मोक्ष
इल्तुमिश का मोक्ष
बालक के स्वप्न
मैंने समीर को डेटिंग करना जब शुरू किया तब हम लोग आठवीं क्लास में थे। समीर और मैं एक साथ स्कूल जाते, क्लास में साथ बैठते, साथ लंच करते तथा साथ घर लौटते। हम दोनों एक ही कॉलोनी में पड़ोसी थे। हमारे परिवारों में आपस में दोस्ती थी। तो किसी को समीर के साथ होने से परेशानी नहीं थी। हालांकि समीर पढ़ने में औसत दर्जे का था। जब कि मैं हमेशा अपनी क्लास में अब्बल आने बाली थी। मैं समीर को उसकी पढ़ाई में मदद भी करती। तो इस बहाने मुझे समीर के साथ वक्त बिताने का मौका मिल जाता, और हम दोनों का होमवर्क भी हो जाता था।
मैंने धीरे - धीरे यह जाना कि समीर को रात में अकेले सोने में दिक्कत होती है। शुरू में मैंने नोटिश किया कि कभी - कभी समीर के पापा उसे कहीं एक दो दिन के लिये ले जाते। समीर की मम्मी से पूछने पर वह कोई सीधा उत्तर नहीं देती। मैं भी संकोच के मारे ज्यादा नहीं पूछ पाती थी।
समय के साथ- साथ मैंने इस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया। जब हम दोनों ने आई आई टी दिल्ली में एडमिशन लिया और मैं समीर के साथ उसकी कार से जाने लगी तब कभी - कभी हम लोग आउटिंग के लिये भी जाने लगे। पहली रात मैंने नोटिश किया की समीर ने सोने के पहले कमरे के सभी दरवाजे तथा खिड़कियाँ बंद कर दी। रात को नींद खुलने पर मैंने बाहर को खिड़की खोल दी। बाहर पूर्णमासी का चाँद चमक रहा था।ठण्डी हवा का झोंका आ कर मुँह से टकराया। मैं पलंग पर आकर सो गई। समीर गहरी नींद में था। कुछ समय बाद मैंने देखा समीर कुछ बड़बड़ा रहा है, तेजी से करबट बदल रहा है। मैं डर गई, मैंने समीर को झकझोर कर उठाया। तो देखा वह पसीने से तरबतर हो गया है।
मैंने उससे पूछा "क्या हुआ?"
समीर ने बताया कि "कोई मुझे पहाड़ से कूदने के लिये कहे तो मैं पहाड़ से कूद सकता हूँ। लेकिन यदि किसी कमरे का दरवाजा या कोई खिड़की खुली हो तो उस कमरे में सोने के लिए आप मुझे मिलियन डालर दे तो भी सो नहीं सकता। मुझे बचपन से अपने स्वप्न में भगवान शिव डमरू बजाते दीखते है।वह ताण्डव नृत्य करते है। मुझे रावण द्वारा रचित शिव तांडव स्रोत सुनाई देता है -
जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम् ॥
एक साथ अनेकों डमरू बजाते है। शिव जी की डमरू इतनी तेज बजती है कि कानों के पर्दे फटने लगते है। तेज सर दर्द होने लगता है। इसी कारण में अपनी पढ़ाई पर भी ध्यान नहीं दे पता हूँ।"
मैंने पहले यह मन्त्र नहीं सुना था। समीर की हालत देख तथा यह मन्त्र सुन कर मुझे लगा की समीर झूठ नहीं बोल रहा है। हम दोनों विज्ञान के छात्र है। मुझे ऐसी बातों पर यकींन नहीं था लेकिन समीर मैरे सामने था और वह झूठ नहीं बोल रहा था। मुझे धीरे - धीरे डर लगने लगा। समीर ने उठ कर खिड़की बंद कर दी थी।
मैंने समीर से पूछा "क्या कभी शिव की कोई साधना की है ?"
समीर ने अपने माथे पर हाथ रखते हुए बताया "उनका परिवार वैष्णव देवी को मानता है। वे लोग शिव उपासक नहीं है। न तो मेरे पिता जी न ही मेरी मम्मी के घरों में भी शिव की उपासना होती है।"
मैंने समीर से पूछा कि उसको "कब से यह स्वप्न आता है ?"
उसने बताया कि “जब से उसे अपने बचपन की याद है तब से, जब भी वह खुले कमरे में सोता है यह स्वप्न आता है। अभी तक वह भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से सोमनाथ गुजरात, मल्लिकार्जुन आंध्र प्रदेश, ओंकारेश्वर मध्य प्रदेश, केदारनाथ उत्तराखंड, भीमाशंकर महाराष्ट्र, त्रयम्बकेश्वर महाराष्ट्र, घुश्मेश्वर महाराष्ट्र, काशी विश्वनाथ उत्तर प्रदेश, वैद्यनाथ झारखंड, नागेश्वर गुजरात, तथा रामेश्वर तमिलनाडु के मंदिरों के दर्शन पूजा कर चुका है। केवल महाकालेश्वर मध्य प्रदेश जाना बचा है। इन सब जगह जाने से कोई फायदा नहीं हुआ।”
धीरे - धीरे समीर की बातें सुनते - सुनते मैं उसके गले से लिपट गई। हम लोग कब सो गये पता नहीं चला। जब बाहर होटल के वेटर ने दरवाजा खटखटाया तब हमारी नींद टूटी। मैंने दरवाजा खोल कर चाय ले ली। तब भी समीर गहरी नींद में सो रहा था। शायद वह कई रातों से नहीं सोया था। समीर ने बताया था की जैसे - जैसे दिन ढलता है उसे इस स्वप्न का डर सताने लगता है।
मैंने जितना कथाओं में शिव के बारे में पड़ा है तथा अपनी दादी से सुना है शिव को बहुत भोला, दयालु तथा जल्दी खुश हो कर वरदान देने बाले देवता के रूप में जाना है।
उस दिन के बाद से मैंने इंटरनेट पर इस तरह की समस्याओं के बारे में जानने के लिए अनेक बेवसाइट देखना शुरू किया। मेरा तंत्र मन्त्र, टोना टोटका, जादू टोना काला जादू, तथा अघोर साधना के लोगों पर ज्यादा भरोसा नहीं है।
समीर ने बताया की “उसके पिता जी उसे ऐसी अनेक जगहों पर ले कर जा चुके है। बहुत श्रम, समय तथा पैसा बर्वाद करने के बाबजूद कोई फायदा नहीं हुआ उलटे उसके ऊपर मानसिक असंतुलन का ख़तरा बढ़ता जा रहा है।”
हम लोग एक ऐसे व्यक्ति की तलाश में थे जहां यह सब समस्या ना हो। हमारी यह खोज हमें वर्सोवा मुम्बई की एक क्लीनिक तक ले गई। हमने उनकी वेबसाईट देखी। जिस पर उन्होंने बहुत डिटेल में उनकी विभिन्न थेरिपीज़ की विधियों से सम्बन्ध में लिखा था।
मैने समीर को बताया कि डॉक्टर ने उनके बचपन के बारे में लिखा है
कि "उनके पिता उनके जीवन में आदर्श पुरुष रहे है। उन्होंने बचपन से मेरी रूचि भौतिक जगत से परे के जगत में जागृत करने के लिए मुझे ऐसे लोगों से मिलवाया जिन्होंने मेरे जीवन की दिशा बदल दी। उन्होंने मेरे विचारों को सूक्ष्म और दुर्लभ तरीके से प्रभावित किया, जिसका एहसास मुझे बहुत बाद में हुआ। मेरे पिता मेरे जीवन में सबसे अधिक प्रभाव डालने वाले व्यक्ति रहे।”
समीर ने पूछा की फिर उनका रोल मॉडल कौन रहा है ? मैने समीर से कहा कि डॉक्टर का मानना है कि “बड़े होते समय बच्चों के पास एक ऐसा रोल मॉडल होना बहुत ज़रूरी है जो उनके सपनों पर उतना ही विश्वास करता हो जितना वे स्ववं करते हैं। उनके पिता ही उनके रोल मॉडल रहे है।”
मैने समीर को उनकी वेबसाइट से पद कर सुनाया “स्कूल में मेरी माँ का मानना था कि काम ही पूजा है और मैंने हमेशा इसका पालन किया है। अपने बड़े होने के दिनों में मैं अपने पिता के साथ महान लोगों से मिलने जाती थी और उनसे सीखती थी। मैंने पिछले जीवन प्रतिगमन चिकित्सा, आध्यात्मिक अंकशास्त्र और आपसी सम्बन्धों के विश्लेषण पर अपनी रहस्यमय यात्रा प्रारम्भ की जो कार्यशालाओं के माध्यम से लोगों के जीवन में जादू पैदा कर रही हैं। मैं अपने जीवन के हर पल के लिए भगवान का शुक्रिया अदा करती हूँ।"
उन्होंने लिखा की "मैं प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज, मुंबई से एक नैदानिक मनोवैज्ञानिक और व्यावसायिक चिकित्सक हूँ और एक प्रमाणित पिछले जीवन चिकित्सक/पुनर्जन्म विशेषज्ञ हूँ जो पिछले तीन दशकों से बच्चों, किशोरों और वयस्कों के साथ मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रही हूँ, मैं एक प्रशिक्षित गेस्टाल्ट थेरेपिस्ट, एनएलपी ट्रेनर और ईएमडीआर फैसिलिटेटर हूँ। मैंने ड्रीम एनालिसिस, आर्ट थेरेपी और मूवमेंट थेरेपी सहित अनगिनत मनोचिकित्सा की हैं।"
हमने आपस में उनके बारे में चर्चा की और यह चिश्चय किया की हम उनसे मिलाने जायगे। मैंने ऑनलाइन अपॉइंटमेंट लिया। हम लोग दिल्ली से फ़्लाइट ले कर मुम्बई मिलने गये। जब समीर डॉक्टर के साथ बैठा तो बहुत उद्विग्न लग रहा था ।
डॉक्टर ने समीर के बारे में विस्तार से जानने के पहले उसे कुछ प्राथमिक बातें चिकित्सा पद्धति के बारे में बताना शुरू किया। डॉक्टर ने कहा कि "अवचेतन मन की गहराई में हमारी बार-बार होने वाली समस्याओं का स्रोत छिपा होता है।”
"तो हम उनको कैसे जान सकते है ?" समीर ने पूछा।
डॉक्टर ने समीर की आखों में आँखें दाल कर देखा फिर बोली “जब हम ट्रान्स की बदली हुई अवस्था में प्रवेश करते हैं और अपने पिछले जन्मों को फिर से जीकर अपने वर्तमान जीवन की कठिनाइयों को समझ पाते है कि उनका स्रोत कहा है।”
“इससे उन बातों से मुक्ति पाते हैं, तो पिछले जीवन की चिकित्सा से बहुत कुछ जाना, अनुभव किया और ठीक किया जा सकता है। पिछले जीवन की चिकित्सा शारीरिक, भावनात्मक, रिश्ते और आध्यात्मिक अवरोधों को दूर करने में मदद करती है जो आपके जीवन को दुखी बना सकते हैं। पिछले जीवन की यादें उभरती हैं और एक बार डिकोड होने के बाद उनकी जहरीली ऊर्जा निकल जाती है।"
समीर ने बातें बहुत ध्यान से सुनी। डॉक्टर ने समीर से उसकी परेशानी विस्तार से बताने को कहा।
समीर ने बताया “उसका जन्म दिल्ली में चांदनी चौक की गली में हुआ। पिता का बड़ा कारोबार है पर मेरी रूचि ना तो पढ़ने में रही है और ना कारोबार चलने में। मुझे जब से याद है मैरे मन में हमेशा शिव भगवान के प्रति लगाव रहा है।
शुरू - शुरू में मेरी माँ मुझे अपने साथ मन्दिर ले जाती थी। बड़ा होने पर स्कूल से भाग कर शिव मन्दिर चला जाता और घंटों वहां बैठा रहता। पिताजी से इस बात को ले कर अकसर झगड़े होते रहते।मैंने अनेक कोशिशें की लेकिन यह जुनून कम होने के बजाय बढ़ता जा रहा है। मुझे शिव डमरू बजाते तथा ताण्डव नृत्य करते दिखते है। अनेकों डमरू एक साथ बजते है।मै परेशान हो जाता हूँ। रात को सो नहीं पता हूँ।”
समीर ने बताया यूटूब पर ‘राज़ पिछले जनम का’ टीवी कार्यक्रम के आप के विडियो देखे है।आप से बहुत दिनों से मिलना चाहता था लेकिन संयोग नहीं बन सका। अभी पिता जी की कम्पनी के काम से मुम्बई आया तो आप से मिलने का समय लिया।
डॉक्टर ने उससे कहा कि “आप सही मंजिल पर पहुंच गए हैं। जीवन कुछ सबसे अद्भुत सुंदर अनुभवों से भरा हुआ है, लेकिन अधिकांश समय आप इसे चूक जाते हैं। कई बार उत्तर आपके सामने होता है, लेकिन आप अपने संदेह और अविश्वासी स्वभाव के कारण खुद को गुमराह करते हैं। आप उत्तर के लिए बाहर की ओर देखते रहते हैं या दूसरों के अनुभव के तार्किक निष्कर्षों पर भरोसा करते हैं।”
तो क्या हम उन यादों से मुक्ति पा सकते है। मैने डॉक्टर से प्रश्न किया। डॉक्टर मेरी ओर मुड़ी फिर बोली
“निश्चित रूप से आपकी अधिकांश सामान्य समस्याएं हल हो सकती हैं। आप के पास पद, धन और उपाधि, एक प्रतिष्ठित क्लब की सदस्यता और एक अच्छा जीवनसाथी, सर्वश्रेष्ठ स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे हो सकते हैं, लेकिन फिर भी जब आप अपने बिस्तर पर सोते हैं तो आपको यह एहसास होता है कि कुछ भी सही नहीं हो रहा है। यह आपके निजी अंतरंग स्थान के भीतर देखने से संभव है, जो केवल आप ही रह सकते हैं।”
“मैं कहती हूँ कि अगर आपको तैरना सीखना है तो आपको डर में गोता लगाना होगा, यह अपने आप को खोजने के लिए भी सच है। आपको अपने पवित्र स्थान में गोता लगाना होगा और यह इस ग्रह या अन्य आयामों पर आपके द्वारा जीए गए कई जन्मों के कर्मों को समझने के माध्यम से किया जाता है।”
पिछले जीवन की चिकित्सा आपको अपने कई जीवन के माध्यम से एक आकर्षक यात्रा दे सकती है और आपको आपके द्वारा अनुभव किए गए विभिन्न व्यक्तित्वों को अपनाने की अनुमति देती है।
कर्म कुछ और नहीं बल्कि एक संकलन है जिसे आत्मा इकट्ठा करती है और फिर उससे सीखने का फैसला करती है। आत्मा की अभिव्यक्तियाँ एक पैटर्न का पालन करती हैं और एक बार जब आप पैटर्न को समझ लेते हैं तो बहुत कुछ प्रकट होता है और हल हो जाता है।
जीवन के बीच जीवन में प्रवेश करना एक और रहस्यमय आयाम को दर्शाता है जहाँ मार्गदर्शकों और स्वर्गदूतों, बुद्धिमान लोगों और शरीर के चयन की उपस्थिति को समझा जाता है।
पास्ट लाइफ रिग्रेशन थेरेपी एक सत्र करने वाले कई लोग अपनी अनिश्चितता और गलतफहमी को पीछे छोड़ देते हैं और अपने सत- शाश्वत सत्य को अपना लेते हैं। मेरा काम सभी के लिए एक प्रार्थना है कि वे ठीक हो जाएँ और हम सभी में रहने वाली परम दिव्य उपस्थिति के लिए खुलें। अपने भीतर की उथल-पुथल के बारे में गहरी समझ विकसित करने का समय आ गया है।
इतनी बातचीत हो जाने पर हम पास्ट लाइफ रिग्रेशन थेरेपी सत्र करने के लिये राजी हो गये।
जीवन प्रतिगमन की यात्रा
अगले दिन हम लोग समय से पहले डॉक्टर के किलिनिक पहुँच गये। डॉक्टर ने फिर बातें करते हुए थैरेपी सेशन की तैयारी शुरू की। डॉक्टर ने समीर से पूछा की "तुम्हें यह आवाजें केवल रात में सुनाई देती है या कभी भी।"
"जब भी मैं सोने की कोशिश करता हूँ। " समीर ने जबाव दिया। "क्या आप पिछले जन्म में विश्वास रखते है ?" डॉक्टर ने समीर की ओर तीखी नजर से देखते हुए पूछा।
समीर ने शांत स्वर में कहा "मुझे पता नहीं। मैं खुले दिमाग से आया हूँ। मुझे नहीं पता इस प्रक्रिया में क्या होगा ?"
डॉक्टर ने कहना शुरू किया कि "मुझे लगता है यह बहुत रोचक समस्या है।"
डॉक्टर ने थोड़ा रुक कर फिर कहा “मै आध्यात्मिक ज्ञान को सभी तक फैलाने के लिए मशाल वाहक बनने की रूचि रखने वालों के लिए चार स्तरों का प्रशिक्षण आयोजित करती हूँ। जिसका पहला स्तर है रहस्यवादी यात्रा - और व्यक्तिगत अंतर्दृष्टि और व्यक्तिगत विकास को विकसित करने के लिए अनुभवात्मक कार्यशाला।
दूसरा स्तर है चिकित्सक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम। यह सप्ताह भर चलने वाला रिट्रीट प्रतिभागियों को प्रमाणित पिछले जीवन चिकित्सक बनने के लिए सिखाता और प्रशिक्षित करता है।
तीसरा स्तर है आंतरिक बच्चे को ठीक करना। यह चार दिवसीय रिट्रीट है जो भीतर के घायल बच्चे को ठीक करता है। यह उन लोगों की मदद करता है जो खुद को ठीक करना चाहते हैं तथा चौथा स्तर है एक मास्टर स्तर का कोर्स जो उन चिकित्सकों के लिए है जो आध्यात्मिक कोच बनना चाहते हैं।”
डॉक्टर ने समीर को उनके अनुभव तथा कावलियत का भरोसा दिलाने के लिए कहा “मैंने एडाप्ट स्पास्टिक्स सोसाइटी ऑफ इंडिया के साथ काम करते हुए चुनौतीपूर्ण बच्चों के लिए भावनात्मक और बौद्धिक प्रशिक्षण के लिए कई साइकोमेट्रिक टूल विकसित किए हैं। मैंने उनके लिए कई शिक्षण कार्यक्रम और कार्यशालाएँ तैयार की हैं जिनमें एंगर मैनेजमेंट सेमिनार, कॉन्शियस पेरेंटिंग और किशोरों के लिए व्यक्तित्व विकास शामिल हैं। मेरी हालिया कार्यशाला का नाम ए स्पूनफुल ऑफ शुगर फॉर न्यू एज पेरेंटिंग है।”
इस बीच डॉक्टर के स्टाफ़ ने एक डिक्लेरेशन फ़ॉर्म पर समीर की सहमति के सिग्नेचर लिये। एक बड़े से पलंग पर सफ़ेद चादर बिछाया गया। समीर उस पर लेट गया। मुझे बैठने के लिए साइड में आराम कुर्सी राखी गई। समीर के सिराने डॉक्टर उनकी कुर्सी पर नोट पेड व पेन ले कर बैठ गई। कमरे में मध्यम नीली रोशनी का बल्ब जल रहा था। कमरा लगभग खाली तथा शांत था। डॉक्टर का स्टाफ तैयारी कर बाहर चला गया।
कमरे में हम तीनों थे। यह बतावरण मेरे लिए रहयमय था।
डॉक्टर ने रुक कर फिर कहा “यहां मुंबई में नर्सिंग होम में निजी प्रैक्टिस करती हूँ मैंने पिछले जीवन चिकित्सा और असंख्य समूह प्रतिगमन पर सात हजार से अधिक व्यक्तिगत उपचार सत्र किए हैं तथा उस अनुभव के आधार पर अनेक शोध पत्र प्रकाशित करवाये है।"
समीर ने डॉक्टर की बातों में दिलचस्पी लेना शुरू किया और पूछने लगा "इस तकनीक के अलावा और कौनसी तकनीक आप उपयोग में लाती है ?"
डॉक्टर ने उसे बताया कि "वह आई मूवमेंट डिसेन्सिटाइजेशन एंड रीप्रोसेसिंग ईएमडीआर तकनीक है जिसका उपयोग करती हूं और इसके अच्छे परिणाम मिले हैं। यह एक अपेक्षाकृत हालिया मनोचिकित्सा पद्धति है और इसने लोगों में भय और जुनून, समायोजन समस्याओं, चिंता, ओसीडी, अवसाद और पोस्ट-ट्रॉमेटिक सिंड्रोम के साथ आशाजनक परिणाम दिखाए हैं।
इस तकनीक में मन में संग्रहीत दबी हुई संवेदनाओं और छवियों को मुक्त करने के लिए आंखों की हरकतों या टैपिंग का उपयोग करती हूँ। यह मन को समय में पीछे जाने या पीछे जाने और समस्या पैदा करने वाली यादों को हल करने और एकीकृत करने की अनुमति देती है। परिवर्तन करने के लिए संसाधन स्थिरीकरण और नए टेम्पलेट की स्थापना की जाती है।"
मुझे लगा की डॉक्टर इतना डिटेल में इसलिए समीर को बता रही है की वह उन पर पूरा भरोसा करे कि वह योग्य हाथों में है। डॉक्टर सेशन शुरू करने के पूर्व समीर के तनाव को काम कर उसे रिलैक्स करने की कोशिश कर रही थी।
वे वातावरण को बिलकुल सहज, शान्त तथा सुविधाजनक बनाना चाहती है। ताकि समीर भरोसे के साथ उन पर विश्वास कर अपने आप को उनको समर्पित कर सके। डॉक्टर ने लगभग फुसफुसाती आवाज में कहा "जब किसी की मृत्यु अत्याचार या दर्दनाक तरीके से हो तो उसे अगले जन्म के समय पिछले जन्म की याद रहती है।"
“अब हम विशवास व श्रृद्धा के साथ पूर्वजनम की यात्रा पर चलेंगे। क्या तुम मेरे साथ हो ?” डॉक्टर ने सीधे समीर की आखों में देख कर बोला।
समीर 'हां जी!' "मै आप के साथ हूँ।"
डॉक्टर आदेशात्मक स्वर में बोली "आँखें बंद करो।"
"नीचे देखों" "अपना ध्यान मेरी आवाज की तरफ केन्द्रित रखों।" डॉक्टर ने समीर को सुझाव दिया। "जैसे - जैसे तुम अपना ध्यान मेरी आवाज की तरफ केन्द्रित रखोगे बैसे - बैसे तुम गहरी अवस्था में चले जाओगे और इस जीवन से जुड़े विचार दिमाग में कम हो जायगे और शरीर और मन शांत हो जायेगा। दिव्य पवित्र सफ़ेद रोशनी सर से माथे में प्रवेश कर रही है। शरीर के अंदर जो भी हलन चलन होगी वह भी कम हो जायगी।" डॉक्टर समीर को आदेशात्मक स्वर में कह रही है।
समीर ने आँखें बंद कर ली थी। उसके चेहरे पर एक अभूतपूर्व शान्ति परिलक्छित होने लगी थी। शरीर सीधा चित अचल लेटा था।
डॉक्टर की मधुर आवाज गूजने लगी "तुम्हारी मुश्किल, तुम्हारी परेशानी काफी सालों से है। शिव के प्रिति अत्यधिक आकर्षण तुम्हें परेशान करता है। शिव स्रोत सुनाई देता है। शिव डमरू बजाते है। ताण्डव नृत्य होता है। आवाजें सहन नहीं होती है। शिव का डर तुम्हारे जहन में, चेतना में डूबा हुआ है और उस ओर अभी इस प्रकिया के दौरान तुम्हारी चेतना शरीर से उस घटना की ओर जायगी।
"तुम्हारा माथा भारी होता जा रहा है और चेतना मन की गहराई में घुसती चली जा रही है। आप का शूक्ष्म शरीर आप के शरीर से डिटैच होता जा रहा है। आप का शूक्ष्म शरीर आप की चेतना के साथ दूर जा रहा है। जैसे पृथ्वी दिखाई दे रही है। आप की चेतना खिची चली जा रही है। उस जगह के पास उस गॉव, शहर, कस्बा, जिला, फर्श, गली में जहा एक शरीर पड़ा हुआ है। धरती पर कहीं किसी कोने में। जैसे आप की चेतना उस शरीर के अन्दर प्रवेश कर रही है। वह शरीर जीवित होता जा रहा है।"
पांच, चार, तीन, दो डॉक्टर ने गिनती गिनना शुरू किया। फिर जोर से कहा "वो शरीर जीवित हो चुका है व उस शरीर की सभी चीजें जीवित हो चुकी है। आस पास की सभी चीजें जीवित हो चुकी है। और एक मै पूछूँगी कि आप के पैरो के नीचे की जमीन कैसी है ? वो पहला शब्द, पहला विचार, पहली कल्पना, पहला चित्र जो आ रहा है उसी के साथ आगे बढ़ना है।
पांच, चार, तीन, दो, एक नीचे देखना है और महसूस करना है कि पैरो के नीचे की जमीन कैसी है ?"
हलके - हलके धीमे - धीमे उस शरीर के अन्दर तुमने प्रवेश कर लिया है।"
समीर का शरीर शव जैसे पड़ा है।
डॉक्टर ने झटके से आदेश दिया “सब कुछ साफ है, आसमान साफ है, तुमने कैसे कपडे पहने है ? नीचे की जमीन कैसी है ? आस पास कौन है ? किस तरह का माहौल है ? क्या घटना घट रही है ? "तुम अपने बचपन में जाओं। तुम्हारे साथ बचपन में देखो और बताओ शुरू से।”
"नीचे देखों" डॉक्टर ने झटके से तेज आदेश दिया। "और बताओ तुम्हारे पैरों के नीचे की जमीन कैसी दिख रही है ?”
समीर के शरीर में थोड़ी हलचल हुई। उसने बहुत धीमी आवाज में कहा "धूल"
"कैसी धूल ?" डॉक्टर ने आवाज ऊंची कर जोर से पूछा।
"रेगिस्तान की धूल" "रेत" रेत ही रेत" समीर ने धीमे से कहा।
"आस पास कौन है ?" "तुम कौन हो?"
"मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है। वहां एक बच्चा खड़ा है। जिसकी उम्र शायद बारह तेरह साल होगी।" समीर ने कठिनाई से कहा।
"ठीक है तुम उस बच्चे की आखों में देखो। तुम पहचान लोगे। क्योकि शरीर के मरने या योनी बदल जाने पर भी आँखें नहीं बदलती।" डॉक्टर के सुझाव दिया।
"उनका सबसे छोटा बेटा " "वो करते क्या है ?"
"वो मध्य एशिया की इल्बारी जनजाति वंश के कबीले के मुखिया है ?"
"मेरे पिता और भाई" समीर ने कहा।
"तुम्हारे पिता कौन है ?"
"इस्लाम खां"
"उन्हें ठीक से देखो, उनने क्या पहना है ?"
"उनने पाँव से थोड़ा ऊंचा उठा सलवार, कुर्ता भूरे रंग का पहना है। काली जैकिट पहनी है। उनके सर पर ऊन की गोल टोपी है।"
"तुम्हारे साथ उनका व्यबहार कैसा है ?"
" मुझे बहुत प्यार करते है। मुझे बुद्धिमान बालक मानते है। इज्जत करते है। मुझे अपने भाइयों के साथ बाहर नहीं जाने देते। कबीले के कामों में मैं उनका हाथ बटाता हूँ हर बात मानते है। सलाह लेते है। "
तुम्हारे भाइयों के साथ तुम्हारे सम्बन्ध कैसे है ?"
"मेरे भाई मुझसे ईर्ष्या करते है। जलते है।"
"कहाँ है तुम्हारा घर ?"
"ठीक - ठीक जगह का नाम याद नहीं आ रहा। यह जगह मध्य पूर्व में है। हमारा परिवार एक तुर्की कबीला है। चारो ओर बहुत सारे लोग, औरते, बच्चे है। भेड़, बकरियां, ऊंट धूम - धूम कर चर रहे है। जानवरों के चमड़े व ऊन के तम्बू लगे है। हमारे घर का तम्बू सफ़ेद गोल है, जो बस्ती के बीच में लगा है।"
"चारो ओर रेत के पहाड़ है। कहीं - कहीं बीच - बीच में हरियाली है। कुछ लोग खेती करते है, बाकि जानवर पालते है।"
"अभी क्या समय है ?"
"सुबह का समय है। "
"लोग क्या कर रहे है ?"
" नमाज पड़ रहे है।"
"तुम्हारा नाम क्या है ?"
"इल्तुमिश"
यकाएक समीर के चहरे पर दर्द के भाव उभरने लगे। वह बहुत बेचैन हो गया। करबटें बदलने लगा। वह बहुत थक गया था। तो डॉक्टर ने सेशन समाप्त करने का निर्णय किया और कहा
“अब आप को वह शरीर छोड़ कर इस शरीर में अगले दस सेकंड में बापस आना है। आप धीरे -धीरे आखें खोलेंगे और अपने आप को उन यादों से मुक्त पायेगें।”
धीरे - धीरे डॉक्टर समीर को ट्रेंच से बहार ले कर आ गई। समीर सो गया। उसे अंदर कमरे में सोने को छोड़ कर हम बाहर डॉक्टर के केविन में आ गये। आज के सेशन से डॉक्टर खुश थी उन्हें उम्मीद है की जल्दी वह उस समय में समीर को ले जा सकेगी जहां से उसकी परेशानी शुरू हुई थी।
सेशन के बाद जब हम होटल पहुँचे तब रात में समीर ने अपने आज के अनुभव सुनाने शुरू किए।
उसने बताया कि “आज तक वह जितने लोगों से इलाज के सिलसिले में मिला है यह डॉक्टर बिलकुल अलग है। कोई बड़बोलापन नहीं। कोई आडम्बर नहीं सीधा सरल काम। मरीज की सहायता करना न कि उसे डरा कर उसका पैसा लूटना। आज कल ऐसे लोग किस्मत से ही मिलते है। हम लोग किस्मत वाले है कि सही समय पर इन के पास आ गए।”
वह आज बहुत हलका महसूस कर रहा था। उसका डॉक्टर पर बहुत भरोसा आ गया था। क्योकि डॉक्टर का काम करने का तरीका बहुत अलग था। खाना कमरे में ही आर्डर कर दिया। हम लोग खाना खा कर जल्दी सोने चले गये।
गुलाम इल्तुमिश
हम लोग समय से पूर्व डॉक्टर के पास पहुँच गये। डॉक्टर धीरे - धीरे उनके काम तथा अनुभव के बारे में बता रही थी कि "स्वाभाविक रूप से स्पष्टवादी और मानसिक रूप से सक्षम होने के कारण मैने विदेशों में लीड्स, ब्रैडफोर्ड, लंदन, काठमांडू, हांगकांग, सिंगापुर और दुबई में अपनी कार्यशालाएँ आयोजित की। दिल्ली, मुंबई, नोएडा, लखनऊ, जूनागढ़, कोलकाता, त्रिची, बैंगलोर, जयपुर, लुधियाना, चंडीगढ़, रायपुर, गांधीधाम, अहमदाबाद और राजकोट कार्यशालाएँ आयोजित करते हुए पूरे भारत की यात्रा की है।”
डॉक्टर ने सेशन की तैयारी पूरी होने पर सेशन शुरू किया।
“अब हम विशवास व श्रृद्धा के साथ पूर्वजनम की यात्रा पर चलेंगे। क्या तुम मेरे साथ हो ?” डॉक्टर ने सीधे समीर की आखों में देख कर बोला।
समीर 'हां जी!' "मैंने आप के साथ हूँ।"
डॉक्टर आदेशात्मक स्वर में बोली "आँखें बंद करो।"
"नीचे देखों" "अपना ध्यान मेरी आवाज की तरफ केन्द्रित रखों।" डॉक्टर ने समीर को सुझाव दिया। "जैसे - जैसे तुम अपना ध्यान मेरी आवाज की तरफ केन्द्रित रखोगे बैसे - बैसे तुम गहरी अवस्था में चले जाओगे और इस जीवन से जुड़े विचार दिमाग में कम हो जायगे,
शरीर और मन शांत हो जायेगा। दिव्य पवित्र सफ़ेद रोशनी सर से माथे में प्रवेश कर रही है। शरीर के अंदर जो भी हलन चलन होगी वह भी कम हो जायगी।" डॉक्टर समीर को आदेशात्मक स्वर में कह रही है।
समीर ने आँखें बंद कर ली थी। उसके चेहरे पर एक अभूतपूर्व शान्ति परिलक्छित होने लगी थी। शरीर सीधा चित अचल लेटा था।
"नीचे देखो" डॉक्टर ने धीरे से कहा।
"अब वह बच्चा कहां है?" डॉक्टर ने पूछा।
"एक बड़े तम्बू में।" इल्तुमिश का चेहरा मानस पटल पर उभरा देख समीर ने शांत भाव से कहा।
"तुम यहां क्यों आये?" डॉक्टर ने पूछा।
"मेरे भाई मुझे मेला दिखाने का लालच दे कर यहां लाये। मुझे इस तम्बू में बिठाकर गायब हो गये।"
"तो तुम अकेले घर क्यों नहीं जाते।"
"नहीं जा सकता। यह आदमी गुलामों का खरीददार है, कहता है कि मेरे भाई इसे मुझे बेच गए है।"
"वहां और कौन है ?"
"बहुत सारे मेरी उम्र के बच्चे है। कुछ बड़े महिला पुरुष है। छोटी - छोटी तथा कुछ जवान लड़कियां। ठेकेदार के सैनिक है जो सब पर नजर रख रहे है।"
समीर के चेहरे पर दुःख के भाव आ गये।
"तुमने कुछ खाया पिया है ?"
"नहीं दोपहर से कुछ नहीं। अब रात हो रही है। "
"तो अब क्या हो रहा है?"
"ठेकेदार हम सब को ऊटों के काफले के साथ रात को बुखारा ले कर जाने की तैयारी कर रहा है।"
डॉक्टर ने दो पल कुछ नहीं पूछा।
फिर बोली "अब कहां हो?"
"मैं अपने मालिक के घर बुखारा में काम करता हूँ। लेकिन इस ने मुझे दूसरे गुलामों के साथ गजनी के व्यापारी को बेच दिया है।मैं अब गबरू जवान हो गया हूँ। इसे मेरे अच्छे दाम मिले है।" समीर ने धीरे - धीरे जवाब दिया।
"अब कहां हो ? ऊपर देखो वहां कुछ लिखा है क्या?"
"हां ! यहां एक बोर्ड पर उर्दू में लिखा है गुलाम बाजार गजनी।"
“तुम पढ़ लेते हो?"
इल्तुमिश बोला "मेरा पुराना मालिक नेकदिल इन्सान था। उसने मुझे तुर्की, फ़ारसी तथा उर्दू पड़ने की व्यवस्था की थी, मैंने हथियार चलना तथा शिकार करना सीख लिया था। "
"तुम कहां खड़े हो ?"
"एक ऊंचे चबूतरे पर। इल्तुमिश की बोली लग रही है। ठेकेदार मेरे बहुत ज्यादा दाम मांग रहा है। क्योकि मैं लम्बा, ऊंचा भरा पूरा मर्द हूँ। मुझे पढ़ना लिखना तथा हथियार चलना आता है। "
"तभी बाजार में हलचल एकाएक बढ़ गई। लोग दूर हट गए। मेरे मालिक ने सुल्तान को सलाम किया। बाजार में यहाँ का सुल्तान मोहम्मद गोरी आया है। वह मुझे देख कर रुक गया। उसे अपनी फौज के लिए गुलाम चाहिये।
उसने जो मेरा दाम लगाया है उस पर मेरा मालिक बैचने को तैयार नहीं है। काफी बहस हुई। लेकिन बात नहीं बनी। गुस्से में सुल्तान ने गजनी के बाजार में मुझे बेचने पर पाबन्दी लगा दी। सुल्तान के सैनिकों ने मेरे मालिक को बाजार से बाहर कर दिया।"
समीर था गया था। उसका शरीर निढ़ाल हो गया था। यहाँ सब कहते कहते काफी समय बीत गया था। तो डॉक्टर ने सेशन समाप्त करने का निर्णय किया और कहा
“अब आप को वह शरीर छोड़ कर इस शरीर में अगले दस सेकंड में बापस आना है। आप धीरे -धीरे आखें खोलेंगे और अपने आप को उन यादों से मुक्त पायगे।” धीरे - धीरे डॉक्टर समीर को ट्रेंच से बहार ले कर आ गई।
हम लोग शाम को हाजी अली की दरगाह गए। यहां हम ने चादर चढ़ाई तथा मन्नत मांगी। टैक्सी से इंडिया गेट गए तथा कुश देर समुद्र की लहरों को देखा। रात में मुम्बई स्वप्न लोक में बदल जाती है। लेकिन गाड़ियों के हार्न तथा लोगों की भीड़ आपको मुम्बई में होने का अहसास दिलाती रहते है। मेरे मन में भी समीर की थैरेपी को ले कर चिंता की लहरें उठ रही थी। मैं हर सम्भव कोशिश समीर को शांत रखने की कर रही थी। जब उसे बीच - बीच में सेशन की बातों की याद आती वह उदास हो जाता था। इसलिए माहौल बदलने की लिए में उसे होटल से बाहर लाई थी। हम लोगों ने रात का खाना बाहर ही खाया, देर रात अपने होटल पहुंचे।
इल्तुमिश सुल्तान
अगले दिन हम लोग फिर डॉक्टर से मिलने नियत समय पर उनके क्लिनिक आ गये। डॉक्टर ने वही प्रकिया फिर दुहराई।
“अब हम विशवास व श्रृद्धा के साथ पूर्वजनम की यात्रा पर चलेंगे। क्या तुम मेरे साथ हो ?” डॉक्टर ने सीधे समीर की आखों में देख कर बोला।
समीर 'हां जी!' "मैं आप के साथ हूँ।"
डॉक्टर आदेशात्मक स्वर में बोली "आँखें बंद करो।"
"नीचे देखों" "अपना ध्यान मेरी आवाज की तरफ केन्द्रित रखों।" डॉक्टर ने समीर को सुझाव दिया। "जैसे - जैसे तुम अपना ध्यान मेरी आवाज की तरफ केन्द्रित रखोगे बैसे - बैसे तुम गहरी अवस्था में चले जाओगे और इस जीवन से जुड़े विचार दिमाग में कम हो जायगे और शरीर और मन शांत हो जायेगा।
समीर लगातार बोले जा रहा था। जैसे वह अपने मन में फिल्म देख रहा हो। जो बहुत तेजी से फ़ास्टफॉरवर्ड हो रही हो। इल्तुमिश का चेहरा मानस पटल पर उभर आता।
डॉक्टर अपने नोटपेड पर कुछ लिख रही थी। यकायक डॉक्टर ने पूछा। "अब कहाँ हो, देखों चारो ओर और बताओ अभी क्या हो रहा है?"
"क़ुतुब-अल-दीन मुझे तथा तमगज को खरीदना चाहता था। उसने मुइज्ज-उद-दीन से अनुमति मांगी। जो नहीं मिली। क्योकि हम लोगों पर गजनी के बाजार में प्रतिबन्ध लगा था। अतः उसने हम लोगों को हिन्दोस्तान ले जाने का निर्देश दिया।"
समीर ने बताया कि यह यात्रा बहुत कष्ट दायक थीं। उसने डॉक्टर से पीने के लिए बार - बार पानी मांगा। वह आधे घन्टे में अठारह गिलास पानी पी गया। वह लगातार अपने आप को रेगिस्तान में पैदल चलता पाता। तपती रेत, गर्म आँधियाँ, भूख प्यास कई दिनों की यात्रा कर काफिला आखिरकार भारत पहुंचा।
“इस समय भारत में मोहम्मद गोरी का गुलाम क़ुतबुद्दीन ऐबक लाहौर से शासन कर रहा था। वह दिल्ली दौरे पर आया था तो उसने एक लाख चांदी की मुद्रा दे कर मुझे खरीद कर लाहौर ले गया।” समीर लगातार बोलता जा रहा था।
जैसे उसे अपनी कहानी खुद जानने की बहुत जल्दी हो।
"फिर क्या हुआ" डॉक्टर की उत्सुकता भी बढ़ गई थी।
मै सोच रही थी कि हम अपने बारे में कितना कम जानते है।हम अपनी जिन्दगी अजनबी के साथ सो कर बिता देते है।
समीर ने बताया "मैंने इतनी कम उम्र में इतना कुछ भोग लिया था मैंने घाट - घाट का पानी पिया अपने मालिकों के लिए अच्छे बुरे सब तरह के काम किये, तमाम शहर धूम चुका था। अब में वयस्क हो गया था।
अब अपनी किस्मत बदलने की ठानी। मुझे हमेशा मेरे अब्बा याद आते। उनकी बातें, उनका मुझ में भरोसा याद आता। मैंने तय किया कि मैं गुलाम बनने के लिये पैदा नहीं हुआ। मेरे अब्बू अपने कबीले के सरदार थे। मेरी रगों में उनका खून था, जिसको में लजा नहीं सकता था।
मैंने हर मौके का फायदा उठाने की ठान ली। मैं अपने मालिक का बहुत बफादार रहा। बहुत मेहनत की। मुझे जल्दी ही ‘सर-ऐ-जोरदार’ का पद मिल गया। यह मेरे सहस, योग्यता और नेतृत्व के गुणों का परिणाम था। इस पद का मतलब होता है अंगरक्षकों का प्रधान।"
“इस कामयाबी से मेरा उत्साह बढ़ गया और जल्दी ही मुझे ‘अमीर-ए-शिकार’ का पद दिया गया। जिसमें मैं दरबार में सुल्तान के लिए शिकार की व्यवस्था करने का प्रमुख था।” समीर का चेहरा पहली बार ख़ुशी से भर गया।
डॉक्टर ने पूछा "फिर तुम कैसे अपने मालिक के और करीब आये ?"
समीर की आवाज में खनक आ गई थी।
इल्तुमिश बोला "अब में कुतबुद्दीन ऐबक के साथ हमेशा रहने लगा। उसने मेरी वीरता देख, मुझे ग्वालियर का किला जीतने की जवाबदारी दी, तो मैंने जान की बाजी लगा कर वह किला जीत लिया। तब मुझे ग्वालियर का किलेदार नियुक्त किया गया। अब मेरा आत्मविश्वास लोट आया था। पहली बार मुझे अपने आप पर गर्व महसूस हो रहा है।"
"इसके बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। बुलंदशहर की जीत के बाद मुझे बुलंदशहर का ‘इक़्तेदार’ बना दिया गया। फिर दिल्ली सल्तनद के सबसे महत्वपूर्ण सूबा बंदायू का सूबेदार बना दिया गया। ऐबक ने तभी अपनी सबसे प्यारी बेटी से मेरी शादी कर दी।अब में उनका दामाद इल्तुमिश हो गया था।"
"जल्दी ही मेरे ससुर अल्हा को प्यारे हो गये। तब उनके बेटे आरामशाह को गद्दी पर बिठाया गया। लेकिन उनमें सल्तनत की उस दौर की चुनौतियों का सामना करने का साहस नहीं था। तब ऐबक के सिपहसालार अमीर अली इस्माइल ने तुर्की सरदारों की सहमति से मुझे सुल्तान घोषित कर दिया। मैंने लाहौर के स्थान पर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया।”
"इल्तुमिश" नाम का शाब्दिक अर्थ तुर्कि में "राज्य का रखवाला" बगदाद के अब्बासिद खलीफा अल-मुस्तानसिर द्वारा मुझे 'सुल्तान-ए-आजम' मतलब महान शासक की उपाधि प्रदान की तथा सुल्तान की मान्यता दी।
मैंने तुर्की सरदारों का ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ जिसका मतलब है चालीस गुलाम सरदारों का गुट बना कर उन्हें अलग अलग सूबों का जागीरदार बना दिया। इससे मैंने उनके बिद्रोह को दबा दिया। जागीरदार बिद्रोह न करे तथा सल्तनत को टैक्स मिलता रहे उसके लिए ‘इक्ता’ प्रणाली लागु कर अपने बफादारों तुर्क अमीरों को हर जागीरदार के साथ नियुक्त किया। यह जागीरदार के साथ मिलकर बिद्रोह न करे इसलिये इनके ट्रांसफर एक जगह से दूसरी जगह किये जाने की व्यवस्था की।
व्यापार को बढ़ाने के लिए मेने इल्तुमिश के नाम की अपनी मुद्रा जारी की। चांदी के सिक्के को ‘टंका’ तथ तांबे के सिक्के को ‘जीतल’ नाम से चलवाया। इससे व्यापार बहुत बढ़ गया। इस समय सिल्क रूट पर मंगोलों के आक्रमण के खतरों को कम करने के लिये मैंने जलाउद्दीन मंगबानी को शरण नहीं दी। पालोज तथा दुबाचा को पराजित कर सीमाऐं सुरक्षित की।
जिन राजपूत राजाओं ने तुर्की सल्तनत से स्वतन्त्र राज्य बना लिए थे जिन में चन्देलों का कलिंजर व अजयगढ़, प्रीतिहारो के ग्वालियर, नरवर तथा झाँसी, पृथ्वीराज के बेटे गोबिंद राज का रणथम्भौर तथा बदायूं, कन्नौज, बनारस, फर्रुखाबाद, तथा बरेली को फिर से तुर्को के अधीन किया। दिल्ली की प्रसिद्ध कुतुब मीनार मेरी ही देन है।"
इतना कह कर समीर चुप हो गया। उसका चेहरा जो अभी तक तेज से चमक रहा था एकदम से पीला पड़ गया।
डॉक्टर ने यह रंग बदलते पूछा "क्या हुआ, आगे बताओ"
जो समीर का शरीर शांत पड़ा था वह तड़पने लगा। उसकी सांसे तेज हो गई, वह कुछ बुदबुदा रहा था।
डॉक्टर ने कहा "जोर से बोलो क्या कह रहे हो ?"
समीर के मुँह से यकायक रावण द्वारा रचित शिव तांडव स्रोत निकलने लगा -
"जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम् ॥"
डॉक्टर अपना नोट पेड ले कर सतर्क हो गई। शायद वह समझ गई कि वह क्षण आ गया है।
उन्होंने जोर से पूछा "तुम अभी कहां हो "
उज्जैन महाकाल मन्दिर में।
"तुम वहां क्या कर रहे हो?"
"मैं विदिशा लूटने के बाद उज्जैन को लूट कर महाकाल मंदिर को लूटने आया हूँ।
"अभी वहां क्या हो रहा है?"
"चारो ओर मेरे सिपाही लोगों को मारकाट रहे है। महिलाओं को अलग ले जा रहे है। मकानों दुकानों का सारा सामान लूट लिया है। अकूत सम्पदा मिली है। अब मैं मंदिर में खड़ा हूँ। "
“और कौन है?”
“सामने से एक व्यास पण्डित आ रहे है। उनकी आँखों में भय नहीं है। उन्होंने मुझ से पूछा “आप कौन हैं बंधु?
मंदिर क्यों तोड़ रहे हैं?
हम पर ये आक्रमण क्यों?
इस लूटपाट का कारण क्या है?’
“दिल्ली पर इस्लाम का कब्ज़ा हो चुका है…अब इस मुल्क पर हमारी हुकूमत है…।“ इल्तुतमिश ने जोशीला तुर्की अन्दाज में गर्व से आगे आकर बोला।
“इस्लामी कब्ज़ा… ये इस्लाम क्या है?”
“खामोश काफिर… अदब से बात कर… इस्लाम हमारा मजहब है… अब यहाँ इस्लाम का परचम फहराएगा और इस्लामी कानून चलेगा।” दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए मैं गुस्से में बोला।
“मगर इस नए कानून का हमारे मंदिर को तोड़ने और लूटने से क्या संबंध है श्रीमान्?“
“नासमझ इस्लाम में बुतपरस्ती हराम है… हमने दिल्ली के सारे बुतखाने तोड़ डाले हैं… वहाँ मस्जिद-मीनार तामीर की जा रही हैं… लूट की यह दौलत माले-गनीमत है… पहली दफा दिल्ली से दूर यहाँ तक अल्लाह ने हमारी फतह आसान की है।“
मेरी आँखें गुस्से से लाल हो रही हैं। मेरा सारा शरीर तप रहा है।मेरा मुँह तमतमा आया मैंने दुआ में हाथ ऊपर किए और मंदिर में मची लूटपाट में शामिल होने के पहले उसके गले पर तलवार से वार किया।
वह तनिक नीचे झुका और कहा “तू नहीं जनता यह महाकाल है। भगवान महाकाल सृष्टि के प्रारम्भ से उज्जयिनी में विराजमान हैं। महाकाल को उज्जैन का राजाधिराज माना जाता है। यह काल का देवता है। मृत्यु का देवता है तेरा कुल नष्ट हो जायगा। तेरा साम्राज्य समाप्त हो जाएगा।”
जब तक वह बोलता रहा मुझे श्राप देता रहा। मुझ से और सहन नहीं हुआ एक भरपूर वार पुनः उसकी गरदन पर किया उसने ‘जय महाकाल’ का उदघोष कर प्राण त्याग दिया।सिर धड़ से अलग हो गया था। वह अब भी खुली आखों से मुझे घूर रहा था। मानो श्राप दे रहा हो। मेरा मन एक दम कलुष से भर गया।
जब मैं गर्भगृह में पंहुचा वह खाली था वहां महाकाल का लिंग मूर्ति नहीं थी। ना जाने महाकाल कहां अदृश्य हो गए थे। युद्ध के बाद उज्जैन नगर की भूमि श्मशान भूमि बन गई थी, क्योंकि हजारों योद्धाओं के शव बिखर गए थे। चारो ओर मृत्यु नाच रही है। ख़ून से सड़के गलियां नालियां भर गई है। शव खाने के लिए तरह तरह के जानवर आकाश में मड़रा रहे है। स्त्री बच्चों की चीखों के बिच मेरे सैनिक अटटहास कर रहें है।”
डॉक्टर ने देखा समीर के चेहरे के भाव बता रहे है कि वह बहुत वेदना में है। यहीं उस घटना को दुबारा जीना है। इसी से समीर को मुक्ति मिलेगी।
डॉक्टर ने पूछा "फिर क्या हुआ ?
"समीर ने अपने दर्द पर काबू करते हुए बताया कि मालवा से लूट का माल तो वह दिल्ली ले आया। उसे राज्य करते पच्चीस साल हो गये। लेकिन व्यास का महाकाल के नाम से दिया गया वह श्राप मेरा उसका करता रहा। पहले मेरा सबसे योग्य पुत्र नसरूद्दीन अकाल मौत मारा गया। वही मेरा सच्चा उत्तराधिकारी था। फिर मैं बीमार रहने लगा। मैं अक्सर सोचता कि आल्हा मुझे किस बात की सजा दे रहा है ?
हालांकि मैंने मौलबियो के सुझाव को नहीं माना, मेरे गुरु कुतबुद्दीन बख़्तियार काका का मत था कि "भारत अरब नहीं है, इसे दारुल इस्लाम में बदलना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है।”
मैंने लाहौर की जगह दिल्ली को अपनी राजधानी के लिए चुना। इसके साथ ही दिल्ली में कई कवियों, कलाकारों और सूफी संतों को बुलाकर सांस्कृतिक परंपरा की शुरुआत की। मैंने दिल्ली की खूबसूरती पर भी काफी ध्यान दिया।
मैंने कई तालाब खुदवाए, जिनमें गंधक की बावली और हौज-ए-शम्सी शामिल हैं। मेरे शासनकाल में वास्तुकला से न केवल सुंदरता में वृद्धि हुई, बल्कि भारतीय इतिहास में इस्लामी वास्तुकला की नींव रखी। मेरे शासन ने दिल्ली सल्तनत की वास्तुकला के रूप को बदल दिया।"
समीर बहुत जल्दी में तेज - तेज बोल रहा था।
दिल्ली पर काबिज होने के बाद तुर्क आतंकियों ने हर जगह स्थानीय राजे-रजबाड़े या तो बुरी तरह रौंद डाले या उन्हें हर साल नियमित फिरौती खिराज तय करने के बाद बुरी तरह लूटकर छोड़ा। इस तरह से छोड़ा जाना भी कुछेक महीने या साल की मोहलत होती थी और दिल्ली में किसी और के तख्त पर बैठते ही नए सिरे से आतंकी हमले शुरू हो जाते थे।
“मेरी मृत्यु दिल्ली में हुई थी, जब हम बामियान अभियान पर जा रहे थे। मैं ग्वालियर के पास रास्ते में बीमार पड़ गया और बीमारी बढ़ती गई, जिससे अंततः मेरी मृत्यु हो गई।
मुझे बीमारी की हालत में लड़ाई के लिये जाना पड़ा। जब ग्वालियर में बीमार पड़ गया, अपने बेटों को सहायता के लिए बुलाया। लेकिन कोई नहीं आया। सब दिल्ली में मेरी मौत का इंतजार करते रहे। कि मैं यहाँ मरु और वहां वे गद्दी पर बैठ कर सुल्तान बने। केवल मेरी बेटी रजिया मुझे मदद देने आई। मैंने उसे ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर उसके नाम के सिक्कें जारी करवा दिये। समय - समय पर उस मरते व्यास पण्डित के शब्द मेरे कानों में गुजते तथा उसकी आँखें मुझे घूरती। एक साल तक मैं बीमारी से जूझता रहा, लेकिन मेरी बीमारी ठीक नहीं हुई।"
“बहुत जल्दी मेरे बेटो तथा बेटी में सत्ता की जंग शुरू हो गई। अमीरों ने रजिया के स्त्री होने के नाते उसका विरोध किया।
तब मैंने उन्हें समझाया "मेरी मृत्यु के पश्चात् यह पता लग जायेगा कि मेरी पुत्री के अतिरिक्त मेरे पुत्रों में कोई भी शासक बनने के योग्य नहीं है।"
मेरी मृत्यु के पश्चात् मेरी एक पत्नी शाह तुर्कान ने प्रान्तीय इक्तेदारों के साथ मिल कर मेरे दूसरे पुत्र रुकनुद्दीन फिरोजशाह को मेरी मृत्यु के अगले दिन सुल्तान घोषित कर दिया। सुल्तान बनते ही वह भोग विलास में फंस गया और उसकी माँ शाह तुर्कान अत्याचार करने लगी।
तब अमीरों तथा सरदारों ने मिलकर रजिया को सुल्तान घोषित किया। यह सब छह माह चला। रजिया शुक्रवार की नमाज के समय लाल वस्त्र पहनकर दिल्ली की जनता के सामने आई और मेरी इक्छा याद दिलाई और कहा कि "शासक बनने का अवसर मिलने पर यदि वह अयोग्य साबित हुई तो उसका सर काट लिया जाए। " दिल्ली की जनता ने उत्साहित हो कर उसे सुल्तान स्वीकार कर लिया।
रज़िया ने मेरे शासनकाल में विद्या प्राप्त की और शास्त्रों, सैन्य और शासन की शिक्षा ली। रज़िया ने दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर आधिकारिक रूप से कब्जा किया और वे एक साहसी और न्यायप्रिय सुल्तान रहीं। रज़िया को उनकी साहसपूर्णता और न्यायप्रियता के लिए याद किया जाता है, और वे भारतीय इतिहास में महिला सुल्तान के रूप में महत्वपूर्ण स्थान पर हैं।
परन्तु, मेरे छोटे भाई ने उनके खिलाफ साजिश रची और उन्हें हराकर अपने बड़े भाई को ही सुल्तान बना दिया।
व्यास पण्डित द्वारा महाकाल के नाम पर दिया श्राप फल गया। यहाँ तक कि मुझे दिल्ली में कुतुब कॉम्प्लेक्स, मेहरौली, दिल्ली में दफनाया गया, आज भी मेरा मकबरा बिना छत का है। ऐसा नहीं है कि छत बनाई नहीं गई थी। छत बनाई गई थी, लेकिन वह टिक नहीं पाई। कुछ सालों बाद फिर से इस मकबरे की छत बनाई गई, लेकिन वह फिर गिर गई।”
यह बहुत लम्बा सेशन था इस लिए अब डॉक्टर ने सेशन समाप्त करने का निर्णय किया और कहा
“अब आप को वह शरीर छोड़ कर इस शरीर में अगले दस सेकंड में बापस आना है। आप धीरे -धीरे आखें खोलेंगे और अपने आप को उन यादों से मुक्त पायगे।”
धीरे - धीरे डॉक्टर समीर को ट्रेंच से बहार ले कर आ गई। इतना कह कर समीर निढाल हो कर जग गया। समीर की आखों से अश्रु धारा लगातार बहुत देर तक बहती रही।
मैं उसके अश्रु पोछने उठी तो डॉक्टर ने मना कर दिया। समीर ने अपने गले में पहने भगवान शिव के लॉकिट को शृद्धा से चूम लिया। उसने अपने हाथ में पहनी रूद्राक्ष की माला जोर से पकड़ ली।
हम लोग शाम को भगवान शिव के मंदिर गये। पूजा की प्रसाद लिया और फिर डॉक्टर ने समीर को एक सुरक्षा कवच दिया। जिसे पहनने के लिये हम ने एक सोने की चेन खरीदी। मैंने वह लॉकिट समीर के गले में पहना दिया। समीर के मन से बहुत बड़ा बोझ उतर गया, वह बहुत हल्का महसूस कर रहा है। हम लोग रात का खाना खाने होटल की लॉबी में गये। बहुत साल बाद समीर खुश था।
मोक्ष की अवधारणा
आज हम लोगों को डॉक्टर ने अंतिम वार मिलने के लिये बुलाया। हम लोग सुबह से ही डॉक्टर से मिलने के लिये उत्सुक थे। समीर ने डॉक्टर से पूछा कि "मैं अपने इस पूर्व जन्म के अपराध बोध से कैसे मुक्त हो सकता हूँ ?"
समीर की उत्सुकता बढ़ती देख कर डॉक्टर ने उसे यात्रा उपचार प्रक्रिया के सम्बन्ध में बताना शुरू किया "मैंने इस उपचार प्रक्रिया को प्रमाणित प्रक्रिया के तौर पर समझा है कि शरीर में उपचार की जन्मजात शक्ति होती है और अगर सही दृष्टिकोण और इरादे के साथ इसका उपयोग किया जाए तो बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है।
तकनीक सरल है और इसके लिए बहुत विस्तृत प्रेरणा प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं है। विधि खुली और प्रत्यक्ष है।"
"तो अब मुझे क्या करना होगा ?" समीर ने पूछा।
कुछ क्षण चुप रहने के बाद डॉक्टर ने कहना शुरू किया "अब इस पहचाने गए अपराध बोध को प्रकट करने के लिए तुम्हें उज्जैन जाना होगा।”
"इससे क्या होगा ?" मैंने डॉक्टर की और उत्सुकता से देखा।
“इससे समीर के कई जन्मों तक फैले हानिकारक प्रभावों को हल करने के लिए अतीत के विषय तथा उनके प्रतिनिधियों का सामना करने और अतीत की वास्तविक वास्तविकता को स्वीकार करने से "मूल पाप" का अंत होगा।” डॉक्टर ने पूरे आत्मविश्वास से कहा।
“इससे तुम्हें बहुत राहत मिल सकती हैं तथा तुम जो पूर्व जन्मों के इल्तुमिश के पापों का क्रॉस ढो रहे हो, तो समय आ गया है कि उस दोष से तुम्हारी आत्मा मुक्त हो।"डॉक्टर ने समीर की ओर देख आकर कहा।
समीर ने शंकालु हो कर पूछा "आप का मोक्ष से क्या मतलब है ?
डॉक्टर ने बताया कि “हिंदू धर्म में जिसे मोक्ष, विमोक्ष, विमुक्ति और मुक्ति कहा जाता है।उसके लिए जैन, बौद्ध, और सिख धर्म में मुक्ति, निर्वाण या रिहाई शब्द है।
अपने उद्धारक और परलोकवादी अर्थों में, यह संसार, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति को स्पष्ट करता है।
ज्ञानमीमांसा और मनोवैज्ञानिक अर्थों में, मोक्ष अज्ञानता से मुक्ति है आत्म-साक्षात्कार और आत्म-ज्ञान।”
हिंदू परंपराओं में, अर्थ,काम,धर्म और मोक्ष एक केंद्रीय अवधारणा है और मानव जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य है। हिंदू धर्म में इन चारों अवधारणाओं को पुरुषार्थ कहा जाता है।
वेदांत में मोक्ष, जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति है, जो पूर्ण आत्मज्ञान द्वारा प्राप्त होती है। इसे शुद्ध ब्रह्मस्वरूप का बोध प्राप्त करने और माया के बंधन से मुक्त होने के रूप में भी वर्णित किया गया है। मोक्ष, सुख-दुख और मोह से मुक्ति है, यह एक ऐसी अवस्था है जो शब्दों से परे है।
धर्म की अवधारणा की तुलना में मोक्ष की अवधारणा प्राचीन भारतीय साहित्य में बहुत बाद में दिखाई देती है। प्राचीन संस्कृत श्लोकों और प्रारंभिक उपनिषदों में सबसे पहले दिखाई देने वाली आद्य अवधारणा मुच्यते है, जिसका अर्थ है "मुक्त" या "मुक्त"। श्वेताश्वतर और मैत्री जैसे मध्य और बाद के उपनिषदों में, मोक्ष शब्द दिखाई देता है और एक महत्वपूर्ण अवधारणा बनना शुरू होता है।
कठ उपनिषद, एक मध्य उपनिषदिक-युग की लिपि जो पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्ध की है, संसार और मोक्ष के बारे में सबसे शुरुआती व्याख्याओं में से एक है।
कथा में, बालक नचिकेता पूछता है “दुःख का कारण क्या है?”
यम बताते हैं कि “दुख और संसार उस जीवन से उत्पन्न होते हैं जो बिना सोचे-समझे, अशुद्धता के साथ, बिना बुद्धि के उपयोग के और न ही आत्म-परीक्षण के साथ जिया जाता है, जहाँ न तो मन और न ही इंद्रियाँ किसी की आत्मा, स्वयं द्वारा निर्देशित होती हैं।”
नचिकेता मृत्यु के देवता यम से पूछता है कि “मुक्ति की ओर क्या ले जाता है।”
यम बताते हैं कि “मुक्ति आंतरिक शुद्धता, सतर्क मन, बुद्धि, कारण, बुद्धि, सर्वोच्च आत्मा पुरुष की प्राप्ति के साथ जीए गए जीवन से आती है ।”
कठ उपनिषद का दावा है कि ज्ञान मुक्ति देता है, ज्ञान ही स्वतंत्रता है। कठ उपनिषद व्यक्तिगत मुक्ति, मोक्ष में योग की भूमिका की भी व्याख्या करता है।यह वार्तालाप हम लोगों के बीच बहुत लम्बा चला। डॉक्टर ने हम लगो की लगभग सभी शंकाओं का समाधान करने की कोशिश की।
“अब तुमने अपने पिछले जन्म को देख लिया है। तुम यह भी जान गये हो कि तुम्हारे दुःख का कारण महाकाल मन्दिर को नष्ट करने तथा ब्रम्ह हत्या करने का जो अपराधबोध अवचेतन मन में दबा था वह प्रगट हो गया है। अब तुम्हें वह स्वप्न परेशान नहीं करेगा। लेकिन तुम्हारी शिव भक्ति बनी रहेगी।” डॉक्टर ने बताया।
डॉक्टर ने समीर से पूछा “कभी उज्जैन गये हो?”
समीर ने बताया “वह अपने पिता के साथ ग्यारह ज्योतिर्लिंगों के दर्शन कर चुका है लेकिन उज्जैन नहीं गया।”
तब डॉक्टर ने उसे उज्जैन जाने का निर्देश दिया।
हम लोग दिल्ली वापिस आ गये। घर में हम दोनों के परिवार एकत्र हुये। समीर ने अपनी पूरी कहानी सब को सुनाई। हम सब लोगों ने उज्जैन जाने का प्रोग्राम बनाया।
तब समीर के कहा कि “इस बार केवल हम दोनों ही जायेगे।”
तो सभी लोग मान गये। हम लोग अगले रविवार सुबह की फ्लाइट से इंदौर गये। फिर वहां से टैक्सी ले कर उज्जैन पहुंच गये तथा हम ने क्षिप्रा होटल में कमरा बुक किया था। हम लोगों ने चेक इन किया फिर कमरे में आ गये।
उज्जैन शहर में प्रवेश करते ही समीर टैक्सी से बाहर देख रहा था। वह पूरे रास्ते बहुत चुपचाप बाहर देख रहा था जैसे वह आसपास की जगहों को पहचानने की कोशिश कर रहा हो।
मैंने उससे जब इस बारे में पूछा तो वह चुप ही रहा पर मुझे उसकी आखों में दर्द व बेवसी की झलक दिखाई दी, तो मैं चुप रही। उज्जैन आते ही मैंने समीर का जो चेहरा देखा बैसा कभी नहीं देखा था। समीर ने उज्जैन आते समय ही मुझे आगाह कर दिया था कि मै उज्जैन में चुप रहूँगी और किसी को कोई बात नहीं बताऊगी। मैंने उसे वचन दिया कि मै ऐसा ही करुगी।
समीर के पिताजी के एक दोस्त ने उज्जैन के व्यास परिवार से सम्पर्क कर समीर को उज्जैन में सभी तरह के अनुष्ठान करने के लिये तैयार किया था। हम लोगों ने शाम को ही उन्हें अपने उज्जैन आ जाने की सूचना दे दी थी। उन्होंने हम दोनों को सुबह छः बजे रामघाट पर मिलने के लिये बुलाया।
सुबह हम लोग रामघाट नियत समय पर पहुंच गये। समीर व्यास जी को देखते ही जैसे पहचान गया। लेकिन वह तत्काल उन्हें प्रणाम करने नीचे झुका तो सीधे उनके चरणों में लेट कर चरण बन्दना करने लगा।
हम दोनों समीर के यकायक इस व्यहार से चौक गये। मैं चुप रही। व्यास जी ने उसे उठाते हुए ‘सदैव खुश रहो’ का आशीर्वाद दिया। हम लोग एक छोटे मंदिर के सामने बिछे आसनों पर बैठ गये। व्यास जी के साथ आये उनके सहायक ने आसन बिछाये थे।
कुछ देर हम लोगों के बीच सन्नाटा पसरा रहा। सुबह के सूरज की लालिमा की छाया नदी के पानी पर सुनहरी पेन्टिंग जैसी लग रही थी। शीतल हवा चल रही थी। मोक्षदायिनी और उत्तरवाहिनी शिप्रा के तट पर श्राद्ध पक्ष ही नहीं बल्कि आम दिनों में भी हजारों की संख्या में श्रद्धालु तर्पण और कर्मकांड के लिए आते हैं।
चारों और श्राद्ध पूजन शुरू होने के कारण विभिन्न तरह को सुगन्ध वातावरण में फैल रही थी। पूजन के लिए शंख, घंटियां बज रहीं थी। पुजारियों द्वारा मंत्रोचार की ध्वनियाँ घाट की पवित्रता को बढ़ा रही थी। बीच -बीच में आस पास के मंदिरों से भजन पूजन की आवाजें आ रही थी। मैंने अपनी जिंदगी में इतना पवित्र, सुरम्य तथा मनोहारी दृश्य कभी नहीं देखा था। मुझे यहाँ आ कर अहसास हुआ कि उज्जैन को मोक्षदायनी क्यों कहा जाता है।
समीर आँखें नीचे किये बैठा था। ख़ामोशी का अहसास होते ही उसने व्यास जी से पूछा कि "क्षिप्रा इतनी पवित्र नदी क्यों मानी जाती है, इस जगह का नाम राम घाट क्यों है? तथा यहां इतने लोग पिंडदान क्यों कर रहे है ?"
एक साथ इतने प्रश्न सुन कर व्यास जी ने पहली बार समीर की ओर भर नजर देखा। जब उन दोनों की आंखें मिली तो एक बिजली सी दोनों की आँखों में कोद गई। समीर ने तत्काल सिर झुका लिया।
व्यास जी ने गला साफ करते हुए कहा “शिप्रा नदी को भगवान महाकाल की गंगा के रूप में जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव की तर्जनी से प्रकट हुई है। रामघाट शिप्रा नदी के किनारे स्थित एक प्रसिद्ध घाट है। किवदंती है कि भगवान राम ने अपने माता-पिता के लिए रामघाट पर पिंडदान किया था। इसी वजह से इस जगह का नाम रामघाट पड़ा।”
व्यास जी पूजा की तैयारी के लिये उनके सहायक को निर्देश देने लगे। समीर ने पहली बार मेरी ओर देखा तथा आँखों से कुछ कहना चाहा। लेकिन मेरी समझ में कुछ नहीं आया। तो वह दूसरी ओर देखने लगा।
समीर ने व्यास जी से पूछा कि "पिंड दान क्यों किया जाता है ?"
व्यास जी ने पूजा की तैयारी करते करते कहा "जीवन, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति हर आत्मा का लक्ष्य है। हिंदू का धार्मिक दायित्व है कि वे अपने प्रियजनों की आत्माओं को मुक्ति प्राप्त करने में मदद करें। पूर्वजों की आत्माओं को भी प्रसन्न करना चाहिए ताकि पृथ्वी पर उनकी संतानों को शांति और समृद्धि का आशीर्वाद मिल सके।
मृतक और पूर्वजों के लिए हिंदू अनुष्ठान जिसे पिंड दान कहा जाता है, ब्राह्मण पंडितों या हिंदू पुजारियों की मदद से किया जाता है। अनुष्ठान में, प्रतीकात्मक रूप से पिंड चढ़ाया जाता है। भेंट के रूप में उपयोग किए जाने वाले सात पिंडों में से एक को विशेष रूप से प्रिय दिवंगत प्रियजन की आत्मा को अर्पित किया जाता है।
बाकी को पूर्वजों की आत्माओं को अर्पित किया जाता है। पिंड चावल, जई और गेहूं के आटे से बना एक गोला होता है जिसमें सूखा दूध और शहद मिलाया जाता है। हिंदू अनुयायियों के बीच पिंड दान एक धार्मिक दायित्व है।
प्राणी के मोक्ष के लिए उज्जैन के राम घाट पर पिंड दान करने से मृत आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है एवं आत्मा - परमात्मा में विलीन होती है तथा बैकुंठ में वास होता है। जन्म जन्मांतर के फेर से मुक्ति प्राप्त होती है।
अपने ऐतिहासिक विकास में, मोक्ष की अवधारणा तीन रूपों में प्रकट होती है: वैदिक, योगिक और भक्ति।"
"क्या इस जीवन में मोक्ष मिलना सम्भव है ?" समीर ने प्रश्न किया।
व्यास जी बोले "हिंदू धर्म के सांख्य, योग और वेदांत स्कूलों में, किसी व्यक्ति के जीवन में प्राप्त मुक्ति और स्वतंत्रता को जीवनमुक्ति कहा जाता है, और जिस व्यक्ति ने इस अवस्था का अनुभव किया है उसे जीवनमुक्त आत्म-साक्षात्कार प्राप्त व्यक्ति कहा जाता है।”
"क्या इस अवधारणा का उल्लेख सनातन धार्मिक ग्रंथों मै
मिलता है ?" मैंने जिझासा की।
व्यास जी बोले दर्जनों उपनिषदों में मुक्ति, जीवनमुक्ति की अवस्था का उल्लेख या वर्णन किया गया है। कुछ लोग जीवनमुक्ति की तुलना विदेहमुक्ति, मृत्यु के बाद संसार से से करते हैं।”
"जीवन मुक्त व्यक्ति के क्या लक्षण है ? मैंने फिर पूछा। व्यास जी पूजन की सामग्री जमाते जमाते बोले
“हिंदू दर्शन के इन प्राचीन ग्रंथों का दावा है कि जीवनमुक्ति एक ऐसी अवस्था है जो किसी व्यक्ति के स्वभाव, गुणों और व्यवहार को बदल देती है। उदाहरण के लिए, नारदपरिव्राजक उपनिषद के अनुसार, मुक्त व्यक्ति में निम्न गुण दिखाई देते हैं:
उसे अनादर से कोई परेशानी नहीं होती और वह क्रूर शब्दों को सहन करता है, दूसरों के साथ सम्मान से पेश आता है, भले ही दूसरे उसके साथ कैसा भी व्यवहार करें;
जब कोई क्रोधित व्यक्ति उसका सामना करता है तो वह क्रोध का जवाब नहीं देता, बल्कि नरम और दयालु शब्दों से जवाब देता है;
यहां तक कि अगर उसे प्रताड़ित भी किया जाए, तो भी वह सत्य बोलता है और उस पर भरोसा करता है;
वह दूसरों से आशीर्वाद या प्रशंसा की इच्छा नहीं रखता; वह कभी किसी जीवन या प्राणी को चोट नहीं पहुंचाता या नुकसान नहीं पहुंचाता अहिंसा, वह सभी प्राणियों के कल्याण में तत्पर रहता है; वह दूसरों की उपस्थिति की तरह अकेले रहने में भी उतना ही सहज है; वह एक कटोरे के साथ, बिना किसी मदद के फटे हुए वस्त्र में एक पेड़ के नीचे आराम से रहता है, जैसे कि जब वह मिथुन भिक्षुओं का संघ, ग्राम गांव और नगर शहर में होता है;
वह शिखा धार्मिक कारणों से सिर के पीछे बालों का गुच्छा या अपने शरीर के पार पवित्र धागे की परवाह नहीं करता है। उसके लिए, ज्ञान ही शिखा है, ज्ञान ही पवित्र धागा है, केवल ज्ञान ही सर्वोच्च है। बाहरी दिखावे और अनुष्ठान उसके लिए मायने नहीं रखते, केवल ज्ञान ही मायने रखता है; उसके लिए न तो देवताओं का आह्वान है, न ही उनका त्याग, न ही कोई मंत्र है, न ही अमंत्र, न ही देवी-देवताओं या पूर्वजों की पूजा, केवल आत्मज्ञान के अलावा कुछ भी नहीं;
वह विनम्र, उच्च मनोबल वाला, स्पष्ट और स्थिर मन वाला, सीधा, दयालु, धैर्यवान, उदासीन, साहसी, दृढ़ता से और मीठे शब्दों में बोलने वाला होता है।”
"जब जीवन मुक्त मरता है तो क्या होता है ?" समीर बोला
“जब जीवन्मुक्त मरता है तो वह परामुक्ति प्राप्त करता है और परामुक्त हो जाता है। जीवन्मुक्त को जीवित रहते हुए भी मुक्ति का अनुभव होता है और मृत्यु के बाद भी, यानी परामुक्त होने के बाद, जबकि विदेहमुक्त को मृत्यु के बाद ही मुक्ति का अनुभव होता है। "
समीर को लग रहा था की इन व्यास जी को वह पूर्व जन्म से जानता है। इनका रूप भले अलग हो लेकिन आँखें वही है। ये वही व्यास जी है जिसकी उसने महाकाल मन्दिर के प्रांगण में हत्या कर दी थी। मुम्बई की डॉक्टर ने इसीलिए मुझे उज्जैन भेजा ताकि मै उन लोगों से पुनः इस जन्म में मिलकर उन घटनाओं को पुनः महसूस कर जी सकू ताकि मेरी आत्मा मुक्त हो सके।
इस के बाद व्यास जी ने पिण्ड दान का पूजन प्रारम्भ किया। यह पिण्ड दान में अपनी मुक्ती के लिए ही तो कर रहा हूँ। पूजन समाप्त होते होते दोपहर हो आई।
व्यास जी को यथायोग्य दान दक्षिणा दे कर हम लोगों ने व्यास जी से पूछा की कल कितने समय महाकाल भगवान के दर्शन पूजन के लिये आना होगा। व्यास जी ने बताया की उन्होंने भस्म आरती के लिये हम लोगों की बुकिंग की है। भस्म आरती के लिए अर्ध रात्रि को मन्दिर पहुंचना होगा। तब हम लोग होटल आ गए। समीर काफी थक गया था। खाना खा कर वह सोने चला गया। दिन में मुझे नींद नहीं आती है, सो मैंने शहर में जाने का मन बनाया।
उज्जैन की पुरानी यादों का सैलाव
मैं होटल से जब निकली तो मुझे खुद पता नहीं था कि कहां जाना है। अभी दोपहर की धूप बहुत तेज नहीं थी। मैंने फ्रीगंज की ओर चलना शुरू किया। होटल में जब मैंने आस पास बाजार के बारे में पूछा तो मैनेजर ने फ़्रीगंज कहा। नाम अजीब था मैंने मैनेजर से इसका मतलब पूछा तो उसने बताया की सिंधियां शासन काल में उधोग धंधों को आकर्षित करने के लिए सरकार ने फ्री में जमीनें दी तथा व्यापीरियो से टैक्स नहीं लिया गया इसी कारण इस जगह का नाम फ्री गंज हो गया। संभवतः यह हमारे देश का पहला एस इ जेड था।
मैं एक खाली सड़क पर चल रही थी। थोड़ी दूर चलने पर महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ का साइन बोर्ड दिखा। जिस पर उदयन मार्ग लिखा था। नाम बहुत मनोहारी लगा। उस मार्ग पर चलते हुए कितना समय हुआ मुझे अहसास नहीं रहा। मेरे मन में उदयन नाम चल रहा था। नाम का अपना एक आकर्षण होता है मुझे आज पता चला। नाम इतना म्यूजिकल था की पीछे मुड़ने की सुध ना रही।
आगे सामने एक भवन पर महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ का बोर्ड देख कर उस भवन में चली गई। भवन लगभग खाली था। केवल कुछ लोग अपने डेस्क पर काम कर रहे थे। किसी ने मेरी तरफ ध्यान ना दिया। सामने निदेशक की नाम पट्टिका देख में कमरे में चली गई। वहां एक बुजुर्ग से दिखने बाले आकर्षक पुरुष बैठे थे। मैंने उन्हें सम्मान पूर्वक अभिवादन किया। उन्होंने मुझे सामने के सोफा पर बैठने का इशारा किया।
मैंने उन्हें अपना परिचय दिया तथा उनसे अनुरोध किया कि "आप के पास समय हो तो क्या आप मुझे उज्जैन के पौराणिक, धार्मिक तथा ऐतिहासिक सम्बन्ध में जानकारी दे सकते है ?"
उन्होंने बताया कि मै मध्यप्रदेश शासन में संस्कृति विभाग में संचालक संस्कृति, व सलाहकार के रूप में कार्य कर चुका हूँ। मै उज्जैन के ऊपर विगत अनेक वर्षों से शोध कार्य कर रहा हूँ और संप्रति विक्रमादित्य शोधपीठ के निदेशक के पद पर कार्यरत हूँ। आप पूछे कि आप उज्जैन के संदर्भ में क्या जानना चाहती है ?"
मैं समीर के पूर्व जन्म में उसने उज्जैन मैं क्या किया था, जानना चाहती थी कि मुम्बई में डॉक्टर ने समीर से जो जानकारी निकाली थी वह कितनी सही है ? क्या उस घटना के कोई ऐतिहासिक प्रमाण भी है ? या समीर की इल्तुमिश की कहानी केवल उस के मन की कल्पना मात्रा है जो शायद सम्मोहन वश उसने सुनाई थी।
लेकिन में सीधे किसी से यह नहीं पूछ सकती थी। मुझे भाग्यवश यह जगह मिल गई जो शायद मेरी शंका का समाधान कर सके।
मैंने डरते डरते शंकोच के साथ पूछा कि
"यह शहर कितना पुराना है ?"
उन्होंने पहली बार सीधे मुझे देखा। अभी तक उनने मुझसे नजर नहीं मिलाई थी। मैं थोड़ी असहज हो गई। अनजाने में मैंने अपने दुपट्टे को ठीक किया।
उन्होंने मुझे बताया "गरुण पुराण में एक श्लोक भारत के सात पवित्र नगरों के सम्बन्ध में है -
अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका ।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैताः मोक्षदायिकाः ॥
इस से यह सिद्ध होता है कि उज्जैन प्राचीन नगर है।"
"यह नगर कब बसाया गया ? वो कौन लोग थे ?" मेरा अगला सवाल तैयार था।
उन्होंने सहजता से कहा "स्कंद पुराण का पाँचवा खण्ड अवन्ती खण्ड है । यह खण्ड अवंति क्षेत्र वर्तमान उज्जैन क्षेत्र के इतिहास, भूगोल, धार्मिक स्थलों और पौराणिक कथाओं का वर्णन करता है।
यह खण्ड विशेष रूप से भगवान शिव और उनके भक्तों के साथ उनके संबंध पर केंद्रित है, जिसमें उज्जैन में महाकाल वन में भगवान महाकाल के मंदिर की महिमा और अन्य धार्मिक स्थलों की चर्चा है।"
उन्होंने अपनी अलमारी से गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित स्कंदपुराण की पुस्तक निकाल कर मुझे देते हुए कहा कि तुम खुद देखो। मैंने किताब हाथ में ले कर अवंतिका खंड देखा मैंने उनसे कागज व पेन मांगा ताकि मैं कुछ नोटस लिख सकूँ। उन्होंने एक नोट पेड तथा पेन दिया।
मैंने उसमें से कुछ नाम लिखे ताकि उन जगहों पर समीर के साथ जा सकूँ। महाकालवन, ककलेश्वर, अप्सराकुण्ड, पुण्यदायक रुद्रसरोवर, कुटुम्बेश विध्याधरेश्वर तथा मर्कटेश्वर, हरिसिद्धि हनुमदीश्वर कवचेश्वर, वल्मीकेश्वर, शुक्रेश्वर और नक्षत्रेश्वर तीर्थ, कुशस्थली, अक्रूर तीर्थ एकपादतीर्थ चन्द्रार्कवैभवतीर्थ, करभेषतीर्थ, लडुकेशतीर्थ, मार्कण्डेश्वरतीर्थ, यज्ञवापीतीर्थ, सोमेशवरतीर्थ, नरकान्तकतीर्थ, केदारेश्वर रामेश्वर सौभागेश्वर, तथा नरादित्य तीर्थ, केशवादित्य तीर्थ, शक्तिभेदतीर्थ स्वर्णसारमुख तीर्थ, ऊँकारेश्वरतीर्थ, कालवन में शिव लिंगों की संख्या तथा स्वर्णश्रंगेश्वर तीर्थसुन्दरकुण्डतीर्थ नीलगंगा पुष्करतीर्थ पुरुषोत्तमतीर्थ अघनाशनतीर्थ गोमतीतीर्थ वामनकुण्डतीर्थ वीरेश्वरतीर्थ कालभैरवतीर्थ, कर्कराजतीर्थ, विघ्नेशादितीर्थ, सुरोहनतीर्थ।
स्कन्द पुराण में उज्जैन के कुशस्थली अवन्ती एवं उज्ज्यनीपुरी के पद्मावती कुमुद्वती अमरावती विशाला तथा प्रतिकल्पा नामों का उल्लेख है।
यह करते करते शाम हो गई थी तो मैंने उनसे जाने की आज्ञा मांगी तथा टैक्सी ले कर वापिस होटल आ गई। मैंने देखा समीर अभी भी सो रहा है।
मैंने उसे धीरे से उठाया तथा तैयार होने को कहा। समीर ने उठ कर बताया कि उसने स्वप्न में उज्जैन को देखा जिसे इल्तुमिश ने लूटा था। सारी मारकाट, बृद्ध, पुरुष, महिला, बच्चों की लाशों से गलियों में बहता खून, बच्चों की चीखें, महिलाओं का बलात्कार करते सैनिक। इल्तुमिश का गर्वीला चेहरा, जीत की ख़ुशी, अट्टहास करते सैनिक, मौत का ताण्डव। महाकाल का डमरू बजाना। उनका नाचना। सब उसने पुनः देखा। उसका शरीर कांप रहा था। आँखों से आँसुओं की धार बाह रही थी। हम एक दूसरे से लिपट कर रो रहे थे। यह आत्मा का रेचन था।
समीर को इल्तुमिश के कृत्यों का सामना करना ही था। धर्म के नाम पर इतना अधर्म? सत्ता की भूख, दौलत का लालच क्या था वह? कितना धिनौना जीवन था इल्तुमिश का? खोखला अहंकार, इतिहास को नए सिरे से लिखने की चाह। आज किसे याद है उसके अच्छे काम? याद है तो केवल पाप कर्म।
क्या इस्लाम यही चाहता है? क्या पैगम्बर का यही पैगाम था ? वो सब रोजे, ज़कात, हज और पांच वक्त की नमाज़ सब ढोंग था। मारकाट की इजाजत क्या अल्ला की दी हुई थी या इल्तुमिश का अहंकार। जो गुलाम से सुल्तान बनने पर भी सन्तुष्ट ना हुआ। क्या मिला जीवन से? कितना अकेला था मरते समय? कहां थे वे बच्चे? कहां थी वे पत्नियां ? आपस में लड़ रहे थे सत्ता के लिये। मारकाट उनके बीच में बैसी ही थी। क्या हुआ गुलाम वंश का? नष्ट कर लिया था अपना जीवन।
नष्ट कर दिया था इस स्वर्ग जैसे देश को। कहां थी वह जन्नत ? कहां थी वह बहत्तर हूरें ? कहां था वह बहिस्त में रहने का सुख? सब छलाबा था। नष्ट कर दिया था अल्ला की हर नेमत को जो उसने मुझे बक्सी थी।
समीर बोलता ही जा रहा था। मैं उससे लिपट कर रोये जा रही थी। हम लोग ऐसे कितनी देर बैठे रहे पता नहीं। यह समीर के लिये पीछे के समय में यात्रा थी, जो इस जनम की मुक्ति के लिये जरुरी थी। यही सही पिण्ड दान था।
यही प्रायश्चित था उन कर्मों का। ये ही ऋणानुबन्धन था उस आत्मा का जो उसे अपनी भावनाओं की आहुति दे कर चुकाना ही था। यही मुक्ति थी उस जन्म के संचित कर्मो के प्रारब्ध को पूरा करने की। धीरे - धीरे हम दोनों सामान्य होने लगे। मन हल्का हो आया था।
मोक्ष को भ्रम से अंतिम मुक्ति के रूप में देखा जाता है, और ज्ञान के माध्यम से व्यक्ति की अपनी मूल प्रकृति का अनुभव होता है, जो सच्चिदानंद है जिसे कैवल्य अपवर्ग, निःश्रेयस, परमपद, ब्रह्मभाव, ब्रह्मज्ञान और ब्राह्मी स्थिति कहा जाता है।
हम लोग रात में बाजार गये तथा कुछ जरुरी सामान के साथ किताबों की दुकान से एक स्कन्द पुराण की किताब खरीद कर लाये। मैंने स्कन्द पुराण से लिखे स्थानों की सूची समीर को दिखाई। उसको बहुत सारे स्थानों की याद हो आई लेकिन बहुत सारे नाम वह याद नहीं कर पाया। व्यास जी की मदद से हमने महाकाल की भस्म आरती देखने की लिये पास की व्यवस्था की।हम लोग आराम करने के लिये लेट गये।
महाकालेश्वर मंदिर
हम लोग भस्म आरती में भाग लेने के बहुत उत्सुक थे। इसलिए नींद नहीं आ रही थी तो हम लोग अर्द्ध रात्रि को ही मन्दिर के पास पहुंच गये। हम लोग आस पास धूमते - धूमते एक प्रांगण में आ गए।
"क्या आपने कभी ऐसे मंदिर के बारे में सुना है जो भारत माता को समर्पित है? खैर, मध्य प्रदेश के पवित्र शहर उज्जैन में, अनोखा भारत माता मंदिर है, और यह मंदिर किसी भी अन्य मंदिर से अलग है।
इसके अलावा, यह मंदिर न केवल उज्जैन के लिए बल्कि पूरे देश के लिए एक विशेष महत्व रखता है। यह मंदिर किसी देवता का प्रचार नहीं करता है, बल्कि भारत माता का प्रचार करता है, एक गहरा संबंध और देशभक्ति की गहरी भावना को बढ़ावा देता है। इस मंदिर की सबसे आकर्षक विशेषता भारत माता की मूर्ति है, जिसे अक्सर भगवा साड़ी में दर्शाया जाता है, जो हिंदू धर्म के प्राचीन ग्रंथ - चार वेदों को पकड़े हुए है।" मन्दिर परिसर में बैठे एक आकर्षक युवक ने हमें पूछने पर यह जानकारी दी।
हमारी उत्सुकता देख कर उस युवक ने हमें उस के सामने पड़ी कुर्सियों पर बैठने का अनुरोध किया। परिचय की औपचरिकता में उसने बताया की वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वंसेवक तथा मालवा प्रान्त का प्रचारक है।
समीर ने उनसे महाकाल के मंदिर की प्राचीनता के बारे में पूछा। तो उन्होंने कहना शुरू किया कि “ज्योतिर्लिंग की स्थापना से संबंधित भारतीय पुराणों में अलग-अलग कथाओं का वर्णन मिलता है। एक कथा के अनुसार अवंतिका नाम के राज्य में वृषभसेन नाम के राजा राज्य करते थे। वे अपना अधिकतर समय शिव पूजा में लगाते रहते थे।
एक बार पड़ोसी राजा ने वृषभसेन के राज्य पर हमला बोल दिया। वृषभसेन ने पूरे साहस के साथ इस युद्ध का सामना किया और जीत हासिल की। अपनी हार का बदला लेने के लिए पड़ोसी राजा ने कोई ओर उपाय सोचा। इसके लिए उसने एक असुर की सहायता ली। उस दैत्य को अदृश्य होने का वर प्रदान था। पड़ोसी राजा ने उस दैत्य की मदद से अवंतिका राज्य पर हमला बोल दिया। राजा वृषभसेन ने इन हमलों से बचने के लिए भगवान शिव की शरण ली।
भक्त की पुकार सुन कर भगवान साक्षात अवंतिका राज्य में प्रकट हुए। उन्होंने असुरों और पड़ोसी राजाओं से प्रजा की रक्षा की। इस पर राजा वृषभसेन और प्रजा ने भगवान शिव से अवंतिका राज्य में ही रहने का आग्रह किया। जिससे भविष्य में अन्य आक्रमण से बचा जा सके। भक्तों के आग्रह के कारण भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रुप में वहां पर प्रकट हुए। महाकाल से बढ़कर अन्य कोई ज्योतिर्लिंग नहीं है।
पुराणों की दूसरी कहानी के अनुसार, एक समय उज्जयिनी में महाराजा चंद्रसेन का राज हुआ करता था। वे भगवान शिव के परम भक्त थे। भगवान शिव के गणों में मुख्य मणिभद्र राजा चंद्रसेन के मित्र हुआ करते थे। एक बार मणिभद्र ने राजा चंद्रसेन को एक चिंतामणि प्रदान की। इसमें अतुलनीय तेज था। राजा चंद्रसेन ने मणि को अपने गले में धारण कर लिया।मणि को धारण करते ही पूरा प्रभामंडल जगमगा उठा। मणि की दिव्यता से राजा चंद्रसेन की यश और कीर्ति दूसरे देशों में भी फैलने लगी। राज्य में धन-धान्य बढ़ने लगा।
राजा चंद्रसेन की यश और कीर्ति को बढ़ता देखकर अन्य राजाओं ने मणि को प्राप्त करने का प्रयास किया, लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो पाए। कुछ समय बाद अन्य राजाओं ने मिलकर राजा चंद्रसेन पर आक्रमण कर दिया। इसकी जानकारी मिलते ही राजा चंद्रसेन भगवान महाकाल की शरण में जाकर ध्यानमग्न हो गए।
उसी दौरान एक विधवा अपने पाँच साल के छोटे बालक को साथ लेकर वहाँ दर्शन के लिए आई। राजा चंद्रसेन को ध्यानमग्न देखकर बालक प्रेरित हुआ। घर जाकर बालक ने एक पत्थर लिया और उसे अपने घर के एकांत स्थान में रखकर उसके ध्यान में मग्न हो गया। वह इतना लीन हो गया कि उसकी माता उसे बार-बार बुलाती रही, लेकिन बालक को इसका पता नहीं चला।
बालक के व्यवहार से क्रुद्ध होकर महिला ने उसे पीटना शुरू कर दिया और पूजा का समान उठाकर फेंक दिया। बालक को जब चेतना आई तो वहाँ का दृश्य देखकर वह बहुत दुखी हुआ। अचानक वहाँ चमत्कार हुआ और वहाँ एक सुंदर मंदिर बन गया। मंदिर में एक दिव्य शिवलिंग विराजमान था। यह देखकर महिला आश्चर्यचकित रह गई।
भगवान महाकाल तब ही से उज्जयिनी में विराजमान हैं। महाकाल को उज्जैन का राजाधिराज माना जाता है।कहा जाता है कि आकाश में तारक लिंग, पाताल में हाटकेश्वर लिंग और पृथ्वी पर महाकाल से बढ़कर अन्य कोई ज्योतिर्लिंग नहीं है। इसलिए महाकाल को पृथ्वी का अधिपति भी माना जाता है।”
मैंने स्कंद पुराण में पड़ी अपनी जानकारी बताई कि “उज्जैन एक प्राचीन पवित्र नगरी उज्जयिनी, जिसे प्रतिकल्पा, पद्मावती, अवंतिका, भोगवती, अमरावती, कुमुदवती, विशाला, कुशस्थती जैसे अनेक नामों से जाना जाता है, खूब रोई। उज्जयिनी अपने साथ कई सदियों का इतिहास समेटे हुए है, तथा आज भी भारत के गौरवशाली इतिहास की झलक दिखाती है।”
उन्होंने मुझ से कहा कि “लेकिन वर्ष बारह सौ चौतीस की यादें उज्जयिनी की आँखों में आँसू ही लाती हैं। तुर्कों के आगमन के समय घोड़ों की हिनहिनाहट से मध्य भारत दहल उठा था, वातावरण में उदासी छा गई थी तथा यह समाचार प्रसारित हो रहा था कि दिल्ली का मामलुक सुल्तान इल्तुतमिश उज्जयिनी पर आक्रमण करेगा, और ऐसा ही हुआ।
अनेक धर्मों के सह-अस्तित्व और राजकीय धर्मनिरपेक्षता की मिसाल उज्जयिनी भारत के महान बौद्ध सम्राट अशोक की तपोभूमि थी, जहां उनकी पत्नी देवी ने उनके बच्चों महेंद्र और संघमित्रा को जन्म दिया, जिन्होंने वर्तमान श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया, जिसे उस समय सिहलद्वीप के नाम से जाना जाता था।
महान हिंदू सम्राट विक्रमादित्य और हिंदू धर्म के कई ऋषियों की नगरी रही है और जैन मान्यताओं के अनुसार आचार्य आर्यसुहस्तिसूरि की सलाह पर जैन मंदिरों का निर्माण कराने वाले, जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां बनवाने वाले राजा संप्रति का जन्म इसी नगरी में हुआ था और उन्होंने इस नगरी को गौरवान्वित किया था।
इस महान उज्जयिनी नगरी को तुर्की आक्रमणकारी इल्तुमिश ने नष्ट कर दिया था, बाबा महाकाल का सदियों पुराना मंदिर भी दिल्ली से आए इस मामलुक तुर्क के हमले में नष्ट हो गया था।”
मैंने समीर की ओर देखा उसकी आँखों में पश्चताप की झलक अभी भी थी। उस युवक ने हम लोगों के लिए पानी तथा चाय लाने के लिए पास से गुजरते अपने साथी से अनुरोध किया और उज्जैन के बारे में बताने लगे।
“भारत के लंबे इतिहास के परिप्रेक्ष्य में, साम्राज्य की लड़ाई और वर्चस्व के लिए निरंतर संघर्ष में उज्जैन का बहुत महत्व था। उत्तर, दक्षिण और पश्चिम के बीच व्यापार की मुख्य धमनी पर स्थित होने के कारण उज्जैन का राजनीतिक महत्व आर्थिक कारण से बढ़ गया था। इसने बदले में उज्जैन को अपना एक सांस्कृतिक वैभव प्राप्त करने में योगदान दिया, जिसकी बराबरी भारत के बहुत कम अन्य शहरों द्वारा की जा सकती है।
भारत में जब मुस्लिम आक्रमणकारियों का राज कायम हुआ तब उनमें से एक दिल्ली के शासक शम्स-उद-दीन इल्तुतमिश ने मंदिर पर आक्रमण कर दिया था। इल्तुतमिश ने महाकाल मंदिर पर हमला कर यहां कत्लेआम किया। इल्तुतमिश ने उज्जैन पर आक्रमण के दौरान महाकाल मंदिर को ध्वस्त कर दिया था।
शहर के प्राचीन मंदिरों सहित इस इलाके के सभी पुराने महल-मंदिर सबसे पहले इल्तुतमिश के हाथों ही बरबाद किए गए। महाकाल मंदिर पर झपट्टा मारने के फौरन बाद ही इल्तुतमिश भी मर गया। कब्र में उसके सोते ही दिल्ली में मची चार सालों की उथलपुथल के दौरान उसका पूरा कुनबा बेमौत मरा।
उस समय के इतिहासकारो ने हमलों, लूट और कत्ल के ब्यौरे अपने सुलतान की शान में दर्ज किए हैं। इन हमलों में इस्लामी सेना के हाथों ‘काफिर हिंदुओं को नरक भेजने‘ की कहानियाँ इतनी हैं कि थक-हारकर वह इतिहाकार एक जगह लिखता है– “किलों पर कब्जा जमाने, जंगलों को काटकर रास्ता बनाने, काफिरों को कत्ल करने, हिंदू राय-राणाओं को कैद करने का समस्त ब्यौरा लिख पाना मुमकिन नहीं है।“
“इस भगदड़ में बड़ी तादाद में लोगों का धर्मांतरण हुआ। नया मजहब मौत की सजा से बचने के लिए जिंदा रहने की सजा थी।”
हम लोग ध्यान से उनकी बात सुन रहे थे। पानी तथा चाय आ गई थी। हम लोगों ने चाय पीना शुरू ही किया था कि अंदर से एक बुजुर्ग आ कर हमारे साथ बैठ गए। युवक ने हमारा परिचय उन्हें दिया तथा आने का उदेश्य बताया।
उन्होंने सलाह दी की यदि हम दिन में आस पास के क्षेत्र में घूमेगे तो “आज भी उनके खंडहर गाँव-गाँव में उस बड़े हमले की गवाही देते हैं। अपने समय में उज्जैन के ये मंदिर भारत की हजारों साल की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के पूजनीय प्रतीक थे।
हम आज के बेतरतीब और बदहाल उज्जैन की गलियों में घूमते हुए कल्पना भी नहीं कर सकते कि ये इल्तुतमिश की इस्लामी फौज के हाथों पहली बार बरबाद होने के पहले किस शक्ल में सदियों से मौजूद रहे होंगे।
यहाँ मौर्य, गुप्त और अन्य राजवंशों ने इस्लाम के झंडाबरदारों के घातक हमलों के सालों पहले से बेहिसाब भव्य निर्माण कराए थे। वे सब अब खंडहरों या उजाड़ और गुमनाम टीलों में मौजूद हैं। जहाँ भी खुदाई होती है, वहाँ टीलों से मूर्तियाँ या मन्दिर झाँकते हैं। नदियाँ सूखती हैं तो घाटों के किनारे तोड़े गए मंदिरों की खंडित मूर्तियाँ आज भी अक्सर इस इलाके से निकलती हैं।
उज्जैन की असली आपबीती धूल और राख की कई परतों के नीचे दबी हुई है। हमारी आज की पीढ़ी को तो ऊपरी परत का भी ठीक से अंदाजा नहीं है। जबकि कई अंदरुनी परतें सदियों से अपने आगोश में आंसुओं से भरी कहानियां समेटे हुए हैं।”
मुझे अब समीर की मुम्बई में सुनाई गई कहानी के ओर छोर को पकड़ने में मदद मिल रही थी।
समीर ने उनसे पूछा कि "जब मन्दिर पर आक्रमण हुआ तो शिव लिँग कहा गायब हो गया था ?"
“महाकाल ज्योतिर्लिंग को आक्रांताओं से सुरक्षित रखने लिए उस वक्त पुजारियों ने महाकाल ज्योतिर्लिंग को कुंड में छिपा दिया था।उस वक्त पुजारियों ने महाकाल ज्योतिर्लिंग को कुंड में छिपा दिया था।
रानोजी सिंधिया का जन्म एक मराठी परिवार में हुआ था,जो वर्तमान में महाराष्ट्र राज्य के सतारा जिले के एक गाँव कन्हेरखेड के वंशानुगत पाटिल थे।
जब वे मालवा और मध्य भारत में स्वतंत्र शासक बने तो उन्होंने अपना उपनाम शिंदे से बदलकर सिंधिया रख लिया और इस तरह सिंधिया राजवंश की स्थापना की। वे सिंधिया राजवंश के संस्थापक, एक प्रतिभाशाली सैन्य कमांडर थे, जिनके नेतृत्व में मालवा पर विजय प्राप्त की गई थी। मराठा शूरवीर श्रीमंत राणोजी राव सिंधिया ने मुगलों को पराजित कर अपना शासन उज्जैन में स्थापित किया था।
राणोजी सिंधिया ने जब बंगाल विजय के दौरान उज्जैन में पड़ाव डाला। तब वे महाकाल मंदिर की दुर्दशा देखकर व्यथित हो उठे।
उन्होंने अधिकारियों और उज्जैन के कारोबारियों को आदेश दिया कि बंगाल विजय से लौटने तक भव्य महाकाल मंदिर बनवा दिया जाय। तो वहाँ औरंगजेब द्वारा निर्मित मस्जिद को ढहा महाकाल मंदिर बना दिया और श्री बाबा महाकाल ज्योतिर्लिंग को कोटि तीर्थ कुंड से निकाल महाकाल मंदिर में दोबारा स्थापित किया। जब वे बंगाल विजय से वापस उज्जैन पहुँचे तब उन्होंने नवनिर्मित मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा कराकर महाकाल की पूजा-अर्चना की।”
इस बीच, मंदिर के अवशेषों में ही महाकाल को पूजा जाता था। उन्होंने विस्तार से समीर को बताया।
युवक ने मन्दिर के बारे में बताया कि “बारह ज्योतिर्लिंगों में तीसरे नंबर पर आने वाले महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर तीन खंडों विभक्त है। मंदिर के निचले खंड में महाकालेश्वर, बीच में ओंकारेश्वर तथा सबसे ऊपर वाले खंड में नागचन्द्रेश्वर के शिवलिंग प्रतिष्ठ हैं।
महाकालेश्वर मंदिर के शिखर के तीसरे तल पर भगवान शंकर और माता पार्वती नाग के आसन बैठी हुई हैं। यहाँ एक शिवलिंग भी है। इस सुन्दर और दुर्लभ प्रतिमा का दर्शन सिर्फ नागपंचमी के दिन होते हैं।”
मैंने पूछा कि "यह दक्षिण मुखी तांत्रिक मन्दिर क्यों माना जाता है?" बुजुर्ग महाशय ने कुर्सी पर अपने पाँव ऊपर करते हुए कहा
“कोटि तीर्थ कुण्ड के पूर्व में एक विशाल बरामदा है। यहीं से महाकालेश्वर मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश का रास्ता है। इस बरामदे के उत्तरी छोर पर भगवान राम और देवी अवन्तिका की आकर्षक प्रतिमाएँ हैं।
गर्भगृह के पश्चिम, उत्तर और पूर्व में गणेश, पार्वती और कार्तिकेय के चित्र स्थापित हैं। दक्षिण में नंदी की प्रतिमा है। दीवारों पर चारों ओर शिव की मनोहारी स्तुति अंकित है।
महाकालेश्वर मंदिर में प्रवेश द्वार पूर्व दिशा में वास्तु के अनुसार सही स्थान पर स्थित है। मंदिर में गर्भगृह का द्वार दक्षिण दिशा में है, जो कि वास्तुशास्त्र के अनुसार वैभवशाली माना जाता है। महाकाल की मूर्ति दक्षिणमुखी होने के कारण दक्षिणामूर्ति मानी जाती है। यह एक अनूठी विशेषता है, जिसे तांत्रिक परंपरा द्वारा केवल बारह ज्योतिर्लिंगों में से महाकाल में पाया जाता है।
शास्त्रों के अनुसार दक्षिण दिशा के स्वामी यमराज जी है। कहा जाता है कि जो भी व्यक्ति मंदिर में आकर सच्चे मन से भगवान शिव की प्रार्थना करता है उसे मृत्यु के बाद मिलने वाली यातनाओं से मुक्ति मिलती है। यह भी कहा जाता है कि यहां आकर भगवान शिव के दर्शन करने से अकाल मृत्यु टल जाती है और व्यक्ति को सीधा मोक्ष प्राप्त होता है।”
समीर ने पूछा कि क्या यह सही है की ग्रीनविच से पहले काल गढ़ना के लिए जीरो डिग्री देशांतर उज्जैन से गुजरता मन जाता था ?"
युवक ने हमें बताया कि “प्राचीन काल से उज्जैन भारतीय समय की गणना के लिए केंद्र बिंदु हुआ करता था और महाकाल को उज्जैन का विशिष्ट पीठासीन देवता माना जाता था। समय के देवता, शिव अपने सभी वैभव में उज्जैन में शाश्वत शासन करते हैं।
उज्जैन ने खगोल विज्ञान के क्षेत्र में काफी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है, सूर्य सिद्धांत और पंच सिद्धांत जैसे खगोल विज्ञान महान ग्रन्थ उज्जैन में लिखे गए।
भारतीय खगोलविदों के अनुसार, कर्क रेखा उज्जैन से होकर गुजरती है, यह हिंदू भूगोलवेत्ताओं की देशांतर की पहली मध्याह्न रेखा भी है। लगभग चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से उज्जैन को भारत का ग्रीनविच होने की ख्याति प्राप्त थी। इस शहर का गौरवशाली इतिहास है, धार्मिक ग्रंथों के अनुसार यह नगरी कभी पूरी तरह नष्ट नहीं हुई क्योंकि यहां विनाश के देवता महाकाल स्वयं विराजमान हैं।”
बुजुर्ग महोदय ने कहा कि “महाकाल मंदिर का शिखर आसमान में चढ़ता है। आकाश के खिलाफ एक भव्य अग्रभाग, अपनी भव्यता के साथ आदिकालीन विस्मय और श्रद्धा को उजागर करता है। महाकाल शहर और उसके लोगों के जीवन पर हावी है। यहां तक कि यह आधुनिक व्यस्तताओं की व्यस्त दिनचर्या के बीच और पिछली परंपराओं के साथ एक अटूट लिंक प्रदान करता है।
महाकाल मंदिर के वास्तुशास्त्र के अनुसार पश्चिम दिशा में भूमिगत पानी का स्त्रोत धार्मिकता बढ़ाता है। इसी कारण उज्जैन शहर प्रदेश की धार्मिक नगरी के रूप में ज्यादा प्रसिद्ध है और इस शहर की प्रसिद्धि को और अधिक गौरवान्वित करता है महाकाल।
उज्जैन शहर की समृद्धि एवं प्रसिद्धि में इस मंदिर का भी विशेष योगदान है। मंदिर के प्रति लोगों की इतनी श्रद्धा और आस्था का कारण है इस स्थान की भौगोलिक स्थिति एवं मंदिर भवन का भारतीय वास्तुशास्त्र और चीनी वास्तुशास्त्र फेंगशुई दोनों के सिद्धांतों के अनुरूप बना होना।
भारतीय वास्तुशास्त्र के अनुसार पूर्व दिशा में ऊंचाई होना और पश्चिम दिशा में ढलान व पानी का स्रौत होना अच्छा नहीं माना जाता है परंतु देखने में आया है कि ज्यादातर वो स्थान जो धार्मिक कारणों से प्रसिद्ध है, चाहे वह किसी भी धर्म से सबंधित हो, उन स्थानों की भौगोलिक स्थिति में काफी समानताएं देखने को मिलती हैं।
ऐसे स्थानों पर पूर्व की तुलना में पश्चिम में ढलान होती है और दक्षिण दिशा हमेशा उत्तर दिशा की तुलना में ऊंची रहती है। जैसे वैष्णोदेवी मंदिर जम्मू, पशुपतिनाथ मंदिर मंदसोर इत्यादि।
वह घर जहां पश्चिम दिशा में भूमिगत पानी का स्त्रोत जैसे भूमिगत पानी की टंकी, कुआं, बोरवेल, इत्यादि होता है। उस भवन में निवास करने वालों में धार्मिकता दूसरो की तुलना में ज्यादा होती है।
टीले पर स्थित इस मन्दिर परिसर के पश्चिम भाग में जलकुण्ड है। मन्दिर परिसर के बाहर पश्चिम दिशा में ही रूद्रसागर है। पश्चिम दिशा में ही थोड़ा सा आगे जाकर क्षिप्रा नदी भी है इसलिए यह स्थान धार्मिक रूप से प्रसिद्ध है।
इस मंदिर भवन के चारों दिशाओं में सड़क है। उत्तर दिशा में हरसिद्धि मंदिर की ओर जाने वाली सड़क पूर्व से पश्चिम की तरफ काफी ढलान लिए हुए है। पश्चिम दिशा में दक्षिण से उत्तर की ओर ढलान लिए हुए सड़क है।
मंदिर भवन के अंदर उत्तर दिशा वाला भाग भी दक्षिण दिशा वाले भाग जहां वृद्धेश्वर महाकाल एवं बाल हनुमान मंदिर है कि तुलना में काफी नीचा है। मंदिर भवन का मुख्य द्वार पूर्व दिशा में वास्तुनुकुल स्थान पर स्थित है। गर्भगृह वह स्थान जहां भगवान महाकाल विराजमान है का द्वार दक्षिण दिशा में वास्तु सम्मत स्थान पर ही स्थित है।”
महाकाल की नगरी उज्जैन को साढ़े तीन काल का निवास स्थल माना जाता है। सबसे पहले महाकाल, फिर काल भैरव और फिर गढ़कालिका। कहा जाता है महाकाल ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद यहाँ भी जाना जरूरी होता है। यह जानकारी तथा सलाह भी उन्होंने दी।
"उज्जैन तंत्र साधकों में क्यों प्रसिद्ध है ?" समीर के मन में यह बात बहुत समय से थी।
युवक ने बताया “उज्जैन की नगर योजना, विशेष रूप से इसका खगोलीय और ज्योतिषीय महत्व, ज्ञान और शिक्षा के केंद्र के रूप में इसके ऐतिहासिक महत्व में गहराई से निहित है। शहर का लेआउट और डिज़ाइन ज्योतिषीय अध्ययन और भारत में समय-निर्धारण प्रणालियों के विकास के लिए एक प्रमुख केंद्र के रूप में इसकी भूमिका को दर्शाता है।
उज्जैन शहर को तंत्र साधना के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है, विशेष रूप से कई मंदिरों के कारण। उज्जैन में कई मंदिरों में, हरसिद्धि मंदिर और गढ़कालिका मंदिर तंत्र साधना के लिए प्रसिद्ध हैं। ये मंदिर तंत्र-मंत्र और सिद्धियों के लिए तांत्रिकों और साधकों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान हैं।”
भस्म आरती का समय होने के कारण हमें यह बातचीत यही खत्म करना पड़ी और हम लोग मन्दिर के अन्दर प्रवेश करने के लिये लाइन में खड़े हो गये।
जब हम महाकाल के मन्दिर के सामने पहुंचे तो समीर एकाएक कांपने लगा। उसे उस दिन की याद हो आई जिस दिन इल्तुमिश ने इस मन्दिर को लूट खसोट कर सैकड़ों मासूमों को बेमतलब मौत के घाट उतार दिया था। उनमें से किसी के हाथ में कोई शस्त्र नहीं था। वे सब निहथे भक्त थे। जिन्हें अपने महाकाल पर भरोसा था कि कोई संकट आने पर महाकाल, भैरव, पार्वती, गणेश, कार्तिक, नंदी, गणिकाएँ, मातृकाएँ तथा तमाम अनगिनत दैवीय शक्तियां उनकी रक्षा करेगी।
लेकिन उन्हें किसी ने नहीं बताया था कि वह सब मान्यताऐ, विधियां, पूजा, तंत्र, मन्त्र, यंत्र आदि परा जगत की तककतें है। भौतिक जगत में तो जीने के लिए शारीरिक ताकत ही काम आयगी। उन भोले भाले श्रद्धा से भरे लोगों ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि हजारों मील का कठिन सफर कर कोई लुटेरा आ कर उनका ऐसा हाल करेगा।
भस्म आरती
मार्गशीष माह शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि पर गुरुवार को बाबा महाकाल सुबह 4 बजे जागे। भगवान वीरभद्र और मानभद्र की आज्ञा लेकर मंदिर के पट खोले गए। सबसे पहले भगवान को गर्म जल से स्नान, पंचामृत अभिषेक करवाने के साथ ही केसर युक्त जल अर्पित किया गया।
इसके बाद महानिर्वाणी अखाड़े के द्वारा बाबा महाकाल को भस्म अर्पित की गई। चारों और डमरू बजने लगे। नगाड़े बज उठे। शंख घण्टा घड़ियाल का श्वर गुंज्जायमान हो उठा। सम्पूर्ण गर्भगृह भस्म से भर गया। पुजारी एक सफ़ेद कपड़े में भस्म भर कर शिवजी पर उड़ा रहे थे। हर हर महादेव, जय महाकाल के जयकारे से नंदी हाल गुज उठा। सभी खड़े हो गए थे। पुजारी आरती गाने लगे। तुमुल नाद हुआ, शंख गुज उठे।
"श्री राजाधिराज महाराज अखिलकोटि ब्रह्माण्ड के नायक
देवों के देव महादेव कैलाशपति कालों के काल महाकाल"
समीर ने बताया की यही ध्वनि वह सुनाता रहा था।
श्रद्धालुओं ने नंदी हॉल और गणेश मंडपम से बाबा महाकाल की दिव्य भस्म आरती के दर्शन किए और भस्म आरती की व्यवस्था से लाभान्वित हुए। श्रद्धालुओं ने इस दौरान बाबा महाकाल के निराकार से साकार होने के स्वरूप का दर्शन कर "जय श्री महाकाल" का उद्घोष भी किया।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है, भस्म आरती के दौरान भस्म यानी राख से भगवान महाकाल के ज्योतिर्लिंग की आरती की जाती है। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक भगवान शिव को "श्मशान के साधक" के रूप में भी देखा जाता है, और भस्म को उनका "श्रृंगार" कहा गया है।
जिस भस्म से महाकालेश्वर की आरती की जाती है, उसे बनाने के लिए कपिला गाय के गोबर, शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलताश और बेर के वृक्ष की लकड़ियों को जलाया जाता है और मंत्रोच्चारण भी किया जाता है।
किंवदंतियों के मुताबिक, वर्षों पहले महाकालेश्वर की आरती के लिए जिस भस्म का इस्तेमाल किया जाता था, वह श्मशान से लाई जाती थी। हालांकि, मंदिर के मौजूदा पुजारी इस बात को खारिज करते हैं। भस्म आरती की प्रक्रिया करीब दो घंटे चलती है। इस दौरान वैदिक मंत्रोच्चार के बीच महाकालेश्वर का पूजन और श्रृंगार किया जाता है।धार्मिक मान्यता है कि यहां भगवान शिव ने दूषण के भस्म से अपना श्रृंगार किया था। इसलिए वर्तमान में भी महादेव का भस्म से श्रृंगार किया जाता है।
यही वह पल है, जब आरती दर्शन करने वाली महिलाएं घूंघट निकाल लेती हैं। क्योकि इस समय शिव दिगम्बर स्वरूप में होते है। भगवान के दिगंबर रूप के दर्शन महिलाओं के लिए वर्जति हैं। पुजारी मन के भाव व हाथों की कुशलता से भगवान महाकाल को निराकार से साकार रूप प्रदान करते हैं।
श्रृंगार में केसर, चंदन, भांग, सूखे मेवे, वस्त्र,आभूषण आदि का उपयोग होता है। शिवनवरात्रि में चांदी के मुखोटे व ऋतु अनुसार फल, फूल श्रृंगार सामग्री का हिस्सा होते हैं।
महाशिवरात्रि के बाद दूज पर भगवान का एक साथ पांच रूप में श्रृंगार किया जाता है।
भगवान को भस्म अर्पित करने के बाद भांग व चंदन से श्रृंगार कर उन्हें नवीन वस्त्र, आभूषण धारण कराकर आरती की जाती है।
पर्व, त्योहार तथा वार के अनुसार भगवान का श्रृंगार किया जाता है। इसके अलावा शिवनवरात्रि के नौ दिनों में भगवान का चांदी के मुखारविंदों से दूल्हा रूप में श्रृंगार किया जाता है। भगवान महाकाल के श्रृंगार में शिव सहस्त्रनामावली में उल्लेखित रूपों का समावेश भी किया जाता है। इसके लिए चांदी के मुखारबिंदों का उपयोग होता है।
महाशिवरात्रि के तीन दिन बाद चंद्र दर्शन की दूज पर साल में एक बार भगवान पंच मुखारविंद रूप में भक्तों को दर्शन देते हैं।शिव नवरात्रि के नौ दिन भगवान का शेषनाग, घटाटोप, छबीना, होल्कर, मनमहेश, उमा-महेश, शिव तांडव तथा महाशिवरात्रि की रात सप्तधान रूप में श्रृंगार किया जाता है।
सुबह भोग, शाम संध्या तथा रात को शयन आरती के दौरान श्रृंगार होता है। श्रृंगार नित्य संध्या को भगवान महाकाल के भांग श्रृंगार में तीन किलो भांग का उपयोग होता है।भगवान महाकाल की दिन में छः बार आरती की जाती है।
शिवलिंग पर किस मंत्र के माध्यम से, किस ओर भस्म रमाई जाएगी इसका पूरा विधान गोपनीय है। इस गोपनीय प्रक्रिया को महाकाल मंदिर समिति महानिर्वाणी अखाड़े के महंत अपने प्रतिनिधि को सिखाते हैं। इसके अतिरिक्त यह शिक्षा कहीं ओर नहीं दी जाती है।
अखाड़े की परंपरा अनुसार गादीपति महंत भगवान महाकाल को भस्म रमाते हैं, या फिर उनके प्रतिनिधि भगवान को भस्म अर्पित करते हैं। ज्योतिर्लिंग महाकाल मंदिर में भस्मारती की परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है। सत्यम, शिवम सुंदरम की अवधारणा को प्रतिपादित करती इस परंपरा का मुख्य आधार ब्रह्म परम सत्य है और जगत मिथ्या है। तात्पर्य यह कि जगत का अंतिम सत्य भस्म है। नश्वर संसार में सब कुछ नष्ट हो जाता है। शिव इसी सत्य को स्वीकार कर भस्म रमाते हैं।
यह सभी जानकारी हमें महानिर्वाणी अखाड़े के महंत श्री प्रकाश पूरी जी द्वारा दी गई। हम लोग आरती के बाद मन्दिर प्रांगण में उनके कक्ष में प्रणाम कर आशीर्वाद लेने गए थे। समीर से जब उनका सामना हुआ तो उस को उनकी आखें जानी पहचानी लगी। उसने महंत जी की आखों में झाँका तो वह जान गया कि इन्हीं महंत से इल्तुमिश ने महाकाल के लिँग के बारे में पूछा था। संतोष जनक जबाब न मिलने के कारण उसके साथ के सैनिक ने उन्हें तलवार से काट दिया था। तब उनकी यहीं आँखें खुली इल्तुमिश को धुर रहीं थी। समीर सिहर उठा। उन्होंने हमें प्रसादी, रूद्राक्ष की मालायें तथा उत्तरीय प्रदान किया।समीर तथा मैंने श्रृद्धा पूर्वक नमन कर सब सामग्री ग्रहण की तथा यथोचित दक्षिणा समर्पित की ।
समीर और मेरे लिए बड़ा रोमांचक अनुभव था। हमारी चेतना दिव्य लोक में प्रवेश कर गई थी। दर्शन यात्रा कब समाप्त हुई पता ही नहीं चला। लगा जैसे समय थम गया हो। समीर इतना अभिभूत हो गया कि वह इल्तुमिश के कृत्य को उन पलों में भूल गया। हम टैक्सी से होटल वापिस आ गये।
महाकाल का आदेश
व्यास परिवार के बारे में मेरे पिता जी के दोस्त ने विस्तार से बताया था कि उज्जैन के व्यास परिवार का इतिहास काफी लंबा और समृद्ध है। यह परिवार मुख्य रूप से उज्जैन शहर से जुड़ा है, जो प्राचीन काल से ही एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र रहा है। व्यास परिवार, विशेषकर ब्राह्मण समुदाय का एक प्रतिष्ठित हिस्सा है।व्यास परिवार के लोग उज्जैन में ज्योतिषी और भविष्यवक्ता थे। प्रख्यात ज्योतिषी होने के कारण देश-विदेश के अधिकांश बड़े नेता तथा धनपति उनसे परामर्श करते रहते थे उज्जैन में व्यास परिवार के लोग अन्य समुदायों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखते हैं और शहर की संस्कृति में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
व्यास परिवार ने शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। कई व्यास परिवार के सदस्य विद्वान, शिक्षक, और साहित्यकार रहे हैं।
व्यास परिवार धार्मिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। कई व्यास परिवार के सदस्य धार्मिक कार्यों और पूजा-पाठ में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। उज्जैन में व्यास परिवार का इतिहास शहर के गौरवशाली इतिहास का एक अभिन्न अंग है।
भारत का पहला पंचांग व्यास परिवार ने बनाया था। पाकिस्तान और भारतीय स्वतंत्रता की तारीखें निर्धारित करने वाले के रूप में जाना जाता है।उज्जैन महाकवि कालिदास की नगरी है; पर वहां उनकी स्मृति में कोई स्मारक या संस्था नहीं थी। अतः उन्होंने ‘अखिल भारतीय कालिदास परिषद’ तथा ‘कालिदास अकादमी’ जैसी संस्थाएं गठित कीं।
इनके माध्यम से प्रतिवर्ष ‘अखिल भारतीय कालिदास महोत्सव’ का आयोजन होता है। उज्जैन भारत के पराक्रमी सम्राट विक्रमादित्य की भी राजधानी थी। व्यास जी ‘विक्रम द्विसहस्राब्दी महोत्सव अभियान’ के अन्तर्गत ‘विक्रम’ नामक पत्र निकाला तथा विक्रम विश्वविद्यालय, विक्रम कीर्ति मंदिर आदि कई संस्थाओं की स्थापना की।
ज्योतिष का अभ्यास इस परिवार की परम्परा रही है। इसलिए समीर ने बताया की उसे मोक्ष का मार्ग व्यास जी ही बता सकते है। हम ने फिर से व्यास जी से सम्पर्क किया।
व्यास जी ने हम लोगों को बड़े गणेश भगवान ने मंदिर में बुलाया। हम लोग सुबह - सुबह जब मन्दिर पहुंचे जब व्यास जी भगवान की पूजा कर रहे थे। भगवान को नमन कर हम लोग चुपचाप फर्स पर बैठ गये। जब व्यास जी पूजा कर निर्वृत हुए तो हम लोगों को चरणामृत तथा प्रसाद दिया।
मैंने मन्दिर के सम्बन्ध में पूछा।
व्यास जी बोले “गणेश जी की इस भव्य मूर्ति को लेकर कहा जाता है कि यह मूर्ति लगभग एक सौ चौदह वर्षों पूर्व इस मंदिर में स्थापित की गई थी। जानकारी के अनुसार, मंदिर में स्थापित गणेश प्रतिमा की स्थापना महर्षि गुरु व्यास ने करवाई थी।
इस मूर्ति को बनाने का ढंग भी अन्य मूर्तियों से अलग है। गणेश जी की इस मूर्ति को बनाने में सीमेंट का नहीं बल्कि इसमें गुड़ और मेथी दानों का प्रयोग किया गया है।
साथ ही इस मूर्ति के निर्माण में ईंट, चूने, बालू और रेत का प्रयोग भी किया गया है। इसके अलावा मूर्ति को बनाने में सभी पवित्र तीर्थ स्थलों का जल मिलाया गया। इसके अलावा सात मोक्षपुरियों मथुरा, द्वारिका, अयोध्या, कांची, उज्जैन, काशी और हरिद्वार से लाई हुई मिट्टी भी मिलाई गई है। यही कारण है कि यह मूर्ति अन्य मूर्तियों से विशेष महत्व रखती है।
इस मूर्ति को बनाने में ढाई वर्ष का समय लगा था। इस प्रतिमा को देते समय तांत्रिक ने कहा था कि इस प्रतिमा को ऐसे स्थान पर विराजित करना जहां पर इस प्रतिमा को श्रद्धालुओं द्वारा छुआ ना जा सके। इसलिए इस मूर्ति के चारों तरफ जालियां लगाई गई थी।”
इसके साथ ही मंदिर में कुछ ऐसी प्रतिमा भी विराजमान है जो किसी और मंदिर मे कम ही देखने को मिलती हैं। इस मंदिर में पंचमुखी हनुमान की सिंदूर वाली प्रतिमा, कालिया मर्दन करते भगवान श्री कृष्ण की प्रतिमा और माता यशोदा की गोद में श्रीकृष्ण की प्रतिमा भी विराजमान है।
धीऱे - धीरे मन्दिर में लोग काम हो गये तब व्यास जी आसन पर आ कर बैठे।
समीर ने उनसे कहां "आप से कुछ छिपा नहीं है। मैं ब्रम्ह हत्या का श्राप अभी तक भोग रहा हूँ। मुझे मुक्ति का मार्ग दिखाये।"
व्यास जी ने आँखें बंद कर ध्यान मुद्रा में बैठ गये। कुछ क्षण के लिये मौन छा गया।
फिर धीरे से उन्होंने आँखें खोली और बोले "अपनी जन्म तिथि तथा जन्म स्थान बताओ।"
मेने अपनी जन्म तिथि बताई। व्यास जी ने कागज पेन उठा कर मेरी कुण्डली बना कर बड़ी देर तक गणना की। फिर पंचांग खोला। कागज पर लिखना जारी रखा।
फिर मेरी तरफ देख कर बोले "तुम्हारे मोक्ष का समय आ गया है। तुम्हें कपाल व्रत की साधना करना होगी। इस वृत से ब्रम्ह हत्या से मुक्ति अन्य मार्गों की तुलना में तेजी से होती है।"
मैंने उत्सुकतावश पूछा "यह कपाल व्रत क्या होता है ?"
व्यास जी हाथ के कागज नीचे रख कर पीठ सीधी कर दीवाल से टिक कर बैठ गये।
फिर बोले "कपाल सप्रदाय के सम्बन्ध श्वेताश्वतार उपनिषद में कापालिक के रहस्य को बताया गया है। कापालिकों के ईष्ट देव कालभैरव है। कापालिक दर्शन शैव्य दर्शन के पाशुपत सम्प्रदाय के अंतरगत आने वाला दर्शन है। दक्ष ब्रम्हा के पुत्र थे और इन्हें प्रजापति के पद पर नियुक्त किया गया। वे नारायण के भक्त थे और शुरुआत में शिव के बहुत बड़े भक्त थे। शिव और शक्ति को मिलाने के लिये तथा शिव के ससुर बनाने के लिए ही प्रजापति दक्ष ने आदि शक्ति की साधना की थी और उन्हें पुत्री के रूप में मांगा था।
प्रजापति दक्ष वैदिक धर्म तथा दर्शन के अनुसार सृष्टि को चला रहे थे। तब त्रिदेव नहीं चला रहे थे। प्रजापति दक्ष के पास त्रिदेव के सामान अधिकार शक्तियां थी और प्रजापति दक्ष की पुत्रियों के साथ ही सभी ऋषियों का विवाह हुआ जैसे अत्रि, कश्यप भृगु आदि तो देवता, असुर, दैत्य, राक्षस,नाग, गंधर्व, किन्नर तथा जितनी प्रजातियां थी यह प्रजापति दक्ष का परिवार ही था। इसलिए कभी किसी में विरोधाभास नहीं हुआ।
जब तक प्रजापति दक्ष का शासन था। जब तक माता सती पैदा नहीं हुई थी। तब तक सुख था शांति थी कोई विकार नहीं था समाज में। यज्ञ परम्परा थी खेती थी व्यापार था। एकदम सुखी चल रहा था सब। किसी के अंदर लालच नहीं था माया नहीं थी।संसार एकदम बढ़िया चल रहा था। इधर जब दक्ष ने आदिशक्ति को पुत्री के रूप में मांगा तो उधर शिव अखण्ड समाधी में चले गए थे और श्री हरि नारायण विष्णु योग निद्रा में चले गए थे। ब्रम्ह देव सृष्टि का सृजन कर विस्तार कर रहे थे।
जब ब्रम्ह देव ने देखा कि आदि शक्ति का जन्म हो गया है और शिव और सती को मिलाने का समय आया है तो ब्रम्ह देव ने शिव को जगाने का प्रयास किया। भगवान शिव नहीं जागे। क्योंकि धरती पर धर्म और सत्य की सत्ता थी अधर्म कोई नहीं था क्योकि प्रजापति दक्ष के ही देवता तथा असुर दोनों संतानें थी और देवता, ऋषि मुनी सब दक्ष के साथ ही रहते थे। जब शक्ति बड़ी होने लगी और शिव नहीं जगे तब ब्रम्हा को एक उपाय सुझा।
उस समय ब्रम्हा के पांच सिर हुआ करते थे। भगवान शिव पांच महाभूतों के स्वामी थे। ब्रम्हा ने चार मुखों से चार वेदों की रचना कर दी थी। धर्म स्थापित हो गया था लेकिन धर्म करने की लिए लोगों को कर्म करने की लिये थोड़ा अधर्म होना आवशयक था। तो फिर ब्रम्ह देव ने पांचवें मुख से पांचवें वेद का निर्माण किया।
जिस वेद का नाम काम वेद रखा गया। इसके अन्दर विकारों से भरा ज्ञान था। वेदों का ज्ञान जीवन दर्शन था। जीवन को सही दिशा में ले जाने वाला था लेकिन काम वेद पूरा वाम मार्गी था। पूरा वेदों से उलट था। पंच मकार का जन्म इसी से हुआ।
ब्रम्हा जी शिव को जगाने की लिए अहंकार में आ गये। क्योंकि वह अपने पांचवें मुख से काम वेद की रचना कर चुके थे और हम जानते है कि चाहे ज्ञान हो या शक्ति उस का प्रभाव पड़ेगा ही उसका जन्म हो जाने पर उस ऊर्जा को नष्ट नहीं किया जा सकता। इस ऊर्जा को सम्हाला जा सकता है, बदला जा सकता है, ट्रांसफर किया जा सकता है, इसका स्वरुप बदला जा सकता है। लेकिन नष्ट नहीं किया जा सकता।
अहंकार के वशीभूत हो कर के ब्रम्ह देव ने घोषणा की वेद निरर्थक है उन्हें नष्ट कर देना चाहिये और काम वेद को जीवन दर्शन बनाना चाहिए। यही बात समाधी में शिव के कानों तक पहुंच गई। कि वाम मार्ग ? भगवान शिव समाधी से उठे क्रोध से लाल हो गये।
ब्रम्हा ने काम, लोभ, मोह, मद, मैथुन, मत्सर की रचना की और इधर शिव को क्रोध आ गया इस तरह समस्त विकार इकट्ठा हो गये। शिव ने क्रोध भैरव को उत्पन्न किया। क्रोध भैरव ने ब्रम्हा का पंचमा सिर उखाड़ लिया। वही से निर्माण हुआ दोषों का जो ज्योतिषी व तान्त्रिक दोष बताते है। यही से पहले दोष व्रम्ह दोष का निर्माण हुआ संसार में।
शिव तथा विष्णु वहां पहुंचे। व्रम्हा दर्द से पीड़ित थे क्योंकि उन्होंने काम वेद से पाप को जन्म दिया था। तब यह पांच दोषों का पंचामृत विष्णु ने धारण कर लिया। जिससे हमारे अन्दर शीतलता, विवेक तथा धर्म पैदा कर दिया। अब क्रोध भैरव के दो रूप हो गये। एक हुआ काल भैरव और दूसरा हुआ कपाल भैरव। जिसने व्रम्हा के कपाल को पकड़ा था वे हुए कपाल भैरव तथा दूसरे रूप ने अपने अन्दर पाप को धारण किया वह बना काल भैरव।
काल भैरव को आदेश मिला कि तुम काशी में काशी विश्वनाथ के कोतवाल बनोंगे तथा काशी विश्वनाथ की आराधना कर तुम्हें अपने पापों से मुक्ति मिलेगी। कपाल भैरव के हाथ में व्रम्हा जी का वह शीश था जिसके अन्दर विकार भरा था उसे पी कर उज्जैन में महाकाल के कोतवाल बने। उन्होंने पापों को समय के साथ पिया। इस तरह जो समय के बाहर है वह काल भैरव है और जो समय के अन्दर है वह कपाल भैरव है। उन्हें महाकालेश्वर की साधना कर पाप से मुक्त हो मोक्ष पाने का आदेश दिया गया।
यहीं से हमारे धर्म में विकारों की शुरुआत हुई। काम वेद तथा शिव के क्रोध विकार के प्रभाव के कारण प्रजापति दक्ष क्रोधित हो गये कि हमारे पिता ब्रम्हा का शीश उखाड़ लिया जबकि मैं आदि शक्ति और शिव को मिलाने के लिये कोशिश कर रहा हूँ। अब यहाँ से विरोधाभास पैदा हो गया जो दक्ष शिव का भक्त था वह शिव का सबसे बड़ा विरोधी हो गया।
दक्ष ने शिव को कपाली कह कर पुकारना शुरू कर दिया। क्योकि शिव का स्वरुप उनके पिता के कपाल को पकड़ा हुआ था। इसीलिये दक्ष बार बार सती से कहने लगे कि उस कापालिक से तुम्हारा विवाह नहीं होने दूँगा। क्योकि उन्हें डर था कि काम वेद के विकारों का प्रभाव शिव पर होगा जिससे मेरी बेटी पवित्र नहीं रह जाएगी। यही से शिव तथा दक्ष की शत्रुता की शुरुआत हुई। इसीलिए शिव ने वीरभद्र से दक्ष का वध करवाया लेकिन उन्हें पुनः जीवित किया क्योंकि वह जानते थे की दक्ष मेरा विरोध नहीं कर रहा है वल्कि उस पाप का विरोध कर रहा है जो ब्रम्हा सिर से पीने के कारण मुझ में प्रवेश कर गये।
प्रजापति दक्ष यज्ञ परम्परा तथा खेती के जनक थे। जीवन दर्शन के जनक थे। यहीं से पांच मकार उत्पन्न हो गये। इसी लिये उन्होंने वैदक सभ्यता तथा जीवन दर्शन को बढ़ाया ताकि नकारात्मक चीजें प्रभाव न डाल सकें। दक्ष ने बाद दूसरा प्रभाव पड़ा शुक्राचार्य पर। शुक्राचार्य दक्ष का नाती था। पहले शुक्राचार्य देवता ऋषि पुत्र थे लेकिन इन्हीं विकारों के कारण वह असुरों के गुरु बने। यहीं से नरबलि, अपहरण, बलात्कार जैसे पापाचार शुरू हुए। क्योंकि सृष्टि के सृजन कर्ता ब्रम्हा ही है अतः पाप तथा पुण्य व्रह्मा ने ही रचे। यहीं से सभी वाममार्गी साधनाऐं शुरू हुई। यहीं से कापालिक साधना शुरू हुई।
महाकाल वन समस्त पातकों को क्षीण करने वाला क्षेत्र है। यह मातृकाओं का निवास स्थान है। इस कारण इसे पीठ कहते है।
यहां मरे हुए लोग जन्म नहीं लेते इस लिए इसे ऊसर भूमि कहा जाता है। इसके शमशान चक्र तीर्थ को विमुक्त क्षेत्र भी कहते है। इस पृथ्वी पर नैमिषारण्य क्षेत्र और पुष्कर तीर्थ उत्तम कहे गए है। कुरुक्षेत्र तीनों लोकों में उत्तम कहा जाता है। कुरुक्षेत्र से दसगुनी पुण्यमयी काशीपुरी मानी गई है, और कशी से दस गुना महाकाल वन है।
शिव जब कपाल ले कर पृथ्वी पर भ्रमण करते यहां पहुंचे तब इस वन के वृक्षों ने बड़ी शृद्धा भक्ति के साथ उनके चरणों में पुष्प वर्षा की। भगवान शिव ने प्रशन्न हो कर अपना कपाल महाकाल वन उज्जैयनी में फेंक दिया तथा सदा रहना स्वीकार किया। शिव बोले यहां जो कपाल व्रतचर्या करेगा वह मेरे वाम पार्श्व में बैठेगा।
शिव ने कपाल व्रतचर्या के बारे में बताया कि जो कपाल में भोजन करे, कपाल व्रत को हो आभूषण की भांति धारण करे, हाथ में कपाल लिए रहे, और नियम पूर्वक भिक्षान्न का अहार करे, श्मशान में निवास करे, समस्त प्राणियों की प्रति प्रसन्न रहे, प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सम भाव रखें, सब अंगों को भस्म से विभूषित करे, विशेषतः ज्ञानवान और जितेन्द्रिय हो, सब प्रकार की अशक्तियों को त्याग दे, मिट्टी, भस्म व जल मात्र का संग्रह करे, श्रेष्ठ आसनों को जीते, महाकाल वन में आश्रय बना कर रहे, धीरे - धीरे मुझ में चित्र को एकाग्र करे। यही लोकातीत उत्तम ज्ञान एवं महापाशुपत व्रत है।" व्यास जी ने धैर्य के साथ व्रत की व्याख्या की। फिर बोले "कपाल व्रत गोपनीय पवित्र एवं पाप नाशक है। शिव कहते है कि जो कपाल व्रत धारण करते है वे मेरे सामान हो कर पृथ्वी पर विचरते है। यह महाव्रत संसार बंधनों से छुटकारा दिलाने वाला पवित्र व्रत है। यही मोक्ष का कारण है।"
इतना कठोर व्रत सुनकर मेरे शरीर में कंपन होने लगा। गला सूखने लगा। फिर मैंने हिम्मत कर पूछा "मुझे ऐसे कापालिक गुरु कहां मिलेंगे ?"
व्यास जी ने मेरी कुण्डली देखी। उंगलियों पर कुछ गणना की, बोले "मार्गशीष माह शुक्ल पक्ष की "त्रयोदशी" तिथि को चक्रतीर्थ रात को जाना वहीँ तुम्हें तुम्हारे कापालिक गुरु मिलेंगे।"
डर से मन विचलित हो रहा था। लेकिन अब पीछे लौटने के सारे रास्ते बंद हो गये थे। व्यास जी बोले भोलेनाथ पर भरोसा रखों सब कल्याण होगा। उन्होंने फिर "जय महाकाल" का घोष किया। हम दोनों ने "जय महाकाल" बोला और उठ बैठे।
व्यास जी को प्रणाम किया दक्षिणा उनके चरणों में अर्पित कर वापिस होटल आ गये।
"त्रयोदशी" तिथि को चक्रतीर्थ जाने का आज का दिन ही था।
हम लोग दोपहर में चक्रतीर्थ देखने गये। उज्जैन में चक्रतीर्थ एक प्रमुख और प्राचीन श्मशान घाट है जो शिप्रा नदी के किनारे स्थित है। यह स्थान तंत्र-मंत्र साधना के लिए भी जाना जाता है और माना जाता है कि देश के सबसे जाग्रत श्मशानों में से एक है।
पुराणों में चक्रतीर्थ की महिमा का वर्णन मिलता है। चक्रतीर्थ श्मशान घाट पर सिद्धियों की प्राप्ति के लिए तांत्रिकों द्वारा अनेक अनुष्ठान किए जाते हैं। तांत्रिक श्मशान घाट पर सिद्धियों को प्राप्त तो करते हैं, लेकिन इन सिद्धियों की पूर्णता भगवान गणेश के दर्शनों के बाद ही होती है। तांत्रिक मंदिर में पूजन-अर्चन व दर्शन के बाद ही अपनी सिद्धियों की पूर्णता मानते हैं।
उज्जैन में जलती चिताओं पर की तंत्र क्रियाएं; मुर्दों को लगाया नींबू, मिर्च और मदिरा का भोग। उज्जैन के चक्रतीर्थ श्मशान घाट पर रात होते ही विशेष अनुष्ठान किए जाते हैं।
इसमें नींबू, शराब और पुतलियों के माध्यम से तांत्रिक भगवान भैरवनाथ की मूर्ति के सामने तंत्र साधना कर शाबर मंत्र पढ़ते नजर आते हैं। ऐसे विवरण हम लोगों को वहां मिले लोगों से सुनने को मिले।
मोक्ष की साधना
हिंदू धर्म में जब किसी की मृत्यु होती है। तब उसका अंतिम संस्कार किया जाता है। मृत शरीर रीति रिवाजों के साथ आग के हवाले कर दिया जाता है। जहां यह पूरी प्रक्रिया की जाती है उसे शमशान घाट कहा जाता है। हम दोनों बहुत डरे हुए थे। लेकिन हिम्मत कर रात दस बजे के आसपास वहां पहुंच गये। घाट पर बहुत काम लोग थे। हम दोनों एक खाली बेंच पर जा कर बैठ गये।
चक्रतीर्थ क्षिप्रा नदी के किनारे स्थित एक प्रसिद्ध श्मशान घाट है। इसे 'महाश्मशान' भी कहा जाता है। यहां अंतिम संस्कार करने से मोक्ष प्राप्त होने का विश्वास है और माना जाता है कि यह जन्म-मरण के चक्र को तोड़ देता है। आज भी अहर्निश यहाँ दाह संस्कार होते हैं। नजदीक में महाकाल मन्दिर में विराजमान है। घाट पर अभी भी एक दो चिताएं जल रही थी। कुछ की गरम रख से धुआँ उठ रहा था। स्ट्रीट लाइट की रोशनी को यह धुआँ रहस्यमय बना रहा था। दूर रामघाट दिख रहा था।
आसपास इमली, आम तथा छिंद के पेड़ों पर कोई खास हलचल नहीं थी। बीच - बीच में दूर कुत्तों के भोंकने की आवाजें आ रहीं थी।
एक मान्यता के अनुसार स्वयं यहाँ आने वाले मृत शरीर के कानों में तारक मंत्र का उपदेश देते हैं, एवं मोक्ष प्रदान करते हैं।
इस घाट की सबसे प्रमुख विशेषता है कि यहां पर किए जाने वाले दाह संस्कार से मोक्ष की प्राप्ति होती है'
"भगवान महाकाल"की प्रमुख नगरी उज्जैन में, मृत्यु होने से स्वर्ग मिलना निश्चित है, इसी कारण यह हिंदू धर्म का एक धार्मिक एवं बहुत ही मान्यता प्राप्त दाह संस्कार स्थल है, इसके चलन में एक कथा है कहा जाता है कि
बहुत पुराने समय से आज तक यहां की चिता की ज्वाला अभी तक बुझी नहीं चाहे कितनी भी परेशानियां हो, फिर भी यहां पर एक के बाद एक चिता जलती रहती है" यही सत्य है जीवन का और यही आधार है जीवन का।
इस घाट की विशेषता ये हैं, कि यहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता की अग्नि लगातार जलती ही रहती है, कभी भी बुझने नहीं पाती। इसी कारण इसको महाश्मशान नाम से भी जाना जाता है। एक चिता की अग्नि समाप्त होने तक दूसरी चिता में आग लगा ही दी जाती है, चौबीसों घंटे ऐसा ही चलता है। समीर को याद आया कि जब इल्तुमिश की सेना ने हजारों लोगों को मारा कटा होगा तो यह श्मशान कितने दिन जलाता रहा होगा।
वैसे तो लोग श्मसान घाटों में जाना नही चाहते, पर यहाँ देश विदेश से लोग इस घाट का दर्शन भी करने आते है। इस घाट पर ये एहसास होता है कि जीवन का अंतिम सत्य यही है।
कापालिक, हिंदू भगवान शिव को समर्पित शैव तपस्वियों का एक संप्रदाय है, जैसे -जैसे रात गहराती जा रही थी चक्र तीर्थ लगभग खाली हो गया था यकायक समीर के पीछे से उसके कंधे पर एक हाथ आया। समीर बहुत डर गया।
उसने पीछे मुड़ कर देखा तो वहां एक जवान साधु खड़ा था। उसके हाथ में त्रिशूल और भिक्षापात्र के रूप में खाली मानव खोपड़ी ‘कपाल’ थी। वह श्मशान घाट की राख को अपने शरीर पर लगाए थे। उनके बाल लंबे और उलझे थे। उन्होंने गले में हड्डियों की, रूद्राक्ष तथा विभिन्न्न चमकीले माणिक एवं मोतियों की अनेकों मालाएँ पहनी थी। उन्होंने काला चोगा पहन रखा था।
उनके कन्धे पर एक काला कम्बल रखा था। उनके लगभग हर अंगुली में अलग अलग चमकीले नगों की अंगूठियां थी। दोनों हाथों तथा पैरो में लोहे के कड़े पहने हुए थे। उनकी आँखें चमकीली तेजोमयी थी तथा शरीर से एक विचित्र तरह की गन्ध आ रहीं थी। वे हमारे साथ बेन्च पर बैठ गये।
उन्होंने धीरे से ‘जय महाकाल’ कहा। हम दोनों के मुँह से एकाएक ‘जय महाकाल’ निकल गया।
"तुम आ गए, हम कितने सालों से तुम्हारी प्रतिक्षा कर रहे थे?" कापालिक ने बहुत दोस्ताना अंदाज में समीर से कहा।
"जब महाकाल ने बुलाया हम तभी आ सके।" समीर ने कांपती आवाज में कहा।
"डरो नहीं तुम सुरक्षित हाथों में हो।" कापालिक बोले।
हमारी बातें शुरू होने पर कापालिक ने हमें बताया कि “तंत्र शास्त्र तीन भागों में विभक्त है आगम, यामल और मुख्य तंत्र। जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, सब कार्यों के साधना, पुरश्चरण, षट्कर्म-साधन और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो, उसे आगम कहते हैं।
जिसमें सृष्टितत्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम, सूत्र, वर्णभेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे यामल कहते हैं; और जिसमें सृष्टि, लट, मंत्रनिर्णय, देवताओं, के संस्थान, यंत्रनिर्णय, तीर्थ, आश्रम, धर्म, कल्प, ज्योतिष संस्थान, व्रत-कथा, शौच और अशौच, स्त्री-पुरूष-लक्षण, राजधर्म, दान-धर्म, युगधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक विषयों का वर्णन हो, वह मुख्य तंत्र कहलाता है ।
कलियुग में वैदिक मंत्रों, जपों और यज्ञों आदि का कोई फल नहीं होता ।
इस युग में सब प्रकार के कार्यों की सिद्धि के लिये तंत्राशास्त्र में वर्णित मंत्रों और उपायों आदि से ही सहायता मिलती है । इस शास्त्र के सिद्धान्त बहुत गुप्त रखे जाते हैं और इसकी शिक्षा लेने के लिये मनुष्य को पहले दीक्षित होना पड़ना है ।
आजकल प्रायः मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि के लिये तथा अनेक प्रकार की सिद्धियों आदि के साधन के लिये ही तंत्रोक्त मंत्रों और क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है। यह शास्त्र प्रधानतः शाक्तों का ही है और इसके मंत्र प्रायः अर्थहीन और एकाक्षरी हुआ करते हैं । जैसे,— ह्नीं, क्लीं, श्रीं, स्थीं, शूं, क्रू आदि । तांत्रिकों का पंचमकार— मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन और आगम मठ की चक्रपूजा प्रसिद्ध है ।”
उनका व्यक्तित्व बहुत आकर्षक लग रहा था। माध्यम रोशनी में भी उनकी ऑंखें चमक रही थी। मैंने देखा की उन में लालिमा तैर रही है।
कापालिक ने कहा "कपाल व्रत का पालन ध्यान, धारणा एवं बुद्धि के द्वारा भगवान शिव के अर्धनारीश्वर स्वरुप के स्मरण से शुरू होता है "
समीर के साधना प्रक्रिया जानने के लिए पूछा तो उन्होंने कहा "शिव तथा काली अर्ध रूप हैं काल की। ये दोनों एक साथ मिलकर काली-काल या शिव-शक्ती बनते हैं और अर्द्धनारीश्वर रूप प्रकट करते हैं । अर्द्धनारीश्वर रूप संकल्पीत करता है प्रकृति और पुरुष को जो प्रतीक है ब्रह्माण्ड के संचालन का। शिव शक्ती के बिना अधुरे हैं यही हैं वो जो लोगों को अलग अलग सिद्धियों का आशीर्वाद देती हैं।
बिना इनके आशीर्वाद के कोई भी किसी भी प्रकार के सिद्धि पाने में सफल नही हो सकता। माँ काली तंत्र विद्या की देवी हैं। ये अपने भक्तों को तंत्र विद्या के ज्ञान से नवाज़ती हैं। अत: तंत्र विद्या और सिद्धियों का ज्ञान पाने के लिये भक्तों को माँ काली की पूजा करना अनिवार्य है।
अघोरी वो लोग हैं जो अपना जीवन निर्वासन में बीताते हैं और ध्यान करते हैं और तंत्र और सिद्धियों की अभ्यास करते हैं। वे कोशिश करते हैं अलग अलग तंत्र और सिद्धियों को पानी की ताकि अपनी शक्तियों को बढ़ा सकें।
वे ज़्यादातर भगवान शिव की पूजा करते हैं। लेकिन उन्हें माँ काली की भी पूजा करनी पड़ेगी क्योंकि बिना माँ काली के आशीर्वाद के उन्हें सिद्धियां प्राप्त नही हो सकती और अगर हो भी गयी तो ज़्यादा दिन तक नहीं रहेगी।" कापालिक अपनी धुन में बोल रहे थे। उनकी आवाज समीर को मंत्रमुग्ध कर रही थी।
उन्होंने समीर को साधना में लगने वाली सामग्री के वारे में बताया "गौ घृत, गौ दुग्ध, गौ दधि, चन्दन, कुंकुम, कुशोदक, गन्ध, माला, गुग्गल, धुप, सुगन्धित पदार्थ, स्वर्ण व रत्नों के आभूषण, बस्त्र, स्रोत, पताका, व्यंजन, नृत्य, वाद्य गीत तथा अक्षत से पूजा की जाती है। यह स्वात्विक यौगिक भक्ति है।"
उन्होंने थोड़ी देर रुक कर फिर कहा "ध्यान हृदय कमल की कर्णिका के आसान पर शिव भगवान विराजमान है। उनके पांच मुख है। प्रत्येक मुख में तीन नेत्र है, चन्द्रमा की कला से उनकी जटा जगमगा रही है, और कटी भाग में सर्प की करधनी शोभा पाती है। उनका श्री अंग श्वेत है, वे दस भुजाओं से सुशोभित है, उनका स्वरुप सब के लिए मंगलमय है, उनके हाथो में वरद और अभय की मुद्रा है ऐसे स्वरुप का ध्यान करने वाला कापालिक है। " शिव के स्वरुप का ऐसा विवरण सुन कर मन में एक तस्वीर उभर आई। समीर के मुँह से निकला ‘अद्भुत’।
“जिस कार्य के लिए जैसी क्रिया करनी हो उसी के अनुरूप आसान पर बैठ कर जप शुरू करना चाहिए जैसे पुष्टि कार्य में सिद्धासन में बैठे, शांति कर्म में स्वास्तिक आसन, में बैठना चाहिए। मोक्ष के लिए कुश आसान श्रेष्ठ होता है। मोक्ष के लिए कुशासन पर पदमासन में बैठ कर मन्त्र जप करना चाहिए।
मंत्र तीन प्रकार के होते है स्त्री लिँग, पुलिंग और नपुंसक लिंग। स्वाहः मंत्र स्त्री लिंग है, फट वाले मन्त्र पुलिंग है तथा नमः नपुंसक लिंग के मंत्र है। छन्द में 'फट' का जप करे, अग्नि कर्म तथा देव कर्म में स्वाहः या नमः का जाप करना चाहिए।
मन्त्र जपने के लिए तीन प्रकार होते है, जिस मंत्र को दूसरा सुन सके उसे वाचिक कहते है। जिसमें जिव्हा एवं ओठ हिले उसे उपांशु कहते है। जिसके उच्चारण में कुछ न हिले उसे मानसिक कहते है। मोक्ष की लिए मानसिक तरीके से मंत्रोच्चार करना चाहिए।
इसी तरह अलग -अलग सिद्धयों के लिए अलग - अलग तरह की मालाएं उपयोगी होती है। शांति तथा मोक्ष के लिए एक सौ आठ रूद्राक्ष की माला लेनी चाहिए। होम करने के लिए भी अलग -अलग पदार्थ उपयोग में आते है, तुम्हें गौ धृत का उपयोग करना होगा। पारद के बने शिव लिँग की पूजा करना है।” कापालिक ने पूजन सामग्री का विवरण दिया।
समीर ने पूछा "साधना कब से शुरू करना है ?" ‘
मै तुम्हें आगामी सिंहस्थ मेले के समय दीक्षा दूंगा। दीक्षा प्राप्त कर लेने के बाद तुम मन्त्र साधना करोगे। कापालिक ने विस्तार से समझाया।
"सिंहस्थ मेले के समय आप हमें कैसे व कहां मिलेगे? " समीर ने पूछा।
"यहीं मिलेंगे, जैसे आज मिले, मुझे पता होगा तुम कहां हो, चिंता मत करो श्रद्धा रखो" कापालिक ने कहा और जय महाकाल का उद्द्घोष करते अंधेरे में समां गये।
हमने एक साथ जय महाकाल का जोर से उच्चारण किया और रामघाट की और पैदल चल पड़े। सुबह होने को थी वातावरण मनोरम था लेकिन हम लोग थक गये थे। शमशान यात्रा को लेकर मन में जो डर था वह निकल गया था। मन में संतोष का भाव लिए टैक्सी ले कर होटल आ गये।
वापिस लौटने के पूर्व हम लोग व्यास जी से मिलने बड़ी गणेश मन्दिर गये। व्यास जी ने कापालिक से मिलने का विवरण पूछा। समीर ने रोमांच के साथ पूरी बात व्यास जी को बताई। व्यास जी ने पंचांग निकला। कुछ गणना की। अपनी नोटबुक पर लिखा फिर कागज नीचे रख कर बोले
"'माधवे धवले पक्षे सिंह जीवत्वेजे खौ।
तुलाराशि निशनाथे स्वातिभे पूर्णिमा तिथौ।
व्यतिपाते तु सम्प्राप्ते चन्द्रवासर-संचुते।
कुशस्थली -महाक्षेत्रे स्नाने मोक्षमवाच्युयात्।'
इसका अर्थ है कि जब वैशाख मास हो, शुक्ल पक्ष हो और बृहस्पति सिंह राशि पर, सूर्य मेष राशि पर और चन्द्रमा तुला राशि पर हो, साथ ही स्वाति नक्षत्र, पूर्णिमा तिथि व्यतीपात योग और सोमवार का दिन हो तो उज्जैन में शिप्रा स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।”
"तो यह कब होगा ?" मैंने उद्विग्नता से पूछा।
तब व्यास जी ने नोटबुक उठा कर बताया कि “मेरी गढ़ना से सिंहस्थ काल 22 अप्रैल से प्रारंभ होकर 21 मई को समाप्त होगा। तिथि चैत्र शुक्ल 15, तारीख 22 अप्रैल को शाही स्नान होगा।”
हम लोग व्यास जी को नमन कर वापिस आ गये। अगले दिन इंदौर से शाम की फ्लाइट पकड़ कर दिल्ली घर आ गये।
सिंहस्थ
हम लोगों ने पूरे एक माह सिंहस्थ मेले में रहने की व्यवस्था क्षिप्रा होटल में अग्रिम बुकिंग कर कर ली। क्योंकि मेले से समय अपार भीड़ होने के कारण रहने की सुविधाजनक जगह मिलना सम्भव नहीं होता है। हम निरंतर व्यास जी के सम्पर्क में रहते है। उन्होंने जैसा मार्गदर्शन दिया हम लोग वैसा ही करते गये। इस मेले में सनातन धर्म को समझने का अच्छा मौका था। जिसे हम लोग किसी कीमत पर गवाना नहीं चाहते थे।
मेले के अन्दर धूमने के लिये मेला कार्यालय से पास की जरुरत होती है। हम लोग मेला शुरू होने के काफी दिन पूर्व उज्जैन पहुंच गये। व्यास जी की मदद से हम मेला कार्यालय, बृहस्पति भवन के पीछे, कोठी पैलेस उज्जैन गये जहां से हम दोनों को व्ही आई पी कार्ड मिल गये। इस कार्ड को दिखा कर हम लोग मेले के समय मेला क्षेत्र में आ जा सकते थे। मेले के समय चार पहिया वाहन से आना जाना सम्भव नहीं होता है। इसलिए व्यास जी ने एक मोटर साइकिल किराये पर दिलवा दी थी।
जब हम लोग अपने अनुमति पास लेने मेला कार्यालय, बृहस्पति भवन के पीछे, कोठी पैलेस गए हमारी मुलाकात उप मेला अधिकारी मिश्रा जी से हुई। मिश्रा जी की समीर से बड़ी जल्दी दोस्ती हो गई। मिश्रा जी बहुत अच्छे अधिकारी लगे। समीर ने उनसे मेले की व्यवस्था के संदर्भ में पूछा। उन्होंने उनके कमरे में लगे मेला क्षेत्र के नक़्शे को दिखा कर हमें समझाया कि “मेला लगभग चार हजार हेक्टर में लगता है तथा उसमें लगभग डेढ़ लाख से ज्यादा टेन्ट रहने की लिये लगाए जाते है। मेला क्षेत्र छः जोन तथा बाईस सेक्टर में फैला है। यहां लगभग पचास लाख लोगों के लिये एक अस्थाई शहर बसाया जाता है तथा पूरे मेले से दौरान पांच करोड़ से अधिक लोग आते जाते रहते है। यह पृथ्वी पर आयोजित होने वाला मेगा इवेंट होता है।”
जब हम लोग अपने अनुमति पत्र ले कर व्यास जी के पास गए तो समीर ने उन से मेले के पौराणिक महत्व को समझना चाहा। तब व्यास जी ने बताया “कुंभ मेले का पौराणिक महत्व, प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में निहित है, यह समुद्र मंथन की कथा से जुड़ा एक पवित्र हिंदू तीर्थस्थल है। प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में अमृत की बूंदें गिरी थीं, जिससे वे पवित्र स्थल बन गए।
मत्स्य पुराण जैसे शास्त्र इसके आध्यात्मिक लाभों पर प्रकाश डालते हैं, इस त्यौहार को कर्म शुद्धि और मोक्ष से जोड़ते हैं। यह दिव्य परंपरा एकता और आध्यात्मिक नवीनीकरण को बढ़ावा देती है।
कुंभ मेला, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण त्यौहार है, जिसका नाम संस्कृत के शब्दों "कुंभ" दिव्य अमृत का पात्र और "मेला" एकत्रित होना से लिया गया है।
हिंदू पौराणिक कथाओं में निहित यह त्यौहार अमरता, ज्ञान और सांप्रदायिक एकता की खोज का प्रतीक है। चार पवित्र स्थानों पर आयोजित होने वाला यह त्यौहार प्राचीन ज्ञान, सामूहिक आस्था और मुक्ति की शाश्वत खोज का जश्न मनाता है, जो इसे भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत की आधारशिला बनाता है।
शाही स्नान कुंभ मेले का सबसे पवित्र अनुष्ठान है, जहाँ लाखों लोग ज्योतिषीय रूप से चुनी गई तिथियों क्षिप्रा नदी में पवित्र डुबकी लगाते हैं। यह आध्यात्मिक शुद्धि, मुक्ति मोक्ष और एकता का प्रतीक है। अखाड़ों और नागा साधुओं द्वारा इसका नेतृत्व किया जाता है, जो सदियों पुरानी परंपराओं पर जोर देते हैं।”
समीर ने पुनः पूछा कि उज्जैन का मेला कैसे शुरू हुआ?
“उज्जैन सिंहस्थ तब शुरू हुआ जब मराठा शासक रानोजी शिंदे ने उत्सव के लिए नासिक से अखाड़ों को उज्जैन आमंत्रित किया तब पुनः मेला शुरू हो सका।”
मैंने कुम्भ मेले में आने वाले अखाड़ों के बारे में पूछा तो व्यास जी ने बहुत ही सरल अंदाज में हमें सनातन धर्म के विभिन्न संगठनों के बारे में बताया।
उन्होंने बताया कि “आदि शकराचार्य ने सनातन धर्म की पुनः स्थापना कर चार मठ स्थापित किये जिन में पहला मठ पूर्व में पूरी में गोवर्धन मठ जिसका वेद ऋग्वेद है तथा इस में दशनामी संप्रदाय साधुओं के तीरथ तथा आश्रम संप्रदाय के साधु आते है।
दूसरा मठ पश्चिम में द्वारका मठ जिसका वेद सामवेद है तथा इस में दशनामी साधुओं के वन तथा अरण्य संप्रदाय आते है।
तीसरा मठ उत्तर में ज्योतिर मठ जिसका वेद अथर्व है तथा इस में दशनामी साधुओं के गिरी, पर्वत तथा सागर संप्रदाय आते है।
चौथा मठ दक्षिण में श्रृंगेरी मठ जिसका वेद यजुर्वेद है तथा इस में दशनामी साधुओं के पूरी, भारती तथा सरस्वती संप्रदाय आते है।
इन मठों के अंतर्गत अखाड़ों की व्यवस्था की, जिसमें तेरह मान्यता प्राप्त अखाड़े है। सात शैव अखाड़े श्री पंचदशनाम आवाहन अखाड़ा, श्री पंच अटल अखाड़ा, श्री पंचायती महा निरंजनी अखाड़ा, तपोनिधि श्री आनंद पंचायती अखाड़ा, श्री पंचायती निरंजनी अखाड़ा, श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा तथा श्री पंच अग्नि अखाड़ा,
तीन वैष्णव अखाड़े श्री पंच रामानन्दी निर्मोही अनि , श्री पंच दिगंबर अनि, श्रीपंच निर्वाणी अनि, तथा
तीन उदासीन अखाड़े श्री पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा, श्री पंचायती नया उदासीन अखाड़ा तथा श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा है। दो अखाड़े किन्नर ट्रांसजेंडर अखाड़ा तथा परी केवल महिलाओं के अखाड़े को मान्यता प्राप्त नहीं है।”
उज्जैन में हर मकान, गली, सड़क, दुकान तथा मन्दिर का अपना इतिहास तथा रौचक कहानियां है। इन में से कुछ कहानियां जो हमें अपनी उज्जैन यात्रा के दौरान सुनाने को मिली आप को सुनती हूँ। हम लोगों ने मेला क्षेत्र घूमने की शुरुआत दत्त अखाड़ा जोन से की। दत्त अखाड़ा उज्जैन बड़नगर मार्ग पर छोटी रपट के बायीं तरफ क्षिप्रा नदी के बांये किनारे पर स्थित है।
दत्तात्रेय अखाड़ा या दत्त अखाड़ा एक महत्वपूर्ण हिंदू मठ है, जिसकी स्थापना त्रेता युग में भगवान दत्तात्रेय द्वारा अपने शिष्यों को शिक्षा देने के लिए की गई थी।
जूना अखाड़े के श्री महंत हरि गिरि महाराज के अनुसार दत्त अखाड़ा में जहां आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित दुर्लभ शिवलिंग है और उनकी चरण पादुका भी स्थापित है। आदि शंकराचार्य जब उज्जैन आए थे तब उन्होंने इस शिवलिंग की की स्थापना की थी। माना जाता है दोनों शिवलिंग वे साथ लाए थे।
आदिगुरु शंकराचार्य से लेकर गोविंदपादाचार्य, गौड़पादाचार्य, शुकदेव, ऋषि व्यास, ऋषि पराशर, शक्ति महर्षि, ऋषि वशिष्ठ और भगवान ब्रह्मा तक, अखाड़ा गुरु-शिष्य परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यहीं एक विशाल त्रिशूल की स्थापना की गई है।
फिर हम लोग रणजीत हनुमान मन्दिर, मुल्लापुरा, अंजड़ खेड़ा, तथा भूखी माता सेक्टर में गये। शिप्रा नदी के किनारे भूखी माता का बहुत प्रसिद्ध मंदिर है। दरअसल, इस मंदिर में दो देवियां विराजमान है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार माना जाता है कि यह दोनों बहने हैं। इनमें से एक को भूखी माता और दूसरी को धूमावती के नाम से जाना जाता है। कहते हैं भूखी माता को प्रतिदिन एक युवक की बलि दी जाती थी। एक बार दुखी मां राजा विक्रमादित्य के पास गई। उसके बेटे की बलि चढ़ाई जानी थी।
तब विक्रमादित्य ने माता से नरबलि नहीं लेने का आग्रह किया। यह भी कहा कि यदि देवी ने उनकी बात नहीं मानी तो वे खुद उनका आहार बनेंगे। बुढ़िया के जाने के बाद विक्रमादित्य ने कई तरह के पकवान बनवाने का आदेश दिया। इन पकवानों से पूरे शहर को सजा दिया गया। एक तख्त पर मिठाइयों के साथ मिठाइयों से बना एक मानव पुतला लिटा दिया। विक्रमादित्य खुद उसके नीचे छिप गए। रात को सभी देवियों ने पकवानों का स्वाद लिया। जब जा रही थी, तब एक देवी ने जानना चाहा कि आखिर तख्त पर क्या रखा है। देवी ने वहां रखे पुतले को खा लिया।
देवी खुश हो गई। इतने में विक्रमादित्य आए और हाथ जोड़कर बताया कि उन्होंने ही इसे रखवाया है। देवी ने वरदान मांगने को कहा। तब विक्रमादित्य ने कहा कि कृपा कर आप नदी के उस पार विराजमान रहें। देवी ने कहा कि तुम्हारे वचन का पालन होगा। उस देवी का नाम भूखी माता रख दिया गया। इसके बाद विक्रमादित्य ने नदी के उस पार मंदिर बनवाया। इसके बाद देवी ने कभी नरबलि नहीं ली।
दूसरे दिन महाकाल जोन में राम घाट, हरसिद्धि मन्दिर, महाकाल मन्दिर, नरसिंह घाट, लालपुर, गोपाल मन्दिर तथा चिंतामन गणेश मन्दिर सेक्टर में गये। हरसिद्धि माता मंदिर, देवी के इक्यावन शक्तिपीठों में से एक है। यह मंदिर उज्जैन के प्राचीन पवित्र स्थलों में से एक है। मंदिर का इतिहास राजा विक्रमादित्य से जुड़ा है, जिन्हें यहाँ माता का परम भक्त माना जाता है। मान्यता है कि जब भगवान शिव सती के मृत शरीर को ब्रह्मांड में घुमा रहे थे देवी सती की कोहनी गिरी थी और इस स्थान को शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है।
मंदिर परिसर में दो विशाल दीप स्तंभ हैं, जो रात्रि के दौरान जलाए जाते हैं। ये स्तंभ लगभग इक्यावन फीट ऊंचे हैं और एक हजार से अधिक दीपक हैं।
जिस क्षेत्र में मंदिर स्थित है, उसे विक्रमादित्य की तपोभूमि माना जाता है। मंदिर के ठीक पीछे एक कोने में कुछ सिर रखे हैं जिन पर सिंदूर लगा हुआ है। कहा जाता है कि ये राजा विक्रमादित्य के सिर हैं।
लोक कथाओं के मुताबिक विक्रमादित्य ने देवी को प्रसन्न करने के लिए हर बारह वें वर्ष में अपने सिर की बलि दी थी। उन्होंने ग्यारह बार ऐसा किया, लेकिन हर बार सिर वापस आ जाता था। जब बारहवीं बार उन्होंने सिर की बलि दी तो यह वापस नहीं आया। इसे उनके शासन का अंत माना गया।
गोपाल मंदिर, जिसे द्वारकाधीश मंदिर भी कहा जाता है, महारानी बैजाबाई सिंधिया द्वारा निर्मित किया गया था। यह मंदिर श्रीकृष्ण को समर्पित है और महाकालेश्वर मंदिर के बाद उज्जैन का दूसरा सबसे बड़ा मंदिर है। यह मराठा वास्तुकला का एक सुंदर उदाहरण है और इसका गर्भगृह संगमरमर से जड़ा हुआ है, जबकि दरवाजे चांदी से मढ़े हुए हैं।
चिंतामन गणेश मंदिर, भगवान गणेश का एक प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर है। माना जाता है कि इस मंदिर की स्थापना भगवान राम ने वनवास के दौरान की थी। यहां गणेश जी को चिंतामण, इच्छामण और सिद्धिविनायक रूप में पूजते हैं।
तीसरे दिन काल भैरव जाने में सिद्ध वट घाट तथा गढ़कली मन्दिर सेक्टर गये। काल भैरव मंदिर का इतिहास बहुत पुराना है, जो स्कंद पुराण के अवंति खंड में भी वर्णित है। यह मंदिर राजा भद्रसेन द्वारा बनाया गया था और यह भैरवगढ़ क्षेत्र में शिप्रा नदी के किनारे स्थित है।
काल भैरव को शिव के उग्र रूप के रूप में पूजने की परंपरा कपालिका और अघोरा संप्रदायों से जुड़ी है, उज्जैन एक ऐसा केंद्र था। मंदिर में शराब चढ़ाने की परंपरा भी है। आश्चर्य की बात यह है कि देखते ही देखते वह पात्र जिसमें मदिरा का भोग लगाया जाता है, खाली हो जाता है। यह शराब कहां जाती है, ये रहस्य आज भी बना हुआ है। यहां रोज श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है।
इस संबंध में मान्यता है कि सिंधिया घराने के राजा महादजी सिंधिया शत्रु राजाओं से बुरी तरह पराजित हो गए थे। उस समय जब वे कालभैरव मंदिर में पहुंचे तो उनकी पगड़ी यहीं गिर गई थी। तब महादजी सिंधिया ने अपनी पगड़ी भगवान कालभैरव को अर्पित कर दी और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए भगवान से प्रार्थना की। इसके बाद राजा ने सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की और लंबे समय तक कुशल शासन किया।
भगवान कालभैरव के आशीर्वाद से उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी कोई युद्ध नहीं हारा। इसी प्रसंग के बाद से आज भी ग्वालियर के राजघराने से ही कालभैरव के लिए पगड़ी आती है।
गढ़कालिका मंदिर एक प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर है, जो महाकवि कालिदास की आराध्य देवी के रूप में जाना जाता है और उनकी प्रतिभा का विकास इस मंदिर में पूजा-अर्चना करने से हुआ था। यह मंदिर इक्यावन शक्तिपीठों में से एक माना जाता है और यहां भगवती सती के ऊर्ध ओष्ठ ऊपरी होंठ गिरा था। यह मन्दिर तंत्र क्रिया के लिए प्रसिद्ध है देवी को कपड़े के नरमुंड का चढ़ावा चढ़ाया जाता है तथा दशहरे पर नींबू बांटने की परंपरा है।
चौथे दिन हम लोग मंगल नाथ जोन गए जिसमें हमनें मंगलनाथ मन्दिर, खाक चौक तथ खिलचीपुर रोड के सेक्टरों को देखा।
मंगलनाथ मंदिर उज्जैन में स्थित एक प्राचीन हिंदू मंदिर है जो भगवान मंगल को समर्पित है।मत्स्य पुराण के अनुसार, मंगल ग्रह का जन्म यहां हुआ था। मंदिर शहर की हलचल से दूर, शिप्रा नदी के किनारे स्थित है। यह मंदिर मुख्यतः मंगल दोष निवारण पूजा के लिए प्रसिद्ध है।
संदीपनी आश्रम, उज्जैन, एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है, जहाँ भगवान श्री कृष्ण, बलराम और सुदामा ने शिक्षा प्राप्त की थी। यह आश्रम पांच हजार साल पुराना माना जाता है और यहाँ ऋषि संदीपनी ने उन्हें चौषट विद्याएं और सोलह कलाएं सिखाईं। आश्रम के पास के क्षेत्र को अंकपात के नाम से जाना जाता है, जहाँ श्री कृष्ण अपनी स्लेट पर लिखे अंक धोते थे।
वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी इस स्थान को वल्लभाचार्य की चौरासी सीटों में से तिहत्तरवीं सीट मानते हैं।
पाँचवा दिन चामुण्डा माता जोन तथा त्रिवेणी जोन में यंत्र महल तथा त्रिवेणी सेक्टर का क्षेत्र घूमे। क्षिप्रा नदी के घाटों को देखा तथा विभिन्न अखाड़ों की पेशवाईतथा शाही स्नान देखे।
फिर हम लोग पांच कोशी यात्रा पर गये। उज्जैन में पंचक्रोशी यात्रा एक धार्मिक परिक्रमा है जो हर साल वैशाख माह में आयोजित की जाती है। यह यात्रा उज्जैन शहर की परिक्रमा मानी जाती है और इसका धार्मिक महत्व बहुत अधिक है।गर्मियों में तपती कोलतार की सड़क पर नंगे पैरों लगातार पांच दिन चलना आप के धैर्य की कठिन परीक्षा होती है। इसलिए श्रद्धालु यह यात्रा महाकाल से बल ले कर शुरू करते है।
प्राचीन अवंतिका नगरी चौकोर आकार में बसी हुई है और इसके विभिन्न कोणों पर स्थित शिव मंदिर इसके द्वारपाल माने जाते हैं। पूर्व में पिंगलेश्वर, दक्षिण में कायावरोहणेश्वर, पश्चिम में बिल्वकेश्वर, उत्तर दिशा में दुर्देश्वर और नीलकंठेश्वर महादेव इन पांच प्रमुख मंदिरों की दूरी लगभग एक सौ अठारह किलोमीटर है।
पंचकोशी यात्रा के दौरान श्रद्धालु इन्हीं पांचों शिव मंदिरों की परिक्रमा करते हैं और पवित्र क्षिप्रा नदी में स्नान करते हैं।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार, इस यात्रा को पूर्ण करने वाले भक्तों को तैतीस कोटि देवी-देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
जब हम लोग इन स्थानों पर धूम रहे थे अनेक जगहें समीर को पहचनाने में बहुत दिक्क्त हुई। इल्तुमिश के रूप में जब उसने उज्जैन को देखा था वह नगरी बहुत विशाल, समृद्ध तथा साफ सुथरी थी। लेकिन व्यापार मार्ग बदल जाने से इस नगर का महत्त्व ना केवल काम हुआ वल्कि यह नगर राजधानी से केवल एक जिला भर रह गया है।
सनातन परंपरा में संन्यासी बनना सबसे कठिन कार्य है। शिक्षा, ज्ञान और संस्कार के साथ सामाजिक स्तर को ध्यान में रखते हुए संन्यासी को महामंडलेश्वर जैसे पद पर बिठाया जाता है। अखाड़ा प्रमुख के पद हासिल करने में संतों को वर्षों लग जाते हैं। शैव एवं वैष्णव संप्रदाय के अखाड़ों में अलग-अलग परंपरा है।
शैव मत के अखाड़ों में संन्यास और नागा परंपरा का प्रचलन है। नागा परंपरा में थानापति, कोतवाल, कोठारी, भंडारी, कारोबारी सहित अनेक पद हैं। नागाओं की योग्यता और उनके स्तर को देखते हुए उन्हें पद सौंपे जाते हैं।
सब कुछ सामान्य होने के बाद संन्यासी का विधिवत पट्टकाभिषेक कर महामंडलेश्वर पद पर अलंकृत किया जाता है। फिर महामंडलेश्वर के बीच आपसी सहमति से आचार्य के पद पर अलंकृत किया जाता है।
इसके बाद अखाड़े की सारी गतिविधियां आचार्य महामंडलेश्वर के हाथ संपन्न कराई जाती हैं।
शाही जुलूस में नागा संत अखाड़े के देवता को सबसे आगे लेकर चलते हैं। आचार्य महामंडलेश्वर के बाद वरिष्ठता के क्रम पर छत्र चंवर और सुरक्षा के साथ महामंडलेश्वर का रथ चलता है।
वैष्णव संप्रदाय में श्री महंत मुख्य पद माना जाता है। उदासीन अखाड़ों में अलग-अलग परंपरा है। इनमें जखीरा प्रबंधक, श्री महंत के साथ पीठाधीशवर के पद भी हैं।
नागा साधु हिंदू संन्यासी होते हैं जो नग्न या एक कपड़े में रहते हैं, जो उनके वैराग्य और भौतिक सुखों से विरक्ति का प्रतीक है। वे युद्धकला, योग और ध्यान में निपुण होते हैं और अक्सर कुंभ मेले और अखाड़ों में देखे जाते हैं।
नागा साधु बनने की प्रक्रिया कठिन तथा लम्बी होती है। नागा साधुओं के पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया में लगभग छह साल लगते हैं।
इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यूँ ही रहते हैं। कोई भी अखाड़ा अच्छी तरह जाँच-पड़ताल कर योग्य व्यक्ति को ही प्रवेश देता है। पहले उसे लम्बे समय तक ब्रह्मचारी के रूप में रहना होता है, फिर उसे महापुरुष तथा फिर अवधूत बनाया जाता है।
इसके बाद यज्ञोपवीत होता है। इस प्रकिया को पूरी करने के बाद वह अपना और अपने परिवार का पिंडदान करते हैं जिसे बिजवान कहा जाता है। इसके बाद उसे अंतिम परीक्षा से गुजरना होता है, जिसमें वह दिगंबर और फिर श्रीदिगंबर बनाया जाता है।
दिगंबर नागा एक लंगोट पहन सकता है, जबकि श्रीदिगंबर को जबकि श्रीदिगंबर को पूरी तरह नग्न रहकर जीवन यापन करना होता है। इसके बाद इन्हें पांच गुरु भगवान शिव, भगवान विष्णु, शक्ति, सूर्य और श्री गणेश स्वीकारने होते हैं। इसके बाद नागा साधुओं के बाल मुंडवाए जाते हैं और कुंभ के दौरान उन्हें नदी में एक सौ आठ डुबकियां लगानी पड़ती हैं।
अन्तिम प्रक्रिया महाकुम्भ के दौरान होती है जिसमें दण्डी संस्कार जैसी कई प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद आखिरी लिंग तोड़ प्रक्रिया सबसे अहम प्रक्रिया होती है जिसमें अपने काम को वश में करने के लिए लिंग तोड़ दिया जाता है।
जगह के हिसाब से इन नागा साधुओं को अलग-अलग नाम दिए जाते हैं। प्रयागराज के कुंभ में नागा साधु बनने वाले को नागा, उज्जैन में बनने वाले को खूनी नागा, हरिद्वार में बनने वाले को बर्फानी नागा और नासिक में बनने वाले को खिचड़िया नागा कहा जाता है। तेरह में से केवल सात अखाड़े जूना, महानिर्वाणी, निरंजनी, अटल, अग्नि, आनंद और आवाहन अखाड़ा ही नागा साधु बनाते हैं।
नागा साधुओं को एक दिन में सिर्फ सात घरों से भिक्षा मांगने की इजाजत होती है। अगर उनको इन घरों में भिक्षा नहीं मिलती है, तो उनको भूखा ही रहना पड़ता है। नागा संन्यासी दिन में सिर्फ एक बार ही भोजन करते हैं।
नागा साधु मानते हैं कि धरती उनका बिछौना और आकाश उनका ओढ़ना है। वह सोलह शृंगार करते हैं, जिनमें लंगोट, भभूत, चंदन, अंगूठी, लोहे या चांदी के कड़े, पंचकेश, कमर में माला, माथे पर रोली, कुंडल, चिमटा, डमरू, कमंडल, गुथी हुई जटाएं, तिलक, काजल, हाथों में कड़ा, और बाहों में रुद्राक्ष की माला धारण करते हैं।
अघोरी साधु तांत्रिक परंपरा का अनुसरण करते हैं और शिव के भैरव रूप के उपासक होते हैं। अघोरियों का उद्देश्य शरीर और संसार के पार जाकर स्वयं को परम सत्य से जोड़ना है। यह सामाजिक मान्यताओं को पार कर अघोर साधना करते हैं।
अघोरी साधु श्मशान भूमि में रहते हैं और वहीं साधना करते हैं। वे शवों की राख अपने शरीर पर लगाते हैं और कभी-कभी मानव खोपड़ी कपाल का उपयोग कटोरी के रूप में करते हैं। आमतौर पर अघोरी काले वस्त्र पहनते हैं या कई निर्वस्त्र भी रहते हैं। अघोरी जानवरों की खाल या किसी काले कपड़े से शरीर का निचला हिस्सा ढंकते हैं।
आद्य शंकराचार्य ने ओंकारेश्वर में दीक्षा ली और महेश्वर आए जहां मंडन मिश्र और उनकी पत्नी भारती के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ। जिसमें शंकराचार्य ने विजय हासिल की। इसके बाद वे उज्जैन आए थे। यहां महाकालेश्वर के दर्शन किए थे। उस समय उज्जैन में कापालिकों का वर्चस्व था। कापालिकों के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ और उन्होंने कापालिकों को भी परास्त किया था।
अघोरियों की साधना में ऐसी चीजें शामिल होती हैं जिन्हें आम लोग अशुभ मानते हैं, जैसे शवों के साथ साधना। अघोरी साधु तंत्र-मंत्र, ध्यान, और श्मशान साधना का पालन करते हैं। अघोरी साधु ज्यादातर वाराणसी, श्मशान घाट और ऐसे स्थानों पर रहते हैं जहां मृत्यु से जुड़ी साधना की जा सके। अघोरी तीन तरह की साधना करते हैं - शव साधना, शिव साधना और श्मशान साधना।अघोरी बनने के लिए कोई गुरु की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि उनके गुरु स्वयं शिव भगवान होते हैं।
आईआईटी बाबा
हम दोनों अपनी मोटर सइकिल पर मेला क्षेत्र में घूमते - घूमते एक आश्रम के पास बैठ गये। तभी वहां एक टीवी का पत्रकार आया और हम दोनों को बैठा देख समीर से कैमरे पर उसकी पढ़ाई के बारे में पूछा। तो उसने बताया की उसने आई आई टी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है तो उसकी रूचि और जानने में हो गई। समीर की तब दाढ़ी बड़ी हुई थी। मोटर साइकिल चलाते - चलाते उसके बाल बिखर गए थे। वह हमेशा से लम्बे बाल रखता है तथा उसने सफ़ेद कुर्ता पजामा पहन रखा था।
हम लोग एक मन्दिर में दर्शन कर लौट रहे थे। इस कारण समीर बाबा जैसा दिख रहा था। मुझे उसने बाबा की चेली समझा। उसने धर्म, कुम्भ तथा सनातन पर कई सवाल पूछे। जिसके समीर ने बहुत सटीक वैज्ञानिक तरीके से जबाब दिये। जब उस इंटरव्यू को टीवी पर दिखाया गया तो उसे उस पत्रकार ने आईआईटी बाबा नाम दे दिया। आईआईटी बाबा, महाकुंभ में चर्चा का विषय बन गया।
पहले आईआईटी में पढ़ाई और नौकरी करने के बाद, अब धर्म की राह ।
समीर इंटरनेट पर 'आईआईटी बाबा' के नाम से मशहूर हो गया। अभी तक हम लोग जहां तहाँ चले जाते थे। लेकिन अब रील बनाने बाले तथा इंटरव्यू लेने बाले हम लोगों को देखते ही घेर लेते है। महाकुंभ में समीर के गहरे विचारों ने लोगों को इतना प्रभावित किया कि उनकी कई वीडियो वायरल हो गईं।
लेकिन यह सफर आसान नहीं था, यह आत्म खोज और आंतरिक शांति की यात्रा थी, जो उसने आईआईटी के गलियारों से शुरू की थी। एक चैनल ने एक दिन दिखाया कि आईआईटी बाबा की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह किसी भी मुद्दे पर बात करने से हिचकते नहीं हैं। एक टीवी इंटरव्यू के दौरान जब उनसे उनकी गर्लफ्रेंड के बार में पूछा गया तो उन्हें बेझिझक इसके बारे में बताया।
जितने चैनल उतनी बाते। रील बनाने बाले अपनी रील वायरल करने के लिये खुद कहानियां बनाने लगे इंजीनियर बाबा ने बताया, "इंजीनियरिंग करते हुए मैं फिलॉसफी से कनेक्ट होने लगा। कोर्स से इतर जाकर मैं दर्शनशास्त्र की किताबें पढ़ता था। जिंदगी का मतलब समझने के लिए मैं ने नवउत्तरावाद, सुकरात, प्लेटो के आर्टिकल और किताबें पढ़ ली थीं, फिर एक समय आध्यात्म का रास्ता चुन लिया।” कोई कह रहा था कि "पढ़ाई दौरान जिंदगी को लेकर उनकी फिलॉसफी बदल गई। उन्होंने कुछ समय के लिए अपना एक कोचिंग सेंटर भी खोला। यहां फिजिक्स पढ़ाया करते थे। लेकिन, उनका मन नहीं लगता था। उनका मन आध्यात्म में लगने लगा था।"
तो दूसरी रील थी कि इंजीनियर बाबा ने अपनी पूरी जिंदगी भगवान शिव शंकर को समर्पित कर दी है। उन्होंने बताया, "अब आध्यात्म में मजा आ रहा है। मैं साइंस के जरिए आध्यात्म को समझ रहा हूं। इसकी गहराइयों में जा रहा हूं। सब कुछ शिव है।सत्य ही शिव है और शिव ही सुंदर है।"
देश के एक प्रसिद्ध चैनल ने दिखाया कि जब इंजीनियर बाबा से पूछा गया कि आध्यात्म की जिंदगी कैसी लग रही है? इसपर वह कहते हैं, "मैं अपनी जिंदगी के सबसे बेस्ट स्टेज पर हूं। अगर आप ज्ञान का पीछा करते हैं, तो आखिरकार यहीं पहुंचेंगे।"
शुरू में हम लोगों ने मजाक - मजाक में इंटरव्यू देना शुरू किया था। लेकिन बात अब हद से बाहर चली गई थी। होटल में रहना मुश्किल हो गया था। टूरिज़्म बालों ने मेले में एक टेन्ट सिटी बनाई थी। हमें उन्होंने एक कॉटेज अलॉट कर दी। व्यास जी ने सलाह दी कि अब मोटर साइकिल से घूमना मतलब खतरा मोल लेना था।
तो कॉटेज से निकलना बंद करना पड़ा। इस बीच हम लोग अनेक दफ़े चक्रतीर्थ दिन में, रात में गये लेकिन कापालिक से मुलाकात नहीं हो सकी। हम लोगों ने यह अनुभव किया कि साधु के वेश का इस देश में क्या महत्त्व है?
लोग धर्म के प्रति कितनी अंध शृद्धा रखते है। वे कथाकथित धार्मिक लोगों की पृष्टभूमि जानने की कोशिश नहीं करते है। लोग धर्म के प्रति दीवाने है। उन्हें लगता है कि कोई चमत्कार होगा और जीवन की सभी समस्याओं का हल हो जाएगा।
महाकुंभ जैसा भव्य धार्मिक आयोजन का उत्सव और इसमें शामिल होने वाले साधु-संत आम जनमानस में भी आस्था और विश्वास को बढ़ाते हैं। साथ ही समाज में यह संदेश देते हैं कि, व्यक्ति की असल पहचान आंतरिक शांति, संतुलन, संतोष और आत्मिक अनुभव की खोज है।
महाकुंभ में कई बाबा, साधु-संत और संन्यासी इन दिनों चर्चा का विषय बने हुए हैं। इस खासा एक युवा खास चर्चा में है। इनकी फोटो-वीडियो लगातार सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है। रुद्राक्ष की माला धारण किए शांत चेहरे वाले युवा के साधु जीवन ने हर किसी ने मन में सवाल पैदा कर दिया कि, उन्हें आखिर किस चीज की खोज थी, जिस कारण उन्होंने भक्ति और आध्यात्मक का मार्ग अपानाया। युवक के जीवन को देख यह कहना गलत नहीं होगा कि वे भौतिक सुखों से परे कुछ अर्थपूर्ण ढूंढ रहे हैं।
यह सब देख कर हमारे परिवार के लोग बहुत चिंतित हो गये। कि सही में या तो हम लोगों ने सन्यास ले लिया है या पागल हो गए है। हम लोगों को रोज वीडियो काल कर उन्हें समझाना पड़ता है। रिस्तेदार, दोस्त तथा साथ में काम करने बाले लगातार पूछताछ कर रहे है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया की क्या ताकत है हम ने इतने काम समय में जान ली।
समीर को याद आया कि मानव की ईश्वर के प्रति अंध श्रद्धा इल्तुमिश के ज़माने में जो थी वैसी ही आज तक हैं। मानव की चेतना में इस सम्बन्ध में कोई खास विकास हुआ नहीं दिखता है। बल्कि उल्टा आज साधना काम और दिखावा ज्यादा हो गया है।
लेकिन अब हम लोग मीडिया से छुप गये है। चिन्ता है तो केवल एक बात की कि कापालिक से मुलाकात कैसे होगी। लेकिन मन में उम्मीद थी कि उन्हें तो सब पता है। चिंता किस बात की। अब हमने श्रद्धा करना सिख लिया था। जीवन महाकाल के हवाले कर दिया था।
हमेशा पॉजिटिव सोचते। और एक दिन चमत्कार हो गया। जब हम लोग अपने कॉटेज में थे तो रात को ऐसा लगा कि कोई बाहर आवाज दे रहा है। समीर बाहर निकला तो देखा कापालिक महाराज खड़े है। समीर ने उन्ह की चरण बन्दना की तथा उन्हें अन्दर ले आया। मै कुर्सी से उठी और चरण छूने को झुकी तो उन्होंने मना करते हुए कहा में लड़कियों से पाँव नहीं छूआता। फिर हम सब बैठ गये।
महाराज ने हॅसते हुए कहां "कहो कैसी रही?"
समीर ने पूछा "क्या महाराज?"
"आईआईटी बाबा बनाना" महाराज हँस पड़े।
"तो वह आप का चमत्कार था" मैने पूछा।
अरे नहीं सब महाकाल की मर्जी" महाराज अभी भी मुस्करा रहे थे।
"तुम्हें भविष्य के लिये तैयार करना है" महाराज ने समीर पर नज़ारे गड़ा दी।
मैं बोलने के लिये मुँह खोल रही थी तो महाराज ने चुप रहने का इसारा किया और बोले "कल पूर्णिमा की रात चक्रतीर्थ पर अर्द्ध रात्रि समीर तुम्हारी दीक्षा होगी।"
महाराज बाहर निकले। हम लोग भी निकले लेकिन अंधेरे से जैसे आये थे बैसे चले गये। मेरा दिल समीर के लिये धड़कने लगा।
वीर साधना
पूर्णिमा की रात चाँद महाकाल मंदिर के ऊपर चमक रहा था। चक्रतीर्थ पर अभी भी कुछ चिताओं में आग जल रही थी। समीर और मै मुँह पर कपड़ा लपेट कर पहुंचे थे। हम लोगों को वहां बैठे काफी देर हो चुकी थी। लेकिन कापालिक महाराज का कोई पता नहीं था। हम लोग अभी तक के अनुभवों पर चर्चा कर रहे थे। तभी महाराज पास आते दिखे। हम दोनों ने प्रणाम किया। वह हमारे साथ बेंच पर बैठ गये। उन्होंने बताया कि दीक्षा कई चरणों से गुजरेगी। दीक्षा की प्रक्रिया में पहले तुम्हारा बाल मुण्डन होगा, फिर क्षिप्रा में स्नान, तुम्हें लाल कपडा पहनना होगा। महाराज ने उनके थैले से लाल कपड़ा समीर की दिया। मै तुम्हें मन्त्र दूंगा।
मन्त्र साधना निर्बाध हो इसलिये हम लोगों को कालियादेह महल चलना होगा। पिछली भेंट में महाराज ने जो पूजन सामग्री बताई थी वह व्यास जी की मदद से हम लोगों ने खरीद कर रख ली थी जो हम साथ लाये थे।
मैंने पूछा "महाराज यह महल कहां है?"
महाराज ने धीरे से कहा "कालिया देह महल शिप्रा नदी के तट पर स्थित एक महल है। कालिया देह पैलेस शहर के बाहरी इलाके में कालिया देह गांव में स्थित है। यहां एक ही तरह से बाबन कुंड बनाए गए हैं। यहां क्षिप्रा महल के दोनों ओर बहती है। यह उज्जैन के सबसे प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थलों में से एक है और इसके गौरवशाली अतीत का प्रमाण है।
इस महल का निर्माण महमूद खिलजी के समय मांडू के सुल्तान ने करवाया था। यह महल कभी सूर्य देवता का एक सुंदर मंदिर था जिसमें सूर्य कुंड और ब्रह्म कुंड नामक दो कुंड थे। महल अपनी शानदार और भव्य वास्तुकला, अपने समृद्ध इतिहास और किंवदंतियों तथा अपने सांस्कृतिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। महल में एक बड़ा केंद्रीय हॉल मंडप और एक गर्भगृह गर्भगृह है, जहाँ सूर्य देवता की मूर्ति स्थापित की गई थी।
भूतड़ी अमावस्या के दिन, लोग बड़ी संख्या में यहां इकट्ठा होते हैं, यह विश्वास करते हुए कि यहां स्नान करने से बुरी आत्माओं से छुटकारा मिल जाता है। भूतड़ी अमावस्या पर भूतों का मेला लगता है। मान्यता है कि कुंड में स्नान करवाने से रुके हुए कार्य भी शुरू हो जाते हैं और बिना विघ्न के संपन्न होते हैं तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। हम लोग अपना अनुष्ठान इसी जगह करेंगे।"
समीर ने जब साधना के बारे में पूछा तो महाराज ने हम लोगों को समझते हुए कहा कि "कपालिक साधना, एक तांत्रिक शैव साधना है, जो पाशुपत संप्रदाय के अंतर्गत आती है। यह साधना वाममार्ग पर आधारित है और इसमें भैरव और कौल तंत्र की साधना की जाती है। कापालिक साधुओं के लिए मानव खोपड़ी कपाल का उपयोग भिक्षापात्र के रूप में किया जाता है, और वे तांत्रिक साधनाओं को करते हैं। साधना के लिए हमने ऐसे स्थान का चयन किया है जो शांत और एकांत है।
हम अपनी साधना में भैरवी, महाकाली, चांडाली, चामुंडा, शिव, का आवाहन कर साधना में शामिल करेंगे मानव खोपड़ी कपाल, मंत्र, यंत्र, तंत्र, और साधना के लिए आवश्यक अन्य सामग्री जो तुम लाये हो उस का उपयोग करेंगे ।
हम अपनी साधना रात में करेंगे, क्योंकि रात में तांत्रिक ऊर्जा अधिक सक्रिय होती है। यह साधना एक जटिल और खतरनाक साधना है, इसलिए इसे मेरे मार्गदर्शन में ही करना होगा। साधना के दौरान मानसिक और शारीरिक रूप से तुम्हें मजबूत रहना चाहिए, क्योंकि यह साधना कठिन हो सकती है। साधना के दौरान किसी भी प्रकार की गलत क्रिया करने से बचना चाहिए, क्योंकि इससे नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं।"
समीर ने पूछा "क्या इस साधना से में इल्तुमिश के पाप से मुक्त हो जाऊंगा ?"
महाराज ने कहा "हम बाबन वीर साधना करगे, जो तंत्र शास्त्र का एक महत्वपूर्ण और गोपनीय हिस्सा है, जिसमें वीर या वीरता की शक्ति को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। ये सभी वीर काली माता के दिव्य दूत हैं और जब कोई काली माता का अनुष्ठान करता है, तो ये वीर, साधक के सामने प्रकट होकर उन्हें शक्ति, साहस और सिद्धियाँ प्रदान करते हैं। ये 'वीर' सकारात्मक शक्तियाँ हैं और इनमें इन बाबन वीरों की शक्तियाँ अलग-अलग होती है। हम लोग बटुक वीर की साधना करेंगे।
वीर साधना के दौरान विशेष गुप्त मंत्रों, यंत्रों और विधियों का उपयोग किया जाता है। वीर साधना को तंत्र साधनाओं में काफी ऊंचा स्थान दिया गया है। जिस प्रकार भगवान् शिव के गण होते हैं, ठीक वैसे ही इन वीरों को भैरवी काली का रूप के अनुयायी अथवा भैरव के गण के रूप में बताया गया है। इन्हें दिव्य शक्तियों के धारक और धर्म के रक्षक के रूप में भी जाना जाता है। इनकी शक्तियॉ तुम्हें इल्तुमिश के पाप से मुक्त कर देगी।"
जब हम रात में कालिया देह पैलेस पहुंचे तो समीर उस जगह को देख कर बोला इल्तुमिश का कैम्प यही लगाया गया था। तब यह मैदान था, लेकिन क्षिप्रा तब भी ऐसे ही बहती थी। क्षिप्रा की धार तब बहुत निर्मल तथा तीव्र थी। उसे याद है की हर दिन की मार काट के बाद वह तथा उसके सैनिक यही क्षिप्रा के जल में स्नान कर थकान मिटाया करते थे।
महल के बाहर एक खाली सुनसान जगह में पीछे की तरफ का कमरा महाराज ने पहले से चुन रखा था। एक तो यह सड़क की दूसरी तरफ था तथा दूसरे इस कमरे के अन्दर एक और कमरा था जिसमें कोई खिड़की नहीं होने से दीपक की रोशनी बाहर नहीं जाती थी। वहां कुछ चमगादड़ थी जो हम लोगों के आने से आबाज करते हुए बाहर उड़ गई।
महाराज ने दिन में ही इस जगह को साफ करवा लिया था। सब सामान रखने के बाद महाराज ने समीर के संस्कार शुरू किए। चोरों तरफ चांदनी छिटकी थी। दूर शहर की लाईट दिखाई दे रही थी। आसपास के खेतों से बीच - बीच में सियार के रोने का स्वर आ रहा था। इधर उधर कुछ कुत्ते हम लोगों की उपस्थिति पर परेशान होने के कारण लगातार भोंक - भोंक कर थक कर चुप हो गये थे। यह क्षेत्र भूत प्रेत के लिये बदनाम होने के कारण कोई भी आदमी यहाँ से गुजरने की हिम्मत नहीं करता है।
पूजा के लिये गौ घृत, गौ दुग्ध, गौ दधि, चन्दन, कुंकुम, कुशोदक, गन्ध, माला, गुग्गल, धुप, सुगन्धित पदार्थ, स्वर्ण व रत्नों के आभूषण, बस्त्र, स्रोत, पताका, व्यंजन, तथा अक्षत आदि सामग्री ले कर कर आये थे। इसके आलावा बहुत सारी दूसरी चीजें महाराज ले कर आये थे।
महाराज ने बताया कि इस साधना का अभ्यास इस गोपनीय और एकांत जगह पर कमरे में बंद रहकर करेंगे। इस साधना,के लिये ख़ास महूर्त आज रात्रि तीसरे पहर शुरू हो रहा है। महाराज ने चावल के आटे से चौक पूरा। क्षिप्रा से जल ला कर कलश स्थापना की। फिर वीर की प्रतिमा देवी और देवताओं के साथ चौक में स्थापित की ।
महाराज ने समीर को बताया कि जो इन तंत्रों की साधना करते हैं, वो प्रेत बाधाओं और अन्य अदृश्य शक्तियों से ग्रसित लोगों की सहायता कर सकते हैं। वीर साधना से साधक को ऐसी शक्तियां प्राप्त होती हैं, जिससे वो कई चीजें प्राप्त कर सकता है।
ये वीर अत्यंत शक्तिशाली हैं और उनकी साधना से साधक को दुर्लभ और अद्भुत शक्तियां प्राप्त होती हैं। ये सिद्धियाँ बहुत जल्दी प्राप्त हो जाती हैं और वीर, अदृश्य रूप में हमेशा साधक की रक्षा और उनका मार्गदर्शन करते हैं।
इसलिये तुम्हें अपनी शक्तियो के प्रचार प्रसार से दूर रहना होगा। तुम पैसे की बदले इन का उपयोग नहीं करोगे। अपने स्वार्थ सिद्धि के लिये उपयोग नहीं करोगे। कोई राज पद स्वीकार नहीं करोगे। किसी के अहित के लिये इनका उपयोग नहीं करोगे। हमेशा आचरण की शुद्धता रखोगे। जिसे सम्पन्न करने पर वीर वश में रहकर काम करने वाला बन जाए, वीर विक्रमादित्य की कहानी सर्वविदित है कि उन्होंने एक वीर को वश में कर रखा था और वह हमेशा उनके नियन्त्रण में में रहते हुए उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए तैयार रहता था।
जो भी आज्ञा विक्रमादित्य देते वह एक वीर पल में ही उस कार्य को पूरा कर देता। अब विक्रमादित्य ने उस वीर की सहायता से ही अपने सारे शत्रुओं को काबू में किया। उस वीर की सहायता से ही, जब राज्य पर पड़ोस की फौजें चढ़ आयीं तो पूरी फौज का सफाया किया। वीर की सहायता से ही विक्रमादित्य ने अपने राज्य में अपार धन-सम्पति जोड़ ली और उसी की सहायता से वह सारे संसार में विख्यात हुए।
शंकराचार्य ने भी वीर साधना संपन्न कर रखी थी। जिसकी वजह से चौबीसों घण्टे उनकी सुरक्षा बनी रहती थी। वीर की सहायता से ही जब वह जंगल में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते, वीर उनका सही मार्ग दर्शन करता, जंगल के हिंसक पशुओं से भी रक्षा वही करता। वीर की सहायता से ही शंकराचार्य ने अकेले ही पूरे भारतवर्ष में बौद्ध धर्म को बढ़ने से रोका और हिन्दु धर्म को पुन: स्थापित करने में सफलता पाई। वह स्वयं इस बात को स्वीकार करते थे कि मैंने अपने जीवन में सैकड़ों साधनाएं सम्पन्न की हैं, परन्तु वीर साधना के द्वारा ही मैंने जीवन की पूर्णता, यश, सम्मान और अद्वितीय सफलता प्राप्त की है।
गुरु गोरखनाथ वीर साधना के तो आचार्य ही थे और उनके शिष्यों को इस बात का गर्व था कि गुरु गोरखनाथ ने वीर को सिद्ध किया है, जिसकी वजह से वह तंत्र के क्षेत्र में पूर्ण सफलता पा सके हैं। यद्यपि कई लोगों ने मिलकर गुरु गोरखनाथ को मारने को चेष्टा की परन्तु अकेले गुरु गोरखनाथ सैकड़ों लोगों से मुकाबला कर सके और विजय प्राप्त कर पाए।
यदि मेरे बातें नहीं मानोगे तो आपके साथ कुछ अनहोनी भी घटित हो सकती है या तुम्हारा अहित होगा। इस शक्ति का दुरपयोग नहीं करना है। यह शाक्तियां वापिस चली जाएगी तथा तुम्हारा मोक्ष संभव नहीं होगा।सरल सात्विक शुद्ध व्यवहार होना चाहिये, तुम्हें मुझे बचन देना होगा तभी में यह अनुष्ठान करुगा। समीर गम्भीर हो गया। बहुत देर सोचने के बाद उसने महाराज के सामने संकल्प लिया।
तब महाराज ने अनुष्ठान शुरू किया। साधना के लिए महाराज एक गोपनीय मंत्र का जाप करना करने को समीर को बताते तथा शुभ मुहूर्त से साधना प्रारम्भ करते है।
पश्चिम दिशा की ओर मुंह कर लाल आसन पर लाल धोती पहनकर बैठ जाओ। आधा किलो गेहूं के आटे से मनुष्य की आकृति का पुतला बनाओ और उसे सिन्दूर से रंग दो, इसे ही वीर कहते हैं। अब पास में दीपक जलालो और वीर के पास ही “वीर प्रत्यक्ष सिद्धि गुटिका ” स्थापित कर दो, धुप, अगरबत्ती जालाना है।
नित्य रात्रि को लाल हकीक की माला से पन्द्रह माला मंत्र जप करें। इसमें एक घण्टे से ज्यादा समय नहीं लगाता। मंत्र जप “वीर प्रत्यक्ष सिद्धि गुटिका” के सामने करें। मंत्र है "ॐ हलीम हलीम वीराय प्रत्यक्ष भव हलीम हलीम फट"
प्रतिदिन रात्रि दस बजे आसन पर बैठे और आसन जाप और शरीर कीलन मंत्र पढकर रक्षा घेरा बनाएँ। उसके बाद गुरु पूजन और गणेश पूजन करे और उनसे मंत्र जप की आज्ञा ले। फिर अपने सामने उबले हुए चावलों में पांच चम्मच घी और पांच चम्मच शक्कर मिलाकर मिटटी के बर्तन में रखे, अब मंत्र का जप करे, जप के दौरान किसी भी हालत में रक्षा घेरे से बाहर ना आयें। इस पूरी क्रिया के दौरान गाय के घी का दीपक जलता रहना चाहिए।
इसमें जब साधना संपन्न हो जाए, तो पंदहवें दिन वीर को जंगल में दक्षिण दिशा की ओर रख कर कहना हें कि मैं जब भी तुझे आज्ञा दें, तू उपस्थित होगा और आज्ञा पालन करेगा।
इसके अलावा हर क्षण अदृश्य रूप से मेरे सामने उपस्थित रहना तथा मेरी रक्षा करना। उस गुटिका को लाल धागे अपनी दाहिनी भुजा पर बांध लें। साधना संपन्न होने के बाद जब पांच बार मंत्र उच्चारण कर वीर को आवाज दी जायेगी, तो आंखों के सामने वीर प्रत्यक्ष होगा और उस समय आप उसे जो भी आज्ञा देंगे, वह तुरन्त आज्ञा का पालन करेगा।
और समीर की बहु प्रतीक्षित साधना प्रारम्भ हो गई। ...
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