली है।जिसमें बड़ी खिड़कियों वाले छोटे कक्ष हैं। जहाँ पर्याप्त प्रकाश और वायु का संचार होता है। महल का अर्ध - भूमिगत ग्रीष्मकालीन कक्ष हवा को ठंडा रखने के लिए बनाया गया है। राय प्रवीन महल अद्भुत वास्तुकला का एक आदर्श गढ़ है। जो प्रकृति की सुंदरता से घिरा हुआ है। महल के एक किनारे से बेतवा नदी का अद्भुत दृश्य दिखाई देता है। हम लोग घूम-घूम कर महल के कमरों का अवलोकन कर रहे थे।

महाराज ने इस महल को आनंद भवन नाम दिया था। इसमें भित्ति चित्रों के माध्यम से गायन और नर्तन की सुंदर छवियाँ अंकित की गई। ये चित्र राय प्रवीन की कला मुद्राओं का विवरण हैं।  विभिन्न प्रणय मुद्राएँ उनकी प्रेम गाथा का चित्रण करती हैं। दूसरी मंजिल को भारतीय नृत्य की मुद्राओं से सुसज्जित किया गया। महल के भीतर कई भित्ति चित्र हैं, जो राय प्रवीन के स्वरूप को दर्शाते हैं।

महल में राजा और नृत्य करती राय प्रवीन के बने चित्र इस प्रेम कहानी को जीवंत बनाए हुए हैं। महल में प्यार की गाथा लिखी गई है। इसमें बने चित्र में राय प्रवीन पुष्प लेकर राजकुमार की ओर चलती हुई प्रतीत होती हैं, और कुछ ही दूरी पर घोड़े पर सवार राजकुमार भी अपनी प्रेमिका की ओर बढ़ता दिखता है।

यहाँ के द्वारों, झरोखों तथा हर दीवार में नृत्य और संगीत गूँज रहा है। जहाँ नूपुरों की झंकार सुनाई देती है। यह महल राय प्रवीन की कला को समर्पित महाराज की ओर से एक अनुपम उपहार। दोनों प्रेम के रसमय सरोवर में आकंठ डूबे हुए। समय अपनी गति से गुजरता जा रहा था।

राय प्रवीन को पुष्पों से अत्यंत प्रेम था। महल के बाहर एक अत्यंत सुंदर उद्यान बनवाया गया था। जिसके पुष्प, लता-गुल्म और लताओं की वल्लरी सब कुछ अनुपम थे।

गुणकारी महाराज ने राय प्रवीन को यह महल दिया। ओरछा में उन्हें सभी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह भवन मानो राय प्रवीन का न होकर, देवलोक का ही एक अंश हो। कवि केशव दास ने इस भवन की तुलना देवलोक से की थी।

कवि केशव ने राय प्रवीन के लिए “कविप्रिया” की रचना की थी, जिसमें राय प्रवीन की झलक देखने को मिलती है कि उनका व्यक्तित्व कैसा था। वे लिखते हैं -

"राय प्रवीन की शारदा, शुचि रुचि राजत अंग।

 वीणा पुस्तक भारती, राजहंस युत संग।।

 वृषभ वाहिनी अंग युत, वासुकि लसत प्रवीन। 

सिव संग सोहे सर्वदा, सिवा की राय प्रवीन।।"

हुकुम सिंह ने रोचक विवरण देते हुए बताया कि मेहमान विदा हो चुके थे। वे दोनों अब रंगमहल में अकेले थे। बाहर से दरवाजे बंद थे, केवल पहरेदार दूर पहरा दे रहे थे। रात का दूसरा पहर आरंभ हो चुका था।

राय प्रवीन की त्वचा इतनी नर्म और गोरी थी, मानो चंद्रमा की रोशनी को किसी ने छूकर काँच में कैद कर लिया हो। उसके लंबे केश, उसकी चलने की अदा, और सबसे अधिक उसकी आँखें। उन आँखों में एक अजीब सी भूख, जैसे वह केवल प्रेम नहीं, कुछ और भी चाहती हो। कुछ ऐसा जो उसकी आत्मा को भी छू जाए या शायद किसी की आत्मा को निगल जाए।

प्रजा में कानाफूसी चल रही थी - 

"महाराज ने इतनी छोटी लड़की से विवाह क्यों किया?" 

कुछ कहते, "राजा बूढ़ा हो गया है, मगर उसकी हवस अभी जवान है।" 

और कोई फुसफुसाता, "शायद यह विवाह नहीं, कोई चाल है।" 

महाराज को इन फुसफुसाहटों से कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें बस राय प्रवीन की मुस्कान चाहिए। राय प्रवीन भी मुस्कुरा रही थी, उसके चेहरे पर मासूमियत थी।

अंदर ही अंदर वह हर कमरे, हर दृष्टि और हर व्यक्ति को गौर से देख रही थी। उसके मस्तिष्क में एक खेल शुरू हो चुका था। पहली रात जब उसे राजा के शयन कक्ष में लाया गया। कमरा इत्र की महक से भरा हुआ था।

महाराज दर्पण में अपना चेहरा देख रहे थे। उन्होंने लाल चादर ओढ़ रखी थी। जिस पर सोने के धागों की कढ़ाई थी। उनकी आँखें चमक रही थीं, जैसे वे स्वयं को बीस वर्ष का महसूस कर रहे हों। राय प्रवीन धीरे - धीरे कमरे में आईं। नजरें झुकी हुई थीं। पर भीतर से वह हर पल को समझ रही थी। वह जानती थी कि आज कमरे में केवल शारीरिक संबंध नहीं बनना है, बल्कि उसके भविष्य के जीवन का पहला कदम उठेगा।

आज की सर्द रात में चाँदनी ठंडी थी। मगर दिलों की धड़कनें गर्म थीं। आनंद महल का रंगमहल आज एक रूमानी रात का गवाह बना। महाराज ने हल्के रंग की पोशाक पहनी थी। जो रात के अंधेरे में उन्हें और रूमानी बना रही थी।

उनकी नज़रें एक आहट पर टिकी थीं। राय प्रवीन धीमे कदमों से चली आ रही थीं। सिर पर हल्की चुन्नी। चेहरा चाँद की तरह उज्ज्वल। उनकी चलने की रफ्तार में न घबराहट थी न हिचक। उनका दिल बहुत कुछ सोच चुका था। अब फैसला हो चुका था। दोनों एक-दूसरे के सामने रुके। कुछ क्षण ऐसे थे जब वक्त ने खुद को रोक लिया। महाराज ने हाथ बढ़ाया। राय प्रवीन ने पल भर उन्हें देखा, जैसे पूछ रही हो कि क्या वाकई यह हक़ है तुम्हारा?

फिर धीरे से अपना हाथ उनके हाथ में रख दिया। उनके हाथों की नमी, हल्की सी कंपकंपी और धड़कनों का तेज होना - सब कुछ दोनों ने महसूस किया। महाराज ने उसकी हथेली को थोड़ी देर पकड़े रखा। फिर धीरे से उसे अपनी तरफ खींच लिया।

राय प्रवीन की आँखें बंद हो गईं। हल्की साँसें तेज़ हो चलीं। इंद्रजीत ने उसका चेहरा अपने हाथों में लिया। वह चेहरा जिसे अब तक दूर से देखा था। अब वह सामने था। नज़दीक और हकीकत से भी ज्यादा खूबसूरत।

उसके गालों की गर्माहट। उसकी पलकों की हलचल। सब कुछ बयान कर रहा था। वह भी उतना ही डूब चुकी थी। जब पहली बार मिठाई का दोना उसके आँचल में रखते समय उनका हाथ राय प्रवीन को छू गया था, तब वह काँप गई थी। वह काँपना कोई डर नहीं था। वह एक इकरार था। उस काँपने में सालों से दबे जज्बात, पाबंदियाँ, बंद दरवाजों और बेआवाज़ सिसकियों का हल्का सा कंपन था। उसकी रूह कह रही हो, "हाँ! अब मत रोको।" 

दोनों कुछ नहीं बोले और चुपचाप पलंग के किनारे बैठ गए। कभी - कभी इश्क केवल पास बैठने भर से खुद को पूरा कर लेता है। वह रात पहली थी। पर आखिरी नहीं थी।

आनंद महल के बीच दोनों की खामोशी अब रंगमहल का हिस्सा बन गई थी। इन दोनों की मुलाकातों में एक अलग तरह का जोश, अलग तरह का आकर्षण था। वे केवल बातों के माध्यम से ही नहीं, बल्कि अपनी खामोशी तथा एक-दूसरे की धड़कनों के माध्यम से भी बातें करने लगे। राय प्रवीन का दिल अब महल में होने वाली हर हलचल में महाराज को ही महसूस करता था।

उसकी नज़रें, उसकी चुप्पी के साथ हर गुज़रे हुए लम्हे में महाराज की तलाश करती थी। और वहीं इंद्रजीत का दिल भी राय प्रवीन की सोच में बसा हुआ था।

महाराज राय प्रवीन को महँगे आभूषणों, वस्त्रों तथा उपहारों से लादने लगे। महाराज यह समझ नहीं पा रहे थे कि इतना वैभव होने के बाद भी राय प्रवीन उदास क्यों दिखती है? वह सोचते। 

क्या राय प्रवीन का मन कहीं और है? 

वह छजै में खड़ी होकर बाहर राजमहल को क्यों देखती है? "क्या यहीं है वो जीवन जो उसने चाहा था?" 

महाराज राय प्रवीण का उत्तर जानते। वह था "नहीं।" "मुझे सिर्फ प्यार नहीं, रूह भी चाहिए।" 

जब महाराज उसके साथ नहीं होते। रात के सन्नाटे में जब सब सो जाते। राय प्रवीन जागती रहती। उसके मन में एक ही विचार इंद्रजीत का। धीरे - धीरे उसके मन में असुरक्षा की भावना घर कर रही थी।

एक रात महल में एक जलसा था। इसका कोई विशेष उद्देश्य नहीं था। सिर्फ महल की धड़कनों को तेज़ करना था। संगीत की लहरें। मदिरा की खुशबू और रातरानी के फूलों सी महकती रागनी। लेकिन यह रात कुछ ख़ास थी। इस रात में उन दोनों की मुलाकात एक नया मोड़ ले रही थी। महाराज आज जलसे का हिस्सा नहीं होना चाहते थे।

वे चुपचाप रंगमहल में राय प्रवीन के कक्ष में पहुँचे। राय प्रवीन कुछ गुनगुना रही थी। उसके केश उसकी पीठ पर झूल रहे थे। जो बता रहे थे कि आज वह भी कुछ ख़ास महसूस कर रही थी। वह दर्पण में अपना रूप देख रही थी।

उसकी पीठ महाराज की ओर थी। जैसे ही उसने महाराज की नज़रें दर्पण में देखीं। वह एकाएक मुड़ी। उसका दिल ज़ोर - ज़ोर से धड़कने लगा। महाराज ने बिना कुछ कहे धीरे - धीरे उसे अपने पास बुलाया। राय प्रवीन ने एक पल के लिए पीछे देखा। फिर आगे बढ़ी। उसका चेहरा अब महाराज के ज़्यादा करीब था। 

उसकी आँखें अब खुलकर देख रही थीं। संगीत की आवाज़ हल्की पड़ गई। जैसे सब कुछ उन दोनों के बीच ही घटित हो रहा हो। महाराज ने अपनी आँखों से राय प्रवीन को महसूस किया। फिर धीरे से कंधे पर उसका सिर रखा।

राय प्रवीन ने अपनी आँखें बंद कीं। उनके स्पर्श को महसूस किया। कंधे पर सिर रखने के बाद एक अजीब सा अहसास। दोनों के अंदर फैल गया। उस छुपे हुए आकर्षण ने अपने दरवाज़े खोल दिए। महाराज की उँगलियाँ राय प्रवीन के केशों में समा गईं। उसकी त्वचा के हल्के स्पर्श के साथ वे अपनी इच्छा व्यक्त करने लगे। राय प्रवीन की साँसों की गति तेज़ हो गई । जैसे वह भी इसी पल को चाह रही हो। इंद्रजीत ने एक हल्की सी मुस्कान के साथ राय प्रवीन की आँखों में देखा। फिर उसके गालों पर हल्के से उंगली से इशारा किया। राय प्रवीन ने अपनी आँखें खोलीं और दोनों की आँखें एक-दूसरे से जुड़ी रहीं। यह नज़दीकी अब उनके दिलों की गहराई में महसूस होने लगी थी। उनके दिल की धड़कनें एक ही लय - ताल पर चलने लगी थीं।

लेकिन किसी कारणवश दोनों रुक गए। उनका आकर्षण उस पल में बहुत तीव्र था। फिर भी दोनों ने अपने इरादों को थाम लिया। एक जटिलता थी। एक दीवार थी। जो उन दोनों के बीच खड़ी थी। वह दीवार थी सत्ता की। रियासत की और पारंपरिक संबंधों की। महाराज जानते थे कि यदि वह इस रास्ते पर चले तो उन्हें अपने भविष्य के बारे में फिर से सोचने की ज़रूरत होगी। और राय प्रवीन उन जटिलताओं से परिचित नहीं थीं। वे थोड़ी देर चुप रहे। राय प्रवीन की साँसों की रफ़्तार धीमी हो गई थी। और इंद्रजीत ने कदम पीछे खींच लिए।

उनकी नज़दीकियों का वह पल खत्म हो चुका था। मगर उन दोनों की आत्मा में एक जलन बाकी रह गई थी। जो आग और फिर ज्वाला बन गई थी। राय प्रवीन दौड़ी और इंद्रजीत के आगोश में समा गई। सारे सवाल मिट गए। लगा कि धरती - आसमान एक हो गए। यह सिर्फ एक मुलाकात नहीं थी। यह एक यात्रा थी। एक ऐसी यात्रा जो दोनों के शरीरों और दिलों के बीच एक नई दुनिया खोलने जा रही थी। अब वे दोनों अपनी मुहब्बत को छुपाने की कोशिश नहीं कर रहे थे। दोनों की आँखों में एक अजीब सा आकर्षण था। जो अब और भी गहरा हो गया था।

राय प्रवीन के अंदर एक हल्की सी लज्जा थी। जो इंद्रजीत के मन में एक ताज़गी भर देती। उसकी मासूमियत में भी एक तरह की उग्रता थी। और वह उग्रता महाराज की सारी तल्लीनता को और बढ़ा देती थी। अब वे एक-दूसरे के बिना नहीं रह पाते थे। यह एक दबाव था। एक आग जो दोनों के भीतर ज्वाला बन गई थी। रंगमहल का यह कमरा अब उनकी इच्छाओं का प्रतीक बन चुका था। आनंद भवन में चलने वाली महफिलें, संगीत और मदिरा की खुशबू अब उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी। उनका ध्यान सिर्फ एक - दूसरे पर था।

हुकुम सिंह के ज्ञान को देखकर मैं हतप्रभ था। यह बहुत अनोखा आदमी था। आज का पूरा दिन हुकुम सिंह और आनन्द ने इसी भवन में गुज़ार दिया था। इस भवन की खिड़की से इंद्रजीत सिंह का महल दिखता था। सामने बेतवा की धारा डूबते सूरज की रोशनी में सोने जैसी चमक रही थी। वातावरण बहुत रूमानी था। मैंने उस युग की कल्पना की जब यह प्रेम कहानी शुरू हुई होगी।

हुकुम सिंह ने बताया कि आज भी जो प्रेमी जोड़ा ओरछा आता है। वह यहाँ ज़रूर आता है। आनन्द ने देखा दीवारों पर जगह - जगह प्रेमियों ने अपने नाम उकेर कर लिख रखे थे। जैसे वे सब अपने प्रेम को इस प्रेम महल में अमर कर देना चाहते हों। आनन्द ने मन ही मन सोचा कि आपका प्रेम उधार के महल में अमर नहीं हो सकता। उसके लिए तो आपको अपना महल बनाना होगा।


बुंदेलखंड

पहली दिवाली पर रात्रि में ओरछा नरेश राजा इंद्रजीत सिंह ने रामराजा और लक्ष्मी पूजन के पश्चात् राजमहल से सीधे अपनी प्रेयसी राय प्रवीन के महल की ओर आने की सूचना द्वारपाल को दी। सूचना मिलते ही राय प्रवीन के महल में हलचल बढ़ गई। दुंदुभी की आवाज़ से राय प्रवीन महल में महाराज का स्वागत हुआ। द्वार पर राय प्रवीन की खास सखी और दासी महुआ ने महाराज को कुमकुम और हल्दी-चावल माथे पर लगाकर स्वागत किया। 

छन-छन - छन की आवाज़ ने वातावरण में मधुरता घोली। महल के अंदर से महाराज की हृदय साम्राज्ञी, रूप सुंदरी राय प्रवीन का आगमन हुआ। हुकुम सिंह ने सीधे आनन्द की आंखों में झांका जहां उसे प्यार के धागे साफ नजर आये। 

राय प्रवीन के कहने पर महाराज ने अपनी आँखें बंद कर लीं। आँखें बंद किए हुए कुछ पल भी नहीं बीते कि पूरा प्रांगण संगीत की सुमधुर स्वर-लहरियों से गूँज उठा। ढोल, तबला, सारंगी के मधुर स्वर मन को मदमस्त कर रहे थे। 

महाराज भी मदहोश होकर उस मधुरिम स्वर में खो गए। वादक गणों को छोड़कर अन्य सभी लोग वहाँ से हट गए। सुरक्षा प्रहरी महल के चारों तरफ फैल गए। पूरा माहौल सुगंधित इत्र से महक रहा था।

फिर उसकी अमृतमयी सरगम ने उन्हें आँखें खोलने पर मजबूर कर दिया। जैसे ही उन्होंने आँखें खोलीं, तो देखते ही रह गए। सामने राय प्रवीन महल के प्रांगण में बने चबूतरे पर मनमोहक फर्श बिछा हुआ था। संपूर्ण प्रांगण को धवल चाँदनी से ढक दिया गया था। चाँदनी के अंदर विभिन्न रंगों के झाड़-फानूस जगह-जगह चाँदनी की छत से झूल रहे थे। 

चाँदनी में लटके रंगीन झाड़-फानूसों से रंगीन प्रकाश संपूर्ण पंडाल और मंच को इंद्रधनुषी रंग में प्रकाशित कर रहा था। कार्तिक अमावस्या की घनघोर अँधेरी रात में पूरा ओरछा दीप - मालाओं से सजा हुआ था, मानो चाँदनी धरती पर उतर आई हो।

दूर से दुर्ग और महलों के परकोटे, बुर्ज पर लाखों दीपक ऐसे टिमटिमा रहे थे। जैसे किसी उपवन में जुगनुओं की फौज बैठी हो। तभी आकाश में आतिशबाजी होने लगी। अभी तक घने अंधेरे में गुमसुम सा बैठा आसमान किसी नववधू की भाँति खिल उठा। आकाशीय आतिशबाजी के प्रतिबिंब बेतवा के जल पर रोशनियों की लहरें बना रहे थे। आज दीपावली के विशेष श्रृंगार ने राय प्रवीन के सौंदर्य को चार चाँद लगा दिए थे। महाराज अपने विशिष्ट आसन पर विराजे। 

राय प्रवीन के कमर की स्वर्ण करधनी एवं पैरों का नूपुर रुन-झुन की सुमधुर ध्वनि पैदा कर रहे थे। स्वर्ण तारों और सितारों के साथ मोतियों से टँकी चंदेरी सिल्क की रानी रंग का लहंगा, चुनरी एवं चोली में वह स्वर्ग की अप्सरा लग रही थी। 

राय प्रवीन के नाक में नगीनों जड़ा नकमोती एवं नथिया, कानों में हीरे-मोतियों की जड़ाऊ झुमकी, हाथों की कलाइयों में रत्न जड़ित कंगन राय प्रवीन के अनुपम यौवन को अत्यधिक मादक बना रहे थे। पैरों में गाढ़ा महावर, हाथों में गाढ़ी मेहंदी उसके अनिंध यौवन को आकर्षक एवं दैवीय रूप प्रदान कर रही थी।

उसके ललाट पर लटक रहा  हीरा - मोती जड़ा माँग टीका, जिससे जल रहे दीपों का प्रकाश इंद्रधनुषी प्रकाश उत्पन्न कर रहा था। राय प्रवीन उद्दाम यौवन का मद बिखेरते हुए सधे कदमों से चल रही थी। उसके गदराए बदन की सुगंध से संपूर्ण वातावरण सुगंधित हो उठा। 

उसकी गजगामिनी चाल और लोचदार कटिबंध उसे कामदेव की रति का रूप प्रदान कर रहे थे। उसका गौरांग शरीर अमावस्या की अँधेरी रात्रि में चमक रहा था। राय प्रवीन के नितंब पर झूलते लंबे बालों की वेणी काली नागिन का आभास दे रही थी।  

राय प्रवीन ने घूँघट में रहते हुए श्री रामराजा, भगवान जुगल किशोर, भगवान चतुर्भुज और बुंदेला वंश की कुलदेवी विंध्यवासिनी के मंदिर की दिशा में उन्मुख होकर सिर झुकाकर करबद्ध प्रणाम किया। घूमकर अपने पूज्य गुरुदेव आचार्य केशव दास को प्रणाम करने के पश्चात् अपने प्रिय महाराजा इंद्रजीत को करबद्ध प्रणाम किया। 

महाराजा उसके सम्मोहक सौंदर्य के मायाजाल में उलझकर एकटक देख रहे थे। राय प्रवीन ने अपने मनमोहक नृत्य से न केवल महाराज को प्रसन्न किया, बल्कि उपस्थित चराचर जीव भी मुग्ध हो गए।

इंद्रजीत ने धीरे से राय प्रवीन के चेहरे की ओर हाथ बढ़ाया और उसने उनकी तीव्रता को महसूस किया। दोनों के बीच अब शब्दों की जरूरत नहीं रह गई थी। उनकी आँखें तथा दिल एक - दूसरे से बातें करने लगे थे। आखिरकार समारोह समाप्त हुआ। महाराज तथा राय प्रवीन अब अपने कक्ष में अकेले थे। केवल बाहर पहरेदारों के चलने की आवाजें आ रही थीं।

राय प्रवीन ने आँखों से एक संकेत किया और इंद्रजीत के ओठों ने उसके ओठों को अपनी छाया में ले लिया। उसकी पलकों का हल्का झपकना एक संकेत था। अब यह इश्क नहीं रह गया था। यह आग बन चुकी थी जो दोनों के शरीरों और आत्माओं में फैल चुकी थी। राय प्रवीन की त्वचा की हर परत में एक ताज़गी थी। वह महसूस करती थी कि महाराज के सान्निध्य में उसकी प्रतिभा और निखर रही थी। जो कविताओं, नृत्य तथा गायन में बह उठी थी।

राजा इंद्रजीत ज़्यादा से ज़्यादा समय आनंद भवन में बिताते थे। उन्होंने राय प्रवीन को बुंदेलखंड का इतिहास बताया, ताकि वह राजवंश से परिचित हो सकें। हुकुम सिंह और आनन्द अपने अपने ठिकाने लौट गए थे। 

शाम को आनन्द संजय के साथ बैठा था। आज भोजनोपरांत हम बाहर आ बैठे। उनकी धर्मपत्नी भी कार्य समाप्त कर हमारे समीप आकर बैठ गई। संजय से बुन्देलखण्ड के इतिहास को जानने की मंशा जाहिर की। 

संजय को बुंदेलखंड का इतिहास लगभग कंठस्थ था। उन्होंने मुझे बताया कि महाराज मधुकरशाह के आठ पुत्र थे। जिनमें इंद्रजीत अत्यंत मेधावी थे। जब राजकुमार इंद्रजीत को उनके पिता ने अध्ययन हेतु वाराणसी भेजा। तब गुरुजनों से अनुरोध किया गया कि उन्हें राजकाज में दक्ष बनाना है। अतः उन्हें बुंदेलखंड का गहन ज्ञान होना अनिवार्य है। परिणामस्वरूप, इंद्रजीत को बुंदेलखंड का इतिहास अत्यंत विस्तृत रूप से पढ़ाया गया।

आनन्द ने संजय से जिज्ञासावश प्रश्न किया, "हमारे देश के किस भू-भाग को बुंदेलखंड कहा जाता है?" 

संजय ने भीतर से एक पुस्तक लाकर, उसके एक पृष्ठ पर अंकित मानचित्र दिखाते हुए समझाना आरंभ किया - "बुंदेलखंड क्षेत्र की सीमा उत्तर में गंगा - यमुना का विस्तृत मैदान तथा दक्षिण में विंध्याचल पर्वतमाला द्वारा निर्धारित होती है। यह एक मध्यम ढलान वाली उच्च भूमि है।" बुंदेलखंड की सीमाओं के संबंध में एक दोहा प्रचलित है -

"इत जमना उत नर्मदा, इत चंबल उत टोस। 

छत्रसाल से लरन की, रहीं न काउ होस।।"

"इस क्षेत्र में इतनी दरिद्रता क्यों है?" मैंने अपना अगला प्रश्न रखा। 

संजय ने बताया कि इस भू-भाग में मानसूनी वर्षा न्यून होती है। कभी-कभी वृष्टि इतनी अल्प होती है कि सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अधिकांश कृषि मानसून पर ही आश्रित है। उन्होंने हँसते हुए कहा, "इस क्षेत्र में जल के अभाव के कारण एक कहावत प्रचलित है -

"मेघ करोटा ले गओ, इन्द्र बांध गऔ टेक। 

बैर मकोरा यो कहे, मरन ना पावे एक।।"

ज्वार तथा कोदों यहाँ की प्रमुख फसलें हैं।  किंतु जब अकाल पड़ता है, तो निर्धन जन महुआ और बेर खाकर ही अपना जीवन-यापन करते हैं। जो बुंदेलखंडवासियों का सर्वाधिक प्रिय भोजन है। ये दोनों वृक्ष इस अंचल के सर्वाधिक लोकप्रिय वृक्ष हैं। यहाँ महुआ को मेवा, बेर को कलेवा (प्रातःकालीन नाश्ता) और गुलचुल को सर्वोत्तम मिष्ठान माना जाता है। जैसा कि इस पंक्ति से स्पष्ट होता है -

"मउआ मेवा बेर कलेवा गुलचुल बड़ी मिठाई। 

इतनी चीज़ें चाहो तो गुड़ाने करो सगाई।।"

जब संजय यह दोहे सुनाते तो उनका स्वाभाविक कवि ह्रदय झलक जाता ।

"तो फिर इस क्षेत्र का इतिहास क्या है?" मैंने अत्यंत विनम्रतापूर्वक जिज्ञासा की। 

उन्होंने उत्तर दिया, "बुंदेलखंड सुदूर अतीत में शाबर, कोल, किरात, पुलिंद और निषादों का प्रदेश था। आर्यों के बुंदेलखंड में आगमन पर इन जनजातियों ने प्रबल प्रतिरोध किया। वैदिक काल से लेकर बुंदेलों के शासनकाल पर्यान्त दो सहस्त्र वर्षों में इस प्रदेश पर अनेक जातियों और राजवंशों ने शासन किया। 

उन्होंने अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से इन जातियों के मूल संस्कारों को प्रभावित किया। विभिन्न शासकों में मौर्य, शुंग, शक, हूण, कुषाण, नाग, वाकाटक, गुप्त, कलचुरि, चंदेल, अफगान, मुगल, बुंदेला, बघेल, गौड़, मराठे और अंग्रेज प्रमुख रहे।"

महाभारत और रघुवंश के आधार पर यह माना जाता है कि मनु के पश्चात् इक्ष्वाकु आए और उनके तृतीय पुत्र दंडक ने विंध्यपर्वत पर अपनी राजधानी स्थापित की। मनु के समानांतर बुध के पुत्र पुरुरवा माने गए। इनके प्रपौत्र ययाति थे, जिनके ज्येष्ठ पुत्र यदु और उनके पुत्र कोष्टु भी जनपद काल में चेदि (वर्तमान बुंदेलखंड) से संबद्ध रहे। पौराणिक काल में बुंदेलखंड प्रसिद्ध शासकों के अधीन रहा। जिनमें चंद्रवंशी राजाओं का आधिपत्य सर्वोपरि था। इस प्रकार, पौराणिक युग का चेदि जनपद ही प्राचीन बुंदेलखंड है।

आज का समय समाप्त हो जाने के कारण मैं अपने कक्ष में विश्राम हेतु जाने लगा, तो संजय ने मुझे खजुराहो पर एक पुस्तक पढ़ने के लिए दी। रात्रि में विश्राम करने से पूर्व, मैंने उसे पढ़ना आरंभ किया। पुस्तक के आरंभिक अध्याय में मैंने पढ़ा: 

'बुंदेलखंड में, खजुराहो के मंदिरों के निर्माण के संबंध में एक जनश्रुति प्रचलित है। कहा जाता है कि एक बार राजपुरोहित हेमराज की सुपुत्री हेमवती संध्याकाल में सरोवर में स्नान करने पहुँचीं। उसी समय चंद्रदेव ने स्नान करती हुई अत्यंत लावण्यमयी हेमवती को देखा, तो उन पर उनके प्रेम की धुन सवार हो गई। 

उसी क्षण चंद्रदेव अत्यंत मनोरम हेमवती के समक्ष प्रकट हुए और उनसे गन्धर्व - विवाह का निवेदन किया। ऐसी मान्यता है कि उनके मधुर संयोग से एक पुत्र का जन्म हुआ और उसी पुत्र ने चंदेल वंश की स्थापना की। 

हेमवती ने समाज के भय के कारण उस पुत्र का वन में, कर्णावती नदी के तट पर पालन - पोषण किया। पुत्र को चंद्रवर्मन नाम दिया। अपने समय में चंद्रवर्मन एक अत्यंत प्रभावशाली राजा माने गए। चंद्रवर्मन की माता हेमवती ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और ऐसे मंदिरों के निर्माण का आदेश दिया, जो समाज को यह संदेश दें कि कामेच्छा को भी जीवन के अन्य पहलुओं के समान अनिवार्य समझा जाए और कामेच्छा की पूर्ति करने वाला व्यक्ति कभी दोषी न हो।' 

पुस्तक अत्यंत रोचक ढंग से आरंभ हुई। जिससे मेरी नींद गायब हो गई। मैं पढ़ता चला गया। 'माता हेमवती द्वारा स्वप्न में दर्शन दिए जाने के पश्चात् चंद्रवर्मन ने मंदिरों के निर्माण हेतु खजुराहो का चयन किया। खजुराहो को अपनी राजधानी बनाकर उन्होंने यहाँ पचास वेदियों का एक विशाल यज्ञ संपादित किया। कालान्तर में पचास वेदियों के स्थान पर ही पचास मंदिरों का निर्माण करवाया। जिनका निर्माण चंदेल वंश के आगामी राजाओं ने जारी रखा।'

खजुराहो में मंदिरों का समूह मानो कवि - कल्पना को मूर्ति रूप में पृथ्वी पर उतार लाया। शिल्पी का स्वप्न जैसे साकार हो उठा। अपने विशाल मंडपों, अंतरालों, आमलक शिखरों, अनुशिखरों और स्तूपिका से सुसज्जित ऊँची मीनारों तथा अपनी असंख्य अनुपम शिलाकृतियों से विभूषित यह मंदिर समूह दर्शनार्थियों को अपने अनुपम सौंदर्य का आमंत्रण देता है। मंदिरों की बाहरी और भीतरी दोनों ओर की भित्तियाँ देवताओं, अप्सराओं, सुंदरियों, विद्याधरों, युगल-मिथुनों, गज (हाथियों) और शार्दूलों (पौराणिक सिंहों) की सुंदर कला-कृतियों से अलंकृत हैं। 

खजुराहो के शिल्पियों का कृतित्व अनुपम है। उनकी नारी प्रतिमाएँ इतनी सुंदर हैं कि उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो जड़ में चेतन अपने संपूर्ण वैभव के साथ जाग उठा हो। इतना सम्मोहन है कि पाषाण (पत्थर) में जीवन-स्पंदन का भ्रम होने लगता है। 

खजुराहो के शिल्पियों ने नारी के जीवन और भाव के प्रत्येक रूप का अंकन किया है। कभी शाल्भंजिका (वृक्ष की शाखा थामे नारी) के रूप में। तो कभी अपने प्रेमी के साथ काम - क्रीड़ा और भोग - विलास करते हुए। सखियों के साथ हास - परिहास और वार्तालाप करते। बच्चों को स्तनपान कराते। श्रृंगार करते। सोते, उठते - बैठते। प्रत्येक स्थिति में तन्मय और भाव-विभोर होकर।

विशाल अर्ध-निमीलित नेत्र, उन्नत उरोज (उभार लिए वक्ष), भारी नितंब, अनेक टेढ़ी-मेढ़ी भंगिमाएँ, भरे अधरों पर तैरती तरल हँसी अथवा मुस्कुराहट में प्रेम का मौन निमंत्रण नारी - मूर्ति-शिल्प की प्रमुख विशेषता है। 

चौदहवीं शताब्दी में चंदेल खजुराहो से प्रस्थान कर गए थे। उसी के साथ वह दौर समाप्त हो गया। ऐसी जनश्रुति है कि चंदेल राजाओं के समय इस क्षेत्र में तांत्रिक समुदाय की वाममार्गी शाखा का वर्चस्व था। ये लोग योग और भोग दोनों को मोक्ष का साधन मानते। खजराहों के नगर देवता भगवान शिव है। इस कारण एक शिव मंदिर में यहां एक हजार एक शिव लिंग स्थित है।

रात के स्वप्न में आनन्द के मन में खजुराहो की पाषाण मूर्तियां सजीव हो उठी। वह उस अद्भुत संस्कृति के प्रभाव से अभिभूत हो उठा  

अगली सुबह आनन्द की रुचि बुंदेलखंड के इतिहास को जानने की थी। यद्यपि जब आनन्द उठकर कक्ष से बाहर आया। संजय अपनी मेज़ पर कुछ लिख रहे थे। आनन्द ने उन्हें 'नमस्ते' कहकर अभिवादन किया। तो वह उठ खड़े हुए। फिर दोनों बैठ गए। आनन्द ने संजय से खजुराहो के संबंध में जानना चाहा। 

तब संजय ने बताया कि "ये मूर्तियाँ उनके क्रियाकलापों की ही देन हैं। महोबा चंदेलों का केंद्र था। हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् गहरवारों ने इस पर अधिकार कर लिया था।" 

संजय ने अपने सहायक को आनन्द के लिए चाय लाने का आदेश दिया। 

आनन्द ने संजय से पूछा, "क्या चंदेल और बुंदेले एक ही हैं?" 

संजय ने उत्तर दिया, "नहीं, दोनों नितांत भिन्न हैं।" चंदेलों का आदि पुरुष नन्नुक को माना जाता है। इसके पश्चात् वाक्यपति का नाम आता है। वाक्यपति के दो पुत्र हुए - जयशक्ति और विजयशक्ति। जयशक्ति को वाक्यपति के पश्चात् सिंहासन पर आसीन किया गया और उनके नाम से ही बुंदेलखंड क्षेत्र का नाम "जेजाक-भुक्ति" पड़ा, तथा यहाँ रहने वाले 'जिझौतिया' कहलाए। 

संजय ने आगे कहा, "बुंदेले क्षत्रिय जाति के शासक थे तथा सुदूर अतीत में सूर्यवंशी राजा मनु से संबंधित। वाराणसी के राजा कर्णपाल के तीन पुत्र थे - वीर, हेमकरण और अरिब्रह्म। कर्णपाल ने हेमकरण को अपने समक्ष ही राजगद्दी पर आसीन किया था। कर्णपाल की मृत्यु पर शेष दोनों भाइयों ने हेमकरण को पदच्युत कर देश - निकाला दे दिया। अपने भाइयों से त्रस्त होकर हेमकरण ने राजपुरोहित गजाधर से परामर्श लिया। उन्होंने उसे विंध्यवासिनी देवी की पूजा के लिए प्रेरित किया। 

मिर्जापुर में विंध्यवासिनी देवी की पूजा में चार नरबलियाँ दी गईं। देवी प्रसन्न हुईं और हेमकरण को वरदान दिया। परंतु हेमकरण के भाइयों का अत्याचार हेमकरण के लिए अब भी कम नहीं हुआ। कालांतर में उसने एक और नरबलि देकर देवी को प्रसन्न किया। देवी ने पाँच नरबलियों के कारण उसे 'पंचम' की संज्ञा दी। इसके पश्चात् वह विंध्यवासिनी का परम भक्त बन गया। जनसमाज में वह "पंचम विंध्येला" कहलाया।" 

"एक अन्य कथा के अनुसार, हेमकरण ने देवी के समक्ष अपनी गर्दन पर जब तलवार रखी और स्वयं की बलि देनी चाही, तो देवी ने उसे रोक दिया, परंतु तलवार की धार से हेमकरण के रक्त की पाँच बूँदें गिर गई थीं। इन्हीं के कारण हेमकरण का नाम 'पंचम बुंदेला' पड़ा था।"  

"तो फिर बुंदेलों का कालखंड कहाँ से आरंभ होता है?" आनन्द की  उत्सुकता चरम पर पहुँच गई थी। 

संजय ने बताया, "बुंदेला गहरवार, धंधेरे चौहान और पंवार परमार को बुंदेलखंड के 'तीन कुरी के ठाकुर' कहा जाता है। 'तीन कुरी के ठाकुर' ने एक सुदृढ़ गठबंधन बनाकर गढ़ कुंडार के खंगारों को पराजित किया।तत्पश्चात्, गढ़ कुंडार बुंदेलों की राजधानी बनी। 

"फिर ओरछा बुंदेलों की राजधानी कब बनी?" आनन्द ने उसके मन में उठे सवाल को संजय से पूछा। 

संजय ने बताया - “महाराजा रुद्रप्रताप सिंह बुंदेला के साथ ही ओरछा के शासकों का युग आरंभ होता है। ओरछा की स्थापना सन् पन्दह सौ तीस ईस्वी में हुई। रुद्रप्रताप अत्यंत नीतिज्ञ थे। उन्होंने ग्वालियर के तोमर नरेशों से मैत्री संधि की।"

"महाराज रुद्रप्रताप सिंह बुंदेला ने रोहिणी नक्षत्र में अपनी राजधानी गढ़ कुंडार से हटाकर बेतवा नदी के तट पर स्थित ओरछा में स्थापित की।शेरशाह सूरी को खदेड़ने के पश्चात् राजा भारती चंद्र जू देव के अनुज मधुकर शाह सिंहासनारूढ़ हुए। इसके उपरांत मधुकर शाह ने स्वतंत्र ओरछा राज्य की स्थापना की।"

संजय ने दुःखपूर्वक बताया कि इस क्षेत्र में विकास की एक सीढ़ी चढ़ना भी अत्यंत दुष्कर है। बुंदेलखंड का प्रत्येक ग्राम भूख और आत्महत्याओं की करुण कहानियों से आबद्ध है। कुंठा, निराशा और अवसाद ने उनकी संघर्ष - शक्ति को क्षीण कर दिया, जिससे वे भयंकर कदम उठा बैठते हैं। 

तथापि, बुंदेलखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और ऐतिहासिक महत्व ने इसे एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल बना दिया है। बुंदेलखंड में लगभग चौंतीस दुर्ग (किले) और ऐतिहासिक इमारतें हैं। बेतवा तथा धसान बुंदेलखंड के पठार की प्रमुख नदियाँ हैं। 

यहाँ समाज में व्याप्त जड़ता, उदासी और अकर्मण्यता के स्थान पर भक्ति की ओर प्रवृत्ति विशेष रूप से परिलक्षित होती है। बुंदेलखंड में भक्ति की वह पावन धारा उतनी तीव्रता से प्रवाहित नहीं हुई, जो ब्रज प्रदेश में दृष्टिगोचर हुई। यहाँ सभी प्रकार की उपासना पद्धतियों का प्रचलन रहा है। गोस्वामी तुलसीदास भी इसी भू-भाग से संबद्ध थे। 

प्रसिद्ध कवि रहीम भी बुंदेलखंड की संस्कृति के प्रति श्रद्धावान थे, जो उनकी उक्ति:

"चित्रकूट में रम रहे रहिमन अवध नरेश। 

जा पर विपदा पड़त है सो आवत इहि देश।।"

से स्पष्ट विदित होता है। जब भगवान राम पर विपत्ति आई थी, तब वे भी बुंदेलखंड में ही आए थे।संजय निरंतर बोल रहे थे। 

एक दिवस अवसर पाकर राय प्रवीन ने महाराज से ओरछा के राजवंश तथा नगर के संबंध में जानने की इच्छा व्यक्त की। तब महाराज ने इस विषय में राजकवि केशवदास से पूछने को कहा, क्योंकि महाराज स्वयं अपने वंश की प्रशंसा नहीं करना चाहते थे। तत्पश्चात् राय प्रवीन ने राजकवि से प्रश्न किया।

केशव दास ने बताया कि उस समय ओरछा में बुंदेलों का प्रभाव बढ़ने लगा था। ग्वालियर का राज्य निर्बल पड़ रहा था।  जबकि ओरछा उत्तर से दक्षिण के व्यापार मार्ग पर स्थित होने के कारण अत्यधिक उन्नति कर रहा था। 

बुंदेलखंड क्षेत्र अत्यंत महत्वपूर्ण था। इसके माध्यम से दक्कन से यमुना - गंगा दोआब तक का मार्ग गुज़रता था। किंतु यह भू - भाग पहाड़ी, दुर्गम और नियंत्रित करने में कठिन था। पहाड़ों को तराश कर एक अत्यंत सुंदर नगर बसाया जा रहा था ओरछा। भव्य महल, राजप्रासाद, बाज़ार तथा बेतवा नदी पर पुल और घाट निर्मित किए जा रहे थे।

कंचना घाट ओरछा के सर्वाधिक प्रसिद्ध घाटों में से एक है, और यह ओरछा किला परिसर के भीतर स्थित है। ओरछा नगर इतना समृद्ध हो गया था कि ऐसा कहा जाता है कि बेतवा के घाट पर नगर की महिलाएँ स्नान करते समय जब अपने स्वर्ण आभूषणों को रेत से मांजकर चमकाती थीं, तो उनके आभूषणों के क्षरण से प्रतिदिन लगभग सवा मन सोना घिसकर जल में विलीन हो जाता था। बेतवा के के कंचना घाट नाम इसी कारण पड़ा। 

व्यापारियों के ठहरने हेतु धर्मशालाएँ, सराय, मार्गों पर कूप व बावड़ियाँ तथा सुरक्षा के लिए सैनिक चौकियाँ बनवाई गईं। ओरछा में निर्मित प्रत्येक महल, मंदिर और भवन की अपनी रोचक कहानियाँ हैं। इनमें सर्वाधिक रोचक कहानी एक मंदिर की है।

केशव दास ने उसे एक अत्यंत रोचक कथा सुनाई। वस्तुतः, यह मंदिर भगवान राम की मूर्ति के लिए बनवाया गया था, किंतु मूर्ति स्थापना के समय यह अपने स्थान से तनिक भी नहीं हिली।

एक दिन, ओरछा नरेश मधुकर शाह बुंदेला ने अपनी धर्मपत्नी गणेश कुंवर राजे से कृष्णोपासना के अभिप्राय से वृंदावन चलने को कहा। परंतु रानी रामभक्त थीं, अतः उन्होंने वृंदावन जाने से इनकार कर दिया। क्रोधित होकर राजा ने उनसे कहा, "यदि तुम इतनी बड़ी रामभक्त हो, तो जाओ और अपने राम को ओरछा ले आओ।"

रानी अयोध्या पहुँचकर सरयू नदी के किनारे लक्ष्मण किले के समीप अपनी कुटिया बनाकर साधना में लीन हो गईं। उन्हीं दिनों संत शिरोमणि तुलसीदास भी अयोध्या में साधनारत थे। संत से आशीर्वाद प्राप्त कर रानी की आराधना दृढ़ से दृढ़तर होती गई।

किंतु रानी को कई मासों तक राम राजा के दर्शन नहीं हुए। अंततः, वे निराश होकर अपने प्राण त्यागने के उद्देश्य से सरयू की मझधार में कूद पड़ीं। यहीं जल की अतल गहराइयों में उन्हें राम राजा के दर्शन हुए। रानी ने उन्हें अपना मंतव्य बताया।

राम राजा ने ओरछा चलना स्वीकार किया, किंतु उन्होंने तीन शर्तें रखीं: प्रथम, यह यात्रा पैदल होगी; द्वितीय, यात्रा केवल पुष्य नक्षत्र में होगी; तथा तृतीय, राम राजा की मूर्ति जिस स्थान पर रखी जाएगी, वहाँ से पुनः नहीं उठेगी।

जो मूर्ति ओरछा में वर्तमान में विद्यमान है, उसके विषय में बताया जाता है कि जब भगवान राम वनवास जा रहे थे, तब उन्होंने अपनी एक बाल मूर्ति माता कौशल्या को प्रदान की थी। माता कौशल्या उसी को बाल भोग लगाया करती थीं। जब राम अयोध्या लौटे, तो कौशल्या ने यह मूर्ति सरयू नदी में विसर्जित कर दी। यही मूर्ति गणेश कुंवर राजे को सरयू की मझधार में प्राप्त हुई थी।

रानी ने राजा को संदेश भेजा कि वह राम राजा को लेकर ओरछा आ रही हैं। राजा मधुकर शाह बुंदेला ने राम राजा के विग्रह को स्थापित करने के लिए लाखों की लागत से चतुर्भुज मंदिर का निर्माण कराया। मंदिर के ऊपर सवा मन सोने का कलश चढ़ाया गया। जब रानी ओरछा पहुँचीं, तो उन्होंने यह मूर्ति अपने महल में रख दी। यह निश्चित हुआ कि शुभ मुहूर्त में मूर्ति को चतुर्भुज मंदिर में रखकर उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी। किंतु राम के इस विग्रह ने चतुर्भुज मंदिर में जाने से मना कर दिया।

कहा जाता है कि राम यहाँ बाल रूप में आए थे, और वे अपनी माँ का महल छोड़कर मंदिर में कैसे जा सकते थे? किंतु मंदिर बनने के पश्चात् कोई भी मूर्ति को उसके स्थान से हिला नहीं पाया। राम आज भी इसी महल में विराजमान हैं, और उनके लिए लाखों की लागत से बने चतुर्भुज मंदिर में बाद में भगवान विष्णु की मूर्ति स्थापित कर दी गई।

इसे ईश्वर का चमत्कार मानते हुए महल को ही मंदिर का रूप दे दिया गया और इसका नाम राम राजा मंदिर रखा गया। विवाह पंचमी के दिन रीति-रिवाज अनुसार संपूर्ण वैभव के साथ उनका विवाह संपन्न होने के पश्चात् ओरछा के तत्कालीन शासक मधुकर शाह ने, अपनी पत्नी द्वारा दिए गए वचन का पालन करते हुए उनका राजतिलक कर दिया।

बुंदेलखंड में ओरछा के तत्कालीन शासक मधुकर शाह को भगवान श्री राम के पिता और महारानी गणेश कुंवर को माँ का दर्जा प्राप्त है। शास्त्रोक्ति के अनुसार ऐसी मान्यता है कि भगवान श्री राम के पिता महाराज दशरथ का वचन धर्म निभाने के दौरान निधन हो गया था और उनका वहाँ राजतिलक नहीं हो सका था। 

तब ओरछा के तत्कालीन शासक मधुकर शाह और महारानी गणेश कुंवर ने माता-पिता होने का धर्म निभाते हुए ओरछा में भगवान श्री राम का राजतिलक कर पिता होने का दायित्व पूर्ण किया और ओरछा नगरी को राजतिलक में भेंट कर दी थी।

और राजा मधुकर शाह ने भगवान राम को ओरछा का राजा घोषित किया और स्वयं को कार्यकारी नरेश के रूप में स्थापित किया। तभी से उनके वंशज इस परंपरा का निर्वहन करते चले आ रहे हैं। संजय ने बताया कि अयोध्या के प्रसिद्ध कनक भवन मन्दिर का निर्माण ओरछा के राजाओं द्वारा करवाया गया। आज तक उस मन्दिर की देखरेख तथा पुजारी नियुक्त करने से ले कर पूजा प्रसादी तक का सारा खर्चा टीकमगढ़ राजपरिवार द्वारा उठाया जाता है। 

आनन्द को भगवान राम को ओरछा का राजा घोषित करने का विचार बहुत अदभुत तथा अनोखा लगा। विश्व में और कही इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है। जहां ईश्वर स्वयं राज करते हो। 



बेतवा 

ओरछा में बेतवा नदी की 'सतधारा' एक अनूठा और दर्शनीय स्थल है, जो इस ऐतिहासिक नगर की सुंदरता में चार चाँद लगा देता है। हुकुम सिंह आनन्द को आज नौका विहार के लिये ले कर आया था। हुकुम सिंह ने बताया कि बेतवा नदी, जिसका प्राचीन नाम वेत्रवती था, भारत के मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश राज्यों में बहने वाली एक महत्वपूर्ण नदी है। यह यमुना नदी की एक प्रमुख सहायक नदी है। यह मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के कुम्हारागाँव से निकलती है और उत्तर-पूर्वी दिशा में बहती हुई भोपाल, विदिशा, झांसी और ललितपुर जैसे प्रमुख शहरों से होकर गुजरती है। यह बुंदेलखंड पठार की सबसे लंबी नदी मानी जाती है।

हुकुम सिंह आज बहुत खुश था। उसकी पत्नी ने उसे मूंग के लड्डू तथा ठड़ूला बना कर दिए थे। दोनों नाव में बैठ कर खा रहे थे। हुकुम सिंह आनन्द को नदी की कहानी सुना रहा था। ओरछा बेतवा का घर था। "ओरछा नाम का अर्थ है 'छिपा हुआ'। ओरछा का पौराणिक नाम तुंगारण्य है, क्योंकि यह महर्षि तुंग की तपोभूमि है। यहाँ पर सारस्वत ऋषि ने अन्य ऋषियों को वेदाध्ययन कराया था। ओरछा जामनी और बेतवा नदियों के संगम से निर्मित एक छोटे टापू पर बसाया गया है।"

आज का ओरछा, मध्य प्रदेश के निवाड़ी जिले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है। यह नगर पूरी तरह से बेतवा नदी के तट पर बसा हुआ है और इसी नदी के कारण इसे एक विशेष पहचान मिली है। बेतवा नदी ओरछा की प्राकृतिक सुंदरता का एक अभिन्न अंग है और यहां के महलों और छतरियों (शाही समाधियों) के साथ मिलकर एक मनमोहक दृश्य प्रस्तुत करती है।

आनन्द ने पूछा "सतधारा क्या है?"

हुकुम सिंह ने बताया - "ओरछा में बेतवा नदी एक विशेष स्थान पर आकर सात अलग-अलग चैनलों (धाराओं) में विभाजित हो जाती है। ओरछा सात मील के परकोटे पर बसा पौराणिक एवं ऐतिहासिक नगर है। यहाँ नदी सात धाराओं में विभाजित होती है, नदी के इस सात-धारा विभाजन को ही "सतधारा" के नाम से जाना जाता है।

आनन्द ने अगला सवाल किया -"सतधारा का महत्व और किंवदंती क्या है ?"

हुकुम सिंह ने बताया - इस नदी का ऐतिहासिक महत्व है। स्थानीय किंवदंती के अनुसार, यह सतधारा ओरछा के सात तत्कालीन प्रमुखों या राजाओं के सम्मान में बनी थी। यह एक प्रकार से उन शासकों की स्मृति और उनके शासनकाल की प्रतीक है।

सतधारा अत्यंत मनोरम प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। यहां नदी की धाराएं छोटे-छोटे चैनलों में बिखरकर बहती हैं, जिससे एक शांत और सुंदर वातावरण बनता है। सूर्यास्त के समय जब ओरछा की शाही छतरियों का प्रतिबिंब बेतवा नदी की शांत धाराओं में दिखाई देता है, तो यह दृश्य अद्भुत और अविस्मरणीय होता है। यह पर्यटकों के लिए एक प्रमुख आकर्षण केंद्र है। इस का आध्यात्मिक महत्व भी है। कई लोग बेतवा नदी को पवित्र मानते हैं, और सतधारा पर नदी का यह विभाजन एक विशेष आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करता है।

आनंद ने देखा कि ओरछा आने वाले पर्यटक बेतवा नदी के किनारे बने घाटों पर समय बिता रहे थे। नाव की सवारी का आनंद ले रहे थे और सतधारा के पास नदी के शांत प्रवाह को महसूस कर रहे थे। आनन्द को यह स्थान फोटोग्राफी और प्रकृति प्रेमियों के लिए स्वर्ग जैसा लगा। खास कर फोटोग्राफी में सूर्य उदय और सूर्य अस्त होने के पहले के आधे घण्टे को  'गोल्डन ऑवर ' कहा जाता है। जब सूरज की किरणें क्षितिज के समानांतर होने के कारण एक अलग दृश्य पैदा करती है। इस समय आकाश की लालिमा नदी के जल पर विभिन्न तरह की चित्रकारी करती है। 

ओरछा में बेतवा नदी की सतधारा सिर्फ एक प्राकृतिक भू-आकृति नहीं है, बल्कि यह ओरछा के इतिहास, संस्कृति और प्राकृतिक सौंदर्य का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है, जो हर आगंतुक को अपनी ओर आकर्षित करता है।

बुंदेलखंड के हृदय में, जहाँ बेतवा नदी अपनी रजत पट्टिका-सी प्राचीन भूमि से होकर प्रवाहित होती है, वहीं ओरछा का राज्य स्थित था। इसकी ऊबड़-खाबड़ पहाड़ियों और सघन वनों में वायु के झोंकों के साथ कहानियाँ आती रहती, किंतु राय प्रवीन की कहानी से अधिक मोहक कोई नहीं थी। वह राजसी रक्त से उत्पन्न नहीं हुई थी, अपितु ऐसी शालीनता की संतान थी जो किसी भी वंश से बढ़कर थी।

राजकवि केशव दास ने एक दिवस राय प्रवीन को बेतवा नदी की कहानी सुनाते हुए बताया कि बेतवा को पुराणों में 'कलौ गंगा वेत्रवती भागीरथी' कहा गया है। बेतवा नदी, जिसे प्राचीन काल में वेत्रवती के नाम से जाना जाता, मध्य और उत्तरी भारत में प्रवाहित होने वाली एक महत्वपूर्ण नदी है। बेतवा को प्राचीन नदियों में से एक माना गया है। बेतवा नदी घाटी की नागर सभ्यता लगभग पाँच हज़ार वर्ष पुरानी है। एक समय निश्चित ही यहाँ बंगाल की भाँति बेंत (संस्कृत में 'वेत्र') उत्पन्न होता होगा, तभी तो नदी का नाम वेत्रवती पड़ा होगा। बेत्रवती ने अपने चंचल प्रवाहों से सारे बुंदेलखंड को सिंचित कर रखा है।

पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार, 'सिंह द्वीप' नामक एक राजा ने देवराज इंद्र से शत्रुता का प्रतिशोध लेने के लिए वरुण की कठिन तपस्या की। राजा से प्रसन्न होकर वरुण की स्त्री वेत्रवती मानुषी नदी का रूप धारण कर उसके समक्ष आईं और बोलीं, "मैं वरुण की स्त्री वेत्रवती आपको प्राप्त करने आई हूँ।" 

वेत्रवती ने कहा, "स्वयं भोगार्थ अभिलषित आई हुई स्त्री को जो पुरुष स्वीकार नहीं करता, वह नरकगामी और घोर ब्रह्मपातकी होता है। इसलिए हे महाराज! कृपया मुझे स्वीकार कीजिए।" 

राजा ने वेत्रवती की प्रार्थना स्वीकार कर ली। तब वेत्रवती के गर्भ से यथा समय बारह सूर्यों के समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ, जो वृत्रासुर नाम से विख्यात हुआ। जिसने देवराज इंद्र को परास्त करके सिंह द्वीप राजा की मनोकामना पूर्ण की।

बेतवा यमुना की सखी है, बहन है। बेतवा की यह जन्मभूमि वस्तुतः क्लांत पथिक के लिए एक अद्भुत, आनंददायक सुखकर भूमि है। वेत्रवती अपनी जीवन यात्रा में तीन रूप धारण करती है। उसके मायके में, अर्थात भोजपाल में, उसके उद्गम स्थान पर संयत जीवन बिताते हुए, और ओरछा में अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में, जब-जब लोग बेतवा को देखते हैं, उसके विचित्र प्रभाव से अछूते नहीं रहते।

भोजपुर भोपाल के समीप स्थित है, जो बेतवा नदी के किनारे बसा है। यह भव्य भोजेश्वर महादेव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है, जो एक अधूरा शिव मंदिर है। परमार वंश के राजा भोज के शासनकाल के दौरान निर्मित, यह मंदिर अपने विशाल शिवलिंगम के लिए जाना जाता है, जिसे एक ही पत्थर से उकेरा गया है। 

इस स्थल में राजा भोज द्वारा एक विशाल कृत्रिम झील बनाने के लिए बनाए गए एक बड़े बांध के खंडहर भी हैं, जो उनकी उन्नत इंजीनियरिंग दृष्टि को प्रदर्शित करते हैं। माना जाता है कि आस-पास की चट्टानों पर की गई नक्काशी मंदिर और इस स्थल के लिए नियोजित अन्य संरचनाओं के लिए वास्तुशिल्प चित्र हैं।

ये शहर और स्थल सामूहिक रूप से भारतीय इतिहास की समृद्ध ताने-बाने को प्रदर्शित करते हैं, जिसमें प्राचीन बौद्ध और हिंदू सभ्यताओं से लेकर मध्ययुगीन राजपूत और मुगल प्रभाव शामिल हैं, जो सभी बेतवा नदी के जीवनदायी जल द्वारा पोषित हैं।

प्राचीन शहर बेसनगर (जो बाद में विदिशा के नाम से जाना गया) बेतवा नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित था। विदिशा का आधुनिक शहर पूर्वी तट पर है। विदिशा का इतिहास बहुत पुराना है, जो ईसा से सदियों पहले का है। इसका उल्लेख रामायण में भी मिलता है। मौर्यों के बाद, विदिशा ने शुंग, कण्व, नाग, वाकाटक, गुप्त और परमार सहित विभिन्न राजवंशों का शासन देखा।

बाणभट्ट ने 'कादम्बरी' में विंध्याटवी का अद्भुत वर्णन किया है:

'विदिशा के चारों तरफ बहती वेत्रवती नदी में स्नान के समय विलासिनियों के कुचतट के स्फालन से उसकी तरंग श्रेणी चूर्ण-विचूर्ण हो जाती थी, और रक्षकों द्वारा स्नानार्थ लाई गई विजातीय स्त्रियों के अग्रभाग में लगे सिंदूर के फैलने से सांध्य आकाश की भाँति उसका पानी लाल हो जाया करता था। उसका तट प्रदेश उन्मत्त कलहंस मंडली के कोलाहल से सदा मुखरित रहता था।'

शत्रुघ्न के पुत्र शत्रुघाती ने विदिशा पर शासन किया, जिसकी राजधानी कुशावती थी। मौर्य सम्राट अशोक ने विदिशा के महाश्रेष्ठि की पुत्री श्रीदेवी से विवाह किया था। श्रीदेवी विदिशा की निवासी थीं। जिनकी इच्छा के अनुरूप यहाँ सम्राट अशोक ने एक स्तूप विहार और एकाश्म स्तंभ का निर्माण कराया था। श्रीदेवी से उन्हें पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा प्राप्त हुए थे। 

साँची बेतवा नदी के ठीक पश्चिम में स्थित है। नदी पर सीधे न होने के बावजूद, इसका ऐतिहासिक महत्व बेतवा द्वारा सिंचित क्षेत्र से निकटता से जुड़ा हुआ है। साँची अपने बौद्ध स्मारकों, विशेष रूप से महान स्तूप के लिए विश्व प्रसिद्ध है। महान स्तूप को मूल रूप से सम्राट अशोक महान ने बनवाया था। बाद में, सातवाहन शासकों ने स्तूपों के चारों ओर जटिल नक्काशीदार प्रवेश द्वार तोरण बनवाकर महत्वपूर्ण योगदान दिया। 

साँची में विश्व प्रसिद्ध बौद्ध स्तूप है, जहाँ विश्वभर के बौद्ध भिक्षु और बौद्ध भक्त आराधना, साधना और दर्शन लाभ के लिए आते हैं। साँची को काकणाय, काकणाद वोट, वोट श्री पर्वत भी कहा जाता है। साँची में बौद्ध धर्म के हीनयान और महायान दोनों शाखाओं के पुरावशेष भी हैं। यह स्थल सदियों से चली आ रही एक सतत कलात्मक परंपरा को दर्शाता है।

चंदेरी बेतवा नदी के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है, जो पहाड़ियों, जंगलों और झीलों से घिरा हुआ है। जहाँ चंदेरी स्थित है। चंदेरी का इतिहास 11वीं शताब्दी से जुड़ा हुआ है, और इसका उल्लेख महाभारत के राजा शिशुपाल से भी जुड़ा मिलता है। मालवा और बुंदेलखंड की सीमा पर प्राचीन व्यापार मार्गों पर इसकी रणनीतिक स्थिति ने इसे एक महत्वपूर्ण सैन्य और वाणिज्यिक चौकी बना दिया। 

इसने विभिन्न राजवंशों के शासन को देखा, जिसमें गुर्जर-प्रतिहार, मालवा सुल्तान और बुंदेला राजपूत शामिल हैं। यह शहर अपने किले कीर्ति किला, महलों, बावड़ियों (जैसे बत्तीसी बावड़ी) और प्राचीन जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है, जो इसकी समृद्ध सांस्कृतिक और स्थापत्य विरासत को दर्शाते हैं। चंदेरी अपने पारंपरिक हथकरघा उद्योग, विशेष रूप से उत्तम चंदेरी साड़ियों के लिए भी विश्व स्तर पर प्रसिद्ध है।

केशवदास ने बताया कि तीन तरफ से बेतवा नदी से घिरे किले का रणनीतिक स्थान प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान करता है, जिससे यह राज्य के गढ़ के लिए एक आदर्श स्थल है। बेतवा नदी पर बुंदेलवंशीय राजाओं ने यह महल बनवाया था, जो राजाओं के शौर्य, पराक्रम और वीरतापूर्ण गौरव गाथाओं का गुणगान कर रहा है। ओरछा महल के भीतर अनेक प्राचीन मंदिर हैं, जिनमें चतुर्भुज मंदिर, रामराजा मंदिर और लक्ष्मीनारायण मंदिर बुंदेला नरेशों की कलाप्रियता के प्रतिमान हैं।

संजय से बुंदेलखंड का इतिहास सुनकर अब आनन्द हुकुम सिंह की कहानियों के सूत्र पकड़ने लगा था। आनन्द ने हुकुम सिंह से ओरछा नगर के विषय में पूछा तो उसने बताया कि मेरा जीवन इन्हीं स्थानों पर खेलते-कूदते बीता है, इसलिए एक-एक जगह मेरे मानस पटल पर अंकित है।

आनन्द ने पूछा - "बुन्देलखण्ड राज्य छोटी -छोटी जागीरों में क्यों बट गया ?"

हुकुम सिंह ने याद करते हुए कहा - मधुकर शाह के आठ पुत्र थे, इसलिए उन्होंने अपने राज्य को आठ जागीरों में बाँटकर एक-एक जागीर उन्हें दी। मधुकर शाह की मृत्यु के पश्चात् उनके सबसे ज्येष्ठ पुत्र रामशाह के द्वारा बादशाह से क्षमा याचना करने पर उन्हें ओरछा का शासक बनाया गया। किंतु राजकाज में रुचि न होने के कारण उन्होंने अपनी गद्दी इंद्रजीत सिंह को सौंप दी। वीर सिंह जू देव प्रथम को बड़ौनी व इंद्रजीत सिंह को कछौआ की जागीरें प्राप्त हुईं।

दतिया, चंदेरी, अजयगढ़, पन्ना, चरखारी, बांदा, बिजावर जैसे सभी राज्य ओरछा राजवंश के विखंडन से बने। धीरे-धीरे बुंदेलखंड राज्य छोटी-छोटी जागीरों में बँट गया। समय के साथ-साथ ओरछा राजवंश के राजकुमारों को जहाँ जो जागीरें दी गई थीं, वहाँ उन्होंने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए। बुंदेलखंड, ओरछा का राज्य आठ बेटों में बँट जाने से छोटी-छोटी जागीरें हो जाने के कारण अधिकांश राजाओं को सुरक्षा कारणों से मुगलों से संधि करनी पड़ी।

आनन्द के मन में सवाल उठा कि ओरछा का व्यापारिक मार्ग क्यों समाप्त हो गया। उसने यह सवाल पूछा। हुकुम सिंह ने कहा - इस समय अराजकता, लूटपाट व गुरिल्ला लड़ाइयों का दौर पूरे बुंदेलखंड में चलता रहा, जिसका प्रभाव यहाँ से गुजरने वाले व्यापारिक मार्ग पर पड़ा। सुरक्षा न होने के कारण धीरे-धीरे यहाँ के व्यापारिक मार्ग का उपयोग कम हो गया। हुकुम सिंह ने दुःख के साथ बताया कि जो शासक सुरक्षा देने के लिए थे, वे ही लूटपाट करने वालों को प्रश्रय देने लगे। इस क्षेत्र में रोज़गार के अवसर न होने से पलायन बढ़ता गया। आर्थिक पिछड़ेपन की दृष्टि से भारत के मानचित्र में बुंदेलखंड का स्थान सबसे ऊपर है।

किले के भीतर सबसे पुराना महल, राजा महल, राजा रुद्र प्रताप सिंह द्वारा बनवाया गया था। इसकी बाहरी दीवारें धार्मिक विषयों और दैनिक जीवन के दृश्यों को दर्शाती जीवंत भित्तिचित्रों से सजी हैं, जबकि अंदरूनी हिस्से में सुंदर नक्काशीदार खिड़कियाँ, बालकनी और छतें हैं।

आनन्द को साइकिल से ओरछा हरबोले के साथ घूमने का विचार बहुत उपयोगी लग रहा था। आनन्द और हुकुम सिंह यह सब देखते-देखते बहुत थक गए थे, तो विश्राम के लिए अपने-अपने ठिकानों पर चले गए। 

संजय के साथ बैठने का मौक़ा देख कर आनन्द उसके पास आ कर बैठ गया। आज विदेशी पर्यटकों का एक दल संजय के फार्म पर आ कर रुका। संजय उन लोगों की व्यवस्था देखने में बहुत व्यस्त थे। फार्म पर आज ठेठ बुन्देलखण्डी तरीके से खाना पकाया गया था।  जिसका स्वाद बहुत अलग था। आनन्द के पूछने पर संजय की पत्नी ने बताया कि यह स्वाद मिट्टी के वर्तनों में खाना पकने के कारण आया है। दाल देशी घी में छौंक कर बनी है। देशी चावल तथा शरवती गेहूं के आटे से रोटियां तथा गाय के दूध से बने मठ्ठे से कड़ी बनी है। 

विदेशी दल के साथ सब ने नीचे बैठ कर दोना पत्तल पर खाना खाया। गाय के दूध के चावल की खीर बनाई गई थी।  कलाकंद तथा चिरोंजी की वर्फी की मिठाइयां परोसी गई। पूड़ी के लड्डू यह एक अनोखी मिठाई है जो आटे या बेसन की पूड़ियों से बनती है, यह बूंदी के लड्डू से अलग स्वाद देती है। आटे की थोड़ी मोटी पूड़ियां तल ली जाती हैं। इन तली हुई पूड़ियों को हाथों से बारीक मीड़ (तोड़ा) लिया जाता है। फिर इन्हें चलनी से छानकर थोड़े से घी में हल्का भूना जाता है। अब इसमें शक्कर या गुड़ की चाशनी (घोल) डालकर हाथों से लड्डू बांधे जाते हैं। स्वाद बढ़ाने के लिए इसमें इलायची या काली मिर्च का पाउडर मिला कर बनाया गया था। यह खाना बहुत स्वादिष्ट था। 







बारहमासा

आनंद भवन में भारतीय शास्त्रीय लोक नृत्य के कार्यक्रम आयोजित करने की व्यवस्था की गई। इसी वैचारिक आधार पर उसने आनंद भवन में त्योहार मनाना शुरू किया। राय प्रवीन के आनंद भवन में उनके द्वारा साल भर तीज-त्योहार मनाए जाने की परंपरा शुरू हुई। जिसे बारहमासा कहा जाता है। यह रीतिकाल के कवियों की अदभुत परिकल्पना है। बारहमासा बुन्देलखण्ड में लोक परंपरा बन गया। आनन्द ने हुकुम सिंह से पूछा - "यह बारहमासा क्या है ?"

हुकुम सिंह ने बताया कि - “राय प्रवीन को केशवदास ने बारहमासा पढ़ाया था। बारहमासा में एक विरहिणी, यानी प्रेम-विह्वल महिला, बारह महीनों की अवधि में अपने प्रेमी के लिए तड़पती है। इस बारहमासा में नायिका पहले स्थान पर विरहिणी बनने से बचने के लिए एक चतुर चाल अपनाती है। वह अपने प्रेमी को प्रत्येक महीने से जुड़े विभिन्न त्योहारों या विशेष गुणों के बारे में बताती है।जिससे नायक उसे छोड़ कर कही विदेश ना जा सके। राय प्रवीन महाराज को अपने पास रखने के लिए सभी उपाय करती थीं। हर त्योहार में महाराज का होना ज़रूरी था।  

हुकुम सिंह ने बताया कि ये सभी त्योहार बुंदेलखंड में आज भी उतने ही उत्साह से मनाए जाते हैं जितने राय प्रवीन के समय में। 

हर त्योहार की अपनी पूजा विधि, उसके मिलने वाले फल की कहानी तथा उससे जुड़े लोकगीत, जो महिलाएँ सामूहिक गान की तरह गाती हैं। बुंदेलखंड की सांस्कृतिक विरासत इनके कारण बहुत समृद्ध तथा विलक्षण है। हुकुम सिंह ने हर एक त्योहार के बारे में बताना शुरू किया-

गनगौर मुख्य रूप से महिलाओं का पर्व, जो चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को देवी गौरी (पार्वती) और भगवान शिव (ईसर) की पूजा के रूप में मनाया जाता। 

आनन्द के लिए यह त्यौहार नये थे। उसने पूछा गणगौर और गनगौर क्या एक ही त्यौहार है ? 

हुकुम सिंह ने बताया कि हां, राजिस्थान में गणगौर और बुंदेलखंड में गनगौर कहा जाता। 

आनंद भवन में, यह उत्सव ताज़े गुलगुले और गेंदे के फूलों की खुशबू से महक उठा था। महिलाएँ, जिनमें राय प्रवीन और उनकी सखी मीरा शामिल थी, कई दिनों तक व्रत रखती। 'गनगौर की खेती' (अंकुरित गेहूँ और जौ) को सींचती  और ईसर-गौरी की सुंदर मिट्टी की आकृतियाँ गढ़ती। 

राय प्रवीन के हाथ मेहंदी के जटिल डिज़ाइन सजे होते। वे गौरी की मूर्ति को रंगते हुए पारंपरिक गीत "गोटे की चुनरी गोरा, ईसर जी लाये..." गुनगुनाती। जहाँ वे शिव जैसे समर्पित पति की कामना करती। शाम को, महिलाएँ अपने सिर पर मूर्तियों को संतुलित करते हुए, 'घुमर' या 'गौरी नृत्य' करती।

जो एक सुंदर और गोलाकार गति वाला नृत्य। मीरा भी इस घेरे में शामिल होकर अपने पति की लंबी उम्र की प्रार्थना करती। यह नारीत्व, परंपरा और अटूट आस्था का उत्सव है, जो अंततः मूर्तियों के विसर्जन के साथ समाप्त होता, और आने वाले वर्ष के लिए खुशियों का वादा करता।

हुकुम सिंह ने बताया - चैती पूनैं, जिसे चैत्र पूर्णिमा भी कहते, बुंदेलखंड का एक महत्वपूर्ण पर्व, जो चैत्र माह की पूर्णिमा को मनाया जाता। आनंद भवन में राय प्रवीन इस उत्सव की तैयारी करती। इस दिन सात मटकियों को चूने और खड़िया से रंगकर सजाया जाता, और उनमें लड्डू भरकर विधि-पूर्वक पूजा की जाती। महिलाएँ "चैत महीना आयो रे, मन मोरा हरसायो रे..." जैसे गीत गाती। यह पर्व फसल पकने की खुशी और प्रकृति के सौंदर्य का जश्न मनाता। शाम को आनंद भवन के बड़े मैदान में राई नृत्य का मुख्य आयोजन होता। 

राय प्रवीन और अन्य अनुभवी कलाकार अपनी चमकदार वेशभूषा में ढोलक, नगाड़े और मंजीरे की थाप पर 'सरसों के दाने' की तरह घूमते हुए फुर्तीले कदम उठाते । लोकगीत, जैसे "चैत की पूनौ आई रे, सखी, मन में उमंग समाई रे!" और "मोरी गौरा मैया, आओ अंगना, शिव संग बिराजी आओ जी!" रात भर गूँजते रहते। सुबह तक चलने वाला यह उत्सव बुंदेलखंड की आत्मा, उसकी संस्कृति और उल्लास का जीवंत प्रदर्शन था।

हुकुम सिंह ने बताया - असमाई बुंदेलखंड का एक अनूठा त्योहार जो वैशाख शुक्ल द्वितीया को मनाया जाता । यह पर्व कार्यसिद्धि के लिए व्रत के रूप में मनाया जाता। आनंद भवन में इस दिन चौक पूरकर एक पान पर सफ़ेद चंदन से पुतली बनाई जाती, और चार कौड़ियाँ रखकर उनकी पूजा की जाती। सात 'आसें' (आटे के उबले पकवान) नैवेद्य के रूप में चढ़ाए जाते। शाम को, आनंद भवन का प्रांगण बुंदेलखंडी नर्तक दलों से जीवंत हो उठता। 

राय प्रवीन की 'बेड़नियाँ' (नर्तकियाँ) अपनी चमकदार घाघरा-चोली में बिजली-सी फुर्ती से राई नृत्य करती।  उनके घुँघरू हर ताल पर मधुर ध्वनि उत्पन्न करते। पुरुष कलाकार ढोलक और नगाड़े पर ताल मिलाते । "असमाई मैया, वरदान दे जा, घर-घर खुशियाँ भर दे जा!" जैसे गीत गूँजते रहते। यह उत्सव प्रकृति और संस्कृति के मिलन का प्रतीक है, जो आनंद भवन में रंगों, ध्वनियों और परंपराओं का एक अविस्मरणीय संगम रचता था।

हुकुम सिंह ने बताया - अकती, जिसे अक्षय तृतीया या आखा तीज भी कहते हैं, बुंदेलखंड का एक महत्वपूर्ण त्योहार है जो वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता। यह नए आरंभ, समृद्धि और बचपन की परंपराओं का संगम। लड़के पतंग उड़ाते और लड़कियाँ गुड्डे-गुड़ियों का खेल खेलती । 'घैलों' (छोटे घड़ों) में पूड़ियाँ, पकौड़ी और सत्तू रखकर दान किया जाता। आनंद भवन में इस दिन एक भव्य सांस्कृतिक संध्या का आयोजन होता। जिसमें शाही नर्तकी और कवयित्री राय प्रवीन का नृत्य आकर्षण का केंद्र होता। वे गहरे लाल रंग का घाघरा पहनकर मंच पर आती और "अकती आई, खुशियाँ लाई, खेतन में हरियाली छाई" जैसे गीत गाते हुए राई नृत्य प्रस्तुत करती । उनके नृत्य में फुर्ती और भावुकता का अनूठा मिश्रण होता। जो दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देता। यह उत्सव बुंदेलखंड की सांस्कृतिक समृद्धि और लोगों की अटूट आस्था का जीवंत प्रमाण।

हुकुम सिंह ने बताया - बड़ा बरसात, जिसे वट सावित्री व्रत भी कहा जाता। बुंदेलखंड में जेठ कृष्ण अमावस्या को मनाया जाता । इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियाँ अपने पतियों की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए वट वृक्ष की पूजा करती । सती सावित्री की कहानी सुनती। आनंद भवन में, यह पर्व भक्ति और उल्लास से भरा होता, जहाँ महिलाएँ वट वृक्ष के चारों ओर परिक्रमा करती हुई "जुग जुग हम नहीं हो बात, हो सातू जन्म रहे सजना के साथ हो" जैसे गीत गाती। 

महाराज इंद्रजीत सिंह स्वयं इस उत्सव में उपस्थित होते। शाम को, राय प्रवीन महाराजा के लिए एक विशेष नृत्य प्रस्तुत करती। वे गहरे नीले और हरे रंग का घाघरा पहनकर मंच पर आती और "वट की छाया, शीतल काया, सावित्री ने जीवन पाया" जैसे भक्तिपूर्ण गीत गाते हुए नृत्य करती। यह उत्सव प्रकृति, परिवार और परंपरा के गहरे बंधन को दर्शाता।

हुकुम सिंह ने बताया - कुनघुसूँ पूनैं आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को बुंदेलखंड के हर घर में गृह वधुओं का पूजन होता। इस पर्व पर सास दीवार पर हल्दी से चार पुतलियाँ बनाती। उनकी पूजा कर अपनी बहुओं के लिए धन-धान्य और संतान से घर भर जाने की कामना करती । 

आनंद भवन में, यह पर्व प्रकृति के पूरे यौवन और लहलहाती फसलों के बीच मनाया जाता। महाराज इंद्रजीत सिंह की उपस्थिति में, आनंद भवन का प्रांगण दीयों और मशालों से जगमगा उठता। राय प्रवीन इस अवसर पर नृत्य और गायन प्रस्तुत करती। वे हरे और सुनहरे रंग का घाघरा पहनकर मंच पर आती, और "कुनघुसूँ पूनैं आई रे, मन में उमंग समाई रे" जैसे भक्तिपूर्ण लोकगीत गाती। जिसके बाद उनका अद्वितीय नृत्य होता। उनका नृत्य प्रकृति के सौंदर्य और बुंदेलखंड के शौर्य को दर्शाता। जो इस उत्सव को और भी यादगार बना देता।

हुकुम सिंह ने बताया - "हरी-जोत" बुंदेलखंड का एक लोकप्रिय कृषि-आधारित त्योहार, जो सावन की अमावस्या को मनाया जाता। यह कृषि और प्रकृति के प्रति सम्मान को दर्शाता, जहाँ लोग अपनी फसलों की रक्षा के लिए हरे-भरे पौधों को समर्पित करते और उनकी पूजा करते। इसमें कन्याओं की पूजा कर उनके प्रति सम्मान प्रकट किया जाता। 

ओरछा में यह एक शाही परंपरा रही। महाराज इंद्रजीत सिंह और राय प्रवीन इस उत्सव की अगुवाई करते। महल का प्रांगण हरे पत्तों और फूलों से सजता। राय प्रवीन स्वयं मिट्टी के बर्तनों में जौ और गेहूँ के बीज (जोत) बोती। 

शाम को एक भक्तिपूर्ण शोभायात्रा निकलती। जिसमें महिलाएँ अपने सिर पर 'जोत' के बर्तन रखे चलती और "हरी-जोत जगी, हरी-जोत जगी, धरती मैया आज सजी" जैसे गीत गाती। महल के नर्तक दल धरती के प्रति सम्मान और प्रकृति की कोमलता को दर्शाने वाला नृत्य प्रस्तुत करते। यह पर्व बुंदेलखंड की गहरी आस्था और प्रकृति से उसके अटूट संबंध का प्रतीक।

हुकुम सिंह ने बताया - बुंदेलखंड में नाग पंचमी नाग देवता की पूजा का एक महत्वपूर्ण उत्सव, जो सावन माह की पंचमी को मनाया जाता। इस दिन लोग नाग देवता को दूध, दही और लावा चढ़ाते, और साँपों की बांबियों की पूजा करते। आनंद भवन में यह पर्व महाराज इंद्रजीत सिंह के सानिध्य में बड़े उल्लास से मनाया जाता। सुबह से ही महल के नाग मंदिर में पूजा-अर्चना होती। शाम को आनंद भवन के प्रांगण में बुंदेलखंडी लोकगीतों और नृत्य का भव्य आयोजन होता। 

गायक "यह नाग पंचमी झम्मक-झम, यह ढोल-ढमाका ढम्मक-डम" जैसे जोशीले गीत गाते। नर्तक और नर्तकियाँ अपनी चमकदार वेशभूषा में बिजली-सी फुर्ती से नृत्य करते। उनके कदम और भंगिमाएँ नाग देवता की शक्ति और फुर्ती को दर्शाती हैं, मानो अजगर जैसी फुंकार सुनाई दे रही हो। यह उत्सव नाग देवता के प्रति श्रद्धा और बुंदेलखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का जीवंत प्रमाण।

हुकुम सिंह ने बताया - बुंदेलखंड में रक्षा बंधन श्रावण माह की पूर्णिमा को मनाया जाता, जहाँ बहनें भाइयों को राखी अर्पित करती और उनसे अपनी रक्षा का वचन लेती। आजकल बहनें राखी बाँधती हैं और भाई उपहार देते हैं। आनंद भवन में महाराज इंद्रजीत सिंह इस पर्व को पूरे उल्लास के साथ मनाते। सुबह महाराज अपनी बहनों और राज्य की गरीब कन्याओं से राखी बँधवाते और उन्हें उपहार भेंट करते। शाम को, आनंद भवन में एक भव्य सांस्कृतिक संध्या होती । जहाँ राय प्रवीन अपनी कला का प्रदर्शन करती। 

रक्षा बंधन का त्यौहार आनन्द के घर में भी हर साल मनाया जाता। उसकी दो बहिनें उसे हमेशा राखी बांधत। उन्हें क्या उपहार देना है इस बात पर हर त्यौहार पर बहिनों से झगड़ा होता। जिसे वह माँ के बीच में पड़े बिना कभी नहीं सुलझा सका। 

राय प्रवीन "भाई-बहिन को प्यार है अनमोल, राखी को धागा है अनमोल" जैसे भावुक लोकगीत गाते हुए नृत्य करती। उनका राई नृत्य भाई-बहन के पवित्र रिश्ते और बुंदेलखंड की संस्कृति के गहरे बंधन को दर्शाता। यह उत्सव केवल पारिवारिक प्रेम ही नहीं, बल्कि महाराज और प्रजा के बीच के अटूट रिश्ते को भी दर्शाता।

हुकुम सिंह ने बताया - हरछठ, जिसे बलदेव छठ, ललही छठ या हलषष्ठी भी कहते, माताओं द्वारा अपनी संतानों की लंबी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य के लिए मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण बुंदेली त्योहार। यह जन्माष्टमी से दो दिन पहले भाद्रपद कृष्ण षष्ठी को आता। भगवान बलराम के जन्मोत्सव के रूप में भी मनाया जाता, जिनका शस्त्र हल है। इस दिन महिलाएँ निर्जला व्रत रखती और हल चली हुई ज़मीन का अनाज व गाय का दूध-दही आदि खाना वर्जित होता। महुआ ही भोग में लगता। कांस-कुसा और झड़बेरी से बनी हरछठ की पूजा की जाती।

आनंद भवन हरछठ के दिन भक्ति और शांति से ओत-प्रोत रहता। महल का प्रांगण फूलों और पताकाओं से सजता। प्रतीकात्मक रूप से हल चलाकर खेत जोतने के छोटे कुंड बनाए जाते। महिलाएँ पारंपरिक वेशभूषा में समूह में "महुआ ही भोग लगाए, आया भादों का महीना..." और "हलषष्ठी आई रे, मैया, पुत्रन को आशीष दे जा..." जैसे भक्तिपूर्ण गीत गाती। राय प्रवीन स्वयं इस उत्सव की अगुवाई करती। अपने राज्य की संतानों के कल्याण के लिए व्रत रखती। पूजा में भाग लेती। शाम को, राजपरिवार और प्रजा की महिलाएँ महल के प्रांगण में एकत्रित होती। 

ढोलक और मंजीरे की धीमी, लयबद्ध थाप पर महिलाएँ सामूहिक नृत्य करती। जिसमें अधिक भावुकता और भक्ति होती। उनके नृत्य में माताओं का प्रेम, धरती के प्रति सम्मान और अपनी संतानों के लिए अटूट विश्वास झलकता। कुछ महिलाएँ सिर पर पानी के घड़े रखकर नृत्य करती। जो जीवन के पोषण का प्रतीक है। राय प्रवीन की भागीदारी उत्सव में नई ऊर्जा भर देती। यह पर्व माताओं के त्याग और प्रकृति तथा देवताओं के प्रति उनकी श्रद्धा को दर्शाता।

जन्माष्टमी, जिसे बुंदेलखंड में 'कन्हैया-आठे' कहते हैं, भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में पूरे उत्साह और भक्ति के साथ मनाया जाता। एक बार आनन्द अपने मामा के साथ मथुरा वृंदावन यह त्यौहार देखने गया था। 

आनंद भवन जन्माष्टमी पर भक्ति के सागर में डूबा रहता। महल के हर कोने से शंखनाद और घंटियों की मधुर ध्वनि आती। प्रांगण को फूलों, पताकाओं और भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं की झाँकियों से भव्य रूप से सजाया जाता। महाराज इंद्रजीत सिंह स्वयं पूजा-अर्चना करते, बाल कृष्ण को पालने में झुलाते और प्रजा की सुख-समृद्धि के लिए प्रार्थना करते। मध्यरात्रि में, जैसे ही कृष्ण के जन्म का मुहूर्त आता, "हाथी घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की!" के नारे और शंखनाद से पूरा भवन गूँज उठता।

इस अवसर पर, ओरछा की राजदरबारी नर्तकी राय प्रवीन एक विशेष प्रस्तुति देती। वे गहरे नीले रंग के घाघरे और मोरपंख से सजी चोली में मंच पर आती। उनकी प्रस्तुति का आरंभ "आज जन्मे हैं कान्हा, घर-घर में खुशियाँ छाईं..." जैसे भावुक बुंदेलखंडी लोकगीत से होता। इसके बाद वे अपनी अद्वितीय 'नृत्य' का प्रदर्शन करती।

जहाँ उनके फुर्तीले कदम और भावभंगिमाएँ बाल कृष्ण की नटखट लीलाओं और गोपियों के प्रेम को दर्शाती। उनके नृत्य और गायन में भक्ति और कला का अद्भुत संगम होता, जो दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देता। महाराज इंद्रजीत सिंह भी उनकी कला का आनंद लेते हुए प्रसन्न होते। यह पर्व न केवल भगवान के प्रति श्रद्धा बल्कि बुंदेलखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का भी जीवंत प्रमाण।

'तीजा' या 'कजरी तीज' बुंदेलखंड में भाद्रपद शुक्ल तृतीया को सुहागिन महिलाओं द्वारा पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण त्योहार है। महिलाएँ निर्जल व्रत रखती और रात्रि जागरण करती।

ओरछा में तीजा उत्सव (सार्वजनिक आयोजन): इस बार महाराज इंद्रजीत सिंह और राय प्रवीन की पहल पर, यह उत्सव आनंद भवन के बजाय शहर के एक बड़े सार्वजनिक मैदान में गरीब और वंचित महिलाओं के लिए आयोजित किया गया। मैदान को रंगीन पताकाओं और झूलों से सजाया गया था। महिलाएँ खुशी-खुशी झूलतीं और मेहंदी की खुशबू से वातावरण महकता रहता। दोपहर में महल से पकवान और मिठाइयाँ लाकर सबको भोजन कराया गया।

तीज का त्यौहार आनन्द के घर में माँ पड़ोस की महिलाओं के साथ मानती थी। जिसमें छोटा मण्डप बनाने में मोहल्ले के लड़के फूल पत्तियां तोड़ कर लाते थे। 

शाम को, राय प्रवीन मंच पर आती। गहरे हरे और सुनहरे घाघरे में सजी हुई। वे अपनी प्रस्तुति का आरंभ "कजरी तीज आई, सखियाँ झूला झूलें..." जैसे भावुक कजरी गीत से करती। उनकी मधुर आवाज़ में तीज का उल्लास और सावन के प्रेम का वर्णन होता। 

इसके बाद वे अपना अद्वितीय नृत्य प्रस्तुत करती ।जिसमें उनके फुर्तीले कदम और घूमते लहंगे एक खिलते हुए फूल का भ्रम पैदा करते। राय प्रवीन के बाद, स्थानीय कलाकारों ने भी पारंपरिक बुंदेलखंडी लोकगीत और नृत्य प्रस्तुत किए। यह उत्सव न केवल परंपराओं को जीवंत रखता। महाराज की उदारता और सामाजिक समरसता का भी सुंदर उदाहरण था। जहाँ समाज के हर वर्ग ने मिलकर कला और संस्कृति का आनंद लिया।

हुकुम सिंह ने बताया - 'रिसि पाँचें' या ऋषि पंचमी भाद्रपद शुक्ल पंचमी को महिलाओं द्वारा सप्त ऋषियों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने और जाने-अनजाने में हुए पापों के प्रायश्चित के लिए मनाया जाता।

आनंद भवन इस दिन शांति और भक्ति से भरा रहता। प्रांगण को फूलों और पवित्र पौधों से सजाया जाता। सप्त ऋषियों की प्रतीकात्मक प्रतिमाएँ स्थापित की जाती ।जहाँ महिलाएँ स्नान कर पवित्र जल और औषधीय पौधों से पूजा करती। महाराज इंद्रजीत सिंह स्वयं पूजा-अर्चना कर राज्य के कल्याण के लिए आशीर्वाद माँगते।

शाम को, राजदरबारी नर्तकी राय प्रवीन एक भक्तिपूर्ण प्रस्तुति देती। वे श्वेत और हल्के पीले रंग की सादगीपूर्ण वेशभूषा में मंच पर आती। उनकी प्रस्तुति का आरंभ "रिसि पाँचें आई रे, मन में भक्ति छाई..." जैसे लोकगीत से होता है, जिसमें ऋषियों की महिमा और शुद्धिकरण का वर्णन होता। 

उनका नृत्य राई जितना तेज नहीं होता, बल्कि उसमें अधिक संयम और आध्यात्मिक गहराई होती। जो तपस्या और ऋषियों के आशीर्वाद को दर्शाती । यह पर्व ऋषियों के प्रति श्रद्धा और बुंदेलखंड के आध्यात्मिक विश्वास का प्रतीक है, जिसे आनंद भवन में शांति और पवित्रता के साथ मनाया जाता।

'महालक्ष्मी' पर्व आश्विन/क्वाँर कृष्ण अष्टमी को सौभाग्यवती और पुत्रवती स्त्रियों द्वारा धन, समृद्धि और सौभाग्य की देवी महालक्ष्मी की आराधना के लिए मनाया जाता। इस दिन महालक्ष्मी के साथ-साथ हाथी की भी पूजा होती, और विशेष पकवान 'सुरा ठठेरा' बनाया जाता। नदी या तालाब में सोलह बार स्नान और सोलह सुरा खाकर पूजा का विधान ।

आनंद भवन महालक्ष्मी पर्व पर धन और समृद्धि की आभा से जगमगा उठता। प्रांगण को रंग-बिरंगी झालरों, फूलों और कमल के फूलों से भव्य रूप से सजाया जाता। मुख्य पूजा स्थल पर मिट्टी के हाथियों की प्रतिमाएँ स्थापित की जाती।जिन पर देवी महालक्ष्मी विराजमान होती। राय प्रवीन स्वयं इस उत्सव की अगुवाई करती और सोलह दिनों तक चलने वाले महालक्ष्मी व्रत का समापन करती।

शाम को, राजपरिवार और प्रजा की महिलाएँ एकत्रित होती। "महालक्ष्मी आई, घर-घर में खुशियाँ छाईं, हाथी पे बैठी मैया, बरकत लाई" और "आ जाइयो मैया, आ जाइयो मैया, नौ दिन की मेहमान बनके आ जाइयो" जैसे मधुर बुंदेलखंडी लोकगीत गूँजते । महिलाएँ इन गीतों पर सामूहिक नृत्य करती। जिसमें भक्ति, उल्लास और सामूहिक ऊर्जा का सुंदर संगम होता। राय प्रवीन भी इस संगीत और नृत्य में शामिल होती।जिससे सभी में उत्साह भर जाता। यह पर्व परिवार की समृद्धि और खुशहाली के लिए देवी-देवताओं की आराधना का प्रतीक।

हुकुम सिंह ने बताया - 'नौरता', जिसे 'सुआटा' भी कहते हैं, आश्विन माह की शुक्ल प्रतिपदा से शुरू होकर नौ दिनों तक अविवाहित कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला एक अनूठा और रंगीन बुंदेली उत्सव है। लड़कियाँ अपने भावी जीवन में एक अच्छे वर और सुखमय दांपत्य जीवन की कामना करती।

नौरता की तैयारियाँ नवरात्रि से पहले ही शुरू हो जाती। आनंद भवन में या गाँव की चौपालों पर लड़कियाँ गोबर और मिट्टी से 'सुआटा' (एक विशाल, दैत्याकार प्रतिमा) बनाती, जिसे चने की दाल, ज्वार और रंग-बिरंगे फूलों से सजाया जाता। लड़कियाँ प्रतिदिन सुबह 'सुआटा' की पूजा करती, हल्दी, अक्षत और फूल चढ़ाती, और 'अठवां पंजीरी' का भोग लगाती। इस त्यौहार के सम्बन्ध में आनन्द पहले से नहीं जानता था। हुकुम सिंह के विवरण से उसे त्यौहार की एक झलक देखने को मिली थी। 

लड़कियाँ समूह में मधुर स्वर में पारंपरिक नौरता गीत गाती, जैसे "नाय हिमांचल जू की कुंवर लड़ॉयती, नारे सुअटा, गौरा देवी क्वांरे में नेहा तोरा।" नौरता के दौरान लड़कियाँ सरल, मासूम और भक्तिपूर्ण नृत्य करती। गोल घेरे में घूमती हुई, हाथों से तालियाँ बजाती हुई और पैरों को लयबद्ध तरीके से थिरकाती हुई। इस दौरान वे 'मामुलिया' (बेर की शाखाओं को फूलों से सजाकर) भी पूजती। उत्सव का समापन शरद पूर्णिमा को 'टेसू-झिंझिया' के विवाह और खीले-गट्टे के वितरण के साथ होता। यह पर्व बुंदेलखंड की लोक संस्कृति की जीवंतता और उसकी अनूठी पहचान को दर्शाता है, जिसे आनंद भवन में हर साल मनाया जाता था।

हुकुम सिंह ने बताया - 'दसरओ' दशहरा आश्विन शुक्ल दशमी को अधर्म पर धर्म की विजय, असत्य पर सत्य की जीत और भगवान राम की रावण पर विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता।

आनंद भवन दशहरा पर उत्साह और विजय के माहौल में डूबा रहता। महाराज इंद्रजीत सिंह स्वयं इस पर्व को राजसी वैभव के साथ मनाते। वे प्रातःकाल शस्त्रगार में अपने कुल के प्राचीन शस्त्रों की 'शस्त्र पूजा' करते। उन्हें गंगाजल से धोकर चंदन, कुमकुम और फूलों से सजाते । इसके बाद शाही अश्वों और हाथियों की भी पूजा होती।

शाम को, महाराज इंद्रजीत सिंह अपने शाही अश्व पर सवार होकर, सैनिकों, दरबारियों और प्रजा के साथ एक विशाल शोभायात्रा का नेतृत्व करते। शोभायात्रा शहर के बाहरी मैदान तक पहुँचती। जहाँ रावण, मेघनाद और कुंभकरण के विशाल पुतले खड़े होते। महाराज के अग्नि-बाण से पुतलों में आग लग जाती, और पटाखों की गड़गड़ाहट तथा "जय श्री राम!" के नारों से पूरा आकाश गूँज उठता।

आनन्द जब छोटा था तब उसके पिता जी उसे रावण दहन दिखाने ले जाते थे। बच्चा होने के कारण उसे दूर रावण भीड़ में नहीं दिखता था। तब पिता उसे कंधे पर बिठा कर उठाते और रावण दहन दिखाते थे। 

रावण दहन के बाद, आनंद भवन में राजसी भोज और 'गीत-संगीत' तथा 'नृत्य' का कार्यक्रम होता। राय प्रवीन विजय और उल्लास को समर्पित एक विशेष प्रस्तुति देती। वे चमकदार, उत्सवपूर्ण वेशभूषा में मंच पर आती और "दसरओ आयो, खुशियाँ छाईं, राम जी ने रावण मारो, जीत हमारी आई" जैसे जोशीले लोकगीत गाती। उनका नृत्य बिजली-सी फुर्ती और शक्ति के प्रदर्शन से भरा होता, जो दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देता। यह पर्व बुंदेलखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, उसके शौर्य और महाराज तथा प्रजा के बीच के अटूट बंधन का जीवंत प्रमाण।

शरद पूनें, आश्विन मास की पूर्णिमा को मनाई जाती। माना जाता है कि इस रात चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं से परिपूर्ण होकर अमृत वर्षा करता है, जो स्वास्थ्य और शांति प्रदान करती है। इसी दिन से बुंदेलखंड में कार्तिक स्नान शुरू हो जाता।

आनंद भवन शरद पूर्णिमा पर एक शांत, पवित्र और जादुई माहौल में डूबा रहता। प्रांगण को सफेद और सुनहरे फूलों, मोतियों की लड़ियों और असंख्य दीपकों से भव्य रूप से सजाया जाता। केंद्र में एक वेदी पर खीर से भरे पात्र रखे जाते, ताकि वे रात भर चंद्रमा की अमृतमयी किरणों को सोख सकें। आनन्द को उसके पड़ोस का शिव मंदिर याद हो आया जहां उसने प्रसाद में यह खीर खाई थी। 

यह वर्णन बताता है कि आनंद भवन में ये त्योहार कितने गहरे सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व के साथ मनाए जाते थे, और राय प्रवीन जैसी कलाकार इन उत्सवों में कैसे केंद्रीय भूमिका निभाती थीं।आनन्द को लगता कि ओरछा राज्य कितना समृद्ध रहा होगा। 

धनतेरस दीपावली के पाँच दिवसीय उत्सव का पहला दिन, जो धन, स्वास्थ्य और सौभाग्य के देवता भगवान धन्वंतरि और धन की देवी लक्ष्मी को समर्पित है। इस दिन घर के द्वार पर दीपक जलाया जाता और नए बर्तन खरीदना शुभ माना जाता।

आनंद भवन धनतेरस पर चमक और समृद्धि के उल्लास में डूब जाता। बाज़ारों में भीड़ उमड़ती, लोग नए बर्तन और आभूषण खरीदते। महाराज इंद्रजीत सिंह स्वयं महल के धन्वंतरि और लक्ष्मी मंदिर में पूजा-अर्चना करते, राज्य के उत्तम स्वास्थ्य और समृद्धि का आशीर्वाद मांगते। शाम को, आनंद भवन का विशाल प्रांगण दीपकों और फूलों से जगमगाता। 

नृत्यगाना मंच पर आती, सुनहरे और लाल रंग के पारंपरिक घाघरा-चोली में सजी हुईं। वे "धनतेरस आई रे, खुशियाँ लाई, लक्ष्मी मैया घर-घर आई..." जैसे बुंदेलखंडी लोकगीत गाते हुए नृत्य करती। उनके नृत्य में धन के आगमन का उल्लास और समृद्धि का प्रदर्शन होता, जो दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देता। 

आनन्द की माँ इस अवसर पर उसके पापा के साथ जा कर हमेशा कुछ वर्तन खरीद कर लाती थी।  पर्व धन और स्वास्थ्य के प्रति श्रद्धा का प्रतीक।

हुकुम सिंह ने बताया - नरक चउदस को 'छोटी दीपावली' या 'रूप चौदस' भी कहते हैं। यह दीपावली उत्सव का दूसरा दिन, जो भगवान कृष्ण द्वारा नरकासुर के वध और यमराज की पूजा से जुड़ा है, ताकि अकाल मृत्यु से बचा जा सके। इसी दिन हनुमान जी का जन्म भी हुआ था।

आनंद भवन नरक चउदस पर स्वच्छता और प्रकाश के उल्लास में डूबा रहता। महल के हर कोने पर मिट्टी के दीपक जलाए जाते, और 'यम दीपक' मुख्य द्वार पर रखा जाता। महाराज इंद्रजीत सिंह स्वयं महल के यमराज मंदिर में पूजा कर प्रजा की लंबी आयु और सुरक्षा का आशीर्वाद माँगते। 

शाम को, ग्वालियर की राजदरबारी नर्तकी मंच पर आती , काले और सुनहरे रंग के घाघरा-चोली में सजी हुई। वे "नरक चउदस आई रे, दीपन की माला छाई, यमराज को दीप जलाओ, अकाल मृत्यु दूर भगाओ..." जैसे भावुक लोकगीत गाते हुए नृत्य करती। उनके नृत्य में अंधकार पर प्रकाश की विजय और जीवन के उल्लास का प्रदर्शन होता। यह पर्व यमराज के प्रति श्रद्धा और अकाल मृत्यु से मुक्ति का प्रतीक है।

दीपावली कार्तिक अमावस्या को मनाया जाने वाला एक भव्य पर्व, जो उत्साह, उल्लास, पवित्रता और श्रद्धा का प्रतीक है। इस दिन लक्ष्मी-गणेश का पूजन किया जाता और हर जगह दीपों का उजाला किया जाता।

दीपावली पर ओरछा राज्य प्रकाश, समृद्धि और लोकगीतों के संगम से जगमगा उठता। धनतेरस और नरक चौदस के बाद, हर घर को रोशनी, फूलों और मांडनों (रंगोली) से सजाया जाता। असंख्य मिट्टी के दीपक जलाए जाते, जो अंधकार पर प्रकाश की विजय का संदेश देते । बच्चों की आतिशबाजी से हवा में खुशी गूँजती।

दीपावली की रात, महालक्ष्मी पूजन का विशेष महत्व होता। राजसी परिवार और सामान्य नागरिक, सभी देवी लक्ष्मी, गणेश और सरस्वती की पूजा करते, खील-बताशे और मिठाइयाँ चढ़ाते। महिलाएँ समूह में बैठकर "लक्ष्मी मैया पधारो आज, घर-घर में खुशियाँ लाओ आज..." जैसे पारंपरिक बुंदेलखंडी लोकगीत गाती।

महाराज इंद्रजीत सिंह स्वयं महल में विशेष पूजा का आयोजन करते और गरीबों में अन्न-वस्त्र वितरित करवाते। हालाँकि राय प्रवीन जैसे दरबारी कलाकार अपनी व्यक्तिगत पूजा में व्यस्त होते दिखाते, फिर भी महल के प्रांगण में स्थानीय कलाकारों द्वारा लोकगीत और पारंपरिक नृत्य प्रस्तुत किए जाते, जो उत्सव के माहौल को और भी जीवंत बनाते। यह पर्व समुदाय, समृद्धि और प्रकाश का भव्य प्रदर्शन।

दीपावली की रात को आतिशबाजी का भव्य प्रदर्शन किया जाता, जो अंधकार पर प्रकाश की विजय और बुराई पर अच्छाई की जीत का राजसी उत्सव। आनन्द को अपनी दादी की याद हो आई जब वह यह त्यौहार मनाती थी। उसे तरह-तरह के उपहार मिलते थे। 

हुकुम सिंह बताते - आनंद भवन का विशाल प्रांगण और सामने का खुला मैदान हजारों प्रजाजनों से खचाखच भरा रहता। महल की ऊँची दीवारें और बुर्ज दीपकों और मशालों की रोशनी में नहाए रहते। महाराज इंद्रजीत सिंह, महारानी और राजपरिवार के सदस्य महल की बालकनी से इस भव्य प्रदर्शन का आनंद लेते। एक जोरदार शंखनाद के साथ आतिशबाजी शुरू होती। 

फुलझड़ियाँ, अनार, रॉकेट और चकरियाँ आकाश को रंगीन फूलों, तारों और झरनों से भर देती। पटाखों की गड़गड़ाहट और रोशनी की चमक से पूरा ओरछा शहर गूँज उठता। प्रजाजन "जय हो!" और "वाह-वाह!" के नारे लगाते। महाराज इंद्रजीत सिंह और राय प्रवीन भी इस अद्भुत दृश्य से मंत्रमुग्ध होते। यह प्रदर्शन लगभग एक घंटे तक चलता, जो प्रकाश, प्रेम और उल्लास की शाश्वत परंपरा को दर्शाता, और ओरछा के इतिहास में एक अविस्मरणीय अध्याय बन जाता।

हुकुम सिंह बोले - राजकीय सम्मान पाने के कारण राय प्रवीन का जीवन भी समृद्ध हो गया था। इंद्रजीत हर समारोह का आयोजन राजकीय स्तर का करते थे। इस कारण ये सभी उत्सव बहुत धूमधाम से मनाए जाते थे। आनंद भवन में आमंत्रित अतिथियों का स्वागत-सत्कार होता था। पूजन के बाद भोजन प्रसादी होती थी। कथा सुनाने नगर के राजपुरोहित को आमंत्रित किया जाता। उन्हें यथोचित दान-दक्षिणा देकर विदा किया जाता था। रनिवास में होने वाले समारोह इनके सामने फीके पड़ गए थे। इंद्रजीत राय प्रवीन के प्रेम में आकंठ डूब गए थे।

आनन्द ने पहली बार इतने त्योहारों के नाम सुने थे। वह चमत्कृत था कि बुन्देलखण्ड की सांस्कृतिक धरोहर कितनी समृद्ध है। 


रावरानी 

आनन्द और हुकुम सिंह  राजा का महल देखने गए। महल में घूमते हुए हुकुम सिंह ने राय प्रवीन के जीवन के सबसे कठिन दौर के बारे में बताया। राजघरानों से जुड़ी दिलचस्प किंवदंतियाँ हमेशा रोमांस और भव्यता से भरी होती हैं।

राजघराने की सभी औरतें, पटरानी व उनके परिवार के लोग भी कछौआ संगीत समारोह में थे। राव रानी ने पुनिया के बारे में सुना ज़रूर था कि किसी लोहार की लड़की फूलबाग की पाठशाला में संगीत सीखती है। कभी-कभी महाराज उसका संगीत सुनने जाते हैं। तब राव रानी ने इस बात पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया था। लेकिन उन्होंने पुनिया को आज पहली बार मंच पर जब देखा, तब पुनिया का रूप देख और गाना सुनकर उनके मन में एक शंका घर कर गई।

हुकुम सिंह न बताया - कहते हैं कि कभी-कभी अपने गुण और शोहरत ख़ुद के लिए मुसीबत बन जाते हैं। यह रियासत ओरछा थी, उत्तर की सभी समृद्ध रियासतों में श्रेष्ठ। यहाँ की मिट्टी सोना नहीं निकालती, लेकिन यहाँ के महलों की दीवारें सोने से ढकी थीं। यह इलाक़ा अपनी व्यापार, शिकारगाहों और संगीत के लिए मशहूर था। मगर इसकी राजनीति भीतर ही भीतर सड़ चुकी थी। बड़े-बड़े गठजोड़ और शादी-ब्याह की आड़ में वफ़ादारी ख़रीदी और बेची जाती थी।

इसी रियासत की सबसे चर्चित शख़्सियत थी राय प्रवीन। उसकी आवाज़ में शहद की मिठास तथा चाल में मखमली ठहराव था। उसने दुनिया ख़ूब क़रीब से देखी थी। वह ख़ूबसूरत ही नहीं थी, बल्कि पढ़ी-लिखी, संस्कृत, अरबी और फ़ारसी में भी पारंगत थी और इतिहास की दीवानी। 

आनन्द यह कहानी सुन कर सोचता है कि बुंदेलखंड की गर्मियों में दिन भर की तपिश के बाद रेत ख़ुद भी सो जाती हो ऐसा लगता। लेकिन कुछ जगहें ऐसी भी होती हैं जहाँ रेत थकती नहीं। वहाँ वो जागती है, जलती है और देह का रूप लेकर किसी की साँसें पी जाती है। 

ऐसी ही जगह है ओरछा, जहाँ हमेशा अफ़वाहें भी रेत की तरह उड़ती थीं। उन अफ़वाहों का नाम था राय प्रवीन। वह कोई आम महिला नहीं थी। वह थी 'ओरछा की कोकिला', वह थी 'कवि प्रिया', वह थी 'राज नर्तकी'। उसके पास कोई धन-संपत्ति नहीं, कोई फ़ौज नहीं, कोई सत्ता नहीं। थी तो उसकी कला-प्रतिभा और उसकी देह। ओरछा के लोग उससे ईर्ष्या करते, लेकिन आस-पास के राजा, सामंत और जागीरदार उसकी प्रतिभा के कारण खिंचे चले आते।

उसकी आँखों में जैसे गर्म हवाएँ बसी थीं, जो सामने वाले को झुलसा देती थीं। उसके होठों पर एक हल्की मुस्कान होती जो बिना कुछ कहे ही बहुत कुछ कह जाती।

 'आओ लेकिन लौट नहीं जा पाओगे।' नगर में बातें गूँजती थीं। 

राजमहल की औरतें उससे नफ़रत करती थीं। 

कुछ डरती थीं, कुछ जलती थीं। 

'जादू-टोना करती है' कोई कहता। 

'उसकी देह में भूत है' कोई और।

'मर्दों को बहकाती है और फिर जाने क्या करती है!' 

हुकुम सिंह ने कहा - लेकिन किसी के पास कोई सबूत नहीं था। औरतें अपने पतियों को समझाती थीं कि उसके पास मत जाना, लेकिन मर्द जानते थे कि एक बार राय प्रवीन से आँखें मिल जाएँ तो सब कुछ भुला देने का मन करता है। राय प्रवीन के महल में होने वाले समारोहों में कभी मेहमानों की कमी न थी। 

चाहे जब सूरज तपता और ज़िंदगी धीमी पड़ जाती या जब रेत सर्दियों में ठंडी होकर हाड़ कँपाती। राय प्रवीन ने मौसम नहीं, मिज़ाज सीखा था। और उसका मिज़ाज हर दिन नया होता।

राय प्रवीन का जिस्म बिकता नहीं था। वह बाज़ारू बिकाऊ नहीं थी। उसका जिस्म किसी भी क़ीमत पर उपलब्ध नहीं था। लेकिन फिर भी हर मर्द चाहता था कि एक रात उसके पास हो। एक बार उसकी नज़र किसी पर ठहर जाए तो उसे अपने पैरों से चलकर आनंद भवन के उत्सव में आना ही पड़ता। कोई सोचता कि उसकी दौलत के कारण उसे आमंत्रित किया गया है, तो कोई सोचता पद-प्रतिष्ठा के कारण या कोई सोचता कि उसकी मर्दानगी के कारण। 

हुकुम सिंह ने बताया  - लेकिन पुनिया को न पैसा चाहिए, न पद-प्रतिष्ठा और न मर्दानगी। जब पुनिया  किसी को देखती तो उसकी नज़र उसके जिस्म को भर नहीं देखती, वह उसके दिल में उतरकर देख लेती। उसकी कमज़ोरी को सूँघ लेती, किसी की हवस, किसी की चाहत तो किसी की झूठी मर्दानगी। पुनिया सब जान लेती। बुंदेलखंड में दिन जितने गर्म होते हैं रातें उतनी ठंडी हो जाती।

पुनिया के बचपन की यादों को कुरेदने पर यादों की तपिश में कोई-कोई रातें न ठंडी लगतीं न गरम। कुछ यादें ऐसी होती हैं जो इंसान को काटती नहीं, निगल जाती हैं। पुनिया के अंदर भी ऐसी ही यादें थीं जो उसने सालों तक दबाकर रखी थीं। कभी वह भी बच्ची थी। एक छोटे से गाँव की मासूम सी लड़की। मिट्टी से खेलती, गुड़ियों से बात करती। 

हुकुम सिंह ने कहा - लेकिन उस बचपन में कुछ धब्बे थे। ऐसे धब्बे जिन्हें धोया नहीं जा सकता। पुनिया के बचपन में गाँव में ग़रीबी के कारण हर कोई उसे छूता। ग़लत नज़रों से देखता, पास बुलाता। अपने ही रिश्तेदारों की नज़रें, उनके हाथ, उनके इशारे, सबने पुनिया की मासूमियत को नोच डाला था। उस समय कोई नहीं बोला। किसी ने नहीं बचाया। और धीरे-धीरे उसे समझ में आने लगा था कि इस दुनिया में औरत की इज़्ज़त उसकी ज़ुबान से नहीं, उसकी चुप्पी से जुड़ी होती है। 

फिर एक दिन पुनिया को नगर ले जाया गया। कहा गया पढ़ाई के लिए। लेकिन हक़ीक़त में उसे तैयार किया गया महाराज के लिए। अब वह वही पुनिया गाँव की मासूम लड़की नहीं थी। अब उसकी आँखों में डर नहीं था। उसकी आँखों में आँसू नहीं थे।

अब पुनिया के पास एक चीज़ बची थी - कंट्रोल। पुनिया मर्दों पर कंट्रोल करना सीख गई थी। अब यह खेल था उसके लिए। उसने सीखा है कि जब तक तुम शिकारी नहीं बनते, दुनिया तुम्हें शिकार समझती है। और अब पुनिया सिर्फ़ शिकारी थी और उसकी ख़ूबसूरती और कला उसके हथियार। 

लेकिन पुनिया नहीं जानती थी कि उसके इस खेल में एक नया किरदार जुड़ चुका है - महाराज इंद्रजीत सिंह। महाराज का दिमाग़ ओरछा की सड़कों से तेज़ चलता था। पुनिया उन्हें एक दिन प्यार कर बैठी, जो अभी तक ख़ुद को ख़ानाबदोश समझती थी, अब घर-गृहस्थी बसाना चाहती थी। जब पुनिया ने उन्हें पहली बार देखा था, तब सुबह के सूरज की लालिमा में महाराज कितने अद्भुत लगे थे। महाराज के मन में कुछ हिला था। 

पुनिया को कई साल बाद किसी मर्द ने सिर्फ़ देखा था, घूरा नहीं। उसकी आँखें शांत थीं। इस छोटे से गाँव में पहली बार ऐसा कुछ घटा था। न तो उसके चेहरे पर घमंड था, न चाल में महाराज वाला रौब, उनका अंदाज़ ठंडा था। पर साफ़ था कि उसके भीतर कुछ गर्मी थी। कुछ सवाल। और बहुत सारी समझ। अभी तक पुनिया का नाम सुनकर मर्दों की आँखों में चमक और औरतों की आँखों में डर ही देखा था। उस दिन महाराज चले गए थे।

पुनिया किसी मर्द को ख़ुद के अंदर से निकलता देख रही थी - बिना किसी ख़ौफ़ के। महाराज से उसका मिलना कुछ अलग था। उसकी आँखों में जो तेज़ था, अब वही उलझन पैदा कर रहा था। यह वही औरत थी जो मर्दों को हराया करती थी, अब ख़ुद हार रही थी। 

पुनिया महाराज का ख़्याल दिल से नहीं निकाल पा रही थी। पुनिया की आँखों में एक चमक थी। वह उस ओर खिंची चली जा रही थी। यह कामदेव और रति की प्रेम कहानी की शुरुआत थी।

महाराज खुद कवि थे वह जानते थे कि ब्रह्मा जी ने कामदेव को रहने के लिए बारह स्थान दिए। जिनमें स्त्रियों के कटाक्ष, उनके केश, उनकी जंघा, वक्ष, नाभि, जंघामूल, अधर, कोयल की कूक, चाँदनी, वर्षाकाल, चैत्र और बैसाख महीने। कामदेव को अद्भुत पुष्प धनुष प्रदान किया। यह धनुष मिठास से भरे गन्ने का बना हुआ था, जिसमें मधुमक्खियों के शहद की रस्सी लगी थी। उन्होंने कामदेव को मारण, स्तंभन, शोषण और उन्मादन नाम के पाँच बाण दिए थे। आज पुनिया ने महाराज पर इन्हीं का उपयोग किया था।

महाराज का गांधर्व विवाह पूर्णतः गोपनीय था, इस कारण इसकी ख़बर राजभवन के रनिवास तक नहीं पहुँची। लेकिन कहते हैं कि: 

"ख़ैर, ख़ून, खाँसी, ख़ुशी, मद, प्रीत, मदपान। 

ये छुपाए से न छुपे, जानत सकल जहान।"

राय प्रवीन, जिस पर न केवल सरस्वती की कृपा थी, अपितु उसे रूप एवं सौंदर्य भी विधाता ने खुले हाथों से प्रदान किया था। ओरछा के महाराज इंद्रजीत की प्रेमिका थीं। राय प्रवीन ने महाकवि केशवदास का शिष्यत्व ग्रहण कर स्वयं को काव्य सृजन में समर्पित कर दिया था। रूप था ही, कविता थी और था नृत्य।

उस पर ओरछा के रामराजा मंदिर में राम भजन गाती तो पूरा शहर स्थिर हो जाता। पूरे ओरछा में राय प्रवीन के सौंदर्य और कंठ की प्रशंसा फैलती चली गई। उसके बाद राय प्रवीन ने कुशल संगीतज्ञ हरिराम व्यास के चरणों में बैठकर संगीत और उसकी गहराइयों को समझा एवं उनके निर्देशन में दक्षता प्राप्त की।

हुकुम सिंह ने बताना शुरू किया - धीरे-धीरे रंग महल के कलाकारों के बीच राय प्रवीन को लेकर ईर्ष्या बढ़ती जा रही थी। इतिहास गवाह है कि जब लोग किसी महिला को उसके गुणों के कारण नहीं हरा पाते हैं तो फिर वे उसके चरित्र पर हमला करते हैं। 

महाराज तथा केशव दास के कारण सबके मुँह सिले थे। लेकिन कहते हैं कि दीवारों के भी कान होते हैं। लोग आपका दुःख तो देख सकते हैं, लेकिन सुख बर्दाश्त करना उनकी सीमा से बाहर होता है।

राय प्रवीन की ख्याति से जलने वालों की कमी न थी। महाराज ने उसे 'राज नर्तकी' पद से नवाजा। राय प्रवीन एक सुंदर कवि और संगीतकार थी, जिससे "ओरछा की कोकिला" के रूप में भी जाना जाने लगा। तब राव रानी के लोगों को लगा कि इस बात से राव रानी को अवगत होना चाहिए। बात पटरानी तक पहुँच गई।

पटरानी का संबंध ग्वालियर से था। उसका विवाह महाराज से हुआ था जो उससे उम्र में बीस साल बड़े थे। उसकी नज़रों में महाराज चालाक और शक्की मिज़ाज, बाहर से शरीफ़ और अंदर से घमंडी, रानियों पर हुक्म चलाने वाले थे। 

राव रानी की असल ज़िंदगी उनके साथ सोने का पिंजरा बन चुकी थी - बाहर से रोशन और अंदर से घुटती हुई। हर सुबह उसकी आँखें खुलती थीं तो ख़्वाहिशों की लाशें उसके तकिये से निकलती थीं। दूसरी तरफ तरफ़ महाराज अपनी रातें राय प्रवीन के साथ गुज़ारते।

महल के एक जलसे में आस-पास की रियासतों को न्योता दिया गया था। दिखावा, गठबंधन और सौदे सब रिवाज़ की तरह चलते थे। जैसे कि रात चाँदनी और रौशनी से महल नहाया हुआ था। मंच पर नाचने वाली लड़कियों की पायल गूँज रही थी। इत्र की ख़ुशबू फ़िज़ा में फैल रही थी। हर गलीचा, हर पर्दा, हर झूमर जैसे कहानी कह रहा था। 

तभी उन सबके बीच राय प्रवीन आई। गहरी नीली साड़ी पहनी थी उसने। कंधे पर चमकता शाल रखा था। और चेहरे पर एक ऐसी शराफ़त जो आज के दौर में कम ही दिखती है। मगर राय प्रवीन की आँखों में कुछ था जैसे वो इस तमाशे से ऊब चुकी हो। और तभी महाराज वहाँ धीरे-धीरे चलते हुए आए। जैसे सँभल-सँभल कर चल रहे हों। राय प्रवीन ने महाराज को देखा और महाराज ने उसको। दोनों की नज़रें मिलीं और राव रानी को लगा जैसे कुछ उसके मन में टूट गया हो।

इश्क की वह लहर थी जो उस क्षण वहाँ गुज़री थी, जो आगे तूफ़ान बनकर राजमहल में चलने को थी। जलसे के बाद सब चले गए, लेकिन राव रानी ने जो अफ़वाहें सुनी थीं, उसे सच होते अपनी आँखों के सामने देखा था। देखा जाना ही तो इश्क का प्रमाण होता है। इन्हीं बे-आवाज़ नज़रों के बीच उम्मीदों के फूल खिलते हैं। 

राव रानी ऐसे नज़ारे ख़ूब पहचानती थीं। एक दिन महाराज के लिबास से एक इत्र की हल्की-हल्की ख़ुशबू वाला रुमाल निकला था। यह वही ख़ुशबू थी जो आज राय प्रवीन से भी आ रही थी।

आनन्द सोच रहा था कि ईर्ष्या एक मानवीय भावना है, लेकिन इसे समझना और सँभालना बेहद ज़रूरी है। यह केवल एक भावना नहीं है, बल्कि यह हमारे रिश्तों और मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करती है। अगर यह नियंत्रण में है तो हमारे लिए अच्छा है। बहुविवाह संबंधों में, विशेष रूप से दो पत्नियों वाले में, सह-पत्नियों के बीच प्रतिद्वंद्विता और ईर्ष्या सामान्य मनोवैज्ञानिक घटनाएँ हैं। 

हुकुम सिंह ने स्वगत कथा करते हुए कहा - ये भावनाएँ पति के ध्यान, संसाधनों और स्नेह के लिए प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ घरेलू कार्यों और बच्चों के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारियों के असमान वितरण से उत्पन्न हो सकती हैं। इससे विभिन्न मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं, जिनमें अवसाद, चिंता और कम आत्मसम्मान शामिल हैं, विशेष रूप से पहली पत्नी के मामले में। 

ज़्यादातर समय वे अच्छा व्यवहार करने की कोशिश करती हैं और दिखावा करती हैं कि उन्हें जलन नहीं होती या वे इससे परेशान नहीं होतीं, लेकिन आमतौर पर यह सब सिर्फ़ उस आदमी को ख़ुश करने की कोशिश होती है जिसके साथ वे हैं और उसका पसंदीदा या आख़िरकार उसका एकमात्र बनने की कोशिश करती हैं। 

आनन्द ने कहा - वहीं, आउट ऑफ़ कंट्रोल होने पर हमारे लिए मुसीबत बन सकती है। ईर्ष्या एक भावनात्मक प्रतिक्रिया है। ईर्ष्या तब होती है, जब हमें लगता है कि जो कुछ सामने वाले को मिल रहा है, वह हमारे पास नहीं है।

राय प्रवीन की उपलब्धियाँ तथा महाराज के साथ रिश्ता देखकर राव रानी के मन में असुरक्षा और जलन उठने लगी। यह भावना राय प्रवीन से तुलना के कारण पैदा हो गई। राव रानी जितना सोच रही थी, उनकी ईर्ष्या असुरक्षा में बदल रही थी। महारानी ने सोचा कि यदि राय प्रवीन के संतान हुई तो उसकी संतानों का भविष्य ख़तरे में पड़ जाएगा। 

राव रानी ने सोचा रियासत में उत्तराधिकार की लड़ाई शुरू हो जाएगी। द्वेष ईर्ष्या का चरम रूप है, जहाँ हम न केवल किसी की उन्नति से जलते हैं, बल्कि उसका नुक़सान करने की भी कोशिश करते हैं। ईर्ष्या अब द्वेष में बदल रही थी। वह राय प्रवीन को नुक़सान पहुँचाना चाहती थी।

राव रानी ने अपने हितैषी, मित्र, तथा परिवार के साथ इंद्रजीत और उनकी भोग संगिनी राय प्रवीन का क्या किया जाए?

इस समस्या पर विचार-विमर्श के बाद राव रानी ने निर्णय लिया कि उसके परिवार के जो कुछ लोग सम्राट अकबर के दरबार में नियुक्त हैं, उनके माध्यम से राय प्रवीन के रूप सौंदर्य, नृत्य कौशल, गायकी तथा कवित्त रचने की बातें बढ़ा-चढ़ाकर अकबर तक पहुँचाई जाएँ।

हुकुम सिंह ने राव रानी की मनोदशा का ब्यान किया - राव रानी अपने आप को राय प्रवीन के सामने कमतर मान रही थी। इससे उनके मन में असुरक्षा की भावना बलवती हो रही थी। मन तनाव से भर गया था। एक अजीब सी बेचैनी उन्होंने पहली बार अपने अंदर महसूस की थी। उनकी दिल की धड़कन बढ़ गई थी। पेट में हलचल होती रहती थी। आँखों से नींद का नाता टूट गया था। 

रात भर करवटें बदलते बीती थी। उन्हें अपने आप पर गुस्सा आ रहा था कि अभी तक इतनी बड़ी बात से वह कैसे अनजान रहीं। महाराज का उनके प्रति बदलते व्यवहार को वह क्यों नहीं समझ पाईं?

आनन्द ने कहा - ईर्ष्या का कारण हर व्यक्ति में अलग हो सकता है, लेकिन कुछ कारण सब में देखे जा सकते हैं। जैसे-जैसे असुरक्षित महसूस करना बढ़ रहा था।

वह ख़ुद को नाकामयाब समझ रही थी। उन्हें अकेलेपन का डर सताने लगा। उनमें ईर्ष्या की भावना अधिक हो गई। इसके अलावा आत्मसम्मान कम होने पर वह सोच रही थी कि लोग क्या कहेंगे?

महल में उनकी इज़्ज़त कौन करेगा?

राव रानी ने राय प्रवीन के रूप-गुणों की ख्याति अकबर तक अपने एक बहुत विश्वस्त दूत से भिजवाई। उसे इस मुसीबत से छुटकारा पाने का यहीं सरल उपाय लगा कि बादशाह की बात महाराज टाल नहीं सकते और यदि राय प्रवीन बादशाह  के दरबार में चली जाएगी तो 'साँप भी मर जाएगा और लाठी भी न टूटेगी'। 

लेकिन राव रानी को अपने किए के परिणामों की कल्पना भी नहीं थी। न उन्हें महाराज की चिंता थी, न राय प्रवीन की। वह तो प्रतिशोध की ज्वाला में जल रही थी।

राव रानी को चिंता थी तो अपने पद की, अपनी संतान के भविष्य की। उन्होंने इस समय एक क्षण यह नहीं सोचा कि यदि महाराज ने राय प्रवीन को भेजने से मना कर दिया तो बादशाह क्या करेगा? 

क्या वह ओरछा पर आक्रमण कर देगा? 

क्या महाराज की अवस्था अब युद्ध करने की है? 

क्या ओरछा मुग़ल साम्राज्य की सेना का सामना कर सकता है? 

बुंदेल राजा की इज़्ज़त का क्या होगा?

महारानी न तो इतनी कूटनीति जानती थीं, न राजनीति। उनका पूरा समय महलों के ऐशो-आराम में बीता था। बचपन में पिता के संरक्षण में और बाद में पति के। उन्हें पढ़ाई-लिखाई में कोई रुचि नहीं रही। न उन्हें किसी कला में कोई रुचि थी। वे केवल बच्चे पालने में माहिर थीं।

हुकुम सिंह ने दुःख के साथ कहा - अब तीर कमान से निकल चुका था और निशाने पर लगा था। दोनों का प्रेम राजनीतिक षड्यंत्रों में फँस गया था। इंद्रजीत की इस कहानी में प्रेम है, वासना है, इंद्रिय संयम है और हैं बहुत सारे राजनीतिक षड्यंत्र।

दूसरी ओर राय प्रवीन भी अपनी सहज प्रवृत्ति से राव रानी के भाव को जान गई थी। उन्हें जिस बात का हमेशा डर रहा था, वह बात अब घट गई थी। आज भी इंद्रजीत के साथ वह अपने केलि-कक्ष में बैठी थी। रात्रि का पहला पहर आरंभ हो गया था। तभी कक्ष में द्वारपाल ने आने की आज्ञा माँगी। 

महाराज ने कहा, "बात क्या है?" तो सैनिक ने कहा कि बादशाह अकबर का ज़रूरी संदेश आया है। शाही मुहर लगा पत्र महाराज अच्छी तरह पहचानते थे। महाराज ने पत्र अंदर बुलवा लिया और खोलकर पढ़ा। सैनिक ने प्रणाम किया और बाहर चला गया। कक्ष में रह गए इंद्रजीत और राय प्रवीन।

महाराज ने पत्र देखा तो उनके शरीर में एक झुरझुरी दौड़ गई। महाराज का चेहरा क्रोध से लाल हो उठा। उन्होंने ज़ोर से अपना मुक्का दीवार पर मारा। उनकी आत्मा में कुछ उठा। वह जानते थे कि बादशाह अकबर के सामने उनकी क्या हैसियत है? 

महाराज चुप रहे। राय प्रवीन की ओर उन्होंने प्यार भरी नज़रों से देखा। राय प्रवीन की देह गंध महाराज को आकर्षित कर रही थी। महाराज ने पत्र द्वारपाल के हाथ से कवि केशवदास के पास भेज दिया। 

इतनी ख़ुशी जीवन में हो तो वहाँ शायद कुछ अवसाद अपेक्षित भी है। अतः राय प्रवीन को ओरछा से अलग करने के लिए षड्यंत्र रचे गए। उसी के अंतर्गत तत्कालीन मुग़ल बादशाह अकबर को राय प्रवीन के सौंदर्य का बखान कर पत्र लिखे गए और गुप्त संदेशवाहक भेजे गए। 

अंततः राव रानी की चालें कामयाब रहीं। अकबर ने ओरछा के महाराज इंद्रजीत को फ़रमान भेजा कि राय प्रवीन को जल्द से जल्द आगरा दरबार में हाज़िर किया जाए।

महाराज बड़े धर्मसंकट में फँस गए। हमेशा प्रसन्न रहने वाले महाराज अब हमेशा क्रोधित, चिड़चिड़े, और थके दिखने लगे। वे अब बहुत बूढ़े, कमज़ोर तथा उदास रहते। खाने-पीने या किसी गतिविधि में उनकी रुचि न रही। उन्हें नींद आने तथा खाने में समस्या होती। उन्होंने राज वैद्य से सिरदर्द, पेट दर्द, और यौन समस्याओं के अनुभव की शिकायत की।

महाराज ने अपनी प्रेयसी के सम्मान की रक्षा के लिए उसे बादशाह के दरबार में भेजने से इनकार कर दिया। तो बादशाह ने उसे पकड़ मँगवाने का आदेश दिया और राजा पर एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का जुर्माना भी ठोंक दिया। अकबर के आदेश से महाराज के आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुँची। 

इंद्रजीत किसी भी क़ीमत पर राय प्रवीन को मुग़ल दरबार में नहीं भेजना चाहते थे। इंद्रजीत जानते थे कि यदि बादशाह नाराज़ होगा तो संपूर्ण राज्य का विनाश हो जाएगा। उनके पिता एक दफ़ा ओरछा का राज्य खो चुके थे। बादशाह से उनके बड़े भाई द्वारा क्षमा माँगने पर ही राज्य वापस किया था। उनका परिवार तथा राज्य बादशाह के अधीन था। इसलिए उन्हें बादशाह का विश्वास बनाए रखना था।

लेकिन बादशाह से ओरछा की सुरक्षा को ख़तरा उत्पन्न हो गया था। महाराज अपने महल में परेशान घूम रहे थे। नींद आँखों से कोसों दूर थी। केशवदास उनके महल में समस्या का संतोषजनक हल खोजने में लगे थे। राय प्रवीन अपने महल में परेशान थी। उसे पुरानी बातें याद आ रही थीं। जब ओरछा में महाराज मधुकर शाह का शासन था, तो अपने पुत्र इंद्रजीत को कछौआ (वर्तमान शिवपुरी ज़िले में) का जागीरदार बना दिया। 

जब महाराज मधुकर शाह की मृत्यु हुई तो इंद्रजीत ओरछा राज गद्दी के उत्तराधिकारी बने, फिर उन्होंने शंकर लोहार को भी ओरछा ही बुला लिया। तभी एक दुर्घटना में शंकर की मृत्यु हो गई। महाराज ने पुत्री पुनिया की विशेष व्यवस्था की। पुनिया को ओरछा राज्य के कुल गुरु और हिंदी साहित्य के प्रथम कवि पंडित केशवदास के संरक्षण में शिक्षा-दीक्षा मिली। 

पुनिया के अनुपम सौंदर्य के कारण दरबार के कई लोगों की निगाहें पुनिया पर रहीं। अतः केशवदास ने पुनिया को नृत्य, संगीत और काव्य के साथ ही शस्त्र चलाना भी सिखाया। पुनिया की हर विद्या में प्रवीणता को देखकर महाराज ने उसे राय प्रवीन की उपाधि दी।

राय प्रवीन के मोहपाश में बंधे महाराज इंद्रजीत सिंह ने आखिरकार अपनी प्रेयसी से गांधर्व विवाह करना स्वीकार किया और ओरछा के राजमहल के निकट ही आनन्द भवन महल बनाकर राय प्रवीन को उपहार दिया। महाराज के राय प्रवीन के प्रेमपाश में जकड़े रहने के कारण राजकाज की व्यवस्थाएँ शिथिल हो गईं। ओरछा की महारानी के लिए ये सौतन मुसीबत बन गई।

प्रेम क्या है? आनन्द ने पूछा?

हुकुम सिंह ने जबाव दिया- यह प्रश्न आज भी उतना प्रासंगिक है जितना तब था जब ओरछा पर राजा इंद्रजीत का शासन था। इंद्रजीत तब युवा थे, संगीत-कला मर्मज्ञ, प्रेम गीत लेखक, तथा कलाकारों के आश्रयदाता। वे कुशल शासक, लोकप्रिय राजा, अपनी प्रजा के सुख-दुःख का ख़्याल रखते थे। दूसरी ओर वे भोग के प्रतिनिधि थे, रसिकों का नेता तथा आसक्ति का दूसरा नाम।

हुकुम सिंह ने कहा - कहानी में जान तब आती है जब ओरछा की सर्वश्रेष्ठ नर्तकी, अनिंद्य सौंदर्य की प्रीतिमूर्ति राय प्रवीन गांधर्व विवाह कर आनंद भवन में रहने आती है। वह इंद्रजीत से प्रेम कर बैठती है। आनंद भवन में इंद्रजीत के साथ बैठी थी राय प्रवीन। 

इंद्रजीत और राय प्रवीन का प्रेम पूरे बुंदेलखंड में चर्चा का विषय था। इंद्रजीत रूपवान, गुणवान, ऐश्वर्य से भरे हुए थे। पर राय प्रवीन का प्रेम उसके रूप या उसके धन के लिए नहीं था। रूप में राय प्रवीन अद्वितीय थी और धन भी उसके पास ख़ूब था। बल्कि इंद्रजीत से उसके प्रेम की कहानी उसके बचपन में छिपी हुई थी।

राय प्रवीन शुरू से ही नर्तकी नहीं थी, वह गाँव के सीधे-सादे लोहार की पुत्री थी। उसकी उम्र जब भोग की हुई तब उसके जीवन में आए इंद्रजीत। इंद्रजीत मधुकर शाह के पुत्र थे। उनके प्यार ने राय प्रवीन को ओरछा ला दिया। राय प्रवीन को शिक्षा दी थी रीतिकाव्य के मूर्धन्य कवि केशवदास ने। राय प्रवीन केवल इंद्रजीत के लिए नृत्य करती तब भावविभोर हो जाती। इंद्रजीत जब राय प्रवीन को देखते तो उनके चेहरे पर ऐश्वर्य की आभा होती। राय प्रवीन इंद्रजीत के चेहरे से आँखें हटा नहीं पाती।

धीरे-धीरे ओरछा के समाज को यह आभास हुआ कि नर्तकी महाराज को बार-बार देख रही है। जो नर्तकी कभी किसी वैभवशाली पुरुष को नहीं देखती, वह महाराज को एकटक देख रही थी। वह केवल महाराज के लिए उपलब्ध थी, समुदाय के लिए नहीं। वे प्रेम के बंधन में बंधे थे तथा एक-दूसरे के साथ ही रमण करते। 

राय प्रवीन अपने-आप को कोस रही थी कि उसके कारण महाराज तथा राज्य पर इतना संकट आ गया। गर्मी की हल्की दोपहर थी। महल के बाहर सोने जैसी गेंहूँ की फ़सलें लहलहा रही थी। राय प्रवीन की आँखों में आँसू सूख चुके थे।

महाराज राय प्रवीन को धैर्य की देवी मानते थे, पर वह नहीं जानते थे कि हर रोज़ उसके भीतर कुछ मरता जा रहा था। राय प्रवीन ने महाराजा और केशवदास को बुलवा भेजा। वह मन ही मन निश्चय कर चुकी थी कि वह महाराज, राज्य और अपने आत्मसम्मान की रक्षा करेगी। 

केशवदास का मानना था कि राय प्रवीन की मुक्ति का केवल एक उपाय था - उसकी वाक् शक्ति। केशव दास का मत था कि जो काम शब्द से हो सकता है, वह शस्त्र से नहीं हो सकता। यदि विवेक के साथ इस्तेमाल किया जाए तो तलवार का घाव तो भर जाता है, लेकिन शब्द का घाव कभी नहीं भरता। इसी कारण सनातन धर्म में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। केशवदास ने राय प्रवीन को उसकी शक्ति का स्मरण करवा कर उसे आत्मविश्वास से भर दिया।

राय प्रवीन ने सोचा -महाराज की चिंताओं का हल निकलना ही होगा। राय प्रवीन को अपने जीवन का मूल्य देकर महाराज के मान तथा ओरछा राज्य की मर्यादा की रक्षा करनी होगी। इस ओरछा राज्य ने उसे कितना कुछ दिया। उसका मूल्य चुकाने का अवसर आ गया था। उसे कृष्ण के अर्जुन से कहे शब्द याद आए:-

"हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्। 

तस्मात् उत्तिष्ठ कौंतेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥" 

यदि तुम युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि विजयी होते हो तो धरती का सुख पा जाओगे... इसलिए उठो, हे कौंतेय, और निश्चय करके युद्ध करो….।

तब उसने एक कवित्त के ज़रिए इंद्रजीत सिंह को अपनी बात समझाई:- 

"आई हौं बूझन मंत्र तुम्हें, 

निज सासन सों सिगरी मति गोई, 

प्रान तजौं कि तजौं कुलकानि, 

हिये न लजौ, लजि हैं सब कोई। 

स्वारथ और परमारथ कौ पथ, चित्त, 

विचारि कहौ अब कोई। 

जामें रहे प्रभु की प्रभुता अरु-मोर पतिव्रत भंग न होई।"

केशव का परामर्श सुन उसने महाराज को अपना निर्णय सुनाया। 

महाराज ने कहा, "ऐ कैसा हठ है प्रवीन!" 

वह बोली, "हठ नहीं महाराज, कर्तव्य। आपकी चरण रज लेने आई हूँ। अन्नदाता ओरछा का सूर्य इसी भाँति जगमगाता रहे। यदि प्राण रहे तो फिर भेंट होगी। दासी को आशीर्वाद दें, अन्नदाता महाराज की जय, भूतल के इंद्र की जय।"

बुंदेलखंड मतलब महिलाओं के शौर्य, वीरता, त्याग और बलिदान की धरती। उसे गीता के श्लोक की बरबस याद हो आई।  

"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। 

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥" 

'कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फलों में कभी नहीं। इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो।' कर्तव्य-कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।

यह कहानी सुनते - सुनते आनन्द का मन बहुत द्रवित हो गया। राजा इंद्रजीत तथा राय प्रवीन दोनों के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। 

आनन्द ने पूछा कि कहा जाता है कि यह एक षड्यंत्र था, लेकिन इसकी जड़ें कहाँ थी?

हुकुम सिंह ने राव रानी का जिक्र करते हुए बताया कि राव रानी ने अपनी कहानी कुछ इस तरह कही है  “मैं राव रानी हूँ। इंद्रजीत की पत्नी। पर मेरा परिचय इससे कहीं अधिक है। इंद्रजीत सिंह के साथ मेरे संबंध बिलकुल अलग थे। मैं केवल पत्नी नहीं थी, सहयोगिनी थी, सहारा थी, उनकी संतानों की माँ थी और उस परिवार की धुरी थी। लोगों ने मेरे ऊपर कई आरोप लगाए। राय प्रवीन की जानकारी अकबर को भेजने पर प्रश्न उठाए।”

बल्कि यह इस युग की आवश्यकता थी। जब इंद्रजीत ने सब कुछ उस पर वार दिया। आख़िर में मेरी इज़्ज़त, मेरी संतानों का भविष्य दाँव पर लगा दिया। मुझे हर पल ऐसा लगता जैसे इंद्रजीत सबके सामने हर रोज़ मुझे नंगा करते।

उनके सभी भाई मौन थे। मंत्री, सभासद नज़रें चुराते। कवि केशव भी निष्पंद थे। पर मेरी आत्मा चुप नहीं थी। मैंने प्रश्न उठाए। 

क्या मेरी शादी से पहले मुझसे पूछा गया था? 

क्या स्त्री वस्तु होती है? 

उस दिन समारोह में पति धर्म नंगा हुआ था। तभी मैंने संकल्प लिया था। न्याय के लिए कुछ करना होगा। इस अधर्म को जलाने के लिए चिंगारी। 

मैं नहीं, मेरा अपमान था। लोग कहते हैं कि अकबर को सूचना मैंने भिजवाई। पर सच्चाई यह है कि इसका बीज उस समारोह में हुए अपमान के कारण बोया गया था। मैंने प्रतिशोध नहीं चाहा। मैंने न्याय चाहा। उस न्याय के लिए जो किसी भी सभ्य समाज की नींव होता है।

सब मुझे एक पीड़िता के रूप में दिखा रहे थे। पर सच्चाई यह है कि मैंने चुपचाप अन्याय सहा नहीं। मैंने विरोध किया। तर्क से, विवेक से, और आत्म बल से। मेरी कहानी हर काल में जीवित रहेगी। हर उस स्त्री के साथ जो अन्याय के ख़िलाफ़ खड़ी होती है। हर उस आवाज़ में जो पूछती है, 'मुझे क्यों नहीं सुना गया?' आगे भी कोई नारी अपमान के विरोध में खड़ी होगी तो समझ लो राव रानी पुनः जन्म ले रही है।

हुकुम सिंह ने कहानी के दूसरे पहलू को राव रानी के पक्ष से सुनाने की कोशिश की। आनन्द ने सोचा कि हम अक्सर कहानी का एक ही पहलू देखते हैं और दूसरे को भूल जाते हैं कि वे भी जीवित मनुष्य हैं।



अकबर

हुकुम सिंह ने ओरछा से आगरा की यात्रा का विवरण सुनते हुए कहा -  “इस यात्रा में राय प्रवीन के साथ थे कवि केशवदास, जो न केवल उनके गुरु थे, बल्कि उनके विश्वासपात्र मित्र भी। यह कोई साधारण यात्रा न थी, बल्कि सम्मान और चिंता का मिश्रण लिए हुए एक लंबा सफर था, जिसे बैलगाड़ी से तय किया जाना था।”

आनन्द ने कल्पना की कि उस समय जंगल कितना घना रहा होगा। सड़क कैसी होगी। बैलगाड़ी कितनी तेज चल पाती होगी। आनन्द ने यह सवाल हुकुम सिंह से पूछे। राय प्रवीन के परिवार के सदस्य उसकी हिम्मत बढ़ाने के लिए साथ गए। केशवदास ने मुग़ल दरबार में अपने मित्रों को सहायता के लिए अग्रिम दूत भेजकर सूचना भेजी। 

हुकुम सिंह ने बताया कि आगरा का सफ़र बहुत लंबा तथा जोखिम भरा था। महाराज ने अपने सबसे अच्छे बैल, हीरा और मोती की जोड़ी, शाही बैलगाड़ी ले जाने के लिए तैयार करवाई। बैलों को ख़ूब सजाया गया। बैलगाड़ी के ऊपर बहुत सुंदर छाँव के लिए कपड़ा बाँधा गया। महाराज ने अपने गाड़ीवान हीरामन को गाड़ी हाँकने की ज़िम्मेदारी दी। एक सैनिक टुकड़ी साथ चली। आने-जाने के सफ़र में खाने, पीने तथा दल को ठहरने की रास्तों में व्यवस्था की गई। ख़र्च के लिए पर्याप्त धन दिया गया। अकबर को भेंट देने के लिए उपहार भी दिए गए।

केशवदास ने महाराज को आश्वासन दिया था कि वह राय प्रवीन को सुरक्षित लौटा लाएँगे। केशवदास ने भी महाराज को आश्वस्त किया कि वे राय प्रवीन का पूरा ध्यान रखेंगे। राय प्रवीन महाराज का दुःख समझ रही थी। राय प्रवीन ने भी महाराज को अकेले में रात भर ख़ूब समझाया था। महाराज बहुत जल्दी निराशा से भर गए। 

महाराज का चिड़चिड़ापन बहुत बढ़ गया। वह छोटी-छोटी बातों पर महल के सेवकों पर अनुचित गुस्सा करने लगे थे। लेकिन महाराज की डूबी आँखें, सूखे होंठ, रुंधा गला व काँपते हाथ देखकर राय प्रवीन बहुत चिंतित हो उठी थी। लेकिन राय प्रवीन को तो यात्रा पर जाना ही था, सो वह चल दी।

सभी व्यवस्थाएँ यथोचित होने पर महाराज ने जाने की आज्ञा दी। लेकिन राजा इंद्रजीत सिंह स्वयं विदाई देने आनंद भवन के बाहर राय प्रवीन को छोड़ने नहीं आए। राजा झरोखें से देख रहे थे। उनकी आँखों में चिंता और सम्मान दोनों थे। राय प्रवीन ने झुककर प्रणाम किया, उनके चेहरे पर एक दृढ़ संकल्प था, पर मन में अपनों से बिछड़ने का दुःख भी। 

राय प्रवीन और केशवदास को लेकर जब काफ़िला चला तो बैलगाड़ियों की लाइन बहुत लंबी हो गई। सर्पाकार मार्गों पर काफ़िला निर्बाध गति से आगे बढ़ा। 

हुकुम सिंह ने बताया - ओरछा से प्रस्थान का पहला दिन -ओरछा का सूर्योदय प्रतिदिन की तरह ही हुआ था, पर आज उसमें एक अलग ही उदासी घुली हुई थी। आनन्द भवन के बाहर एक सुसज्जित बैलगाड़ी तैयार खड़ी थी। बैल मजबूत और स्वस्थ थे, जिन पर रंग-बिरंगे वस्त्र और घंटियाँ बंधी थीं। गाड़ी के भीतर राय प्रवीन के लिए कोमल आसन बिछाए गए थे और उनके सामान के साथ केशवदास की पोथियों और लेखन सामग्री के लिए भी पर्याप्त जगह थी।

जैसे ही बैलगाड़ी ने ओरछा की सीमा पार की, धूल भरी कच्ची सड़क पर उसके पहियों की घरघराहट वातावरण में घुल गई। सुबह की ठंडी हवा में पेड़ों की पत्तियाँ सरसरा रही थीं। पीछे मुड़कर देखने पर, ओरछा का भव्य दुर्ग और मंदिर धीरे-धीरे छोटे होते जा रहे थे। केशवदास अपनी पोथी में कुछ लिखते जा रहे थे, शायद यात्रा का वृत्तांत या राय प्रवीन के सम्मान में कोई कविता। राय प्रवीन शांत बैठी बाहर के दृश्यों को निहार रही थीं – खेत, छोटे गाँव, और दूर तक फैले बुंदेलखंड के ऊबड़-खाबड़ पठार।

बैलगाड़ी की गति धीमी और थका देने वाली होती थी। दिन में लगभग बीस -पच्चीस किलोमीटर का सफर ही तय हो पाता था। रास्ता कभी पथरीला होता, तो कभी धूल भरा। पेड़ों की छाया से गुजरते हुए, कभी-कभी जंगली जानवरों की आवाज़ें सुनाई देतीं, तो कभी दूर गाँव से किसी गीत की धुन।

दोपहर में, किसी बड़े पेड़ के नीचे या किसी गाँव के बाहर बने कुएँ के पास गाड़ी रोक दी जाती। सेवक पानी भरते, भोजन तैयार करते और बैलों को भी आराम मिलता। राय प्रवीन और केशवदास भी कुछ देर आराम करते, बातचीत करते या केशवदास अपनी कविताएँ सुनाते। राय प्रवीन अक्सर उनसे बुंदेलखंड के किस्से-कहानियाँ या आध्यात्मिक बातें पूछतीं।

जैसे-जैसे शाम ढलती, वे किसी सराय या बड़े गाँव की धर्मशाला में रुकते। वहाँ रात बिताने के लिए साधारण से कमरे मिलते, पर सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जाता। कभी-कभी तो किसी मंदिर के प्रांगण में या खुले मैदान में ही रात बितानी पड़ती, जहाँ मशालों की रोशनी और अलाव की गर्माहट ही उनका सहारा होती। तारों से भरा आकाश और रात की खामोशी उनके सफर की साथी बन जाती।

झाँसी में  पहला बड़ा पड़ाव था। झाँसी उस समय भी एक महत्वपूर्ण नगर था। यहाँ से आगे का सफर थोड़ा और कठिन हो सकता था। 

अगला पड़ाव दतिया में किया गया। राजसी और रहस्यमयी दतिया पैलेस एक बिल्कुल छुपा हुआ रत्न इसे सतखंडा पैलेस तथा बीर सिंह जी देव पैलेस के नाम से भी जाना जाता है। 

इतिहासकारों का मानना है कि यह महल पूरी तरह से पत्थर और ईंटों से बना है। मेहराबदार दरवाज़े, गुंबदों और जालीदार काम की वास्तुकला मुग़ल प्रभावों को दर्शाती है, जबकि मूर्तियाँ और बहुत कम पेंटिंग राजपूत शैली में पक्षियों, जानवरों और फूलों को दर्शाती हैं। महल के कुछ हिस्सों में इसकी झलक देखी जा सकती है। महल की सुंदरता इसके विशाल आकार, जगह और धारीदार घरेलू छतरियों में निहित है। थोड़ा आगे बढ़ने पर सोनागिरी जैन मंदिर बहुत अच्छा मंदिर है। राय प्रवीन रस्ते भर प्राकृतिक दृश्य निहार रही थी। 

झाँसी से ग्वालियर की एक लंबी और संभावित रूप से चुनौतीपूर्ण राह थी। रास्ते में जंगल और पहाड़ी क्षेत्र हो सकते थे। ग्वालियर एक बड़ा और महत्वपूर्ण राज्य था, और यहाँ उन्हें कुछ दिनों के लिए बेहतर सराय और सुविधाएं मिल सकती थीं। 

दो दिन बाद पड़ाव ग्वालियर में किया गया। केशव दास ने राय प्रवीन को ग्वालियर के बारे में बताया कि भारत के मध्य में स्थित ग्वालियर अपने शानदार महलों और मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। यह शहर जटिल नक्काशीदार हिंदू मंदिर, सास बहू का मंदिर और प्राचीन ग्वालियर क़िला का घर है, जो बलुआ पत्थर के पठार के ऊपर स्थित है और शहर के मनोरम दृश्य प्रस्तुत करता है। 

क़िले की दीवारों के अंदर गूजरी महल पैलेस है। जय विलास पैलेस एक भव्य इमारत है, जो यूरोपीय वास्तुकला प्रभावों का एक आकर्षक मिश्रण प्रदर्शित करती है। भव्य हॉल इस विशाल महल की एक प्रमुख विशेषता है, जो आगंतुकों को इसके समृद्ध इतिहास और शाही आकर्षण की जानकारी प्रदान करता है।

अगला पड़ाव मुरैना में हुआ। केशव दास ने राय प्रवीण को बताया कि चौसठ योगिनी मंदिर पिटावली या बटेश्वर मंदिर समूह से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह एक पहाड़ी की चोटी पर बना है, जहाँ से आस-पास के इलाक़ों का शानदार नज़ारा दिखाई देता है। बटेश्वर मंदिर समूह का मुरैना में आगंतुक एक शांत अनुभव का आनंद ले सकते हैं। इसके अतिरिक्त, चंबल नदी के घाट पर समय बिताने से सुंदर परिदृश्यों के बीच स्वच्छ और प्रदूषण मुक्त पानी का सुखद दृश्य मिलता है। फिर काफ़िला धौलपुर रुका। ग्वालियर के बाद, रास्ता यमुना नदी के मैदानी इलाकों की ओर बढ़ता। यह क्षेत्र कुछ हद तक समतल होने लगा था।

धौलपुर से आगरा यात्रा का अंतिम चरण था। धौलपुर भी उस समय एक जाना-माना स्थान था। यहाँ से आगरा की दूरी कम थी और रास्ता भी अपेक्षाकृत सीधा था। हम लोग जितनी जल्दी हो सकता था, उतनी जल्दी मुग़ल दरबार में हाज़िर होना चाहते थे। 

हुकुम सिंह ने यत्रा का विवरण देते हुए बताया - धूल, गर्मी और कभी-कभी अचानक आने वाली बारिश भी उनके सफर का हिस्सा बनती। बैलगाड़ी का हिचकोले खाता सफर शरीर को थका देता था, पर मन को नए अनुभवों से भर देता था। केशवदास ने इस यात्रा के दौरान कई नई कविताएँ रची। जिनमें मार्ग के दृश्य, लोगों की बातें और राय प्रवीन के भाव शामिल थे। राय प्रवीन ने भी अपने मन में कई नए नृत्य-रूपों और गीतों की कल्पना की। उन्होंने ग्रामीण जीवन को करीब से देखा, लोगों के सादगी भरे जीवन को समझा, जो उनके शाही जीवन से बिल्कुल अलग था।

कई बार रास्ते में ऐसे लोग भी मिलते जो मुगल दरबार के बारे में किस्से सुनाते। इन किस्सों से राय प्रवीन के मन में आगरा और बादशाह से मिलने को लेकर जिज्ञासा और चिंता दोनों बढ़तीं। केशवदास उन्हें धैर्य और हिम्मत देते, अकबर की न्यायप्रियता के बारे में बताते।

लगभग सात से दस दिनों की लंबी और थकाऊ यात्रा के बाद, एक शाम उन्होंने आगरा के विशाल द्वार देखे। दूर से ही लाल किले की भव्यता और शहर की चहल-पहल नज़र आने लगी। बैलगाड़ी ने आगरा की भीड़ भरी गलियों में प्रवेश किया। ओरछा की शांति और सादगी के विपरीत, आगरा की सड़कें व्यापारियों, सैनिकों, दरबारी और आम जनता की भीड़ से भरी थीं। हर तरफ शोर-शराबा था, और भव्य इमारतें खड़ी थीं।

मुगल दरबार के एक अधिकारी उन्हें लेने के लिए पहले से ही मौजूद थे। बैलगाड़ी शाही अतिथिगृह की ओर बढ़ी, जहाँ उनके ठहरने की व्यवस्था की गई थी।

राय प्रवीन और केशवदास ने लंबी यात्रा की धूल झाड़कर एक गहरी साँस ली। ओरछा की अपनी दुनिया से निकलकर, वे एक नई और विशाल दुनिया के मुहाने पर खड़े थे। यह यात्रा केवल भौगोलिक दूरी तय करना नहीं था, बल्कि एक सांस्कृतिक और भावनात्मक परिवर्तन का सफर था, जिसने उनके अनुभवों में एक नया अध्याय जोड़ा।

हुकुम सिंह ने यात्रा मार्ग का जो विवरण सुनाया उससे आनन्द को लगा की वह बैल गाड़ी में बैठ कर आगरा जा रहा हो। अगले दिन आगरा के महल के दरबार में बादशाह के सामने उपस्थित होने का हुक्म था।

रात में राय प्रवीन को नींद नहीं आ रही थी। उनके मन में कई दृश्य आ जा रहे थे। ओरछा का जहाँ वैभवशाली इलाका था, वहीं राय प्रवीन का महल था। तीन आँगनों से बना वह महल इतना विशाल था कि पाँच-सात हज़ार लोग बैठ सकते थे। महल इतना सुंदर तथा विशाल था कि ओरछा राज्य के जो श्रेष्ठि तथा मंत्रीगण थे, उनके महल भी उसके सामने छोटे थे। और राय प्रवीन की धन-संपदा तो हाँकने की बात नहीं थी। 

धीरे-धीरे राय प्रवीन की उम्र पच्चीस साल को पार कर गई। उसकी सुंदरता ओरछा की गलियों से निकल कर दूर-दूर तक फैल गई थी। सभी लोग उसकी सुंदरता के चर्चे सुनकर उससे मिलना चाहते थे। 

लेकिन राय प्रवीन आम लोगों से नहीं मिलती थी। उनके लिए वह केवल देखने की वस्तु थी। जब भी राय प्रवीन ओरछा की गलियों में निकलतीं, लोग गली तथा छतों पर खड़े होकर उसका अभिवादन करते। उसकी एक झलक को लालायित रहते।

हुकुम सिंह ने राय प्रवीन के सम्बन्ध में बताया कि - फिर धीरे-धीरे उसकी सुंदरता की चर्चा भारत में उस समय के सबसे शक्तिशाली मुग़ल साम्राज्य के बादशाह अकबर के पास भी पहुँची। ओरछा मुग़ल सल्तनत के अधीन एक छोटा राज्य था। लेकिन ओरछा का राजा इंद्रजीत सिंह बहुत स्वाभिमानी राजा था। इसलिए मुगलों की ओरछा नरेश से ज़्यादा नहीं बनती थी। 

पहले अकबर अपने अभिमान से भरा हुआ राय प्रवीन को पाने के लिए ओरछा पर चढ़ाई करने का सोचता है। उसने ओरछा राजा को यह पत्र लिखा कि तुम राय प्रवीन को मेरे पास पहुँचा दो अन्यथा एक लाख मुहरों का जुर्माना देने तथा युद्ध के लिए तैयार रहो। बात केवल राय प्रवीन की नहीं थी, बात स्वाभिमान की थी।

इसी लिए ओरछा के महाराज ने बादशाह को यह संदेशा भेजा कि आप ओरछा की सबसे महान चीज़ माँग रहे हैं। राय प्रवीन ओरछा का गर्व है और उसे देकर हम ओरछा के गर्व को छोटा नहीं कर सकते।

यह उत्तर क्या था, बल्कि आग में घी की आहुति थी। अकबर का क्रोध अपने उफ़ान पर आ गया। और वह अपनी सेना ओरछा पर चढ़ाई के लिए भेजने पर आमादा हो गया। ओरछा में ओरछा के गौरव की रक्षा के लिए प्राण देने वालों की कमी नहीं थी। युद्ध अवश्यंभावी ही था। उसी समय केशवदास ने अपने मित्र अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना को संदेश भेजा। 

केशवदास ने संदेश में कहा कि एक बार बादशाह राय प्रवीन को देख तो लें। उसके बाद युद्ध करें, कहीं ऐसा न हो बादशाह युद्ध करें और जब राय प्रवीन को देखें तो वह उतनी सुंदर न हो जितनी बादशाह ने सुनी है। फिर तो इस युद्ध का कोई मतलब नहीं रहेगा। 

जब अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना ने यह बात बादशाह को बताई तो उसे केशवदास की यह बात पसंद आ गई। तब अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना ने बादशाह का यह संदेश केशवदास को भेजा कि राय प्रवीन एक बार बादशाह के दरबार में अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए आएँ। 

केशवदास ने जब यह बात राय प्रवीन को बताई तो वह यह जानती थी कि ओरछा मुग़ल बादशाहत के सामने कहीं टिक नहीं सकता है। इसीलिये वह अपने लिए ओरछा राज्य का नाश नहीं करवाना चाहती थी। उसने बादशाह अकबर के दरबार में जाने का मन बना लिया।

आनन्द ने मुग़ल बादशाह के बारे में जानना चाहा- तब हुकुम सिंह ने बताया -तैमूरी वंशावली के मुग़ल वंश के तीसरे शासक थे अकबर। अकबर का जन्म पूर्णिमा के दिन हुआ था इसलिए उनका नाम बदरुद्दीन मोहम्मद अकबर रखा गया था। 'बद्र' का अर्थ होता है पूर्ण चंद्रमा और 'अकबर' उनके नाना शेख़ अली अकबर जामी के नाम से लिया गया था। 

अकबर का जन्म राजपूत शासक राणा अमरसाल के महल उमेरकोट, सिंध (वर्तमान पाकिस्तान में) हुआ था। यहाँ बादशाह हुमायूँ अपनी हाल की विवाहिता बेगम हमीदा बानो के साथ शरण लिए हुए थे। इस पुत्र का नाम हुमायूँ ने एक बार स्वप्न में सुनाई दिए जलालुद्दीन मोहम्मद के अनुसार रखा।

अकबर को अकबर-ए-आज़म अर्थात अकबर महान, शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जानते हैं। सम्राट अकबर मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूँ एवं हमीदा बानो के पुत्र थे। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज ख़ाँ से संबंधित था। अर्थात् उनके वंशज तैमूर लंग के ख़ानदान से थे, और मातृपक्ष का संबंध चंगेज़ ख़ाँ से था। अकबर के शासन में मुग़ल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकांश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था।

आनन्द ने जानना चाहा  "अकबर का बचपन कैसा था ? वह कितना पढ़ा लिखा था ?"

हुकुम सिंह ने बताया - हुमायूँ को पश्तून नेता शेरशाह सूरी के कारण फ़ारस में अज्ञातवास बिताना पड़ रहा था। किंतु अकबर को वह अपने संग नहीं ले गया, वरन रीवा राज्य के एक ग्राम मुकुंदपुर में छोड़ दिया था। अकबर की वहाँ के राजकुमार राम सिंह प्रथम से, जो आगे चलकर रीवा का राजा बना, के संग गहरी मित्रता हो गई थी। ये एक साथ ही पले और बढ़े और आजीवन मित्र रहे। 

कालांतर में अकबर सफ़ावी साम्राज्य (वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान का भाग) में अपने एक चाचा मिर्ज़ा अस्करी के यहाँ रहने लगा। पहले वह कुछ दिनों कंधार में और फिर काबुल में रहा। हुमायूँ की अपने छोटे भाइयों से बराबर ठनी ही रही, इसलिए चाचा लोगों के यहाँ अकबर की स्थिति बंदी से कुछ ही अच्छी थी। 

यद्यपि सभी उसके साथ अच्छा व्यवहार करते थे और शायद दुलार-प्यार कुछ ज़्यादा ही होता था। किंतु अकबर पढ़ लिख नहीं सका। वह केवल सैन्य शिक्षा ले सका। उसका काफ़ी समय आखेट, दौड़ व द्वंद्व, कुश्ती आदि में बीता, तथा शिक्षा में उसकी रुचि नहीं रही।

जब तक अकबर आठ वर्ष का हुआ, जन्म से लेकर अब तक उसके सभी वर्ष भारी अस्थिरता में निकले थे, जिसके कारण उसकी शिक्षा-दीक्षा का सही प्रबंध नहीं हो पाया था। अब हुमायूँ का ध्यान इस ओर भी गया। उसने अकबर की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए काबुल में एक आयोजन किया। किंतु ऐन मौके पर अकबर के खो जाने पर वह समारोह दूसरे दिन संपन्न हुआ। 

मुल्ला असमुद्दीन अब्राहिम को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया। मगर मुल्ला असमुद्दीन अक्षम सिद्ध हुए। तब यह कार्य पहले मौलाना बामजीद को सौंपा गया, मगर जब उन्हें भी सफलता नहीं मिली तो मौलाना अब्दुल क़ादिर को यह काम सौंपा गया। मगर कोई भी शिक्षक अकबर को शिक्षित करने में सफल न हुआ। 

असल में, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाज़ी, घुड़सवारी और कुत्ते पालने में अधिक थी। किंतु ज्ञानोपार्जन में उसकी रुचि सदा से ही थी। कहा जाता है कि जब वह सोने जाता था, एक व्यक्ति उसे कुछ पढ़कर सुनाता था। समय के साथ अकबर एक परिपक्व और समझदार शासक के रूप में उभरा, जिसे कला, स्थापत्य, संगीत और साहित्य में गहरी रुचि रही।

हुकुम सिंह- शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह के उत्तराधिकार के विवादों से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठाकर हुमायूँ ने दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। इसमें उसकी सेना में एक अच्छा भाग फ़ारसी सहयोगी ताहमस्प प्रथम का रहा। इसके कुछ माह बाद ही हुमायूँ का आकस्मिक निधन अपने पुस्तकालय की सीढ़ी से भारी नशे की हालत में गिरने के कारण हो गया। 

तब अकबर के संरक्षक बैरम ख़ाँ ने साम्राज्य के हित में इस मृत्यु को कुछ समय के लिए छिपाए रखा और अकबर को उत्तराधिकार हेतु तैयार किया। 

संजय ने पूछा - "अकबर को सिंहासन कब मिला ?"

हुकुम सिंह ने बताया -अकबर का राजतिलक तेरह वर्ष की आयु में कलनौर, पंजाब में सुनहरे वस्त्र तथा एक गहरे रंग की पगड़ी में एक नवनिर्मित मंच पर राजतिलक हुआ। ये मंच आज भी बना हुआ है। ये सब मुग़ल साम्राज्य से दिल्ली की गद्दी पर अधिकार की वापसी के लिए सिकंदर शाह सूरी से चल रहे युद्ध के दौरान ही हुआ। उसे फ़ारसी भाषा में सम्राट के लिए शब्द शहंशाह से पुकारा गया। वयस्क होने तक उसका राज्य बैरम ख़ाँ के संरक्षण में चला।

हुकुम सिंह-  बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह थे, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियाँ कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया, बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने। अपने शासन काल में उसने शक्तिशाली पश्तून वंशज शेरशाह सूरी के आक्रमण बिल्कुल बंद करवा दिए थे। साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिन्दू राजा हेमू को पराजित किया था। 

अपने साम्राज्य के गठन करने और उत्तरी और मध्य भारत के सभी क्षेत्रों को एकछत्र अधिकार में लाने में अकबर को दो दशक लग गए थे। उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था, और इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। सम्राट के रूप में अकबर ने शक्तिशाली और बहुल हिन्दू राजपूत राजाओं से राजनयिक संबंध बनाए और उनके यहाँ विवाह भी किए।

हुकुम सिंह- अकबर यह नहीं चाहता था कि मुग़ल साम्राज्य का केंद्र दिल्ली जैसे दूरस्थ शहर में हो; इसलिए उसने यह निर्णय लिया कि मुग़ल राजधानी को फ़तेहपुर सीकरी ले जाया जाए जो साम्राज्य के मध्य में थी। कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फ़तेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। 

कहा जाता है कि पानी की कमी इसका प्रमुख कारण था। फ़तेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार बनाया जो कि साम्राज्य भर में घूमता रहता था। इस प्रकार साम्राज्य के सभी कोनों पर उचित ध्यान देना संभव हुआ। उत्तर पश्चिमी राज्य के सुचारु राज पालन के लिए अकबर ने लाहौर को राजधानी बनाया। अपनी मृत्यु के पूर्व अकबर ने आगरा को राजधानी बनाया और अंत तक यहीं से शासन संभाला। 

हुकुम सिंह -  पानीपत के बाद मुगलों ने आगरा क़िले पर कब्ज़ा कर लिया, साथ ही इसकी अगाध संपत्ति पर भी। इस संपत्ति में ही एक हीरा भी था जो कि बाद में कोहिनूर हीरा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आगरा की केंद्रीय स्थिति को देखते हुए, अकबर ने इसे अपनी राजधानी बनाना निश्चित किया। आगरा में ऐसा प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर है जहाँ पर उस समय के बादशाह अकबर ने भी इस मंदिर की चौखट पर अपना सिर झुकाया था। 

हुकुम सिंह - मंदिर के बारे में कई कहानियाँ ऐसी फ़ेमस हैं जो इसे बेहद चमत्कारी होने का दावा करती हैं। आगरा के राजा मंडी बाज़ार में दरियानाथ मंदिर में ख़ुद चलकर माथा टेकने गया था। कहा जाता है उस समय आगरा में भयंकर अकाल पड़ा था और उस अकाल से निजात पाने के लिए अकबर उस समय के महंत के पास गए थे। उनके चमत्कार के कारण ही आगरा का सूखा ख़त्म हुआ था।

आनन्द ने हिन्दू राजाओं से अकबर की शादियों की बात सुनी थी। उसने हुकुम सिंह ने पूछा तो वह बोले - आंबेर के कछवाहा राजपूत राजा भारमल ने अकबर के दरबार में अपने राज्य संभालने के कुछ समय बाद ही प्रवेश पाया था। इन्होंने अपनी राजकुमारी हरखा बाई का विवाह अकबर से करवाना स्वीकार किया। विवाहोपरांत मुस्लिम बनीं और मरियम-उज़-ज़मानी कहलाईं। उसे राजपूत परिवार ने सदा के लिए त्याग दिया और विवाह के बाद वह कभी आमेर वापस नहीं गईं। 

उसे विवाह के बाद आगरा या दिल्ली में कोई महत्वपूर्ण स्थान भी नहीं मिला था, बल्कि भरतपुर जिले का एक छोटा सा गाँव मिला था। भारमल को अकबर के दरबार में ऊँचा स्थान मिला था। और उसके बाद उसके पुत्र भगवंत दास और पौत्र मानसिंह भी दरबार के ऊँचे सामंत बने रहे।

हिन्दू राजकुमारियों को मुसलिम राजाओं से विवाह में संबंध बनाने के प्रकरण अकबर के समय से पूर्व काफ़ी हुए थे। किंतु अधिकांश विवाहों के बाद दोनों परिवारों के आपसी संबंध अच्छे नहीं रहे और न ही राजकुमारियाँ कभी वापस लौटकर घर आईं। 

हुकुम सिंह -  हालाँकि अकबर ने इस मामले को पिछले प्रकरणों से अलग रूप दिया, जहाँ उन रानियों के भाइयों या पिताओं को पुत्रियों या बहनों के विवाहोपरांत अकबर के मुस्लिम ससुराल वालों जैसा ही सम्मान मिला करता था। सिवाय उनके संग खाना खाने और प्रार्थना करने के। उन राजपूतों को अकबर के दरबार में अच्छे स्थान मिले थे। सभी ने उन्हें वैसे ही अपनाया था सिवाय कुछ रूढ़िवादी परिवारों को छोड़कर, जिन्होंने इसे अपमान के रूप में देखा था।

उसकी एक बहुत बड़ी ‘हरम’ थी जिसमें पाँच हज़ार से ज़्यादा स्त्रियाँ थीं। सही मायने में 'हरम' वह जगह थी जहाँ राजघराने की औरतें रहा करती थीं।

आनन्द ने हरम शब्द पहली दफे होना था उसने इसका मतलब जानना चाहा। हुकुम सिंह बोले -‘हरम’ शब्द की उत्पत्ति अरबी के ‘हारीम’ शब्द से हुई थी, जिसका मतलब होता है एक ‘पवित्र अछूत स्थान’। बाबर के समय हरम का चलन ज़्यादा नहीं था। 

लेकिन अकबर के आते-आते इसका चलन काफ़ी बढ़ गया। और वो एक पवित्र जगह से अय्याशी का अड्डा ज़्यादा बनकर रह गया। वैसे तो हरम की शुरुआत मुगलों से काफ़ी पहले ऑटोमन साम्राज्य के समय हो चुकी थी। लेकिन यह सही मायनों में तो मुगलों के समय ही फला-फूला और अकबर का शासन आते-आते हरम का मतलब ही बदल गया।

इनमें अधिकांश स्त्रियों को बलपूर्वक अपहृत करवाकर वहाँ रखा हुआ था। लड़कियों को बेचने-खरीदने के लिए 'मीना बाज़ार' लगाया जाता था। हरम में न सिर्फ़ महिलाएँ, बल्कि सैकड़ों नपुंसक बनाए गए मर्द भी होते थे।

हुकुम सिंह - हरम की सुरक्षा के लिए दरोगा, ख़ज़ांची, हरम के बाहर पुरुष सैनिक, अंदर के लिए किन्नर सैनिक तथा महिला सैनिक होते थे। हरम में महिलाओं की संख्या से ही राज्य की ताकत देखी जाती थी। तब कहा जाता है कि अकबर के कुछ लोग जिस सुंदर स्त्री को सती होते देखते थे, बलपूर्वक जाकर सती होने से रोक देते व उसे सम्राट की आज्ञा बताते तथा उस स्त्री को हरम में डाल दिया जाता था। इस प्रकार बादशाह सलामत ने सती प्रथा का विरोध किया व उन अबला स्त्रियों को संरक्षण दिया।

हुकुम सिंह कहते हैं कि बेगमें, कुलीन, दरबारियों की पत्नियाँ अथवा अन्य स्त्रियाँ जब कभी बादशाह की सेवा में पेश होने की इच्छा करतीं तो उन्हें पहले अपनी इच्छा की सूचना देकर उत्तर की प्रतीक्षा करनी पड़ती। जिन्हें यदि योग्य समझा जाता तो हरम में प्रवेश की अनुमति दी जाती। बादशाह का विरोध करना तो किसी के बस की बात नहीं थी। 

अकबर ने उसकी बहन और पुत्रवधू को बलपूर्वक अपने हरम में डाल दिया। एक बार यदि कोई औरत इस हरम में दाख़िल हो जाती तो बाहरी दुनिया से उनका कोई लेना-देना नहीं होता था। उन औरतों की पूरी पहचान बदल दी जाती।

मुग़ल बादशाह अपनी बेटियों की शादियाँ कभी नहीं करवाते थे। वे इस हरम में क़ैद रहती थीं। मुग़ल बादशाह किसी को अपनी बेटी देकर उत्तराधिकार का युद्ध नहीं चाहते थे। हरम के अंदर बादशाह के अलावा किसी को आने की इजाज़त नहीं होती थी। यदि कोई हरम के नियम-कानून नहीं मानता था तो उसकी सज़ा मौत होती थी। हर हरम के नीचे तहखाना फाँसी देने के लिए बनाए जाते थे।

आनन्द के मन में सबाल आया कि जब कोई महिला गर्भवती हो जताई थी तब हराम में क्या होता होगा। उन्होंने ने शंका समाधान के लिए हुकुम सिंह से इस बारे में प्रश्न किया। हुकुम सिंह ने राज कहलाते हुए कहा -”हरम के अंदर गर्भ गिराने के लिए ऐसे फल हमेशा होते थे जिनसे गर्भ गिराया जा सके।” 

आनन्द ने पूछा "क्या हरम की हर महिला की आर्थिक जरुरत पूरी होती थी?"

हुकुम सिंह ने जबाब दिया -”हरम में पद के मान से सुविधाएँ मिलती थीं।  मुग़ल काल में टैक्स से प्राप्त रकम हरम पर सर्वाधिक खर्च की जाती थी। यहाँ काम करने वालों को बहुत अच्छी तनख़्वाह मिलती थी।  लेकिन हरम के अंदर की महिलाओं को किसी चीज़ की कोई कमी नहीं रहती थी। यह एक सोने की जेल जैसा था।” 

अपनी दिन भर की थकान मिटाने के लिए जब बादशाह हरम में दाख़िल होते थे तो वहाँ मौजूद सारी महिलाएँ, सभी औरतें बादशाह को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए सज-सँवर कर उनके स्वागत के लिए लाइन लगाकर तैयार हो जाती थीं। 

आनन्द ने पूछा "क्या हरम की हर महिला की शारीरिक जरुरत पूरी होती थी?"

हुकुम सिंह ने जबाब दिया -"नहीं" बादशाह का प्यार पाने के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा होती थी। अब बादशाह एक था और वह हज़ारों महिलाओं के साथ तो हो नहीं सकता था। एक अनार सौ बीमार। तो कई महिलाओं की पूरी उम्र इंतज़ार में ही निकल जाती थी। तब हरम की महिलाएँ चाहती थीं कि कोई बाहर से आए, चाहे वह डॉक्टर ही क्यों न हो। सारी महिलाएँ बादशाह के सामने ऐसा व्यवहार करतीं जैसे वह साथ-साथ हो। लेकिन पीठ पीछे बहुत साज़िशें रची जाती थीं। एक-दूसरे की शिकायतें की जातीं, जिसकी सज़ा मिलती।”

“बादशाह का साथ पाने के लिए सारी औरतें एक-दूसरे से आकर्षक लगने की कोशिश करतीं। कई महिलाएँ बहुत पारदर्शी कपड़े पहनतीं, तो कोई अश्लील इशारे करतीं, नाचतीं या अर्ध-नग्न खड़ी होतीं। अब यहाँ बादशाह की मर्ज़ी होती थी कि वो आज की रात किसके साथ बिताना चाहेगा, फिर चाहे वह दासी ही क्यों न हो।”

इतिहास का ऐसा ज्ञान हुकुम सिंह से जान कर आनन्द को आश्चर्य हुआ कि यदि वह इस यात्रा पर नहीं आता तो उसे शायद इतनी जानकारी कभी नहीं हो पाती। 






मुग़ल दरबार

इन दिनों अकबर का दरबार आगरा में स्थित था। आम दरबार में जनता और मंत्रिमंडल के सदस्यों के अलावा अनेक विद्वान, कलाकार और आमंत्रित लोग शामिल होते थे। इस दरबार में राजनीतिक मामलों का निर्णय लिया जाता था। कला, संस्कृति और साहित्य का विकास होता था, और सम्राट की वाणी और न्याय प्रकट होता था। मुग़ल दरबार मुग़ल साम्राज्य का शक्ति का केंद्र था, जिसमें राजनीतिक संबंधों, प्रजा की समस्याओं और अपराध पर लगाम लगाने के लिए चर्चा की जाती थी। 

मुग़ल दरबार में बादशाह अपने हिसाब से दरबारी नियुक्त करते थे। लेकिन अकबर के शासन काल में न सिर्फ़ दरबार का विस्तार हुआ बल्कि अकबर के नवरत्नों का भी निर्माण हुआ।

बादशाह अकबर ने राय प्रवीन को दरबार में प्रस्तुत करने का आदेश दिया। राय प्रवीन एक महान कलाकार होने के साथ-साथ बहुत ख़ूबसूरत थीं। उनके बारे में सुनकर ही अकबर ने उन्हें बुलावा भेजा था। आज आगरा में बादशाहे हिंद का दरबार प्रतिदिन के नियत समय से पूर्व ही लग गया। 

चौकीदार ने घंटे पर ज़ोरदार प्रहार किया, और तेज़ आवाज़ में चिल्लाया: 

"बाअदब, बामुलाहिज़ा, होशियार, जिल्ले इलाही, हज़रत मुग़ले आज़म, शहंशाह-ए-हिंद जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर तशरीफ़ ला रहे हैं...।" 

दरबार में शांति छा गई। दरबार में हाज़िर सभी दरबारी बारी-बारी से बादशाह को झुककर सलाम कर रहे थे। अकबर के दरबार के नौ रत्न थे बीरबल, तानसेन, अबुल फ़ज़ल, फ़ैज़ी, टोडर मल, राजा मान सिंह, अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना, फ़क़ीर अज़ियाओ-दीन और मुल्ला दो पियाज़ा। वे विभिन्न क्षेत्रों में निपुण थे और स्वयं सम्राट उनका बहुत सम्मान करते थे।

इंद्रजीत की मर्ज़ी के बिना राय प्रवीन को अकबर के पास आगरा भेज दिया गया। राय प्रवीन एक ऐसा नाम था जो ओरछा के हर नागरिक को पता था।  राय प्रवीन की ख़ूबसूरती ऐसी थी कि उसको शब्दों में बयाँ करना मुश्किल था। 

कहते हैं कि जब वह आनंद भवन की बालकनी से बाहर देखती तो आस-पास पेड़ों पर बैठे पक्षी भी उसे देखकर चहचहाने लगते।  राय प्रवीन के रेशमी बालों की चमक सूरज की किरणों जैसी थी, और उसकी मुस्कान में ऐसी मोहक शक्ति थी कि बड़ा से बड़ा कवि भी उसकी प्रशंसा में गीत लिखता था। 

राय प्रवीन की एक झलक पाने के लिए नगर के लोग दिन भर  राय प्रवीन के महल की ओर टकटकी लगाए रहते। राय प्रवीन की सुंदरता, नृत्य, गायन तथा कविता का प्रभाव उसके राज्य तक ही सीमित नहीं था। यहाँ तक कि मुग़ल दरबार के लोग भी उसकी सुंदरता तथा विद्वत्ता के क़िस्सों में डूबने लगे थे। 

लेकिन राय प्रवीन जानती थी कि यदि आप सुंदरता को शक्ति बनाना चाहते हैं तो उसे न केवल दिखाना चाहिए बल्कि बुद्धिमानी से उसका इस्तेमाल करना भी आना चाहिए और वह इस कला की माहिर खिलाड़ी थी।

मुग़ल दरबार में आज जब  राय प्रवीन पेश होने वाली थी तो इस ख़बर ने पूरे दरबार में ख़ुशी भर दी थी। दरबार के हर कोने में एक अलग ही माहौल था। सभी दरबारी, मंत्री, सेनापति, कवि, गायक और अकबर के नवरत्न अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए थे। लेकिन उनके चेहरों पर एक असामान्य उत्साह था। 

तभी महल के विशाल दरवाज़े से बादशाह आए। दूसरी ओर राय प्रवीन, कवि केशव के साथ बैठी थी। उसने सुनहरे रंग के चंदेरी के रेशमी कपड़े से बने घाघरा चोली को पहना हुआ था, जो सोने के कपड़ों जैसा आभास दे रहे थे। उसका दुपट्टा बहुत झीना-झीना था जो उसके घूँघट से उसके मुँह को ढक कम रहा था बल्कि सुनहरी आभा से चमका रहा था।

अकबर के नवरत्नों में से एक अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना, जो कि ब्रज भाषा के प्रसिद्ध कवि भी थे, अपने स्थान से उठकर महाकवि केशवदास और उनकी शिष्या राय प्रवीन का परिचय दिया। केशवदास और राय प्रवीन ने बादशाह अकबर को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। बादशाह अकबर ने दोनों का प्रणाम स्वीकार कर हाथ उठाकर अभिवादन किया और केशवदास से पूछा: "आजकल आप क्या लिख रहे हैं?"

केशवदास बोले: "हुज़ूर, मेरी दो रचनाएँ पूर्ण हो गई हैं। जिनमें एक महाकाव्य रसिकप्रिया है और दूसरी रचना शिक्षा का काव्य कविप्रिया, कुछ दिन पूर्व ही पूर्ण हुआ है।"

"आप अपनी रचनाओं में से कुछ सुनाएँ," सम्राट ने आदेश दिया। अकबर के शाबाशी देने पर महाकवि ने अकबर को वृद्धावस्था में कामातुर होने की स्थिति के अनुसार सवैया सुनाया:-

"हाथी न साथी न घोरे चेरे न गाँव न ठाँव को नाम विलैहें। 

तात न मात न मित्र न पुत्र व् वित्त अंगहु संग न रैहैं। 

केशव नाम को राम विसारत और निकाम न कामहि आइहें। 

चेत रे चेत अजौं चित्त अंतर अंतक लोक अकेले हि जैहें।"

रहीम द्वारा सवैया का अर्थ समझाने पर अकबर लज्जित हो गया। वो कला और कलाकारों की बड़ी क़द्र करता था। अपनी झेंप मिटाने के लिए अकबर ने काव्य के ऊपर अनेक प्रश्न किए। केशवदास ने अपनी निर्भीकता, ज्ञान व स्पष्टता से जवाब दिए। जवाबों से अकबर ख़ुश हुआ और आदेश दिया-: 

"महाकवि केशवदास की शिष्या ओरछा की नर्तकी राय प्रवीन अपनी कवित्त रचना पेश करे।"

जब बुलाने पर राय प्रवीन दरबार के बीच आकर खड़ी हुई तो ऐसा लग रहा था जैसे चाँद बादलों के बीच से झाँक रहा हो। राय प्रवीन की चाल में ऐसी स्थिरता थी कि हर कदम पर आभा फैल रही थी। राय प्रवीन के हाथों में सोने की चूड़ियाँ चमक रही थीं, और गले में बंधा नवलखा हार माहौल को धीमी आवाज़ से मधुर बना रहा था। 

उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी। एक ऐसी मुस्कान जो मासूमियत और रहस्य का अद्भुत मेल थी। उसकी आँखों की गहराई में एक ऐसी दुनिया थी, जहाँ हर ख़्वाहिश अपना वजूद भूल जाती थी। 

दरबार में सन्नाटा था। सबकी नज़रें एक ही व्यक्ति पर टिकी थीं, क्योंकि किसी के पास बोलने के लिए शब्द नहीं थे। किसी में हिम्मत नहीं थी। चारों तरफ़ सन्नाटा था—जादुई, गहरा और मनमोहक। अकबर राय प्रवीन की सुंदरता से बेहद प्रभावित हुआ।

राय प्रवीन पर्दा हटाकर दरबार के मध्य में अर्द्ध घूँघट में आकर खड़ी हो गई। उसी स्थिति में घूमकर सभी दरबारियों का अभिवादन किया। दरबारी राय प्रवीन के नैसर्गिक सौंदर्य को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए। फिर बादशाह से अनुमति लेकर राय प्रवीन ने अपना कवित्त सुनाना आरंभ किया:

"स्वर्ण ग्राहक तीन, कवि, विभिचारि, चोर 

पगु न धरात, संसय करत तनक न चाहत शोर। 

पेड़ बड़ौ छाया घनी, जगत करे विश्राम 

ऐसे तरुवर के तरे मोय सतावै घाम। 

कहाँ दोष करतार को, 

कूर्म कुटिल गहै बांह 

कर्महीन किलपत फिरहिं कल्पवृक्ष की छाँह।"

अकबर ने सीधे सिंहासन पर बैठते हुए राय प्रवीन से कहा: 

अकबर: "जुवन चलत तिर देह की, चटक चलत केहि हेत।"

राय प्रवीन बोलीं: "मन्मथ वारि मसाल को, सांति सिहारे लेत।"

अकबर ने कहा: "ऊँचै ह्वै सुर बस किए, सम ह्वै नर बस कीन्ह।"

राय प्रवीन बोलीं: "अब पाताल बस करन को, ढरक पयानो कीन्ह।"

दरबार में अकबर इस आकर्षण का शिकार बन गया था। 

"वाह-वाह ओरछा की शायरा नर्तकी। तुम मेरे हरम की नायाब नगीना बन जाओ। तुम्हें ओरछा से हज़ार गुना सुख-सुविधा मिलेगी।"

अकबर जानता था कि इस तरह के व्यक्तित्व बिरले ही देश को प्राप्त होते हैं। अकबर ने सिंहासन से उठते हुए दोनों हाथ उठाकर दाद दी। उसके दिल में एक ऐसी हलचल थी जो उसने सिर्फ़ युद्ध के मैदान में महसूस की थी। लेकिन इस बार यह युद्ध बाहर नहीं बल्कि उसके दिल के अंदर चल रहा था। अकबर संगीत व काव्य का प्रेमी था। 

अकबर ने प्रेम, वीरता और सौंदर्य के अगणित गीत सुने थे। पर राय प्रवीन को देखकर उसके भीतर एक कविता जन्म ले रही थी - एक ऐसी कविता जो किसी किताब में नहीं मिल सकती। एक ऐसी कविता जो सिर्फ़ राय प्रवीन की एक झलक में ज़िंदा थी। दरबार के अन्य पुरुष अपने-अपने तरीक़े से राय प्रवीन की तरफ़ खिंचे चले आ रहे थे। 

अकबर की आँखों में एक अकथनीय अधिकार था, एक छुपी हुई चाहत थी। बुंदेलखंड के नैसर्गिक सौंदर्य को देखकर उसके मन में अनुरक्ति के साथ एक भक्ति भाव भी था, एक सृजनात्मक जिज्ञासा थी।

राय प्रवीन अपनी सुंदरता की शक्ति को समझती थी। राय प्रवीन ने इसका सही तथा समुचित उपयोग किया था। हर इशारा, हर नज़र, हर मुस्कान एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था। राय प्रवीन  जानती थी कि महान अकबर के मन में एक अदृश्य आकर्षण कैसे पैदा किया जाए, कैसे उसके दिल में वैराग्य की आग जलाई जाए, जो बाहर से तो न दिखे पर अंदर से उसे जलाती रहे।

जब राय प्रवीन ने दोनों हाथ उठाए तब राय प्रवीन का दुपट्टा उसके सिर से खिसक कर उसके हाथों पर चिपक गया। राय प्रवीन की नाज़ुक कलाइयाँ, चूड़ियों की खनक दरबारियों के मन में हलचल पैदा कर रही थी। राय प्रवीन की मुस्कान में एक रहस्यमय आमंत्रण था। मानो वह बिना कुछ कहे ही बादशाह को एक अदृश्य खेल में आमंत्रित कर रही हो। वह अपलक बादशाह को मुस्कुराकर देख रही थी। 

राय प्रवीन की आँखें इतना कुछ कह रही थीं कि शब्दों की ज़रूरत ही नहीं थी। दरबारी राय प्रवीन की सागर रूपी आँखों में डूब रहे थे। जिसका कोई किनारा नहीं था। वह अकबर की क्षमताओं का नहीं बल्कि उसकी भावनाओं का आकलन कर रही थी। 

यह कोई साधारण राजकीय कार्यवाही नहीं थी। यह एक ऐसा खेल था जिसमें राय प्रवीन शतरंज खेल रही थी, अकबर मोहरा था और बाज़ी लगी थी जान की।

सूरज ढल रहा था। सूरज की आख़िरी किरणें दरबार के विशाल खंभों से अंदर आ रही थीं। राय प्रवीन ने आख़िरी बार बादशाह को देखा। उसकी नज़रों में एक अदृश्य विनम्रता तथा अदृश्य विनय थी। 

फिर वह धीरे-धीरे बोली: "जिल्ले इलाही! मेरे विनम्र निवेदन को सुनने की कृपा करें।" राय प्रवीन ने दुआ की शक्ल में दोनों हाथ उठाकर बादशाह से गुज़ारिश की। 

"हाँ, हाँ सुनाओ," अकबर ने उत्साहित होकर कहा।

राय प्रवीन ने पूर्ण श्रद्धा से माँ विंध्यवासनी को मन ही मन याद कर कहा, 

"माँ, अब तुम्हारी इस बेटी की लाज तुम्हारे हाथों में है।"

"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।"

 राय प्रवीन ने अपने आप को माँ के हाथों में सौंपकर निर्भयता तथा पूर्ण आत्म-संयम से अपनी प्रत्युत्पन्नमति से यह दोहा पढ़ा:-

“विनती राय प्रवीन की, सुनिए साह सुजान, 

झूठी पातर भखत हैं, बारी-बायस-स्वान।”

राय प्रवीन ने बहुत ही समझदारी से बातों-बातों में अकबर को यह दोहा सुनाया था। एकाएक दरबार में चल रहे आयोजन में राय प्रवीन के शब्दों को सुनकर सन्नाटा छा गया। कवित्त सुनते ही अकबर का चेहरा तमतमा गया। अकबर इंद्रजीत की इच्छा के विरुद्ध राय प्रवीन को अपने हरम में रखना चाहता था। 

राय प्रवीन ने मुग़ल सम्राट को यह कहकर विचलित कर दिया, कि "केवल नौकर, कुत्ता या कौवा ही होता है, जो किसी दूसरे द्वारा पहले से ही अपवित्र की गई चीज़ को खाना पसंद करेगा।" 

इतनी हिमाक़त! इतनी हिमाक़त! और वह भी एक औरत की? होगी बहुत सुंदर या होगा अकबर साठ बरस का, इतनी हिम्मत एक नर्तकी की? 

कि वह बादशाह को 'बायस' (कौवा) या 'स्वान' (कुत्ता) जैसे शब्द बोले! 

अकबर का पारा उस सुंदर नर्तकी को देख-देखकर और चढ़ता जा रहा था। उसने एक उड़ती-उड़ती नज़र राय प्रवीन पर डाली।

बादशाह उस अलौकिक सौंदर्य से एक बार पुनः चकित हो गया। वह उस सौंदर्य से पराजित-सा होने लगा था और दूसरी तरफ़ राय प्रवीन अकेली खड़ी थी - दरबार में अकेली, जैसे द्रौपदी खड़ी हो कौरवों की सभा में। द्रौपदी को बचाने के लिए कृष्ण आए थे। यहाँ पर उसे बचाने कौन आएगा? 

हालाँकि कृष्ण ने कहा था जब-जब धर्म की हानि यानी क्षय होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयं की रचना करता हूँ अर्थात अवतार लेता हूँ:- 

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:। 

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥" 

पर जिसके प्रेमी पर इस अकबर ने एक लाख मुद्राओं का दंड लगा दिया हो? 

और जिसने उसको अकबर के दरबार में अकेला भेज दिया हो? 

उसे बचाने किसी के आने की उम्मीद नहीं थी। उसे स्वयं पर भरोसा करना होगा। उसे ही हिम्मत से काम लेना होगा।

कौन जानता था कि लोहार की बेटी पुनिया एक दिन वाकई पूर्णिमा का चाँद बन जाएगी। परंतु यह तो दिल्ली के दरबार में चाँद जैसी चमक रही थी। उसके स्वरों में इंद्रजीत को दिया गया आश्वासन भी झलक रहा था, जो अभी भी उसकी पसीजी हथेलियों में था।

"चिंता न करें, महाराज! अकबर मुझे कभी प्राप्त नहीं कर पाएगा, उसे पराजित होना होगा! 

वह मेरी कविता से ही पराजित होगा। 

जब वह कविता से पराजित हो सकता है, तो उसके लिए तलवार क्या उठाना?" 

दरबार में राय प्रवीन जिस प्रकार दृढ़ता से खड़ी थी, उसकी दृढ़ता ने अकबर को विचलित कर दिया। 

"यह औरत? 

इतनी हिम्मत? 

भरे दरबार में मुझे क्या कह रही है?"

"बादशाह, मैंने आपसे कुछ नहीं कहा! मैंने बस स्वयं के विषय में कहा है कि मैं अब और किसी की नहीं हो सकती, क्योंकि इंद्रजीत सिंह मेरे हो चुके हैं और मैं उनकी हो चुकी हूँ! 

तो दूसरे की जूठन को कौन खाता है, इस विषय में मैं आपसे क्या कहूँ?"

युवावस्था होती तो उसका भरे दरबार में सिर भी क़लम करा दिया जाता। परंतु अकबर यहाँ पर लज्जित-सा बैठा था। इस आयु में कामवासना और औरत के लालच ने कैसा कांड करा दिया था? 

वह न ही दरबार में सिर उठा पा रहा था, और न ही अपनी ग़लती को स्वीकार कर पा रहा था। 

उसने स्वयं से ही जैसे पूछा: "क्या करूँ?"

अकबर को दिल की बात कह दी और अपने प्रेमी के प्रति उसकी वफ़ादारी से प्रभावित होकर, अकबर ने राय प्रवीन को उसकी गरिमा और उसके राज्य दोनों को बरकरार रखते हुए ओरछा वापस सुरक्षित भेजने का फ़ैसला मन में किया। फिर भीतर के काम को पराजित करते हुए केशवदास के अनुरोध पर राय प्रवीन को उपहार देकर विदा देने का ऐलान किया। इंद्रजीत पर लगा हुआ एक लाख का अर्थदंड भी क्षमा कर दिया।

प्रेम जीता था। कामुकता हारी थी। कामुक बादशाह हारा था। कवि हृदय राय प्रवीन जीती थी। अपनी पूरी बुद्धि से। फिर वह उठी और अपना पुरस्कार लेकर बाहर चली गई। पीछे छोड़ गई एक अदृश्य ख़ामोशी। 

राय प्रवीन ने अपनी सुंदरता और चतुराई से शतरंज की बाज़ी पलट दी थी। दरबारी हतप्रभ थे। केशव अवाक। राय प्रवीन ने ऐसा जोखिम उठा लिया था जिसका परिणाम भयंकर युद्ध हो सकता था या उसकी जान जा सकती थी। ऐसी उम्मीद किसी ने नहीं की थी।


इंद्र-जीत 

हुकुम सिंह सुबह छह बजे आनन्द को बेतवा के किनारे छतरियों के पास लाए थे। सुबह का मनोरम दृश्य हृदय को प्रफुल्लित कर रहा था। टिटहरी का एक जोड़ा अभी-अभी एक छतरी पर आकर बैठा। अंग्रेज़ी की एक कहावत है 

"द अर्ली बर्ड कैचेस द वर्म" यानी जो परिंदा सुबह-सुबह जागता है कीड़े भी उसी को मिलते हैं। मैं अक्सर सोचता हूँ कि चिड़िया के लिए तो ठीक है पर उन कीड़ों का क्या जो सुबह जल्दी उठते हैं? 

आनन्द जिस कहानी का गवाह बन रहा था वह अनुभव उसके लिये अनूठा था। हुकुम सिंह ने कहानी सुनाना शुरू किया- ओरछा के सबसे सशक्त महाराज अपने कक्ष में बैठे थे। अभी आसमान में चाँद अपनी चाँदनी बिखेर रहा था। लेकिन उनके अंदर जो आग जल रही थी वह बाहर की किसी भी ठंडी रोशनी से बुझने वाली नहीं थी। 

उनके अंदर बस एक ही नाम था: राय प्रवीन। राय प्रवीन का चमकता हुआ चेहरा, उसकी कोमल मुस्कान, उसकी रहस्यमयी आँखें, सब कुछ इंद्रजीत के खून में आग लगा रही थी। 

हर दिन, हर रात, हर साँझ इंद्रजीत के मन में एक ही ख़याल था। इंद्रजीत का पूरा जीवन अब एक ही व्यक्ति के इर्द-गिर्द सिमट गया था और वह थी राय प्रवीन। उन की सभी कविताएँ, आनंद भवन में बनवाई गई चित्रावली केवल राय प्रवीन के व्यक्तित्व को निखारने के लिए थी।

हर रोज़ कल्पनाएँ करता और उसका विषय होती राय प्रवीन: उसकी महानता और उसके व्यक्तित्व की गहराई। उसकी हर रचना इसी तरह की थी। राय प्रवीन जो पहले से ही विदुषी थी यह जानती थी कि इंद्रजीत का उद्देश्य उसका शरीर पाना मात्र नहीं था। यह भावनात्मक और मानसिक परिवर्तन लाने का प्रयास था। 

राय प्रवीन धीरे-धीरे इन प्रयासों को समझने लगी थी और उन्हें एक चुनौती के रूप में लेने लगी थी। वह ख़ुद को और भी शक्तिशाली महसूस करने लगी थी। महाराज के इन प्रयासों ने उसे ख़ुद को एक नए रूप में देखने का मौक़ा दिया। इन सबका परिणाम यह हुआ कि वह अपने उन भावों को समझने लगी जो ख़ुद उसने अपने अंदर पहले नहीं देखे थे। वह यह भी जानती थी कि इन भावनाओं को सँभालना कठिन था।

राय प्रवीन अब अपने सपनों तथा इच्छाओं को पूरा कर रही थी। लेकिन वह यह भी जानती थी कि उसे अपनी ताक़त, अपना आत्मसम्मान बनाए रखना था। महाराज के प्रति उसका आकर्षण केवल शारीरिक ही नहीं बल्कि भावनात्मक भी था। महाराज की आँखें एक योद्धा की थीं। 

किसी भी रिश्ते में स्वतंत्रता व आत्मनिर्भरता की आवश्यकता होती है। राय प्रवीन के जाने के बाद महाराज बहुत आत्मग्लानि से भर गए। हालाँकि उन्होंने राय प्रवीन से विधिवत शादी नहीं की थी, लेकिन वह यह जानते थे कि उन्होंने गांधर्व विवाह किया था।

समय के साथ-साथ पुनिया की उम्र व ज्ञान दोनों में अभूतपूर्व उन्नति हुई। जैसे जंगल में जब फूल खिलता है तो उसकी ख़ुशबू चारों ओर फैल जाती है, वैसे ही जब पुनिया जवान हुई तो उसके रूप, नृत्य, गायन व काव्य की चर्चा सारे इलाक़े के रजवाड़ों, राज दरबारों व कला प्रेमियों में होने लगी। लेकिन राज्य रक्षिता होने से किसी की कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती थी।

महाराज को याद आया कि गणगौर के सांस्कृतिक अनुष्ठान में उन्होंने पुनिया को विशिष्ट नज़रों से देखा था। उन्हें लगा कि यह उसकी उपस्थिति का जश्न मना रहे हों। पुनिया की कोमल कमनीय देह, नव पल्लवित लता जैसी लग रही थी और सहायक उपकरण और आभूषण उसकी अद्भुत सुंदरता में चार चाँद लगा रहे थे। महाराजा को याद आया कि सोलह श्रृंगार के सोलह आभूषण, चंद्रमा के सोलह चरणों से संबंधित हैं, जो पुनिया को दुल्हन की तरह बेहद ख़ूबसूरत बना रहे थे। 

यह अनुष्ठान ख़ूबसूरत दुल्हन को देवी लक्ष्मी के साथ भी जोड़ता है क्योंकि वह प्रजनन और सुंदरता की देवी हैं। राजमहल की परिचारिकाओं ने सोलह श्रृंगार अनुष्ठान में पारंपरिक दुल्हन के आभूषण और सौंदर्य सहायक उपकरणों से राय प्रवीन का श्रृंगार किया था। जिससे उसका अल्हड़ बुंदेली बाला का रूप पारंपरिक दुल्हन जैसा लग रहा था।

राय प्रवीन की वेणी कुशलता से बनाई गई थी। चोटी को सजाने के लिए गजरे का इस्तेमाल किया गया था। गजरे से उसकी ख़ूबसूरती में चार चाँद लग गए थे। गजरा, चमेली और मोगरा के सुगंधित फूलों से बनाया गया था। हाथों, कलाइयों तथा पाँवों में मेहंदी लगाई गई थी। आँखों व रूप को निखारने के लिए कटीला काजल लगाया गया था, जिससे वह मीनाक्षी लग रही थी।

राय प्रवीन की देह से इत्र की ख़ुशबू आ रही थी। यह ख़स का इत्र था जो महाराज को बहुत भाता था। इत्र की ख़ुशबू ने महाराज को पुनिया की ओर आकर्षित करने का काम कर दिया था। 

पुनिया लहँगा-चोली के ऊपर चंदेरी की ओढ़नी ओढ़ी थी। कानों में कर्णफूल, नाक में पुंगरिया, माथे पर बेदी, गले में हँसली, कंठला, गुलुबंद, बिचौली, तिदना, हाथों में बाजूबंद, चूड़ियाँ, उँगलियों में अँगूठियाँ, पाँवों में पैंजना, झाँझर, कमर में करधौनी पहने थी।

राय प्रवीन ने हाथों में काँच, लाख, सोने, चाँदी की चूड़ियाँ भर-भर कर पहनी थीं, जिनके नग रह-रह कर चमक उठते थे। जब-जब वह अपनी चुनरी सँभालती तो चूड़ियाँ छन्न-छन्न बज उठती थीं। राय प्रवीन एक पतिव्रता नारी थी।

उन दोनों का प्यार सच्चा था। महाराजा को लग रहा था कि यदि सम्राट अकबर उनकी पटरानी को इस तरह बुलाता तो वह क्या ऐसे जाने देते? 

क्या मैं एक बुंदेला का कर्तव्य नहीं निभाता? 

क्या मैं पटरानी की आबरू बचाने के लिए जान पर नहीं खेल जाता? 

ऐसे विचार इंद्रजीत को लगातार कचोट रहे थे। उस दिन से  इंद्रजीत ने खाना-पीना सब छोड़ दिया था।

मित्र केशव भी नहीं थे। इस समय वह अकेले पड़ गए थे। वह लज्जा एवं संकोच के कारण, महल के अपने कमरे से भी बाहर नहीं निकले थे। जैसे-जैसे रात आ रही थी, महल के ऊपरी कक्ष से भारी साँसों की आवाज़ें आ रही थीं। 

महाराज इंद्रजीत सिंह जो अपने जीवन के अंतिम अध्याय में थे, अपने पलंग पर रेशमी चादरों के बीच लेटे हुए थे। उनकी झुर्रियों में उनकी थकान और उम्र दोनों साफ़ दिखाई दे रही थीं। एक समय का योद्धा अब एक खाँसते, थके हुए शरीर में सीमित हो चुका था। उनकी आँखों से सत्ता की, अधिकार की और मोह की चमक गायब थी। उस दिन पूरा राजमहल शोक में डूबा हुआ था। उत्सव के सब रंग गायब थे।

इंद्रजीत सोच रहे थे - रह-रह कर एक-एक कर सब चित्र मन को मथ रहे थे। मन ही मन राय प्रवीन की कल्पना करते हुए सोचता हूँ कि बादशाह के दरबार तथा महल में उस पर क्या बीत रही होगी? 

कितनी लज्जा? 

कितना अपमान? 

केवल मेरे कारण। 

मैं न उसे ओरछा लाता न वह इस स्थिति में पड़ती। यह मेरी ही कायरता थी कि लोक-लाज का हवाला देकर किस तरह शादी न करने से बचा।  दूसरी ओर अपने स्वार्थ के कारण उसे हमेशा अपने उपभोग की वस्तु समझा। जबकि वह भी एक जीती-जागती नारी थी। उसे भी समाज में सिर ऊँचा कर सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार था। जो मैंने उसे नहीं दिया। 

राय प्रवीन ने मुझे अपना निश्छल प्यार दिया। महाराज उसके पहले प्रेमी थे लेकिन उनकी तो पटरानी व दूसरी महिला मित्र थीं। फिर भी कोई शिकायत नहीं। कोई शिकवा नहीं, पूर्ण आत्म-समर्पण। 

क्या नारी थी? 

क्या नारी का हृदय? 

इंद्रजीत सोच रहे थे - “वह महान थी। एक मनुष्य तभी सच्चा मर्द बनता है जब वह किसी युवा अनजान स्त्री को भी केवल काम भाव से न देखे। उसे केवल उपभोग की वस्तु भर न समझे। वह स्त्री सघन एकांत वन में भी उससे डरे नहीं, सुरक्षित महसूस करे।”

जब  किसी स्त्री का इतना सहज भरोसा जम जाता है तभी सच्चे मर्द बनते हैं। जैसे अधिक भोजन कर लेने से बीमार हो जाते हैं वैसे ही हमेशा काम वासना का चिंतन करते रहने से मन बीमार हो जाता है। एक सच्चा मर्द लोगों से प्रमाणपत्र नहीं माँगता। बल्कि कहकर नहीं, कार्य करके दिखाता है। उसके कर्म ही उसके प्रमाणपत्र होते हैं। यह मानव जीवन बहुत मुश्किल से मिलता है और उस में आयु बहुत कम है। तो जीवन को केवल खाने तथा काम सुख में बर्बाद नहीं करना चाहिए।

महाराज याद करते हैं कि किस तरह पुनिया को उन्होंने जब गणगौर के कार्यक्रम में देखा था तो उन्हें लगा था कि जैसे उसकी आँखें बातें कर रही हों, उनके मुँह से बरबस निकला था:- 

“कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात। 

भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही से सब बात॥”

राय प्रवीन को देखकर मेरी आँखें विस्मय से फैल गई थीं। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि धरती पर इतना रूप सौंदर्य हो सकता है। मुझे उससे पहली नज़र में ही प्रेम हो गया था। मुझे लगा कि राय प्रवीन भी मुझसे उतना ही प्रेम करती है। दूसरे दिन मैंने सुना कि राय प्रवीन को ज्वर हो गया। मुझे पूरा भरोसा था कि यह प्रेम ज्वर ही था, जो अब किसी औषधि से ठीक नहीं होगा। 

यह बहुत कम दिनों का विरह था। लेकिन मुझे लगा कि पूरे जीवन हम इस विरह में तड़पते रहेंगे। और फिर मैंने उससे गांधर्व विवाह किया। हम दोनों की आत्मा, देह के साथ ही एक हो गई। मैंने उससे वादा किया कि उसे अलग महल में राजरानी बनाकर रखेंगे। राय प्रवीन बहुत प्रसन्न हुई और आनंद भवन में आकर रहने लगी। 

अब मैं हमेशा राय प्रवीन की याद में ही खोया रहता। मुझे राय प्रवीन के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था। मुझे राव रानी की भावनाओं का ख़याल ही न रहा। मैं एक पति, पिता और राजा के कर्तव्यों से विमुख हो गया। मुझे इन सब का श्राप लग गया। 

जैसे उन सब ने कहा हो कि "जिस स्त्री के प्रेम में तुम मेरी अवहेलना कर रहे हो, उसके कारण तुम्हारा सब कुछ नष्ट हो जाएगा।" 

विडंबना यह थी कि मैंने इस श्राप को सुना ही नहीं। मुझे जब अपने इन कर्तव्यों से विमुख होने का एहसास हुआ तब तक श्राप का प्रभाव पड़ना शुरू हो गया था। अकबर का संदेश आ चुका था। मैं बहुत घबरा गया। दुःखी हो गया।

लेकिन जब राय प्रवीन अपनी मान-मर्यादा की रक्षा के लिए मेरे पास आई तो मैं बेबस था। कुछ नहीं कर सका। मैं इस अवस्था में हूँ, जब न तो मैं युद्ध कर सकता हूँ और न अर्थदंड चुका कर राय प्रवीन के मान की रक्षा कर सकता हूँ। राय प्रवीन को ज़रूर यह लग रहा होगा कि मैंने उसका उपभोग कर इस कठिन समय में उसे छोड़ दिया है। 

पहले गाँव में उसकी क्या हालत थी? और अब मैंने उसे इस संकट में फँसा कर छोड़ दिया। 

उसके मन की क्या दशा हो रही होगी? 

उस दिन मेरे सामने वह जड़ हो गई थी। उससे कुछ कहते नहीं बन रहा था। लेकिन न तो उसने मुझे धिक्कारा, न भला-बुरा कहा, न अपना हक़ माँगा। चुपचाप उसने साहस बटोर कर आगरा जाने का निर्णय ले लिया। उसने मुझे पराजित कर दिया। उसके त्याग ने मुझे ख़ुद मेरी नज़रों में गिरा दिया।

क्या यह कलंक अपने माथे पर लेकर राजकाज कर सकूँगा? 

राव रानी का सामना किस मुँह से करूँगा? 

अपनी संतान का सामना कैसे कर सकूँगा? 

हमारे विवाह के साक्षी केवल देवता, वन देवी तथा दसों दिशाएँ ही थीं, जो अब मुझे धिक्कार रही हैं। 

मेरा मित्र केशव मेरे बारे में कैसे वीरता के काव्य लिखेगा? 

क्या वह मेरी कलंक गाथा लिख सकता है? 

इतिहास मुझे कैसे याद करेगा?

महाराज राय प्रवीन व अपने व्यवहार की निरंतर तुलना कर अपने आप को पापी, हीन व दुश्चरित्र मान रहे थे। वे किसी को मुँह दिखाने के लायक नहीं बचे थे। रात को चुपचाप राम राजा के मंदिर गए। भगवान की शयन आरती की, फिर भगवान को प्रणाम कर कमरे में आ गए। 

जब गाँव के गरीब लोहार की बेटी के प्यार में इंद्रजीत इतना रम गए तो उन्होंने उससे गांधर्व विवाह कर लिया। इस विवाह की साक्षी केवल प्रकृति थी, देवता थे, दसों दिशाएँ थीं और केशवदास थे। जब यही लड़की महाराज से आज अपनी लाज बचाने का अधिकार माँगने पहुँची तो उन्हें अपने राज्य, अपने परिवार की ज़्यादा चिंता थी। इंद्रजीत ने उसके प्रेम को अपमानित किया था।

फिर तो दोनों की प्रेम कथा इतने मोड़ों से गुज़रने वाली थी कि वह इतिहास में अमर हो जाएगी। महाराज ने निश्चय किया कि वह अपनी इस प्रेम कहानी को कलंक कहानी नहीं बनने देंगे, बल्कि अपना बलिदान देकर इसे प्रेमियों द्वारा दुहराई जाने वाली प्रेम की चरम उत्कर्ष की कहानी बना देंगे। शाम का आसमान अंगारों की तरह लाल था। उन्होंने मन में कुछ तो निश्चय भगवान के सामने प्रार्थना करते हुए कर लिया था। आज उन्होंने कक्ष में दीया नहीं जलने दिया था। उन्हें अँधेरे में अच्छा लग रहा था। सदा रोशनी में रहने वाला रोशनी से डर रहा था।

महाराज की शिक्षा बनारस के प्रसिद्ध गुरुकुल में हुई थी। जहाँ उन्हें गीता पढ़ाई गई थी। राय प्रवीन के बारे में सोचते-सोचते महाराज की मनोदशा ऐसी हो गई। उन्होंने गीता में पढ़ा था। कृष्ण कहते हैं कि:-

"ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। 

सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥"

'विषय-वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उसमें आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है। और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है।'

“क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:। 

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥”

'क्रोध से मनुष्य की मति-बुद्धि मारी जाती है। मूढ़ हो जाती है, कुंद हो जाती है। इससे स्मृति भ्रम हो जाता है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है। और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य ख़ुद अपना ही नाश कर बैठता है।'

महाराज के जीवन में अवसाद ने जीवन के प्रति लगातार निराशावादी दृष्टिकोण को जन्म दे दिया था। भारी उदासी में अकेले महल के कमरे में रह रहे थे। उन्हें भविष्य अंधकारमय दिख रहा था। उनका ख़ुद के बारे में लगातार नकारात्मक दृष्टिकोण बढ़ता जा रहा था। जिस दिन अकबर का पत्र आया था। उस दिन से अवसाद के कारण नींद गड़बड़ा गई थी। रात भर जागते रहने से मतिभ्रम हो गया था। जीने की चाह समाप्त हो रही थी। थकान के कारण शरीर ऊर्जा विहीन निस्तेज हो गया था।

विचार भटक रहे थे। मन की एकाग्रता चली गई थी। अब किसी भी प्रियजन के साथ समय बिताने की चाह बाक़ी नहीं रही। वह निरंतर शराब पी रहे थे। अकेले महाराज कभी नहीं पीते थे। हमेशा महफ़िल में दौर चलता था। अब अकेले पी रहे थे। पलायनवादी व्यवहार लगातार बढ़ रहा था। 

अकबर के व्यवहार से निरंतर अपमानित महसूस कर रहे थे। निस्तेज, झुर्रियों से भरा चेहरा। झुके कंधे। बिखरे बाल। अस्त-व्यस्त, मैले-कुचले कपड़े। सिरदर्द, सीने में जकड़न, दिल की धड़कन तेज़, पाचन संबंधी समस्याएँ तथा शरीर में दर्द। वज़न तेज़ी से कम हो रहा था। निरंतर जीवन समाप्त कर लेने का विचार मन में घनीभूत होने लगा। आत्महत्या, अपनी जान लेना, तनावपूर्ण जीवन स्थितियों के प्रति एक दुखद प्रतिक्रिया है। महाराज को ऐसा लग रहा है कि उनकी समस्याओं को हल करने का कोई तरीक़ा नहीं है और दर्द को ख़त्म करने का एकमात्र तरीक़ा है।

महाराज ने जंगल में भी देखा था कि जब जवान शेर बूढ़े शेर से उसकी शेरनियाँ छीनने की कोशिश करता है तो बूढ़ा शेर आख़िरी दम तक लड़ता है। घायल होकर हार जाने पर चुपचाप अँधेरे में जाकर अपना जीवन समाप्त कर लेता है। अपमानित जीवन जब जानवर नहीं जी पाता तो मैं तो मनुष्य हूँ। महाराज का डाँवाडोल मन स्थिर हो गया था और उन्होंने भी अपना नाश करने का ठान लिया था।



प्रयाण 

रात में चाँद आगरा के आसमान को ढक रहा था। राय प्रवीन के इत्र की ख़ुशबू हवा में तैर रही थी। राय प्रवीन अपने कमरे में बैठी खिड़की से बाहर देख रही थी और मंद-मंद मुस्कुरा रही थी। वह जानती थी कि उसकी वाक्पटुता की शैली ने कैसे अकबर का दिल जीत लिया था। यह समाचार चारों ओर फैल चुका था कि राय प्रवीन ने अपनी वाक्पटुता से सम्राट अकबर का मन जीत लिया, और वे मुग़ल दरबार से बहुत सारे उपहार लेकर मुग़ल सैनिकों के साथ वापस ओरछा आ रही थी।

लेकिन हाय री क़िस्मत! महाराजा इंद्रजीत सिंह यह गौरव देखने के लिए ज़िंदा नहीं थे। 

हुकुम सिंह कहानी सुनाते-सुनते आनन्द को बेतवा नदी के किनारे बनी छतरियों के पास नदी किनारें बैठे थे। हुकुम सिंह ने एक गहरी साँस ली और आह भरकर बोलने लगे-  महाराज ने रात अपने कमरे में बिस्तर पर अपनी कटार सीने में उतार ली थी। राजमहल में सुबह हाहाकार मच गया। ओरछा पर दुःख का एक काला बादल छा गया था। प्रजा के प्रिय राजा, राजा इंद्रजीत सिंह अब इस दुनिया में नहीं थे। उनकी मृत्यु की खबर से पूरे राज्य में शोक की लहर दौड़ गई थी। महल से लेकर झोपड़ी तक, हर आँख नम थी।

महाराज के निधन की घोषणा होते ही, राजमहल में उदासी और सन्नाटा पसर गया। रानियाँ, राजकुमार और राजकुमारियाँ अपने प्रिय राजा के पार्थिव शरीर के पास विलाप कर रहे थे। राज्य के प्रमुख पंडितों और ज्योतिषियों को तुरंत बुलाया गया ताकि अंतिम संस्कार की विधिवत तैयारी की जा सके।

सुबह होते ही, ओरछा के हर कोने से लोग राजमहल की ओर उमड़ पड़े। हर कोई अपने राजा के अंतिम दर्शन करना चाहता था। महल के मुख्य द्वार पर शोक में डूबे लोगों की लंबी कतार लग गई थी।

महाराज के पार्थिव शरीर को चंदन और सुगंधित फूलों से सजाया गया था। उन्हें एक विशेष रूप से तैयार की गई अर्थी पर रखा गया था। जिसे रेशमी वस्त्रों और मोतियों से सजाया गया था। यह अर्थी इतनी विशाल थी कि उसे उठाने के लिए कई मजबूत पुरुषों की आवश्यकता थी।

शाही श्मशान घाट, जो बेतवा नदी के किनारे स्थित था, को भी अंतिम संस्कार के लिए तैयार किया गया था। चिता के लिए चंदन की लकड़ियों का ढेर लगाया गया था और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए सभी आवश्यक सामग्री एकत्र की गई थी।

जैसे ही सूर्य आकाश में चढ़ने लगा, अंतिम यात्रा शुरू हुई। सबसे आगे सैनिक राजकीय ध्वज को झुकाया हुआ लिये चल रहा था। जिसके पीछे राजकीय बैंड दुःख भरे गीत बजा रहा था। बैंड के बाद, राजपरिवार के सदस्य, जिनमें रानियाँ, राजकुमार और राजकुमारियाँ शामिल थीं, नंगे पैर चल रहे थे। उनकी आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे।

इसके बाद, महाराज के पार्थिव शरीर को ले जा रही भव्य अर्थी थी। अर्थी को उठाने वाले सैनिक और सेवक भी गहरे शोक में डूबे हुए थे। अर्थी के साथ-साथ राज्य के प्रमुख मंत्री, सेनापति, विद्वान और पुजारी चल रहे थे, सभी गहरे सम्मान में झुके हुए थे।

अर्थी के पीछे-पीछे हजारों की संख्या में प्रजा चल रही थी। बच्चे, बूढ़े, स्त्री, पुरुष हर कोई अपने राजा को अंतिम विदाई देने के लिए इस यात्रा का हिस्सा था। लोगों के चेहरे पर उदासी और आँखों में आँसू थे, लेकिन उनके दिलों में राजा के प्रति असीम प्रेम और श्रद्धा थी।

अंतिम यात्रा का मार्ग पूरे ओरछा शहर से होकर गुजर रहा था। रास्ते में जगह-जगह पर लोगों ने अपने घरों के सामने जल के कलश और धूप-दीप रखे हुए थे। जैसे ही अर्थी उनके सामने से गुजरती, वे अपने राजा को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए पुष्प वर्षा करते। कुछ लोग अपने राजा को याद करते हुए जोर-जोर से रो रहे थे। जबकि कुछ शांत भाव से अपनी आँखें बंद करके प्रार्थना कर रहे थे।

शहर की गलियाँ, जो आमतौर पर जीवंत और चहल-पहल से भरी रहती थीं, आज शोक में डूबी हुई थीं। दुकानों और बाजारों को बंद कर दिया गया था। हर तरफ बस खामोशी और दुःख का माहौल था।

लगभग दो घंटे की यात्रा के बाद, शाही अंतिम यात्रा बेतवा नदी के पवित्र तट पर स्थित श्मशान घाट पर पहुँची। वहाँ पहले से ही हजारों की संख्या में लोग उपस्थित थे, जो महाराज के अंतिम दर्शन करने के लिए इंतजार कर रहे थे।

पंडितों ने वैदिक मंत्रों का उच्चारण करना शुरू कर दिया। महाराज के सबसे बड़े पुत्र, राजकुमार विक्रमजीत सिंह ने सभी धार्मिक अनुष्ठान पूरे किए। बेतवा के किनारे बने राज परिवार के श्मशान में उनके पुरखों की छतरियों के पास पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनके पुत्र ने मुखाग्नि दी। 

जैसे ही अग्नि ने चंदन की लकड़ियों को अपनी लपटों में लिया, चारों ओर से "महाराज अमर रहें!" के नारे गूँजने लगे। कई लोगों को देखा गया जो अपने आँसुओं को रोक नहीं पा रहे थे।

इधर राय प्रवीन अपने क़ाफ़िले के साथ नगर ओरछा में प्रवेश कर रही थी। उसकी उम्मीदों के विपरीत न तो नगर को सजाया गया था, न कोई स्वागत के लिए था। उन्हें यह सब उल्टा देख कर आश्चर्य हो रहा था। तभी राजमहल का राज ध्वज उसे दिखाई दिया जो आधा झुका हुआ था। आशंका से मन विचलित हो उठा। 

राय प्रवीन समझ गई कि जिस अनहोनी को उसने अपने प्राणों को दाँव पर लगाकर रोकने की कोशिश की थी, विधाता के विधान से वह अनहोनी घट गई थी। 

जिस दिन महाराज ने सम्राट के दूत को वापस भेजा था, राय प्रवीन के मन में उसी दिन से हमेशा यह डर था। राय प्रवीन को  यही गहन चिंता थी कि महाराज न तो अकबर से लड़ सकते हैं, और न ही राज्य व उसके सम्मान को बचा सकते हैं। यदि उन्हें इस दलदल से निकलना है तो वह अपनी जान देकर एक सच्चे बुंदेले का धर्म निभाएँगे। 

और वह महाराज को कितना सही-सही समझती थी। वह महाराज का मन पढ़ लेती थी। इसीलिए वह बिना बोले समझ जाती थी कि उनकी क्या इच्छा है। और वह बिना कहे उस बात को पूरा कर देती थी।

राय प्रवीन पुरुष की मानसिकता को बहुत अच्छे से समझती थी। इंद्रजीत की हर बात मन में पढ़ लेती थी। इसलिए शुरू दिन से राय प्रवीन अपने लिए कम, ओरछा तथा महाराज के सम्मान को बचाने के लिए ज़्यादा चिंतित थी। अपने गुरु केशवदास से चर्चा कर ही आगरा जाने का निर्णय राय प्रवीन ने स्वयं लिया था ताकि महाराज पर निर्णय का नैतिक दबाव न रहे। 

वे दोनों दो शरीर एक जान थे। राय प्रवीन जानती थी कि -

'प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाए।' 

राय प्रवीन के मन में महाराज के प्रति कोई मलाल न था। महाराज ने अपने कर्तव्य की पूर्ति कर दी थी और अब राय प्रवीन की बारी थी।

आज आनंद भवन सूना था। हालाँकि राय प्रवीन की ख़बर आने पर उसे ठीक-ठाक किया गया था। ओरछा में राजकीय शोक के कारण चारों तरफ़ सन्नाटा पसरा था। बुंदेलखंड के सभी राजा शोक व्यक्त करने आ रहे थे। इंद्रजीत की इज्ज़त सारे इलाक़े में थी। राज पुरोहित द्वारा महल में गरुड़ पुराण सुनाया जा रहा था, जिसकी धीमी-धीमी आवाज़ आ रही थी। 

राय प्रवीन को अपना आख़िरी कर्तव्य पूरा करना ही होगा। इस भीड़ में केवल एक व्यक्ति था जो राय प्रवीन की मनःस्थिति को समझ पा रहा था और वो थे केशवदास। लेकिन वह आज कुछ भी कहकर राय प्रवीन की राह नहीं रोकना चाहते थे।

केशव दास  सोच रहे थे राय प्रवीन की ख्याति ओरछा के दयालु और सुसंस्कृत शासक राजा इंद्रजीत सिंह के कानों तक पहुँची। वह कला के संरक्षक थे और उनकी असाधारण प्रतिभा को देखकर उन्हें लगा कि उन्हें एक दुर्लभ रत्न मिल गया। राजा इंद्रजीत सिंह उसे अपने दरबार में लाए, न केवल एक विदुषी महिला के रूप में, बल्कि एक सम्मानित कलाकार और एक प्रिय साथी के रूप में। 

इंद्रजीत सिंह के लिए, राय प्रवीन सिर्फ एक ख़ूबसूरत महिला से कहीं अधिक थीं; वह उनकी प्रेरणा, उनकी विश्वासपात्र और ओरछा की कलात्मक आत्मा का अवतार थीं। इंद्रजीत सिंह का रिश्ता गहरा और सच्चा था, जो आपसी सम्मान और कविता और संगीत के लिए साझा प्रेम पर आधारित था।

राय प्रवीन ओरछा की एक प्रसिद्ध विदुषी महिला थी, जो अपनी असाधारण सुंदरता, काव्य प्रतिभा, संगीत और नृत्य कौशल के लिए जानी जाती थी। राय प्रवीन महल - यह उनके स्नेह का प्रमाण है - एक सुंदर तीन-मंज़िला इमारत जो सावधानीपूर्वक बनाए गए बग़ीचों से घिरी हुई है। जिसमें एक फव्वारा और सुगंधित फूलों का एक सुगंधित मार्ग है। 

यहाँ, पानी की कोमल कलकल और पत्तियों की सरसराहट के बीच, राय प्रवीन अपनी कविताएँ रचती थीं। अपने नृत्य का अभ्यास करती थीं और अपने मनमोहक प्रदर्शनों से दरबार को मंत्रमुग्ध कर देती थीं। महल के बग़ीचों के बारे में कहा जाता था कि ओरछा के आसमान में हमेशा की तरह राय प्रवीन की मधुर आवाज़ और मधुर संगीत निरंतर गूँजता रहेगा।

लेकिन "ओरछा की कोकिला" राय प्रवीन की प्रसिद्धि इतनी उज्ज्वल थी कि उसे किसी एक राज्य की सीमाओं में सीमित नहीं किया जा सकता था। राय प्रवीन की अद्वितीय सुंदरता, उनकी मंत्रमुग्ध कर देने वाली आवाज़ और उनकी गहन बुद्धि की चर्चाएँ दूर-दूर तक फैलीं।

केशव दास जानते थे कि चकवा के मर जाने पर चकवी ज़्यादा दिन ज़िंदा नहीं रहेगी। वे चुपचाप सूनी आँखों से राय प्रवीन की ओर निहार रहे थे। राय प्रवीन ने वहाँ उपस्थित अपने परिवार से क्षमा माँगी। पाठशाला के गुरुजनों को प्रणाम किया। राय प्रवीन महाराज से मिलने के लिए इतनी आतुर थी कि उसने अपना सोलह श्रृंगार सुबह ही अपनी प्रिय दासी से करवाया था। 

राय प्रवीन ने सब कुछ महाराज की पसंद का पहना था। श्रृंगार बेकार न हो, तो राय प्रवीन ने अपना क़ाफ़िला छतरियों की ओर मोड़ने का अनुरोध किया। जो बेतवा नदी के किनारे बनी हैं। सदियाँ बदलीं लेकिन नदी ने अपना मार्ग नहीं बदला।

बेतवा नदी, जिसे प्राचीन काल में वेत्रवती कहा जाता था, मध्य भारत में बहने वाली यमुना की एक सहायक नदी है, जिसका उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। बेतवा ने बुन्देलों को यहाँ बसते देखा और उनके पूर्वजों के देवलोक गमन की भी साक्षी रही। जीवन में उपदेश काम नहीं आते। 

उसे तो अनुभव से सीखना होता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने और चेतना के उच्चतम स्तर पर बैठे हुए होने के नाते, उसका यह कर्तव्य बनता है कि वह समाज और प्रकृति की भलाई के बारे में सोचे और उस दिशा में काम करे। इसी में मानव जीवन की सार्थकता है।

बुंदेला राजाओं और उनके परिवार के सदस्यों की याद में छतरियाँ शाही स्मारकों के रूप में बनाई गईं। छतरी का आकार शायद उन शासकों के शासनकाल की लंबाई के आधार पर तय किया गया होगा। ये समाधि स्थल अपनी विशाल संरचना से राजाओं की कहानियों के बारे में बात करते हैं। हिंदू धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक कुल सोलह संस्कार होते हैं। 

इनमें मृत्यु आख़िरी यानी सोलहवाँ संस्कार होता है। जिसमें शव दहन, अस्थि विसर्जन, श्राद्ध संस्कार, पिंड दान आदि संस्कार किए जाते हैं। 

स्मारक बुंदेलखंड के राजाओं को भारतीय इतिहास में जीवित रखने के लिए बनाए गए। हिंदू धर्म में, शवों का दाह संस्कार किया जाता है और राख को नदी में विसर्जित किया जाता है। इसलिए अगले जन्म के लिए शवों को संरक्षित करने के लिए ओरछा का समाधि स्थल नहीं बनाया गया।

इन समाधि स्थलों का डिज़ाइन अनोखा है। ये ऊँची, चौकोर इमारतें हैं, जो ऊँचे चबूतरे पर बनी हैं और ऊपर एक गुंबददार मंडप है। जो छतरी जैसा दिखता है। जिस से छतरी कहा जाता है। यहाँ मुख्य छतरियाँ दो पंक्तियों में हैं, जो सुखद और अच्छी तरह से बनाए गए बग़ीचों के बीच स्थापित हैं। इन स्मारकों का विशाल आकार ऐसा लगता है मानो आप महलों के बीच चल रहे हों।

मृत्यु के बाद, हिंदुओं का मानना ​​है कि भौतिक शरीर का कोई उद्देश्य नहीं होता, और इसलिए इसे संरक्षित करने की आवश्यकता नहीं होती। वे अपने प्रियजनों का दाह संस्कार करना चुनते हैं क्योंकि उनका मानना ​​है कि यह आत्मा को मुक्त करने और पुनर्जन्म में मदद करने का सबसे तेज़ तरीक़ा है। 

ऐतिहासिक रूप से, हिंदू दाह संस्कार नदी पर होते हैं। महाभारत में कहा गया है कि 'मृत्यु' जीवन का अंतिम और अटल सत्य है, जिसे कोई टाल नहीं सकता। जिसने जन्म लिया उसकी मृत्यु अटल है और मृत्यु के बाद उसका पुनः जन्म भी निश्चित है। जीवन और मृत्यु एक चक्र के समान है जिससे हर व्यक्ति को गुज़रना पड़ता है।

सूरज की रोशनी पड़ने पर ये छतरियाँ सुनहरे रंग की हो जाती हैं। भोर में उगता हुआ सूरज उन्हें रोशन कर देता है। सूर्यास्त के समय छतरियों की शानदार आकृतियाँ नदी के पानी पर धुँधली हो जाती हैं। छतरियों का निर्माण मधुकर शाह, भारती चंद, सावन सिंह, बहार सिंह, पहाड़ सिंह और उदय सिंह जैसे शासकों की याद में किया गया। इन सब की जीवन गाथा इन छतरियों ने अपनी आँखों से देखी। 

 छतरियाँ एक जैसी दिखती है। सिवाय एक के जो वीर सिंह देव के लिए बनाई गई थी। सबसे सफल बुंदेला राजा। इस छतरी का प्रवेश द्वार बेतवा नदी की ओर है। ऐसा माना जाता है कि मृत शासक अपने अगले जन्म में नियमित रूप से स्नान और नदी की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लेते हैं।

अभी ये सुनहरे रंग में चमक रही हैं, मानो राय प्रवीन का स्वागत कर रही हों। राय प्रवीन ने शास्त्रों से ज्ञान प्राप्त किया था कि आत्मा अनश्वर है, देह नश्वर है। इसलिए इस देह के लिए आपको चिंता नहीं करनी चाहिए। यह तो एक कपड़ा है जो आत्मा कभी न कभी बदल कर चली जाएगी। 

लेकिन साथ ही राय प्रवीन ने ब्रह्मांड की असीमित आयु के बारे में अध्ययन किया था। राय प्रवीन जानती थी कि कोई मनुष्य चाहे साठ वर्ष जिए या असाधारण परिस्थितियों में सौ वर्ष भी जिए तो भी इस ब्रह्मांड की आयु के सामने तो नगण्य ही है। इसीलिए इस देह के प्रति मोह उसे समझ में नहीं आता था।

महाराज की अर्थी से अभी भी धुआँ उठ रहा था। इस स्थान पर केवल शाही परिवार के लोगों के अंतिम संस्कार किए जाते थे। राय प्रवीन को पता था कि जिस परिवार ने जीते-जी उसका स्थान नहीं दिया, वह मरने के बाद क्यों कर देगा? राय प्रवीन को महाराज के निर्णय पर गर्व हो रहा था। ऊपर से शांत। आँखें पथराई हुई थीं, लेकिन भीतर सब कुछ टूट गया था। 

देह का संबंध बंधन टूट गया था। राय प्रवीन के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी पर उसकी आत्मा में दरारें थीं। वह औरत जिसे दुनिया ने चरित्रहीन कहा था, लेकिन उसने प्रेम किया था निर्दोष भाव से। लेकिन जब समाज ने राय प्रवीन के प्रेम को अपने मापदंडों के तराजू पर तौला तो उसे एक नाम दे दिया—चरित्रहीन। राय प्रवीन ने मुस्कुराकर चुप्पी ओढ़ ली। क्योंकि राय प्रवीन को शब्दों से नहीं, प्राण देकर जवाब देना था। दुनिया हमेशा उस चीज़ से डरती है जिसे वह समझ नहीं पाती।

केशव दास ने सोचा हिंदी में मृत्यु के लिए जो शब्द उपयोग में आता है वह है 'देहांत'—देह का अंत। हमारी देह पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश से मिलकर बनी है। मृत्यु के समय जो पहला तत्व निकलता है वह है साँस या वायु। जब अग्नि तत्व चला जाता है तब शरीर ठंडा हो जाता है। फिर जल चला जाता है। फिर जला दो तो मिट्टी, मिट्टी में मिल जाती है। शरीर समाप्त होने पर आकाश तत्व आकाश में मिल जाता है। 

दाह संस्कार के समय मटका तोड़ा जाता है, यह आकाश तत्व के आकाश में मिल जाने का प्रतीक है। केशवदास श्मशान में इंद्रजीत की चिता देखकर सोच रहे थे: इंद्रजीत की देह का तो अंत हो गया, लेकिन उनकी इच्छाओं, वासनाओं, आशा, आकांक्षा, ज्ञान, बुद्धि, विवेक, ईर्ष्या, द्वेष, आशा, आकांक्षा, ज्ञान, बुद्धि, विवेक तथा अहंकार का क्या हुआ?

केशवदास जानते हैं कि प्रकृति में जो ऊर्जा निर्मित हो जाती है वह नष्ट नहीं होती है, क्योंकि ऊर्जा सर्वव्यापी है। इस दुनिया में दो तरह के लोग हैं: एक जो चले गए तथा दूसरे वे जो जाने वाले हैं। 

तभी आनन्द ने महाराज मधुकर शाह की छतरी पर बैठे एक सफ़ेद कबूतर को देखा। आनन्द का सिर श्रद्धावश उस ओर झुक गया।

राय प्रवीन अपने अंदर अपने आप से खामोशी के साथ लड़ रही थी। वह अपने वाहन से उतर कर धीरे-धीरे चिता के पास गई। राय प्रवीन की श्रद्धा थी कि मृत्यु के बाद भी जन्म है और वह अगले जन्म में भी इंद्रजीत से ही मिलेगी। राय प्रवीन ने गीता पढ़ी थी जिसमें कृष्ण कहते हैं कि:

"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। 

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥”

इसका मतलब है कि आत्मा को कोई शस्त्र नहीं काट सकता, न आग उसे जला सकती है, न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है। भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा के अजर-अमर और शाश्वत होने की बात कही है। राय प्रवीन यह बातें मन में सोच रही थी।

महाराज के चरणों की ओर पूरा लेट कर प्रणाम किया। उसका दुल्हन का श्रृंगार पूरा था, केवल माँग सूनी थी। "जो राजा माने सोई रानी।" राजा की कोई जाति नहीं होती। 

उसने महाराज के चरणों की तरफ से एक चुटकी राख उठा कर अपनी सूनी माँग, गर्व के साथ भर ली और फिर बेतवा की सहस्र धारा में शांति के साथ चल दी—अपने प्रीतम पिया से मिलन के लिए। 

बेतवा की धार भी अपार दयालु है। उसने अपनी इस अभागी बेटी को अपने आँचल में जल्दी से छिपा लिया। घाट पर खड़े लोग हाहाकार कर उठे।

केशव ने देखा पश्चिम में सूर्य अपने रथ पर बैठे अस्ताचल को जा रहे हैं, और उनकी प्रिय शिष्या राय प्रवीन बेतवा की लहरों पर चढ़ अपने प्रिय से मिलन को आतुर है। बेतवा की तेज़ धार बहुत तेज़ी से राय प्रवीन को उसके प्रेमी इंद्रजीत से मिलाने ले जा रही थी। केशवदास कहानी का ऐसा अंत देखकर मन ही मन रो पड़े। उन्होंने कभी ऐसी कल्पना नहीं की थी कि बुंदेलखंड का गौरव, सौंदर्य की प्रतिमान, विदुषी, पतिव्रता नारी का ऐसा अंत होगा।

केशव सोचते हैं कि इस प्रेम कहानी का अंत भी ऐसा होना था। हर प्रेमी सोचता है कि पृथ्वी पर जैसा प्रेम उसके मन में उपजा है ऐसा प्रेम कभी किसी ने नहीं किया। और वह ग़लत भी नहीं है। उसने इस तरह का प्रेम अपने जीवन में पहली बार ही जाना था। इसीलिए तो हर किसी का प्रेम अनूठा, नवीन, पहली बार का प्यार होता है। 

इंद्रजीत ने भी यहीं सोचा था। जब समाज अपनी मान्यताओं के कारण हीरा खो देता है तब उसे हुए नुक़सान का अंदाज़ा होता है। और जब समझता है कि उसने क्या खोया है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। उन्हें लगा कि उपस्थित जन समुदाय भी रो रहा है। उनकी कहानी प्रेम, बुद्धि और विद्रोह की है, जो ओरछा के इतिहास और लोककथाओं में अमर हो गई। 

अग्नि शांत होने के बाद, पंडितों ने राख और अस्थियों को एकत्र किया। अगले दिन, राजपरिवार के सदस्य गंगा नदी में अस्थि विसर्जन करने के लिए प्रयागराज गए। नदी की पवित्र धारा में अस्थियों को प्रवाहित करते हुए, सभी ने महाराज की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की।

राजा इंद्रजीत सिंह की मृत्यु से ओरछा ने अपना एक महान शासक खो दिया था, लेकिन उनकी यादें और उनके द्वारा किए गए अच्छे कार्य हमेशा प्रजा के दिलों में जीवित रहेंगे। उनकी अंतिम यात्रा ने यह दर्शाया कि ओरछा की प्रजा अपने राजा से कितना प्रेम करती थी और उनके प्रति कितनी निष्ठावान थी। यह सिर्फ एक अंतिम संस्कार नहीं था, बल्कि एक पूरे युग का अंत और एक नई शुरुआत का प्रतीक था, जिसमें राजा इंद्रजीत सिंह की विरासत को उनके पुत्र आगे बढ़ाएंगे।

उनकी कहानी एक किंवदंती बन गई, जो शाही ताक़त के सामने बुद्धि, वफ़ादारी और अटूट प्रेम की शक्ति का प्रमाण है। उनकी कहानी ओरछा के पत्थरों पर उकेरी गई है, जो लचीलापन और स्थायी प्रेम का एक गीत है जो युगों से गूँजता आ रहा है।

आनन्द देख तथा महसूस कर रहा था कि जैसे ही दिन ढलने को हो रहा था, ओरछा की बेतवा नदी का किनारा एक अद्भुत और जादुई रूप धारण कर रहा था। खासकर, जहाँ राजसी छतरियाँ सदियों से शांत खड़ी थी। वहाँ का सूर्यास्त का नज़ारा शब्दों में बयाँ कर पाना कठिन था।

धीरे-धीरे, स्वर्णिम सूर्य पश्चिम क्षितिज की ओर बढ़ने लगा था। आकाश में पहले हलकी नारंगी आभा फैली, फिर धीरे-धीरे यह गहरा केसरिया, गहरा लाल और अंततः बैंगनी और गुलाबी रंगों के एक शानदार मिश्रण में बदल गया  ऐसा लगा मानो किसी दिव्य चित्रकार ने अपनी सबसे खूबसूरत तूलिका से आकाश को रंग दिया हो।

बेतवा नदी का शांत जल, इस बदलती रंगत को पूरी निष्ठा से अपने भीतर समेट रहा था। नदी की सतह पर आकाश के सारे रंग झिलमिलाते, जिससे ऐसा प्रतीत होता जैसे नदी में ही एक और डूबता हुआ सूरज उग आया हो। पानी पर पड़ती सूर्य की अंतिम किरणें सुनहरी रेखाएँ बनाती, जो धीरे-धीरे धुंधली होती जा रही थी।

किनारे पर खड़ी भव्य छतरियाँ, इस अलौकिक दृश्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही थी। दिन की रोशनी में जिनकी विस्तृत नक्काशी और स्थापत्य कला स्पष्ट दिखती है, वे अब धीरे-धीरे अपनी पहचान खोकर केवल भव्य परछाई  के रूप में उभर रही थी। उनके गुंबद और मीनारें, डूबते सूरज के सामने काले साये की तरह दिखाई दे रहे थे। जो इस पूरे परिदृश्य को एक रहस्यमय और शांत रूप दे रहे थे। ऐसा लगा मानो वे सदियों से चुपचाप इस अविस्मरणीय पल के गवाह बन रहे हों।

हवा में एक अनोखी शांति घुलने लगी थी। दिन भर की हलचल थम रही थी। पक्षियों का कलरव धीमा पड़ रहा था और वे अपने घोंसलों की ओर लौट रहे थे। दूर से किसी मंदिर की घंटियों की धीमी ध्वनि तथा किसी साधु के मंत्रोच्चार की गूँज हवा में तैरती हुई आती जा रही थी। जो इस शांत वातावरण को और भी आध्यात्मिक बना रही थी।

जैसे-जैसे सूरज और नीचे उतरता, आकाश में लालिमा गहरी होती जा रही थी।  फिर धीरे-धीरे नीले और काले रंग में विलीन होने लगी थी। अंतिम किरणें भी जब क्षितिज में समा गई, तो पीछे छोड़ गई एक गहरा, सुकून भरा अँधेरा और आकाश में टिमटिमाते तारों का आसमान। हर तरह की परछाई बेतवा के पानी में घुल रही थी। 

बेतवा के तट पर, ओरछा की छत्रियों के पास सूर्यास्त देखना केवल एक प्राकृतिक घटना नहीं थी; यह एक अनुभव था जो आत्मा को शांति देता, मन को शांत करता और प्रकृति की अविश्वसनीय सुंदरता से रूबरू करा रहा था। यह वह पल था जब इतिहास, प्रकृति और आध्यात्मिकता एक साथ मिलकर एक अविस्मरणीय छाप आनन्द के मन पर छोड़ रहे थे। आनन्द तथा हुकुम सिंह ने देखा चारों ओर अँधेरा घिरने लगा था और आकाश में दो तारे बहुत पास-पास चमक रहे थे।












टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

Final इल्तुतमिश का ऋणानुबंध से मोक्ष

भर्तहरि