बाबूनामा

बाबूनामा 

डॉ रवीन्द्र पस्तोर 

प्रस्तावना 

यदि आप मेरे बारे में इन्टरनेट पर गूगल कर ए आई के माध्यम से सर्च करेंगे तो आपको इस तरह की जानकारी मिलेगी-

डॉ. रवीन्द्र पस्तोर  एक सच्चे पुनरुत्थान और पुनर्खोजी व्यक्ति रहे हैं, जो दूरदर्शी, सफल उद्यमी, जुनूनी फोटोग्राफर, वाक्पटु प्रेरक वक्ता, और उत्कृष्ट रूप से सफल आईएएस अधिकारी रहे हैं। उन्होंने सरकार में अपने छत्तीस वर्षों के उपलब्धीपूर्ण करियर के दौरान कई नवीनतम और प्रशंसनीय  प्रशासनिक नीतिगत परिवर्तनों का नेतृत्व किया। डॉ. रवींद्र पस्तोर  भारत में सामाजिक उद्यमिता और कृषि-उद्यमिता के क्षेत्र में एक प्रमुख व्यक्ति हैं। वह ग्रामीण आजीविका के लिए अभिनव और टिकाऊ समाधान विकसित करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते हैं।


उनके जीवन और कार्य के मुख्य अंश:


वर्तमान भूमिका: डॉ. रवींद्र पास्टर इलेक्ट्रॉनिक्स फार्मिंग सॉल्यूशंस एसोसिएट्स प्राइवेट लिमिटेड के अध्यक्ष और सीईओ के रूप में कार्यरत हैं। विशेषज्ञता और ज्ञान: उनका काम मुख्य रूप से इन क्षेत्रों पर केंद्रित है: सामाजिक उद्यमिता और कृषि-उद्यमिता। ग्रामीण आजीविका के लिए तकनीकी-उन्नत समाधानों को लागू करना। बाजार-संचालित कृषि समाधान विकसित करना। किसान उत्पादक कंपनियों और सहकारी समितियों जैसे गतिविधि-आधारित, समुदाय-स्वामित्व वाले संस्थानों की स्थापना करना। ग्रामीण विकास से संबंधित नीति विश्लेषण और अनुसंधान में संलग्न होना।


प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण और प्रेरक वक्ता: डॉ. रवींद्र पस्तोर, एक प्रभावशाली प्रेरक वक्ता के रूप में भी जाने जाते हैं। वह नियमित रूप से विभिन्न संस्थानों और संगठनों का दौरा करते हैं ताकि अपने ज्ञान और अनुभवों को साझा कर सकें और लोगों को प्रेरित कर सकें। इनमें शामिल हैं: 


प्रशिक्षण संस्थान: वे कौशल विकास और व्यक्तिगत उन्नति के लिए प्रशिक्षण संस्थानों में व्याख्यान देते हैं। 

सरकारी संगठन: सरकारी विभागों और निकायों में, वे नीतियों, ग्रामीण विकास और कुशल कार्यप्रणाली पर अपनी अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। 

कॉलेज और विश्वविद्यालय: युवा पीढ़ी को प्रेरित करने और उन्हें उद्यमिता, नेतृत्व और सामाजिक जिम्मेदारी के महत्व को समझाने के लिए वे शैक्षणिक संस्थानों में जाते हैं।

निजी कंपनियाँ: कॉर्पोरेट जगत में, वे व्यवसाय विकास, दक्षता और टीम प्रेरणा पर बात करते हैं।


एक यूट्यूबर और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर: डॉ. रवींद्र पास्टर केवल पारंपरिक माध्यमों से ही नहीं, बल्कि डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी एक मजबूत उपस्थिति रखते हैं। वह एक यूट्यूबर हैं और विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर एक प्रभावशाली व्यक्ति के रूप में सक्रिय हैं। उनके लाखों फॉलोअर्स हैं, जो उनके विचारों, प्रेरणादायक संदेशों और विशेषज्ञता से लाभ उठाते हैं। यह डिजिटल उपस्थिति उन्हें व्यापक दर्शकों तक पहुँचने और अधिक लोगों को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने में मदद करती है।


शौकीन फोटोग्राफर: डॉ. रवींद्र पस्तोर, एक पेशेवर रूप से प्रशिक्षित फोटोग्राफर हैं। फोटोग्राफी के प्रति उनका गहरा प्रेम उनके काम के साथ-साथ उनके रचनात्मक पक्ष को भी दर्शाता है। उन्हें विशेष रूप से विभिन्न शैलियों में तस्वीरें लेना पसंद है: 


स्ट्रीट फोटोग्राफी: वे सड़कों पर जीवन के क्षणों, लोगों की गतिविधियों और शहरी दृश्यों को अपने कैमरे में कैद करना पसंद करते हैं। यह शैली उन्हें रोजमर्रा की जिंदगी की कहानियों को बताने का अवसर देती है।


नेचर फोटोग्राफी: प्रकृति की सुंदरता, जैसे कि परिदृश्य, पेड़-पौधे और प्राकृतिक घटनाएँ, उनके लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। वे प्रकृति के शांत और भव्य दृश्यों को कैप्चर करने में आनंद लेते हैं।

बर्ड फोटोग्राफी: पक्षियों की तस्वीरें लेना उनकी विशेष रुचि है। यह धैर्य और कौशल की मांग करती है, और वे पक्षियों के व्यवहार, उनके रंग और उनकी उड़ान के क्षणों को बखूबी पकड़ते हैं। 

एक्शन फोटोग्राफी: गतिमान विषयों, जैसे खेल, नृत्य या अन्य गतिशील घटनाओं की तस्वीरें लेना भी उन्हें पसंद है। यह शैली क्षणों को फ्रीज करने और ऊर्जा को व्यक्त करने की क्षमता रखती है। 

इवेंट्स फोटोग्राफी :  विभिन्न आयोजनों और कार्यक्रमों में होने वाली गतिविधियों और भावनाओं को रिकॉर्ड करना भी उनके फोटोग्राफी कौशल का हिस्सा है। डॉ. रवींद्र पस्तोर  का यह फोटोग्राफी का जुनून उनके बहुमुखी व्यक्तित्व को दर्शाता है, जहाँ वे एक ओर ग्रामीण विकास के लिए काम करते हैं, वहीं दूसरी ओर कला के माध्यम से दुनिया को देखते और प्रस्तुत करते हैं।


लेखक: डॉ. पस्तोर अपने बहुरूपदर्शी अनुभवों, अन्वेषणों और प्रयोगों को आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण एक उपन्यास लेखक के रूप में काम कर रहे है, जिसे उन्होंने अपने अत्यंत सक्रिय जीवन अनुभव के माध्यम से प्राप्त अनुभवों पर आधारित उनके उपन्यास पाठकों को लोककथाओं, पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों की एक अद्भुत रोमांचक दुनियां की यात्रा पर ले जाते है।


व्यवसाय विकास अंतर्दृष्टि: डॉ. पस्तोर को व्यवसाय विकास में अपनी विशेषज्ञता साझा करने के लिए भी जाना जाता है। उनकी अंतर्दृष्टि में शामिल हैं: बाजार विस्तार और नवाचार के लिए रणनीतियाँ। परिचालन दक्षता को अनुकूलित करने के तरीके। सरकार और निजी क्षेत्रों के बीच सहयोग को बढ़ावा देने के दृष्टिकोण। स्थायी विकास प्राप्त करने के मॉडल।


भौगोलिक संबंध: इंदौर क्षेत्र, भारत में मुख्य रूप से सक्रिय होने के साथ-साथ, भोपाल में शासन प्रशासन से भी जुड़े रहे हैं, जहाँ उन्होंने अपनी व्यवसाय विकास अंतर्दृष्टि साझा करते है।


डॉ. रवींद्र पस्तोर  का कार्य अभिनव कृषि पद्धतियों और टिकाऊ व्यवसाय मॉडल के माध्यम से ग्रामीण समुदायों को सशक्त बनाने पर जोर देता है। कुल मिलाकर, डॉ. रवींद्र पस्तोर एक बहुआयामी व्यक्तित्व हैं जो अपने पेशेवर कार्यों, कलात्मक जुनून और प्रेरक क्षमताओं के माध्यम से समाज में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।


एक जीवन को यहां तक पहुंचने में सत्तर साल लगे। आप सोचेंगे कि यह एक योजना के साथ जी गई जिन्दगी है तो ऐसा कतई नहीं है। यह बहती हुई नदी के सामान या आसमान में उड़ाते हुए सफ़ेद बादल के सामान यात्रा रही है। जिसमें पूर्व निर्धारित कुछ भी नहीं था। यह निरन्तर होते बदलावों, घटनाओं, दुर्घटनाओं तथा उपलब्ध अवसरों के सहस पूर्वक उपयोग किये जाने का परिणाम है। 


यह मेरा व्यक्तित्व एक दिन का नतीजा न हो कर जीवन के क्रमिक विकास का नतीजा है। जीवन के हर मोड़ पर भगवान आपको अवसर प्रदान करता है। यह आप पर निर्भर होता है कि आप उस अवसर का कैसा उपयोग करते है। प्रकृति में बाकि सब प्राणी उनके जीवन की प्रकृति से जीते है। अकेला मनुष्य ऐसा प्राणी है जिसे प्रकृति ने चयन करने का अधिकार दिया। मनुष्य वृत्ति से जीता है। 


चयन की स्वतन्त्रता जिम्मेदारी के साथ आती है। हम जो चुनते है वहीं बन जाते है। अपनी किस्मत खुद लिखते है। जीवन संचित कर्मो का कुल योग है। संचित कर्म पूर्व जन्मों के कर्म होते है। इस जीवन में आप जिन संचित कर्मों को भोगते है वह आपका प्रारब्ध होता है। इस जीवन के कर्मों को क्रियामान कर्म कहते है। 


जीवन में माता-पिता, भाई-बहिन, पति-पत्नी, बच्चे, रिश्तेदार, मित्र, सहयोगी, विरोधी  सभी ऋणानुबन्धन के कारण ही हमसे जुड़ते-बिछड़ते है। यह नदी नाव संयोग है। यदि हमारा व्यवहार सकारात्मक है तो दोस्त बनाते है यदि व्यवहार नकारत्मक है तो दुश्मन। भौतकी का नियम है कि प्रकृति में सभी गतियां वृताकार/ गोल होती है। यदि हम सकारात्मक ऊर्जा पैदा करेंगे तो हम तक सकारात्मक ऊर्जा आयेगी। यदि नकरात्मक ऊर्जा पैदा करेगे तो नकारात्मक ऊर्जा आयेगी। प्रकृति में ऊर्जा नष्ट नहीं होती कई बार यह वृत छोटा होता है तो कई बार कई जन्म वृत को पूरा होने में लगते है। 


विगत वर्षों में अनेक मौकों पर लोगों को जब भी मैने बात-चीत में या प्रशिक्षण के दौरान जीवन के संस्मरण सुनाये, उन्होंने आग्रह किया कि इन बातों को एक पुस्तक के रूप में लिखू। ताकि लोगों को एक साधारण जीवन की असाधारण बातें पता चल सके। आगे आने वाली पीढ़ी कुछ सबक उन गलतियों से सीख सके जो मैने की। सीखा और आगे बड़ा। 


जिन्दगी नदी जैसी होती है वह अपना रास्ता खुद बनाती चलती है। जैसे हम सड़क पर गाड़ी चलाते है अभी फर्स्ट गियर में तो कभी टॉप गियर में, कभी रिवर्स गियर में। कभी दायें, कभी बायें। कभी ब्रेक लगते तो कभी बंद कर गैरिज में रख देते। मेरा अनुभव जिन्दगी के साथ इसी तरह का रहा। तो लोगों के आग्रह को स्वीकार कर यह पुस्तक आपको सौप रहा हूँ। उम्मीद है आप या तो मेरी बातों से सहमत होंगे या असहमत मगर आप अपने जीवन से मुझे जुड़ा जरूर पायेगें। 


"बाबू" शब्द में एक महत्वपूर्ण अर्थगत परिवर्तन आया है। पहले यह शब्द सम्मानजनक संबोधन/स्नेहसूचक शब्द था। मूलरूप से अंग्रेज़ी-शिक्षित क्लर्कों के लिए एक तटस्थ शब्द औपनिवेशिक युग में सम्बोधन में प्रचलन में आया। मजाक में कहते है जब अंग्रेज़ बंगाल में ऑफिस का काम करने के लिए देशी पड़े लिखे नौजवान भर्ती करते तो वह बालों में बहुत सारा तेल लगा कर काम पर आते। उनसे एक तरह की बदबू आती जो धीरे-धीरे बाबू शब्द में बदल गया। क्लर्कों और सतही अंग्रेज़ी बोलने वालों के लिए एक अपमानजनक शब्द था। 


बाद में अंग्रेजी अखबारों के पत्रकारों द्वारा भारतीय प्रशासनिक सेवा के सरकारी नौकरशाहों के लिए यह शब्द व्यापक रूप से अपमानजनक शब्द और साथ ही साथ अपने स्नेहपूर्ण प्रयोग विशेषकर पारिवारिक/क्षेत्रीय संदर्भों में आधुनिक युग को बरकरार रखते हुए उपयोग में आने लगा। यह शब्द "बाबू" समृद्ध और अक्सर विरोधाभासी इतिहास के कारण एक आकर्षक शब्द बन गया है। जो भारतीय समाज के विभिन्न स्तरों, उसके औपनिवेशिक अतीत और उसके विकसित होते भाषाई परिदृश्य को समाहित करता है। इसलिये मैंने अपने शासकीय जीवन के अनुभव लिखने की लिए इस किताब का नाम "बबुनामा" रखा। जिसका अर्थ हुआ एक बाबू के जीवन का लिखित विवरण। है ना मजेदार। 

डॉ. रवींद्र पस्तोर






प्रथम पारी 

यदि आप यह सोचते है कि मैं आत्ममुग्धता से ग्रसित प्राणी हूँ तो मैं कहूँगा आप गलत नहीं है। मैं "नार्सिसिस्टिक सिंड्रोम" जिसे आत्ममुग्धता या आत्ममोही व्यक्तित्व का व्यक्ति हूँ। मुझे अपने महत्व का अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर बोध होता है। लगातार दूसरों से प्रशंसा और ध्यान की मुझे आवश्यकता होती है। यह शायद केवल अहंकार या स्वार्थ से कहीं बढ़कर। अपनी क्षमताओं को मैं वास्तविकता से कहीं अधिक आंकता हूँ। अपनी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता हूँ। खुद को दूसरों से बेहतर, अनोखा या खास मानता हूँ। मुझे लगता है कि मुझे केवल उन्हीं लोगों के साथ उठना-बैठना चाहिए जो मेरे जैसे ही "खास" या उच्च-स्थिति वाले हों। 


मैं दूसरों के ध्यान के लिये हमेशा लालायित रहता हूँ। इसलिये जब भी मैं कुछ भी करता हूँ तो सोशल मीडिया पर तत्काल शेयर करता हूँ। मैं हमेशा दूसरों की पीड़ा या भावनाओं के प्रति असंवेदनशील रहा हूँ। मैं अक्सर उम्मीद करता हैं कि दूसरे मेरी इच्छाओं को बिना सवाल किए पूरा करेंगे। जब मेरी अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं तो मैं क्रोधित हो उठता हूँ।


मुझे दूसरों से ईर्ष्या भी होती। मेरे व्यवहार में अभी भी अक्खड़पन और घमंड बहुत ज्यादा है। मैं अकसर  दूसरों के प्रति श्रेष्ठता और तिरस्कार का रवैया प्रदर्शित करता हूँ। मुझ में दूसरों की बातचीत पर हावी होने की प्रवृत्ति है। अक्सर मेरा व्यवहार शोषणकारी हो जाता है।  मुझमें दूसरों की भावनाओं के प्रति सहानुभूति और जरूरतों को पहचानने या समझने की बहुत कमी है। मैं हमेशा अपनी सफलता, शक्ति, सौंदर्य या आदर्श प्रेम की कल्पनाओं में डूबा रहता हूँ।


मुझे हमेशा लगता है कि मैं विशेष व्यवहार और विशेषाधिकार का हकदार हूँ। मैं अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए दूसरों का फायदा उठाता हूँ। मैं दूसरों के परिणामों की चिंता किए बिना अपने लाभ के लिए लोगों का उपयोग करता हूँ। जब कोई मेरे ऐसे व्यव्हार से आपत्ति करता है तो मैं अपने आप को सही साबित करने के लिये तर्क या कहे कुतर्क का सहारा लेता रहा हूँ। इस व्यवहार में मुझे कुछ भी गलत नहीं लगता।


आत्ममुग्धता के इस मुखौटे के पीछे, अक्सर असुरक्षा, शर्मिंदगी, अपमान और असफलता के उजागर होने का डर जैसी नाजुक छिपी हुई भावनाओं को पाता हूँ। थोड़ी सी भी आलोचना या अस्वीकृति मुझे बहुत परेशान कर देती है। जिससे मैं क्रोधित या उदास हो जाता हूँ। मैने कभी नार्सिसिस्टिक पर्सनैलिटी को स्वीकार नहीं किया। मैं पहली बार आपसे अपने मन की गहरीयों को साझा कर रहा हूँ। 


बुन्देलखण्ड के जिझौतिया ब्राम्हणों में हमारा परिवार आता है। ज्यादातर परिवार पाठक सरनेम लिखते है। हम कुछ परिवार पस्तोर सरनेम क्यों लिखते है, पता नहीं। ‘पस्तोर’ उपनाम के इतिहास के बारे में विस्तृत जानकारी आसानी से उपलब्ध नहीं है। हालांकि, कुछ स्रोतों से पता चलता है कि यह उपनाम भारत में, विशेष रूप से जिझौतिया ब्राह्मण समाज में पाया जाता है।उपनामों की उत्पत्ति अक्सर किसी स्थान, पेशे, पैतृक नाम, या किसी विशिष्ट विशेषता से होती है। ‘पस्तोर’ शब्द का मूल और अर्थ क्या है ज्ञात नहीं है। 


मैने बचपन से अपने जीवन को इसी तरह शुरू किया। मेरे माता पिता को मुझसे पहले  एक बालक हुआ था जो जन्म के साथ ही जीवित नहीं रहा। मैं अपने परिवार में बहुत मन्नतों के बाद पैदा हुआ बच्चा था। गोल मटोल, गोरा चिट्टा, बड़ी-बड़ी आँखें जिनमें माँ हमेशा काजल लगाती। माथे पर काजल का टीका जिसे हम लोग 'डथूला' कहते है। गले में उल्लू के नाखूनों का ताबीज तथा पाटे की पुतरिया। हाथों में चांदी के कड़े। नाक और कान भी छिदवा कर जेवर पहनाए गये। तो परिवार ही नहीं गांव में सभी का प्यारा दुलारा बच्चा। विशेषकर मेरी दादी का। 


आप मेरे बचपन के अत्यधिक लाड़-प्यार को नार्सिसिस्टिक पर्सनैलिटी के विकास में योगदान मान सकते हैं। यहीं से शायद यह आत्ममुग्धता मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा है जो अभी ओर मजबूत हो गई है। आत्ममुग्धता का मेरे रिश्तों और समग्र जीवन पर महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है।  मैं कोई भी काम असंभव नहीं मनाता जो मैं न कर सकूँ। इसी कारण मैं इतने तरह के काम कर सका। 


हमारी दो तरह की उम्र होती है एक को में कहता हूँ जैविक उम्र जो शरीर की है। जैसे पेड़ उगता है बड़ा होता है फूल-फल देता हेउ और सुख कर मर जाता है। उसी तरह का हमारा शरीर है जो पैदा होता, बच्चा होता, युवा, प्रौढ़, वयस्य, बृद्ध होता और मर जाता है। दूसरी मानसिक उम्र होती है जैसे मेण्टल ऐज भी कहते है। यह सीखने, करने, देखने और पढ़ने से बढ़ती है। जिसमें हमारी समझ का विकास होने पर चेतना का विकास होता है। 


बच्चा सात साल तक जीवन जीने लायक समझ विकसित कर लेता है। अधिकांश लोगों की मानसिक उम्र इसी स्टेज पर रुक जाती है और वे जीवन भर कुछ नहीं सीखते।मेरे पास मेरी माँ के साथ बहुत छोटी उम्र से अभी तक की मेरी फोटोज है। जिसको मैंने एक फोल्डर में सोशल मीडिया पर शेयर किया था। फोल्डर का नाम दिया था ‘फेसेस ऑफ़ फसलेस सोल’। जिस में मेरे बदलते चेहरे की फोटोज है।  


जीवन में सफल होने के लिये परीक्षा में मिले अंक निर्णायक नहीं होते बल्कि आप के अनुभव, समझ तथा नये जोखिम उठाने की क्षमता काम आती है। 

अपने जीवन के प्रारम्भ में मैंने एक कहावत अपनी दादी से सुनी थी- 


‘पहला सुख निरोगी काया,

दूजा सुख घर में हो माया।

तीजा सुख कुलवंती नारी,

चौथा सुख पुत्र हो आज्ञाकारी।

पंचम सुख स्वदेश में वासा,

छठवा सुख राज हो पासा।

सातवा सुख संतोषी जीवन,

ऐसा हो तो धन्य हो जीवन।’


मेरे स्कूल में एक यात्री आये थे जो साइकिल पर भारत भ्रमण कर रहे थे। उन्होंने हम बच्चों को स्वस्थ रहने के तरीकें तथा योग आसन बताये। वह आसनों के पोस्टर पच्चीस-पच्चीस पैसे में बेच रहे थे। उनके पास चार पोस्टर थे लेकिन मुझे केवल पचास पैसे जेब खर्च रोज मिलता था। मैंने दो पोस्टर खरीद लिया। उन्हें अपने कमरे की दिवार पार्क चिपका लिया और रोज कसरत करने लगा। हमने अपने खेत में एक अखाड़ा बनाया था। उसमें खूब कसरत करते थे। यह आदत जीवन भर की आदत बन गई। 





गणेशगंज 

हमारे पूर्वज टीकमगढ़ के राजा के यहां महत्त्वपूर्ण पद पर काम करते थे। पहले हमारा परिवार दिगोंड़ा के पास एक गांव में बसता था। वहां उन्हें डाकुओं ने लूट लिया तब राजा ने उन्हें ललितपुर रोड पर कुण्डेश्वर के पास गांव बसाने को जमीन दी थी। उन्होंने एक गांव बसाया और नाम दिया गणेशगंज। इस गांव को बसाने के कारण पस्तोर परिवार को बर्रु काट कहा जाता। गणेशगंज गांव मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में स्थित है।


गणेशगंज बुंदेलखंड के पठारी क्षेत्र में स्थित है। भूमि मिश्रित है- कहीं उपजाऊ तो कहीं पथरीली। गाँव कृषि प्रधान है। जहाँ के लोगों की आजीविका मुख्य रूप से खेती और पशुपालन पर निर्भर करती है। क्षेत्र में पानी की कमी एक प्रमुख चुनौती रही है, जिसका प्रभाव गणेशगंज पर भी पड़ता है। यहाँ के किसान मुख्य रूप से ज्वार, गेहूं और दालों जैसी फसलें उगाते हैं। 


गणेशगंज में एक मजबूत सामुदायिक भावना देखी जाती थी। ग्रामीण जीवन में आपसी सहयोग और भाईचारा महत्वपूर्ण होता था। त्योहारों और सामाजिक आयोजनों में पूरा गाँव एक साथ मिलकर खुशियाँ मनाता। यहाँ की जीवनशैली सादगीपूर्ण। मिट्टी के घर, पारंपरिक वेशभूषा और स्थानीय रीति-रिवाज जीवन का अभिन्न अंग। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक सीमित पहुँच। गाँव में एक प्राथमिक विद्यालय है, और उच्च शिक्षा या बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए लोगों को पास के जिला मुख्यालय टीकमगढ़ पर निर्भर रहना पड़ता।


जिले के अन्य गाँवों की तरह, गणेशगंज भी बुंदेलखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है। जहाँ लोक कलाएँ, लोकगीत और पारंपरिक त्योहार जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। गणेशगंज अपनी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था, सामुदायिक जीवन और पारंपरिक मूल्यों के साथ-साथ विकास की चुनौतियों का भी सामना कर रहा है।


मेरा जन्म बुंदेलखंड के गणेशगंज में 1956 का दशक में हुआ था। मेरे बचपन का शुरुआती जीवन बहुत साधारण था। जब भारत को आज़ादी मिले कुछ ही साल हुए थे, बुंदेलखंड जैसे ग्रामीण इलाकों में जीवन आज की तुलना में बहुत अलग था। गणेशगंज में बच्चों का बचपन सादगी, प्रकृति से जुड़ाव और सामुदायिक जीवन से भरा हुआ था।


बच्चों के दिन की शुरुआत सुबह जल्दी होती। वे अक्सर अपने माता-पिता के साथ खेतों में या घर के कामों में हाथ बंटाते। लड़कियों को पानी भरने, साफ-सफाई करने और छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने में मदद करनी होती। जबकि लड़कों को पशुओं को चराने या खेतों में छोटे-मोटे काम करने की जिम्मेदारियाँ दी जाती थी।


उस समय शिक्षा का स्तर बहुत कम था। गाँव के प्राथमिक विद्यालय में जहाँ कुछ बच्चे ही जा पाते। शिक्षा तक पहुँच सीमित थी, खासकर लड़कियों के लिए। जो बच्चे स्कूल जाते थे, वे अपनी पढ़ाई के साथ-साथ घर के कामों में भी मदद करते थे। हमारे प्राथमिक विद्यालय में एक कमरा और एक ही शिक्षक थे जिन्हें हम बच्चे दादाजी के नाम से बुलाते। 

कक्षा एक से पांच तक के विद्यार्थी एक साथ अलग अलग ग्रुप में उसी कमरे में बैठते। बैठने के लिये फट्टी घर से ले कर आते। 


दादाजी मास्टर साहब ही सभी को सभी बिषय पढ़ाते। इस के लिये उन्होंने एक अनोखी विधि विकसित की। हर कक्षा से एक सबसे होशियार बच्चे का चयन कर उस कक्षा को पढ़ाने की जिम्मेदारी उस बच्चे को सौप देते। कभी वह जोर से बोल-बोल कर पाठ पढ़ाता, कभी ईमला बोल कर नक़ल लिखवाता तो कभी जोर से गिनती या पहाड़े याद करवाता। सभी कक्षा के छात्रों को व्यस्त कर दादाजी खुद गांव में हमारे घर जाते, जहां उन्हें मट्ठा या दही की लस्सी पीने तथा कुछ खाने को मिलता। 


अब आप जरा कल्पना के घोड़े दौड़ा कर एक ऐसे छोटे कमरे की देखे जहां कक्षा एक से पांच तक के साथ एक साथ जोर-जोर से अलग-अलग पढ़ रहे बच्चे हो और शिक्षक कमरे में ना हो। तो हमारी पढ़ाई ऐसे स्कूल में हुई। जब मास्टर साहब स्कुल में होते तो या तो अपनी कुर्सी पर बैठ कर ऊंघते या सो जाते या अपनी कॉपी में राम-राम लिखते रहते थे। कभी-कभी जब बच्चे उनकी बात नहीं मानते तब एक छड़ी से हथेली पर मार पड़ती। 


हथेली लाल हो जाती और चार पांच दिन दर्द होता रहता था। अमेरिका से दूध का पॉवडर स्कूल में आता तो पानी में घोल कर बच्चे दूध बनाते और सब को एक-एक गिलास दुघ पीना होता। जिसका स्वाद गाय के दूध से अलग होता और कुछ बच्चे उलटी भी कर देते। 


भोजन बहुत सादा होता। ज्वार की रोटी, दाल और स्थानीय सब्जियाँ मुख्य आहार थीं। गेहूं उस समय ज्वार से महंगा होता था, इसलिए गेहूं चावल की जगह ज्वार तथा कोदों का अधिक सेवन किया जाता। उस समय राशन कार्ड पर गेहूं, चावल तथा मिट्टी का तेल लालटेन या चिमनी जलाने के लिय परिरवार की सदस्य संख्या के आधार पर अलग-अलग मात्रा में हर माह मिलता था। राशन कार्ड पर अमेरिका से आया लाल गेहूं कन्ट्रोल पर मिलता। दूध और दही घरों में पाले गए पशुओं से उपलब्ध होते थे।


इस दशक में बच्चों के खेल प्रकृति और आसपास के वातावरण से जुड़े होते थे। मोबाइल, टीवी या कंप्यूटर का तो कोई नामोनिशान नहीं था। बच्चे गाँव के खुले मैदानों, गलियों और तालाबों के किनारे खेलते थे। खेल-कूद और मनोरंजन के रूप में गिल्ली-डंडा सबसे लोकप्रिय खेलों में से एक था। जिसमें लकड़ी की एक छोटी गिल्ली और एक डंडे का इस्तेमाल होता। खो-खो और कबड्डी टीम वाले खेल थे जो शारीरिक फुर्ती और रणनीति पर आधारित थे। छुपम-छुपाई (हाइड एंड सीक) यह एक और पसंदीदा खेल था। बच्चे कंचे खेलने में भी घंटों बिताते। पेड़ पर चढ़ना, तालाब में नहाना। 


सामूहिक मनोरंजन गांव में होता था। शाम को बच्चे और बड़े 'अथाई' चौपाल या किसी चबूतरे पर इकट्ठा होते। कहानियाँ सुनना, लोकगीत गाना, ढोलक बजाना और पौराणिक कथाएँ सुनाना मनोरंजन का मुख्य साधन था। मेले और त्यौहार भी बच्चों के लिए बड़े आकर्षण का केंद्र होते थे, जब उन्हें नए कपड़े और मिठाइयाँ मिलती। रामलीला, रहस लीला, नाटक तथा सर्कस देखने टीकमगढ़ जाते। 


बुंदेलखंड उस समय भारत के सबसे गरीब और अशिक्षित क्षेत्रों में से एक था। बच्चों को अक्सर कम उम्र से ही परिवार की आजीविका में मदद करनी पड़ती थी। पानी की कमी, बुंदेलखंड में पानी की कमी एक गंभीर और पुरानी समस्या रही है। बच्चों को अक्सर दूर से पानी लाने में मदद करनी पड़ती थी।


मौसमी बुखार, चेचक, टीबी, घाव लगाना, हड्डी टूटना, सांप, बिच्छू, कुत्ता और जंगली जानवर का कटना मुख्य बीमारियां थी। स्वास्थ्य सेवाएँ बहुत सीमित थीं। छोटे-मोटे बीमारियों का इलाज घरेलू नुस्खों से किया जाता था, और गंभीर बीमारियों के लिए शहरों तक पहुँच थी।


मौसम की मार हर तीन साल में झेलना होती थी। सूखा और बेमेल बारिश जैसी प्राकृतिक आपदाएँ फसलों को बर्बाद कर देती थीं, जिससे बच्चों के परिवारों पर सीधा असर पड़ता था। गांव के लोग अलग-अलग समस्याओं के निवारण के लिए अलग-अलग देवता पूजते, अनुष्ठान करते, मन्यते मानते या अखण्ड रामायण का पाठ, सत्यनारायण की कथा, भागवत कथा या शंकर जी बनबाने का अनुष्ठान करते थे। 


गणेशगंज में तीज का त्योहार बड़े उत्साह और पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ मनाये जाते थे। गणेशगंज में तीज केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक सामाजिक और सांस्कृतिक आयोजन भी था । यह परिवारों और समुदायों को एक साथ लाता था। गणेशगंज में मनाए जाने वाले कुछ प्रमुख त्योहारों थे- दीपावली (दीवाली), होली, दशहरा, रक्षाबंधन, तीज (हरियाली तीज और हरतालिका तीज), मकर संक्रांति, महाशिवरात्रि, नवरात्रि, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, बसंत पंचमी, अक्षय तृतीया (अखा तीज), नाग पंचमी, देवउठनी एकादशी और हरियाली अमावस प्रभुख थे। कुल मिलाकर, गणेशगंज में तीज का त्योहार भक्ति, परंपरा, प्रकृति प्रेम और पारिवारिक सौहार्द का एक सुंदर संगम था।


मेरे जीवन का श्री गणेश इसी गणेशगंज से हुआ। उन्नीस सौ पचास के दशक में गणेशगंज जैसे गाँव में बच्चों का जीवन चुनौतियों भरा लेकिन प्रकृति और समुदाय से जुड़ा हुआ था। उनके खेल-कूद, शिक्षा और दिनचर्या आज के शहरी बच्चों से बहुत अलग थी, जहाँ सादगी और सामूहिक जीवन का महत्व अधिक था।


परिवार में नौकरी पेशा दो लोग थे मेरे पिता जी तथा चाचा जी। मुख्य आय का साधन खेती थी। साहूकारी साइड बिजनेस था जिस में रुपये तथा गल्ले का लेनदेन होता। मेरी दादी हालांकि बिलकुल भी शिक्षित नहीं थी। उनमें गजब का कॉमन सेन्स तथा आत्म विश्वास था। उन्हें केवल बीस तक गिनती आती थी। उनके लिये महीना दो भागों में बटा होता- पूर्णिमा तथा अमावस्या। जिसे हम पखवाड़ा कहते है। लोग कहते "लिखा न पढ़ी जो ओरी कहे सो सही।" उन्हें लोग  प्यार से 'ओरी' बुलाते थे। 


वह आंगन की दीवालों पर गाय के गोबर से टिपकी लगा कर अपना हिसाब रखती थी। बहुत बाद में हमारे चाचा जब बैंक मैनेजर बन गये तब वह 'रुक्का' लिखने लगे थे। रुक्का मतलब उधारी की लिखा पड़ी का कागज। लेकिन कमाल तो तब होता जब लिखे तथा मौखिक हिसाब में अंतर आता तब जो 'ओरी' कहे वह सही माना जाता। उनकी 'जुबान' की बहुत कीमत थी। 


एक हमारे दूसरे चाचा थे। उनके पिता जी के भाई गांव के थे 'लंबरदार'। लंबरदार, जिसे नंबरदार, ज़मीदार भी कहा जाता, ब्रिटिश राज के दौरान गांव में एक प्रमुख व्यक्ति होता था। लंबरदार की नियुक्ति कलेक्टर द्वारा की जाती थी और उसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता था। जिसे नवीनीकृत किया जा सकता था। उसे एक अच्छा चरित्र वाला और स्थानीय भाषा में पढ़ने-लिखने में सक्षम होना चाहिए। 


जो राजस्व संग्रह करने और गांव के प्रशासनिक कार्यों में भूमिका निभाता। वह गांव का मुखिया होता। जो सरकारी अधिकारियों के साथ गांव का प्रतिनिधित्व करता और सरकार के साथ संवाद स्थापित करता। वह गांव के प्रशासनिक कार्यों में भी शामिल होता। सभी प्रकार के विवादों का निपटारा करता जैसे कि व्यक्तिगत विवाद, मार पीट, चोरी-चकारी, तथा भूमि विवादों को सुलझाना और रिकॉर्ड रखना। 


उनके दरवाजे पर एक जामुन का पेड़ था और उसके नीचे एक चबूतरा। जिसे गांव की 'अथाई' कहा जाता। वह स्थान जहाँ गाँव के लोग इकट्ठे होकर बातचीत और पंचायत करते। गांव में जब विवाद होता तब पीड़ित गांव की पंचायत बुलाने के लिए लंबरदार से अनुरोध करता। तब लंबरदार गांव की पंचायत बुलाते। पंचायत में गांव की हर जाति के मुखिया  सदस्य होते थे। 


शुरू में गणेशगंज में लगभग चालीस पचास घर थे। रात को अथाई पर पंचायत लगाती। मुखिया तथा पंच अथाई पर बैठते। गांव की महिलाएं तथा पुरुष नीचे बैठते। तम्बाकू कूट कर चिलम में भरी जाती सभी बारी-बारी से पीते। लंबरदार का हुक्का था। वह हुक्का पीते थे। बच्चों का प्रवेश निषेध होता। पर हम बच्चे बहुत उत्सुक होते। क्योंकि विवाद बहुत मजेदार होते थे। हम लोग आसपास छुप कर पंचायत की कार्यवाही देखते। 


पहले पीड़ित व्यक्ति अपना पक्ष रखता फिर जिसके विरुद्ध शिकायत है वह उसका पक्ष रखता। यदि कोई प्रत्यक्षदर्शी गवाह है तो गवाही होती। पंच आपस में विचार-विमर्श करते फिर निर्णय या तो सर्व सम्मति से या फिर बहुमत से होता। यदि अपराध गम्भ्भीर हो तो पांच गांव के पंच बुलाये जाते। सजा होती चमड़े के जूते से पिटाई। जिसे ‘पनैयां’ कहा जाता। जिससे एक बार से पांच बार या उससे अधिक अपराध की गंभीरता के अनुपात में मारा जाता। 


कई अपराधों की सजा अपनी जाति या सम्पूर्ण गांव के लोगों की ‘पंगत’ देना होती। यदि पैसे का भुगतान कर क्षतिपूर्ति हो सकती तो दण्ड पैसे का होता। यदि कोई पाप हुआ है तो गंगा स्नान, गंगाजली पूजन, कथा तथा पंगत देना होती। न पुलिस में रिपोर्ट, न वकील, न कोर्ट कचहरी के चक्कर। त्वरित न्याय। पूर्ण पारदर्शिता। 


'अथाई' का गांव में बहुत सम्मान होता था। कोई भी जुटे पैर कर या साइकिल पर बैठ कर इस चबूतरे के सामने से नहीं गुजरता था। आल्हा, रामायण, महाभारत, भागवत तथा पुराण का पाठ यहीं होता। ठण्ड के समय कूड़ा लगता। जिसमें बकरी की लड़ी, गोबर का कण्डा तथा सुखी लकड़ी जलाई जाती। जिससे आग सालभर चौबीसों घण्टे लोगों को मिले। तब माचिस का चलन नहीं था। तथा माचिस महंगी होने से लोगों की क्रय शक्ति से बाहर होती थी। 


हर घर में आग चौबीसों घण्टे 'गुरसी' में होती थी। 'गुरसी' शब्द का हिंदी में अर्थ "बोरसी" या "अंगीठी" होता है। यह एक प्रकार का चूल्हा होता है जिसका उपयोग आमतौर पर खाना पकाने या गर्मी प्राप्त करने के लिए किया जाता है। यदि आग बुझ जाया तो पड़ोसी से आग मांग कर लाते थे। गांव में कहावत चलती: "कम खाना और गम खाना, न हाकिम के जाना न हकीम के जाना।"


मेरी माँ सुबह तड़के उठ कर चक्की पिसती तो लोकगीत गाती। मुझे आज भी कुछ गीत याद है। पिता जी शिक्षक और गायत्री परिवार के फाउंडर मेम्बर थे। हम सभी भाइयों के बचपन के सभी संस्कार मथुरा गायत्री परिवार मन्दिर में गुरूजी पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य द्वारा सम्पन्न हुए। हम बचपन से अपने भाई के साथ खेतों में काम करते। खेत पर ही रहते। लालटेन की रोशनी में पढ़ते। कॉलेज से लौट कर रहट हाकते और बैलों के पीछे-पीछे हाथ में किताब ले कर पढ़ते जोर-जोर से थे। हमारे साथ हमारा हलवारा जुज्जा होता जो कहानियां सुनाता तथा रात में तारे देख कर समय का अन्दाज लगाना बताता। 


जब मन्दिर में अखण्ड रामायण का पाठ होता तो हम लोगों की पारी लगाती तब रत भर रामायण पढ़ते, जब अखण्ड कीर्तन होता तो पारी आने पर भजन गाने जाते। गांव में नाटक करते, रामलीला करते और कथा पढ़ कर घर की महिलाओं को सुनते। किताब रहल पर रख लालटेन की रोशनी में कथा होती। कोई दुःखद प्रसंग आने पर बहुत सी महिलाएं रोने लगाती थी। एक बच्चे के लिये बहुत मार्मिक दृश्य होता। 


चूल्हे पर लकड़ी कण्डे पर खाना बनता। सभी पांच भाई आँगन में एक साथ कहने बैठते होड़ लगा कर रोटी खाते, जो सबसे ज्यादा खाता वह जीतता। मिट्टी के वर्तन, लकड़ी कण्डे की आग पर सिकी रोटी उस पर घर की गाय का देशी घी, घर के खेत की सब्जी, मट्ठे की कड़ी कोदो के चावल और ज्वार की रोटी। जब त्यौहार और मेहमान आते तब गेहूं की रोटी, पूरी, चावल बनाते। शर्दियों में कोदो का पयार का बिछौना, सभी का एक साथ सोना और दादी की कहानियां, दोस्तों के साथ खेलना, पढ़ना, त्यौहार की मस्ती और स्वर्ग किसे कहते है पता नहीं। 


मेरी दादी रोज सुबह मुझे ऐसी कहावतें सिखाती। कहावतें, जिन्हें लोकोक्तियाँ भी कहा जाता, छोटे वाक्यांश या वाक्य होते जो सामान्य ज्ञान, अनुभव, या सच्चाई को व्यक्त करते हैं। ये वाक्यांश अक्सर रूपक होते और पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे होते हैं। गांव के लोग किसी भी जाति के हो लेकिन उन्हें उनके गांव के रिश्ते के नाम से ही सम्बोधित किया जाता था। 


गणेशगंज रोड पर जो पत्थर के घोड़े की मूर्ति लगी है, उसकी कहानी बेहद दिलचस्प और गौरवपूर्ण है। यह मूर्ति एक ऐसे घोड़े की याद में बनाई गई है जिसने अपने समय में एक अविश्वसनीय कारनामा कर दिखाया था। हनुमान बेग, वह घोड़ा था जिसने रेलगाड़ी को हराया। यह कहानी 1840 के दशक की है, जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था। 


एक किस्सा है कि  अंग्रेज अफसरों ने टीकमगढ़ से रेल निकाले के प्रस्ताव रियासत के महाराजा प्रताप सिंह जूदेव को दिया। महाराज ने अपने सलाहकारों से सलाह ली। सलाहकारों ने बताया कि रेल आने से राज्य में चोर-उच्चके बढ़ जायगे, अपराध बढ़ेगे तो महाराजा ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। जब अंग्रेज अफसरों ने महराजा को समझाया कि रेल आने से क्षेत्र का विकास होगा। तब महाराजा ने कहा कि आप की रेल से ज्यादा तेज तो हमारा घोडा दौड़ता है। महाराजा के पास  "हनुमान बेग" नाम का एक अद्भुत घोड़ा था। यह घोड़ा अपनी असाधारण गति और स्फूर्ति के लिए पूरे बुंदेलखंड में प्रसिद्ध था। उसके बारे में कहा जाता था कि जब वह दौड़ता था, तो हवा से बातें करता था, मानो उसे पंख लग गए हों।


हनुमान बेग की ख्याति जब अंग्रेज अफसरों तक पहुंची, तो वे उसकी काबिलियत से हैरान थे। उन्होंने महाराज प्रताप सिंह जूदेव से हनुमान बेग और एक रेलगाड़ी के बीच रेस करवाने की बात कही। महाराज ने यह चुनौती स्वीकार कर ली। रेस ललितपुर रेलवे स्टेशन से शुरू हुई। जैसे ही हरी झंडी दिखाई गई, हनुमान बेग ने अपनी पूरी गति से दौड़ना शुरू किया। अंग्रेज अफसर और अन्य दर्शक दांतों तले उंगलियां दबाकर इस अद्भुत दृश्य को देख रहे थे। हनुमान बेग ने अपनी गति से सभी को चकित कर दिया और रेलगाड़ी को पीछे छोड़ दिया।


यह हनुमान बेग की अंतिम दौड़ अमरता के लिये साबित हुई। रेस जीतने के बाद जैसे ही महाराज ने उसकी लगाम खींची, हनुमान बेग वहीं शांत हो गया और उसकी मृत्यु हो गई। माना जाता है कि उसने अपनी पूरी शक्ति इस दौड़ में लगा दी थी।


लेकिन मरने से पहले, हनुमान बेग ने एक ऐसा कारनामा कर दिया था जिसने उसे अमर बना दिया। उसकी इस अविश्वसनीय उपलब्धि की याद में, महाराज प्रताप सिंह जूदेव ने गणेशगंज रोड पर उसकी एक भव्य पत्थर की मूर्ति बनवाई। आज भी, गणेशगंज के लोग हनुमान बेग को एक नायक के रूप में पूजते हैं और उसकी कहानी को पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाकर खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। यह मूर्ति सिर्फ एक घोड़े की नहीं, बल्कि अदम्य साहस, गति और स्थानीय गौरव की प्रतीक है। यह कहानी टीकमगढ़ के इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और हनुमान बेग को आज भी एक किंवदंती के रूप में याद किया जाता है।


गणेशगंज गांव में स्थित शीश महल, जिसे 'बोतल हाउस' के नाम से भी जाना जाता है, अपनी अनोखी निर्माण शैली के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है। इसकी कहानी भी उतनी ही अनूठी और दिलचस्प है। शीश महल  एक्स रम की शराब की बोतलों से बना अनूठा भवन है। गणेशगंज में स्थित यह शीश महल लगभग 100 से 150 साल पुराना बताया जाता है। 


इसकी सबसे खास बात यह है कि इसका निर्माण शराब और बीयर की खाली बोतलों से किया गया है। यह अपनी तरह का संभवतः दुनिया का एकमात्र ऐसा महल है, जो इस तरह के असाधारण तरीके से बना है। इस अनोखे महल के निर्माण के पीछे कई कहानियाँ प्रचलित हैं, लेकिन सबसे प्रमुख और विश्वसनीय जानकारी के अनुसार यह महाराजा वीर सिंह जूदेव की कल्पना थी। टीकमगढ़ रियासत के तत्कालीन महाराजा वीर सिंह जूदेव (जो 1930 के दशक तक महाराजा थे) को इस अनूठे महल को बनवाने का विचार आया था। यह महल मुख्य रूप से मेहमानों के स्वागत और उनके ठहरने के लिए बनाया गया था।


 कहा जाता है कि इस महल को बनाने में ऑस्ट्रेलिया के सर विडवर्न इंजीनियर की भूमिका सबसे अहम थी। उनकी देखरेख में ही इसका निर्माण हुआ था। यह भी बताया जाता है कि सर विडवर्न खुद इसी महल में रहा करते थे। महल को बनाने के लिए हजारों की संख्या में एक्स रम की खाली शराब और बीयर की बोतलों को प्लास्टर ऑफ पेरिस का उपयोग करके एक-दूसरे से जोड़ा गया था। राजशाही के जमाने में मेहमानों को परोसी गई शराब की बोतलों का ही इसमें इस्तेमाल किया गया था।


इस महल में कुल छह कमरे, एक रसोई, सौंदर्य प्रसाधन गृह (बाथरूम) और अतिथियों के बैठने के लिए फर्नीचर भी था। आश्चर्य की बात यह है कि यह सब कुछ शराब की बोतलों से ही बनाया गया था। शीश महल अद्वितीय स्थापत्य का नमूना है। महल की दीवारों में बोतलें इस तरह से लगाई गई हैं कि वे धूप और रोशनी में चमकती हैं, जिससे यह शीशे जैसा प्रतीत होता है। यही कारण है कि इसे 'शीश महल' कहा जाने लगा। 


बोतलें और प्लास्टर ऑफ पेरिस का संयोजन ऐसा है कि यह महल गर्मियों में भी काफी ठंडा बना रहता है, जो उस समय की इंजीनियरिंग और कारीगरी का अद्भुत नमूना है। अपनी अनोखी बनावट के कारण यह महल दूर-दराज से पर्यटकों को आकर्षित करता है। विदेशी पर्यटक भी इसकी कारीगरी देखकर मुरीद हो जाते हैं।


वर्तमान स्थिति और संरक्षण का अभाव बहुत अभाव है। हालांकि इसकी सुंदरता आज भी बरकरार है, लेकिन देखरेख के अभाव में यह धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त हो रहा है। इसकी दीवारों में लगी काफी बोतलें टूट रही हैं, जिससे इस अनूठी ऐतिहासिक धरोहर के संरक्षण की आवश्यकता महसूस की जाती है।


गणेशगंज का यह शीश महल टीकमगढ़ के इतिहास की एक अद्भुत कड़ी है, जो उस दौर के महाराजाओं की कलाप्रियता और नवाचार को दर्शाता है। यह सिर्फ एक इमारत नहीं, बल्कि एक कहानी है जो स्थापत्य कला और रचनात्मकता की सीमाओं को चुनौती देती है।


तब एक पैसा, दो पैसा, पांच पैसा का चल था। चब्बनी, अठन्नी  तथा रूपया बड़ी बात थी। गांव में पैसे की जगह वस्तु के बदले वस्तु बदलते थे। गल्ले के बदले सब्जियां, मिट्टी के वर्तन, बांस की टोकरियां, फल, कुल्फी और सब कुछ मिल जाता था। सामान फेरी बालों से ख़रीदा जाता। कपड़े, सौंदर्य प्रसाधन के सामान, कांच की चूड़ियां, कंबल, चादर सभी कुछ फैरी वाले बेचते थे। जिसे आज कल क्विक कॉमर्स कहा जा रहा है। गांव में यह व्यवस्था सदियों से थी। 


गांव में मैंने कभी बेरोजगार शब्द नहीं सुना था। सब के पास काम होता था। गांव के लोग लोक कलाओं में पारंगत होते। गांव की ज़रूरत के सामान गांव में ही बनाते।  लोहे के औजार लुहार, मिट्टी के वर्तन कुम्हार, बांस के वर्तन बसोड़, चमड़े के जूते मोची, कपडे बुनकर, लकड़ी के औजार बड़ाई, सोने के गहने सुनार, तथा पण्डित कर्मकाण्ड, हवन पूजन करवाते थे। कच्छी सब्जियां उगाते, मछुआरे मछली पकड़, यादव जानवर पाल कर दूध, दही, मट्ठा और घी बनाते, किसान गल्ला, दाल उगाते, तेली तेल निकालते, दर्जी कपडे सिलते, जैन दुकान तथा बिजनेस, व्यवसाय या कारोबार करते थे। सब एक दूसरे के परिपूरक परस्पर निर्भर, एक दूसरे पर आश्रित थे। 


इस आर्थिक पारिस्थितिकी तंत्र के कारण गांव में पैसा घुमाने की व्यवस्था थी। इस से ग्रामीण अर्थ व्यवस्था में जब एक रुपया आता था तो वह दस से पन्द्रह वार घूमता था। जिससे उतने लोगों को काम मिलता था तथा उसकी आय होने से आवश्यकताओं की पूर्ति हो जताई थी।तब गांव में पैसा काम था पर इस आर्थिक पारिस्थितिकी तंत्र के कारण गांव समृद्ध थे। आज यह आर्थिक पारिस्थितिकी तंत्र टूट गया है। 


आज गांव में पैसा बहुत जा रहा है पर वह गांव की अर्थ व्यवस्था में ना घूम कर शहर आ जाता है। क्योंकि गांव के लोगों की आवश्यकताओं की सामग्री कारखानों में बनती है और शहरों में बिकती है। गांव के हुनरमन्द लोग पलायन कर शहरों में आ गए पीछे रह गये बुज़ुर्ग, बीमार, महिलाऐं और बच्चे। दूध, सब्जियां, गल्ला, पैसा सब शहर में। यह ब्रेन ड्रेन ही नहीं रिसोर्स ड्रेन भी है। ग्रामीण अर्थ व्यवस्था में झाड़ू लग गई है।  


कुशल कारीगर शहर में सस्ता मजदूर बन गया। गांव का मकान मालिक शहर में अतिक्रमण कर फुटपाथ पर सोता है। महिलाओं पर  अत्याचार बढ़ गये। बच्चे गिग वर्कर है जो डिलेवरी, चौकीदार तथा ड्राइवर है बन गये है। पैसा तथा संसाधन कुछ लोगों के हाथ में है। जो समय ख़रीद रहे है और सब समय बेच रहे है। पिछले सात दशकों से मैं इस परिवर्तन का प्रत्यक्षदर्शी हूँ। मैने अपना गांव बदलते देखा है। 




कुण्डेश्वर 


बचपन में प्रतिदिन दौड़ लगा कर कुंडेश्वर जाता और नदी में नहा कर दौड़ते वापिस आता था। हमारे गांव से लगा कुंडेश्वर का मंदिर है। इसकी  उत्पत्ति स्थानीय किंवदंतियों और प्राचीन मान्यताओं से जुड़ी हुई है। धंतीबाई की कहानी के अनुसार,, धंतीबाई नामक एक महिला धान कूट रही थी। तभी अचानक, उसकी ओखली से रक्त निकलने लगा। यह देखकर वह डर गई और उसने ओखली को एक कूड़े (ढक्कन) से ढक दिया। जब वह यह बात गांव वालों को बताने गई और वापस आकर कूड़ा हटाया, तो उसे वहां एक शिवलिंग प्रकट हुआ दिखा। यह चमत्कारी घटना ही इस मंदिर के उद्भव का कारण मानी जाती है। इस घटना के बाद, तत्कालीन महाराजा मदन वर्मन ने उसी स्थान पर कुंडेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया, जहाँ शिवलिंग प्रकट हुआ था।


एक और प्राचीन कथा इस स्थान को दैत्यराज बाणासुर से जोड़ती है, जो भगवान शिव के प्रबल भक्त थे और जिनकी राजधानी बाणपुर थी। उनकी पुत्री, उषा देवी भी शिवलिंग की भक्त थीं और उन्होंने यहीं पर भगवान शिव की आराधना की थी। कहा जाता है कि उषा आज भी भोर में भगवान शिव को जल चढ़ाने आती हैं, और शिवलिंग पर चढ़ा हुआ जल मिलता है। यह भी माना जाता है कि उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें कालभैरव के रूप में दर्शन दिए थे।


यह भी माना जाता है कि शिवलिंग 'कुंडा' (एक पवित्र कुंड या कुएँ) से निकला था जो बगवार क्षत्रियों, एक राजपूत वंश, का था। कहा जाता है कि बगवार सूर्यवंशी, जिन्हें 'बघवा' (सिंह पर सवार) के नाम से जाना जाता है, बहुत पहले से जामदार नदी के घने जंगल में निवास करते थे। नंदी महादेव की मूर्ति के नीचे मिली एक पाद टिप्पणी में इसकी पुष्टि होती है। यह मंदिर सदियों से पूजा का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है, जिसे विभिन्न शासकों का संरक्षण प्राप्त हुआ। 


राजा वीर सिंह देव (1605-1627): ओरछा के एक प्रसिद्ध शासक, राजा वीर सिंह देव, जो अपने सिद्धांतों और निर्माण के प्रति जुनून के लिए जाने जाते थे, ने कुंडेश्वर मंदिर के निर्माण और विकास को बहुत संरक्षण दिया। उन्होंने एक ताम्रपत्र 'राजज्ञा' (शाही फरमान) के माध्यम से बगवार वंश को "पंडा" या "कुंडेश्वर महादेव के पंड्या" की उपाधि भी प्रदान की, जिससे उनकी राजपूत वंशावली को मान्यता मिली। राजा महेंद्र विक्रमादित्य और महाराजा महेंद्र सवाई प्रताप सिंह जू देव जैसे बाद के शासकों ने भी 1947 में भारत गणराज्य में राज्य के विलय होने तक मंदिर का संरक्षण जारी रखा।


अब मंदिर का प्रबंधन 1980 में स्थापित श्री आशुतोष अपर्णा धर्मसेतु लोक न्यास द्वारा किया जाता है। मंदिर की स्थापत्य शैली चंदेल वंश के मंदिरों से प्रभावित मानी जाती है, जो 9वीं से 13वीं शताब्दी के बीच मध्य भारत पर शासन करते थे। पत्थरों पर बारीक और सुंदर नक्काशी उस समय की कला का अद्भुत नमूना पेश करती है। मंदिर के चारों ओर देवी-देवताओं की मूर्तियां पत्थरों पर उकेरी गई हैं।


मंदिर की एक अनूठी विशेषता यह है कि गर्भगृह के अंदर एक भूमिगत जलधारा प्राकृतिक झरने से होकर गुजरती है, जिससे एक शांत और रहस्यमय वातावरण बनता है। भक्तों का मानना है कि इस जल में शुद्धिकरण और उपचार के गुण हैं।

कुंडेश्वर का शिवलिंग स्वयंभू माना जाता है, जिसका अर्थ है कि यह स्वयं प्रकट हुआ है। इसे "13वां सिद्ध शिवलिंग" भी कहा जाता है और यह देश-दुनिया में आस्था का केंद्र बना हुआ है। एक लोकप्रिय मान्यता यह भी है कि कुंडेश्वर का शिवलिंग हर साल चावल के दाने के आकार के बराबर बढ़ता है। 1937 में, टीकमगढ़ रियासत के तत्कालीन महाराज वीर सिंह जूदेव द्वितीय ने शिवलिंग के आस-पास खुदाई करवाई थी, और खुदाई में हर तीन फीट पर एक जलहरी मिली थी।


कुंडेश्वर मंदिर भक्तों के लिए अत्यधिक आध्यात्मिक महत्व रखता है। भगवान शिव को समर्पित वार्षिक त्योहार महाशिवरात्रि यहां बड़े उत्साह के साथ मनाई जाती है। हजारों भक्त विशेष प्रार्थनाओं, अनुष्ठानों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए एकत्रित होते हैं। कुंडेश्वर में सालाना तीन बड़े मेले लगते हैं। 


एक महत्वपूर्ण मेला मकर संक्रांति के अवसर पर पौष/माघ (जनवरी) महीने में आयोजित होता है। दूसरा बसंत पंचमी पर और तीसरा कार्तिक एकादशी पर (अक्टूबर/नवंबर) आयोजित होता है। बरसात के मौसम की समाप्ति के दिन, महादेव को कुंड में जल विहार कराने का एक अनोखा "जल विहार महोत्सव" भी मनाया जाता है। माना जाता है कि महादेव स्वयं कुंड में जल विहार लेकर तालाब के जल को शुद्ध करते हैं। मंदिर का जमड़ार नदी के किनारे स्थित होना इसके सुरम्य और आध्यात्मिक परिवेश को बढ़ाता है, पास में 'बारीघर' और 'उषा जलप्रपात' जैसे पिकनिक स्थल भी हैं।


मेले के अवसरों पर हम लोग गांव से झुण्ड बना कर जाते। कभी पैदल तो कभी बैलगाड़ी से। बैलों को खूब सजाते। रास्ते में अन्य बैलगाड़ियों से दौड़ लगते। साथी लोकगीत गाते। साथ में घर से खाना बना कर ले जाते थे। नदी की किनारे बैठ कर सभी साथ में खाना खाते। मेले में सामान खरीदने को पैसा मिलता था तो घूम-घूम कर सामान खरीदते। सर्कस देखते। बड़े गोल झूलों पर झूलते। बड़ा मजा आता। मैने कक्षा पांच तक की पढ़ाई गांव के स्कूल में ही की। 


टीकमगढ़ 

कक्षा छह से पढ़ाई के लिया गोपाल मन्दिर स्कूल टीकमगढ़, में प्रवेश लिया था। जहां से हमने आठवीं तक पढ़ाई की, ​​हायर सेकेंडरी की पढ़ाई हायर सेकेंडरी स्कूल से पूरी की। में हमेशा पढ़ने में औसत विद्यार्थी रहा था। कभी फेल नहीं हुआ पर कभी फर्स्ट भी नहीं आया। इन सालो में मैं बहुत इन्ट्रोवर्ट छात्र था। केवल में राष्ट्रीय कैडेट कोर का सदस्य था। मुझे ड्रेस हमेशा से आकर्षित करती रही।मैं ज्यादातर समय खेत पर ही बिताता था। 


मेरी दिलचस्पी हमेशा इतिहास में रही है। टीकमगढ़, मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में स्थित एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध शहर है। इसका इतिहास सदियों पुराना है और यह बुंदेला राजवंश के शौर्य, स्थापत्य कला और सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक रहा है।


पश्चिमी बुंदेलखंड में प्राचीन काल में वाकाटक ब्राह्मणों का शासन था, जिनका मूल केंद्र बेतवा नदी के तट पर स्थित वाधाट था। ये प्रतापी राजा थे और मड़खेरा में उनके द्वारा बनवाया गया सूर्य मंदिर आज भी दर्शनीय है। वाकाटक, गुप्त और नाग राजा समकालीन थे।प्राचीन काल में बुंदेलखंड तपस्वियों की तपोभूमि के रूप में विख्यात था। कालपी में व्यास ऋषि का आश्रम और चित्रकूट-कालिंजर के पास वाल्मीकि ऋषि का निवास माना जाता है।


कालांतर में यहां चेदी राजाओं का शासन रहा, जिसके बाद नागों का राज्य आया। इनकी राजधानी नागाभद्र (नागौद) थी। नाग राजा शैव भक्त थे और उनका राज्य कला व संस्कृति में उच्च कोटि का था। इनकी सत्ता सिंधु नदी के किनारे शिवपुरी क्षेत्र तक थी। सिंधु के किनारे पर पवा इनकी दूसरी राजधानी थी। रामायण काल में यह क्षेत्र भगवान रामचंद्र जी के पुत्र कुश के अधीन था, जिसकी राजधानी कुशावती (वर्तमान में कालिंजर के पास लव पुरी, जो रामचंद्र जी के ज्येष्ठ पुत्र लव के अधीन थी) थी। महाभारत काल में यह क्षेत्र करुषपुरी के नाम से विख्यात था, जहां दलाकी-मलाकी राजाओं का राज्य था।


बुंदेला राजवंश का उदय (ओरछा रियासत) बुंदेला राजवंश की उत्पत्ति 11वीं शताब्दी में मानी जाती है। कहा जाता है कि एक राजपूत राजकुमार ने विंध्यवासिनी देवी को अपना बलिदान दिया, और देवी ने उन्हें रोककर 'बुंदेला' (वह जिसने रक्त अर्पित किया) नाम दिया।


ओरछा की स्थापना (16वीं शताब्दी): 1531 ईस्वी में रुद्र प्रताप सिंह बुंदेला ने ओरछा राज्य की स्थापना की। उन्होंने गढ़ कुंडार से अपनी राजधानी बेतवा नदी के किनारे ओरछा में स्थानांतरित की और यहीं पर किले और महलों का निर्माण शुरू करवाया। यह बुंदेला राजवंश का सबसे प्रमुख और पहला राज्य था।


वीर सिंह जूदेव (17वीं शताब्दी): ओरछा के सबसे प्रसिद्ध शासकों में से एक राजा वीर सिंह जूदेव थे, जिन्होंने जहांगीर महल और सावन भादों महल जैसे कई सुंदर महलों का निर्माण कराया। उनके शासनकाल में स्थापत्य कला अपने चरम पर थी।


1783 में, ओरछा राज्य के तत्कालीन शासक राजा विक्रमजीत सिंह बुंदेला ने ओरछा से भागकर टेहरी को अपनी नई राजधानी बनाया।


महाराजा वीर सिंह जूदेव एक कृष्ण भक्त थे। उन्होंने भगवान श्री कृष्ण के एक नाम 'टीकम शाह' के आधार पर टेहरी के किले और नगर का नाम 'टीकमगढ़' रख दिया। इस प्रकार, टेहरी को औपचारिक रूप से टीकमगढ़ के रूप में जाना जाने लगा। टीकमगढ़ अपने विशाल किलों, महलों और मंदिरों के लिए प्रसिद्ध हुआ, जो बुंदेला वास्तुकला की भव्यता को दर्शाते हैं। यहां के शासकों ने कला, संस्कृति और धर्म को विशेष संरक्षण दिया।


महाराजा प्रताप सिंह जूदेव (1874-1930) जैसे बाद के शासकों ने भी सिंचाई परियोजनाओं और इंजीनियरिंग कार्यों में महत्वपूर्ण योगदान दिया। गणेशगंज में निर्मित शीश महल (बोतल हाउस) और हनुमान बेग घोड़े की मूर्ति इसके उदाहरण हैं। 1805 में ब्रिटिश हस्तक्षेप: 1811 में, ओरछा राज्य ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन बुंदेलखंड एजेंसी का हिस्सा बन गया।


1857 के सिपाही विद्रोह से 15 साल पहले, 1842 में बुंदेलखंड में एक बड़ा विद्रोह हुआ, जिसे 'बुंदेला विद्रोह' के नाम से जाना जाता है। सागर-नर्बदा क्षेत्रों के असंतुष्ट जमींदारों और सरदारों, विशेषकर चंद्रपुर के जवाहर सिंह और नरहट के मधुकर शाह बुंदेला ने ब्रिटिश कर नीतियों और अन्याय के खिलाफ विद्रोह किया। यह विद्रोह लगभग एक साल तक चला और इसे ब्रिटिश शासन के खिलाफ शुरुआती महत्वपूर्ण प्रतिरोधों में से एक माना जाता है, हालांकि इसे अंततः दबा दिया गया।


1857 के सिपाही विद्रोह के दौरान, ओरछा रियासत (टीकमगढ़) ने अंग्रेजों का साथ दिया था। रानी लाड़ई रानी ने अंग्रेजों को समर्थन दिया, जबकि कई अन्य रियासतों ने विद्रोह में भाग लिया था। 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, ओरछा रियासत को 1 जनवरी 1950 को भारतीय संघ में मिला लिया गया। यह विंध्य प्रदेश राज्य का हिस्सा बना और फिर 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के साथ मध्य प्रदेश राज्य का हिस्सा बन गया।


टीकमगढ़ आज भी अपनी गौरवशाली विरासत और स्थापत्य चमत्कारों को संजोए हुए है। यहां के किले, मंदिर और झीलें बुंदेलखंड के समृद्ध इतिहास की गाथा कहती हैं। कुंडेश्वर मंदिर, ओरछा के महल और मंदिर, और जिले भर में फैली अन्य ऐतिहासिक इमारतें इसे पर्यटन और ऐतिहासिक अध्ययन का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनाती हैं।


मैने उच्च शिक्षा स्नातक के लिये शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, टीकमगढ़  एडमिशन लिया था। यह जिले का प्रमुख और सबसे पुराना सरकारी कॉलेज है। शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, टीकमगढ़ की स्थापना 1958 में हुई थी। यह कॉलेज उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक मील का पत्थर साबित हुआ, खासकर बुंदेलखंड के ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों के छात्रों के लिए। इसकी स्थापना का मुख्य उद्देश्य गरीब, वंचित और पिछड़े वर्ग के लोगों को शिक्षा प्रदान करना था। यह कॉलेज शुरुआत से ही डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से संबद्ध रहा है। बाद में मेरे समय अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा से संबद्ध रहा। फिर डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से संबद्ध हो गया। 


टीकमगढ़ में स्थित शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय मेरे समय दो जगह लगता था।  एक पुरानी ऐतहासिक "ताल कोठी" इमारत है, जिसका संबंध ओरछा रियासत और क्षेत्र की शैक्षिक विरासत से रहा है। यह इमारत अपने आप में कई कहानियाँ समेटे हुए है। ताल कोठी का निर्माण ओरछा रियासत के राजा प्रताप सिंह (संभवतः महाराजा वीर सिंह जूदेव के बाद के शासक) ने करवाया था।इसे झील के किनारे बनाया गया था, इसलिए इसे "ताल कोठी" कहा जाने लगा। यह उस समय के राजाओं की सौंदर्य और प्रकृति प्रेम को दर्शाता है, जहाँ वे विश्राम और चिंतन के लिए ऐसी जगहें बनवाते थे।


1956 में जब मध्य प्रदेश का गठन हुआ, तो ताल कोठी को शिक्षा के लिए समर्पित कर दिया गया। इसी परिसर में टीकमगढ़ का पहला पीजी कॉलेज (वर्तमान शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, टीकमगढ़) खुला। ताल कोठी का भवन ही कॉलेज का प्रशासनिक भवन बन गया। यह उस समय उच्च शिक्षा के विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। मेरे समय इस भवन में साइंस संकाय की कक्षाएं लगती थी। कला तथा वाणिज्य संकाय नये भवन में लगता था।


टीकमगढ़ का शासकीय देवेंद्र पुस्तकालय संभवतः देश के सबसे पुराने पुस्तकालयों में से एक है, जिसकी स्थापना राजशाही दौर में लोगों को साहित्य और शिक्षा के प्रति जागरूक करने के लिए की गई थी।


ताल कोठी का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है "ओरछा स्टेट लाइब्रेरी"  जिसकी सन् 1932 में तत्कालीन ओरछा नरेश महाराजा मधुकर शाह द्वितीय ने स्थापना की थी। यह लाइब्रेरी उस समय साहित्य और विचारों का एक प्रमुख केंद्र थी। इसमें हजारों की संख्या में किताबें और दुर्लभ पांडुलिपियां (हस्तलिखित ग्रंथ) सजी हुई थीं। यह ज्ञान का एक विशाल खजाना था, जिसमें सदियों पुराना साहित्य और शोध सामग्री मौजूद थी। राजा प्रताप सिंह ने इस भव्य कोठी को ज्ञान के प्रसार के लिए समर्पित किया था, जो उनकी दूरदर्शिता और शिक्षा के प्रति उनके समर्पण को दर्शाता है।


मैं जब पहली बार अपनी कक्षा में गया तो वह पचास से अधिक लड़कों और लड़कियों की कक्षा थी। यह को -एड कालेज था। अभी तक की मेरी शिक्षा लड़कों के स्कूल में ही हुई थी। स्कूल के दिनों के हम तीन दोस्त थे। हम कक्षा की आखरी बेंच पर बैठते थे। बहुत शर्मीले, दब्बू तथा डरे हुए । 


एक दिन मुझे अपनी एक मार्कशीट अटेस्ट करवानी थी। मैं किसी प्राध्यापक को नहीं जनता था। मैंने सोचा कि बाकी सभी विषयों की कक्षाओं में आखरी बैंच पर बैठता हूँ तो वह प्राध्यापक मुझे नहीं पहचानते होंगे। मैं भूगोल की कक्षा में सामने की सीट पर बैठता था तो मुझे लगा कि भूगोल के प्राध्यापक मुझे जानते होंगे। उनका नाम रमेश चन्द त्रिपाठी था। वे भूगोल विभाग के विभागाध्यक्ष थे। मैं एक दिन हिम्मत करके उनके कमरें में गया। 


त्रिपाठी जी ने कहा- "आओ रवीन्द्र बैठो। " जब उन्होंने मुझे नाम से बुलाया तो मुझे मन ही मन बहुत अच्छा लगा। मुझमें हिम्मत आ गई कि चलो इन्हें मेरा नाम तो पता है। हालांकि कक्षा में रोज हजारी नाम बुलाकर होती थी। 


त्रिपाठी जी- "बताओ कैसे आये?"


मैने गला साफ करते नज़ारे ऊपर उठा कर उन्हें देखा- "सर ! मार्कशीट अटेस्ट करवानी थी।"


उन्होंने पैनी निगाहों से मुझे देखा "ठीक है।" मैं उन पैनी नजरों से सहम गया। मैने नजरें नीचे कर ली। वह मेरी दुविधा समझ गये। 


बोले- "यह बताओं कालेज में इतने लोग है तुम उनके पास नहीं गए। मेरे ही पास क्यों आये?"

मैने बोलना ठीक नहीं समझा। 


मैने कहा "सर ! बाकी कक्षाओं में में पीछे बैठता हूँ। मुझे लगा कि वह लोग मुझे नहीं जानते होंगे। आप की कक्षा में सामने बैठता हूँ।  मुझे लगा आप मुझे जानते होंगे।” उन्हें मेरा जवाब पसन्द आया।  


वह कुर्सी पर आगे खिसक कर बैठ गये। मुझे दिख कर बोले- "लोग पांच साल कालेज में कुत्ता, बिल्ली की तरह गुजार कर निकल जाते है। कुछ करो कि लोग तुम्हें जाने।"

मैने हिम्मत कर पूछा- सर ! क्या करें?"


त्रिपाठी जी- "लड़कियों को छेड़ो।"


"क्या?" मेरे मुँह से यकायक निकला। 


मुझे ऐसी सलाह की आशा नहीं थी शायद। 


"हाँ ! यह नहीं होगा?" त्रिपाठी जी ने कहा। 


"ठीक है तो प्राध्यापकों को मारो।" मेरा निस्तेज चेहरा देख कर उन्होंने कहा- "ठीक है तब चुनाव लड़ो।"


मेरी आंखों में उदासी देख कर बोले- "यह भी नहीं होगा। तो फिर पढ़ो, खूब पढ़ो सब तुम्हारी मार्कशीट देखते रह जाय। कुछ अलग करो। अलग चाहते हो कि लोग याद रखे तो लीक से हट कर काम करो। काम खुद बोले। तुम्हें बोलने की ज़रूरत ना रहे।"


मेरी आंखों में चमक लौट आई। मैं कुर्सी पर सीधा बैठ गया। 


उन्होंने कहा "मैं टूशन नहीं पड़ता। मैं तुम्हारी मदद करुंगा। पुस्तकालय से मेरे नाम जीतनी चाहे किताबें लो, जब चाहे मेरे घर आकर प्रश्न पूछो। मैं विद्यार्थियों से घर के काम नहीं करवाता।" "यह कर सकते हो।"


"मैंने पूर्ण आत्मविश्वास से कहा "सर ! यह कर सकता हूँ।" यह मेरे जीवन का पहला मोड़ था। 


उन्होंने कहा- "भूगोल के प्रैक्टिकल में मैं तुम्हें सबसे कम अंक दूँगा। तुम्हें बैसाखियों पर नहीं चलाना चाहता। नहीं तो लोग कहेंगे तुम प्रैक्टिकल के अंकों के कारण टॉप कर रहे हो।"


उस दिन से मेरा जीवन बदल गया। यह मेरे जीवन का पहला मोड़ था। मैं पढ़ाई में जुट गया। सर मुझे पुस्तकालय ले कर गये। 'कुछ अलग करो' वाक्य मेरे जीवन का टर्निंग पॉइंट बन गया। मेरी दिनचर्या थी सुबह आठ बजे घर से कालेज कक्षा में जाना उसके बाद पुस्तकालय जाना, फिर परेड करना, शाम को अंग्रेजी की ट्यूशन पड़ना। त्रिपाठी सर के घर जाना फिर लौटना। 


त्रिपाठी सर ने मुझे विवेकानंद सोसाइटी, अरविन्द सोसाइटी का सदस्य बनवाया। शहर के हर कार्यक्रम में भाग लेने की प्रेरणा दी। इस सब से मेरे व्यक्तित्व में बहुत परिवर्तन आ गया। मैं अब इंट्रोवर्ट,अंतर्मुखी से एक्सट्रोवर्ट, बहिर्मुखी हो गया। मैं एक ऐसा व्यक्ति बन गया जो सामाजिक रूप से सक्रिय और उत्साही था। मुझे दूसरों के साथ बातचीत करने में आनंद आने लगा। 


मैं अब पढ़ाई के साथ नाटक करता, तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता में भाग लेता। राष्ट्रीय कैडेट कोर में सीनियर अंडर ऑफिसर बन गया। राष्ट्रीय सेवा योजना का संयोजक बन गया। कैम्प लगाने लगा। गांव में प्राकृतिक चिकित्सा का केंद्र खोला। जब हमारा फर्स्ट ईयर की परीक्षा का रिजल्ट आया तो मैंने  कालेज की सभी फैकल्टी में सर्वाधिक नम्बर लाया। मेरी कक्षा के लड़के और लड़कियां मुझे ढूंढने लगी। 


हम लोग कॉलेज में वार्षिक उत्सव के समय नाटक करते थे। मैंने स्वर्ग में इतवार, पन्ना धाई, रीढ़ की हड्डी जैसे अनेक नाटक लिये। नाटक में लड़कों के साथ लड़कियां भी भाग लेती थी। नाटक की रिहर्सल कई दिन हमारे अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर के घर होती थी। वह नाटकों का निर्देशन करते थे। 


तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता मेरी बहुत फेवरेट प्रतियोगिता थी। उसमें विषय अचानक पर्ची पर निकलता था। तत्काल आपको उस विषय के पक्ष या विपक्ष में बोलना होता था। मेरा मुकाबला मिस गोयल से होता था।  कभी वह फर्स्ट आती अभी मैं आता। इस प्रतियोगिता के कारण मुझे  बहुत सारे कुटेशन, कविताएं, गजल, गीत, मुहावरे तथा कहावतें, किस्से, कहानियां तथा चुटकुले याद हो गये थे।सार्वजनिक रूप से मंच पर बोलने का अच्छा अभ्यास हो गया था। 


मुझसे दोस्ती करना चाहते। मेरे नोट्स ले कर पड़ते। धीरे-धीरे सभी प्राध्यापक मुझे जानने लगे। मैं फेमस हो गया था। मुझे भी मजा आ रहा था। मैंने सफलता का स्वाद चख लिया था। त्रिपाठी सर के कारण पढ़ाई से फोकस नहीं हटा। अगली साल मैंने अपने रिजल्ट को दुहराया। 


मेरी शादी का किस्सा बहुत अनूठा है। जब में सातवीं कक्षा में था मेरे पिता जी का स्वर्गवास हो गया। मेरे चाचा ने परिवार की जिम्मेदारी सम्हाली। लेकिन बैंक में मेनेजर होने के कारण वह घर से बाहर ही पोस्टिंग पर रहते। कभी-कभी छुट्टियों में घर आते। घर का काम दादी देखती थी। हम भाई क्या विषय ले रहे कहां एडमिशन ले रहे यह निर्णय खुद लेने की आजादी थी। कोई रोकटोक नहीं थी। सब तरह की सुविधाऐं थी जैसी उस समय गांव के माध्यम वर्गीय परिवार में होती थी। गांव में हमारा परिवार सबसे धनी, साधन सम्पन्न परिवार था। पड़ोसियों से झगड़े होना आम बात थी। सभी पस्तोर परिवार के लोग थे। 


जब हम फर्स्ट ईयर का छात्र था मेरी शादी की बात चलने लगी। बुन्देलखण्ड में उन दिनों लड़के की योग्यता न देख कर परिवार की हैसियत देख कर शादियां होती थी। परिवार के रिश्तेदारों के अलावा नए तथा पण्डित शादियों को तय करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। लड़का, लड़की देखी जाती। कुण्डली, कुल गौत्र का बहुत महत्त्व था। तो कभी-कभी मुझे लड़की वाले देखने आते। मैं घर पर नहीं मिलता तो मेरे कालेज आते। मेरे टीचर क्लास में मेरा नाम बुलाकर कहते भैय्या बाहर तुम्हें लड़कीवाले देखने आये है। क्लास के सभी लड़के, लड़किया हंसते मजाक बनाते थे। यह लगभग हर महीनें दुहराया जाने लगा। मेरी दादी चाहती थी कि उनके मरने के पहले वह अपने पोते का मुंह देख कर मरे। 


शादी का फैसला चाचा जी को करना था। वह अक्सर कोई न कोई कमी निकल कर रिश्ता तोड़ देते थे। उनके अपने मापदण्ड थे। उनका अरमान मेरी शादी धूमधाम से करने का था। मेरी दादी की चाचा जी से अक्सर बहस होती रहती थी। मेरी शादी में मेरी कोई भूमिका नहीं थी। मुझे पितृऋण चुकाना था खानदान के वंश को चलाने में अपना योगदान देना था। इस समय में पढ़ रहा था। एक दिन दादी तथा चाचा जी में बहुत बहस हुई। दादी ने बहुत चुभती बात चाचा जी को कह दी कि इसका बाप नहीं है। इस कारण तुम इसकी शादी नहीं कर रहे हो। चाचा जी को यह बात बहुत बुरी लगी और उन्होंने कहा कि आज जो रिश्ता आयेगा वह शादी निश्चित कर लेंगे। 


यह बहस सुबह हुई थी। दोपहर उस दिन टीकमगढ़ के चतुर्वेदी परिवार से रिश्ता आया और चाचा जी ने मेरी शादी तैं कर दी। बहुत धूमधाम तथा बड़े अरमानों से उन्होंने मेरी शादी की। शादी की बारात टीकमगढ़ मेरे मोहल्ले में ही जाना थी। तीन दिन बारात लड़की के घर रुकी। मेरे पुरे गांव के लोग तथा पुरे काजेज के सभी लड़के, लडकियां बारात में आये। मेरी दादी का यह सबसे अच्छा निर्णय था। जब में एम ए प्रीवियस में था मेरा पहला लड़का पैदा हुआ। 


मुझे याद है उस दिन मेरा पेपर था तो मेरे छोटे भाई ने पूरी व्यवस्था देखी। दादी खुश थी उनका पोता आ गया था। जब छोटे में शादी होती है तो पति-पत्नी में विवाद नहीं होते। दोनों एक ही परिवार में पलते बढ़ते है। उनकी आदतें, पसन्द नापसन्द एक जैसी होती। घर्म मान्यतायें सामान होती। दोनों परिवारों की आर्थिक स्थिति एक जैसी होती। जल्दी बच्चा होने से जब आप जवान होते है तो बच्चे की जिम्मेदारी अच्छे से पूरी कर पाते थे। मुझे इस का बहुत फायदा मिला।  मेरे दोनों बच्चे समय पर सेटिल हो गये।  


मेरे स्नातक के अंतिम वर्ष में देश में इमरजेंसी लागू हो गई। कालेज की छात्र यूनियन के चुनाव रोक दिये गए। मेरिट के आधार पर छात्र यूनियन बनाने लगी। मेरे अंकों के आधार पर मुझे जनरल सेक्रेटरी नामांकित किया गया। अगले साल मैंने भूगोल से एम ए  करने के लिये एडमीशन लिया। तब मुझे छात्र संघ का प्रेसीडेंट बनाया गया। यूनिवर्सिटी में बोर्ड ऑफ़ स्टडीज का सदस्य नियुक्त किया गया। जय प्रकाश आन्दोलन से जुड़ गया। सर्वोदय आंदोलन में काम करने लगा। एम ए अन्तिम वर्ष में मुझे यूनिवर्सिटी के छात्र संघ का अध्यक्ष नामांकित किया गया। क्योंकि पूरी यूनिवर्सिटी की सभी फैकल्टी में मेरे सर्वाधिक अंक थे। मुझे गोल्ड मैडल दिया गया। 


जब में कॉलेज की यूनियन का प्रेसीडेंट था तो उस वर्ष मुझे अपने प्रिंसिपल के अनेकों बार मिलाना होता था। उनकी पांच बेटियां थी। जब भी छात्रों की किसी समस्या पर उनसे बात करो तो वह हमेशा अपनी बेटियों की समस्या बताने लगते। कभी उनकी पढ़ाई तो कभी शादी। मैं परेशान हो गया था। तो एक दिन जब उन्होंने उनकी बेटियों की शादी की बात निकाली तो मैंने कहा सर ! आप प्रिंसिपल है। कॉलेज में सैकड़ों लड़के है यदि आप को एक पसंद न हो तो दो-दो से शादी कर सकते है। उस दिन से उन्होंने यह बात फिर नहीं उठाई।  


कॉलेज के वार्षिक समारोह का समय आने पर छात्रों ने फ़िल्मी गीत गाने बाले आर्केस्ट्रा को बुलाने का सुझाव दिया। मैंने कहा कवि सम्मेलन आयोजित करेंगे।  भारी विरोध के बाद मेरी बात इस शर्त पर मानी गई कि गोपाल दास नीरज जी को बुलाया जाए। मैंने हाँ कर दी। उन्हें आमंत्रण भेजा गया। उन्होंने दो और कवयित्रियों को बुलाने की शर्त राखी।  बजट काम था लेकिन दूसरे खर्च काम कर उन्हें भी  आमंत्रण भेजा गया।  सब ने सहमति लिखित भेज दी। कवि सम्मेलन के दिन नीरज जी नहीं आये।  कैम्पस में हंगामा हो गया। बड़ी मुश्किल से कार्यक्रम हो सका। 


मेरे दोस्त के भाई तथा उनके दो साथियों ने शराब पीने के पैसे मांगे। उन्होंने हंगामा शांत करवाया था। मैंने बहुत मना किया पर उन्होंने बहुत जिद की। मुझे पैसे देने पड़े। वह शराब पीने दो मोटरसाइकिलों पर गये। बाद स्टैण्ड की दुकान पर शराब पी कर जब मोटरसाइकिलों से लौट रहे थे तो सड़क की ढलान पर स्पीड बहुत तेज थी। दोनों आस-पास चल रहे थे। हिलने पर उनके हेंडिल भिड़ गये। दोनों मोटरसाइकिलों नीचे गिरी। सभी को चोट आई। लेकिन एक लड़के की रीढ़ की हड्डी टूट गई। उसने अपनी पूरी जिन्दगी बिस्तर पर गुजारी। नई-नई शादी हुई थी, परिवार की खुशियां हमेशा के लिये छिन गई। 


 'कुछ अलग करो' वाक्य के कारन हर साल मुझे कालेज के वार्षिक उत्सव में बहुत प्रमाण पत्र तथा इनाम मिलते। मैंने राष्ट्रीय कैडेट कोर में "सी सर्टिफिकेट" हासिल किया। आर्मी अटैचमेंट किया तथा जूनियर कैडेट्स को पढ़ाया। राइफल शूटिंग में भाग लिया। यह सब डॉट्स जुड़ते गये जो मेरी जिंदगी में बहुत काम आये। 


जब में बोर्ड ऑफ़ स्टडीज का सदस्य था तब बैठकों में भाग लेने की लिये अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा जाना होता था। टीकमगढ़ से रात को बस रीवा जताई थी। उसी बस से यात्रा करना होती। रात भर बस की यात्रा बहुत थकान बाली होती थी। सुबह बस रीवा पहुंचती। रीवा बस स्टैण्ड पर एक धर्मशाला में ठहरता था। धर्मशाला के कमरे बहुत छोटे थे। सबसे मजेदार था पाखाना। कमरों की लम्बी लाइन। कमरे में पखाने में बैठने की जगह। नीचे खुला गड्डा होता था। जहां सुअर रखे जाते। जब पैखाना निचे गिरता सूअर उसे खा कर साफ करते थे। ऐसी व्यवस्था मैंने पहलीबार देखी थी। उन दिनों सर पर मैला ढोने की प्रथा थी। जाति विशेष के लोग यह काम करते थे। मुख्यतः महिलायें। 


बाद में सरकार ने सर पर मैला ढोने की प्रथा को गैर क़ानूनी घोषित कर बंद करवाया। बोर्ड ऑफ़ स्टडीज कमेटी का मुख्य काम था भूगोल विषय का पड़ने के लिए सिलेबस /कोर्स निर्धारित करना। तो कमिटी में भूगोल विषय के प्राध्यापक सदस्य थे। बैठक की अध्यक्षता यूनिवर्सिटी के वाईस चांसलर करते थे। परीक्षा में सर्वाधिक मार्क्स लाने के कारन में अकेला स्टुडेंट्स का प्रितिनिधि था। जब पहलीबार यूनिवर्सिटी के प्रशासनिक भवन में गया तो देखा गलियारों में बोरों में परीक्षा की कापियां बिखरी पड़ी है। लोग उन्ही बंडलों पर से आना जाना कर रहे थे। यह बात जब की है तब रीवा यूनिवर्सिटी किराये के भवन में चलती थी जगह की कमी थी। 


मुझे परीक्षा की कापियाों की ऐसी दशा देख कर बहुत बुरा लगा। कमेटी में भूगोल के रीवा के विभागाध्यक्ष डॉ. श्रीवास्तव थे। मैंने उनसे पूछा कि अगर किसी की कॉपी खो जाय तो फिर क्या होता है। उन्होंने बताया कि तब यूनिवर्सिटी उस समय जो औसत अंक है वह विद्यार्थी को दे का र रिजल्ट घोषित कर देती है। में शायद किस्मत बाला था। कि मेरी कॉपी कभी नहीं खोई थी। मैं हमेशा परीक्षा में बहुत तेजी से लिखता था और तीन सप्लीमेंटरी कापियां भर देता था। एक बैठक में वाईस चांसलर साहब ने मुझे चाय पीने को दी। तब मैं चाय नहीं पीता था। उन दिनों चाय पीना अच्छा नहीं माना जाता था खासकर स्टूडेंट्स के लिये। वाईस चांसलर सिंह साहब ने मुझे मिठाई खाने के लिए पांच रुपये दिये। 


यूनिवर्सिटी के प्रोस्पेक्टस की बुकलेट में विषय के कोर्स के चैप्टर्स के साथ सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में ऐसी किताबों की सूची छपती थी जिन्हें स्टूडेंट्स को पड़ने की लिए यूनिवर्सिटी रिकमंड कराती थी। इस सूचि में उनकी किताब का नाम जुड़वाने के लिए बहुत से सीनियर प्राध्यपक जिन्होंने किताबें लिखी थी मुझसे सम्पर्क करते थे। इस कारण धीरे-धीरे मैं भूगोल विषय के बहुत से सीनियर्स को जानने लगा था। बोर्ड ऑफ़ स्टडीज कमेटी ऐसे प्राध्यपकों की सूची भी निर्धारित करती थी जो दूसरे कालेज में जा कर वाह्य/एक्सटर्नल परीक्षक होंगे। यह परीक्षक वायवा /मौखिक परीक्षा लेते थे। जिस के अंक मुख्य रिलज्ट में जुड़े होने से स्टूडेंट्स की मैरिट लिस्ट बनती थी। मेरा नाम हमेशा मैरिट लिस्ट में रहा। 


युनिवर्सिटी की बोर्ड ऑफ़ स्टडीज कमेटी तथा बाद में युनिवर्सिटी की छात्र यूनियन का प्रेसिडेंटस होने के कारण मुझे बैठकों में भाग लेने की लिये रीवा जाना होता था। इस बैठकों में भाग लेने के कारण मुझे युनिवर्सिटी के प्रशासकीय काम काज को समझने तथा अंदर से देखने, जानने, समझने का मौका मिला। रीवा बघेलखण्ड में स्थित है और टीकमगढ़ बुन्देलखण्ड में स्थित है। बघेलखण्ड  बनाम बुन्देलखण्ड  की हमेशा प्रतिस्पर्धा रही है। 


एक बैठक के दौरान  बघेलखण्ड निवासी एक प्रोफ़ेसर ने मुझसे कहा था कि तुम बुन्देलखण्ड के हो कर मैरिट में कैसे आ सकते हो। क्योंकि बघेलखण्ड के लोग कभी नहीं चाहते कि बुन्देलखण्ड के स्टूडेंट्स रीवा बघेलखण्ड की यूनिवर्सिटी में टॉप करें। तब मैने इस राजनीति को जाना। क्षेत्र बाद से यह मेरा पहला अनुभव था। जो बघेलखण्ड रीवा का स्टूडेंट मेरा प्रतिद्वन्दी था उसके मार्क्स मुझसे पन्द्रह प्रतिशत कम थे। इसलिये बघेलखण्ड के लोग चाह कर भी कुछ नहीं कर सके और मैं मेरिट में टॉप करता रहा। 


मुझे हमेशा छात्र वृति मिलती जिससे पढ़ाई का खर्च निकल जाता था। मैंने जब स्नातकोत्तर डग्री पूर्ण की  तब अंतिम समय में इमरजेंसी समाप्त हो गई थी। तब कुछ छात्र परीक्षा बढ़ाने के लिये आंदोलन करने लगे। मैं परीक्षा समय पर करवाने का पक्षधर था।  लेकिन छात्रों के दवाब के कारण मुझे छात्र आंदोलन में भाग लेना पड़ा। तब पुलिस ने हम लोगों को शांति भंग करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था। उस समय लगा था कि भविष्य का कैरियर खतरे में हो गया। आखिरकार समय पर परीक्षा हुई और मैंने बहुत अच्छे मार्क्स से एम ए पास कर लिया। इस समय मेरी उम्र बीस वर्ष थी तब त्रिपाठी सर ने एम फिल करने की सलाह दी। 


 







रायपुर 

मुझे एम फिल में पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर के भूगोल विभाग में एडमिशन के लिये रायपुर जाना था। मैं घर से कभी बाहर नहीं गया था। केवल एक बार छात्र वृत्ति के लिये ट्रैन से भोपाल गया था। परिवार के लोग चिंतित थे। कुण्डेश्वर के दीक्षित परिवार के एक सदस्य शर्मा जी रायपुर बस स्टेण्ड पर क्लच गियर सुधारने की दुकान चलते थे।  उनके नाम दीक्षित जी ने मदद करने के लिये पत्र लिख दिया था। छत्तीसगढ़ ट्रैन से सुबह रायपुर पहुंचा। रेलवे स्टेशन से रिक्शा ले कर बस स्टैंड आया। दीक्षित जी का पत्र शर्मा जी को दिया। उन्होंने नाश्ता करवाया। मैंने अपना सामान उनकी दुकान पर रख दिया। उन्होंने बताया कि पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय भिलाई रोड पर आमा नाका के पास है। आमा नाका पर रोडवेज की बसों का डिपो था। 


मैं बस स्टैण्ड से खली बस में बैठ कर आमा नाका आया। वहां से रिक्शा ले कर विश्वविद्यालय के कैम्पस में दाख़िल हुआ। तब तक लंच टाइम हो जाने से लोग बाहर टहल रहे थे। मैंने रिक्शे से उतर कर जिस आदमी से प्रशासनिक भवन के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया की सामने का भवन ही प्रशासनिक भवन है। उन्होंने ने पूछा मुझे किस विषय में एडमिशन लेना है तब मैंने  एम फिल, भूगोल बताया। 


उन्होंने अपना परिचय दिया कि वह अग्रवाल बाबू है और भूगोल की लैब के प्रभारी है। किस्मत देखिये  जिस पहले आदमी से मुलाकात हुई वह उसी "डिपार्टमेंट" का था। उन्होंने मेरी बहुत मदद की।  एडमिशन फॉर्म ले कर भरवाया, फीस जमा करवाई, होस्टल का फार्म भरवाया तथा कमर अलॉट करवा दिया। स्कॉलरशिप का फॉर्म भरवा कर जमा कर दिया। उनके स्कूटर से हॉस्टल आ कर रूम की चाबी मिल गई। उन्होंने कमरा साफ करवाया। मैं वापिस शर्मा जी के पास आया और सामान उठा कर कमरे में रात को रुका। लगभग हॉस्टल खाली था। आमा नाका जा कर सरदार जी के ढाबा पर खाना खाया और घोडा बेच कर सो गया। वाह क्या जगह है।


धीरे-धीरे होस्टल में स्टूडेंट्स आते गये। मैंने देखा जब बच्चे पहली बार होस्टल की आजादी को महसूस करते तब जो बच्चे पजामा का नाड़ा ठीक से नहीं बांध सकते वे सब तरह के नशे करते। एक तरह का नाश गुड़ाखू हर बच्चा करता था।  शुरू में मुझे लगा कि सब दिन में कई बार लाल दन्त मंजन करते है। मुझे लगा कि सब दांतों की सफाई का ध्यान रखते है। 


पर मेरे एक नये बने मित्र पुलस्त्य ने बताया कि 'गुड़ाखू'  तम्बाकू से बना नशा है तब मुझे पहली वार यह अहसास हुआ। 'गुड़ाखू' एक पेस्ट जैसा तम्बाकू है जिसका भारत के  कई राज्यों में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। उपयोग के दौरान इसे दांतों और मसूड़ों पर उंगली की नोक से रगड़ा जाता है। तम्बाकू के अलावा, इसमें गुड़, चूना, लाल मिट्टी और पानी भी होता है। पुलस्त्य होस्टल में विगत छह साल से रह रहे थे। उन्होंने अनेक विषयों में डिग्रियां पूरी कर ली थी और कई डिप्लोमा कोर्स किये थे। उनके पास होस्टल में दो रूम थे। एक रहने के लिये दूसरा कसरत के लिये। उनका शरीर बहुत बलिष्ठ था।  


सुबह डिपार्टमेंट गया। पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर का भूगोल विभाग, विश्वविद्यालय के सबसे पुराने और महत्वपूर्ण विभागों में से एक है। भूगोल अध्ययनशाला स्कूल ऑफ़ स्टडीज़ इन ज्योग्राफी की स्थापना 1965 में हुई थी। भूगोल विभाग विश्वविद्यालय के पांच सबसे पुराने विभागों (स्कूल ऑफ स्टडीज) में से एक है। एम.फिल, पाठ्यक्रम की शुरुआत, यह विभाग उन गिने-चुने भूगोल विभागों में से एक है जिसने देश में एम.फिल. पाठ्यक्रम को सबसे पहले शुरू किया। विभाग के पहले विभागाध्यक्ष प्रो. डॉ. प्रेम चंद अग्रवाल थे। 


विभागाध्यक्ष प्रो. डॉ. प्रेम चंद अग्रवाल से मिला। उन्होंने डॉ. शंकर राय, रीडर, को गाइड नियुक्त किया। डॉ राय ने मुझे समझाया एम फिल दो साल का कोर्स है।  एक साल क्लास और दूसरे साल थीसिस। अगर मेहनत करो तो एक साल में भी कर सकते हो। थीसिस एक विस्तृत, औपचारिक शोध पत्र है जो किसी विशेष विषय पर गहन शोध और विश्लेषण के बाद लिखा जाता है। इसे एक स्वतंत्र विद्वान के रूप में, किसी विषय पर मौलिक शोध करने और अपने निष्कर्षों को प्रस्तुत करने की क्षमता का प्रमाण माना जाता है। 


मैं एम ए में डिजर्टेशन लिख चुका था। डिजर्टेशन को हिंदी में शोध प्रबंध या शोध-निबंध कहते हैं। यह एक विस्तृत, औपचारिक, और लिखित दस्तावेज होता है जो किसी विशेष विषय पर गहन शोध और विश्लेषण प्रस्तुत करता है। आमतौर पर, यह मास्टर्स डिग्री के लिए आवश्यक था। 


मैंने टीकमगढ़ जिले के भूमि उपयोग बिषय पर त्रिपाठी सर के अधीन डिजर्टेशन लिखा था जो मैं साथ लाया था।  डॉ राय ने मुझे इसी बिषय पर थीसिस करवाने की सहमति दे दी। मैंने एक साल में कोर्स पूरा करने का अनुरोध डॉ राय से किया। उन्होंने मुझे रात को लैब में काम करने के लिये व्यवस्था कर दी। 


कैंपस में तरह-तरह की कहानियां सुनाई जाती थी। मेरे विभाग की लैब मेन गेट के पास थी और होस्टल वहां से लगभग एक किलोमीटर दूर कैंपस के अंत में। वहां एक बंजारी माता मंदिर था। हम सुबह माता जी को प्रणाम करने जाते। फिर क्लास होती।  दोपहर का खाना मेस में। फिर पुस्तकालय। रात को थीसिस का काम। भूगोल में आंकड़ों की गढ़ना कर टेबिल बनाना फिर कार्टोग्राफ़ी से ट्रेसिंग पेपर पर मानचित्र। बहुत टाईम लगता। 


तब आज की तरह ना तो कैलकुलेटर थे और ना कम्प्यूटर। सब काम हाथ से। आकड़ों की गाड़ना करने के लिए विभाग में एक फेसिट मशीन थी। मानचित्र ट्रेसिंग टेबिल पर स्टेंशिल्स की मदद से बनाते। प्रिंटिंग में भिजवाने के पहले टाइप राइटर पर टाइप करवाना। प्रिंटिंग प्रेस में तब एक-एक अक्षर जमा कर प्रिंटिंग के लिये फर्मा बनता। हर स्टेज पर गलतियां सुधाने का  मेहनत का काम। जरा सी गलती और पूरा पेज बेकार। 


कैंपस में मेरे सीनियर चन्द्राकर जी डॉ. शंकर राय के अधीन विगत तीन साल से पीएचडी रिसर्च कर रहे थे। धीरे-धीरे उनसे दोस्ती हो गई। उनके कमरे की हालत ऐसी थी कि महीनों में एक बार झाड़ू लगते। चाय का वर्तन दो-तीन महीनों में छोटे। पलंग के नीचे सब कुछ कपड़ा, किताबें, पुराने अखबार।


चन्द्राकर जी और मैं डॉ. शंकर राय के अधीन ही काम कर रहे थे। अपने काम के साथ-साथ डॉ. शंकर राय के द्वारा बताए काम भी हम लोग करते थे। डॉ. शंकर राय बहुत दबंग, छह फुट लम्बे, पहलवान जैसी पर्सनालिटी के मालिक थे। उनके पास बुलेट मोटर साइकिल थी। उस पर जब चलते तो पूरे हीरो लगते। वह हमारे होस्टल के वॉर्डन भी थे। उनकी एक पुत्री थी जो कभी-कभी किसी लड़के के साथ घर से भाग जाती थी। तब वह क्लास में घोषणा करते- "मेरी लड़की किसी लड़के के साथ भाग गई है। मैं उसे ढूंढने जा रहा हूँ। इसलिये आगे क्लास नहीं होगी।"


चन्द्राकर जी ने एक कहानी सुनाई कि कैम्पस में एक लड़की ने प्यार में असफल होने पर आत्महत्या कर ली थी। अब रात में उसकी पायल की आबाज कैम्पस में गूंजती है। रोज रात को दो बजे काम करके लैब से होस्टल जाता तो हनुमान चालीसा का पाठ करता। अब कह नहीं सकता कि हनुमान चालीसा का चमत्कार था या चन्द्राकर जी की कहानी झूठी थी। 


न तो कभी पायल की झंकार सुनी ना वह मिली। साल ऐसे ही काट गया। मैंने सभी पेपर अच्छे मार्क्स से पास कर लिये थे। मेरी थीसिस का कुछ काम बचा था। इस कारण गर्मियों की छुट्टियों में घर नहीं गया। थीसिस का काम करता था।  गर्मियों की छुट्टियों कारण पूरा कैम्पस तथा होस्टल खाली था। 


हम हर शनिवार को इंग्लिश मूवी देखने जाते जो ना हमें समझ आती ना सिनेमा हॉल बाले को। हम लोगों को स्टूडेंट आईडी कार्ड पर टिकिट सस्ते मिलते थे। एक बार हम लोग सिकन्दर की मूवी देखने गये तो देखा कि पहले पार्ट में सिकंदर मर रहा था और दूसरे पार्ट में पैदा हो रहा था। बाद में पता चला कि सिनेमा हॉल के लड़के से गलती हो गई थी उसने दूसरा पार्ट पहले दिखा दिया और पहला बाद में। मजेदार बात यह थी कि सिनेमा हॉल में किसी ने हल्ला नहीं मचाया। इसका मतलब था किसी को समझ नहीं आया था। 


रायपुर में गणेश उत्सव, काली माता का उत्सव की बड़ी धूम होती थी। हम लोग रात भर झांकियां देखते फिरते थे। दोस्तों के साथ मस्ती करते। हमारा एक दोस्त उड़ीसा से था। उसकी हैंडराइटिंग बहुत बढ़िया थी। वह बैगनी स्याही के पेन से लिखता था। उसकी एक प्रेमिका थी जिसकी आवाज में उसके पास एक गाना था- "तेरा मेरा प्यार अमर, फिर न जाने क्यों लगता है डर" यह गीत "असली नकली" फिल्म का था। 


वह हमेशा गाता तथा सुनता था। पास एक कैमरा था। खूब फोटो खींचता। रील डेवलप करने स्टूडियो में देता। मेरी उसने फोटो निकाली थी जो अभी भी मेरे पास है। उस ने मुझे फोटो खींचना सिखाया। तब से मुझे फोटोग्राफी का शौक लग गया। मैंने बाद में एक कैमरा खरीदा और फोटोग्राफी करने लगा। तब यह हॉबी बहुत महगी पड़ती थी। होस्टल में सब तरह के व्यसन चलते थे। लेकिन मेरे सभी दोस्त मेरे जैसे थे इसलिये मुझे किसी व्यसन की लत नहीं लगी। 


ऐसे ही गर्मियों के एक दिन में मेरे कमरे के सामने रहने बाले टेकाम के कमरे में गया। वह एक फॉर्म भर रहा था। मैंने उससे पूछा की यह क्या फॉर्म है। तब उसने बताया कि  मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग ने बहुत से खाली पदों के लिये विज्ञापन निकाला है।  वह उसी की परीक्षा का फॉर्म भर रहा है। उसने मुझे इस परीक्षा में बैठने की सलाह दी। मैंने इस दिन के पहले इस परीक्षा का नाम नहीं सुना था। 


मैंने टेकाम को बताया- "मेरा पहल लक्ष्य सेना में जाने का था। मेरी दादी इसके बहुत खिलाफ थी। तब मैंने कालेज में प्राध्यापक की नौकरी करने की सोची थी। त्रिपाठी सर की भी यही सलाह थी। तब इस पद के लिये न्यूनतम योग्यता एम फिल या पीएचडी थी।  इसी कारण मैं एम फिल कर रहा था।"


टेकाम ने पूछा- "क्या में किसी  नौकरी के लिये पहले किसी परीक्षा में बैठा हूँ ?"


"नहीं मैं किसी परीक्षा में नहीं बैठा।" मैंने जवाब दिया।  


टेकाम ने कहा कि "कालेज में प्राध्यापक की नौकरी के लिये भी मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग ही परीक्षा लेता है, तो तुम इस परीक्षा में बैठ कर अनुभव ले लो।"


मैंने उस की बात मान ली। यह मेरे जीवन का दूसरा मोड़ था। मैंने टेकाम की सलाह पर कैम्पस के पोस्ट ऑफिस से मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग का आवेदन फॉर्म ख़रीदा। मैंने अपने जीवन का पहला फ्रॉम भरा था। तो सोचा कि हमारे एक  प्राध्यापक गुप्ता सर कैम्पस में अनुसूचित जाति, जान जाति के आवेदकों को राज्य शासन की और से संचालित सेंटर पर कोचिंग देते थे। मैंने सोचा उनसे फॉर्म चैक करावा लेता हूँ ताकि कोई गलती न हो। 


मैं उनके घर फॉर्म की जांच करवाने गया। उन्होंने देखा कि मैंने केवल तृतीय श्रेणी के पदों के लिये फॉर्म भरा था। उन्होंने पूछा तो मैंने बताया कि मैं केवल अनुभव के लिए बैठ रहा हूँ। तब उन्होंने कहा जब फैल हो कर अनुभव लेना है तो प्रथम तथा द्वतीय श्रेणियों के पदों की परीक्षा दे दो। इन श्रेणियों में राज्य प्रशासनिक सेवा उप जिलाध्यक्ष / डिप्टी कलेक्टर, राज्य पुलिस सेवा उप पुलिस अधीक्षक / डीएसपी,  राज्य लेखा सेवा, वाणिज्य कर अधिकारी तथा जिला आबकारी अधिकारी जैसे पद आते है। पहले मैंने वैकल्पिक विषय में यूरोपियन हिस्ट्री विषय लिया था। अब इन कैटेगरी के लिये एक ओर विषय लेना था। मेरा गणित बहुत कमजोर था इस लिये अर्थशात्र विषय नहीं लिया। 


तब गुप्ता जी ने मेरे बी ए का हिन्दी विषय फॉर्म में लिख दिया तथा डीएसपी की जगह डिप्टी कलेक्टर को पहला प्रेफरेंस लिख दिया। उनके घर से निकल कर मैंने फॉर्म पोस्ट ऑफिस से रजिस्टर्ड डाक से भेज दिया। 


हॉस्टल में आ कर मैंने पहली बार इन चयनित विषयों का सिलेबस देखने के लिये मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग की निर्देश पुस्तिका घ्यान से पहली बार पढ़ी। मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग का गठन 1 नवंबर 1956 को राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 की धारा 118 (3) के तहत राष्ट्रपति के आदेश द्वारा किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य राज्य सरकार के विभिन्न विभागों में निष्पक्ष और योग्यता-आधारित चयन प्रक्रिया के माध्यम से योग्य उम्मीदवारों की भर्ती करना था। इसका मुख्यालय इंदौर में स्थित है। 


यूरोपियन हिस्ट्री का सबसे काम तथा हिन्दी का सबसे विस्तृत सिलेबस था। अगले दिन मैंने गुप्ता जी से शिकायत कि तो वह मुझे पुस्तकालय ले गये। उन्होंने वहां श्रीवास्तव पुस्तकालय इंचार्ज से मिलवा कर उनसे मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग के पुराने प्रश्न पत्र तथा सभी किताबों की व्यवस्था करने का अनुरोध किया। श्रीवास्तव जी ने मुझे पिछले दस वर्षों के पुराने प्रश्न पत्र दिये तथा सभी सम्भव किताबें उपलब्ध करवा दी।


दो-तीन दिन मैंने कुछ नहीं किया। एक दोपहर मैं खाना खा कर कमरे में लेटा था। ना जाने कहां से मेरे मन में ख्याल आया "पस्तोर जी तुम कभी फैल नहीं हुए यदि मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षा में फैल हो जाते हो तो रिकॉर्ड ख़राब हो जायेगा।" तब मैंने उठ कर टाइम टेबल बनाया। उसके हिसाब से नोट्स बनाना शुरू किये। खूब मेहनत की। जितनी किताबें हो सकती थी एकत्र की। 


इस बीच श्रीवास्तव पुस्तकालय इंचार्ज से अच्छी दोस्ती हो गई थी। वह अपने घर गोरखपुर जा रहे थे। उनकी पत्नी को बच्चा हुआ था। उन्होंने अनुरोध किया कि जब वह पिछली बार घर गये थे तो उनके यहां चोरी हो गई थी। तो उन्होंने उनकी अनुपस्थिति में उनके घर में सोने का अनुरोध किया।  मैं अकेला होस्टल के कमरे में सोता था तो मुझे कोई दिक्कत नहीं लगी। में उनके घर सोने लगा। मैं हमेशा रात में नौ बजे सो जाता तथा चार बजे उठ जाता। जिस दिन श्रीवास्तव जी को आना था उसके एक दिन पहले की रात मैं बहुत गहरी नींद में सो रहा था। मैं अपने कपड़े खूंटी पर टांग देता था। हाथ घड़ी पलंग के पीछे सन्दूक पर रख देता था। 


उस रात चोर आये मेरे कपड़े, घड़ी, पैसा तथा जूते तक ले गये। श्रीवास्तव जी के बड़े-बड़े संदूक मेरे सिरहाने से ले गये। चोरों ने दरवाजे की सटकनी गिलमिट से छेद कर निकल दी थी। चोर इतना सब करते रहे और में सोता रहा। सुबह जब समय देखने हाथ पीछे किया तो घड़ी गायब थी। मुझे श्रीवास्तव जी के लौटने पर घर जाना था। मैंने बैक से पूरा पैसा निकाल कर पर्स में रखा था। सब गायब था। मैंने चादर लपेट कर पड़ोसियों को उठाया। उन्हें पूरी घटना बताई। हम लोग पुलिस थाने रिपोर्ट करने गये।उलटा पुलिस मुझ पर शक करने लगी। श्रीवास्तव जी ने मुझे पूरे घर की चाबियां दी थी। उनके संदूक चादर से ढके थे। मैंने नहीं देखे थे कितने थे। 


अगले दिन श्रीवास्तव जी आ गये तब उन्होंने  चोरी गये सामान का पूरा विवरण पुलिस को दिया। कुछ संदूक तथा कपड़े, कागज और अन्य सामान सामने के खेत से मिला। श्रीवास्तव जी ने मुझे किराये के पैसे दिये तब में टीकमगढ़ लौट सका। 

एम फिल, भूगोल का रिजल्ट जब आया तो मैंने एक साल में ही यह कोर्स बहुत अच्छे मार्क्स से पास कर लिया था। मैंने यहां भी यूनिवर्सिटी में टॉप किया था। डॉ. राय चाहते थे कि में उनके आधी पी एचडी करू। मैने पी एचडी के लिये रजिस्ट्रेशन करावा लिया। मुझे यू जी सी की स्कॉलरशिप मिल गई थी। लेकिन मुझे पी एचडी बीच में छोड़ कर टीकमगढ़ आना पड़ा। 



ग्वालियर 

मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षा जनवरी में थी और टीकमगढ़ में सेंटर नहीं था। मैं रायपुर और नहीं रुकना चाह रहा था। तो परीक्षा फॉर्म में मेरे घर से सबसे नजदीक उपलब्ध ग्वालियर सेंटर भर दिया था। टीकमगढ़ लौट कर मैं मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षा देने ग्वालियर गया। 

ग्वालियर में मेरे छोटे भाई की ससुराल है। मैं वही रुका। ससुराल में खूब खातिरदारी हुई। महारानी लक्ष्मीबाई कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय में मेरा परीक्षा का सेंटर था। महारानी लक्ष्मीबाई कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय ग्वालियर, मध्य प्रदेश में स्थित एक प्रतिष्ठित और शासकीय स्वशासी उत्कृष्ट संस्थान है। इसे अक्सर एमएलबी कॉलेज के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थान अचलेश्वर मंदिर के पास, सनातन धर्म मंदिर रोड, लश्कर पर स्थित है। 


मैंने मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग के पिछले दस वर्षों के पुराने प्रश्नों के आधार पर पाठ्यक्रम/सिलेबस के आधार पर चेपटर/अध्याय वाइज उत्तर लिख डिटेल नोट्स बनाये थे। खूब रिवीजन किया था। पॉकेट डायरी में महत्वपूर्ण पॉइंट लिख कर याद किया था। मैं हमेशा पूरा सिलेबस कवर करता था। यह आदत कालेज के दिनों से थी। इसलिये मैं हमेशा परीक्षा पेपर सभी प्रश्न हल कर सकता था। मुझे कभी केवल इम्पोर्टेन्ट पढ़ने की जरूरत नहीं होती थी। मैंने कभी ट्यूशन नहीं पढ़ी नहीं कोचिंग ज्वाइन की। बाजार से गाइड या नोट्स खरीदने की जरूरत नहीं पड़ी। 


टीकमगढ़ से ग्वालियर के लिये रात में बस चलती थी। परीक्षा दे कर में रात की बस से टीकमगढ़ आ रहा था। ठण्ड की रात थी। बस की सभी खिड़कियां बंद थी।रात में सभी यात्री कम्बल ओढ़ कर सो रहे थे। रात में यकायक धुआं भर गया। लोगों को सांस लेने में कठिनाई होने लगी। कुछ ने जैसे ही उनके पैर सीट के नीचे रखे पैर जलने लगे। 


ड्राइवर ने बस रोक दी। मैं गहरी नींद में था। लोगों ने हिलाकर उठाया। बताया नीचे एसिड है। मैंने अपनी किताबों के बैग जैसे ही उठाए उन में से किताबें एसिड में फ़ैल गई। बैग कपडे के थे। उनका कपड़ा एसिड से गल गया था। मेरे पास ऐसे चार बैग थे। जिनमें पुस्तकालय की किताबें और मेरे नोट्स भरे थे। वह भी जल कर गल गये। सब वर्बाद हो गया था। मेरी किताबें और मेरे नोट्स नष्ट हो गए थे। अच्छी बात यह थी कि परीक्षा हो गई थी। बाहर घुप अंधेरा था। सब लोग बस से बाहर आ कर खड़े हो गये। 


लोगों के पूछने पर ड्राइवर ने बताया कि बस में किसी सुनार के लिए ग्वालियर से सल्फ्यूरिक एसिड के तीन ड्रम बस के अन्दर पीछे रखे थे। सल्फ्यूरिक एसिड  का सुनार गहने बनाने में उपयोग करते थे। रास्ते में बस चलने पर ड्रम का ढक्कन खुल कर लुढ़क गया था। जिस  कारण से बस में एसिड फैल गया था। 


शुद्ध सल्फ्यूरिक एसिड गंधहीन होता है। यह रंगहीन और तैलीय तरल होता है। जब सल्फ्यूरिक एसिड को पतला किया जाता है या यह किसी धातु या हवा के साथ प्रतिक्रिया करता है, तो यह सल्फर डाइऑक्साइड गैस छोड़ता है। सल्फर डाइऑक्साइड की गंध तीखी, घुटन भरी और अम्लीय होती है। इसकी गंध को जलती हुई माचिस की तीली या सड़े हुए अंडे जैसी होती है। सल्फर डाइऑक्साइड एक जहरीली गैस है।



टीकमगढ़ कॉलेज 

इन्हीं दिनों टीकमगढ़ कालेज के भूगोल विभाग में एक एडहॉक प्राध्यापक की विकेन्सी निकली। मेरा उस पद पर चयन हो गया। जिस विभाग में मैंने अध्ययन किया था अब उसी विभाग में मुझे पढ़ाने का अवसर मिल गया। मैं बहुत मेहनत से अपनी तैयारी कर फर्स्ट इयर को पढ़ता था। लेकिन छात्र बहुत रुचि नहीं लेते थे। एक दो छात्र बहुत उजड्ड टाईप के थे। यह छात्र कक्षा शुरू होने के बाद आते। बहुत रौब के साथ। 


एक दो बार मैंने उन्हें समझाना चाहा तो लड़ने को तैयार हो गए। मैंने एक बहुत बदतमीज छात्र को सबक सीखने का निर्णय किया। अगले दिन वह फिर लेट आ कर कक्षा में घुसाने लगा।  मैंने उसे रोका तो उटपटांग बोलने लगा। मैंने एक लात जोर से मारी वह बाहर बरामदा में गिर पड़ा। वह बाहर भाग गया। फिर कुछ नेता टाइप के लड़कों को ले कर आया। मैं इस कॉलेज का तथा यूनिवर्सिटी का प्रेसीडेंट रह चुका था और उन में से कुछ छात्र नेताओं के बड़े भाई मेरे साथी रह चुके थे। 


यह छात्र बाहर से पढ़ने नया-नया आया था और मेरे बारे में नहीं जनता था। उन छात्र नेताओं ने उसे मेरे बारे में बताया। जब उसने मेरी शिकायत कॉलेज के प्रिंसिपल से कर दी। उन्होंने मुझे बुला कर कहा कि अब तुम छात्र नहीं हो। तुम अब प्राध्यापक हो तो बच्चों को मार नहीं सकते। बात ख़त्म हो गई। 


मजा तो तब आया जब एक दिन एक लड़का मेरे ऑफिस आया मैं तब भोपाल में ग्रामीण विकास विभाग में आयुक्त के पद पर था। उस लड़के ने मेरे पैर छुए। मैंने जब मना किया तो बोला सर ! अपने पहचाना नहीं। बहुत साल पहले कॉलेज में आपने मुझे एक लात मारी थी उस कारण मैं आज पंचायत इस्पेंक्टर बन गया। यदि दो लातें मार देते तो शायद डिप्टी कलेक्टर बन जाता। कमरे में बैठे हम सब बहुत हँसे। पुरानी  बातें याद आ गई। 


1980 का दशक मध्य प्रदेश में प्रशासनिक सेवाओं की भर्ती के लिए एक महत्वपूर्ण काल था। इस दौरान मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग  की कार्यप्रणाली भी विकसित हो रही थी। 1980 के दशक में मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा राज्य सेवा परीक्षा का आयोजन अपेक्षाकृत नियमित रूप से किया जाता था। इन परीक्षाओं के माध्यम से डिप्टी कलेक्टर जैसे महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर सीधी भर्ती की जाती थी। उस समय परीक्षा पैटर्न में मुख्य रूप से प्रारंभिक परीक्षा प्रीलिम्स, नहीं होते थे।  सीधे मुख्य परीक्षा मेन्स और साक्षात्कार इंटरव्यू होते थे। मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षा में लिखित परीक्षा और अंतिम चयन के बीच एक निश्चित अनुपात नहीं होता है। बल्कि यह एक बहु-चरणीय प्रक्रिया है। अंतिम चयन के लिए मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार के अंकों का विशिष्ट भार होता था। साक्षात्कार यह अंतिम चरण होता था। यह उम्मीदवार के व्यक्तित्व, संचार कौशल और प्रशासनिक भूमिकाओं के लिए उसकी उपयुक्तता का आकलन करता था। 


आप इसे इस तरह समझ सकते हैं कि अंतिम चयन में लिखित परीक्षा मुख्य परीक्षा का लगभग 88.9%  और साक्षात्कार का लगभग 11.1% का  भार होता था। यह एक अनुपात नहीं, बल्कि अंकों का सीधा योग होता था। कट-ऑफ मार्क्स हर साल पदों की संख्या, परीक्षा के कठिनाई स्तर और उम्मीदवारों के प्रदर्शन के आधार पर बदलते रहते थे।


एक दिन जब में क्लास ले रहा था तब मेरा एक दोस्त अख़बार ले कर मेरे पास आया और बोला तू यहां क्लास क्यों ले रहा है तू तो मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग की लिखित परीक्षा में फर्स्ट कैटेगरी की लिये पास हो गया है। मैंने जब अख़बार देखा रोल नम्बर बार-बार मिलाया। भरोसा नहीं आया। पेपर ले कर घर गया सब को बताया। सब बहुत खुश थे। मिठाई का भोग भगवान को लगा कर सब को प्रसाद दिया गया। 


अगले दिन जब में कॉलेज गया सब का व्यवहार मेरे प्रति बदल रहा था। टीचर कॉमन रूम में मेरी चर्चा हो रहीं थी। कुछ बहुत खुश थे। तो कुछ इस बात से दुखी थे कि मैंने फर्स्ट कैटेगरी के लिये क्यों भरा। उनका कहना था कि टीकमगढ़ जिले से आज तक फर्स्ट कैटेगरी में किसी का चयन नहीं हुआ था। 


उन्हें डर था कि लिखित परीक्षा पास करने के बाद यदि इंटरव्यू में फैल हो गया या काम नम्बर आये तो मेरा चयन नहीं होगा। कुछ शिक्षक मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षा में मिलाने बाले तीनों अटेम्ट दे चुके थे। कुछ लिखित परीक्षा पास नहीं कर पाये थे तो कुछ इंटरव्यू में कम नम्बर आने से रह गये थे। उनमें से अधिकांश मेरे शिक्षक रह चुके थे, इसलिये मेरी योग्यता पर उन्हें शक था।


उन सब की बातें मुझे रोज सुनना होती थी। मैं बहुत परेशान हो गया। घर पर भी लोग मिलने आते अपने अनुभव बताते। दूसरों की असफलता के किस्से सुनाते। क्योंकि मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग की लिखित परीक्षा में जो बैठते उन की संख्या बहुत होती है। पर बहुत कम का चयन होता, सफल बहुत कम होते। इसलिये असफलता की कहानियां अधिक थी। 


मेरे पहले टीकमगढ़ के दो लोगों का चयन द्वितीय श्रेणी के पदों हुआ था। उनमें से एक बहुत बड़े सेठ का लड़का था। बहुत कहानियां थी। लाखों की रिश्वत। मंत्रियों की सिफारिश। अधिकारियों से परिचय आदि। मेरे पास यह कुछ नहीं था। मैं उन दोनों से मिला कोई सकारात्मक बातचीत नहीं है। 


हमारा परिवार टीकमगढ़ के राज परिवार से जुड़ा रहा था। किसी ने सलाह दी नरेन्द्र राजा से मिलों। वह शायद मदद करें। मैं उनसे मिलने उनके फार्म पर गया। वह कुछ काम कर रहे थे। उनकी पत्नी ट्रैक्टर चला रहीं थी। मैंने पहली वार किसी महिला को ट्रैक्टर चलाते देखा था। नरेन्द्र राजा गर्मजोशी से मिले। परिचय जान कर खुश हुए। बातों का सिलसिला चला। उन्होंने बताया कि किसी जमाने में वह आदिवासी विकास विभाग में विकास खण्ड अधिकारी के पद पर तामिया छिंदवाड़ा में काम कर चुके थे। उन्होंने अपने तीन चार सन्दूक खोल कर दिखाए जिन में शूट रखे थे। बोले जितना वेतन था उस में मेरे शूट नहीं धूल पाते थे। रिश्वत लेता नहीं।   


गुजारा नहीं होता था। नौकरी छोड़ दी। तब से खेती करते है। चुनाव लड़ते है। वर्तमान में ग्रामीण बैक के चेयरमैन के पद पर हूँ। ग्रामीण बैक का नया कॉन्सेप्ट शुरू हुआ था ब्रांच मैनेजर के पद भरे जाना थे। उन्होंने सलाह दी कि अगर मैं ब्रांच मैनेजर के पद की लिखित परीक्षा पास कर लू तो वह मुझे इंटरव्यू में पास करवा कर ब्रांच मैनेजर बनवा देंगे। बहुत निराश हो कर घर लौटा। 


इंटरव्यू की तिथि नजदीक आ रही थी। परिवार में सब परेशान। हमारे एक भाई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। वह खबर लाये कि सतना से एक व्यक्ति मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग के सदस्य थे। उन्होंने सलाह दी उनसे मिला कर मदद  मांग सकते है। मेरे चाचा तथा बड़े भैया सतना गए। वह तो नहीं मिले। जिस दिन यह लोग बस से लोट रहे थे उस दिन होली का त्यौहार था। दोनों बहुत परेशान हो कर लौटे। मेरे चाचा ने मुझे बहुत डाटा कि अपना काम खुद क्यों नहीं कर सकते। 


मेरे पास कॉलेज में पढ़ाने की अस्थाई नौकरी थी। मुझे अपनी योग्यता पर भरोसा था। ज्यादा चिन्ता नहीं थी। इंटरव्यू ग्वालियर के रेस्ट हाउस में था। इंटरव्यू के नियत दिन के तीन दिन पहले मैं और मेरा छोटा भाई ग्वालियर गये। लोगों ने सलाह दी थी कि तीन दिन दूसरे लोगों के इंटरव्यू देखो। क्या पूछते है? इंटरव्यू की तैयारी कैसे करते है? कपडे कैसे पहनते है? सवाल बहुत थे। जवाब देने बाला कोई नहीं। गाइड करने बाला कोई नहीं। भाई की ससुराल गए वहां ऐसा माहौल कि मैं डिप्टी कलेक्टर बन ही गया हूँ। इससे पहिले परिवार में किसी ने ऐसी परीक्षा कभी नहीं दी थी। 


पहले दिन दिन जब हम इंटरव्यू बाली जगह पहुंचे तो गजब का नजारा था। एक-एक कैंडिडेट के साथ कई लोग। कोई बड़ा नेता, कोई सेठ, कोई अधिकारी। कोई दो बार तो कोई तीसरी बार इंटरव्यू  दे रहा था मैं और मेरा छोटा भाई। इंटरव्यू शुरू हुए। जैसे कैंडिडेट बाहर आता उसको एक इंटरव्यू बाहर देना पड़ता। घेर लेते। सांस नहीं लेने देते। सवाल पर सवाल। इतना हल्ला कि कई बार कुछ सुनाई नहीं देता। मैंने यह माहौल देखा तो मन में रात को सोचा अपना तो चांस है नहीं। हमने तो पहली बार कोई परीक्षा दी। वह भी एक्सपीरियंस के लिये। सो चिंता छोड़ो। मजे से इंटरव्यू दो। मन से सारा दबाव उतर गया। मैं घोड़े बेच कर सो गया। 


अगले दिन फिर इंटरव्यू देखने गये। एक लड़की बदहवास हालत में बाहर आई। लोगों ने उसे घेर लिया। उसने एक लड़के से कहा कुर्सी लाओ। वह दौड़ कर कुर्सी लाया। उसने फिर कहा पानी लाओ दूसरा लड़का पानी की बॉटल लाया। उसने पानी पिया। फिर इत्मीनान से बोली जब में अन्दर गई तो में बहुत घबड़ा गई। उन्होंने बैठने को कहा तो मुझे कुर्सी नहीं दिखी। एक सदस्य ने कुर्सी पर बैठाया। मैं बैठ गई। 


उन्होंने सवाल पूछने शुरू किये। मुझे कुछ समझ नहीं आया। मेरी घिग्घी बंध गई। अंत में हार कर उन्होंने मेरा नाम पूछा। वह भी मैं नहीं बता सकी। उन्होंने मुझे जाने को कहा। जब मैं उठी तो मेरी साड़ी कुर्सी के पाये के नीचे बैठते समय दब गई थी। उठने पर कुर्सी धड़ाम से पीछे गिरी। मैंने पहली दफे साड़ी पहनी थी। मैं खुद सम्हलू या साड़ी सम्हालू। समझ नहीं आया। वह यकायक कुर्सी से उठी और अपने परिवार के साथ चली गई। लोग भौचक रह गये। गजब है भाई ! मेरी हंसी छूट गई।


अगले दिन मेरा इंटरव्यू तीसरे नम्बर पर था। मैं सोच रहा था इंटरव्यू का तीसरा दिन और मेरा तीसरा नम्बर। क्या संयोग था। जब में इंटरव्यू देने कमरे में गया तो वहां पांच सदस्य बैठे थे। मैं निडर था। मेरे पास मेरे  सर्टिफिकेट के प्लास्टिक के तीन मोटे-मोटे फाइल फोल्डर थे। जिस में हर पेज पर एक सर्टिफिकेट लगा था। 


मैंने सब को प्रणाम किया तथा अनुमति ले कर कुर्सी पर बैठा। मैं इत्मीनान सीधा बैठा। सर्टिफिकेट के फोल्डर साइड में रख लिये। जो सदस्य मेरे बायें बैठे थे उन्होंने एक फोल्डर उठा कर सर्टिफिकेट देखना शुरू किया। एक सर्टिफिकेट पर उनकी नजर रुक गई। 


सदस्य- "तुमने एनसीसी में ‘सी’ सर्टिफिकेट किया है।"


"हाँ सर !" मैं उनकी और मुड़ा। 


सदस्य- "तुम्हें बंदूक चलाना आता है।"


"हाँ सर !" मैंने गर्व के साथ कहा। 


सदस्य- "कौन-कौन सी चलाई है?" उन्होंने रोबदार आबाज में पूछा। 


मैंने सम्हल कर बैठते हुए उनकी आँखों में देख कर कहा- "थ्री नॉट थ्री सर।"


बताओं गोली कैसे चलती है?" उन्होंने कहा। 


मैंने पुरानी यादों के आधार पर पूरी प्रक्रिया दुहराई। 


उन्होंने कहा- "गोली नहीं निकली।"  मैंने फिर  पूरी प्रक्रिया दुहराई।


"गोली फिर भी नहीं निकली।" उन्होंने फिर कहा। 


मैंने आत्मविश्वास के साथ कहा- "सर गोली बातों से नहीं निकलेगी। थ्री नॉट थ्री मगबायें अभी चला कर दिखा सकता हूँ। वह मेरा आत्मविश्वास देख कर हंस दिये। उन्होंने कुछ कमांड पूछे।  मैंने सही-सही जबाब दिये। 


अब दूसरे सदस्य ने मध्य प्रदेश के नक्शे की ओर देख कर पूछा- "बैलाडीला क्या है ?"


मैंने जबाब दिया- "सर यह लौह अयस्क की खदान है।"


"यह कहां है?"  नक़्शे की ओर इशारा किया। 


वहां एक इंडीकेटर डंडा था। मैंने वह उठा कर नक़्शे पर वह स्थान उन्हें दिखाया। वह खुश हुए। फिर पूछा- "इस का लोह अयस्क कहां जाता है?"


मैंने बताया- "सर जापान।"


उनका अगला सवाल था- "किस कम्पनी  के जहाज से?"


यह मैंने कहीं नहीं पढ़ा था। मैंने अपनी प्रत्युत्पन्नमति से जवाब दिया- "सर ! जापान शिपयार्ड कम्पनी के जहाज से।" मैंने मन में सोचा भारत तो इतना विकसित  है नहीं, तो जापान के जहाज से ही जाता होगा। उन्होंने कहा बहुत अच्छा। मेरी जान में जान आई। फिर उन्होंने ग्रीनविच रेखा, समय निर्धारण, दिनों का अन्तर जैसे अनेक भूगोल के सवाल पूछे। मैंने सभी जबाब सही-सही दिये। 


अब बारी थी बीच में बैठे चेयरमैन सर की। उन्होंने टेबिल पर रखी बहुत सारी पेपर कटिंग की ओर हाथ से इशारा कर पेपर कटिंग उठाने को कहा। लोगों ने बाहर बताया था कि बिना सेलेक्ट किये रेण्डम कटिंग उठाना। अगर छांट कर उठाओ तो कम मार्क्स मिल सकते है। 


टेबिल पर बहुत सारी पेपर कटिंग, कार्ड, और बहुत से कागज थे। लोगो ने बताया था कि उसमें गणित के सवाल भी है।  मैं बहुत डर रहा था कि गणित का सवाल न उठालू। मैंने मन ही मन माँ गयात्री को याद कर प्रणाम किया और मन्त्र पढ़ा। फिर रेण्डम एक कटिंग निकाल ली। यह जर्सी सांड का फोटो था। 


चेयरमैन सर ने पूछा- "यह किस नस्ल का फोटो है?"


यह अमेरिका के न्यू जर्सी राज्य के नाम का जर्सी सांड है।" मैंने जवाब दिया। 


"यह हमारे देश में क्या कर रहा है?" चेयरमैन सर ने पूछा। 


इस के सीमन दे देशी नस्ल की गायों को कृत्रिम गर्भाधान से गर्भ धारण करा कर ब्रीड को सुधारा जा रहा है। ताकि गायें  अधिक दूध दे।" मैंने धैर्य पूर्वक जबाब  दिया। 


"क्या यह कार्यक्रम सफल है?" उन्होंने पूछा।


हाँ ! मैंने कहा। 


"तुम ऐसा दाबा कैसे कर सकते हो?" उन्होंने प्रश्नवाचक नजरों से मुझे देखा। 


मैंने विनम्रता से कहा- "सर मेरे गांव के पास कृषि विज्ञान केन्द कुण्डेश्वर में यह सांड है और हमारे घर की कई गायों का सफलता पूर्वक कृत्रिम गर्भाधान से गर्भ धारण करा कर प्रसव करवाया गया है।" 


वह मेरे उत्तर से प्रश्न हो गये, उन्होंने मुझे जाने की अनुमति दी। मैं सब को प्रणाम कर बाहर आ गया। जब लोगों ने बाहर मेरा इंटरव्यू लिया तो मैंने पूरा विवरण शांति से सब को सुनाया। लोगों ने पूछा तुम्हें क्या लगता है। मैंने बताया  इंटरव्यू देने का यह मेरा पहला अवसर था। मैंने अपनी ओर से सभी प्रश्नों के सही-सही उत्तर दिए। अब गेंद भगवान के पाले में। मेरे मन में सिलेक्शन होगा या नहीं इसका कोई बोझ नहीं था। 


इस के बाद मैंने साइल टैस्टिंग ऑफिसर का इंटरव्यू नागपुर में दिया। जहां मुझ से पूछा गया कहां रहते हो? मैंने बताया रायपुर में। उन्होंने पूछा तुम टीव्ही देखते हो। मैंने बताया हां। हमारे होस्टल में टीव्ही है। उन्होंने पूछा तुमने मुझे टीव्ही पर देखा है। मैंने पूछा आप कौन से कार्यक्रम में आते है। उन्होंने कहा कृषि दर्शन में। मैंने कहा सर जब कृषि दर्शन शुरू होता है तो स्टूडेंट्स टीव्ही बंद कर देते है। वह बहुत दुखी तथा नाराज हुए। मुझे परीक्षा में फैल कर दिया। दूसरी परीक्षा मैंने ग्रामीण बैंक के मैनेजर की दी। इस परीक्षा में मैं बिना नरेन्द्र राजा की मदद के पास हो गया। 


मेरा अनुमान था कि किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में चार श्रेणी के प्रत्याशी भाग लेते है। पहली श्रेणी के प्रत्याशी वह होते है जो पूरा समय कॉम्पटीशन की तैयारी में लगते है। कोचिंग ज्वाइन करते है तथा ग्रुप में तैयारी करते है। दूसरी श्रेणी के प्रत्याशी पुरे समय घर में अकेले तैयारी करते है। तीसरी श्रेणी के प्रत्याशी कहीं नौकरी या कोई काम कर रहे होते है और चौथी श्रेणी के प्रयाशी केवल फॉर्म भर देते है पर बहुत गंभीर नहीं होते है। 


तो कॉम्पटीशन केवल पहली तथा दूसरी श्रेणी के प्रत्याशियों में ही रहता है। देसरी बात है कि जो सफल होते है उसका मतलब यह नहीं होता कि वह सबसे होशियार थे और गधे थे। बल्कि सफल लोगों को वह सवाल आते थे जो पूछे गये। असफल लोगों को उन पूछे सवालों सवालों के अलावा दूसरे सभी जबाब आते थे। फिर रिजर्वेशन एक बड़ा फैक्टर है। 


 


    


 




द्वतीय पारी 

दूसरी साल कॉजेल में एडहॉक पद पर मेरा कॉन्ट्रेक्ट रिन्यू हो गया। मैं पुनः पढ़ाने जाने लगा। वेतन मिलता था ग्यारह सौ रुपये मासिक। मैं घर में रहता था। कुछ खर्चा था नहीं सो कुछ बचत हो गई थीं। एक दिन मैं क्लास ले रहा था। मेरे दोस्तों का झुण्ड आया और मुझे कैंपस में ला कर एक दोस्त ने कंधे पर उठा लिया। वह सब बहुत खुश थे। वह अखबार ले कर आये थे। 


जिसमें मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा राज्य सेवा परीक्षा का रिजल्ट आया था मेरा रोलनम्बर राज्य के प्रशासनिक अधिकारियों  डिप्टी कलेक्टर के पद पर चयनित अभ्यर्थियों की सूचि में था। मेरे गांव में पेपर नहीं आता था। इस कारण हमेशा मुझे रिजल्ट दूसरों से ही पता चलता था। मैं अपने परिवार का, कॉलेज का तथा जिलें का पहला लड़का था। जो राज्य के प्रशासनिक अधिकारी, डिप्टी कलेक्टर के पद पर चयनित  हुआ था। 


यह मेरे जीवन का दूसरा मोड़ था यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई। अखबारों ने मेरा इंटरव्यू मय फोटो के छापा। मैं यकायक लोगों की नजरों में साधारण से असाधारण बन गया था। ना कुछ से कुछ बन गया था। मुझे खुद अपने आप पर भोरसा नहीं था। फिर एक दिन मध्य प्रदेश सामान्य प्रशासन विभाग से मेरा न्युक्ति पत्र आ गया। जिस में प्रदेश के राजयपाल की ओर से मुझे डिप्टी कलेक्टर के पद पर मुरैना पोस्टिंग दी गई थी। परिवार, गांव तथा शहर के लोग भी गौरवान्वित हुए थे। मेरे पहले मास्टर दादा जी अब कहने लगे थे कि उनका पढ़ाया लड़का डिप्टी कलेक्टर बन गया है। 


मेरे व्यक्तित्व के विकास में मेरे पिता जी का बड़ा योगदान था। हालांकि उस समय में बहुत छोटा था। वह अक्सर बीमार रहते थे। कई बार कई दिनों तक उन्हें अस्पताल में रहना पड़ता था। तब मेडिकल सुविधाएं बहुत काम थी। हमारे घर में गायत्री परिवार की पत्रिका युग धर्म और अखण्ड ज्योति नियमित आती थी। गीता प्रेस गोरखपुर की पत्रिका कल्याण नियमित आती थी। इन सब से इंटेलीजेंट कोशीएंट के साथ स्प्रीचुअल कोशीएंट का विकास हुआ। पढ़ने के कारण इमोशनल कोशीएंट बहुत अच्छा हो गया। मैं पहले जिला पुस्तकालय नियमित जाता था। वहां न्यूज़ पेपर्स, साथ बच्चों की पत्रिकाऐं चंदा मामा, चंपक, पराग बड़ों के लिए सरिता, कादंबनी, दिनमान, गृह शोभा, सरिता, प्रतियोगिता दर्पण, इण्डिया टुडे, मनोहर कहानियां, और सत्य कथा खूब पढ़ते थे। 


गर्मियों की छुटियों में खूब सिनेमा देखते थे। दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, दैनिक भास्कर, नवभारत टाइम्स जैसे न्यूज पेपर पड़ते थे। मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन, और कबीरदास, तुलसीदास, सूरदास, फणीश्वर नाथ रेणु, धर्मवीर भारती, वृन्दावन लाला वर्मा, अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती को पढ़ते थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, विभूतिभूषण बंदोपाध्याय, ताराशंकर बंदोपाध्याय, सुनील गंगोपाध्याय, विमल मित्र और महाश्वेता देवी के उपन्यासों के हिंदी अनुवाद पढ़े। 


विलियम शेक्सपियर, जेन ऑस्टिन, चार्ल्स डिकेंस, थॉमस हार्डी, जॉर्ज ऑरवेल, और अगाथा क्रिस्टी के उपन्यास डिक्शनरी रख कर पढ़ते थे। इंडिया टुडे, आउटलुक, द वीक, फेमिना, वोग, फोर्ब्स इंडिया, इकोनॉमिक टाइम्स और बिजनेस टुडे पद कर अंग्रेजी सुधरता तथा जरनल नॉलेज बढ़ाता था। किताबें मेरी हमेशा की साथी रही। जब में खेत पर रहता तो अकेला होता था। तब किताब अच्छे साथी की तरह साथ निभाती थी। 


पढ़ने की आदत आज भी है। आर.के. नारायण, मुल्क राज आनंद, खुशवंत सिंह, रस्किन बॉन्ड, मनोहर मालगोणकर, अरुंधति रॉय, अरविंद अडिगा,  विक्रम सेठ, शशि थरूर, स्वामी विवेकानंद, ओशो, श्री प्रभुपाद, देवदत्त पटनायक, अमीश त्रिपाठी और चेतन भगत जैसे कितने नाम है जिन्हें आज भी पढ़ता हूँ। गीता, अष्ट्रावक्र गीता तथा पतंजलि  का योग सूत्र मेरा मार्ग दर्शन करने के लिए ज्योति स्तम्भ है। 


मुझे जनवरी में मुरैना जा कर ज्वाइन करना था। लोगों ने महूर्त देख कर शुभ घड़ी में ज्वाइन करने की सलाह दी। मेरी दादी कहा करती थी-

"तुलसी विरवा बाग़ के सींचे से कुम्हलाय। 

राम भरोसे जो रहे परवत पर हरयाय।"

कुछ गरम सूट सिलवाये। गरम कपड़े लिये। पेन्ट शर्ट। तीन सूटकेस, सामान पैक किया और आ गये बस से ग्वालियर। ससुराल में । दादी कहती थी -"एक दिना को पवनों, दो दिना को पई और तीसरे दिन रहे सो बेशरम सही।" सो अगले दिन सुबह की ट्रैन पकड़ कर पहुंच गये मुरैना स्टेशन। 




मुरैना 

मन में अभिलाषा थी कि स्टेशन पर भव्य स्वागत होगा। लेकिन जब ट्रैन प्लेटफॉर्म नम्बर एक पर रुकी और मैंने मुरैना की धरती पर पहला कदम रखा तो स्टेशन पर किसी को ना पा पर बहुत निराशा हुई। सामान था ज्यादा। कुली से सामान बाहर ला कर सर्किट हाउस जाने के लिये रिक्शा लिया और पहुंच गये सर्किट हाउस। केयर टेकर को अपना परिचय दिया तो उसने बताया कि मेरे लिये कोई कमरा बुक नहीं था। और हो भी कैसे मैंने किसी को जब बताया ही नहीं था तब किसी को स्वप्न थोड़ी आयेगा। वह बोले साहब आप का सामान स्टोर रूम में रख देते है। आप जिला सत्कार अधिकारी से रूम अलॉट करवा लेना तो शाम को कमरा खोल देंगे।


वहां रिक्शा मिलाना कठिन था। रास्ता सीधा था। कुछ दूर पैदल चले। एक रिक्शा खाली आता दिखा उस में बैठ कर पहुंच गये कलेक्ट्रट। टीकमगढ़ में मैंने वहां के डिप्टी कलेक्टर राम सुचित पाण्डे जी से मिल कर एक दिन जॉइनिंग की पूरी प्रक्रिया समझी थी। उन्होंने बताया था कि कार्यालय अधीक्षक के पास जाना वह जॉइनिंग करावा देंगे। मैं कार्यालय अधीक्षक के पास गया। उन्हें नमस्ते कर अपना परिचय दिया। उन्होंने स्थापना से बड़े बाबू को बुलवाया मेरी जॉइनिंग की पूरी प्रक्रिया करवाई। 


सब बहुत आसानी से हो गया और मैं बन गया सरकारी दामाद। मुझे एक फ़िल्मी गाना 'साला में तो साहब बन गया' याद आ गया। बड़े बाबू ने कलेक्टर के स्टोनों के पास भेज दिया। कलेक्टर थे शेखर दत्त। स्टेनो ने इण्टरकॉम पर साहब से परमीशन ली और मुझे कलेक्टर के चेंबर में ले गये। उस समय कलक्ट्रेट अग्रेजों के ज़माने या शायद सिंधिया के ज़माने की बिल्डिंग में होती थी। बड़ा सा भव्य कमरा। बहुत बड़ी टेबिल। सामने बैठे कलेक्टर। मैंने झुक कर प्रणाम किया। उन्होंने मुस्करा कर मुझे बैठने को कहा। मैं पहलीबार किसी कलेक्टर के इतने नजदीक बैठा था। 


स्टोनों वापिस चले गये। अब कमरे में हम दोनों थे। उन्होंने मेरे रहने की व्यवस्था के बारे में पूछा। मैंने सुबह सर्किट हाउस की घटना का विवरण उनको दिया। उन्होंने इंटरकॉम पर स्टेनो को व्यवस्था करने के निर्देश दिये। मुझे उनका सरल व्यवहार बहुत अच्छा लगा। उन्होंने मेरे प्रशिक्षण के बारे में पूछा। मुझे तो कुछ भी पता नहीं था। तब उन्होंने कहा कि कल से तुम मेरे साथ बैठ कर केवल देखों कि कैसे लोगों से मिलता हूँ। मैं नमस्कार कर बाहर आया। उनके स्टोनों मुझे ए डी एम साहब के पास ले गये। वही सर्किट हाउस में कमरा अलॉट करते थे। उनके बाबू ने केयर टेकर को फोन कर कमरा खोल देना का निर्देश दिया। 


यह सब होते-होते शाम हो गई। मैं रिक्शा ले कर वापिस सर्किट हाउस आ गया। जब केयर टेकर ने स्टोर रूम से मेरे सूटकेस निकाल कर मेरे कमरे में लाये तो मैंने देखा सूटकेस चूहों ने कुतर दिये थे। खोल कर देखा तो मेरे नये सिलाए दो सूट के कोट पेंट में बड़े-बड़े दो-दो छेद थे। मैंने  सोचा बहुत अच्छा स्वागत गणेश जी के बाहन ने किया, विघ्न विनाशक गणेश जी की कृपा आगे रहेगी। खाना खा कर कमरे में आराम से सो गया। 


दो-तीन दिन मैंने वहां के सभी अधिकारियों के पास जा कर परिचय किया। कुछ बहुत मिलनसार तो कुछ खड़ूस। बहुत रूखे। जैसे वह अपनी जिन्दगी पूरी जी चुके हो। हारे थके काम के बोझ के मारे। एक थे कोडे  साहब। पटवारी से स्टेट मर्जर के समय महाराष्ट्र से मध्य प्रदेश काडर ले कर डिप्टी कलेक्टर बन गये। मुझसे बोले दारू पीते हो, नानबेज खाते हो और सिगरेट पीते हो? तीनों के लिए मना करने पर उन्होंने सलाह दी कि अभी से शुरू करदो। नहीं तो अच्छे अधिकारी नहीं बन सकते। 


उन में एक थे शर्मा जी। डिप्टी कलेक्टर। ग्वालियर के रहने बाले। उन्होंने बताया कि उन्हें एक सरकारी बंगला मिला है। उनका परिवार बच्चे सब ग्वालियर में रहते है। वह शनिवार रविवार ग्वालियर चले जाते है। अभी कोई सरकारी मकान खाली नहीं है यदि मैं चाहूं तो उनके साथ रह सकता हूँ। 'अंधा क्या चाहे दो आंख'। 


मैं सर्किट हाउस से शर्मा जी के साथ रहने लगा। बहुत भले आदमी। मुझे सरकारी काम काज समझते। किस्से कहानियां सुनाते। मुझे से खुद  के बेटा जैसा व्यवहार करते। वह नायब तहसीलदार से नौकरी में भर्ती हुए थे। प्रोमोशन हुआ तो ग्वालियर से मुरैना पोस्टिंग मिली। पुनः ग्वालियर ट्रांसफर की कोशिश कर रहे है इसलिये परिवार नहीं लाये। उनके परिवार में पत्नी के अलावा दो लड़के है। एक की पढ़ाई पूरी हो चुकी है। नौकरी पाने की तैयारी कर रहा है। दूसरा कालेज में पढ़ रहा है। 


यह मुरैना की सिविल लाइन कालोनी थी। सभी सरकारी मकान। जिनमें सरकारी अधिकारी रहते थे। यह प्रथा अग्रेजों ने इसलिए शुरू की थी जिससे अधिकारी वर्ग अन्य लोगों से अलग रहे। वे विशिष्ट लगे ताकि लोग उनकी इज्जत करे। बात माने। उनका रुतबा हो। जन सामान्य से मेलजोल कम हो। विशिष्ट अभित्याज वर्ग। सुरक्षा भी एक महत्वपूर्ण कारण था।  इस लिये प्रशासनिक अधिकारी समाज से कटे रहते। 


भारत के हर शहर तथा गांव आज भी सरकारी लोगों के लिये अलग कॉलोनियां बनाई जाती है। अधिकारियों के परिवार जनों में भी यह विशिष्ट अभित्याज वर्ग की भावना रहती है। उन्हें लगता है वह विशिष्ट है। .आम नहीं ख़ास है। यही से व्ही आई पी ‘वेरी इम्पोर्टेन्ट पर्सन’ की संस्कृति का जन्म हुआ। 


सरकारी नौकरी में प्रथम, द्वतीय, तृतीय वर्ग के अधिकारी तथा तृतीय और चतुर्थ वर्ग के कर्मचारी होते है। केंद्र तथा राज्य सेवा के अलग-अलग वर्ग है। उनके रहने के आवास भी अलग-अलग प्रकार के अलग-अलग जगह बनाये जाते है। यह वर्ग विभाजन प्रशासन करने तथा डिसिपीलीन मेंटेन करने में मददगार है। हमारे समाज में बच्चे के सभी निर्णय परिवार के वरिष्ठ लेते है। बड़े होने पर सुपरवाइजर काम करवाते है। ऑफिस में बॉस का आदेश चलता है। व्यक्ति अपनी मर्जी से काम नहीं करते है। बचपन से आदत ही नहीं डाली जाती। पर्शनल स्पेस, पर्शनल डिसीसीजन जैसी कोई कंसेप्ट नहीं है। हम और शर्मा जी मजे से साथ रहते थे। 


सिविल लाइन कालोनी में रहने के कारण मुझे सरकारी अधिकारीयों के रीति-रिवाज, रहन-सहन, आचार, व्यवहार सीखने में बहुत मदद मिली। मैंने जल्दी जान लिया कि सिविल लाइन का जीवन कितना खोखला है। सब दुहरी बातें करते। यदि वह पूरव जाने की सोचता तो बात पश्चिम की करता। सभी एक दूसरे से तुलना करते पद की, पत्नी की खूबसूरती की, बच्चों की होशियारी की, पढ़ाई-लिखाई की, गहने-जेबर, घर का फर्नीचर, कपड़े-लत्ते यहाँ तक कि कुत्ते की नशल और ऊपरी आमदानी की। सब अपने आप को हरिश्चन्द को औलाद बताते और होते गब्बर सिंह। 


हमारी कॉलोनी में एक जज साहब रहते थे। बहुत मजेदार व्यक्ति थे। वह चीफ जुडिशियल मजिस्ट्रेट के पद पर थे। अकेले रहते। उनका परिवार ग्वालियर में रहता। उन्हें गार्डनिंग का बहुत शौक था। उनका बगीचा हमेशा महकता रहता। लॉन लश ग्रीन। एक दिन मैं उनके घर बैठा था। मैंने कहा आपका बगीचा बहुत अच्छा है। लॉन क्या हरा भरा है। उन्होंने कहा तुम लोग अपनी बीबिओं पर हाथ फिराते हो तो वो हरी भरी रहती है मैं अपने लॉन पर हाथ फिरता हूँ तो वह हरा भरा है। बात सही और मजेदार थी।  


हमारे पड़ोसी एक और जज थे गोस्वामी जी। वह जितने शांत और सीधे उनकी पत्नी उतनी बाततूनी और तेज। जब वह कुछ भी खरीदते तो हमें दिखाने जरूर बुलाती। हमेशा गोस्वामी जी कहते सामान ससुराल से आया है। मुझे लगता कि मेरी भी ससुराल इतनी धनी होती कि हर माह हजारों का सामान भेज पाते।  


एक खनिज अधिकारी मिश्रा जी पास ही रहते थे। सत्य साई बाबा के बड़े भक्त। उनके बहनोई डिप्टी कलेक्टर थे वह भी वहीँ रहते थे। उनका लड़का मिश्रा जी को मामा कहता सो हम भी उन्हें मामा जी कहते। हर रविवार उनके घर भजन होते। शेष दिन मिश्रा जी साइकिल से खनिज ठेकेदारों से उनके घरों पर जा कर मिलते। वह कहते ऐसा करने से सम्बन्ध अच्छे रहते है। 


हर अधिकारी का अपना जीवन जीने तथा काम करने का तरीका अलग-अलग बिलकुल निराला। मेरे लिये यह माहौल अलग था इस कारण में बहुत बारीकी से उनके तौर तरीकों को देखता था। कुछ दिन में शर्मा जी बहुत परेशान हो गये। दरअसल हुआ यूँ कि उन्हें उनके बड़े लड़के की शादी करना थी। तो जगह-जगह उसकी कुण्डली भेजते। जहां-जहां कुण्डली मिलती वहां-वहां के लोग लड़का देखने मुरैना शर्मा जी के बंगले पर आते। 


रविवार को शर्मा जी ग्वालियर जाते। घर पर उन्हें मैं मिलता। वह मुझे देखते। बातें करते और पूछते शर्मा जी कहां है तब मैं उन्हें शर्मा जी का ग्वालियर का पता दे देता। वह ग्वालियर जा कर शर्मा जी को कहते मैंने लड़का देख लिया वह मुझे पसन्द है शादी पक्की करो। दरअसल वह मुझे शर्मा जी का लड़का समझते। मेरी उम्र तब बाइस साल ही थी। शर्मा जी का लड़का बेरोजगार। मुझ जैसी कद काठी भी नहीं। शर्मा जी ने एक दिन मुझ से कहा कि यदि तुम यहां रहे तो मेरे लड़के की शादी नहीं होगी। 


सरकारी मकान खाली थे नहीं। मेरी वेतन तब नौ सौ सत्तर रूपया ही थी। सरकारी मकान का किराया बहुत कम होता था। बाजार में निजी मकानों का किराया बहुत ज्यादा था। मेरी पत्नी तथा बच्चा भी घर पर थे। मैं उन्हें मुरैना लाना चाहता था। एक दिन मैं जिला मत्स्य अधिकारी के पास बैठा था। ऐसे ही रहने की बात निकली। उन्होंने मुझ से पूछा। मैंने बताया कि मैं किराये का मकान ढूढ रहा हूँ। उन्होंने बताया कि उनका मकान है जिसे वह किराये पर उठाना चाहते है। उन्होंने वह मकान रण्डी मुहल्ले में पुतली बाई डाकू के घर के पास नाले पर बनवाया था। वहां कोई मकान डर कर किराये में नहीं लेता था। वह किराया कम ले कर मकान दे रहे थे। मैंने उसे किराये पर ले लिया। 


मैंने शर्मा जी के साथ ना रहने में उनकी भलाई समझी और किराये के मकान में रहने आ गया। अभी अकेला ही था। ठण्ड के दिन थे नाले से बहुत बदबू आती थी। एक दिन में अगरबत्ती लगा कर रजाई ओढ़कर सो गया। मेरे हिलने डुलने से अगरवत्ती बिस्तर में गिर गई। आधी रजाई जल गई। कमरा धुए से भर गया। सांस ना ले पाने के कारण मेरी नींद खुल गई। आग बुझाई। बड़ी दुर्घटना टल गई।  


मैंने मुरैना जिले का गजेटियर पढ़ा। यहां का इतिहास जाना। मुरैना जिले का इतिहास काफी प्राचीन और समृद्ध है। इसे "मयूरवन" के नाम से भी जाना जाता था। जिसका संबंध महाभारत काल से है। माना जाता है कि यहां मोरों की अधिकता के कारण इसका नाम मुरैना पड़ा। कुंतलपुर वर्तमान कुतवार में पांडवों की माता कुंती का मायका था, और यहीं पर कर्ण का जन्म हुआ था। पांडवों ने अज्ञातवास के दौरान पहाड़गढ़ की गुफाओं में भी समय बिताया था, जहाँ शैलचित्र भी पाए गए हैं।  


लिखित इतिहास में मुरैना का पहला जिक्र मौर्य युग में मिलता है। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में यहां मौर्यों का शासन था, जिसके प्रमाण गुर्जर अभिलेखों से मिलते हैं। मौर्यों के बाद यहां नाग राजाओं का शासन रहा। इसके बाद गुप्त शासकों के सामंतों ने शासन किया, और इस दौरान कई मंदिरों का निर्माण हुआ, जैसे कि पड़ावली का मंदिर। गुप्तों के बाद गुर्जर-प्रतिहार और कच्छपघाट जैसे महान राजवंशों ने इस क्षेत्र पर शासन किया। 


उन्होंने कई अद्भुत मंदिरों और स्मारकों का निर्माण किया, जिनमें सिहोनिया का ककनमठ मंदिर और मितावली का चौषट योगिनी मंदिर प्रमुख हैं। मितावली काचौषट योगिनी मंदिर तो इतना महत्वपूर्ण है कि इसे भारतीय संसद भवन के पुराने नक्शे का प्रेरणा स्रोत भी माना जाता है। मुगल काल के दौरान मुरैना क्षेत्र एक महत्वपूर्ण आश्रय स्थल सराय के रूप में जाना जाता था। 1761 की पानीपत की लड़ाई के बाद इस क्षेत्र पर सिंधिया घराने का कब्जा हो गया। 


1948 में जब मध्य भारत का गठन हुआ, तो पूर्व ग्वालियर राज्य के श्योपुर जिले को इसमें शामिल किया गया, और बाद में यह मुरैना जिले का हिस्सा बना। 1 नवंबर 1956 को राज्यों के पुनर्गठन के परिणामस्वरूप मुरैना एक अलग जिला बन गया। पहाड़गढ़ की गुफाएँ, यहां प्रागैतिहासिक काल के शैलचित्र मिलते हैं, जो दर्शाते हैं कि यहां 30,000 साल पहले से ही मानव निवास करता था। ककनमठ मंदिर, सिहोनिया, यह कच्छपघाट वंश के राजा कीर्तिराज द्वारा निर्मित एक विशाल शिव मंदिर है।


चंबल घाटी, जिसमें मुरैना का क्षेत्र भी शामिल है, दशकों तक दस्यु गिरोहों के आतंक के लिए कुख्यात रही है। यह समस्या अंग्रेजों के शासनकाल से लेकर आजादी के बाद के कई दशकों तक बनी रही। मुगल सम्राट बाबर के संस्मरणों में भी चंबल के लुटेरे दस्युओं का उल्लेख मिलता है। सिकंदर लोदी, शेरशाह और अकबर जैसे शासकों को भी चंबल घाटी के डकैतों का सामना करना पड़ा था। आजादी के बाद यह समस्या और भी गंभीर हो गई। 


सामाजिक असमानता, भूमि विवाद, जातीय संघर्ष, गरीबी और बेरोजगारी जैसे कारकों ने लोगों को "बागी" बनने पर मजबूर किया। सन 1970 और 80 के दशक में चंबल के बीहड़ों में कई खूंखार डकैतों का आतंक था, जिनके नाम से पूरा क्षेत्र थर्राता था। इनमें से कुछ प्रमुख मान सिंह, मोहर सिंह गुर्जर, माधव सिंह, फूलन देवी, मलखान सिंह, पान सिंह तोमर, निर्भय गुर्जर आदि प्रमुख डकैतों में शामिल थे। कई बार इन डकैतों को स्थानीय नेताओं से भी संरक्षण मिलता रहा, जिससे पुलिस को इनका सफाया करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। चुनाव के दौरान ये डकैत फरमान भेजकर गांवों वालों को अपने पसंदीदा प्रत्याशी को वोट देने के लिए मजबूर करते थे।


आत्मसमर्पण की पहल, डकैत समस्या को हल करने के लिए कई प्रयास किए गए।  विनोबा भावे और बाद में जयप्रकाश नारायण जैसे महान संतों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने डकैतों को मुख्यधारा में लाने के लिए आत्मसमर्पण की पहल की।  बड़े पैमाने पर डकैतों ने आत्मसमर्पण किया, जिससे इस क्षेत्र में शांति का माहौल बना। चंबल नदी और उसके बीहड़, जो कभी खूंखार डकैतों की पनाहगाह थे, अब अपनी प्राकृतिक सुंदरता और वन्यजीवन विशेषकर घड़ियालों और मगरमच्छों के लिए जाने जाते हैं। यह क्षेत्र अपनी अनूठी पहचान के साथ आगे बढ़ रहा है, और डकैत समस्या का इतिहास अब बीहड़ सफारी और कहानियों का हिस्सा बन गया है।


कार्यालय ने मेरा साल भर का ट्रेनिंग प्रोग्राम तैयार कर कलेक्टर से अनुमति ले कर जारी कर दिया। दिन में पहले सुबह में  ट्रेनिंग प्रोग्राम के अनुसार अलग-अलग अधिकारीयों से ट्रेनिंग लेता। शाम को जब कलेक्टर आम जनता से मिलते तब उनके साथ बैठता। वह एक्स आर्मी ऑफिसर थे। स्टैटफॉरवर्ड। निहयात ईमानदार। बंगाली आदमी। मेरी मेहनत से बहुत खुश रहते। तब महेंद्रा की जीप कलेक्टर को मिलती थी। उनके पास एक जीप थी। 


जब उन्हें गुप्त अभियान पर जाना होता गाड़ी में चलता था।  मैंने अपने चाचा की बैंक की गाड़ी चला कर सीखी थी और मेरे पास ड्राइवर का लाइसेंस था। कभी शिकार खेलने तो कभी एस ए एफ पुलिस लाँन में बैठ कर बियर पीने। वहां एक सन अम्ब्रेला लगा था। उसके नीचे हम लोग बैठते। टेबिल पर बियर और फायलें। वह बियर पीते और उनका नौकर एक-एक फायल उनके सामने खोल कर रखता वह बिना पढ़े साइन करते जाते। 


कभी-कभी जब वह आम जनता से मिलते और भीड़ बहुत होती तब वह बाहर जीप के बोनट पर बैठ कर या खड़े हो कर लोगों से मिलते थे। वह लोगों को ध्यान से सुनते उन्हें संतुष्ट करने की भर सक कोशिश करते। एक बार  एक सरपंच आये। उनके गांव के कुँए में पानी सूख गया था। उन्होंने उस सरपंच को अंडरग्राउंड वॉटर का पूरा डायग्राम बना कर समझाया। विभिन्न चट्टानों की संरचना बताई। पानी कैसे दरारों से नीचे जा कर जमा होता है। सरपंच आधे घंटे समझता रहा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस चित्र का उसके कुए से क्या सम्बन्ध है और पानी कैसे आयेगा। वह तो केवल डीप ड्रिलिंग करवाना चाहता था। थक कर बोला समझ गये साहब पानी की थ्योरी और फिर वह चला गया। 


एक दिन हम लोग ऑफिस में बहुत देर तक काम कर रहे थे। वह जमाना कंट्रोल का था। हर चीज राशन कार्ड पर मिलती थी। रात को जब ऑफिस से कलेक्टर साहब जाने बाले थे तभी एक आदमी आया। वह बिना पर्ची अंदर लोगों से मिलते थे। उस आदमी ने इंग्लिश सिंह नाम बताया। मुरैना में तहसीलदार सिंह, कलेक्टर सिंह जैसे नामों का चलन है। इसी तरह वहां हर कोई नाम से साथ सिंह जरूर लगता है। जैसे कुँवर जहर सिंह शर्मा। 


कलेक्टर साहब ने उससे पूछा क्या दिक्कत है। वह बोला उसके पास राशन कार्ड नहीं है इस कारण उसे पम्प चलाने के लिये डीजल नहीं मिल रहा है। उन्होंने उसे बिठाया। मैंने कहा सर मैं कल राशन कार्ड  एस डी एम जौरा से दिलबा दूंगा। वह बोले नहीं रवीन्द्र उसका कितना सुंदर नाम है- इंग्लिश सिंह, अभी राशन कार्ड ले कर एस डी एम को बुलबाओं। फोन किया गया।  कार्ड आया। इस सब में दो घण्टे से अधिक का समय लगा। उन्होंने कार्ड इंग्लिश सिंह को दिया तब हम लोग घर गये। 


हमारा तहसील की ट्रेनिंग मुरैना तहसील में हुई। वहां एसडीएम थे एम एम श्रीवास्तव। बहुत कोमल, सौम्य, सरल ह्रदय व्यक्ति। उनके रीडर शर्मा जी। हमने निश्चित किया की सुन कर नहीं काम कर कर ट्रेनिंग लेंगे। रीडर की ट्रेनिंग में शर्मा जी की जगह में बैठ कर सुनवाई के लिए प्रकरण एसडीएम को में देता। शर्मा जी भेट मोठे व्यक्ति थे। हसमुख। वह सफ़ेद कमीज पहनते। उनमें ऊपर बहित बड़ी जेब बनबाते। वह अपना काम करते रहते। पक्षकार या वकील प्रकरण में तारीख लेने आते। शर्मा जी की जेब में सिर्द्धानुसार रूपये रखते जाते ना कभी शर्मा जी किसी से कुछ मांगते ना ऊपर मुँह उठा कर देखते। किसने कितना पैसा रखा। पर इतना आ जाता कि शाम तक जेब भर जाती। जब मैं कुछ दिन उनकी जगह बैठा तो लोगों ने सोचा शर्मा जी का ट्रांसफर ही गया है और में नया रीडर हूँ। वह मेरी जेब मैं पैसा रखने लगे। जितना पैसा आया मैने ईमानदारी से शर्मा जी को शाम को दे दिया। मुझे परीक्षा के समय पढ़ी प्रेमचन्द की कहानी नमक का दरोगा याद हो आई। जिसमें दरोगा का पिता कहता है 'यह तो पीर का मजार है।’


मुरैना में लोगों के तीन शौक तब थे- पहला बन्दुक रखना। दूसरा अच्छे बैल रखना और तीसरे घर में एक महिला खरीद कर लाना। बन्दुक का लाइसेंस मिल जाना बहुत बड़ी बात होती। बन्दुक सुरक्षा के लिए रखते थे। यदि ग्वालियर के बस स्टैंड में किसी बस में सबसे ज्यादा लोग बंदूक टांग कर बस में बैठ रहे हो तो आप उस बाद में बिना पूछे बैठ जाये वह बाद मुरैना ही जायगी। बंदूक का लाइसेंस बनाने के लिये ऑफिस में बाबू की पोस्टिंग बहुत सिफारिस से होती थी। वहां उस समय बाबू जी थे मातादीन भारद्वाज। बहुत लम्बे तगड़े हंसमुख मिलनसार व्यक्ति। उनके पास हर समस्या का हल था। मेरी शुरू-शुरू में बहुत मदद की। ट्रेनिंग तो दी ही साथ में दोस्त बन गये। वह दोस्ती आज तक कायम है। उनके बच्चे भी मिलते रहते है। 


मेरी ट्रेनिंग मुरैना के पटवारी के साथ थी। मैं उनके साथ गांव जाता मौके पर खसरा नम्बर, नक्शा, बटान , खतौनी, फसल गिरदावरी, नामान्तरण , बी वन से बी सेवन तक के फॉर्म, सीमांकन, चांदा, जरीब, ऋण पुस्तिका जैसे कितने भूमि से जुड़े शब्द और उनके अर्थ समझे। पटवारी मेन्युल भाग एक से सात तक पढ़े। लेकिन किताब में लिखी बात एक होती है और जमीन पर काम होना दूसरी बात। जो परम्परोओं से चलती है। 


कहने को तो मध्य प्रदेश में कानून पूरे राज्य के लिए एक तरह के है। उन्हें लागु करने की नियम सामान है। लेकिन धरातल पर आज का मध्य प्रदेश चम्बल का मध्य भारत, भोपाल को भोपाल रियासत, सागर का बुन्देलखण्ड, रीवा बघेलखण्ड, जबलपुर महाकौशल, उज्जैन मालवा , इंदौर निमाड़, बालाघाट महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ को मिला कर बना प्रदेश है। यहां को परम्पराए, रीतरिवाज, मान्यताए तथा प्रशासन के प्रति दृष्टिकोण अलग-अलग है। समाज कानून से नहीं परम्पराओं से चलता है। 


पटवारी जी ने बताया कि साहब लोग प्रतियोगी परीक्षा के समय इतना पद लेते है कि वह लोग नौकरी में आते ही पढ़ना-लिखना बंद कर देते है। कानून पड़ते नहीं, नियम जानते नहीं यहां तक कि शासन से प्राप्त पत्र भी नहीं पड़ते। क्योकि वह सोचते कि एकवार नौकरी पक्की हुई फिर उन्हें कोई निकाल नहीं सकता। वह वेताल जैसे सिस्टम पर तब तक लदे रहते है जब तक मर नहीं जाय या रिटायर ना हो जाय। वह जूनियर स्टाफ से पूछ-पूछ कर काम करते है। इस कारण परम्पराओं से देश चल रहा है। जनता कानून जानती नहीं सो वह भी परम्पराओं को अपना भाग्य मानते है। 


पटवारी प्रशासन की नींव का पत्थर है और पटवारी के रिकार्ड में लिखी बात पत्थर की लकीर। कोई काट नहीं सकता। इस का प्रत्यक्ष अनुभव मुझे तब हुआ जब कलेक्टर ने एक पटवारी की शिकायत की जांच मुझे दी। तत्कालीन सांसद महोदय ने एक शिकायत कि की उनकी आगरा बॉम्बे के हाई पर स्थित जमीन किसी सरेंडर डाकू के नाम पटवारी ने कर दी। उन्होंने वह जमीन किसी और को बेचीं थी लेकिन पटवारी ने दाखिल ख़ारजी का खर्चा मांगा। जो नहीं दिया तो पटवारी ने खसरा के खाना नबम्वर बारह में वक्त गिरदावरी सरेंडर डाकू का मौके पर कब्ज़ा लिख दिया। 


खसरा पांच साल के लिये बनता है। फिर पटवारी नया खसरा बनाता और पुराना तहसील में जमा कर देता था। लेकिन इस पटवारी के पास एक पुराना तथा एक चालू खसरा था। इसने पिछली तारीखों में सात साल की खाना बारह में सरेंडर डाकू का नाम इन्ट्री चढ़ा दी। सरेंडर डाकू ने खेत में ट्रैक्टर चला कर फसल बोना चाही। झगड़ा हुआ। पुलिस केस बना। सरेंडर डाकू ने पटवारी से खसरे की नक़ल ले कर सिविल कोर्ट में आवेदन दे कर कब्ज़ा न हटाने पर स्टे ले लिया। 


अब मौके पर कब्ज़ा सरेंडर डाकू का था और सांसद एक अधिकारी से दूसरे अधिकारी, एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय के चक्कर काट रहे थे। पटवारी ने पत्थर की लकीर खींच दी थी। प्रधान मंत्री को शिकायत कर रहे थे। अब मध्य प्रदेश भू राजस्व संहिता में लिखा है कि 'जब तक अन्यथा सिद्ध ना कर दिया जाय खसरे को सही माना जायगा।' अब आप राज्य शासन के विरुद्ध राज्य शासन के राजस्व अधिकारी के कोर्ट में शासन के रिकार्ड को गलत साबित करो। फिर तहसीलदार, एस डी ओ, कलेक्टर, कमिश्नर और राजस्व न्यायालय में केस लड़ों फिर सिविल कोर्ट में सिविल न्यायधीश, जिला न्यायधीश, उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्य न्यायालय में सिद्ध करो। यदि आप मर जाय तो आपके बच्चे, उनके बच्चे, बच्चों के बच्चे केस लड़ते रहे। 


दो माह पश्चात मुझे भोपाल ट्रेनिंग करने का आदेश मिला। डिप्टी कलेक्टर के पद पर चयनित अभ्यर्थियों को आर.सी.वी.पी. नरोन्हा प्रशासन एवं प्रबंधकीय अकादमी, भोपाल में प्रशिक्षण दिया जाता है। यह अकादमी, राज्य के प्रशासनिक अधिकारियों को प्रशिक्षित करने के लिए एक महत्वपूर्ण संस्थान है। 1980 के बैच के डिप्टी कलेक्टरों ने भी इसी अकादमी में प्रारंभिक प्रशिक्षण दिया गया था। 


जब हम आर.सी.वी.पी. नरोन्हा प्रशासन एवं प्रबंधकीय अकादमी, भोपाल पहुंचे तब वहां के होस्टल का एक भवन था और कुछ बन रहे थे। हमारे साथ 1979 वर्ष के यूनियन सर्विस कमीशन द्वारा चयनित सीधी भर्ती के बैच के लड़के लड़कियां ट्रेनिंग के लिये आये थे। इस तरह लगभग पैतीस लोग थे। तब प्रशासन अकादमी का मैस भवन नहीं बना था। मैस नहीं चलता था। सबसे पास का बाजार विट्टन मार्केट भी विकसित नहीं हुआ था। आस-पास कोई आवासीय कॉलोनी नहीं थी। आने-जाने का साधन नहीं मिलता था। 


ऐसे में प्रशासन अकादमी के डायरेक्टर/निर्देशक ने हम लोगों को मैस चलने का आदेश दिया। सबने मिल कर मुझे मैस सेक्रेटरी बना दिया। मेरा काम था सभी से मासिक पेमेंट लेना, बाजार से किराना, सब्जी, दूध, अण्डे, ब्रेड आदि सामान खरीद कर लाना। स्टोर में रखना तहा रोज सुबह रसोइये को तोल कर सामान देना। 


यह बहुत मेहनत का काम था पर मुझे तो अलग करने के लिये जुम्मन कीड़े ने कटा था। तो यह काम तो करना ही था। सबसे कठिन काम था पैसा बसूलना। समय पर लोगों का वेतन नहीं आता था। तब सामान खरीदने के लिये पैसे की व्यवस्था करनी होती थी। वहां से बीस किलोमीटर से आगे सब्जी मण्डी थी। इसके लिए प्रशासन अकादमी के डायरेक्टर ने हम लोगों को एक गाड़ी की व्यवस्था की। यह गाड़ी उनके परिवार के उपयोग में भी आती थी तो कई बार गाड़ी मिलने में दिक्कत होती थी। किसी को कड़क रोटी चाहिये तो किसी तो नरम। यहां अलग-अलग  राज्यों से लोग थे सब की पसन्द अलग। रोज झगड़ा होता। प्रशासन अकादमी के रसोइये, वर्तन साफ करने वाले, सफाई वाले स्टाफ के नखरे अलग। 


कालेज के समय एन सी सी तथा एन एस एस के कैम्प लगाने का अनुभव यहां काम आया। एकेडमी के महा निर्देशक थे फ़क़ीर चंद और निर्देशक थे श्री जैन। एक दिन महानिर्देशक महोदय बल्लभ भवन राज्य सचिवालय से आये। उन्होंने हम लगों की मीटिंग की। कुछ ने मैस की व्यवस्था की शिकायत की। मुझसे उन्होंने समस्या पूछी। मैने एकेडमी से समय पर गाड़ी न मिलाने की समस्या बतादी। निर्देशक थे श्री जैन को डांट पद गई। तब से वह मुझसे चिढ़ने लगे। मुझे परेशान करने के बहाने खोजने लगे। मुझे बाद में लगा कि  गाड़ी न मिलाने की समस्या की शिकायत नहीं करना था। पर बचपना बहुत था। 


प्रशासन अकादमी में दो वार अटेंडेन्स के रजिस्टर पर हस्ताक्षर करना होते। मैस के झमेलों के कारण मेरी अटेंडेन्स काम हो जाती। तब प्रशासन अकादमी से नोटिस मिला। एक दिन हम लोग प्रशासन अकादमी के सामने झील में बोटिंग करने गये। अटेंडेन्स के रजिस्टर के रजिस्टर को झील में फेंक दिया। मैंने नोटिस का जवाब दिया कि मैंने पूरे हस्ताक्षर किये है। सबूत के तौर पर टेंडेन्स के रजिस्टर को दिखाने की मांग की। टेंडेन्स के रजिस्टर को प्रशासन अकादमी के स्टाफ ने खूब खोजा नहीं मिला। तब मेरा नोटिस निरस्त हुआ। 


प्रशासन अकादमी एक पत्रिका निकाने जा रही थी। हम लोगों से लेख मांगे गये। मैंने मेहनत करके नामांतरण पर लिख लिखा जिसे पत्रिका में प्रमुखता से छापा गया। मुझे जब प्रशंसा मिल रही थी तभी मुझे प्रशासन अकादमी से दूसरा नोटिस मिला कि मैंने मध्य प्रदेश भू राजस्व संहिता से तथा श्री जैन निर्देशक, प्रशासन अकादमी के किसी लेख की नक़ल की है। मैंने जवाब में लिखा कि मध्य प्रदेश भू राजस्व संहिता द्विवेदी जी की किताब सभी लोग पढ़ते है। मैंने नहीं पढ़ी है। पर प्रक्रिया की व्यख्या मेरी है। मैंने कभी श्री जैन का लेख ना तो देखा है न ही नक़ल की है। मेरे लेख का मिलान कर लिया जाय। तब यह नोटिस निरस्त किया गया। 


जब हम लोग यह  प्रशिक्षण समाप्त कर वापिस मुरैना चला गया। कई महीनों बाद तीसरा नोटिस प्रशासन अकादमी से आया जिसमें किचिन तथा खाने के वर्तन, चमच, कप, प्लेट आदि की एक लम्बी सूची थी जो गायब सामान था उसकी कीमत बसूली की राशि सूची अनुसार जमा करने की मांग की गई थी। मैंने उसका जवाब दिया कि मुझे केवल खाने की सामग्री लाने का काम मौखिक दिया गया था। जिसका पूरा हिसाब मेरे पास है। किचिन तथा खाने के वर्तन मुझे कभी नहीं सोपे गये। वह  प्रशासन अकादमी के स्टाफ के पास ही रहे। मेरे कही प्राप्ति के हस्ताक्षर हो तो मुझे वह रसीद दिखा दी जाय तो मेरी जिम्मेदारी बनेगी। जब वह सामग्री कभी मेरे प्रभार में दी नहीं गई तो राशि जमा करने का नोटिस निरस्त किया जाय। तब जा कर यह नोटिस ख़ारिज हुआ। क्लास रूम के बाहर मिली यह असल ट्रेनिंग आगे नौकरी में बहुत काम आई। 


जब मैं मुरैना वापिस पंहुचा तो श्री दत्त साहब का स्थानांतरण हो गया था। मेरे दूसरे कलेक्टर थे श्री एस सी वर्धन। यह बहुत सीधे तथा सौम्य व्यक्ति उड़ीसा के निवासी थे। वह दो-तीन महीनें ही थे। तभी कमला कांड हो गया। अश्विनी सरीन, द इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार थे, ने  एक "देह व्यापार के बाजार" से "कमला" नामक एक महिला को खरीदा था। ऐसी प्रथाओं के लिए बदनाम जगह थी जहाँ महिलाओं को वेश्यावृत्ति या घरेलू दासों के रूप में बेचा जाता था। 


उन्होंने उसे 1981 में कथित तौर पर 2,300 रुपये में खरीदा था। सरीन का इरादा भारत के कुछ हिस्सों में बेरोकटोक चल रहे मानव तस्करी और महिलाओं की खरीद-फरोख्त की भयानक प्रथा को उजागर करना था। उन्होंने फिर द इंडियन एक्सप्रेस में अपने अनुभव और इस व्यापार की वास्तविकता का विस्तार से वर्णन करते हुए लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित की। इस खुलासे ने पूरे भारत में भारी हंगामा खड़ा कर दिया। तभी मुरैना में एक और महिला के साथ बदसलूकी की गई, इसके परिणामस्वरूप मुरैना कलेक्टर का स्थानांतर कर दिया गया। 


फिर हमारे तीसरे कलेक्टर थे श्री सन्दीप खन्ना। वह दिल्ली के निवासी थे। तब तक मुझे सरकारी मकान मिल गया था। मेरा परिवार आ गया था। मेरे चाचा ने उनकी राजदूत मोटर साइकल मुझे दे दी थी। टीकमगढ़ से मुरैना की सड़क मार्ग से दूरी लगभग 256 किलोमीटर मैंने अकेले तय की थी। मैंने एल एल बी करने की लिये कॉलेज में एडमिशन लिया। मुझे दिल्ली के हाइ कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मध्य प्रदेश सरकार के प्रकरणों में प्रभारी बनाया गया था। इस कारण हर माह मुझे दिल्ली जाना होता था। में रात को छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से दिल्ली जाता। 


ट्रेन सुबह निजामुद्दीन स्टेशन पर पहुंचती। मैं पैदल पालिका बाजार जाता। वहां नया अंडरग्राउण्ड बाजार बना था। वहां अच्छे से फ्रेश होता। फिर सुप्रीम कोर्ट जाता। मध्य प्रदेश शासन द्वारा नियुक्त एडवोकेट गम्भीर जी के चेंबर जाता। वकालतनामा पर हस्ताक्षर करता। सुप्रीम कोर्ट की केंटीन में दोपहर का खाना खाता। बहुत अच्छा सस्ता खाना होता। मैंने दिल्ली का एक रोड मैप लिया था। पैदल एक सड़क पर जब तक चलता जब तक पांच ना बज जाय। फिर थ्रीव्हीलर ले कर निजामुद्दीन स्टेशन आता। छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से मुरैना सुबह वापिस आता था। 


उन दिनों ट्रैवल तथा कहते का भत्ता बहुत कम था। पास में बहुत पैसे होते नहीं थे। यह रुटीन इसी जरुरत का नतीजा था। इस तरह लगभग पूरी दिल्ली का हर बाजार, हर रोड तथा हर टूरिस्ट प्लेस मैंने पैदल धूम कर देख ली थी। इस बीच बहुत मजेदार कोर्ट केशिस को जानने का मौका मिला। एक प्रकरण दिल्ली तीस हजारी कोर्ट में एक टेप रिकॉर्डर का चल रहा था। किसी समय एक  टेप रिकॉर्डर संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के तहत गरीबी उन्मूलन, असमानता को कम करने और सतत विकास को बढ़ावा देने के लिए विकास खण्ड मुरैना को दिया गया था। उस समय टेप रिकॉर्डर भारत में नहीं मिलते थे। विदेश से आयात होते थे। बहुत महगें थे। टेप रिकॉर्डर कलेक्टर ने ले लिया। कुछ दिन गाने सुने। जब ख़राब हुआ तो दिल्ली सुधाने के लिये भेजा गया। जिस दुकान में टेप रिकॉर्डर सुधारने दिया था वह किसी कारण बन्द हो गई। टेप रिकॉर्डर सुधार कर वापिस नहीं मिला। 


कलेक्टर ने दुकानदार के विरुद्ध कोर्ट में प्रकरण दायर कर दिया। यह प्रकरण वर्षों से चल रहा था। दुकानदार ने आवेदन दिया कि वह टेपरिकॉर्डर की कीमत या दूसरा टेप रिकॉर्डर देने को सहमत था। लेकिन सरकार का कहना था कि वही पुराना टेपरिकॉर्डर मिलाना चाहिए। वह कम्पनी जिसने वह टेपरिकॉर्डर बनाया था बन्द हो गई थी। गवाही देने तत्कालीन कलेक्टर मुरैना करि बार दिल्ली जा चुके थे। सरकार ने वकील तथा अधिकारियों के ऊपर टेप रिकॉर्डर की कीमत से कई गुना खर्च कर दिया था। लेकिन प्रकरण जारी था। 


इस बीच हमारे कमिश्नर श्री व्ही जी निगम कलेक्टर कार्यालय का निरीक्षण करने आये। वह बहुत शक्त मिजाज ऑफिसर थे। उन्होंने सब अधिकारियों की बैठक बुलाई। उनकी टीम ने कई दिनों तक हर शाखा का निरीक्षण कर रिपोर्ट बनाई थी। उन दिनों कमिश्नर की टीम की खूब आवभगत हुई। लेकिन उन्हें भी अपनी सैलरी जस्टीफइड करना थी तो कुछ साधारण कमियां निकाली थी। कमिश्नर ने सब को खूब डांटा। 


जब मेरी बारी आई तो उन्होंने मेरी ट्रेनिंग के बारे में पूछा। मैंने जवाब दिये। उन्होंने पूछा नामांतरण के प्रकरण किस हैड में दर्ज होते है। मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता के तहत राजस्व न्यायालयों में प्रकरणों के पंजीयन के संबंध में, विभिन्न प्रकरणों के लिए विशिष्ट शीर्षक होते हैं। ये शीर्षक मामले की प्रकृति पर निर्भर करते हैं। प्रत्येक प्रकार के राजस्व मामले के लिए अलग-अलग शीर्षक होते है जैसे नामांतरण, बंटवारा, सीमा विवाद/सीमांकन, अतिक्रमण, व्यपवर्तन और आपत्ति/अपील/पुनरीक्षण/पुनरावलोकन आदि। 


जब कोई आवेदन या प्रतिवेदन प्राप्त होता है, तो राजस्व न्यायालय उसका पंजीयन एक विशिष्ट प्रकरण संख्या के साथ करता है, जो प्रकरण के प्रकार और न्यायालय के अनुसार होता है। मुझे वह हैड याद नहीं था। तब उन्होंने कहा तुम ठीक से ट्रैनिंग नहीं ले रहे हो। तुम्हारे प्रोवेशन पीरियड को बढ़ाने के लिए सामान्य प्रशासन विभाग को पत्र लिखना पढ़ेगा। मैं डर गया। इसका मतलब था कि मेरी सर्विस तब तक कन्फर्म नहीं होती जब तक मैं दो साल का प्रोबेशन पीरियड पूरा करने के साथ विभागीय परीक्षा तथा ट्रैनिंग पूरी नहीं कर लेता। मैंने उनसे याद करने का समय मंगा जो उन्होंने बहुत कठिनाई से मुझे दिया। 


एक दिन में बहुत सरे हैड याद कर उनके कमिश्नर ऑफिस गया। उन्होंने मुझसे वह हैड नहीं पूछे। उन्होंने पूछा कि मुरैना का अधिकतम तापमान क्या होता है। फिर मेरे पास इस सवाल का जवाब नहीं था। उन्होंने अपना ऑफिस बैग खोल कर बताया जब उन्हें किसी मीटिंग में जाना होता है तब वह अपने साथ कितनी जानकारी के जाते है। उन्होंने मुझे सिंधिया राज्य की एक पुस्तक 'दरबार पॉलिसी' पड़ने को दी। इस पुस्तक में वह विवरण दिये गए है जब आप महाराजा के सामने  दरबार में कैसे कपड़े पहनेंगे, क्या-क्या जानकारी ले कर जायगे। कैसे व्यवहार करेंगे आदि। 


धीरे-धीरे मैंने जाना कि जो अधिकारी जितना करप्ट होगा उसे उतना एग्जीक्यूटिव ऑफिसर माना जाता। एक दिन मेरे कलेक्टर ने कहा तुमने एक कहावत सुनी है 'साहब की अगड़ी और घोड़े की पछाडी' नहीं पड़ना चाहिये। मैंने तत्काल पूछा क्या आजू-बाजू साथ-साथ नहीं चल सकते। उन्होंने मुस्करा कर कहा 'कुछ बातें उम्र के साथ समझ आती है।' वह बहुत सही थे। 


अगली दफे जब हमारे कमिश्नर फिर आये उन्होंने सब की मीटिंग बुलाई। मुझसे पूछा तुम नया काम क्या करोगे? मुझे कुछ पता नहीं था। मैंने कहा- जो कोई नहीं करेगा वह मैं करूगां। उन्होंने कलेक्टर ऑफिस का पुस्तकालय व्यवस्थित करने का काम मुझे दिया। मेने उस की सभी किताबें, फॉर्म, कागज बाहर लिकलवाये। सफाई पुताई करवाई। सभी को बहुत व्यवस्थित जमाया जैसे कॉलेज के पुस्तकालय में देखा था। लिस्टींग, इन्डेक्सिंग अधिनयम तथा नियमों के आधार पर फॉर्म जमा कर करवाई। नया बोर्ड लगवाया। हर रैक पर विषय सूची लगाई। कमिश्नर को कलेक्टर के माध्यम से आमंत्रित किया। उन्होंने देखा। मैंने बहुत गर्व से उन्हें दिखाया। उन्होंने अगले दिन मुझे तथा मेरे कलेक्टर को प्रशंसा पत्र भेजा। वह मेरी नौकरी में पहला प्रशंसा पत्र था। यह नतीजा था अलग हट कर कुछ करने का। जिस कीड़े ने मुझे कॉलेज में काटा था उसका असर आज भी है। 


 प्रोबेशन काल में देश में चुनाव हुई। मुझे वोटों की गणना का प्रभारी बनाया गया। वोटों की गणना के लिये मैंने अनेक शासकीय भवन देखे। कोई इतना बड़ा नहीं था कि सभी विधानसभाओं के गणना अधिकारी, कर्मचारी एक साथ बैठ सके। जहां मत पेटियां सुरक्षित रखने के लिये स्ट्रंग रूम निर्वाचन आयोग के मापदंडों पर बनाया जा सके। अंत में सेन्ट्रल वेयरहाउस कारपोरेशन का एक निर्माणाधीन का चयन किया गया। उसकी चाबी सेन्ट्रल वेयरहाउस कारपोरेशन के सब इंजीनियर से मांगी तो बोला ठेकेदार के पास है। ठेकेदार से मांगी तो बोला सब इंजीनियर के पास है। ऐसा करते दो दिन निकल गए। मेरा स्टाफ चाबी नहीं जा सका। काम करने के लिए दिन कम थे। मैंने अपने ऑफिस बुलवाया तो मना कर दिया। तब मैं अपनी जीप से उसे खोज कर चाबी लगे गया। वह वेयरहाउस के रास्ते में मिल गया। 


उसे रोका वह मोटर साइकिल पर पाव नीचे कर मेरी गाड़ी के पास खड़ा था। मेरे स्टाफ ने चाबी मांगी तो बोला उसके पास नहीं है  ठेकेदार के पास है। जब उसे बताया कि ठेकेदार से मांगी कहता है सब इंजीनियर के पास है सही क्या है ? वह अकड़ कर बोला पता नहीं है। मैंने एक झापड़ उसे मारा तो नीचे गिर पड़ा। चुपचाप जेब से चाबी निकाल कर दे दी। उन दिनों कागज के मत पत्र पर मुहर लगा कर वोटिंग होती थी। वोट गिनने में दो दिन लग जाते थे। हर विधान सभा के लिये चौदह गणना टेबल होती थी। हर टेबल पर तीन कर्मचारी होते थे। सभी चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के प्रतिनिधि होते थे। 


मत पेटियां स्ट्रांग रूम से  एक एक कर टेबल पर आती। एक बार में चौदह पेटियां खोली जाती। मतपत्र निकाल कर गिने जाते। फिर पचास-पचास की गड्डियां बनाई जाती। एक ड्रम में सभी गड्डियां मिलाई जाती। फिर गिनती होती थी। ऐसे राउण्ड तब तक चलते जब तक सब वोटों की गिनती नहीं हो जाती। डाक से प्राप्त मतपत्रों की गणना अलग होती। सब का टोटल कर विजयी उम्मीदवार/ प्रत्याशी की घोषणा निर्वाचन अधिकारी द्वारा की जाती थी। 


यदि कोई उम्मीदवार/ प्रत्याशी पुनः मत गढ़ना की मांग करता तब पूरी प्रक्रिया पुनः दुहराई जाती थी। यह बहुत समय लेने बाला मेहनत का काम होता था। सभी लोगों को खाना, पीना तथा आराम की व्यवस्था करना होती थी। सम्पूर्ण गणना होने के बाद ही घर जाने की अनुमति होती थी। मैंने बहुत अच्छी व्यवस्था करवाई थी। मेरा कॉलेज के दिनों का अनुभव बहुत काम आया। 


मुरैना में कलेक्ट्रेट भवन की नई बिल्डिंग के लिये मेला ग्राउंड के पास जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा था। एक दिन एक वकील ने एक आवेदन कलेक्टर को दिया कि उनके पक्षकार की जमीन पर उनके परिवार का प्राचीन शिव मन्दिर बना है। अतः उस जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जाए। कलेक्टर ने वह आवेदन स्थल निरिक्षण कर वस्तुस्थिति की रिपोर्ट देने के लिये मुझे दिया। एक दिन मैं स्थान देखने गया। गर्मियों के दिन थे। एक बाबू की मोटर साइकिल से मौके पर गया। वहां एक आदमी खेत में काम कर रहा था। वह भूमि स्वामी था। मैंने उसके बयान लिखे। 


वहां एक चबूतरा बना कर एक पत्थर को पूजा करने के लिये शिवलिंग के रूप में रखा था। वह कोई पुराना मन्दिर नहीं था। मैं स्थल निरीक्षण के पश्चात अपने कक्ष में रिपोर्ट लिख रहा था। तभी एक नौजवान वकील आया। मैंने उसे कुर्सी पर बैठने को कहा। उसने मुझसे पूछा क्या मैं मौका देखने गया था। मैंने उसे बताया कि में अपनी रिपोर्ट लिख रहा हूँ। उसने कहा कि मैं उसे बिना सुने रिपोर्ट नहीं लिख सकता हूँ। 


मैंने उसे बताया कि यह कार्यवाही महज एग्जीक्यूटिव रिपोर्ट के लिये है। उसे अपने पक्षकार का आवेदन सुनवाई के लिये भूमि अधिग्रहण अधिकारी हो देना चाहिए। उन्हें सुनवाई करने का अधिकार है। वह बहुत नाराज हो गया और मुझे धमकी देने लगा कि देखते  बिना सुने कैसे रिपोर्ट लिखते है। वह मेरी तवील पर बार-बार हाथ पटक रहा था। मैंने उसे कक्ष से बाहर जाने का कहा। वह मणि माना। बाहर नहीं गया। सुनवाई करने की लिये जिद्द करने लगा। 


जब समझने पर नहीं माना तब मुझे बहुत गुस्सा आ गया। उन दिनों मुझे बहुत जल्दी बहुत ज्यादा गुस्सा आता था। तब मेरे व्यवहार पर मेरा नियंत्रण नियंत्रण नहीं रहता था। उन दिनों कमरे में गर्मी से बचने की लिये खस की चिक लगाई जाती थी। मैंने उसे एक लात मारी। वह बाहर जा गिरा। उसे कोई चोट नहीं आई। वह चिक से टकरा कर बाहर गिरा था। वह चला गया। अगले दिन वार एसोसिएशन ने मुझ पर माफ़ी मांगने तथा पुलिस केश दर्ज करने की मांग कर हड़ताल कर काम बंद कर दिया। दिन भर मेरे विरुद्ध वकील नारे लगते थे। सभी कोर्ट्स में काम बंद था। 


वकीलों ने कलेक्टर को उनकी मांगो का ज्ञापन दिया। कलेक्टर ने मुझ से कहा ‘जब तुम्हारे हाथ में कलम है तो कलम चलाओ हाथ क्यों चलते हो।’ कार्यालय परिसर में पुलिस लगा दी गई। मुरैना में जरा-जरा सी बात पर लोग गोली चला देते है। मुझे सतर्क रहने की सलाह पुलिस अधीक्षक ने दी। यह हड़ताल चार दिन तक चली। चौथे दिन मुझे कमिश्नर ने बुलवाया। चम्बल डिवीजन में केवल दो जिले भिंड और मुरैना ही आते है। कमिश्नर मुरैना में ही रहते थे। उनके पास काम ज्यादा नहीं होता था। वकीलों ने उन्हें ज्ञापन दिया। 


कमिश्नर ने अगले दिन मुझे बुलाया। मैं अपने कलेक्टर के साथ उनसे मिलने गया। उन्होंने पूरी घटना कलेक्टर से पूछी। कलेक्टर  ने पूरी बात बताई। कमिश्नर ने तब पुलिस अधीक्षक को बुला लिया। मुझे बाहर बैठने को कहा। तीनों ने आपस में बात की। थोड़ी देर बाद मुझे अन्दर बुलाया। कमिश्नर ने कहा कि ‘रवीन्द्र ! तुम माफी मांग लो।’ हड़ताल समाप्त हो जाएगी। मुझे बहुत ख़राब लगा। मैंने देखा कि मेरे सीनियर ही मेरा पक्ष नहीं ले रहे है। मैंने साहस कर कहा सर ! मैं अपने कमरे में था। मुझे वकील को सुनाने का अधिकार नहीं है। मैं केवल वस्तुस्थिति की रिपोर्ट बना रहा था। उलटे शासकीय कार्य में बाधा डालने का केस पुलिस को वकील के विरुद्ध दर्ज करना चाहिए। 


मैंने कहा चाहे जो हो जाए मैं माफ़ी नहीं मांगूंगा। मैं बहुत अपमानित महसूस कर रहा था। कमिश्नर ने कलेक्टर तथा पुलिस अधीक्षक को मुझे समझाने तथा ठंडे  दिमाग से काम लेने की सलाह दी। हम लोग वापिस आ गये।कलेक्टर के रीडर शर्मा जी वार एसोसिएशन के अध्यक्ष के साथ रोज रात को खाते-पीते थे। मैंने उनसे ट्रेनिंग ली थी वह मुझे अपने बच्चे जैसा प्यार करते थे। उन्होंने मुझे परेशान दिखा कर मेरे कमरे में आ कर कहा कि वह आज रात अध्यक्ष से हड़ताल समाप्त हारने के पत्र पर हस्ताक्षर ले लेंगे। 


उन्होंने रात को वार एसोसिएशन के अध्यक्ष के लेटर पेड़ पर कलेक्टर ने नाम हड़ताल वापस लेने का पत्र हस्ताक्षर करवा कर ले लिया। मैंने वह पत्र कलेक्टर, कमिश्नर तथा पुलिस अधीक्षक को दिया। पत्र से वकीलों की गुटबाज़ी तथा फूट सामने आ गई और हड़ताल समाप्त हो गई। मुझे अपनी दादी की कही कहावत 'जान बची और लाखों पाये, लौट के बुद्धू घर को आये' याद आ गई। मैंने अपने कलेक्टर की  सलाह ‘जब तुम्हारे हाथ में कलम है तो कलम चलाओ हाथ क्यों चलते हो’ भविष्य में मानने की निश्चय किया। 


यह वह दिन थे जब राशन, डीजल, पैट्रोल, मिट्टी का तेल, शक्कर, गेहूं, चावल यहां तक कि स्कूल की कापियां कंट्रोल से मिलती थी। हम लोग दाल बना कर कभी इस बाजार कभी उस बाजार दुकानें चेक करते स्टॉक, कीमत देखते। गोदामों में छापे लगते।  स्टॉक मिलान नहीं होने पर दुकानें, गोदाम सील कर देते थे। इस मामले में मैं बहुत बदनाम हो गया था। बहुत मेहनत ईमानदारी से काम करते। बाजार में जब मेरी गाड़ी रुकती तो दुकानें बंद हो जाती। एक दफे मेरी पत्नी ने बाजार जाने का कहा में उनके साथ जब बाजार में गाड़ी घुसी तो मेरी गाड़ी देख कर दुकानें बंद हो गई। रात को हम लोग आगरा बॉम्बे हाईवे पर ट्रक चेक करते थे। जब स्कूलों में परीक्षा होती तब नक़ल चेक करने जाते। लेवी में सरकार किसानों से गेहूं लेती थी तब गांव-गांव जा कर गेहूं एकत्र करवाते थे। 


मुरैना में बोर्ड परीक्षाओं में नक़ल कराने का बहुत बड़ा उद्योग चलता था। स्कूलों में बोर्ड परीक्षा देने पुरे देश के बच्चे आते थे। निजी स्कूल जो बोर्ड परीक्षा के केंद्र होते खेतों में टेन्ट लगा कर परीक्षा करवाते थे। पास करवाने के ठेका दिया जाता था। निजी स्कूल में चार तरह के ऑफर उपलब्ध होते -पहला जिसमें स्टूडेंट को कुछ नहीं करना स्कूल उनकी तरफ से किसी अन्य से उसका पेपर सॉल्व कराते, दुसरे में स्कूल ब्लैक बोर्ड पर उत्तर लिखते नक़ल स्टूडेंट को करना होती, तीसरे में आप अपनी किताबें ले कर आये और नक़ल खुद करें तथा चौथे में स्टूडेंट अपनी नक़ल चुटकों पर ला कर उत्तर लिखें। चारों ऑफर्स की फ़ीस अलग-अलग होती थी। उसी के हिसाब से उन्हें रोल नम्बर मिलते तथा बैठक व्यवस्था अलग-अलग की जाती थी। यह परीक्ष केंद्र चम्बल की वादियों में बहुत दूर बनायें जाते जहां रास्ते नहीं होते थे। 


किन्ही-किन्ही गांव में नहर का पानी छोड़ कर रास्ते बन्द कर दिये जाते। किन्ही-किन्ही गांव में बाहर पेड़ों पर लोग बैठे होते दूर से जब गांव में कोई जीप आती देखते तब कोई बाजा बजा कर स्कूल में सिग्नल भेजते। इस समय जीप या कार केबल सरकारी विभागों में ही होती थी। प्राइवेट वाहन लगभग नहीं थे। तब स्कूल की परीक्षा स्थल को व्यवस्थित कर दिया जाता। निरीक्षण के समय कोई नक़ल नहीं मिलती। हम लोग नक़ल पकड़ने की अलग-अलग रणनीतियां बनाते। 


कई बार ऑफिस के बाहर सीओ चाय या नाश्ते की दुकान होती तो वह दुकानदार स्कूलों की 'मुखबरी' करते। "मुखबिर" का हिंदी में अर्थ सूचना देने वाला या गुप्तचर होता है। यह शब्द आमतौर पर उस व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाता है जो किसी गुप्त या गोपनीय जानकारी को किसी अन्य व्यक्ति या संगठन को देता है। जब निरीक्षण दल बाहर जाते तो लैंड लाइन फोन इ कॉल कर स्कूलों को अलर्ट कर देते थे।


कभी-कभी हम लोग खाली हाथ आते। कभी-कभी बोरों में भर कर नक़ल लाते। इस रैकिट में नेता, जनप्रतिनिधि, बोर्ड अधिकारी और स्थानीय कर्मचारी मिले होते थे। मैंने पहला रिश्वत लेने का मामला एक प्राइवेट स्कूल के प्रिंसिपल को पुलिस के साथ ट्रैप कर शुरू किया था। जब पुलिस का दाल किसी को रंगे हाथ रिश्वत लेते पकड़ता है तब उस दाल में एक एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट गवाह के तौर पर होना आवश्यक था। 


हमारे देश में इतने कानून है कि आप कुछ भी कारों वह किसी ना किसी कानून में अपराध हो होगा। मजेदार बात यह है कि जिन अधिकारियों को इन कानूनों में कार्यवाही करने का अधिकार होता है उन्हें पता भी नहीं होता। एक बार हम लोगों ने जांच के दौरान रोड पर एक जले हुए मोबिल आयल का ट्रक पकड़ लिया। ट्रक ठाणे पर खड़ा कर दिया। पता ही नहीं था कि जले हुए मोबिल आयल को ट्रक से ले जाने में कौन सा अपराध था। एक सप्ताह ट्रक थाने पर खड़ा रहा। ट्रक मालिक ने कहा या तो ट्रक छोड़ दीजिये या कोर्ट में पेश कर दीजिये। हमने पुलिस पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के मदद मांगी। उन्होंने कहा कि एक दिन का वक्त दे वह खोज लेंगे कि क्या अपराध बनता है। अगले दिन वह मेरे ऑफिस आये। तीन-चार किताबों के साथ। 


उन्होंने एक माइनर एक्ट में बताया कि जला हुआ मोबिल अत्यावश्यक वस्तु  अधिनियम में कण्ट्रोल आइटम है। इस का परिवहन कलेक्टर के अलॉटमेंट के बाद किया जा सकता है। इस ट्रक में यह प्रक्रिया नहीं अपनाई गई अतः ट्रक को राजसात किया जा सकता है। "राजसात" का मतलब है सरकार द्वारा जब्त कर लेना, विशेष रूप से किसी संपत्ति को, जैसे कि वाहन या भूमि, कानूनी कार्यवाही के बाद। यह कार्यवाही पुलिस द्वारा की गई। 


मध्य प्रदेश में राज्य सिविल सेवा अधिकारियों के लिए विभागीय परीक्षा आयोजित की जाती हैं। ये परीक्षा अधिकारियों के सेवा काल के दौरान उनके पदोन्नति, स्थायीकरण, या विशिष्ट पदों पर चयन के लिए महत्वपूर्ण होती हैं। डिप्टी कलेक्टर का पद मध्य प्रदेश राज्य प्रशासनिक सेवा का हिस्सा है। इन अधिकारियों को स्थायीकरण के लिए विभागीय परीक्षाएं "उच्च स्तर" से उत्तीर्ण करना आवश्यक होता है। इन परीक्षाओं का मुख्य उद्देश्य अधिकारियों को राजस्व, प्रशासनिक, दाण्डिक, वित्तीय और लेखा संबंधी नियमों और प्रक्रियाओं से अवगत कराना तथा उनकी व्यावहारिक दक्षता का मूल्यांकन करना है। डिप्टी कलेक्टर पद पर स्थायीकरण के लिए इन परीक्षाओं को उत्तीर्ण करना आवश्यक होता है। नव नियुक्त डिप्टी कलेक्टरों को परिवीक्षा अवधि प्रोबेशन पीरियड के दौरान इन परीक्षाओं को उत्तीर्ण करना होता है। 


प्रशासनिक, राजस्व एवं दाण्डिक विधि एवं प्रक्रिया: यह विषय प्रशासनिक, राजस्व और आपराधिक कानूनों तथा उनकी प्रक्रियाओं से संबंधित होता है। सिविल विधि एवं प्रक्रिया, वित्त एवं लेखा तथा स्थानीय शासन: इसमें नागरिक कानून, वित्तीय नियम, लेखा प्रक्रियाएं और स्थानीय स्वशासन के प्रावधान शामिल होते हैं। राजस्व विधि एवं प्रक्रिया आदेश लेखन  यह राजस्व संबंधी कानूनों और आदेशों को लिखने की दक्षता पर केंद्रित होता है। दाण्डिक विधि एवं प्रक्रिया आदेश लेखन यह आपराधिक कानूनों और आदेशों को लिखने की दक्षता पर केंद्रित होता है। मेरे द्वारा फर्स्ट अटेम्ट में सभी विषय "उच्च स्तर" से पास कर लिए गये। केवल राजस्व विधि एवं प्रक्रिया आदेश लेखन में उच्च स्तर के नम्बर नहीं आये। इसे दूसरे अटेम्ट में पास कर सका। मैंने परीक्षा मोती महल ग्वालियर में दी था। 


मुरैना जिले में एक सब-डिवीजन है सबलगढ़। वहां के तत्कालीन विधायक जी द्वारा प्रदेश के मुख्यमंत्री को शिकायती पत्र लिखा गया कर ज्ञापन दिया गया तथा अनुरोध किया गया कि एसडीएम द्वारा कण्ट्रोल की शक्कर वितरण में गड़बड़ी की है अतः उन्हें निलंबित कर जांच कर करवाई की जाए।  एसडीएम को शासन ने निलंबित कर स्थानान्तरण कर दिया गया। एसडीएम का पद रिक्त हो गया। कोई भी डिप्टी कलेक्टर वहां जाने को तैयार नहीं था। कलेक्टर ने सब से पूछा। हम लोगों ने मुरैना में ऑफिसर्स क्लब की बिल्डिंग बनवाई थी।  


उसके उदघाटन के लिये  कमिश्नर को मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया। कलेक्टर क्लब के अध्यक्ष थे और मैं सचिव। उदघाटन के बाद हम लोग डिनर करने बैठे। एक टेबिल पर कमिश्नर, कलेक्टर और मैं बैठा था। कमिश्नर ने खाना कहते समय  कलेक्टर से पूछा सबलगढ़ का एसडीएम किस को बनाया। कलेक्टर ने बताया सर ! कोई वहां नहीं जाना चाहते है। सभी विधायक से डरते है। कमिश्नर ने मेरी ओर देख कर कहा 'मेक हिम एसडीएम' मेरा खाने का कौर मेरे गले में अटक गया। मैंने कहा सर ! अभी मेरा प्रोबेशन पीरियड चल रहा है। वह कड़क कर बोले कुछ नहीं ! तुमने विभागीय परीक्षा पास कर ली है। मैंने कातर निगाहों से कलेक्टर की ओर देखा। उन्होंने मुझे आंख से इशारा किया और कहा जी सर। बात खतम हो गई। 


मैं अपनी शुरुआत सबलगढ़ से नहीं करना चाहता था। मैंने कलेक्टर से अनुरोध किया। उन्होंने सलाह दी कि में कमिश्नर से मिल कर बात करूँ। मैं तीन दिन अपनी मोटर साइकिल से कमिश्नर बंगले के गेट तक जा कर लौट आता अन्दर जा कर बात करने की हिम्मत नहीं हुई। कलेक्टर ने आदेश निकाल कर मुझे तीन दिन में ज्वाइन करने को कहा। मैंने अपनी पत्नी से कहा तुम मुरैना में ही रहो। मैं सबलगढ़ जा कर ज्वाइन करता हूँ। विधयक जी से मेरी बनेंगी नहीं वह जल्दी ही मेरा  ट्रांसफर करवा देंगे। 


मैंने एलएलबी में लॉ करने के लिये एडमिशन लिया था। इस कारण परीक्षा नहीं दे सका। हमारे कलेक्टर ने हमें देख कर एडमिशन लिया और उन्होंने लॉ कर लिया। कलेक्टर साहब से मेरी दोस्ती थी हम दोनों लगभग हम उम्र थे। में अक्सर उनके साथ दिल्ली जाता और उनकी ससुराल में ठहरता। वह कहते देखों में कितना दयालु हूँ तुम्हें अपनी साली के कमरे में ठहरता हूँ। उनकी साली तब मिरांडा हाउस में पड़ती थी और होस्टल में रहती थी। एक दफे जब हम लोग दिल्ली गये तो वह मुझे साउथ दिल्ली के रेस्टोरेन्ट में खाना खिलाने ले गये। तब नॉन वेज खाने पर मेरी बहुत बहस हो गई। उसके बाद उन्होंने कभी किसी बात के लिये जबरदस्ती नहीं की। हम लोग कभी-कभी ढाबा पर दाल रोटी खाते। फिल्म देखते और खूब घूमते थे। 


उन दिनों मेरी फोटो तथा न्यूज खूब अखबारों में लगभग रोज छपती थी। मुझे इसका नशा हो गया था। पेपर की कटिंग फायल बना कर रखता। इससे किक मिलता। एड्रेनल रिलीज होता।डोपामाइन रिलीज होता। अजीब नशा था। खूब काम करते थे। जब हम लोग को लोग साथ देखते तो लोग बहुत जलाते थे। तरह-तरह की कहानियां। अफवाहें प्रशासनिक गलियारों में तैरती रहती। मुझे इस सब का अनुभव नहीं था। 


उनकी जिले की जानकारी लेने की अनोखी तरकीब थी। उनके पब्लिक रिलेशन अधिकारी पराशर जी रोज सुबह-सुबह बस स्टैंड जाते और जब चारों और से आने वाली सवारियां बसों से उतरती तब उनसे खबरें पूछते। फिर सीधे कलेक्टर बंगले जाते। कलेक्टर के साथ नाश्ता करते और ऐसी ख़बरें देते जी किसी अख़बार में नहीं छपी होती थी। तब संचार के इतने साधन भी नहीं होते थे। कलेक्टर सम्बंधित अधिकारियों से फोन कर जबाब तलब करते। उन्हें पता नहीं होता था। सब सोचते कलेक्टर का नेटवर्क बहुत तगड़ा है। 


वह अधिकारियों के घर बिना बुलायें जाते। चाय पीने। पूरे घर में घूमते देखते कितना सामान है। अंदाज लगते अधिकारी ईमानदार है या नहीं। अधिकारियों की पत्नियों का क्लब था। अध्यक्ष थी कलेक्टर की पत्नी। जिस अधिकारी की पत्नी महेंगे कपड़े, गहने पहनती उन्हें रिपोर्ट मिल जाती। मैंने समझा कलेक्टर राजा है और डिप्टी कलेक्टर उनकी रानियां और उनमें कोई एक पटरानी। एक चूहा दौड़ अधिकारियों में हमेशा चलती थी। 


मैंने अपनी समझ को नाम दिया -'पस्तोर डॉक्ट्रिन' 'पस्तोर सिद्धांत' जिस के तहत मैं अक्सर चीजों, घटनाओं, और लोगों पर अपनी व्याख्या बनाता। अधिकारियों को मैंने दो श्रेणियों में बाटा था एक थे ज्ञान मार्गी और दूसरे भक्ति मार्गी। आपकी मर्जी आप कौन से मार्ग पर चल कर अपना कैरिअर बनाते है और मेने चुना था ज्ञान मार्गी पथ। क्योंकि मुझे तो अलग करने का जुम्मन कीड़ा काटता था। मेरी दादी ने एक दोहा सुनाया था- 

"लीक-लीक कायर चले, लीके-लीक कपूत। 

लीक छोड़ तीनों चले शायर, सूर, सपूत।"




सबलगढ़ 

सार्वजनिक जीवन में जो लोग काम करते है उनकी दो इमेज होती है एक वह जो वह है और बहुत नजदीक के लोग उन्हें जैसा जानते है। दूसरी इमेज प्रोजेक्टिड होती है जो लोग आपके बारे में दुसरो से सुनते है, अखबारों में पड़ते है या आजकल सोशल मिडिया, डिजिटल मिडिया पर दिखाई जाती है। यह प्रोजेक्टेड इमेज लार्जर थें लाइफ यानी आपके वास्तविक जीवन से बहुत बड़ी होती है। लोग जब सीधे नहीं जानते तो अन्दाज लगते है। मैं बात कर रहा हूँ अस्सी के दशक की। तब अखबार बहुत सीमित थे। खबरे बहुत धमी गति से चलती थी। तो हुआ यो कि जब मेरी पोस्टिंग सबलगढ़ हुई तो लोगों ने अन्दाज लगाया कि 'पस्तोर' सरनेम किस जाती का है। कौन से क्षेत्र का है। हम कुछ भी करले जातिवाद और क्षेत्रवाद भारतीय समाज से कभी खत्म नहीं हो सकता है। सो लोगों ने अंदाज लगाया कि पास्टर क्रिश्चियन होते है। किसी ने पहाड़ी बताया। तो किसी ने अनुसूचित जाति या जन जाति का। लेकिन किसी को अन्दाज नहीं लगा कि में ब्राम्हण हूँ।  


कभी- कभी न्यूट्रल होना कितना फायदे मन्द होता है। यह मैंने अपने जीवन में अनेकवार देखा है। उन दिनों सबलगढ़ में समाजवादियों का गढ़ था और उसके नेता थे बहादुर सिंह धाकड़।वह वकील भी थे। वह सबलगढ़ के बाजार में अपने ऑफिस के सामने दो ब्लैक बोर्ड रखते थे। उन पर रोज की ताजा खबर चाक से सुबह-सुबह लिख देते थे। उन्होंने मेरे सम्बन्ध में काफी खोजबीन की और जितना मुरैना के लोगों से जान्सके थे मेरी विरुदावली लिख दी। लोगों ने चटकारे ले कर पड़ी। बात मुझ तक पहुंची। कुछ पत्रकार इंटरव्यू लेने आये। मैंने व्यक्तिगत जानकारियां देने से मना कर दिया। उन्होंने भी खोजबीन की और न्यूज छपी। तो लोग इतना तो जान गये कि में ब्राम्हण हूँ। 


तब जौरा के विधायक थे मिश्रा जी। वह उनके विधान सभा क्षेत्र में ब्राम्हण अधिकारी ही पोस्ट करबाते थे। सो आप जान लो आप की पोस्टिंग अकेली योग्यता से नहीं होती है। उनके तत्कालीन एस डी एम एक हमारे साथी कोमल सिंह थे। विधायक जी को जब मेरे ब्राम्हण होने का पता चला तब वह कलेक्टर से मिले और मेरी पोस्टिंग जौरा करने का अनुरोध किया। कलेक्टर विधायक जी को नाराज नहीं करना चाहते थे। उन्होंने अन्दाज लगाया कि मैंने विधायक जी से कहलवाया है। जबकि में ना तो कभी विधायक जी से मिला ना उन्हें जनता था। कलेक्टर ने मुझ से पूछा। मैंने वस्तुस्थिति बता दी। उन्होंने किसी तरह विधायक को कहा कि कुछ दिन बाद ट्रांसफर कर देंगे। विधायक जी मान गये। 


मैंने सबलगढ़ में काम शुरू किया। मजेदार बात थी एस डी एम का बंगला। वह विधायक जी के घर के ठीक सामने थे। सड़क के इस पार एस डी एम का घर और सड़क के उस पार विधायक जी का घर। में तब सिंचाई विभाग के रेस्ट हाउस में रह रहा था। एस डी एम की गाड़ी का उपयोग विधायक जी करते थे। लांग बुक एस डी एम भरते थे। मैंने स्टाफ से कह कर गाड़ी बुलवा ली। पहले कण्ट्रोल के कोटा अलॉटमेंट का विवरण दुकानवार विधायक जी देखते फिर एस डी एम जारी करते। मुझे अजीब लगा। मैंने फायल भेजने का सिस्टम बंद करने के निर्देश स्टाफ की दिए। बात विधायक जी तक पहुंच गई। यदि आप कोई बात सबमें फैलाना चाहो तो ऑफिस में सबसे नजदीक लगाने बाले को यह कह कर बता दो कि यह बात गोपनीय है केवल तुम्हें बता रहा हूँ। अपने तक ही रखना। वह बात अगले दिन सबको पता होती। 


मैं विधायक जी से मिलाने उनके घर नहीं गया। कोई प्रोटोकॉल नहीं था। पर लोग जाते थे। एक सप्ताह शांति से गुजर गया। जब आपकी पोस्टिंग किसी जगह होती है तो यह अर्रेंज मैरिज जैसी होती हैं। आपकी बीबी से मुलाकात सीधे सुहागरात में होती है। तब दोनों जोर लगाते है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधता है। माना जाता है कि जीवनभर उसी की चलेंगी। 


उन दिनों भारत सरकार द्वारा कार्यान्वित 'बीस सूत्री कार्यक्रम' देश के सामाजिक-आर्थिक विकास और विशेष रूप से गरीब और वंचित वर्गों के जीवन स्तर में सुधार लाने के उद्देश्य से शुरू किया था। बीस सूत्री कार्यक्रम के कार्यान्वयन की निगरानी केंद्र, राज्य, जिला और ब्लॉक स्तरों पर की जाती थी। ब्लॉक स्तर कमेटी का अध्यक्ष क्षेत्रीय विधायक और सचिव एस डी एम होते थे । 


इस कार्यक्रम को पहली तत्कालीन प्रधानमंत्री  द्वारा शुरू किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य गरीबी उन्मूलन, उत्पादकता बढ़ाना, आय असमानताओं को कम करना और सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं को दूर करना था। बीस सूत्री कार्यक्रम में  कृषि, ग्रामीण विकास, रोजगार सृजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पर्यावरण संरक्षण, कमजोर वर्गों का सशक्तिकरण और सार्वजनिक वितरण प्रणाली सहित विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पहलुओं को शामिल किया गया था।


तब सबलगढ़ में तीन विकास खण्ड सबलगढ़, कैलारस तथा विजयपुर होते थे। मेरी पहली बैठक कैलारस में हुई। मेरी पहली मुलाकात विधायक जी से बैठक मेउ हुई। माहौल में बहुत तनाव था। अधिकारी उस समय बहुत परेशान थे। बैठक में आना उनकी मज़बूरी थी। मैंने बैठक का एजेंडा जारी किया था। बैठक में बहुत सारे अनाधिकृत लोग बैठे थे। वह सब विधयाक जी के सार्थक थे। मेरे द्वारा इस पर आपत्ति ली गई। मैंने कहा कि जी लोग समिति के सदस्य नहीं है बाहर चले जाय। कुछ अधिकारियों के सहायक वहां थे वह सब उठ कर बाहर चले गये। 


विधायक जी के साथी नहीं गए। तब मैंने विधयाक जी से अनुरोध किया। वह नियम जानते थे। ना चाह कर भी मन मार कर उन्हें अपने लोगों को बाहर जाने के लिये कहना पड़ा। उनका मूड बिगड़ गया। ऐसा पहलीवार हुआ था। अधिकारियों के चेहरों पर सन्तोष की झकल थी। उन्हें लगा था कि कोई उनका पक्ष लेने बाला अधिकारी भी है। बैठक की कार्यवाही एजेंडा के अनुसार मैंने शुरू की। विधायक जी ने एक कागज निकाल कर बिजली विभाग के अधिकारियों से जानना चाहा कि राम सुख कैलारस का इस माह का बिजली बिल कितना आया है। बिजली विभाग के डिवीज़नल इंजीनियर के पास जानकारी नहीं थी। विधायक जी उसे डांटने लगे कि बिना जानकारी के बैठक में क्यों आये। उसने कहा कि एक-एक व्यक्ति के बिल की जानकारी लाना सम्भव नहीं है। वह चिल्लाने लगे। अधिकारी को गाली देने लगे। मेरे जीवन की यह पहली बैठक थी। मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने कहा यह कागज मुझे देदे में अगली बैठक के एजेंडे में जोड़ दूंगा तब जवाब आ जायगा। 


वह मेरी तरफ मुड़े और बोले "आप पहली दफे एस डी एम  बने हैं। आपको परम्पराए पता नहीं है।" 

मैंने बहुत शांति तथा विनम्रता से कहा "आप भी तो पहलीवार विधायक बने है।" उन्हें ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी। गुस्से में बोले "में तुम्हें देखा लूँगा।"  अब मुझे भी गुस्सा आने लगा था। मैंने दृढ़ता से कहा "ठीक हैं !आप कैसे देखेंगे?" मैंने कार्यवाही रोक दी। उनसे कहा चलो बाहर एक दूसरे को देख लेते है। फिर बैठक कर लगे। मैं खड़ा हो गया। अपनी कमीज की बाहें मोड़ने लगा। 


वह बोले "मैं मुख्य मंत्री से कह कर तुम्हारा ट्रांसफर करावा दूंगा।" मैंने कहा "ठीक है आप मेरा ट्रांसफर आगरा करवा दे।" वह बोले "आप तो मध्य प्रदेश काडर के अधिकारी है उत्तर प्रदेश में कैसे ट्रांसफर होगा।" मैंने शांति से कहा "मध्य प्रदेश काडर मैंने स्वेक्षा से चुना है। तो मेरा ट्रांसफर तो कही भी हो सकता है। इस में देख लेने की बात कहां है। यदि ताकत है तो कुछ अलग करिये।"  कुछ लोगों के हस्तक्षेप से विवाद शांत हुआ। बैठक हुई। इस के बाद मेरी विधायक जी से दोस्ती हो गई और मैं वहां लगभग तीन साल रहा। कभी विधायक जी ने काम में हस्तक्षेप नहीं किया। सार्वजानिक कार्यक्रमों में कभी वह मुख्य अतिथि होते तब मैं अध्यक्षता करता। कभी मैं मुख्य अतिथि होता तो वह अध्यक्षता करते। आजीवन उनसे दोस्ती रही। 


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