भर्तहरि -दीपक सेन

​​ भर्तहरि -दीपक सेन  


भारत के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक शहर होने के साथ ही इसका शुमार भारत के नगरीय सभ्यता वाले चुनिंदा प्राचीन नगरों में होता है। इस वक्त के शहर ही प्राचीन काल में नगर कहलाये जाते थे। जिस नगर के बारे में बात कर रहे हैं, उसका उल्लेख स्कन्द पुराण में बाकायदा एक खंड के रूप में मिलता है। सनातन धर्म के त्रिदेव का संबंध इस नगर से है। इसी नगर में महर्षि संदीपनी का आश्रम भी है, जिसमें बलराम, श्रीकृष्ण और सुदामा ने शिक्षा ग्रहण की थी। वहीं इस शहर के नगर देवता सृष्टि के निर्माता भगवान शिव स्वयं हों तो फिर इस नगर की तरफ लोगों का खिंचाव लोगों के बीच खुद ब खुद होना स्वाभाविक हो जाता है। इसके साथ ही भगवान राम का संबंध भी इस शहर से जुड़ा है, क्योंकि ऐसी जनश्रुति है कि इस नगर में भगवान राम ने राजा दशरथ का पिंड दान क्षिप्रा नदी में किया था। इसी कारण महाराज दशरथ के पिंड दान करने वाले घाट का नाम रामघाट पड़ गया।

यह नगर के राजा विक्रमादित्य चंद्रगुप्त द्वितीय की राजधानी थी जिनके दरबार में नौ रत्न हुआ करते थे। इसमें महान संस्कृत के लेखक कालिदास और खगोलविद् वराहमिहिर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

वराहमिहिर ने आर्यभट्ट से कुसुमपुर में मिलने के बाद खगोल विज्ञान और गणित के अध्ययन में अपना पूरा जीवन लगा दिया। वराहमिहिर ने छठवीं शताब्दी के आरंभ में कालगणना के आधार पर अपने आदर्श आर्यभट्ट के समान पृथ्वी को गोलकार बताया था। वराहमिहिर द्वारा इस नगर में विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों से अधिक तक अपने आप में विश्व में इकलौता था। इस नगर द्वारा सनातन धर्म को दिए गए बहुमूल्य उपहार विक्रम संवत को कभी भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि इसके आधार पर ही पंचांग बनाये जाते हैं। विक्रमादित्य के राज्याभिषेक के साथ ही वराहमिहिर द्वारा निर्मित विक्रम संवत् लागू किया गया। इसी संवत् के अनुसार ही हमारे सभी धार्मिक अनुष्ठान, तीज त्यौहार होली, दीवाली, दशहरा आदि मनाए जाते है। विक्रम संवत् सभी कालगणना से प्राचीन है। बारह महीने का एक वर्ष और सात दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत् से ही शुरू हुआ। इसी आधार पर महीने का हिसाब सूर्य एवं चन्द्रमा की गति पर रखा जाता है। यह बारह राशियाँ बारह सूर्य आधारित महीने हैं। पूर्णिमा के दिन, चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ। चंद्र वर्ष, सौर वर्ष से 11 दिन 3 घटी 48 पल छोटा है, इसलिए प्रत्येक 3 वर्ष में इसमें 1 महीना जोड़ दिया जाता है। ब्रह्मपुराण के अनुसार, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि बनी थीI विक्रम संवत की यह चंद्र और सौर गणना पर आधारित है। सूर्य सिद्धांत के अनुसार, पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाने में 365 दिन 15 घटी 31 विफल तथा 24 प्रति विफल लगाती है। विक्रम संवत में महीना 28, 29 और 30 दिन का होता है। पूरे विश्व में 12 महीने का एक वर्ष और सात दिन के एक सप्ताह की जो व्यवस्था है, वह विक्रम संवत की ही देन है। महीनों के नाम चैत्र, बैसाखी, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन और सप्ताह के दिनों के नाम ब्रह्माड में स्थित ग्रहों के आधार पर रखे गये। वैदिक ज्योतिष में सप्तग्रह (सात ग्रह) माने गए हैं और वे सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने में लगने वाले समय के क्रम में इस प्रकार हैं:- शनि चक्कर लगाने में लगभग 30 वर्ष लेता है। बृहस्पति एक चक्कर लगाने में लगभग 12 वर्ष लेता है। मंगल एक चक्कर लगाने में लगभग 686 दिन लेता है। शुक्र यानी वीनस सूर्य के चारों ओर अपनी परिक्रमा करने में लगभग 224 दिन लेता है। बुध यानी मर्करी सूर्य के चारों ओर अपनी परिक्रमा करने में लगभग 87 दिन लेता है। चंद्र यानी मून सूर्य की परिक्रमा में लगभग 27 दिन का वक्त लेता है। इसके बाद बताया गया कि एक दिन में 24 होरा होते हैं, पहली होरा हमेशा सूर्य की मानी जाती है, क्योंकि यह सृष्टि के आरंभ में सबसे पहले दिखाई दिया था। इसलिए पहला दिन रविवार है। दूसरी होरा शुक्र की, तीसरी होरा बुध की, चौथी होरा चन्द्र की, पांचवीं होरा शनि की और इसी तरह आगे मानी जाती है। इस तरह 24 वीं होरा बुध की होती है और अगला दिन पहली होरा से शुरू होता है जो चन्द्र या सोम की होती है, इसलिए इसे सोमवार कहा जाता है। सप्ताह के अन्य दिनों के नाम भी इसी आधार पर उस दिन पड़ने वाली पहली होरा के नाम पर रखे गए हैं।

इसी नगर के ज्योतिष में महारत रखने वाले व्यास परिवार ने भारत की आजादी का मुहूर्त निकाला था और उनकी सलाह के आधार पर भारत की आजादी को मध्य रात्रि में 12 बजे मनाया गया था। ज्योतिष, गणित एवं खगोल विज्ञान को दिए गए इस नगर के अनमोल योगदान को भारत और इसके नागरिक शायद ही कभी भूल सकें।

इस नगर के रचनाकार की कल्पना करना बेमानी है, क्योंकि स्वयं सृष्टि निर्माता भगवान शिव ने इसे बसाया था। इस नगर को इतिहास में अवन्ति, उज्जयिनी, कनकश्रृंगा, पध्मावती, अमरावती, कुशस्थली, कामुद्वति, भोगवती, विशाला एवं प्रतिकल्पा के नाम से जाना जाता है। इस वक्त इस नगर या आधुनिक काल के शहर को उज्जैन के नाम से जाना जाता है। भारत के सोलह जनपद में अवंति भी एक था। अवंति उत्तर एवं दक्षिण इन दो भागों में विभक्त होकर उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन थी तथा दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति थी। बीसवीं सदी के अंत में महाकाल के शहर में एक मिडिल क्लास परिवार में रवि नामक बच्चे का जन्म हुआ और स्कूल के दिनों से ही उसे शाम होने के बाद अक्सर वह रामघाट पर अकेले बैठकर विचार करना अच्छा लगता था। इस वक्त हल्की गीली हवा चल रही थी और पास बह रही क्षिप्रा नदी पूरे उफान पर थी। नदी की तीव्र गति से बहती धारा का शोर लगातार आ रहा था। पानी से भीगे पत्ते जुगनूं की रौशनी में यदा—कदा चमक जाते थे।

वक्त हाथ में बंद मुठ्ठी की तरह फिसलता गयाI रवि पढ़ने में बहुत होशियार था और हमेशा उसके परीक्षा में अच्छे नंबर आते थे। इसके साथ ही रवि ने जेईई का इग्जाम भी दिया और उसका सलेक्शन आईआईटी इंदौर में हो गया। यहां से इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद रवि ने आईआईएम इंदौर से ही एमबीए कर लिया और इसके बाद रवि के साथ उसकी दोस्त स्मिता के अलावा कई छात्र डिग्री हासिल करने के बाद अमेरिका चले गए। इन सभी की किस्मत अच्छी थी कि इंदौर हिन्दुस्तान का इकलौता शहर है, जहां आईआईटी और आईआईएम दोनों है।

रवि की स्वच्छ छवि तथा पढ़ाई के अच्छे रिकॉर्ड के कारण जब वह कालेज के किसी कार्यक्रम में भाग लेता तो उसके साथी बड़े उत्साह के साथ उसका हौसला बढ़ाते थे। कालेज में देश विदेश की कई बड़ी कंपनियां प्लेसमेंट के लिए आ रही थी। रवि केवल सबसे अच्छी तीन कम्पनियों के इंटरव्यू में गया और तीनों में वह चयनित हो गया, लेकिन उसने एक अमेरिका की एक बहुराष्ट्रीय कंसल्टेशन कम्पनी में प्लेसमेंट स्वीकार कर लिया। इसके बाद उसकी पोस्टिंग वाशिंगटन में हुई। उसकी कंपनी के ऑफिस में उसकी ट्रेनिंग शुरू हुई। जब उसने नौकरी शुरू की तो शुरू के कुछ दिन बहुत कठिनाइयों भरे थे। सबसे ज्यादा परेशानी उसे अमरीकन संस्कृति के रीत रिवाज़ अपनाने में हुई, लेकिन रवि ने तेजी से अमेरिकन संस्कृति को अपनाना शुरू किया और केवल छह माह के अंदर वह भीतर तथा बाहर से अमेरिकन बन गया। ऐसी जीवन शैली की उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।

रवि के सेक्शन में समांथा, स्मिता, रमेश, तथा क्रिस्टीना काम करते थे। इन सबको भारत सरकार द्वारा गरीबी हटाने के लिए चलाई जा रही योजनाओं व प्रोजेक्ट का अध्ययन कर अधिक कारगर बनाने पर सलाह देना था। कई सप्ताह तक चली रस्साकशी के बाद आखिरकार प्रोजेक्ट का जमीनी सर्वे करने के लिए रवि व स्मिता को नई दिल्ली भेजा गया। आफिस के आला अधिकारियों ने सोचा दोनों ने साथ पढ़ाई की है नौकरी भी साथ कर रहे हैं तो दोनों बेहतर काम कर सकते हैं। दोनों नई दिल्ली के मौर्या शेरेटन होटल में ठहरे। दिन भर उन्हें विश्व बैंक एवं भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रायल के साथ मिलकर काम करना था। दोनों दफ्तरों के बीच की दूरी अधिक थी और कुछ ऐसी ही दूरी रवि एवं स्मिता के बीच भी थी। एक मीर घाट तो दूर पीर घाट की तरह थे। दोनों के विचारों में कोई समानता नहीं थी, लेकिन नई दिल्ली का काम दोनों को साथ में काम करना था। दिन की शुरुआत होटल की लॉबी में नाश्ते से होती। इसके बाद दोनों निकल जाते, दिन भर प्रजेंटशन, स्प्रेडशीट पर आंकड़े देखने में निकल जाता। दोनों सवाल पूछते, नोट्स लेते व समझने की कोशिश करते। देर रात तक अपने कमरों में योजनाओं के दस्तावेजों का अध्यन करते। विभिन्न कमेटियों की रिपोर्ट पढ़ते। रात के खाने के बाद दोनों में खूब बहस होती। हालांकि दोनों भारतीय पृष्ठभूमि से आये थे लेकिन गरीबी की समझ व उसे दूर करने के तरीकों पर बहुत अधिक मतांतर होने के कारण वे शायद ही किसी विषय पर सहमत होते थे। कभी-कभी यह बहस बहुत कटु हो जाती और दोनों एक दूसरे से बात करने से बचते थे, लेकिन व्यवसायिक मज़बूरी से दोनों को साथ काम करना पड़ रहा था। दोनों अभी बहुत भावुक व उत्साही थे। दोनों के लिए यह पहला प्रोजेक्ट था, इस कारण शायद प्रोफेशनल व पर्सनल जीवन में अंतर नहीं कर पा रहे थे। पिछले दिनों जब वह रात के खाने पर गरीबी रेखा के सर्वेक्षण की रिपोर्ट पर बात कर रहे थे तो दोनों के बीच बहस इतनी तीखी हो गई कि रवि बिना खाना खाये उठकर अपने कमरे में चला गया। सोते जाते समय उसका मन इतना परेशान तथा बेचैन था कि वह बिस्तर पर लेटा-लेटा अपने वर्तमान काम के बारे में सोच रहा था कि वह यह काम क्यों कर रहा है ? जब काम करने की स्वतंत्रता नहीं है ? जब केवल दो लोगों की टीम एक मत नहीं है ? इतना तनाव किस बात के लिए ? रवि को एकाएक लगा शायद स्मिता उसे व्यक्तिगत तौर पर नफ़रत करती है। इसी कारण वह उसे पसंद नहीं करती है। इसलिए रवि जो भी कहता, स्मिता उसके ठीक विपरीत बालने लगती है। यह कहानी शायद उसी दिन शुरू हो गई थी जब भारत के लिए इस प्रोजेक्ट की टीम बनाई गई थी। स्मिता ने टीम की घोषणा के समय ही रवि के नाम पर ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया था। रवि को उम्मीद थी की स्मिता का यह व्यवहार शायद बदल जाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

बीती रात स्मिता से बहस के दौरान रवि को स्मिता की तरफ खिंचाव महसूस हुआ तब उसने सोचना शुरू किया कि इस बार वह ऐसा मौका हाथ से जाने नहीं देगा। अपनी तरफ से एक कोशिश वह जरूर करेगा। हालांकि उसे भरोसा नहीं था कि वह कभी इतनी हिम्मत जुटा सकेगा या नहीं। अगले दिन दोनों कृषि भवन में ग्रामीण विकास मंत्रालय में गरीबों के लिए हाल ही में शुरू की गई महात्मा गाँधी रोजगार गारंटी योजना का गरीबों पर होने वाले प्रभावों की रिपोर्ट की समीक्षा का प्रेजेंटेशन देख रहे थे। जब प्रेजेंटेशन के बाद चर्चा शुरू हुई तब स्मिता का कहना था कि अस्थाई तौर पर रोजगार देकर क्या गरीबी दूर हो सकती है? वह भी जब इस योजना पर इतना अधिक बजट खर्च होने के वाबजूद कोई स्थाई संरचना का निर्माण नहीं हो रहा है। इससे परिवारों को तात्कालिक लाभ तो मिलता है, लेकिन बजट का लीकेज इतना अधिक है कि भ्रष्टाचार को बढ़ावा ही मिल रहा है। यदि गरीबों को सीधा लाभ देना भी है तो सीधे उनके खातों में मासिक राशि सीधे बैंक से स्थानांतरित की जा सकती है या उतने पैसे के मूल्य के वाउचर दिए जा सकते है। 

वहीं, रवि का तर्क था कि बिना मेहनत के पैसा देना लोगों को आलसी व निकम्मा बना देगा। गैर पात्र लोग भी अपना नाम योजना में जुड़वाकर गलत तरीकों से लाभ लेने में सफल हो जायेंगे। मनरेगा में मेहनत का काम मांगने केवल जरूरतमंद ही आते है। इसमें भुगतान काम के आधार पर किया जाता है ना कि दिन के आधार पर। इससे मेहनतकश व जरूरतमंद को रोजगार भी मिल जाता है। पब्लिक में आत्मसम्मान व आत्मविश्वास भी बढ़ता है। यह बहस चल ही रही थी कि योजना के जॉइंट सेक्रेटरी ने कहा — यह योजना संविधान में रोजगार की गारंटी के तहत दी जाती है, इस कारण यह योजना संविधान संशोधन के बिना बंद नहीं हो सकती। इसलिए केवल इसके इम्प्लीमेंटेशन में सुधार किया जा सकता है। यह सुनकर स्मिता को आगे बहस करने में कोई रूचि नहीं रही और रवि भी स्मिता की बॉडी लैंग्वेज को देखकर चुपचाप बैठा रहा। आखिर दोनों थे तो एक ही टीम के। बैठक समाप्त हो गई और दोनों होटल वापिस आ गये। पूरे रास्ते भर दोनों ने टैक्सी में चुप ही बने रहे। अगले दिन दोनों अमेरिका वापस लौट गये। वापस आकर दोनों ने अपनी रिपोर्ट आफिस में सब्मिट कर दी।

इधर इण्डिया में रवि का दोस्त अमन अपना एक स्टार्टअप शुरू कर रहा था। दोनों वीक एन्ड पर उसके बारे में ज़ूम काल या व्हाट्सएप्प पर बात करते थे। अमन कई बार रवि को इण्डिया लौट कर स्टार्टअप ज्वाइन करने का आग्रह कर रहा था, लेकिन रवि अभी तक इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाया था कि नौकरी छोड़कर वह स्टार्टअप ज्वाइन करे। फिर एक दिन रवि की जिंदगी ने कुछ ऐसा हुआ कि वह अमेरिका की अपनी नौकरी छोड़कर वापस आ गया। रवि ने अपने घर उज्जैन जाने की बजाय अपने दोस्त के स्टार्टअप को समझने के लिए इंदौर में रूकना बेहतर समझा। रवि के मन में एक डर था कि यदि वह सीधे उज्जैन जाता है तो एक आम मध्यमवर्गीय परिवार की तरह उसे भी सबकी बात सुननी पड़ेगी। अभी तक रवि ने घर में यह हवा भी नहीं लगने दी थी कि उसने नौकरी छोड़ दी है और वह इंदौर में है। वह अमेरिका की तरह ही हर रविवार को घर वालों से वीडियो कॉल करता था।

इधर महाकाल मानों रवि को बुला रहे हों और वह मन ही मन उज्जैन जाने को उतावला हो रहा था। मगर हर दफा अमन उसे मना कर देता था और स्टार्टअप को स्टार्ट करने की परेशानियों का हवाला देकर हर दफा रवि को रोक लेता था। रवि को अमेरिका से आये हुए महीना भर बीत गया था। एक दिन जब दोनों चाय पी रहे थे तो रवि ने अमन से उज्जैन चलने के लिए पूछा लेकिन उस का मन कही जाने का नहीं था तो रवि अपनी मोटर साइकिल से रात उज्जैन चला गया। वह क्षिप्रा नदी नजदीक में बने रुद्राक्ष होटल में रुका था। महीने भर से वह अमन के साथ रह रहा था। स्टार्टअप शुरू करने की भागमभाग में उसे कभी अकेलापन महसूस नहीं हुआ था। उसने उज्जैन आकर अच्छा किया था क्योंकि जब से वह अमेरिका से जॉब छोड़कर आया था तभी से वह सीधा अमन के साथ ही रहा। इस बीच वह अक्सर अपने मन की बातें अमन के साथ शेयर कर लिया करता था। आज अकेला होने से उसका मन फिर से पुरानी यादों में खो गया। उसे उसके पिता जी याद आये, जो अब इस दुनियाँ में नहीं रहे। जब वह अमेरिका में था तब कोविड के समय उनकी मौत हो गई और वह आ भी नहीं पाया था। फिर तो यादों का सिलसिला चल निकला। उसे अपने जीवन की सब असफलता याद आने लगी। जब उसके पिता जी थे तब वे कहते की तुम जीवन में कुछ कर नहीं सकते। जब स्मिता उसके साथ रह रही थी तब अक्सर वह भी यही वाक्य अनजाने में दुहराती थी। जब स्मिता का ख्याल मन में आया तो उसे याद आया कि जब दोनों दिल्ली में प्रोजेक्ट के लिए आये थे। इसी दौरान दोनों फील्ड विजिट पर उज्जैन भी आये थे। इसी बीच दोनों ने डेटिंग शुरू ही की थी। रवि और स्मिता ने अपनी पहली रात क्षिप्रा होटल में ही बिताई थी। उस शाम वे दोनों घंटों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर राम घाट पर घूमते रहे थे। तब वह दोनों कितने उत्साहित थे कि दोनों अपना रिलेशन महाकाल की नगरी से शुरू कर रहे है। वहीं इस बार जब वह इंदौर से उज्जैन अपनी मोटर साइकिल से आ रहा था तब यकायक बहुत तेज पानी बरसने लगा था और वह निकट के होटल में आ गया था। इसलिए वह रुद्राक्ष में ही रुक गया था। 

तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा था जिस कारण क्षिप्रा नदी पूरे उफान पर थी। इसके किनारे रामघाट पर बने सब मंदिर डूब गए थे। पानी का प्रवाह बहुत तेज था और ऐसा लगता था कि नदी का जल घाटों की दीवाल तोड़कर नगर में प्रवेश करने पर उतारू है। रवि को सिंधिया घराने छतरियां दिखाई दी और अपने स्कूल के दिन याद आने लगे जब वह अकसर नदी को सिंधिया घराने की छतरियों से देखने आता था और क्षिप्रा तट के किनारे के इस नजारे को देखता था। वहीं इस इस वक्त रवि अपना शहर अजनबी लग रहा था और रात नींद खुल जाने के कारण यहाँ आकर खड़ा हो गया था। इस वक्त आसमान में बहुत अधिक बादल थे, लेकिन वक्त बेवक्त चाँद बादलों से झांक लेता था। ऐसे में रवि ने अचानक देखा की नदी के दूसरी तरफ सनातन धर्म सबसे प्राचीन जूना अखाड़े का विशाल त्रिशूल चमक रहा था। दूसरे पल रवि को लगा की एक मानव आकृति नदी की और बढ़ रही है। कुछ देर बाद बादल छटे और चांदनी की रौशनी फैलने लगी तब दिखाई दिया कि एक साधु रवि की तरफ आहिस्ता आहिस्ता बढ़ रहा था जिनके शरीर पर एक कोपीन के अलावा कुछ नहीं था। साधू की लम्बी जटाएं पाँव तक लटक रही थी और वह नदी की तरफ आ रहे थे। कम रौशनी के कारण पहचानना कठिन हो रहा था। वह नदी के घाट पर चढ़े और नदी के पानी पर ऐसे चलने लगे मानो जमीन पर चल रहे हों। नदी के तेज बहाव को चीरते हुए साधू नदी से इस तरफ आ रहे थे। अभी रात का चौथा पहर शुरू हो रहा था। आसमान बादलों से ढका था और बीच - बीच में आसमान पर बादल नहीं थे। जब चन्द्रमा बिन बादलों के आसमान में आता तब पूनम की चांदनी दिख जाती थी। हवा तीव्रता के साथ चल रही थी। इस कारण नदी में ऊँची लहरें उठ रही थी। बादल भी तेजगति से उड़ रहे थे। वातावरण में नमी व ठंडक फैली थी। एक तो बरसात की रात तथा बादलों की काली परछाई के कारण नदी का पानी कुछ ज्यादा ही काला दिख रहा था। हवा में नमी के कारण हलकी बूदाबंदी शुरू हो गई थी। 

दोनों किनारों पर लगी स्ट्रीट लाइट की रौशनी रहस्यपूर्ण लग रही थी। इस बीच में साधु बीच नदी में आ गए थे। नदी की तेज धार पर साधू की सुडौल लंबी टांगे पानी पर चल रही थी। ऐसा लग रहा था कि मानो नदी के पानी पर चलना उनका रोज का काम हो। रवि उन साधु की हिम्मत या फिर यूं कहें कि उत्साह को देखकर रवि आश्चर्यचकित हो रहा था। रवि को ऐसा लग रहा था कि मानो साधू को जीवन का कोई मोह न हो। उनने शायद डर पर काबू पा लिया था। तभी तो वह प्रकृति के नियमों को चुनौती देने की हिम्मत रखते हैं।

यह सपना रवि को कुछ रातों से नियमित आता रहा है। जब वह ठीक से सो नहीं पाता है और अचानक रात में गहरी नींद में वह यह स्वप्न देखता। सपने में जैसे ही वह साधु के पास जाना चाहता था तो साधु गायब हो जाता और यह सपना टूट जाता। रवि को जब भी यह सपना दिखाई देता तब वह हर क्षण ही भयग्रस्त रहने लगता था। इस हालात के चलते सोने के समय को छोड़कर रवि को दिनभर हर क्षण अज्ञात भय सताता रहता था। रवि को अपने चारों तरफ ऐसा जान पड़ता जैसे यह सब कुछ उसके खिलाफ षड़यंत्र रच रहा हैं। यदि कोई हंसता तो उसे लगता जैसे उसी का उपहास उड़ा रहा है।

शाम का खाना जल्दी खाकर वह सोने चला गया। रात को कब पानी बरसना बंद हो गया, इसका रवि को पता न चला। रात भर स्मिता के साथ बिताए दिन याद आते रहे। सुबह जब उसकी नींद खुली तब घड़ी में तीन बज रहे थे। इसके बाद रवि की आंखों से नींद छूमंतर हो चुकी थी और बारिश थम गयी थी। इसी बीच रवि को ख्याल आया कि क्यों न वह उन जगहों पर जाय जहां कभी वह स्मिता के साथ गया था। बस उसने मोटर साइकिल उठाई और पहुंच गया रामघाट, लेकिन क्षिप्रा उफान पर होने के कारण वह ऊपर दीवाल पर खड़ा हो गया।

आसमान में पूर्णिमा का चाँद बादलों में छिपा था। हवा तेज चल रही थी। बादल हवा के साथ आसमान में वह रहे थे और नीचे क्षिप्रा वह रही थी। बीच बीच में जब चाँद बादलों के छटने से निकलता तो चांदनी फ़ैल जाती। रवि ने चांदनी में सामने दत्त अखाड़े का त्रिशूल चमकता हुआ देखा। यह बहुत विशाल त्रिशूल है। वह एकटक नदी के उस पार आश्रम को निहार रहा था। उसे अपने जीवन की नाक़ामियाँ फिर याद हो आई। आँखो में स्मिता का चेहरा घूम गया। उसे लगा कि इन नाकामियों से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है की वह क्षिप्रा में जल समाधि ले ले। वह मूर्क्षित जैसा घाट की दीवाल पर चढ़ गया। जैसे ही वह नदी में कूदने को हुआ उसे सामने नदी की धारा पर एक मानव शरीर चलता हुआ दिखा। सहसा उसे भरोसा न हुआ की कोई कैसे इतनी उफनती नदी की धार पर चल सकता है। उनके शरीर पर एक कोपीन मात्र वस्त्र है तथा उनकी जटाये घुटनों के नीचे तक लटक रही है। उनकी बलिष्ठ बाहें आगे पीछे चलने के साथ हिल रही थी। चांदनी में साधु का कलावर्ण चमक रहा था। उनके नेत्रों से मानों अंगारे निकल रहे हो। यह बिल्कुल वैसा ही था कि जैसा रवि सपने में देखा करता था और वैसा ही दृश्य रवि सामने हो। इसका उसको कतई यकीन नहीं हो रहा था। वह साधू रवि की मनः स्थिति भांप गये थे और वह उसके नदी में कूदने के पहले उस तक पहुंचने के लिए तेज कदम बढ़ा रहे थे। इसी बीच साधू के पहुंचने से पहले रवि ने यकायक नदी में छलांग लगा दी, लेकिन वह पानी में नहीं गिरा। उसका शरीर योगी की बाहों में झूल गया। योगी ने तेजी से आगे बढ़कर उसे पकड़ लिया था। रवि इस अप्रत्याशित घटना से हतप्रभ हो उठा था। साधु उसे फिर किनारे की दीवाल तक लाये और उसे उठाकर ख़ुद दीवार पर चढ़ गये। उन्होंने बहुत स्नेह से उससे बोले — "बच्चा ! अभी तुम्हारा समय नहीं आया है।"

रवि ने अपनी आँखें मीढ़तें हुए कहा - “महाराज! आप ने मुझ अभागे को क्यों बचाया ?"

"अलख निरंजन" साधु ने जयकार किया। "बच्चा ईश्वर ने किसी को अभागा नहीं बनाया।"

रवि को कुछ समझ नहीं आ रहा था। यह सपना है या हकीकत में उसके साथ हो रहा है। वह कुछ बोलना चाह रहा था, तभी साधु ने उसके मुँह पर उँगली रख दी और वह चुप रह गया। उसकी आँखे प्रश्नवाचक रूप में खुली थीं, तभी साधु ने कहा — "आदेश"

रवि विष्मृत था। चाँद बादलों के पीछे छुप गया था। साधु ने कहा — "सुबह भर्तृहरि की गुफा पर आना वहीं तुम्हें तुम्हारे सभी सवालों के जबाब मिल जायगे।"

उसने रवि को दीवाल पर खड़ा किया। जब रवि ने चेहरा उठ कर देखा तो साधु गायब हो गये थे। रवि ने चारों तरफ देखा, चांदनी की रौशनी में देखा कोई नहीं था। रवि वही दिवाल पर ही बैठ गया। उसके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था। उस ने उसके सपना को हकीकत में बदलते देखा, लेकिन उसके मन को लग रहा था कि अभी सपना ही चल रहा है। जब वह उठा तो देखा एक पुजारी उसे उठा रहा है। शायद उसे नींद आ गई थी। सुबह हो गई थी और लोग घाट पर नदी देखने आ रहे थे। पुजारी ने पूछा — "भाई दिवाल पर क्यों सो रहे हो? नदी में गिर जाओगे।"

रवि के चेहरे पर हंसी आ गई। वह कुछ नहीं बोला। उसने पुजारी से पूछा — "भर्तृहरि गुफा कहा है?"

पुजारी ने बताया — "यदि आप मंगलनाथ मंदिर के पुल से नदी के उस तरफ जायेंगे तो सबसे अंत में नदी के किनारे भर्तृहरि गुफा है।'

रवि ने पुजारी का धन्यवाद किया और बिना वक्त गंवाए मोटर साइकिल स्टार्ट कर पुजारी के बताए मार्ग पर चल दिया। उसने ऊपर दुकान से फूल, पूजा का सामान व प्रसाद लिया व गुफा की तरफ चलने वाला था, तभी उसने दुकानदार से गुफा के बारे में पूछा — "भईया! यह किसका मंदिर है?"

दुकानदार ने गुफा की ओर सिर झुकाकर नमस्कार किया और बोला — "यह एक ऐसी गुफा जहां राजा भर्तृहरि ने 12 साल तक तपस्या की थी। गुफा में तपस्या से इंद्र का सिंहासन डोल गया था। इंद्र ने वज्र प्रहार किया था, जिसके निशान आज भी मौजूद हैं। ऐसा दावा है कि इसी गुफा से राजा भर्तृहरि चारधाम के लिए जाया करते थे। इसी प्रकार कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भर्तृहरि के पंजे का निशान बन गये थे। यह निशान आज भी भर्तृहरि की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है। यह पंजे का निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजा भर्तृहरि की कद-काठी कितनी विशालकाय रही होगी।"

दुकानदार को नमस्कार कर जब वह गुफा के द्वार पर गया। वहां उसने साथ लाये फूल चढ़ाये, प्रसाद लगाया, शीश नवाया। तभी उसके पास एक लड़का आया। रवि को लगा की प्रसाद लेने आया है। उनसे उसे प्रसाद दिया। वह लड़का रवि को गोरखनाथ के आश्रम तक ले गया। वहां उसकी मुलाकात एक योगी से हुई। जो आश्रम के महंत है। उन्होंने रवि को देखकर बैठने को एक आसन दिया। कमरे में रौशनी कम थी। रवि के बैठते ही योगी ने जोर से कहा — "अलख निरंजन" "आदेश" रवि की समझ में कुछ नहीं आया। रवि के मन में सवालों का सैलाब उमड़ रहा था। योगी ने कहा "बच्चा! तुम खुश किस्मत हो जो गुरु ने तुम्हें बचा लिया।"

सारी योगी की बातें रवि की बर्दाश्त करने की सीमा से बाहर हो रही थी। उसे कुछ सिर पैर समझ नहीं आ रहा था। रवि ने योगी को ध्यान से देखा उसकी उम्र लगभग रवि जीतनी ही लगी। समवयस्क जानकर रवि को अच्छा लगा कि इनसे बात की जा सकती है। उन्होंने गेरुआ वस्त्र धारण किये थे, कानों में बड़े बड़े कुण्डल लटक रहे थे। उनकी बड़ी आँखे चमकदार थी। चेहरे पर अपूर्व शांति थी तथा ओठों पर मंद मुस्कान। ऐसे व्यक्तित्व से उसकी मुलाकात शायद कभी नहीं हुई थी। आश्रम के बाहर गायें चारा चर रहीं थी। कमरे में काला कुत्ता योगी के पास बैठा था जो थोड़ा डरावना लग रहा था। अन्दर भक्तगण भजन गए रहे है-

“नगर उज्जैन के राजा भर्तहरि,

हो घोड़े असवार,

एक दिन राजा दूर जंगल में,

खेलन गए शिकार,

संग के साथी बिछड गए सब,

राजा भए लाचार,

किस्मत ने जब करवट बदली,

छूटा दिए घर बार,

होनहार टाली ना टले,

समझें ना दुनियाँ दीवानी,

राजपाट तज बन गया जोगी,

आ काई मन में ठानी,

राणी राजा भर्तहरि से अरज करे।…….”

रवि ने अपना धैर्य छोड़ते हुए पूछा, "महाराज ! मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है। रात से इतनी घटनाएं मेरे साथ हो चुकी है कि मेरी मति काम नहीं कर रही है, अब आप ही कृपा कर बताएं कि यह सब क्या है?" योगी ने बताया की जब बच्चा तुम नदी में कूद रहे तब भर्तृहरि महाराज ने बचाया। यहाँ आने की प्रेरणा उन्हीं ने दी तथा उन्हीं ने मुझे "आदेश" दिया।

योगी ने कड़कदार आवाज में पूछा, "उज्जैन कब आये और घाट पर क्या कर रहे थे?"

रवि बोला — “कल शाम जब मैं इंदौर से उज्जैन अपनी मोटर साइकिल से आ रहा था तब यकायक बहुत तेज पानी बरसने लगा था तो वह निकट के होटल में गया था। इसलिए मैं रुद्राक्ष होटल में ही रुक गया था। शाम का खाना जल्दी खाकर वह सोने चला गया।

रात में कब पानी बरसना बंद हो गया मुझे पता ही नहीं चला। पूरी रात स्मिता के साथ बिताए दिन याद आते रहे। सुबह जब उसकी नींद खुली तब घड़ी में तीन बज रहे थे। इसके बाद उसकी आँखों में नींद न थी और बारिश रुक गयी। रवि को ख्याल आया कि क्यों न वह उन जगहों पर जाये जहां वह स्मिता के साथ गया था। इसके बाद वह मोटर साइकिल से रामघाट पहुंचा, लेकिन क्षिप्रा नदी उफान पर होने के कारण वह ऊपर दीवाल पर खड़ा हो गया।

"यह स्मिता कौन है?" योगी ने अपने आसान पर सीधा बैठते हुए पूछा।

स्मिता का ख्याल मन में आया तो उसे पूराना वक्त याद आ गया। रवि ने कहा — “जब हम दोनों दिल्ली में एक प्रोजेक्ट के लिए अमेरिका से आये थे। दोनों ने दिल्ली से ही डेटिंग शुरू ही की थी, उसी वक्त दोनों उज्जैन फील्ड विजिट पर आये थे। उस वक्त दोनों ने अपना ठिकाना रात में रूकने के लिए क्षिप्रा होटल ही थी। शाम के वक्त दोनों घंटों एक दूसरे का हाथ पकड़कर रामघाट पर घूमते रहे थे। तब दोनों कितने उत्साहित थे और मन ही मन सोच रहे थे कि वह अपना रिलेशन महाकाल की नगरी से शुरू कर रहे है।”

अमन के साथ स्टार्टअप ज्वाइन करने के बाद रवि बहुत दिनों से उज्जैन महाकाल के दर्शन करने आना चाहता था, लेकिन स्टार्टअप संबंधी परेशानियों के कारण वह उज्जैन नहीं जा नहीं पा रहा था। एक दिन जब दोनों चाय पी रहे थे तब रवि ने अमन से उज्जैन चलने के लिए पूछा, लेकिन उसका मन कहीं जाने का नहीं था तो रवि अपनी मोटर साइकिल से रात उज्जैन आ गया था। वह क्षिप्रा नदी के किनारे बने रुद्राक्ष होटल में रुका था। कई दिनों से वह अमन के साथ रह रहा था। स्टार्टअप शुरू करने की भागमभाग में उसे कभी अकेलापन महसूस नहीं हुआ। उसने उज्जैन आ कर अच्छा किया था, क्योंकि जब से वह अमेरिका से जॉब छोड़कर आया तब वह सीधा अमन के साथ ही रहा है। इस बीच वह अक्सर अपने मन की बातें अमन के साथ शेयर कर लिया करता था। अकेला होने से उसका मन फिर से पुरानी यादों में खो गया और अपने इस दुनिया में नहीं रहे पिता जी याद आये। जब वह अमेरिका में था तब कोविड के समय उनकी मौत हो गई और उस वक्त रवि आ नहीं पाया था। फिर तो यादों का सिलसिला चल निकला। उसे अपने जीवन की सब असफलता याद आने लगी। जब उसके पिता जी थे तब वे कहते की तुम जीवन में कुछ कर नहीं सकते। जब स्मिता उसके साथ रह रही थी तो अक्सर वह भी यही वाक्य जाने या अनजाने में दोहराती थी। जब स्मिता का ख्याल मन में आया तब उसे याद आया।

रात में कब पानी बरसना बंद हो गया, उसे पता न चला। रातभर स्मिता के साथ बिताए दिन याद आते रहे। सुबह जब उसकी नींद खुली, तब घड़ी में तीन बज रहे थे। इसे ख्याल आया कि क्यों न उन जगहों पर जाये जहां वह स्मिता के साथ गया था। वह मोटर साइकिल से रामघाट पहुंचा, लेकिन क्षिप्रा नदी उफान पर होने के कारण वह ऊपर दीवाल पर खड़ा हो गया।  

आसमान में पूर्णिमा का चाँद बादलों में छिपा था। तेज हवा तेज के साथ ही बादल हवा के साथ आसमान में बह रहे थे और नीचे क्षिप्रा नदी बह रही थी। बीच बीच में जब चाँद बादलों के छंटने से निकलता तब चांदनी फ़ैल जाती। पूर्णिमा की रात के वक्त चांदनी में सामने दत्त अखाड़े का त्रिशूल चमकता हुआ देखा। यह बहुत विशाल त्रिशूल है। वह एकटक नदी के उस पार आश्रम को निहार रहा था। उसे अपने जीवन की नाक़ामियाँ फिर याद हो आई। आँखो में स्मिता का चेहरा घूम गया। उसे लगा कि इन नाकामियों से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है कि वह क्षिप्रा में जल समाधि ले ले। वह मूर्क्षित जैसा घाट की दीवाल पर चढ़ गया। जैसे ही वह नदी में कूदने को हुआ उसे सामने नदी की धारा पर एक मानव शरीर चलता हुआ दिखा। सहसा उसे भरोसा न हुआ की कोई कैसे इतनी उफनती नदी की धार पर चल सकता है। उनके शरीर पर एक कोपीन मात्र वस्त्र है तथा उनकी जटाये घुटनों के नीचे तक लटक रही है। उनकी बलिष्ठ बाहें आगे पीछे चलने के साथ हिल रही है। चांदनी में साधु का कला वर्ण चमक रहा है। उनके नेत्रों से मानो अंगारे निकल रहे हो। वह रवि की मनः स्थिति भांप गये थे और वह उसके नदी में कूदने के पहले उस तक पहुंचने के लिए तेज कदम बढ़ा रहे थे, लेकिन ना चाहते हुए भी रवि ने यकायक नदी में छलांग लगा दी। भाग्यवश रवि पानी में नहीं गिरा। उसका शरीर योगी की बाहों में झूल गया। योगी ने तेजी से उसे पकड़ लिया था। रवि इस अप्रत्याशित घटना से हतप्रभ हो उठा। साधु उसे फिर किनारे की दीवाल तक लाये और उसे उठाकर ख़ुद दीवाल पर चढ़ गये। उन्होंने बहुत स्नेह से उससे बोले "बच्चा! अभी तुम्हारा समय नहीं आया है।"

 

साधू ने कहा — राजा भर्तृहरि की तीन समानताएं बेटा तुमसे मिलती हैं। रवि का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया और बोला — ऐसा कैसे हो सकता है और आप कैसे जानते हैं मेरे बारे में। साधू ने कहा — मुझे तेरे के बारे में सब पता है बच्चा। आदिकाल से वर्तमान दौर तक वक्त कितना भी बीत जाये समस्याएं एक जैसी ही रहती हैं। व्यक्ति के जीवन में कभी कोई अंतर नहीं आता है और यही कारण है कि अलग अलग युगों में जन्म लेने वाले व्यक्तियों की जिंदगी में कभी कोई अंतर नहीं आता है।  

 

रवि ने पूछा — बाबा पहली समस्या क्या है ?

 

साधू ने बताना शुरू किया — बेटा जब तुमने बचपन में होश सम्हाला तब से ही तुम्हारे पिता तुम्हारी तुलना पड़ोसियों के बच्चों से करते थे। इसमें वह तुमसे कहते थे कि किसी बच्चे का कद तेजी से बढ़ रहा है। किसी का रंग गोरा है और कोई पढ़ने में होशियार था। कोई तुम्हारा हमउम्र गाना गाता तो कोई किसी म्युसिकल इंस्टूमेंट को बजाता बेहतर था। वहीं तुम्हारा कोई क्लास फैलो खेल में अच्छे था। जब वह खेलने जाता तो कहते पढ़ते क्यों नहीं हो, जब पढ़ता तो कहते खेलते क्यों नहीं हो। बेटा यह सब कुछ सुनकर तुम अपने प्रति पूरी तरह संशयग्रस्त हो गये तथा तुम्हारा आत्मविश्वास हिल गया था। तुम हमेशा एक अज्ञात भय रहने लगे थे। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि तुम्हारा बचपन हमेशा के लिए नष्ट हो गया। बेटा बचपन की कोई मधुर स्मृति तुम्हारे मन में नहीं है। पिता के प्रति स्नेह का बन्धन कभी बना ही नहीं। जब तुम्हारे दोस्त अपने माता - पिता, दादा - दादी और नाना - नानी की कोई सुखद यादों की तुम्हारे सामने आपस में साझा करते तो तुमको लगता कि भी मिलकर मनगढ़ंत कहानियाँ बना रहे है या फिर उनकी किस्मत अच्छी थी कि उन्हें ऐसे परिवारों में जन्म मिला।

रवि के माँ व पिता के बीच आये दिन झगड़ा होता तो वह बाहर चला जाता। उसे दोनों का झगड़ना न तो अच्छा लगता न कारण समझ आता। शुरूआत में परिवार के लोगों को झगड़ा न करने के लिए दोनों को समझाया, लेकिन रवि के माता पिता पर कोई असर नहीं हुआ। कुछ अरसे रवि आत्म केंद्रित होता गया। उसके कोई ज्यादा दोस्त नहीं थे, न वह कोई और गतिविधि में भाग लेता। इसके चलते उसकी दोस्ती किताबों से हो गई और वह खूब पढ़ने लगा। कुछ वक्त बाद किताबें रवि के अकेलेपन की सच्ची साथी बनती गई। रवि के पास पढ़ने के लिए खूब समय होता। घर में रखी धार्मिक पुस्तकें उसने पढ़ ली, जिसके बाद वह जिला पुस्तकालय का सदस्य बन गया। रवि नियमित पुस्तकालय जाता, क्योंकि उसे पढ़ने की खूब आजादी होती थी। इसके बाद यहीं से पुस्तकें उसके अकेलेपन का सहारा होती चली गयी तथा कहानियों के पात्र उसके दोस्त। वाचनालय के आखिरी कोने में रखी खिड़की के पास की बेंच उसका स्थाई अड्डा बन गया था। जब रवि पुस्तकालय की अलमारी से कोई पुस्तक निकलता तब कागज की महक उसे घेर लेती। जब उगली में थूक लगाकर पेज पलटा तब कागज का स्वाद बहुत भाता। वह किताबों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय गुजारने लगा। उम्र बढ़ने के साथ उसके लेखकों तथा विषयों का दायरा बढ़ता गया। जब वह किताब पड़ता तब उसके पात्र किताब से बाहर उसको घेर लेते और वह खुद को कहानी का हिस्सा महसूस करता। जैसे वह घटनाएं अभी उसके सामने घट रही हो। कल्पना एवं वास्तविक संसार की सीमा समाप्त हो जाती तथा उसकी चेतना कहानी के संसार में विचरण करती। वह पात्रों के दुख से दुखी व सुख से सुखी होता। यह आदत जुनून की हद तक चली गई।

कालेज के समय वह खुद अपनी कहानियां लिखने लगा। पात्रों को रचते समय उसे लगता की वह खुद सृष्टा हो। दिन ब दिन रवि पर कहानी के पात्र का व्यक्तित्व व चरित्र बढ़ता जाता वह उससे स्वतंत्र हो जाता। इस तरह के पात्र रवि के चरित्र का निर्माण खुद करने लगते। तब वह अर्धचेतन अवस्था में चला जाता। मन तथा हाथ का सम्बन्ध जुड़ जाता। विचार मन में आते और हाथ कागज पर उतारता जाता। वह केवल माध्यम ही रह जाता। यह अवस्था कभी कुछ मिनट तो कभी घंटों चलती। जब मन व हाथ का सम्बन्ध जीर्ण शीर्ण होता तो उसे फिर सोचकर लिखना पड़ता था, तब वह भाव प्रवणता नहीं रहती। इसके बाद फिर वह लिखना बंद कर देता और इंतजार करता उस अवस्था को प्राप्त करने की, जिसमें वह बिना सोचे लिख सके। जब इस अवस्था में जो लिखा जाता वह लेखन अतीन्द्रिय व अदभुत होता।

लेखन के कारण उसको अपनी कुंठाओं से बाहर निकलने में बहुत मदद मिली। उसका आत्मविश्वास लौट आया। रवि पढ़ने में बहुत होशियार था, जिससे हमेशा उसके परीक्षा में अच्छे नंबर आते रहे। स्कूल और देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में कालेज में बहुत अच्छा रिजल्ट लाता। इस कारण उसे हमेशा अच्छे संस्थानों में छात्रवृत्ति के साथ पढ़ने का मौका मिला। उसने खेलकूद, साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। इस कारण विद्यार्थियों के साथ  कालेज के स्टाफ का चहेता बन गया। वह संस्था के सभी आयोजनों में अबसे आगे रहता। समय बीतते रहा और वह अपनी पढ़ाई के अंतिम वर्ष में आ गया।

रवि की स्वच्छ छवि तथा पढ़ाई के अच्छे रिकॉर्ड के कारण जब वह कालेज के किसी कार्यक्रम में भाग लेता तो उसके साथी बड़े उत्साह के साथ उसका हौसला बढ़ाते थे। कालेज में अनेक कंपनियां प्लेसमेंट के लिए आ रही थी। रवि केवल सबसे अच्छी तीन कम्पनियों के इंटरव्यू में गया और तीनों में वह चयनित हो गया, लेकिन उसने एक अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंसल्टेशन कम्पनी में प्लेसमेंट स्वीकार कर लिया। इसके बाद रवि की पोस्टिंग वाशिंगटन में हुई। उसकी कंपनी के ऑफिस में उसकी ट्रेनिंग शुरू हुई। जब उसने नौकरी शुरू की तब शुरू के कुछ दिन बहुत कठिनाइयों भरे थे। सबसे ज्यादा परेशानी उसे अमरिकन संस्कृति को अपनाने में हुई, लेकिन रवि ने तेजी से अमेरिकन संस्कृति को अपनाना शुरू किया तथा केवल छह माह के अंदर वह भीतर तथा बाहर से अमेरिकन बन गया। ऐसी जीवन शैली की उसने कभी कल्पना नहीं की थी। 

साधू ने रवि से कहा कि बेटा कुछ ऐसे ही हालात भर्तृहरि के भी थे। रवि ने चुपचाप होकर उत्सुकता से सुनना शुरू किया। साधू ने बताया — भर्तृहरि के पिता राजा गर्दभिल्ल उज्जैन में पहली शताब्दी के आरंभ से शासन कर रहे थे, वह एक वीर राजा थे, जिनके पराक्रम से विदेशी आक्रांता भी डरते थे। भर्तृहरि अपने पिता का बड़ा बेटा था। इसलिए उसके पिता ने कुल की परंपरा के अनुसार उसके छोटे भाई विक्रमादित्य के स्थान पर राजा बनाया था जबकि न तो वह अपने छोटे भाई जितना प्रतापी, चतुर, बुद्धिमान व बलशाली था और न राजनीति में कुशल था, लेकिन उसे अपने पिता की बात मानना पड़ी। भर्तृहरि की रूचि कभी राजकाज में नहीं थी।

भर्तृहरि का मन पढ़ने लिखने में अधिक रमता था। उसने अपनी पहली रचना श्रृंगार शतक लिख ली थी। इसमें भर्तृहरि ने स्त्रियों के सौंदर्य और उनके हाव-भावों का वर्णन किया है। भर्तृहरि का रसिक स्वभाव होने के कारण वह हमेशा सुन्दर स्त्रियों से घिरे रहते जो उनके मनोरंजन के लिए तरह तरह की लीला करती। संगीत, नृत्य, नाटक, शाश्त्रार्थ, पठन पाठन तथा लेखन में राजा का मन रमता था।

साधू ने आगे बताया — महल में भोगविलास के साधनों की कमी न थी, लेकिन कभी राजा का एकांत में होने का मन करता तो वह जंगल में चला जाता था। क्षिप्रा नदी कल कल करके सालभर बहती रहती। नदी के कारण महाकाल वन बहुत सघन वन है, जिसमें कई तरह के जंगली जानवर निवास करते है। राजा को जंगल में शिविर लगाकर रहना प्रिय है, क्योंकि वह शिविर में रहकर शांति से लिखने पढ़ने का काम कर पाते थे। यदाकदा राजा भर्तृहरि शिकार करने की आदत को पूरा करते थे। हालांकि शिकार करने का कोई विशेष शौक नहीं था।

बेमन से राजा का उत्तराधिकारी बनना पड़ा था। जब लोग अपनी प्रकृति के अनुसार अपनी वृत्ति नहीं चुन पाते है तब ऐसे लोग बाहर से जितने सफल लगते है। उनके अन्दर उतना ही असंतोष का तूफान चलता रहता है जिसका अंदाज किसी को नहीं होता है, क्योंकि राजा कमजोर नहीं दिख सकता है। उसे हमेशा मजबूत, निडर, साहसी तथा उत्साह से भरा होना चाहिए। सो भर्तृहरि ने हमेशा ऐसा ही किया वह बाहर से जितने शांत दिखते अंदर उतने ही अशांत होते।

रात में जब वह अकेला होते तब यह अंदर की बैचेनी बाहर आ जाती। पिता ने बेटे की ख़ुशी के लिए उनकी पहली शादी बचपन में कर दी तथा दूसरी शादी पड़ोसी राज्य के राजा की बेटी के साथ कर दी गयी। इस शादी के पीछे भी दो पड़ोसी राज्यों के बीच शांति बनाये रखने के लिए रिश्तेदारी में बदली गई थी। इस कारण भर्तृहरि को पिता की मर्जी से शादी करना पड़ी। दो रानियों व अनेक दास दासियों के बावजूद भर्तृहरि खुश नहीं थे। मालवा प्रदेश का उज्जैन राज्य बहुत विशाल हो गया था, क्योंकि भर्तृहरि के छोटे भाई विक्रमादित्य निंरतर राज्य के विस्तार के लिए पड़ोसी राज्यों को लड़ाइयों में पराजित कर उनके राज्यों को उज्जैन में मिलाते जा रहा थे।

भर्तृहरि अक्सर बाहर ही रहते थे, राज्य के सभी कामकाज भर्तृहरि को करना होते थे। एक तो राजकाज की समस्याओं के कारण दूसरे महल के अंदर की कलह व षड़यंत्रों के कारण भर्तृहरि हमेशा परेशान व उदास रहते। उसका कोई अंतरंग मित्र भी नहीं था जिससे वह मन की बात कर अपना मन हल्का कर सके। वह अपने आपको हमेशा अकेला ही पाते। पिता तो अब थे नहीं और छोटा भाई जो उसका प्यारा, हमराज व विश्वास पात्र था, वह लड़ाइयों पर ही होता था। इस कारण वह जब भी अवसर पाते शिकार करने जाने लगे तथा अपने दूसरे ग्रन्थ नीतिशतक को लिखने की शुरुआत कर दी थी।

उज्जैन के महाकाल वन में एक दिन राजा शिकार के लिए गये थे। कई दिन शिकार के पीछे भागकर राजा थक गये थे। वह शिकार लेकर राजमहल लौटना चाहता थे। अभी सैनिकों ने शिविर से तम्बू हटाना शुरू ही किया था, तभी एकाएक भारी बारिस के कारण उन्हें जंगल में अपने तम्बू में रुकना पड़ा। पानी ऐसे गिर रहा था जैसे बदल फट पड़ा हो और अंधेरा बढ़ रहा था। राजा अपने तम्बू में आराम करने चले गये। जंगल में जंगली जानवर, झींगुर तथा मेंढ़क विचित्र आवाजें निकालने लगे, जिनके कारण जंगल बहुत डरावना लग रहा था। 

खाना खाकर राजा जल्दी सो गये। थकान के कारण राजा गहरी नींद में थे, लेकिन एक जानवर ने राजा के तम्बू की तरफ आना चाहा तो पहरेदारों ने आवाजें लगाना शुरू किया। जानवर भागते समय राजा के तम्बू से टकरा गया जिससे राजा की नींद खुल गई। जंगल रात में भी नीरव नहीं था। राजा को ऐसा लग रहा था जैसे रात में जंगल में एक अलग लोक ही जाग रहा हो। दिन में जंगल में जो आवाजें सुनाई देती है, वह आवाजें रात में सुनाई नहीं दे रही थी। रात की आवाजें अलग थीं। राजा का यह अनुभव कुछ विचित्र था। उन्हें महल से ज्यादा जंगल में शांति महसूस हो रहीं थी। पानी झरने से झरकर पत्तों से अभी भी गिर रहा था। जंगल में एक अलग मिट्टी की भीनी सुगंध आ थी, जिससे बारिश गिरना रुक गया। राजा का मन कविता कहने लगा।

दिन में जब वह दरबारियों से घिरा रहता तब उसे अपने मन की आवाजें सुनाई नहीं देती थी। कुछ समय के बाद राजा भर्तृहरि को अंधेरे में कुछ दिखने लगा था। वह सोच रहा था कि हमारी आँखें कैसे उजाले व अंधेरे में देखने की अभयस्त हो जाती है। अपने बिस्तर पर लेटकर राजा का मन धीरे - धीरे उद्विग्न हो उठा। पुरानी यादों का कारवां चल निकला। हमारा मन भी कितना विचित्र है कि सुखद यादें आसानी से भूल जाता है लेकिन दुखद यादें हमेशा याद रखता है। चाह कर भी हम कभी भूल नहीं पाते है। जैसे ही वह अकेला होते वह बेचैन हो जाते। बाहर सब शांत होता लेकिन मन में विचारों का सैलाब आ जाता। दिमाग इतना गरम हो जाता मानो अभी फट जायेगा।

जब दर्द असहनीय हो गया तब राजा पलंग छोड़कर बाहर आ गये। फिर अकेले ही जंगल के अनजान रास्ते पर मंत्रमुग्ध से निकल पड़े। चारों तरफ जुगनूं ऐसे चमक रहे थे, मानो जंगल में दीपमाला जल बुझ रही हो। असंख्य जुगनूं और मेढ़कों की कस कस टर्र - टर्र की आवाजें जब जंगली सियारों की आवाज तथा पास के गॉव से कुत्तों के रोने की आवाजें आपस में मिलकर जंगल को डरावना बना रही थी। ऊपर के धुप्प काली रात तथा पानी बरसने से भीगी मिट्टी व पेड़ जंगल को रहस्यमय बना रहे थे। पेड़ों पर सोते बन्दर यकायक उफ़...उफ़ की आवाजें निकालने लगे व एक डाल से दूसरी डाल पर कूदकर अपने साथियों को किसी अनजान खतरे से सावधान करने लगे।

रवि के मन में कौतुहल बढ़ता जा रहा था। रवि ने पूछा — बाबा दूसरी समानता क्या है ? और इसकी राजा भर्तृहरि के साथ क्या समानता है ?

 

साधू मुस्कुराते कहा —

 

बेटा तेरे मन की उत्सुकता देखकर मुझे कोई अचरज नहीं हो रहा है। इसका विवरण श्रृंगार शतक में भर्तृहरि ने वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, और शिशिर ऋतु में स्त्री के स्वभाव और स्त्री प्रसंग का भी ज़िक्र किया। शतक के मंगलाचरण में ही कामदेव  को नमस्कार करते हुये भर्तृहरि ने लिखा, जिसने विष्णु और शिव को मृग के समान नयनों वाली कामिनियों के गृहकार्य करने के लिये सतत् दास बना रखा है, जिसका वर्णन करने में वाणी असमर्थ है ऐसे चरित्रों से विचित्र प्रतीत होने वाले उस भगवान पुष्पायुध कामदेव को नमस्कार है।

भर्तृहरि बताते हैं कि स्त्री किस प्रकार मनुष्य के संसार बन्धन का कारण है मन्द मुस्कराहट से, अन्तकरण के विकाररूप भाव से, लज्जा से, आकस्मिक भय से, तिरछी दृष्टि द्वारा देखने से, बातचीत से, ईर्ष्या के कारण कलह से, लीला विलास से इस प्रकार सम्पूर्ण भावों से स्त्रियां पुरूषों के संसार-बंधन का कारण हैं। इसके उपरान्त स्त्रियों के अनेक आयुध हथियार गिनाए हैं भौंहों के उतार-चढ़ाव आदि की चतुराई, अर्द्ध-उन्मीलित नेत्रों द्वारा कटाक्ष, अत्यधिक स्निग्ध एवं मधुर वाणी, लज्जापूर्ण सुकोमल हास, विलास द्वारा मन्द-मन्द गमन और स्थित होना-ये भाव स्त्रियों के आभूषण भी हैं और आयुध हथियार भी हैं।

विभिन्न ग्रहों से स्त्रियों की तुलना कितनी आकर्षक है स्तन भार के कारण देवगुरू बृहस्पति के समान, कान्तिमान होने के कारण सूर्य के समान, चन्द्रमुखी होने के कारण चन्द्रमा के समान, और मन्द-मन्द चलने वाली अथवा शनैश्चर-स्वरूप चरणों से शोभित होने के कारण सुन्दरियां ग्रह स्वरूप ही हुआ करती है।

साधू ने कहा — तुम इस बात को कुछ यूं समझ सकते हो कि एक दिन राजा मंत्रमुग्ध हो क्षिप्रा नदी की तरफ देखते चले जा रहे थे कि पास की झाड़ी से किसी खूंखार जानवर ने यकायक राजा पर हमला कर दिया। राजा की तन्द्रा टूटी और उन्हें अहसास हुआ की वह बिना शस्त्र व सैनिकों के अकेले जंगल में आ गये थे। राजा ने पूरी ताकत लगाकर जानवर पर मुक्का मारा तो जानवर तिलमिला कर दूर जा गिरा लेकिन वह राजा के दूसरे हाथ का मांस अपने जबड़े में ले गया।  राजा के घायल हाथ से खून का फव्वारा बह निकला। राजा ने अपनी पगड़ी का वस्त्र फाड़कर कसकर कंधे के पास हाथ पर बांध दिया। इससे खून बहना कम तो हुआ पर बंद नहीं हुआ।  बूंद — बूद खून टपक रहा था। राजा के हाथ का दर्द इतना असहनीय था कि वह मन का दर्द भूल गये। उनका चित्त बिलकुल शांत हो गया। वह पानी व खून से तरबतर शिविर की और लौट रहे थे कि उसकी आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा। उन्होंने शिविर में पहुंचने के लिए अपनी चाल तेज की लेकिन राजा शिविर से कुछ दूर गिरकर मूर्च्छित हो गये।

राजा की जब मूर्च्छा दूर हो रही थी तो उसने अर्धोन्मीलित आँखों से देखा की कमरे के दरवाजे पर जल रहे दीपक की लौ मंदिम होकर बुझने जा रही थी, शायद तेल खत्म हो रहा था। तभी राजा ने देखा की एक बहुत गौरवर्ण हाथ परदे के पीछे से निकला जिसने दीपक में बहुत सावधानी से बिना आवाज किए तेल डाला और दीपक की लौ स्थिर हो गई। इसी वक्त महाराजा को सुन्दर सतरंगी कांच की चूड़ियों की छटा दीपक की लौ में दिखाई दी। हाथ सावधानी से जैसे अंदर आया था, वैसे ही सावधानी से वापस परदे के पीछे चला गया। परदे से अनायास हाथ के टकराने से चूड़ियों की खनक महाराजा के कानों में गूँज उठी। राजा के मन में एक आम आदमी की तरह यह जानने की इच्छा जाग उठी कि आखिर यह कौन है।

कुछ दिनों के बाद राजा का बुख़ार टूट गया और हाथ का घाव भी भर रहा था। जंगली जानवर के काटने की जगह कुछ मांस सड़ गया था, जिसे राज वैद्य ने काटकर अलग कर दिया था तथा पत्तों में दवा घाव पर रोज दो बार बांध रहे थे। मूर्छित होने के बाद राजा ने आँखें खोलकर देखा तो यह कमरा उन्हें राजभवन का नहीं लगा, क्योंकि राजा ने राजमहल के शयन कक्ष में जागते हुए, कमरे की छत निहारते हुए, कई रातें बिताई थी। इस कारण वह राजमहल की छत की हर चीज को पहचानते थे, लेकिन कमजोरी के कारण मुँह से अभी भी आवाज नहीं निकल पा रही थी। राजा भर्तृहरि केवल देख पा रहे थे, लेकिन चाहकर भी वह किसी को पुकार नहीं पा रहे थे। इसी वक्त कमजोरी के कारण महाराजा की आँखों में तन्द्रा छा गई और बोझिल आँखें बंद हो गई।

राजा कुछ दिन बाद पूर्ण स्वस्थ हो कर राजमहल लौट गए। इसके बाद राजा के कुछ दिन बहुत व्यस्तता के रहे। राजकाज के पुराने पड़े मामलों को निपटाकर जब राजा रात को विश्राम करने  शयन कक्ष में जाते तो नींद नहीं आती। राजा की दो रानियाँ भी उसका मन नहीं बहला पाती थी। इसलिए महाराजा को अक्सर एकांत में उस रात के दीपक की काँपती लौ में देखा सुन्दर चूड़ियों वाला हाथ दिखने लगता। राजा की रुचि यह जानने में होने लगी कि वह कौन थी? राज मर्यादा एवं पद की गरिमा के कारण वह अपने मन की बात किसी से कह भी नहीं पाते थे, लेकिन जब मन की व्याकुलता दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी तो एक दिन एकांत में उन्होंने अपने विश्वस्त सेवक से आखिरकार पूछ ही लिया। सेवक ने नज़रें नीची कर बताया कि जब महाराज को गहरा जख्म हो गया था और बरसात के कारण नदी उफान पर थी। कमजोरी के कारण उस हालत में महल लौटना जोखिम भरा होने से महामंत्री जी ने चिकित्सा का इंतजाम निकट के जागीरदार की हवेली में किया था। कुछ हालत ठीक होने पर दो दिन बाद आपको मूर्छित हालत में महल लाया गया था।

हालांकि जागीरदार जी ने अपने सबसे अच्छे वैद्य को तथा सेवा के लिए अपनी बेटी पिंगला को लगाया था, लेकिन राज वैद्य का आग्रह था कि आपका समुचित इलाज महल में ही हो सकता है तब उनके जोर देने पर आपको महल लाया गया था। राजकुमारी पिंगला का नाम सुनते ही राजा ने आँखें नीचे कर ली तो आँखों में एक रंग बिरंगी चूड़ियों वाला हाथ तैर गया।

साधू ने आगे बताना शुरू किया — राजा राजमहल से ही राजकाज किया करते थे। उनका छोटा भाई विक्रम बाहर के काम संभालता था। महाराज ने विक्रम को राज्य का महामंत्री नियुक्त किया था, क्योंकि वह राजकाज में बहुत कुशल होने के साथ साहसी, वीर, बुद्धिमान तथा पराक्रमी था। कई लड़ाइयों में वह अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन कर चुका था। राजकाज में उसकी रूचि थी।  राज्य की सीमाएँ बढ़ाने में उसे आनंद मिलता था। प्रजा के बीच वह बहुत लोकप्रिय था। जनता की कठिन से कठिन समस्या का समाधान हमेशा उसके पास होता। लोगों के झगड़े निपटना उसका प्रिय काम था। इसलिए लोग उसे न्यायप्रिय मानते थे। राजा भर्तृहरि का वह प्यारा भाई था। राजा को विक्रम पर बहुत भरोसा था। वह हमेशा उनकी बात मानते थे तथा स्वयं से ज्यादा विक्रम की सलाह पर भरोसा भी करते थे। हालांकि विक्रम उनके पिता गर्दभिल्ल की दूसरी रानी से पैदा हुआ था और राजा से उम्र में छोटा था। छोटा भाई के कारण महाराज को आराम करने का खूब समय मिल जाता था जो वह पढ़ने लिखने में लगाते थे।

राजा भर्तृहरि के दरबार में एक से एक विद्वान थे। राजा की भी भाषा पर अच्छी पकड़ थी तथा वह गद्य एवं पद्य दोनों तरह से लिख लेते थे। इसलिए राजा भर्तृहरि ने अपना दूसरा ग्रन्थ नीतिशतक पर फिर काम शुरू कर दिया था, जो घायल हो जाने के कारण रुक गया था। इसमें नीति से जुड़े श्लोक लिख रहे है। यह राजा भर्तृहरि के अपने अनुभवों और लोक व्यवहार पर आधारित श्लोक होते थे। नीति शतक में उन्होंने अज्ञानता, लोभ, धन, दुर्जनता, अहंकार जैसी चीज़ों की निंदा की है, वहीं, विद्या, सज्जनता, उदारता, स्वाभिमान, सहनशीलता, सत्य जैसे गुणों की भी तारीफ़ की है। महाराज का अधिकांश समय स्वाध्याय में ही व्यतीत होता तथा वह विद्वानों से घिरे रहते। सारा दिन विविध विषयों पर चर्चा चलती रहती। कोसो दूर से विद्वान विचार विमर्श करने आते ही रहते, लेकिन रात में जब वह अकेले होते तब अनायास ही वह हाथ उन्हें याद आ ही जाता। कई दिन इसी उहापोह में निकल गए कि किसे एवं कैसे अपनी बात कह सके।

 

चुपचाप बात सुन रहे रवि से साधू ने कहा — बेटा तुमको भी हमेशा बोलने के पहले यह सोचना होता था कि स्मिता क्या प्रतिक्रिया देगी। यह तुुम्हारे कॉलेज के दिनों की तात्कालिक भाषण प्रतियोगता जैसा होता था, जिसमें डिब्बे से एक पर्ची निकालकर कभी बिषय के पक्ष में तो कभी विपक्ष में बोलना होता था। हालांकि उन दिनों यह तुम्हारी प्रिय प्रतियोगिता होती थी, क्योंकि बोलते समय तुमको अपने मस्तिष्क के सभी ज्ञान का उपयोग पर्ची के विषय के आधार पर करता होता था। तुम इस तरह की प्रतियोगता में कभी प्रथम तो कभी द्वितीत आते थे। ऐसा शायद कभी नहीं हुआ जब तुम हार गये हो। यह सोचकर रवि को हंसी आ गई, क्योंकि उसकी क्लास में भावना नाम की लड़की थी जिससे हमेशा उसका मुकाबला होता था। कभी भावना प्रथम आती तो कभी वह। यह सिलसिला लगभग तीन साल तक चला। फिर कालेज ख़तम होते ही दोनों के रास्ते अलग दिशाओं में निकल गए। भावना से स्पर्धा करते के कारण लगाव उसकी तरफ होने लगा था, लेकिन वह कभी उससे कुछ कह नहीं सका। इस बात की कसक उसके मन में आज तक है।

बीती रात स्मिता से बहस करते वक्त उसे उसी तरह का खिंचाव महसूस हुआ तो उसने सोचना शुरू किया कि इस बार वह ऐसा मौका हाथ से जाने नहीं देगा। अपनी तरफ से एक कोशिश वह जरूर करेगा। हालांकि उसे भरोसा नहीं था कि वह कभी इतनी हिम्मत जुटा सकेगा या नहीं। अगले दिन दोनों कृषि भवन में ग्रामीण विकास मंत्रालय में गरीबों के लिए हाल ही में शुरू की गई महात्मा गाँधी रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा का गरीबों पर होने वाले प्रभावों की रिपोर्ट की समीक्षा का प्रेजेंटेशन देख रहे थे।

रात में खाने के लिए जब वह नीचे आये तब रवि ने देखा कि स्मिता अभी भी दुखी नजर आ रही है। रवि ने यह बात जान कर स्मिता को कहा कि खाना खाने के पहले क्यों न बार में चलकर  वाईन पी जाए। यह बात स्मिता को पसंद आई और दोनों बार में कोने की टेबिल पर आकर बैठ गए। बार में रौशनी बहुत कम थी और अभी लोग भी अपेच्छाकृत कम थे। बार में शोरगुल नहीं के बराबर था। स्मिता दीवाल की तरफ की कुर्सी पर बैठकर मेनू कार्ड देखने लगी। स्मिता ने रवि से पूछा  ‘कौन सी वाइन लेगा।”

रवि ने कहा “क्यों न आज सुला वाइन ट्राइ की जाए।”

स्मिता ने इस ब्रांड का नाम नहीं सुना था, तो उसने पूछा  “यह कौन सी वाइन है?”

रवि ने बताया  “यह महराष्ट्र के नासिक में राजीव सावंत द्वारा शुरू किया गया ब्राण्ड है। यह भारत में बनाने बाली सबसे अच्छी वाइन बनाते हैं।”

दोनों ने रेड वाइन का ऑर्डर किया और कुछ देर बाद वेटर ने दो गिलास व रेड वाइन की बोतल लाकर टेबिल पर रखी। जैसे ही वह बोतल खोलकर सर्व करने को हुआ स्मिता ने उसके हाथ से बोतल लेकर रवि के गिलास में वाइन डाली, फिर खुद के गिलास में वाइन लेकर उसे गिलास में घुमाने लगी। दोनों ने कम्पनी के बारे में बातें करना शुरू कर दी, लेकिन यह बातें कब अमेरिका से इण्डिया व प्रोफेशनल से पर्सनल हो गई पता ही ना चला। 

वाइन की बोतल ख़त्म हो रही थी, लेकिन बातें रोचक हो रही थी तो स्मिता ने बिना रवि से पूछे एक और बोतल का ऑर्डर किया। वह रवि की निजी ज़िंदगी के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाह रहीं थी।

स्मिता ने पूछा "तुमने शादी की क्या?"

रवि ने कहा "अभी तक तो नहीं"

जब हिम्मत कर रवि ने यहीं प्रतिप्रश्न किया तो स्मिता ने बताया कि उसने मास्टर के दिनों के साथी मार्टिन से शादी की थी। शादी के कुछ दिन बात मार्टिन को साऊथ अफ्रीका अपने पेरेन्ट के पास जाना पड़ा और वह अमेरिका में ही रुकी रही। अभी दो वर्ष पहले दोनों ने आपसी सहमति से तलाक ले लिया है। मार्टिन अब साऊथ अफ्रीका में ही रह रहा है। अब दोनों में कोई सम्पर्क भी नहीं रहा। वह तीन साल से अकेली अपने माता पिता के साथ अमेरिका में रहती है। उसका एक छोटा भाई है जो गर्लफ्रेंड के साथ अलग रहता है। 

दोनों वाइन खत्म कर खाने के लिए डायनिंग रूम में आ गये। अधिक पी लेने के कारण स्मिता को सहारा देकर रवि टेबिल तक लाया। पहली बार रवि ने स्मिता को हाथों से छूआ था, दोनों के शरीर में करंट दौड़ गया। टेबिल पर बैठकर स्मिता ने रवि की पसंद की डिश आर्डर की। जब दोनों खाना खाकर उठे तो स्मिता फिर लड़खड़ा गई तब रवि ने उसे सहारा देकर लिफ्ट से उसके कमरे तक ले गया। स्मिता ने डिजिटल चाबी से कमरा खोलने की कोशिश की, लेकिन कमरा नहीं खुला। तब रवि ने एक हाथ से उसे पकड़ा व दूसरे हाथ में उसकी चाबी लेकर कमरा खोला। उसे सहारा देकर बिस्तर तक ले गया और स्मिता को बिस्तर पर लिटाकर दिया। स्मिता लगातार अपनी कहानी बता रही थी तो रवि बिस्तर के पास कुर्सी पर बैठ गया। बातें करते हुए स्मिता बिस्तर पर और रवि कुर्सी पर सो गए। सुबह जब स्मिता उठी तो उसे रात की कुछ बातें ही याद आ रही थी। रवि को उसने जगाया तो रवि माफ़ी मांगता हुआ अपने कमरे में चला गया, जो स्मिता के कमरे के सामने ही था।

व्यक्ति का जीवन कितना जटिल है। इसमें अनेक परते है और हर परत पर कुछ न कुछ घटता रहता है। व्यक्ति ऊपर से जैसा दिखता है और अंदर से वैसा नहीं होता। अगर आप किसी के साथ रह रहे है तो भी आप उसके बारे में बहुत काम जान पाते है। कभी - कभी तो हम अपने साथ ही कितने अजनबी होते है पता नहीं चलता। अभी तक ऐसा कोई यन्त्र नहीं बना जो व्यक्ति के दिमाग के विभिन्न खंडों पर घटने बाली बातों का पता लगा सके। रवि व स्मिता के साथ भी यही हो रहा था, क्योंकि इण्डिया से अमेरिका लौटकर दोनों लिव इन रिलेशन में एक साथ रहने लगे थे। स्मिता अपने माता पिता के आपर्टमेंट को छोड़कर रवि के अपार्टमेंट में रहने आ गई थी। यहां दो कमरे थे एक रवि का और दूसरा स्मिता का। किचिन, ड्राइंग कॉमन रूम थे। दोनों ने तय किया कि घर खर्च व आधा - आधा बाँट लेंगे। दोनों ने अपने संबन्धों की जानकारी कंपनी में दे दी थी, क्योंकि कंपनी की पॉलिसी के तहत यह जरुरी था। 

दिन गुजरते गए और दोनों एक दूसरे के अनछुए पहलूओं से परिचित होने लगे। दोनों को लगने लगा कि वे कितना भिन्न सोच रखते है। कितना भिन्न महसूस करते है तथा एक ही घटना पर कितनी भिन्न प्रतिकिया देते है। शुरू में सब कुछ बहुत रोमांटिक था, एक कहता तो दूसरा मान लेता था। लेकिन कुछ अंतराल के बाद मत मतान्तर, पसंद नापसंद सामने आने लगी। रवि धीरे - धीरे अपने ऑफिस के कामों में ज्यादा व्यस्त होकर वक्त बिताने लगा। स्मिता भी घर से ज्यादा बाहर दोस्तों के साथ समय बिताती। अब दोनों कभी कभार केवल रात का खाना साथ खाते थे। कभी - कभी तो कौन सा खाना आर्डर करना, इसी बात पर बहस हो जाती। अंत में दोनों को लगने लगा था कि इस सम्बन्ध का अब और कुछ नहीं हो सकता। इसे आगे बढ़ाने या अगले स्तर पर ले जाने का कोई औचित्य नहीं बचा था। इस कारण दोनों ने निश्चय किया कि दोनों फिर अलग - अगल रहेंगे। स्मिता अपना सामान लेकर अपने माँ पिताजी के पास चली गई, लेकिन उसका कुछ सामान अभी भी रवि के अपार्टमेंट में रह गया था। वह कभी - कभी फ़ोन कर कुछ सामान लेने आती थी, लेकिन दोनों का व्यवहार एक दूसरे के प्रति इतना ठंडा हो गया था कि ऐसा लगता कि जैसे वे कभी मिले ही न हो। आमना सामना होने पर वे एक दूसरे को उपेच्छा के भाव से ही देखते थे। यह व्यवहार जानबूझ कर नहीं किया जा रहा था, बल्कि यह स्वाभाविक व्यवहार हो गया था। 

रवि को स्मिता का व्यवहार कई दफा बहुत परेशान कर देता था। ब्रेकअप के बाद उसे एक ही ऑफिस में काम करना अच्छा नहीं लगता था। रवि अपने रिलेशनशिप को समझने की बहुत कोशिश करता। हमेशा से वह एक सामान्य ढंग से जीवन जीना चाहता था। वह जब देखता कि स्मिता ऑफिस के दूसरे लड़कों से हँस कर बातें कर रही है या उनके साथ बाहर जाती तो उसके बर्दास्त से बाहर हो जाता। उसे हमेशा अपनी नाकामी का अहसास होता कि वह एक रिश्ता ठीक से सम्हाल नहीं सका। यह रिजेक्शन उसके आत्मविश्वास को बहुत ठेस पहुँचता था। उसे हमेशा लगता की ऑफिस के लोग उसके बारे में ही बातें करते रहे है। यदि दो लोग आपस में हँस रहे होते तो उसे लगता जैसे वे उस पर ही हँस रहे है। इस हीन भावना से बाहर आने में उसे कई दिन लग जाते। इसका असर उसकी सेहत तथा काम पर बहुत बुरी तरह हो रहा था। कुछ ही दिनों में रवि अवसादग्रस्त होने लगा था। रवि को रात भर नींद नहीं आती और वह स्मिता के साथ बिताए दिन भूल ही नहीं पाता। इस घर की हर सामान के साथ उसकी यादें जुड़ी है। दोनों ने उसके पसंद से ही अधिकांश चीजें खरीदी थी। जितना वह भूलने की कोशिश करता, उतना उन यादों के भंवर में फंसता चला जाता। रवि आफिस के किसी भी काम पर ध्यान नहीं दे पा रहा था। उसे हर बात में अपनी दिखाई देने लगती थी और वह खुद को कोसता रहता। इस कारण रवि का परफॉर्मेंस घटता गया और वह खूब छुट्टियां लेने लगा।

संकल्प विकल्पों के बाद एक दिन राजा ने निश्चय किया की वह जागीरदार के यहाँ खुद जाकर अपना आभार प्रकट करेंगे। राजा ने अपने संदेश वाहक से खबर भेजी की राजा कृतज्ञता ज्ञापित करने आना चाहते है। जागीरदार ने राजा के स्वागत की खूब तैयारी की। तैयारियों की जिम्मेदारी खुद पिंगला ने सम्हाल रखी थी। पिंगला तीक्ष्ण बुद्धिवाली विदुषी महिला थी और उसके पिता ने उसे सभी कलाओं में पारंगत करवाया था। वह शस्त्र संचालन में निपुण थी तो सुन्दर कवितायेँ भी लिखती थी। राजकाज तथा राजनीति की समझ रखती थी। वह किसी भी विषय पर बेझीझक अपने विचार रख सकती थी। जागीरदार ने अपनी बेटी को बहुत कुशलता के साथ बड़ा किया था, क्योंकि यही उसकी एकमात्र संतान थी। इसलिए इसकी शिक्षा दीक्षा बहुत अच्छे से हुई थी।

नियत दिन महाराज मय सैन्यदल के पधारे। खूब स्वागत सत्कार हुआ, नाच गाना, खाना, पीना पिलाना चल रहा था। उत्सव अपने चरम पर था, लेकिन राजा की नजर पिंगला पर ही टिकी रही। इस दिन पिंगला ने खुद का सम्पूर्ण शृंगार किया था। पिंगला ने अपनी सबसे सुन्दर चंदेरी की साड़ी पहनी थी, जो इतनी झीनी थी कि शरीर को ढकती कम और दिखती ज्यादा थी। वह इतनी खूबसूरत लग रही थी की मानो रति ही धरती पर उतर आई हो। पिंगला की माँ ने समारोह में आने के पहले उसकी नजर उतरी थी। माथे पर आगे के बालों के पास काजल का टीका लगाया था।

राजा भी कई दिनों के बाद बन ठन कर समारोह में आये थे। राजा ने भी धोती कुर्ता तथा उस पर अचकन पहना हुआ था। साथ ही मालवा की रंग बिरंगी पगड़ी बांधी थी, जो भैरूगढ़ में खास मौकों के लिए ही बनी थी। उनकी बलशाली बाहें बहुत सुन्दर लग रही थी। पिंगला जब कनखियों से राजा को देखती तब वह राजा को अपनी ओर देखती पाती। राजा रंग बिरंगी चूड़ियों से भरे हाथ देख रहे थे। जब उन दोनों की नजरें मिलती तो पिंगला शरमाकर अपनी नजर नीची कर लेती। जब तब वह अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करती तो चूड़ियाँ बज उठती। यह आँख मट्टके का खेल पूरे समारोह के दौरान चलता रहा।

जागीरदार पूरे समय मेहमानों की खातिरदारी में लगा था। पिंगला ऐसी नजरें अच्छे से पहचानती थी। यह प्रकृति का औरत को दिया उपहार है। शर्म के मारे पिंगला की नजरें नहीं उठ रही थी पर वह महाराज को देखना भी चाहती थी तो अपने मन से भी मजबूर थी। इसी दुविधा में समारोह कब खत्म हो गया पता ही नहीं चला। मानो समय रुक गया हो अभी शुरू हुआ और अभी खत्म भी हो गया।

महाराज को बरबस शृंगारशतकम् का श्लोक याद आ गया जिसमें उन्होंने लिखा था कि सबसे उत्तम क्या है? वे  गिनाते हैं- इस संसार में नव-यौवनावस्था के समय रसिकों को दर्शनीय वस्तुओं में उत्तम क्या है? मृगनयनी का प्रेम से प्रसन्न मुख। सूंघने योग्य वस्तुओं में क्या उत्तम है? उसके मुख का सुगन्धित पवन। श्रवण योग्य वस्तुओं में उत्तम क्या है? स्त्रियों के मधुर वचन। स्वादिष्ट वस्तुओं में उत्तम क्या है? स्त्रियों के पल्लव के समान अधर का मधुर रस। स्पर्श योग्य वस्तुओं में उत्तम क्या है? उसका कुसुम-सुकुमार कोमल शरीर। ध्यान करने योग्य उत्तम वस्तु क्या है? सदा विलासिनियों का यौवन विलास। हालांकि राजा भर्तृहरि की यौवन अवस्था अभी गई नहीं थी। फिर भी राजा अपनी एवं पिंगला की उम्र का अंतर वह पूरी तरह से भूल गये थे और नवयुवक की तरह व्यवहार कर रहे थे। पिंगला के रूप का जादू राजा के सर चढ़कर बोल रहा था। वह पूरी तरह अशक्त थे। उन पर कामदेव ने अपना अधिकार कर लिया था।

राजा तीन दिन जागीरदार के यहाँ रुके और पिंगला ने पूरी श्रद्धा और समर्पण से राजा की सेवा की। प्रस्थान के एक दिन पहले रात के खाने के बाद महाराज ने जागीरदार को अपने कमरे में बुलवाया। बहुत सोच विचार कर उन्होंने अपने मन में निश्चय किया कि जाने के पहले वह अपने मन की बात कहकर ही जाना चाहेंगे। राजा को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। जागीरदार तत्काल राजा के सामने उपस्थित हुए। महाराज ने अपने सामने तख्त पर बैठने का इशारा किया, लेकिन जागीरदार हाथ जोड़कर नजरें नीचे किये खड़े रहे। राजा ने एक लम्बी सांस लेकर अपने मन की बात कहने का साहस किया।

महाराज बोले — पिछले दिनों उनकी देखभाल कर जान बचाने के लिए वह उनके आभारी है। वह पिंगला की सेवा से खुश होकर बदले में उनकी पुत्री के विवाह कर ऋण चुकाना चाहते है, बशर्ते पिंगला इस के लिए राजी हो तो!

जागीरदार को तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। उसने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि उनकी पुत्री इतनी भाग्यशाली होगी, लेकिन जागीरदार ने महाराज से कुछ समय चाहा। फिर वह तेज कदमों से अपने शयनकक्ष में अपनी पत्नी के पास जाकर उसे यह खबर सुनाई। उनकी पत्नी महाराज की उम्र तथा पूर्व से दो पत्नियाँ होने के कारण कुछ कहना चाह रही थी, लेकिन जागीरदार ने उतावलेपन से कहा कि इस शुभ घड़ी में कुछ मत कहो, यह हमारी बेटी के सौभाग्य की बात है कि महाराज ने खुद यह प्रस्ताव किया है।

फिर पिंगला की मां ने कहा  "एक बार बेटी की राय भी तो जान लो।"

इसके बाद जागीदार ने पिंगला को बुला भेजा, लेकिन पिंगला की सेविका उसे पहले ही यह बात बता चुकी थी। पिंगला के आने पर माँ ने प्यार से उसका हाथ पकड़कर उसकी राय जाननी चाही। इस पर पिंगला ने अपनी आँखें नीची झुकाकर अपनी सहमति दे दी। शुभ मुहूर्त में धूमधाम से राजा का विवाह सम्पन्न हुआ। दुल्हन बन पिंगला राजभवन क्या आई उसकी महत्वकांछा आसमान छूने लगी। पिंगला महाराज के मन की बात जानकर हर इच्छा बिना कहे ही पूरी करती। कोशिश करती कि महाराज हमेशा उसके पास रहे।

महाराज भी राजकाज अपने भाई पर छोड़ पूरे समय पिंगला के कक्ष में बिताते। समय बीतता गया पिंगला के मन में असुरक्षा का डर समा गया कि यदि उम्र ढलने के कारण सुन्दर ना रही तो महाराज की उसमें रूचि कम हो जाएगी और वह एक और शादी कर लेंगे। पहले भी वह ऐसा कर चुके थे। दूसरी ओर महाराज की उम्र बढ़ रहीं थीं और पिंगला की शारीरिक जरूरतें पूरी करने में कमजोर पड़ जाते थे। पिंगला उनकी आखिर तीसरी पत्नी थी और उन्हें अपनी पूर्व की दोनों पत्नियों को भी समय देना होता था। पिंगला हालांकि महाराज से उम्र में आधी ही थी, लेकिन वह बहुत बुद्धिमान थी। पिंगला अब तक यह भी जान गई थी कि महाराज अपना राजकाज अपने छोटे भाई विक्रम के कहने पर चलाते हैं। महाराज राजकाज में विक्रम की बातों को तवज्जो देते थे और इस मामले पर वह पिंगला की सलाह नहीं मानते थे। इन बातों तथा राजमहल की आंतरिक कलह के कारण उस में असुरक्षा निरंतर बढ़ रहीं थीं। दूसरी दोनों रानियाँ राजाओं की बेटियां थीं तथा राजमहल में उनके पास उनके मायके से आये सेवक थे, जबकि पिंगला के पिता जागीरदार थे। यह सभी बातें पिंगला को बहुत सालती थीं और रानी के चाटुकार हमेशा उसे राजकाज में हस्तक्षेप करने के लिए उकसाते रहते थे।

महाराज के पास चिन्ताएँ अपार थी। राज परिवार में अधिकार, पद तथा सुविधाओं को लेकर षड़यंत्र चलते रहते थे। हालांकि भौतिक सुविधाओं की कमी न थी, लेकिन मन का क्या करें वह भरता ही नहीं। महाराज अपने भाई विक्रम की मदद से राजकाज व सीमाओं की चिन्ताएँ तो सुलझा लेते थे, लेकिन परिवार की समस्याओं का समाधान तो महाराज को ही करना होता था। यह समस्याएं भौतिक कम और मनोवैज्ञानिक तथा भावनात्मक अधिक होती थीं, जिनका कोई सीधा हल नहीं होता था। इस कारण महाराज कई दिनों तक मानसिक परेशानी में गुजारते थे।

असुरक्षा तथा असंतुष्टि के कारण पिंगला की निकटता राजमहल के कोतवाल के साथ बढ़ती जा रहीं थीं, क्योंकि वह अपेक्षाकृत युवा था और युवा रानी की हर बात मानने को तैयार रहता। हालांकि पिंगला महाराज की प्रिय तथा प्रधान रानी थी और वह अपना अधिकांश समय उसी के साथ बिताते थे, लेकिन पिंगला समय निकाल कर अपने प्रिय कोतवाल से अकेले में मिल लेती थीं। पिंगला महाराज के मनोरंजन के लिए कई तरह के समारोह आयोजित करती थीं। इन समारोह में महाराज के मनोरंजन के लिए कलाकार, विदूषक, गायक एवं नर्तक होते थे।

महाराज को अपने विद्वानों की गोष्ठियों की कमी हमेशा खलती थी और वह नीतिशतकम् का नियमित लेखन भी नहीं कर पाते थे। शिकार पर जाना लगभग बंद सा ही था। इन सब व्यस्तताओं के कारण महाराज राजकाज से भी विमुख से हो गए थे। कई दफा विक्रम के आग्रह के कारण किसी सभा में जाते थे। महाराज की यह विमुखता जनता के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी, क्योंकि विक्रम ही जनता का ख्याल रखते थे। राजा राजकाज से विमुख हो तो दरबारियों में कई तरह की कानाफूसी होनी शुरू हो जाती है। इसका सीधा असर राजमहल में भी पड़ने लगा था। कुछ अरसे के बाद यह बात महल की दीवारों के बाहर चली गई। जब किसी बात की आधिकारिक जानकारी न हो तब लोग कई तरह के कयास लगाने लगते है। पिंगला और कोतवाल की निकटता भी राजमहल के सेवकों से छिपी न रह सकी। महाराज से तो किसी के कहने की हिम्मत न हुई, क्योंकि वह पिंगला के कक्ष से कम ही बाहर आते। कुछ दिनों के भीतर ही विक्रम तक कोतवाल और पिंगला के प्रेम प्रसंग की बात पहुंच ही गई।

एक दिन रात्रि में विक्रम के एक दासी के इशारे पर रानी का पीछा किया। वह कोतवाल से मिलने अंधेरे में राजमहल के घोड़े के अस्तबल में गई थीं। हालांकि विक्रम पूर्ण सावधानी से पीछा कर रहा था, लेकिन अस्तबल में निकट आने पर विक्रम का प्रिय घोड़ा हिनहिना उठा। पिंगला जल्दी से अपने कपड़े ठीक करती अंदर भागी, लेकिन वह जान गई की विक्रम ने उसे देख लिया है। हड़बड़ी में भागते उसका पांव उसकी साड़ी में फंस गया वह गिर गई, लेकिन बदहवास कमरे में में आई तभी महाराज की नींद खुल गई और पिंगला की ऐसी हालत देखकर उन्होंने पूछा क्या हुआ रानी पिंगला। हड़बड़ी में रानी ने आँखों में आंसू भर कर अचानक अपनी लाचारगी दिखाते हुए कहा कि उनके छोटे भाई के कारण उसकी यह हालत हुई है।

पहले तो महाराज को अपने कानों पर भरोसा न हुआ, लेकिन त्रिया चरित्र के कारण सत्य हार गया। पिंगला ने बोलने पहले सोचा था कि यदि वह विक्रम का नाम नहीं लेगी तो विक्रम सुबह कोतवाल और उसके मिलने की बात महाराज को बता देगा। तब वह न घर की रहेगी न घाट की। महाराज के मन से विक्रम को गिराने के लिए उसके मन में हमेशा विचार आते रहते थे, लेकिन वह कहने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाती। इसलिए अचानक इस मौके को अपने पक्ष में करने पिंगला में ना जाने कहाँ से इतनी हिम्मत आ गई और अचेतन मन की बात संकट की घड़ी में उसकी संकटमोचन बन गई।

रात भर महाराज ठीक तरह से सो न सके। कई प्रकार के विचार उनके मन में हलचल मचा रहे थे, लेकिन उनके पास इतनी हिम्मत न थी कि वह विक्रम से कुछ कह सके। सुबह होते ही महाराज ने विक्रम को बुलावा भेजा। वहीं दूसरी तरफ विक्रम भी रात भर सोया नहीं था। उसके मन में हलचल थीं कि वह अपनी माँ समान भाभी के संबंध में यह बात राजा से कैसे कहे। कई तरह के विचार मन में उमड़ घुमड़ रहे थे, लेकिन उसे अपने भाई की सुरक्षा की चिन्ता भी थी। इस कारण दिमाग को नियंत्रण करते हुए सारी बात बताना ही उचित समझा। विक्रम महाराज के कक्ष में पहुंचा और कक्ष में दोनों भाई अकेले थे तो विक्रम ने पूरी बात बता दी, लेकिन रात में पिंगला ने यहीं कहा था कि देखना विक्रम अपना दोष छिपाने के लिए कोतवाल का नाम लेगा और हुआ भी ऐसा। इससे पिंगला की बात सही निकलने के कारण महाराज ने विक्रम की बात का भरोसा न कर उसे पश्चिम की दूर सीमाओं की सुरक्षा के लिए तत्काल जाने को कहा। विक्रम आज्ञाकारी भाई था उसके जान लिया की भाई अभी भाभी के प्यार में अंधा है, इसलिए वह बिना सफाई दिए राजाज्ञा का पालन करने अपने साथियों के साथ तत्काल चला गया।

इधर पिंगला की हिम्मत बहुत बढ़ गई उसने महाराज से मिलने जुलने वालों का आना जाना बंद कर दिया। अब वह कोतवाल से जीतनी बार चाहती मिल लेती थी। कोई रोकने टोकने वाला नहीं था। राजमहल में कोतवाल ने केवल अपने विश्वास पात्र सैनिकों को तैनात कर दिया था।

विक्रम के ना रहने से जनता की परेशानियां बढ़ती जा रही थीं। महाराज की हालत से दुखी उनकी पहली रानी क्षिप्रा के उस पार के साधु के आश्रम गई तथा चुपचाप मदद की गुहार लगाई।

एक दिन अचानक राजमहल के दरवाजे पर एक तेजस्वी साधु ने अलख निरंजन का उद्घोष किया। द्वारपालों ने साधु को जाने का कहा, लेकिन वह अलख निरंजन का उद्घोष करता रहा। तीनों रानियाँ बाहर आकर साधु को सत्कारपूर्वक राजमहल में लेकर गई। साधु की लाल बड़ी आँखें बाहर निकल रही थीं, जो गुस्से से भरी थीं। साधु के कानों में बड़े कुण्डल लटक रहे थे। मस्तिष्क पर जटा जूट बाधा था। हाथों में कमण्डल, त्रिशूल तथा कन्धे पर एक बड़ी छोली लटक रही थीं।

राजा के अंगरक्षकों ने साधु को बहुत टाला, लेकिन वह महाराज से मिलने की जिद पर अड़ा रहा। योग हट देखकर महाराज को दरबार में हारकर आना ही पड़ा। साधु महाराज की दशा देख कर व्यथित हो उठा। उसने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि वह महाराज को इस दलदल से बाहर निकालेगा। साधु ने महाराज को उपदेश दिया और राजकाज में रूचि लेने को कहा, लेकिन महाराज में कोई उत्साह नजर न आने पर उनके वंश के पूर्व राजाओं की गाथाएं सुनाई। इसके बाद भी महाराज जैसे थे वैसे ही बने रहे और उनकी मुखमुद्रा तनिक भी न बदली। तब साधु ने महाराज को मृत्यु का भय बताया, लेकिन इसका भी ज्यादा असर नहीं हुआ। 

इसके बाद साधु ने महाराज को अपनी झोली से एक अद्भुत लाल फल निकालकर देते हुए कहा कि यदि तुम यह फल खा लोगे तो तुम सदा के लिए जवान व बलवान बने रहोगे। महाराज ने वह फल प्रसाद जानकर श्रृद्धापूर्वक ले लिया। साधु ने महाराज को आशीर्वाद दिया और फिर साधु बिना कुछ कहे बिना कुछ लिए यकायक उठा और अलख निरंजन की टेर लगाता हुआ राजमहल से निकल गया।

महाराज वह अद्भुत फल लेकर अपने शयनकक्ष में पिंगला के पास आकर सोचा कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है। चूंकि महाराज अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे  तो उन्होंने सोचा कि यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी। यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया। पिंगला फल लेकर चली गई। बात आई गई हो गई, जीवन फिर पुराने ढर्रे पर चलने लगा।

रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। यह बात राजा नहीं जानते थे। जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा। रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया। वह कोतवाल एक नगरवधू से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया, ताकि नगरवधू सदैव जवान और सुंदर बनी रहे। नगरवधू ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। उसे इस नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी।

बहुत समय बाद महाराज को एक दिन अचानक लगा की दरबार लगाया जाए, तो नियत समय पर महाराज का दरबार सजाया गया। जब यह बात जनता में फैली तो बहुत सारे लोग अपनी फर्याद लेकर दरबार में उपस्थित हुए। भीड़ बहुत थी लोग लाइन से आते अपनी बात महाराज को बताते, महाराज समस्या का समाधान देते और लोग आगे बढ़ जाते। कुछ लोग महाराज को उपहार देते। सम्मान में झुकते और आगे बढ़ जाते। नगरवधू यह सोचकर चमत्कारी फल लेकर राज दरबार में गई कि यदि उसका राजा यह फल खायेगा तो अधिक समय तक प्रजा की सेवा कर पायेगा। लाइन से महिला महाराज के सामने आई और महिला ने महाराज को प्रणाम कर उपहार में एक फल भेंट किया। महाराज वह अद्भुत फल देखकर चौंक गए। 

महाराज वह फल देखकर हतप्रभ रह गए। वह फल उसे जाना पहचाना लगा। महाराज ने इशारा किया तो सैनिकों ने उसे एक कमरे में चलने का आग्रह किया। महाराज दरबार के महामत्री ने दरबार समाप्त करने की घोषणा कर दी। महाराज राजमहल के कमरे में आये और महिला से पूछा कि यह फल उसे कहा से प्राप्त हुआ तथा वह कौन है? महिला ने नीची नजरें करके बताया की राजमहल के कोतवाल उससे मिलने आते है और वह नगरवधू है और यह फल उसे कोतवाल ने दिया था। मैंने सोचा कि मेरे महाराज दयालु, जनप्रिय तथा प्रतापी है। इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेंगे तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देते रहेंगे, इसी कारण में इस फल को आपको भेंट करने लाई थीं। महाराज ने उस महिला को जाने दिया।

महाराज ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। कोतवाल को वह फल दिखाया तो कोतवाल की घिंघि बंध गई। उसे अपनी आसान मृत्यु दिखाई देने लगी, क्योंकि पूरी दुनिया में वह एक ही फल था। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने निराशा के भाव व टूटती आवाज में बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया था। महाराज में रानी से नहीं मिलना चाहता था। मैं उन्हें प्यार नहीं करता, लेकिन जब वह बुलाती तो अपनी जान की रक्षा के कारण मजबुरी में मुझे जाना पड़ता था। मैं तो उस नगरवधु से प्यार करता हूँ। कोतवाल की बातों मैं सचाई दे कर महाराजा ने उसे जाने दिया।

फल लेकर महाराज पिंगला के कमरे में आये। पिंगला को फल दिखाए बिना उन्होंने उससे पूछा की मैंने तुम्हें साधु द्वारा दिया गया फल खाने को दिया था, तुमने उस का क्या किया ? पिंगला ने बहुत आत्मविश्वास से कहा कि वह तो मैंने उसी दिन खा लिया था। तब महाराज ने अपनी जेब से वह फल निकाल कर उसको दिखाया तो वह उसे तुरंत पहचान गई, लेकिन जब महाराज ने सख्ती से पूछा तो वह टूट गई और रोने लगी। महाराज तेजी से गुस्से में उसके कमरे से निकल गए। इसके बाद राजा भर्तृहरि को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गये कि पिंगला उसे धोखा दे रही है। महाराज की आँखों के सामने वह सतरंगी चूड़ियों वाला हाथ घूम गया। मानस पटल पर पिंगला की राजनीति उभर रही थी कि कैसे उसने उसके परिवार से उसे अलग कर दिया। कैसे विक्रम की बात पर भरोसा न कर उसे राजमहल से जाने का हुकुम दिया। वह यह स्वप्न में भी नहीं सोच पा रहे थे।

क्रोध, ग्लानि व पश्चाताप की आग में वह जल रहा था। नीतिशतकम् के एक श्लोक में राजा भर्तृहरि ने लिखा ‘जिस स्त्री का मैं अहो-रात्र चिन्तन करता हूँ, वह मुझसे विमुख है। वह भी दूसरे पुरुष को चाहती है। उसका अभीष्ट वह पुरुष भी किसी अन्य स्त्री पर आसक्त है तथा मेरे लिये कोई अन्य स्त्री अनुरक्त है। अतः उस स्त्री को, उस पुरुष को, कामदेव को, मेरे में अनुरक्त इसका मुझे धिक्कार है।’ इसलिए महाराज को नींद नहीं आ रही थीं। इसी दिन महाराज ने नीतिशतकम् पूरा कर लिया था। राजा इतने विचलित थे जितने इस रात से पहले वह कभी नहीं रहे। राजमहल, राजपाट, रानी, पटरानी, परिवार से तीव्र वेदना के साथ विरक्ति बढ़ती जा रही थीं। उसने कई बार जीवन में ऐसे भावों का सामना किया था, लेकिन वह विरक्त नहीं हो पाता था। पिंगला का धोखा इतने गहरे लगा था कि इस घाव ने उसकी अंतरात्मा को हिलाकर रख दिया था। 

राजा भर्तृहरि ने बिना देर किये विक्रम को वापस बुला लिया। विक्रम तीन दिन चलकर रात में उज्जैन पहुंचा। भर्तृहरि ने रात में ही राजपुरोहित को बुलाया, दरबारियों को बुलाया तथा उसका मन पलटे उसके पहले उसने अपने प्रिय भाई को राजपाट सौंपकर उसका अपने हाथों से राज्याभिषेक किया। राजपुरोहितों ने स्वास्तिक मंत्रोच्चार कर उसके सिर पर राजमुकुट पहनाया तथा गद्दी पर बैठाया।

 

रवि ने आगे पूछा बाबा तीसरी और अंतिम समानता क्या है —

 

साधू ने गंभीरता के साथ बताया शुरू किया — बेटा तुमको पता है या ना जब तुम अमेरिका से लौटकर वापस भारत आये थे, तब अमन के स्टार्टअप को कहीं से फंडिंग भी नहीं मिली थी और वह बूटस्ट्रैप ही कर रहा था। अमन ने फिर उसे ज़ूम काल किया था। रवि वीक एंड होने से घर पर अकेला ही था। वह कही बाहर घूमने नहीं जाता था। अमन ने रवि को बहुत डिप्रेशेड देखा। वह बहुत बीमार लग रहा था। दाढ़ी बड़ी हुई थी, बाल बिखरे थे। कपड़े भी गंदे थे, शायद कल से कुछ न खाने से उसकी आवाज बहुत सुस्त लग रही थी। अमन ​को स्मिता की कहानी पता थी। रवि उससे लगभग हर बात शेयर करता था। अमन ने उसे फिर से खूब समझाया था, “जिस तरह वह ऑफिस के कामों को ठीक से नहीं कर पा रहा है तो आज नहीं तो कल कम्पनी उसको टर्मिनेट कर देगी। टर्मिनेशन के बाद यदि वह स्टार्टअप ज्वाइन करेगा तो उन्हें फण्डिंग मिलने में बहुत दिक्कत होगी। यदि वह अभी रिजाइन कर स्टार्टअप करने इण्डिया आता है तो उसकी वैल्यू बहुत होगी, जो आगे चलकर फण्डिंग उठाने में मददगार होगी। अमन अपनी वेंचर फण्ड की नौकरी छोड़कर ही स्टार्टअप शुरू किया था। इसलिए उसे पता था कि फण्डिंग कैसे मिलती है तथा किसको मिलती है?”

अमन ने एक सोशल वेंचर स्टार्टअप ही शुरू किया था और वह जानता था कि यदि रवि अपनी कंसल्टेंट की जॉब छोड़कर उसके स्टार्टअप को ज्वाइन करता है तो उसका अनुभव बहुत काम का होगा। रवि ग्रामीण विकास में गॉव, गरीब, रोजगार पर ही काम कर रहा था। अमन व रवि जब मैनेजमेंट कॉलेज में साथ थे तो वे इसी सेक्टर के प्रोजेक्ट किया करते थे। दोनों की रुचियाँ लगभग एक जैसी ही थी। वे हॉस्टल में साथ ही रहते थे। तभी दोनों ने निश्चय किया था कि दोनों प्लेसमेंट से नौकरी लेकर कुछ साल एजुकेशन लोन चुकाने के लिए काम करेंगे, फिर अपना स्टार्टअप शुरू करेंगे। इसके बाद रवि अमेरिका की एक कम्पनी में कंसल्टेंट ज्वाइन किया था तथा अमन ने अमेरिका की ही वेंचर फर्म में इन्वेस्टमेंट मैनेजर के पद पर ज्वाइन किया था, जो इम्पैक्ट फण्डिंग का काम बैंगलोर से करती थी। अब अपने प्रॉमिस को पूरा करने का समय आ गया था। रवि अमन के तर्कों से सहमत था। उसने साथ काम करने का निर्णय कर लिया। वह रिजाइन कर बैंगलोर आ गया।

दोनों ने सोशल वेंचर स्टार्टअप करने का ही निश्चय किया था, लेकिन उन्हें बहुत स्पष्ट आइडिया नहीं था। गॉव, गरीबी व बेरोजगारी की समस्या तो पता थी, लेकिन यह पता था कि शुरू कहाँ से कैसे करना है? कालेज में प्रोजेक्ट करते करते दोनों को यह पता था की गॉव की समस्याओं पर यदि काम करना है तो खेती में अपार समस्याएं है। दोनों ने एग्रीकल्चर सेक्टर पर बहुत रिसर्च कर खूब डेटा इकट्ठा करना शुरू किया था। रवि अमन के साथ ही रह रहा था ताकि दोनों स्टार्टअप की रणनीति के साथ डिस्कशन कर बना सके। इण्डिया के एग्रीकल्चर सेक्टर के डेटा से उन्हें पता चला की मध्यप्रदेश देश के अन्य राज्यों की तुलना में अधिक तेजी से विकास कर रहा है। यहाँ की कृषि विकास दर विगत वर्षो में बीस प्रतिशत ईयर ऑन ईयर है। इस राज्य को भारत सरकार द्वारा कृषि कर्मण अवार्ड भी निरंतर दिया जा रहा है, तो दोनों ने मध्यप्रदेश से अपना काम शुरू करने का निश्चय किया और वे बैंगलोर छोड़कर इंदौर आ गए। इंदौर शहर देश का सबसे स्वच्छ शहर है तथा यह मध्य प्रदेश का व्यापारिक शहर भी है। एग्रीकल्चर सेक्टर की सभी कंपनियों के कार्यालय इंदौर में ही स्थित है। हालांकि दोनों के लिए इंदौर शहर नया नहीं था, दोनों ने आईआईएम इंदौर से ही अपना एमबीए पूरा किया था, तब दोनों हॉस्टल के एक ही कमरे में रहते थे। उन दिनों कैम्पस नया बन रहा था तो कॉलेज ने सिल्वर स्प्रिंग्स फेज वन में फ्लैट किराये पर लेकर स्टुडेंट्स को वहां रखा था। कॉलेज लाने ले जाने के लिए बस भेजता था। इसलिए इंदौर के कुछ लोगों से उनका परिचय भी था। 

हालांकि ग्रामीण क्षेत्र की हर समस्या दोनों को स्टार्टअप शुरू करने के लिए उपयुक्त लगी, लेकिन जब दोनों बजट, प्रोजेक्शन, प्रॉफिट व लॉस के गणना कर बैलेंस शीट बनाते प्रोजेक्ट घाटे में चला जाता। ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या दूर निवास करती तथा एक जगह से दूसरी जगह की दूरी बहुत ज्यादा है। इसी कारण ज्यादातर स्टार्टअप्स शहरी समस्याओं पर काम करते हैं, क्योंकि वहां जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। दूसरा कारण टेक्नोलॉजी का एडॉप्शन शहरी क्षेत्रों में ज्यादा है तथा लॉजिस्टिक के लिए सुविधाएँ आसानी से उपलब्ध है। इस कारण दोनों ने निश्चय किया कि वे दोनों ग्रामीण क्षेत्र में ही काम शुरू करेंगे, चाहे काम छोटा ही क्यों न हो। एक दिन अमन बंगाली चौराहे के सोमवार को लगने वाले साप्ताहिक बाजार में सब्जियाँ खरीदने गया। वहां उसने देखा कि बहुत छोटे दुकानदार जमीन पर बैठकर या हाथ ठेले पर सामान बेच रहे हैं, लेकिन बाजार में सबसे ज्यादा सब्जी की दुकानें थी। दोनों ने नोटिस किया कि ज्यादातर दुकानें महिलाओं ने सम्हाली हुई है और दोनों की उत्सुकता इन दुकानदारों में बढ़ती गई। एक दुकान पर कम भीड़ देखकर उसके पास गया। दोनों ने इस बाजार से कद्दू, पालक, लौकी व टमाटर ख़रीदे। उसे आलू भी चाहिए थे, लेकिन उस दुकानदार महिला के पास आलू नहीं थे। पूछने पर उसने बताया की वह पास के गांव तिल्लौर से आई है। ये सब्जियां उसने उसके खेत में ही उगाई हैं, लेकिन अभी आलू का सीजन नहीं है जिस कारण वह आलू नहीं बेच रहीं है। उसने बताया की अभी जो आलू दुकानों पर है, वह कोल्ड स्टोरेज से लाये गये हैं। बड़े किसान व व्यापारी आलू खुदने पर कोल्ड स्टोरेज में रख देते है। जब सीज़न खतम होता तब ये लोग कोल्ड स्टोरेज से आलू निकाल कर मण्डी में आढ़त के माध्यम से बड़े दुकानदारों को बेचते तथा बड़े दुकानदार छोटे दुकानदारों को देते, वहां से हाथ ठेले वाले हाट में बेचने के लिए लाते है। 

अमन को यह सप्लाई चैन बहुत मजेदार लगी। जब वह वापस आया तो उसने यह अनुभव रवि को बताया। अमन को तो मानो भगवान का वरदान ही मिल गया। रवि को भी लगा कि बस यही हमारा बिजिनेस आईडिया है। आगे हम इस सप्लाई चैन को समझने पर काम करेंगे कि कैसे किसान के खेत से सब्जियां किन हाथों से गुजरकर हमारी थाली तक पहुँचती है? कौन किरदार क्या रोल अदा करता है? उसकी लागत क्या है? कितनी सब्जियां खेत से चलकर रास्ते में दम तोड़ देती है?

दोनों सुबह चार बजे उठकर शहर की सबसे बड़ी चौइथराम सब्जी मण्डी में नियमित रूप से जाने लगे। कुछ दिनों के बाद दोनों को समझ में आया की हिंदी में यह मुहावरा क्यों है, "क्या सब्जी मण्डी लगा राखी है।" जब कोई किसी की बात सुनने को तैयार न हो और सब अपनी बात बोलते रहे और किसी को कुछ समझ न आये तो यह मुहावरा ही उपयोग में आता है। यह सप्लाई चैन एक रिले रेस जैसी है जिसमें हर खिलाड़ी बिना ज्यादा सोचे समझे अपने हिस्से की दूरी तय करके, अपने हाथ का बेटन अगले खिलाड़ी को पकड़ा देता है। किसान का काम है सब्जियां ऊगाकर मण्डी तक लाना, आढ़तिया का काम है बोली लगाना, थोक व्यापारी का काम है बोली लगाकर माल खरीदना, छोटे दुकानदार का काम है माल थोक दुकान से लेकर ठेले बालों, फेरी लगाने वालों, साप्ताहिक हाट के छोटे दुकानदारों को बेचना, ठेले बालों, फेरी लगाने वालों, साप्ताहिक हाट के छोटे दुकानदारों का काम है ग्राहक को बेचना। ग्राहक इनसे सब्जियां लेकर घर लाते है। सामान्यतः इस सप्लाई चैन में पांच से छह लोग होते है। कोई ग्रेडिंग के मानक नहीं है, कोई स्थाई परिवहन का साधन नहीं, कोई निर्धारित पैकिंग मटेरियल नहीं, कोई स्टैण्डर्ड बाजार का मूल्य नहीं। सप्लाई चैन का खर्च व हर एक किरदार का प्रॉफिट घटाकर किसान को मूल्य मिलता है, ऊपर से मांग एवं सप्लाई तथा मौसम की मार अलग।

हालांकि मंडियों का संचालन सरकार द्वारा किया जाता है, जिसके लिए मंडियों के कानून तथा नियम निर्धारित है, लेकिन धरातल पर मंडियों का संचालन परम्परा के अनुरूप अपने हिसाब से ही हो रहा है। यह सिस्टम पिछले सत्तर सालों से ऐसे ही चल रहा है। किसी ने कभी इसको सुधारने की तरफ ध्यान नहीं दिया। रवि ने निश्चय किया कि वह अपने स्टार्टअप के माध्यम से किसानों की इस समस्या का समाधान निकलेगा। दोनों ने आसपास के गॉवों का भ्रमण करना प्रारम्भ किया। किसानों से बातकर उनकी समस्याओं को समझा। किसानों ने कहा कि यदि उन्हें गांव में मण्डी से अच्छे भाव मिलेंगे तो वो अपनी सब्जियां उन्हें बेच सकते है। फिर उन्होंने सब्जियों के उपभोक्ताओं को समझना शुरू किया। उन्होंने इन्हें चार श्रेणियों में बांटा। पहली श्रेणी है, व्यक्तिगत उपभोक्ता जो अपने घरों के लिए सब्जियां खरीदते है। इनकी खरीदी की मात्रा काम होती है, लेकिन इनकी संख्या बहुत अधिक है। ये लोग अच्छी क्वालिटी बहुत काम दाम में चाहते है। यह नकद खरीदी करते है। दूसरे नम्बर पर आते है तो होटल, रेस्टोरेन्ट, हॉस्टल, हॉस्पिटल आदि जिसे संक्षेप में ‘होरेका’ कहते है। इन्हें क्वालिटी की जगह सस्ती कीमत में सामान लगता है। ये बड़ी मात्रा में सब्जियां प्रतिदिन खरीदते है, लेकिन इनकी संख्या पहली श्रेणी से काम है। यह साप्ताहिक भुगतान करते है। तीसरे स्थान पर है प्रसंस्करण करने वाले। ये बहुत बड़ी मात्रा में खरीद करते है, लेकिन इनकी संख्या दूसरी श्रेणी से भी कम होती है। इन्हें भी साल भर क्वालिटी की जगह सस्ती कीमत में सामान लगता है। यह मासिक भुगतान करते है तथा चौथी श्रेणी में है कि निर्यातक व मार्डन रिटेल सप्लाई चैन के स्टार्टअप्स तथा ई-कामर्स एवं ऑनलाइन क्विक सप्लाई स्टार्टअप्स। इन्हें अच्छी क्वालिटी सा सामान बहुत सस्ती कीमत में चाहिए होता है। इनकी संख्या धीरे से बढ़ रही है, लेकिन यह तत्काल भुगतान करते है तथा कुछ पन्द्रह दिनों में भुगतान करते हैं। 

अब समस्या थी कि किस श्रेणी के ग्राहकों के साथ काम शुरू किया जाये। इन्हें महसूस हुआ कि  हालांकि घरेलू उपभोक्ता सबसे ज्यादा है, लेकिन सीधे किसानों से मॉल लेकर उन्हें सप्लाई करना बहुत महंगा है और इस सेगमेंट में स्पर्द्धा सबसे अधिक है। किसान बिना ग्रेड किये माल बेचते है। किसानों से खरीद कर गोदाम में मॉल लाना फिर ग्रेड करना फिर ग्राहकों को देना बहुत खर्चीला होता है। मार्जिन सबसे काम है, इस कारण अभी सेगमेंट में काम नहीं किया जा सकता है। इसलिए रवि व अमन ने दूसरी तथा चौथी श्रेणी के ग्राहकों से काम शुरू करने का निर्णय लिया। यहाँ उन्हें लगा कि शुरू में यदि वह मण्डी के किसी ऐसे व्यापारी के साथ काम शुरू करे, जिनके पास ग्रेडर हो तो कम खर्च में काम शुरू कर सकते है। दोनों को मुकेश नाम के व्यापारी मिले जो उनके साथ काम करने को सहमत हो गए।

इस तरह इन लोगों का काम शुरू हो गया। शुरू में दोनों ही थे तो खुद ग्राहक से बात करके डील करते। मुकेश से सामान लेते, खुद बिल बनाते व सामग्री ट्रंसपोर्ट से डिस्पेच करते थे। शुरूआती दिनों में दो या तीन आर्डर आते थे तो वह पूर्ति कर देते थे। कभी कभार दोनों गांव जाते तथा मण्डी में किसानों से बात करते हुए उन्हें समझ आया कि किसानों के पास अलग क्वालिटी का बहुत कम मात्रा में सब्जियां होती है। फिर किसानों की कीमतें उनकी शर्ते भी अलग होने से किसानों से सीधे खरीद कर बेचना कितना पेचीदा है? काम बढ़ाने के लिए आवश्यक था कि दोनों सीधे मण्डी में खरीद करे, उनके पास उनका गोदाम, ग्रेडर तथा पैंकिंग यूनिट हो तो दोनों आसानी से काम बड़ा सकते है। दोनों ने अपनी बचत का पैसा लगाकर यह इंफ्रास्ट्रक्चर बनाया और काफी खर्च कर लिया। जब उन्होंने ग्राहक बढ़ाने की कोशिश की तब धीरे उन्हें अहसास हुआ कि ग्राहकों की प्रतिक्रिया उतनी उत्साहजनक नहीं थी जितना उन्होंने सोचा था। इस बीच उन्होंने दो कर्मचारी भी नियुक्त कर लिए थे, लेकिन ग्राहक अग्रिम भुगतान देने को तैयार नहीं होते थे और उधार सामग्री सप्लाई करने के लिए उनके पास पैसे नहीं होते थे। पुरानी उधारी भी फंस गई थी तो कई दिन वे लोग दिन भर बिना काम के ही बैठे रहते। समय पर मजदूर लगते उनके भुगतान की भी समस्या हो जाती थी। मजदूरों को तो तत्काल भुगतान देना होता, क्योंकि वे तो रोज कुआँ खोदकर पानी पीने वालों में से होते है। कम्पनी के बैंक खाते से पैसे ऐसे निकल रहे थे जैसे फूटे घड़े से पानी। 

दोनों दूसरों की समस्याएं सुलझाने निकले थे और अब खुद समस्याग्रस्त हो गए थे। दोनों प्रतिदिन प्रोजेक्शन, प्रेजेंटेशन व पिच डेक बनाकर इन्वेस्टर्स को ईमेल भेजते जो पूर्व परचित थे और फोन करते लेकिन बात नहीं बन रहीं थी। खर्चे रुकने का नाम नहीं ले रहे थे और बिजनिस बढ़ नहीं रहा था। दोनों ने अपने खर्चे कम कर लिए थे। पुरानी बचत से अभी तक काम चल रहा था। दोनों तनाव में रहते और चिढ़ चिढ़े हो गए थे। आपस में मामूली बातों पर झगड़ा हो जाता था। कभी दोनों एक जगह घंटों बिना बात किया बैठे रहते थे। कुछ समय के बाद मजदूरों ने काम पर आना बंद कर दिया था, जो कुछ ऑर्डर्स आते उन्हें सप्लाई देना मुश्किल हो रहा था। बिजली का बिल न दे पाने के कारण बिजली काट दी गई थी। दोनों को लगता जैसे समय उनके हाथों से रेत की तरह फिसला जा रहा है। दोनों को रात में नींद नहीं आती थी। मन में हमेशा निराशा घिरी रहती। कई दफा दोनों बात करते की क्या झंझट मोल ले ली? अपने हाल किसे से कह भी तो नहीं सकते थे। आँखों की नीचे काले घेरे बनना शुरू हो गए थे। जहां से पैसा मिलने की उम्मीद थी, वह दिन प्रतिदिन समाप्त होती जाती थी। तनाव उनके चेहरों पर साफ दिखता था। दोनों के परिवार इन बातों से बेखबर थे तो वहां से शादी कर लेने का दवाब था। दोनों ने यह धंधा बेचने की कोशिश की लेकिन वह भी संभव नहीं दिख रहा था।

रवि का राजा भर्तृहरि के बारे जानने की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी और उसने उत्सुकता से कुछ कहना चाहा, लेकि बीच में ही साधू ने बताया — राजा भर्तृहरि राज गद्दी छोड़कर योगी बनने की राह पर निकला था। आचार्य के दरवाजे पर पहुँच गया, लेकिन अभी पूरी तरह सबेरा नहीं हुआ था। पूरव में लालिमा धुँधली हो रही थीं। ऐसा लग रहा था कि मानो क्षिप्रा की धारा से एक बड़ा लाला वर्ण गोला ऊपर उठ रहा हो। कुछ ऐसा ही भाव भर्तृहरि के अन्दर भी उठ रहा था। भर्तृहरि ने आखिरी बार उज्जैनी की तरफ देखा। राजा मन में अपने के निश्चय को पुनः दृढ़ किया और आश्रम की सबसे निचली सीढ़ी पर बैठ गया। हालांकि नीचे बैठने का उसका अभ्यास नहीं रहा था। वह सिंहासन पर ही बैठने का आदि था।

मन को विचार मथ रहे थे। सारे दृश्य आँखों में तैर रहे थे। माथा दर्द से फट रहा था। एक अज्ञात भय हृदय में समा रहा था। उसे अपने निश्चय पर कई तरह की शंका हो रही थीं। राजमहल में इतने दिनों रहने का अभ्यास था। सुख सुविधाओं का शरीर आदी था। हालांकि वैराग्य भाव मन में आ गया था। संसार की मोह माया मन से हट गई थी, लेकिन वैराग्य भाव दृढ़ नहीं हुआ था। अभी भी भर्तृहरि राजमहल में रात वासनाओं की अग्नि में जलता दिख रहा था। इस आग में सभी नाते रिश्ते जल रहे थे। उसने हालांकि तीन शादियां की थीं, जिन में दो पिता की इच्छा से तथा एक अपनी पसंद से। उसे हमेशा दूसरे से सुख पाने की कामना रही थीं, जो कल रात जल गई थी। अब उसके मन में दूसरे से सुख पाने की कोई कामना नहीं बची थीं।

बाल्यकाल में पढ़ाई के दौरान उसने पतंजलि का योग सूत्र पढ़ा था, जिसका पहला श्लोक 'अथ योगानुशासनम्' का अर्थ समझाते हुए आचार्य ने कहा था कि जब तक जीवन में सांसारिक भोगों को पाने की लालसा रहती है तब तक जीवन में योग का अनुशासन प्रारंभ नहीं होता है। तब उसको यह आचार्य का कथन समझ में नहीं आया था, लेकिन आज उसे प्रत्यक्ष अपने जीवन में घटते देख रहा हैं। यह सोचते हुए ना जाने कब नींद आ गई पता ही न चला। तभी आश्रम का दरवाजा खुला। किवाड़ों की आवाज से उसकी नींद टूट गई। आँखें खुली तो योगी महाराज को सामने खड़ा पाया। योगी को सामने देखकर भर्तृहरि ने उनकी चरण वंदना करने लगा। यह योगी के चरणों में राजा का पूर्ण समर्पण था। भर्तृहरि इस वक्त से राजा से योगी बनाने की राह पर निकल पड़ा था। योगी ने दोनों हाथों से उसे उठाकर गले से लगा लिया। भर्तृहरि को योगी आश्रम के अंदर ले गया। न केवल वह शरीर से अंदर गया वह मन से भी अंदर चला गया।

योगी ने भर्तहरि को नहाने का आदेश दिया एवं नये वस्त्र पहनने के लिए दिए। नहाकर भर्तृहरि ने नये वस्त्र धारण किये और आश्रम के बगीचे से फूल लेकर योगी के सामने दण्डवत प्रणाम किया और योगी के चरणों में पुष्प अर्पण किये। उसके अंदर स्वमं को अर्पण करने का भाव आया। इसके बाद उसने हाथ जोड़कर नजरें नीची कर निवेदन किया, “हे! योगी मैं अपना राजपाट व घरद्वार त्याकर आपकी शरण में सन्यासी बनने आया हूँ। कृपा करके मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार करें।”

योगी ने भर्तृहरि की आँखों में सीधे दृष्टि को स्थिर कर देखा, लेकिन भर्तृहरि उन आँखों का तेज न सह पाया, उसने अपनी आँखें नीचे कर ली। योगी जान गया कि भर्तृहरि को अभी असल वैराग्य घटित नहीं हुआ हैं। यह मात्र घटना की तत्कालिक प्रतिक्रिया ही है। यह तो पत्नी व परिवार से मिले धोखे का मन का राग के विपरीत हो जाना, विराग मात्र ही है। यह वैराग्य नहीं हैं, लेकिन योगी ने जान लिया की भर्तृहरि सच्चे भाव से आया है तो उसने भर्तृहरि की सहायता करने का निश्चय किया।

भर्तृहरि में उसे मुमुक्षु बनने की परछाई दिख रहीं थीं। वह कौतुहल वश नहीं आया था, उसका निश्चय दृढ़ था। योगी ने धीर गम्भीर आवाज में भर्तृहरि को कहा, “यद्यपि तुम परिवार, राजपाट, पत्नी व बच्चों को त्याग कर ही मेरे पास आये हो लेकिन अभी तुम पूर्णरूप से नहीं हो, तुम्हें एक वर्ष तक ब्रम्ह्चार्य व्रत का पालन करना होगा। यदि तुम मेरे निर्देश बिना शर्त मान कर, धैर्यपूर्वक रहने में सफल हुए तो फिर तुम्हें शिष्य बनाने का निर्णय लूँगा। यदि तुमने मेरे आदेशों पर सवाल पूछे या शंका की तो तुम्हें पुनः फिर गृहस्थ जीवन में लौट जाना होगा।”

योगी की ऐसी बातें सुनकर भर्तृहरि तो आकाश से जमीन पर आ गिरा। भर्तृहरि को लगा कि वह राजपाट छोड़ कर आया है तो योगी उसे ख़ुशी से शिष्य बना लेंगे, लेकिन उसे लगाकर वह किनारा तो अब रहा नहीं और यह किनारा अभी मिला नहीं। उस का मन डोल उठा।

योगी भर्तृहरि की मानः स्थिति भांप कर बोले, "तुम चाहो तो आश्रम के पास बनी गुफा में अपना बसेरा बना सकते हो।"

भर्तृहरि ने योगी को प्रणाम किया और गुफा की ओर चल दिया। उसने दृढ़ निश्चय किया कि वह बिना शर्त योगी की आज्ञा का पालन करगा। चाहे अब वह बचे या मरे कोई फ़र्ख़ नहीं पड़ने वाला। अब उसके सामने योगी को पूर्ण समर्पण करने के अलावा अन्य कोई रास्ता भी तो नहीं बचा था। वह गुफा में घुसा तो देखा गुफा बहुत छोटी, अंधेरी व गंदगी से भरी है। लगता है कि कई दिनों से खाली पड़ी होने से कीड़े — मकोड़ों, छिपकलियों, मकड़ियों तथा चमगादड़ों ने अपना घर बना लिया था। भर्तृहरि के अब यही साथी थे।

आश्रम से योगी ने एक दरी, कंबल, कमंडल का इन्तजाम कर दिया था। भर्तृहरि ने पास से झाड़ियां तोड़कर गुफा इस तरह साफ की कि कोई जीव मर न जाए। भर्तृहरि गुफा में तीन दिन योगी के आदेश की प्रतिक्षा करता पड़ा रहा। उसने देखा कि गुफा की छत पर एक मकड़ी का जोड़ा जाला बना रहा है। मकड़ी का जोड़ा आपस में गुथे हुए थे और मकड़ी अपने साथी को धीरे धीरे खा रही है और उसके साथी को इस बात का शायद अहसास भी नहीं हैं, क्योंकि वह छूट कर भागने की कोई कोशिश करता नहीं लग रहा था। भर्तृहरि ने देखा कि दिन भर में मकड़ी ने उसके साथी को खा लिया था। अब मकड़ी उस जाले में अण्डे दे रहीं थीं। मकड़ी के नये बच्चे आसपास घूम रहे थे। भर्तृहरि को महल में अपनी स्थिति का आभास हुआ।

तीन दिन बीतने पर योगी का बुलावा आया। योगी ने आदेश दिया, “आज से तुम रोज सुबह जा कर महल के सामने झाड़ूू लगाओ और रानी से भिक्षा मांग कर लाओ।”

योगी ने पहनने 0के लिए सफेद वस्त्र दिया। एक खप्पर खाना रखने के लिए, तुम्बा पानी रखने के लिए तथा एक लाठी दी। भर्तृहरि को तीन दिन बाद नहाने, कपड़े बदलने को मिला। उसे अब भूख का अहसास भी हो रहा था। यह उसके जीवन में पहली बार था, अब तक नहाना, वस्त्र  बदलना व खाना बिना चूके अपने आप होता रहा था। भर्तृहरि को अपने मन की कोई जानकारी ही नहीं थीं कि अब वह क्या लीला दिखने वाला है, जो व्यक्ति इस नगर का राजा रहा हो वह उसी नगर के उसी राजमहल के सामने झाड़ूू लगाकर के उसकी ही रानी से भिक्षा मांगेगा?

भर्तृहरि योगी से वचन से बंधित था। वह कारण नहीं पूछ सकता था। वह कल्पना कर रहा था कि वह उसी की राजधानी में झाड़ूू लगाकर भिक्षा मांगने के लिए आवाज लगाये, तो उसे कितनी मार्मिक पीड़ा होगी, लेकिन वह अब कुछ नहीं कर सकता था।

जब उसने पहली बार झाड़ू उठाया तब मन ने सवाल उठाया, “भर्तहरि! तुम राज्य भोगने के लिए जन्में हो झाड़ूू लगाने व भिक्षा मांगने के लिए नहीं। लोग क्या कहेंगे? तुम्हारे परिवार की मर्यादा का क्या होगा? कितनी लज्जा व शर्म की बात है?”

भर्तृहरि का मन मलिन होकर गला सूख गया। शर्म व अपमान की पीड़ा से शरीर कांप उठा। पसीने से शरीर भींग गया। तनाव मन में इतना बड़ा की उसे चक्कर आ गया। आँखो के सामने अंधेरा छा गया, वह बेहोश होकर भूमि पर गिर गया। उसकी चेतना कुछ देर बाद लौटी तो उसे योगी को दिया अपना वचन याद आया। उसे ख्याल आया की वापस जाना अब सम्भव नहीं है। यदि वह दुबारा परिवार में लौटा तो राजमहल में उसके लिए कोई जगह नहीं हैं। उसमें भी जग हंसाई ही होगी। दोनों तरफ अपमान जान कर भर्तृहरि ने निश्चय किया कि वह योगी की बात मानेगा। 

ऐसा निश्चय मन में ठानकर मन की दुविधा मिट गई। शरीर में चेतना लौट आई। वह उठ खड़ा हुआ तथा कदम राजमहल की ओर उठ गए। राजमहल के द्वारपालों ने जब भर्तृहरि को आता देखा तो इसकी सूचना तत्काल विक्रमादित्य को दी। वह दौड़ कर बाहर आया। अपने बड़े भाई की ऐसी हालत देखकर उसका मन रो पड़ा। सभी रानियाँ व बच्चे महल के झरोखों से झाँख रहे थे। जब विक्रम भाई को गले लगाने के लिए आगे बड़ा तब भर्तृहरि ने उसे हाथ के इशारे से दूर ही रोक दिया।

भर्तृहरि ने नीचे मुँह करके राजमहल के नीचे गली में झाड़ूू लगाना शुरू किया ही था कि महल के चारों तरफ लोगों की भीड़ लग गई। राजमहल के अंदर से रोने की आवाजें आने लगी। भर्तृहरि ने लोगों पर ध्यान ना देकर अपना काम जारी रखा। फिर उसने जोर से अलख निरंजन की अलख जगाई और राजमहल के द्वार पर खड़े होकर भिक्षा मांगी। पटरानी ने रुंधे गले व कांपते हाथों से भर्तृहरि के खप्पर में भिक्षा दी। भर्तृहरि ने फिर अलख निरंजन की अलख जगाई और मुँह नीचे किए बिना किसी से कुछ कहे आश्रम की ओर चल दिया।

नदी के किनारे तक भीड़ उसके पीछे चली। भीड़ के आगे विक्रम नंगे पाँव चल रहा था। क्षिप्रा नदी के किनारे उसने विक्रम को वापस जाने का इशारा किया और खुद नदी के उस पार आश्रम के अंदर जाकर भिक्षा का पात्र योगी के सामने रख दिया। पहले योगी ने भगवान को भोग़ लगाया फिर खुद खाया व अपना जूठा बचा भाग भर्तृहरि को खाने का आदेश दिया। भर्तृहरि ने तीन दिन बाद कुछ मुँह में रखा था। इस जैसा स्वाद उसे कभी भी राजमहल में नहीं आया था। इस क्रम से धीरे - धीरे रोज के भर्तृहरि का अहंकार गलता जा रहा था। हर रोज वह पहले से अपने आपको मन में हल्का होता महसूस करता था। तब उसे समझ आया कि उसके अहंकार को गलाने की योगी की यह साधना थीं। भर्तृहरि अपनी पहली परीक्षा में पास हो गया था। योगी उसकी प्रतिदिन की चाल देखकर जान जाता था।

कुछ अरसे के बाद भर्तृहरि अभ्यस्त हो रहा था। इसी बीच योगी ने भर्तृहरि को रानी पिंगला से भिक्षा माँग कर लाने का आदेश दिया। भर्तृहरि की लिए यह आदेश मर्मांतक था। यह क्षण ऐसा था कि वह सोच रहा था की पृथ्वी फट जाए और वह उस में समा जाए। कई दिनों के बाद उसने अपनी मृत्यु की कामना पूरी शृद्धा से की। भर्तृहरि ने महसूस किया कि उसके मन में पिंगला के प्रति अभी भी द्वेष बचा है। उसने सब को माफ़ कर दिया था, लेकिन वह पिंगला को अभी भी माफ़ नहीं कर पाया था। यहाँ तक की वह कोतवाल के घर से भी भिक्षा माँग कर लाया था। भर्तृहरि के मन में तब भी कोई द्वेष भाव नहीं था, लेकिन पिंगला की दी गई पीड़ा अचेतन मन में बहुत गहरे चली गई थी। वह धोखा भूल नहीं पाया था।

भर्तृहरि ने जाना की योगी उसके मन को पढ़ने की विद्या जानते है, लेकिन योगी के आदेश का पालन तो करना ही था सो वह उठकर चल दिया। जितना वह दृढ़ रहने की कोशिश करता मन उतना तेजी से भाग रहा था। वह रंगबिरंगी चूड़ियों का हाथ, वह विक्रम पर आरोप, वह फल का दुबारा उसके पास आना क्या महज संयोग मात्र था? या विधि का विधान या फिर योगी का इंद्रजाल? सवाल अनेक थे, लेकिन प्रश्न अनुत्तरित ही रह थे।

जब मन इतना दुर्बल हो रहा था, तब नगर में वह जहां से गुजरता उसे राजा के रूप में गुजरना याद आता। कोई परचित दिख जाता तो विचारों की पूरी शृंखला चल पड़ती। कैसे मन कई तरह के खेल खेल रहा हैं, भर्तृहरि दृष्टा की भांति सब देखते चला जा रहा था। इसके बाद गुफा में तपस्या करते हुए वह अपने आप को अपने मन के विचारों में दृष्टा व दृश्य के भेद को करने लगा था। उसे याद आया की गीता में कृष्ण ने इसे ही क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ कहा था। 

राजा के रूप में मिले सम्मान का कई बार स्मरण हो रहा था। मानस पटल पर स्मृतियों के छाया चित्र उभर आते। फिर वह अपने वर्तमान को देखता, अपनी वेशभूषा देखता तो स्वप्न टूट जाता। आज साधु के वेश में लोग उसे अलग नजरों से देख कर सम्मान से झुक जाते है। वह भिक्षुक बनाने के संकल्प को अंतःकरण में दुहराता तो यह विचार स्थिर हो जाता।

कई बार यह आसान होता लेकिन अनेक बार कई दिन लग जाते। तब वह योगी के साथ चरणों में बैठ कर सत्संग करता। योगी उसके अशांत चित्र को पकड़ लेता, लेकिन वह देख पा रहा था कि पिंगला कभी चित से निकली नहीं थीं। इसका धोखे के रूप का इंद्रजाल जिसमें वह खुद फॅसा था। वास्तव में देखें तो उस अबला नारी का तो कोई इरादा नहीं था वही यत्न कर शादी का प्रस्ताव लेकर गया था। वही अपनी उम्र का ख्याल किये बिना उस मासूम को ब्याह कर लाया था। उसने सोचा था कि जो सुख उसे दो शादियों से नहीं मिला वह सुख वह तीसरी शादी कर पा लेगा, उसे समझ आया कि कैसे उनका मन उस मकड़जाल में खुद मकड़ी के साथ उलझ गया और जब मकड़ी ने अपने प्राकृतिक गुण के कारण मकड़े को खा लिया तथा नई संतति को जन्म दिया तो हम मकड़ी के योगदान को भूलकर उसे मकड़े के खाने का दोषी मकड़ी को देने लगे।

यह क्या पुरुष मानसिकता है कि आदिकाल से पतन का कारण नारी को मानते रहे है, जबकि पुरुष अपनी वासना को महिमामंडित ही करता रहा हैं। वहीं, पहल पुरुष ही करता है, “अहो! पिंगला ने मेरे जीवन में ‘अथ’ की स्थिति निर्मित कर दी थी उस दिन या तो मैं आत्महत्या कर लेता या योगी बनने की राह पर जा सकता था।”

राजा भर्तृहरि सोच रहे थे — “हालांकि चुनना मुझे ही था, लेकिन भला हो पिंगला का यह चुनाव में उसके कारण कर सका। उसके धोखे ने मेरी राह आसान कर दीं, भला हो योगी का उसने रास्ता दिखाकर सन्यास की दिशा दिखा दी। हालांकि चुनाव सरल नहीं था, लेकिन यह निर्णय कर सका।” इस तरह काफी देर तक राजा भर्तृहरि स्वः कथन कर रहा था।

जब विचार उस की ओर मुड़ गए तब उसके मन से पिंगला के प्रति कलुष धुल गया। उसने जब अपना चेहरा क्षिप्रा के निर्मल जल में देखा तो जल के शांत तल पर अपना चेहरा ही अनजान लगा। उसका चेहरा कितना बदल गया था। वहां न तो राजा वाला रोबदार चेहरा था न वह गर्व। उसकी जगह निश्तेज़ चेहरा, धंसी आँखे, बड़ी दाढ़ी व विखरे बालों ने ले ली थी। वह उठा और निर्विकार रूप से पिंगला के सामने जाकर खड़ा हो गया। उसने देखा की पिंगला भी कितनी बदल गई थीं। वह तो साधु बनकर अपनी नई जिंदगी शुरू कर चुका था, लेकिन पिंगला क्या करे उसकी समझ नहीं आया। वह नीची नजरों से पिंगला के हाथों भिक्षा पाकर अपनी दूसरी परीक्षा पास कर चुका था।

भर्तृहरि क्षिप्रा के घाट पर आकर बैठा था और सुबह की शीतल बयार चल रहीं थीं। भर्तृहरि को आश्रम आए एक वर्ष से अधिक हो गया था, लेकिन योगी ने अभी तक उसको शिष्य नहीं बनाया था। भर्तृहरि ध्यान मग्न आखें बंद किये बैठा था कि धीरे से योगी ने पीछे से आकर उसके कंधे पर रखा। भर्तृहरि इस छुअन को पहचानता था। क्षिप्रा के निर्मल जल में उसने योगी की छवि देखी। उसने आखें खोली, योगी को नतमस्तक हो कर प्रणाम किया और बोला “आदेश।”

योगी उसका ही गीत गाने लगा - ‘मरो वै जोगी मरौ, मरण है मीठा। मरणी मरौ जिस मरणी, गोरख मरि दीठा॥’ भर्तृहरि योगी का मन्तव्य समझ गया। भर्तृहरि ने श्रृद्धा से योगी की चरण रज अपने माथे पर लगा ली। दोनों फिर आश्रम आ गए। शाम को भर्तृहरि फिर नदी के किनारे गया। नदी की बहती धार देखकर उसे संसार के चलने का अहसास दिलाता। दूर सूरज डूब रहा था।इधर, भर्तृहरि का मन उदासी से घिरता जा रहा था। मानो बाहर फैलाती कालिमा मन के अंदर भी फैल रही थीं।

चारों तरफ मंदिरों में घन्टियां बजना शुरू हो गई थीं। संध्या वंदन का समय था। वह तेजी से उठा और आश्रम की ओर चल दिया। आश्रम में योगी धूनी के सामने बैठे थे। वह यकायक योगी के चरणों में गिर गया। योगी ने पकड़कर उठाया, फिर दोनों धूनी के पास बैठ गए। परिंदे घोसलों की और लौट रहे थे। बाहर पेड़ों पर कलरव बढ़ गया था। योगी का वेश, शांत चेहरा, बड़ी बड़ी चमकदार आखें, चेहरे पर सदा रहने वाली मंद मुस्कान तथा कानों में झूलते बड़े कुण्डल, धूनी से उठता धुआँ वातावरण को रहस्यमय बना रहे थे। धूनी की राख में योगी का चिमटा गड़ा था तथा योगी के साथ रहने वाला काला कुत्ता पास में चटाई पर लेटा था।

योगी ने पूछा, “बच्चा क्या बात है आज तुम सुबह से क्यों परेशान हो?’

भर्तृहरि ने सर झुकाकर निवेदन किया, “महाराज पुरानी स्मृतियाँ पीछा नहीं छोड़ती है। कभी जीवन लीला समाप्त करने का मन करता है।”

योगी ने गुनगुनाना शुरू किया - “अवधू मन चंगा तो कठौती गंगा, बांध्या मेल्हा तौ जगत चेला। बदंत गोरख सत सरूप, तत विचारै तै रेख न रूप॥”

योगी ने भजन के बाद कहा, “प्रकृति के तीन गुण हैं - सत्व, रजस, और तमस....ये तीनों गुण ऊर्जा के गुण हैं और इनसे ही सृष्टि बनी है। ये गुण सभी भौतिक और मानसिक घटनाओं का आधार हैं। रजोगुण प्रभाव से जीवन की 84 लाख प्रजातियों के शरीर बनते है। रजस प्रभाव जीव को संतानोत्पत्ति के लिए प्रजनन करने को मजबूर करके, विभिन्न योनियों में प्राणियों की उत्पत्ति कराते हैं।”

योगी ने आगे बताया — “सतोगुण जीवों का उनके कर्मों के अनुसार का पालन-पोषण करते हैं और सतोगुण सत्व के प्रभाव जीव मे प्रेम और स्नेह विकसित करके, इस अस्थिर लोक की स्थिति को बनाए रखते हैं। और तमोगुण विनाश का प्रतिनिधित्व करते हैं। तमोगुण तमस के प्रभाव की भूमिका प्राणियों को अंततः नष्ट करने की है। इन सभी का सृष्टि के संचालन मे योगदान है। मनुष्य की चेतना तीन गुण सत्व, तम और रज से जुड़ी है, जो न केवल मनुष्य की चेतना निर्धारित करते हैं बल्कि उसके जीवन के कर्म, मिलने वाले फल और उसके मृत्यु के बाद की दशा भी तय करते हैं। सत्व गुण हल्कापन देता है, रज गुण गति और तम गुण मोह व आलस्य देता है। इन गुणों के कारण ही मन में बदलाव आता रहता है।”

योगी ने आगे  राजा भर्तृहरि से कहा — “मनुष्यों के गुणों और कर्मों के अनुसार चार वर्णों की रचना की गयी है। नियमपूर्वक वह आपके ही मार्ग का अनुसरण क्यों करते हैं, दूसरे के मार्ग का क्यों नहीं करते, ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों का नाम चातुर्वर्ण्य है। सत्त्व रज तम इन तीनों गुणों के विभाग से तथा कर्मों के विभाग से यह चारों वर्ण ईश्वर द्वारा रचे हुए उत्पन्न किये हुए हैं।”

योगी ने कहा — “बच्चा मन की धारा को समझों। जब तुम्हें कोई याद आए तो सुखी को मित्रता का भाव से, दुःखी के प्रति करुणा का भाव, पुण्य आत्मा के प्रति हर्ष तथा पापात्मा के प्रति उपेक्षा का भाव रखने का अभ्यास करो। किसी विचार को अपना ना मानो केवल दूर से देखो। अच्छे बुरे का भाव मत लाओ।”

इस अभ्यास से चित निर्मल होता है। जैसे नदी पर करते समय पैरों से नीचे की गंदगी ऊपर आ जाती है, वैसे ही पुरानी स्मृतियाँ उभर आती है। जैसे नदी के जल को स्वच्छ करने के लिए धैर्य के साथ प्रतिक्षा करना होती है उसी प्रकार चित को शांत करने के लिए सीधे कुछ नहीं किया जा सकता।

योगी ने कहा, “यदि तुम स्थूल शरीर के शुरू करो तो फिर कुछ वक्त बाद मन, विचार, चित व अनुभूतियों के साथ कुछ किया जा सकेगा।”

योगी ने समय आया जानकर धीरे - धीरे भर्तृहरि को योग में दीक्षित करने का निश्चय किया। लेकिन एक बाधा थी। वह थी भर्तृहरि का शरीर बहुत कमजोर था। योगी जनता था कि कमजोर शरीर से योग साधना करना कठिन हैं। अतः शरीर पुष्ट करने के लिए योगी ने भर्तृहरि को सबसे पहले शरीर शोधन के लिए षट्कर्म धौति — धौति क्रिया, पाचन तंत्र को साफ़ करने का एक योग अभ्यास सिखाया।

यह षट्कर्म यानी छह शुद्धिकरण प्रक्रियाओं में से एक है। वस्ति क्रिया एक आयुर्वेदिक उपचार है। इसमें गुदा मार्ग से औषधीय द्रवों को शरीर में डाला जाता है। यह बड़ी आंत को साफ़ करती है और शरीर से विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालती है। वस्ति क्रिया के दो तरीके हैं - स्थल बस्ती और जल बस्ती।

नेति क्रिया दो तरह की होती है- जलनेति और सूत्रनेति। जलनेति में पानी से नाक की सफ़ाई की जाती है, जबकि सूत्रनेति में गीली डोरी या पतली ट्यूब का इस्तेमाल किया जाता है।

त्राटक योग का उपयोग सबसे पहले मन की अस्थिरता को दूर करने और एकाग्रता को बढ़ावा देने के साथ-साथ आंखों की मांसपेशियों को मजबूत करने के लिए किया जाता है।

नौली क्रिया, योग की एक शुद्धि क्रिया है। यह पेट की मांसपेशियों को गोल-गोल घुमाती है और पाचन अंगों की सफ़ाई करती है।

कपाल भाति प्राणायाम करने के लिए रीढ़ को सीधा रखते हुए किसी भी ध्यानात्मक आसन, सुखासन या फिर कुर्सी पर बैठें। इसके बाद तेजी से नाक के दोनों छिद्रों से साँस को यथासंभव बाहर फेंकें। साथ ही पेट को भी यथासंभव अंदर की ओर संकुचित करें, आदि का अभ्यास करवाना शुरू किया।

शुरूआती दिनों में यह सब क्रियाएँ करना भर्तृहरि को बहुत ही कठिन थी। रोज उसे लगता की यह क्रियाएँ असंभव है, लेकिन कुशल हाथों में होने के कारण कुछ समय के बाद राजा भर्तृहरि  का शरीर इन सबके लिये अनुकूल होता गया।

इसके बाद योगी ने सिद्ध आसन, पद्मासन, सिंहासन, ताड़ासन, वृक्षासन, अधोमुख आसन, शव आसन, कोण आसन, पश्चिमोत्तार आसन, सेतुबंध आसन, शलभासन, उत्तानपाद आसन व भद्रासन आदि का अभ्यास करना सिखाया।

फिर बारी आई बंध सीखने की तो उसे मूलबन्ध, उड्डियानबन्ध, जालन्धरबन्ध, सिखाए गए। योगी ने अपने एक कुशल शिष्य को भर्तृहरि के अभ्यास के दौरान उसके साथ हमेशा रखा, जो नियत समय पर भर्तृहरि को अभ्यास करवाता तथा उनके खान—पान का ख्याल रखता था।

प्राणायाम का अभ्यास शुरू हुआ और इसके तहत कुम्भक, रेचक, सूर्य भेदन, सीत्कारी, भस्त्रिका, भ्रामरी, आदि का कठिन अभ्यास शुरू हुआ। इसके साथ महा मुद्रा जैसे खेचरी, विपरीतकर्णी, वज्ज्रोली, सहजौली, अमरोली, शाम्भवी, उन्मनी आदि सिखाई गई।

इन अभ्यासों के कारण भर्तृहरि के शरीर की शुद्धि हुई, शरीर दृढ़ हुआ, शरीर की स्थिरता बढ़ गई शरीर हल्का हो गया। अब भर्तृहरि का मन इन सब में लगाने लगा।

योगी भजन गा रहा था - “गगन मंडल मैं ऊँधा कूवा, वहाँ अमृत का बासा। सगुरा होई सु भरि भरि पीवै, निगुरा जाई पियासा॥”

पहले भी उसने योगी को यह गाते सुना था, लेकिन तब समझ कुछ नहीं आता था। अब वह इस का गूढ़ अर्थ जान गया है। उसे कुछ - कुछ अनुभव होने लगा है। भर्तृहरि के साथी ने उसके लिए कुश, कम्बल व सफेद चादर बिछाकर योग काने के लिये एक आसन तैयार किया जो न तो बहुत ऊंचा था और न बहुत नीचा। इसी आसन पर वह रोज नियत समय पर शुरू में सुख आसन में बैठता और रीढ़ को सीधी रखता।

योगी का वह शिष्य भी योगी का भजन गा रहा था, “गगनि मंडल में गाय बियाई, कागद दही जमाया। छांछि छांणि पिंडता पीवी, सिधां माखण खाया॥”

अब इन सब उलट बासियों को समझना भर्तृहरि के लिए सरल था। 

भर्तृहरि प्रतिदिन यौगिक क्रियाओं का नियमित अभ्यास करने लगे। योगी उन्हें यौगिक परंपरा के अनुसार नियमित स्वाध्याय करते।

योग विज्ञान के मुताबिक, इंसान के शरीर की पांच परतें होती हैं: अन्नमय कोष, मनोमय कोष, प्राणमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनंदमय कोष के विज्ञान से परचित करवाया गया।

इंसान के तीन शरीर होते हैं: स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर। इन तीनों शरीरों के होने का मकसद अलग है और इनकी क्षमताएं भी अलग हैं।

हमारे शरीर में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार चक्र होते है। योगी ने बताया कि हम इन सात चक्रों की ऊर्जा का ठीक प्रबंधन कर लें तो असाधारण सफलता भी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।

सामान्यत: हमारी सारी ऊर्जा मूलाधार चक्र होती है। ध्यान के माध्यम से मूलाधार में स्थित अपनी ऊर्जा को सहस्त्रार तक लाते हैं। सांसों के नियंत्रण और ध्यान से इस ऊर्जा को ऊपर खींचा जा सकता है। जैसे-जैसे हम ऊर्जा को एक-एक चक्र से ऊपर उठाते जाते हैं।

हमारे व्यक्तित्व में चमत्कारी परिवर्तन दिखने लगते हैं तो मैं तुम्हें बताता हूँ कि आखिर ये चक्र हैं क्या? “मनुष्य के शरीर में कुल मिलाकर 114 चक्र हैं। वैसे तो शरीर में इससे कहीं ज्यादा चक्र हैं, लेकिन ये 114 चक्र मुख्य हैं।”

इन्हें नाड़ियों के संगम या मिलने के स्थान कह सकते हैं। यह संगम हमेशा त्रिकोण की शक्ल में होते हैं। वैसे तो ‘चक्र‘ का मतलब पहिया या गोलाकार होता है। चूंकि इसका संबंध शरीर में एक आयाम से दूसरे आयाम की ओर गति से है। इसलिए इसे चक्र कहते हैं, लेकिन वास्तव में यह एक त्रिकोण है।

हमारा शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना है, जिसमें पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश शामिल है। ये 5 तत्व शरीर के 7 मुख्य चक्रों में बंटे हुए हैं। इन्हीं पांच तत्वों और सात चक्रों के संतुलन से शरीर स्वस्थ बनता है।

मूलाधार चक्र - आपका मूलाधार चक्र आपके शरीर की जड़ या नींव माना जाता है। मूलाधार या मूल चक्र प्रवृत्ति, सुरक्षा, अस्तित्व और मानव की मौलिक क्षमता से संबंधित है। यह जनेंन्द्रिय और अधिवृक्क मज्जा से जुड़ा होता है। मूलाधार का प्रतीक लाल रंग और चार पंखुड़ियों वाला कमल है। इसका मुख्य विषय कामवासना, लालसा और सनक में निहित है। शारीरिक रूप से मूलाधार काम-वासना को, मानसिक रूप से स्थायित्व को, भावनात्मक रूप से इंद्रिय सुख को और आध्यात्मिक रूप से सुरक्षा की भावना को नियंत्रित करता है। इस क्षेत्र में एक मांसपेशी होती है, जो यौन क्रिया में स्खलन को नियंत्रित करती है। शुक्राणु और डिंब के बीच एक समानांतर रूपरेखा होती है, जहां जनन संहिता और कुंडलिनी कुंडली बनाकर रहता है। मूलाधार का प्रतीक लाल रंग और चार पंखुडिय़ों वाला कमल है। इसका मुख्य विषय काम—वासना, लालसा और सनक में निहित है। शारीरिक रूप से मूलाधार काम-वासना को, मानसिक रूप से स्थायित्व को, भावनात्मक रूप से इंद्रिय सुख को और आध्यात्मिक रूप से सुरक्षा की भावना को नियंत्रित करता है। इस चक्र को प्राणायाम और बुनियादी योग मुद्राओं के माध्यम से संतुलित कर सकते हैं जैसे ताड़ासन, वृक्षासन, शवासन। इसका बीजाक्षर है – “लं” व्यक्ति के अन्दर अत्यधिक भोग की इच्छा और आध्यात्मिक इच्छा इसी चक्र से आती है।

स्वाधिष्ठान च्रक - स्वाधिष्ठान चक्र त्रिकास्थि यानी कमर के पीछे की तिकोनी हड्डी में अवस्थित होता है और अंडकोष या अंडाशय के परस्पर के मेल से विभिन्न तरह का यौन अंत:स्राव उत्पन्न करता है, जो प्रजनन चक्र से जुड़ा होता है। स्वाधिष्ठान को आमतौर पर मूत्र तंत्र और अधिवृक्क से संबंधित भी माना जाता है। त्रिक चक्र का प्रतीक छह पंखुड़ियों और उससे परस्पर जुड़ा हुआ नारंगी रंग का एक कमल है। स्वाधिष्ठान का मुख्य विषय संबंध, हिंसा, व्यसनों, मौलिक भावनात्मक आवश्यकताएं और सुख है। शारीरिक रूप से स्वाधिष्ठान प्रजनन, मानसिक रूप से रचनात्मकता, भावनात्मक रूप से खुशी और आध्यात्मिक रूप से उत्सुकता को नियंत्रित करता है।त्रिक चक्र का प्रतीक छह पंखुड़ियों और उससे परस्पर जुदा नारंगी रंग का एक कमल है। स्वाधिष्ठान का मुख्य विषय संबंध, हिंसा, व्यसनों, मौलिक भावनात्मक आवश्यकताएं और सुख है। शारीरिक रूप से स्वाधिष्ठान प्रजनन, मानसिक रूप से रचनात्मकता, भावनात्मक रूप से खुशी और आध्यात्मिक रूप से उत्सुकता को नियंत्रित करता है।इस चक्र का बीज मंत्र है “वं” इस चक्र को तामसिक चक्र माना जाता है।

मणिपुर चक्र - मणिपुर चक्र आपके ऊपरी पेट और छाती की हड्डी के बीच में स्थित है। यह  जिगर, पित्ताशय, पेट, तिल्ली और अग्न्याशय से जुड़ा हुआ, जो तीसरा चक्र आपकी व्यक्तिगत शक्ति या आपकी सहज प्रवृत्ति का स्रोत माना जाता है। व्यक्ति का करियर, क्षमताएं और आत्म-सम्मान इस चक्र से प्रभावित होते हैं। शारीरिक रूप से मणिपुर चक्र व्यक्ति के पेट से जुड़ा होता है और आपके चयापचय और पाचन तंत्र से संबंधित हर चीज को नियंत्रित करता है। जब यह अवरुद्ध हो जाता है, तब व्यक्ति को पेट के अल्सर, अग्नाशयशोध, पित्ताशय विकार, मधुमेह और अन्य पाचन विकार हो सकते हैं। यह पाचन में शरीर के लिए खाद्य पदार्थों को ऊर्जा में रूपांतरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसका प्रतीक दस पंखुडिय़ों वाला कमल है। मणिपुर चक्र से मेल खाता रंग पीला है। मुख्य विषय मणिपुर द्वारा नियंत्रित होते हैं, जो विषय है निजी बल, भय, व्यग्रता, मत निर्माण, अंतर्मुखता और सहज या मौलिक से लेकर जटिल भावना तक के परिवर्तन, शारीरिक रूप से मणिपुर पाचन, मानसिक रूप से निजी बल, भावनात्मक रूप से व्यापकता और आध्यात्मिक रूप से सभी उपादानों के विकास को नियंत्रित करता है। इस चक्र का बीज मंत्र है- “रं”।

अनाहत चक्र - व्यक्ति का चौथा चक्र या अनाहत चक्र हृदय क्षेत्र के पास स्थित है। यह चक्र दूसरों के लिए प्यार, रोमांस और सहानुभूति की भावनाओं से जुड़ा हुआ है। अवरुद्ध हृदय चक्र आपको हृदय संबंधी बीमारियों, तंत्रिका टूटने, स्तन कैंसर, रीढ़ की हड्डी का पार्श्व वक्र, उच्च रक्तचाप, नींद संबंधी विकार और बहुत कुछ के लिए अधिक प्रवण बना सकता है। यह चक्र तनाव के प्रतिकूल प्रभाव से भी बचाव का काम करता है। अनाहत का प्रतीक बारह पंखुड़ियों का एक कमल है। अनाहत हरे या गुलाबी रंग से संबंधित है। अनाहत से जुड़े मुख्य विषय जटिल भावनाएं, करुणा, सहृदयता, समर्पित प्रेम, संतुलन, अस्वीकृति और कल्याण है। शारीरिक रूप से अनाहत संचालन को नियंत्रित करता है। भावनात्मक रूप से अपने और दूसरों के लिए समर्पित प्रेम, मनासिक रूप से आवेश और आध्यात्मिक रूप से समर्पण को नियंत्रित करता है। इस चक्र का बीज मंत्र है – “यं”।

विशुद्धि चक्र - यह चक्र गलग्रंथि में होता है। इनके समानांतर है और थायरॉयड हारमोन उत्पन्न करता है, जिससे विकास और परिपक्वता आती है। इसका प्रतीक सोलह पंखुडिय़ों वाला कमल है। विशुद्ध की पहचान हल्के या पीलापन लिये हुए नीले या फिरोजी रंग है। यह आत्माभिव्यक्ति और संप्रेषण जैसे विषयों को नियंत्रित करता है। इसका प्रतीक सोलह पंखुडिय़ों वाला कमल है। विशुद्ध की पहचान हल्के या पीलापन लिये हुए नीले या फिरोजी रंग है। यह आत्माभिव्यक्ति और संप्रेषण जैसे विषयों को नियंत्रित करता है। शारीरिक रूप से विशुद्ध संप्रेषण, भावनात्मक रूप से स्वतंत्रता, मानसिक रूप से उन्मुक्त विचार और आध्यात्मिक रूप से सुरक्षा की भावना को नियंत्रित करता है। इसका बीज मंत्र है – “हं”।

आज्ञा चक्र - मानसिक दृढ़ता और क्षमा भाव देता है। आज्ञा चक्र दोनों भौहों के मध्य स्थित होता है। आज्ञा चक्र का प्रतीक दो पंखुडिय़ों वाला कमल है और यह सफेद, नीले या गहरे नीले रंग से मेल खाता है। आज्ञा का मुख्य विषय उच्च और निम्न अहम को संतुलित करना और अंतरस्थ मार्गदर्शन पर विश्वास करना है। आज्ञा का निहित भाव अंतज्र्ञान को उपयोग में लाना है। मानसिक रूप से, आज्ञा दृश्य चेतना के साथ जुड़ा होता है। भावनात्मक रूप से आज्ञा शुद्धता के साथ सहज ज्ञान के स्तर से जुड़ा होता है। चक्र के दो अक्षर और दो बीज मंत्र हैं – ह और क्ष।

सहस्रार चक्र - सहस्रार को आमतौर पर शुद्ध चेतना का चक्र माना जाता है। यह मस्तक के ठीक बीच में ऊपर की ओर स्थित होता है। इसका प्रतीक कमल की एक हजार पंखुड़ियों हैं और यह सिर के शीर्ष पर अवस्थित होता है। सहस्रार का आतंरिक स्वरूप कर्म के निर्मोचन से दैहिक क्रिया ध्यान से मानसिक क्रिया सार्वभौमिक चेतना और एकता से और भावनात्मक क्रिया अस्तित्व से जुड़ा होता है। जब आपका सहस्रार चक्र अवरुद्ध या असंतुलित होता है तो व्यक्ति को माइग्रेन, मिर्गी दौरा विकार और व्यक्ति की दाहिनी आंख से संबंधित परेशानियों का अनुभव हो सकता है। इसका प्रतीक कमल की एक हजार पंखुड़ियां हैं और यह सिर के शीर्ष पर अवस्थित होता है। सहस्रार बैंगनी रंग का प्रतिनिधित्व करती है और यह आतंरिक बुद्धि और दैहिक मृत्यु से जुड़ी होती है। सहस्रार का आतंरिक स्वरूप कर्म के निर्मोचन से दैहिक क्रिया ध्यान से मानसिक क्रिया सार्वभौमिक चेतना और एकता से और भावनात्मक क्रिया अस्तित्व से जुड़ा होता है। इस चक्र का न तो कोई धयान मंत्र है और न ही कोई बीज मंत्र। इस चक्र पर केवल गुरु का ध्यान किया जाता है। ओम या आह का जाप करें।

रोग शरीर की जीवन शक्ति या प्राण के असंतुलन से उत्पन्न होते हैं। इस जीवन शक्ति का संतुलन तीन शारीरिक गुणों के संतुलन से निर्धारित होता है, जिन्हें दोष कहा जाता है: इसमें वात, पित्त और कफ। हम सभी का शरीर इन तीनों में से किसी एक प्रवृत्ति का होता है, जिसके अनुसार उसकी बनावट, दोष, मानसिक अवस्था और स्वभाव का पता लगाया जा सकता है। शरीर में मौजूद पांच वायुओं के नाम ये हैं - प्राण, अपान, उदान, समान, और व्यान। इन वायुओं को पंच प्राण भी कहा जाता है। यह वायु शरीर के भीतर गतिशील रहती हैं और शरीर के कई कार्यों में मदद करती हैं। प्राणायाम करते या श्वास लेते समय हम तीन क्रियाएं करते हैं- पूरक, कुम्भक, रेचक तीन तरह की क्रियाओं को ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्बक कहते हैं।

कुंडलिनी जागरण एक आध्यात्मिक यौगिक प्रक्रिया है, जिसमें शरीर में ऊर्जा का जागरण होता है। इस प्रक्रिया में शरीर के सात चक्र जागृत होते हैं और प्राण ऊर्जा शरीर के निचले हिस्से से ऊपर की ओर बहने लगती है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति अब तक जिन सच्चाईयों से भागते थे, उन्हें स्वीकारना शुरु कर देते हैं, जिसे कई लोग आत्मज्ञान का प्राप्त होना कहते हैं। उनमें कई विषयों को लेकर जागरुकता आ जाती है। कुण्डलिनी जागरण ना केवल आपके भौतिक जीवन बेहतर करता है बल्कि आपका आध्यात्मिक जीवन भी एक अलग स्तर पर ले जाता है। कुंडलिनी की प्रकृति कुछ ऐसी है कि जब यह शांत होती है तो आपको इसके होने का पता भी नहीं होता। जब यह गतिशील होती है, तब व्यक्ति को पता चलता है कि उसके भीतर इतनी ऊर्जा भी है। इसी वजह से कुंडलिनी को सर्प के रूप में चित्रित किया जाता है। कुंडली मारकर बैठा हुआ सांप अगर हिले-डुले नहीं, तो उसे देखना बहुत मुश्किल होता है।

कुंडलिनी योग एक शक्तिपूर्ण योग प्रक्रिया है, जिसमें ऊर्जा को जागृत किया जाता है। अगर इसे सही ढंग से किया जाए, तो यह आपके जीवन को बदल सकता है। कुण्डलिनी जागरण के लिए सबसे पहले अपनी सभी नाड़ियों को शुद्ध करना होता है। नाड़ियों में प्राण ऊर्जा प्रवाहित होती है। इसके साथ-साथ मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक ऊर्जा की भी शुद्धिकरण करनी पड़ती है।भर्तृहरि का अभ्यास व स्वाध्याय निरंतर जारी था। अब उसे इस सबमें मजा आने लगा था। उसका पूरा समय इन्हीं क्रियाओं में लग रहा था। इससे शरीर स्वस्थ हो गया तथा योगाभ्यास से हल्का महसूस होता था। ऐसी अनुभूति उसे कभी नहीं हुई थी। यह नया जीवन की ओर प्रस्थान था। 

भर्तृहरि को योगी के साथ सत्संग करते वक्त बहुत कुछ ज्ञान हो रहा था तथा अभ्यास से प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ हो रही थी। हालांकि साधना कठोर है, लेकिन जीवन में करने जैसी है। शुरू में शरीर साथ नहीं देता था तो वह अपने आसन पर सुख आसन में बैठता, रीढ़ को सीधा रखता तथा स्वास पर अभ्यास करता था। कई महीने यह करते निकल गए। फिर पद्मासन में बैठ कर रेचक, पूरक व कुम्भक का अभ्यास शुरू किया। इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना नाड़ी पर प्रयोग शुरू हुआ। चन्द्र नाड़ी व सूर्य नाड़ी का विस्तार से योगी ने विवरण दिया।

योगी ने बताया कि प्राण वायु द्वारा मन का सम्बन्ध शरीर से जुड़ता है। यदि प्राण वायु को नियंत्रित कर होश पूर्वक साँस लेते है तो हम चित को शांत कर सकते है। श्रवण, स्पर्श, दृष्टि, स्वाद और गंध और पाँच इंद्रिय बोध तथा पाँच इंद्रिय अंगों के अनुरूप पाँच तन्मात्राएँ हैं। इन पर ध्यान एकाग्र करने पर चित शांत हो जाता है। भर्तृहरि ने यह अभ्यास करके जाना।

योगी ने बताया, “राग हीं पुरुष मन को बांधने वाला होता है। हमारे अन्तःकरण के चार आयाम है, जिन्हें हम मन, बुद्धि, चित व अहंकार के रूप में जानते है, लेकिन सामान्य मनुष्य बाहर से इन्हें एक ही जानता है।”

इसके अलावा योगी ने बताया की स्वप्न एवं निद्रा का आलंबन करने वाला भी चित को स्थिर कर सकता है। एक इष्ट को धारण करने व एक मन्त्र का जाप करने से भी चित शांत होता है। पुरुष को अपनी प्रकृति के आधार पर इनमें से एक विधि का चयन कर साधना करना चाहिए। योगी ने भर्तहरि को कहा, “जो विधि तुम्हें सहज लगे उसी का निरंतर शृद्धा के साथ निरंतर अभ्यास करो।”

योगी के उठाने पर भर्तृहरि के मुँह से अनायास निकला - “आदेश” और वह दण्डवत हो गया।

भर्तृहरि अभ्यास करने आसान पर बैठ गया। उसकी चेतना श्वास पर स्थिर थी और चेतना दीपक की लौ की तरह बिना काँपे सीधी रीढ़ के निचे मूलाधार में महसूस हो रही थी। यह अवस्था कब तक रही भर्तृहरि को समय का भान न रहा। जब उसकी तंद्रा टूटी तो बाहर दूर कुकर व शियारो का शोर हो रहा था। गुफा से बाहर आकर आकाश की और देखा तो उसे तारों की स्थिति देख कर पता कि चला की मध्य रात्रि हो रही है। भर्तृहरि ने क्षिप्रा नदी को देखा तो उसे शांत नदी सोती हुई लगी। आकाश में चाँद नदी की शांत सतह पर चमक रहा था। मानो चाँद नदी में नहा रहा हो। भर्तृहरि का चित शांत था वह पुनः गुफा में सोने चला गया। 

आश्रम में सेवा देते, नगर में भिक्षा मांगते तथा योग साधना करते एक वर्ष बीतने को आ गया था। केवल तीन दिन शेष थे। पूर्णमासी का दिन भर्तृहरि को अवलम्बी की दीक्षा देकर साथी बनाने के लिए योगी ने निश्चित किया। आश्रम में उत्सव का माहौल था, लेकिन भर्तृहरि उदास थे। इसके दूसरे दिन पूर्णमासी थी और राजा भर्तृहरि के गुरु बन जायेंगे। मन में भविष्य की कल्पनाओ का रेला चल रहा था तथा रात साधना में मन नहीं लग रहा था।

राजा भर्तृहरि नाथ संप्रदाय का अधिकृत सदस्य होने जा रहा था। गुरु परम्परा की कहानियां मन में घूमने लगी। कितने किस्से, कितनी बातें, अपार ज्ञान। सुबह भर्तृहरि को तैयार किया गया। मुंडन किया गया। क्षिप्रा के शीतल जल में तीन डुबकी लगाकर स्नान कराया गया। बिना सिला वस्त्र पहनाया गया। गले में काली ऊन का एक जनेऊ पहनाया, जिसे 'सिले' कहते हैं। इसमें तीन धागे होते हैं जो इड़ा, पिंगला व सुष्मना नाड़ियों के प्रतीक है। यह शरीर की 72,000 नाड़ियों को पवित्र बनाने की प्रतिज्ञा का स्मृति चिन्ह है। इसके बाद नाथ साधु के रूप में परिव्राजक जीवन बिताना हैं। भर्तृहरि भगवा रंग के बिना सिले वस्त्र धारण करना था। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं। उनके एक हाथ में चिमटा, दूसरे हाथ में कमण्डल, दोनों कानों में कुण्डल, कमर में कमरबन्ध होगा। जटाधारी रहना होगा। इसके बाद नाथपन्थी भजन गाते हुए घूमना हैं और भिक्षाटन कर जीवन यापन करना हैं।

भर्तृहरि गुरु के समक्ष जिज्ञासा कर सकता है। आगम पढ़ सकता है। उसे गुरु के बताये पांच यम अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह व ब्रम्ह्चर्य का पालन करना अनिवार्य होता है। इसी तरह भर्तहरि को पाँच नियम शौच, संतोष, तप, स्वध्याय व ईश्वरप्रणनीधान गुरु द्वारा पालन करने का आदेश दिया गया। रोज सभी योगी गुरु के उनके आसन पर विराजमान होने पर उन्हें प्रणिपात करने के बाद प्रणाम करते “आदेश” बोलकर दृढ़ आसन में बैठ जाते। गुरु प्रतिदिन व्याख्यान देते, जिन्हें योगी दुहराकर स्मरण करते। आश्रम में नियमित योगाभ्यास अपनी गुफा में करना होता। बीच में गुरु के आदेश से अलग गांवों में भिक्षाटन के लिये जाते थे। आश्रम में दिए गये काम साधना का भाग मानकर बिना शिकायत करते।

गुरु का आदेश सर्वोपरि था। आश्रम में यह क्रम निर्वाध रूप से चलता रहता, लेकिन कभी कभार कोई शिष्य दैहिक, दैविक व भौतिक कारणों से बीमार हो जाते। तब गुरु ने एक दिन सबको योग में होने वाले इन अंतरायों व्यवधानों के निदान पर उपदेशित किया।

गुरु के कहा, “मुख्य रूप से नौ व्याधियाँ है, जो योग में अंतराय बन जाती है। इनमें पहली व्याधि शारीरक बीमारी है। इसका इलाज धोती, वस्ति, नेति, त्राटक, नौलि एवं कपालभाती का प्रयोग कर किया जाता है।” सभी शिष्यों को प्रयोग कर इन सभी क्रियाओं में परंगत किया गया।इस व्याधि का उपाय आर्युर्वेद में दी गई औषधयों द्वारा है। शिष्यों को इन उपायों का ज्ञान जानना अनिवार्य किया गया ताकि वे अपने इलाज के साथ दूसरों का इलाज भी कर सके।

गुरू ने कहा, “दूसरी व्याधि है स्त्यान। इस अवस्था में शरीर तो स्वस्थ रहता है, लेकिन मन विचलित रहता है। इसका निदान नाद योग अभ्यास करने से होता है। तीसरी व्याधि शंशय है। जब मन में पंथ के प्रति सन्देह उत्पन्न हो जाता है। इसका निदान पंथ व गुरु के प्रति एक निष्टनिष्ठा बढ़ाकर किया जाता है। चौथी अगली व्याधि में मन में प्रमाद व्याप्त हो जाता है। योग में मन नहीं लगता, साधना से मन उचट जाता था और स्वाध्याय नहीं होता। इस अवस्था में चित को शांत एवं स्थिर करने के लिये प्राणायाम करने के निर्देश है, जिसके अंतर्गत सूर्य भेदन, शीतकारी, शीतला, भस्तिका, भ्रामरी, एवं प्लावनि आदि के प्रयोग गुरु द्वारा सिखाए गये। पांचमी व्याधि है आलश्य।  यह शरीर के स्तर की व्याधि है, जब शरीर में तमस बढ़ जाता है। कुछ करने का मन नहीं करता। जब मन तो होता है, लेकिन शरीर साथ नहीं देता। इस व्याधि को दूर करने के लिए गुरु द्वारा आसन व मुद्राएँ सिखाई गई, जिनमें सुख आसन, स्वस्तिक आसन, गोमुख आसन, वज्रासन, हलासन, उत्तानपाद आसन, ताड़ आसन, चक्र आसन, मयूर आसन, कूर्म आसन, कुक्कुट आसन, धनुषासन, शीर्ष आसन आदि प्रमुख आसन है। मुद्राओं में प्रमुख महामुद्रा, खेचरी मुद्रा, विपरीत करणी तथा वज्रोली है। छठी व्याधि है अविरति। अविरति में विषय भोगों के प्रति आसक्ति बढ़ जाती है। इसको दूर करने के लिए बांधों के प्रयोग कराये गए। इनमें मूलबंध, जालंधर बंध, उड्डियान बंध तथा महाबंध प्रमुख है। सातवीं व्याधि है भ्रांत दर्शन। इस अवस्था में तरह की आवाजें सुनाई देना, ऐसी चीजें दिखाई देना जो है ही नहीं। इस अवस्था को दूर करने के लिए ध्यान तथा धारणा का अभ्यास सिखाया गया। आठवीं व्याधि है अलब्ध भूमिकत्व। यह अवस्था तब आती है, जब साधक अथक प्रयत्न करने पर भी सफलता नहीं पाता। अतः उसका भरोसा डगमगा जाता है।  इस अवस्था में साधक को अपने दूसरे साधकों तथा गुरु का आलंबन मिलता है और वह निरंतर श्रृद्धा के साथ निरंतर अभ्यास में लगा रहता है। नौवीं व्याधि है अवस्थितान। इस व्याधि में साधक एक अवस्था में बहुत अधिक समय तक ठहर नहीं पता है तथा एक बार अनुभव पुनः ना होने से निराश हो जाता है।”

गुरु ने बताया की इस अवस्था में बिना फल की कामना के निरंतर अभ्यास से ही छुटकारा मिलता है। भर्तृहरि ने गुरु के उपदेशों का अभ्यास कठोरता के करना शुरू किया। जब जहाँ बाधा होती गुरु की शरण में जाता। प्रश्न पूछता, शंका समाधान कर फिर अभ्यास में लग जाता। गुरु भी उसकी उपलब्धियों से संतुष्ट रहते। भर्तृहरि प्राकृतिक नियमों से ऊपर उठ मुक्त होकर औघड़ की स्थिति प्राप्त करने की दिशा में बढ़ रहा था। रात दिन योगाभ्यास के उसकी सभी वृत्तियाँ क्षीण हो रही थी तथा चित स्फटिक की भांति निर्मल हो रहा था। वह निरंतर अपनी चित वृतियों पर ध्यान लगता। गुरु ने कई दफा उपदेशों में उल्लेख किया था कि चित की पाँच भूमियां है, जहां चित पैदा होता हैं। उन्हें क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ़, तथा एकाग्र निरुद्ध के रूप में कहा गया है। चित की वृत्तियाँ अनुभव के आधार पर किलिष्ट व अकिलिष्ट होती है। वृत्तियाँ मूलतः पॉँच प्रकार की होती है, जिन्हें प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा तथा स्मृति के रूप में जाना जाता है। 

गुरु ने इनके विवरण में बताया की प्रमाण तीन तरह के है — प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम। वक्त बेवक्त भर्तृहरि ने इनका अनुभव अपने जीवन में किया था। इसलिए वह गुरु की बातों को अनुभव कर रहा था। यह उसके लिए कोरा ज्ञान न होकर भोगा गया यथार्थ था। पिछले एक साल में उसने अनेक उतार चढ़ाव देख लिए थे लेकिन गुरु कृपा से शृद्धा के साथ निरंतर अभ्यास से हर बाधा पार कर सका था। यह ईश्वर का प्रसाद ही था वरना उसकी क्या हैसियत थी। सब प्रारब्ध व संचित कर्मों का फल था।

गुरु ने पुरुष व प्रकृति का भेद बताया। क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ का अंतर समझाया। इसके बाद वह यह जान पाया कि पुरुष चेतन तत्व व प्रकृति अचेतन तत्व कैसे काम करते है। प्रकृति के तीन तत्व सत, राज तथा तम से कैसे प्रकृति के पाँच महाभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश का निर्माण करते है। इन तत्वों का अनुभव शरीर में पाँच कर्म इन्द्रियों मुँह, हाथ, लिंग, गुदा, पैर के माध्यम से उनकी तन्मात्राओं गंध, रूप, रस, स्पर्श एवं शब्द के माध्यम से जानते हैं। इनसे हम स्थूल कार्य करते है। आँख, कान, नाक, त्वचा तथा जीभ पाँच वाह्य इन्द्रियाँ है तथा मन, बुद्धि, चित और अहंकार हमारे अन्तःकरण है। इन्द्रियों के माध्यम से हमें विषयों का ज्ञान होता है। इन्हीं अनुभवों को हम मन में सुख अथवा दुःख के रूप में अनुभव करते है। 

मनुष्य शरीर की संरचना का विस्तृत ज्ञान गुरु द्वारा भर्तृहरि को कराया गया तथा प्रयोग कर दिखाया गया। इससे भर्तृहरि शरीर के अंदर एवं बाहर की हर प्रकिया को कारण काम के सम्बन्ध को समझते है। इसी क्रम में गुरु ने नाड़ी विज्ञान का बोध करवाते हुए बताया कि इड़ा नाड़ी रीढ़ के बाईं तरफ है जो मस्तिष्क के दायें भाग से जुड़ी है। इसको चंद्र स्वर या चंद्र नाड़ी भी कहते है। पिंगला नाड़ी रीढ़ के दाई तरफ है जो मस्तिष्क के बायें भाग से जुड़ी है। इसको सूर्य स्वर या नाड़ी भी कहते है। रीड़ के मध्य भाग में सुषुम्ना नाड़ी है। शरीर के 108 केंद्र स्थूल शरीर को शूक्ष्म शरीर से जोड़ते है। मानव शरीर के पाँच तल अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष तथा आनंदमय कोष है। शरीर के मध्य भाग में रीढ़ पर सात चक्र मूलाधार, स्वधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्वि, आज्ञा व सहत्रधार सात चक्र है। इन्हीं नाड़ियों व चक्रों के माध्यम से प्राण ऊर्जा का प्रवाह शरीर में होता है। ऊर्जा के प्रवाह को निर्बाध संचारित करने के लिए ही नाड़ी शोधक प्राणयाम किया जाता है। मूलाधार चक्र में कुंडलनी तीन कुण्डली मार के सुषुप्ता अवस्था में स्थित है, जिसे योग के माध्यम से जागृत कर मूलाधार से सहत्रधार तक लेकर योगी जाते है।

मानव शरीर की अदृभुत संरचना तथा उनकी शक्तियों को जानकर भर्तृहरि अभिभूत हो उठे। जब गुरु कई बार पिंगला नाड़ी का उल्लेख करते तब भर्तहरि के मानस पटल पर पिंगला रानी की सूरत उभर आती। जब आखिरी बार भर्तृहरि महल में गुरु के आदेश पर पिंगला से भिक्षा लेने गया था, तब उसने पिंगला की आशा भरी आखों में जो कातरता देखी थी। वह नजरें उसे फिर दिखाई दे गई और उसका चित डोल गया लेकिन वैराग्य के अभ्यास के कारण वह अपनी कामनाओं पर काबू कर गया। यदा कदा गहन ध्यान की अवस्था में वह कातर आँखें उसका पीछा करती थी। जब भर्तृहरि को पिंगला के साथ बिताए गए अनंत अंतरंग पल याद हो आते तब यादों का सैलाव रोकना कठिन हो जाता। हालांकि वह इन यादों से मुक्त होने के लिए गुरु के सानिध्य में अथक प्रयास कर रहा था, लेकिन अभी समाधि दूर थी। 

नाथ संप्रदाय को अपनाने के बाद 7 से 12 साल की कठोर तपस्या के बाद ही सन्यासी को दीक्षा दी जाती थी। विशेष परिस्तिथियों में गुरु अनुसार कभी भी दीक्षा दी जा सकती है। दीक्षा देने से पहले एवं बाद में दीक्षा पाने वाले को उम्र भर कठोर नियमों का पालन करना होता था। वह कभी किसी राजा के दरबार में पद प्राप्त नहीं कर सकता, वह कभी किसी राज दरबार में या राज घराने में भोजन नहीं कर सकता, परन्तु राज दरबार वा राजा से भिक्षा जरुर प्राप्त कर सकता है। उसे बिना सिले भगवा वस्त्र धारण करने होते है। हर साँस के साथ मन में आदेश शब्द का जाप करना होता है। किसी अन्य नाथ का अभिवादन भी आदेश शब्द से ही करना होता। सन्यासी योग व जड़ी- बूटी से किसी का रोग ठीक कर सकता है, लेकिन एवज में वह रोगी या उसके परिवार से भिक्षा में सिर्फ अनाज या भगवा वस्त्र ही ले सकता है। वह रोग को ठीक करने के लिए किसी भी प्रकार के आभूषण, मुद्रा आदि ना ले सकता है और न इनका संचय कर सकता। भर्तृहरि को इसी समय की प्रतीक्षा थी। जब उम्र के अंतिम चरण में वह किसी एक स्थान पर रुककर अखण्ड धूनी रमाते हैं तथा कुछ नाथ साधक हिमालय की गुफाओं में चले जाते।

भर्तृहरि की श्रद्धापूर्वक की जा रही कठोर साधना व एक निष्ठा को देखकर गुरु ने औघड़ दीक्षा देने का दिन निश्चय किया। ब्रम्ह महूर्त में भर्तृहरि को क्षिप्रा में स्नान के लिए ले जाया गया। घाट पर पहले मुण्डन किया गया फिर स्नान। इसके बाद गुरु महराज ने कोटी, भभूत व लगोट का संस्कार करवाया गया तथा 'संयम' करने का आदेश दिया गया, जिसके तहत गुरु ने धारणा, ध्यान और समाधि का अभ्यास करने की विधियां बताई गई। इसी से ऋतम्भरा प्रज्ञा का जन्म होने पर साधक पुरानी स्मृतियों से मुक्त हो सकता है। ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न होने वाले संस्कारों से पूर्व के संस्कार कट जाते है, क्योंकि इसके पहले चित के पांच क्लेश अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश चित में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, व मत्सर उत्पन्न करते रहते हैं।

इनके उदय होने पर भर्तृहरि ने गुरु से निदान जानना चाहा तो गुरू ने कहा था — “बच्चा ! समय आने पर में खुद तुम्हें अवगत करा दूंगा।”

यह वह समय आ गया था। गुरु बता रहे थे — “अविद्या के कारण काम की उत्पत्ति होती है। यह क्लेश चित में सदा तनु, विच्छिन्न व उदार स्वरूप में विद्यमान रहता है। अनित्य, अपवित्र, दुख और आत्मा से भिन्न पदार्थ में यथा क्रम से नित्य, पवित्र, सुख, और आत्मभाव की अनुभूति अविद्या कहलाती है। जब साधक अनित्य में नित्य, अपवित्र में पवित्र, दुःख में सुख एवं अनात्मा में आत्मा भाव का अनुभव करता है तब ही अविद्या का नाश होता है। दृक शक्ति तथा दर्शन शक्ति को एक स्वरुप मन लेना ही अस्मिता क्लेश है। जब साधक क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ के भेद को नहीं जानते है तब यह क्लेश उत्पन्न होता है। दूसरों से सुख भोगने की इच्छा ही राग क्लेश है तथा दुख को ना भोगने की इक्छा द्वेष क्लेश है। जीवन के प्रति ममत्व ही अभिनिवेश क्लेश है।”

गुरु के श्रीमुख से यह व्याख्या सुनकर भर्तृहरि यह समझ सके कि उन्हें 'संयम' में क्या अभ्यास करना है। 

भर्तृहरि पांच क्लेश के विलय के लिए अभ्यास कर रहे थे, क्योंकि उन्हें पांच क्लेश को प्रकृति में विलय करना था। इसके बिना पिंगला की उन आँखों से मुक्ति पाने का कोई उपाय न था, जो उसके चित में समय - समय पर उभरती रहती थीं।

अभी तक जो त्यागने योग्य था वह त्यागा जा चुका था, जो छोड़ने योग्य था वह छोड़ा जा चुका था। भर्तृहरि ने 'हान' की स्थिति तो प्राप्त कर ली थीं, लेकिन 'विवेकख्याति' प्राप्त करना अभी बाकी था। भर्तृहरि समझते थे कि जीवन जीने के दो विकल्प मनुष्य के पास हमेशा रहते है, जिस में एक मार्ग को कहते है श्रेयस का मार्ग तथा दूसरे मार्ग को कहते है प्रेयस का मार्ग। चयन का अधिकार हमेशा हमारे पास ही होता है। इसलिए हम अपने चुनाव का दोष किसी दूसरे पर नहीं डाल सकते। जैसे कई लोग भाग्य को, कुछ भगवान को या किसी अन्य को दोषी मानते है, जो अपनी जवाबदारी से मुँह मोड़ना है। हमारे जिस चयन में प्रारम्भ में कष्ट तथा अंत में सुख मिलता है उसे श्रेयस का मार्ग कहते है तथा जिस चयन में शुरू में सुख तथा अंत में दुख मिलता है उसे प्रेयस का मार्ग कहते है।

पूर्व जीवन में उन्होंने हमेशा प्रेयस का मार्ग ही हमेशा चुना था, लेकिन आश्रम में आने के बाद वह श्रेयस के मार्ग पर चल रहे हैं जिसके तहत वह पांच यम साध चुके है। भर्तृहरि ने अहिंसा को साध कर प्राणी भाग से वैरभाव त्याग चुके है। सत्य में दृढ़ होने से कर्म फल त्याग चुके है। अस्तेय के भाव के दृढ़ होने के कारण सभी तरह की चोरी की वृति के भाव विलीन हो गए है। ब्रम्ह्चर्य का पालन करने से समर्थ का लाभ ले रहे है। अपरिग्रह का भाव दृढ़ होने से यह जान चुके है कि पूर्व जन्म किन कारणों से हुए थे तथा उन जन्मों में सम्बन्ध किन कारणों से बने थे।  

इसी तरह भर्तृहरि ने कड़ाई से पांच नियमों का अभी तक पालन कर उनसे प्राप्त होने वाली सिद्धियों की प्राप्ति की है, जिसमें शौच का पालन कर दूसरे से शारीरिक सुख प्राप्त करने की कामना समाप्त हो गई है। संतोष की साधना से मन शुद्धि हुई है तथा चित की एकाग्रता बढ़ी है और इन्द्रियों पर नियंत्रण हो गया है। तप करने से इन्द्रियाँ बलवान हो गई है। स्वाध्याय करने से वह जान गए है कि प्रकाश क्रिया व स्थिति जिसका स्वाभाव है। भूत और इन्द्रियाँ का स्वरुप है, जिसमें पुरुष के लिए भोग और मुक्ति का प्रयोजन है। 

इसमें पाँच तन्त्र अहंकार, लिंग व अलिंग सम्मिलित है, जो चेतना मात्र ज्ञान स्वरुप आत्मा है। वह शुद्ध वृति के अनुरूप देखने वाला दृष्टा है। आत्मा का किसी काल में नास नहीं होता है। इसलिए यह सनातन है तथा सनातन को मानने वाला सनातन धर्मी है। मूल के विद्यमान रहने तक उस कर्म का परिणाम जन्म, आयु, व भोग के रूप में प्राप्त होता रहता है। वह हर्ष व दुख रूपी कर्मफल देते है, लेकिन विवेकी के लिए सभी कर्मफल दुःख रूप ही हो जाते है। भर्तृहरि को अब पिंगला से उनका सम्बन्ध व धोखा स्पष्ट हो गया कि वे उनके ही पूर्व जन्म के कर्मो के परिणाम थे और कुछ नहीं। यह ज्ञान होते ही उनका चित निर्मल हो गया। सब यादें तिरोहित हो गई। अब ध्यान चित में गहराने लगा। भर्तृहरि को दृढ़ आसन सिद्ध हो जाने से उन्हें गर्मी, सर्दी, भूख, प्यास, लाभ, हानि, द्वन्द के आघात समाप्त हो गये थे।

प्राणायाम का अभ्यास निरंतर करने से वाह्य वृत्तियाँ, अभ्यान्तर वृत्तियाँ, स्तवन वृति तथा स्थान, समय एवं गणना लम्बी और हल्की करने की शक्ति मिल गई। सथ ही कर्मों का त्याग हो गया।  प्राणायाम के अनुष्ठान से विवेक ज्ञान के ऊपर पड़े अज्ञान की परत कमजोर हो गई और मन की एकाग्रता बढ़ गई। प्रत्याहार से इन्द्रियों का निग्रह हो आया। धारणा से चित को एक स्थान पर लगाने से चित वृतियां एकरूप हो गई। इस समाधि की तरह बढ़ने का समय पास आ रहा था,  क्योंकि कृतकारित एवं अनुमोदित कर्म समाप्त हो गए थे। चित की भूमियाँ क्षिप्त, विक्षिप्त, मूड़ आदि का नाश हो कर एकाग्र भूमि के निरंतर उदय से समाधि गहराने लगी।

भर्तृहरि विभिन्न विभूतियों का अनुभव अनायास ही करने लगे। इनमें पदार्थ के धर्म, लक्षण एवं अवस्था में संयम से बहुत और भविष्य का ज्ञान होने लगा। शब्द व उनके अर्थ ज्ञान का जुड़ाव होने से सभी प्राणियों की बोली समझ में आने लगी। अपना चित संशय रहित होने से दूसरे के चित को पड़ना आसान हो गया। मृत्यु का पूर्व ज्ञान भी होने लगा। भर्तृहरि हर जीव से मैत्री, करुणा एवं मुदिता के भाव से भरकर सम्बन्ध रखने लगे। अभी उनके चित में भूत एवं भविष्य का चिंतन नहीं रहा। चित वर्तमान में स्थिर रहने लगा। 

बुद्धि व जीवात्मा की शुद्धि के प्रयास तेज होने लगे और वह धीरे केवल्य की ओर अग्रसर हो रहे थे तथा गुरु वक्त बेवक्त पर मार्गदर्शन करते। भर्तृहरि अपनी गुफा से तभी बहार आते जब उन्हें कोई जरुरी काम हो अन्यथा अधिकांश समय वह गुफा में ही दृढ़ आसन पर चित एकाग्र कर ध्यान लगाये बैठे रहते। चेतना बांस की तरह सीधी खड़ी रहती तथा जैसे निष्कंप दीपक की लौ जलती। उनकी चेतना का वही स्वरुप हो गया। यह प्रतिति इतनी तीव्र व स्पष्ट थी कि शब्दों में उसे किससे कहा नहीं जा सकता। 

यह अवस्था इतने आनंद से भरी रहती कि वह उस अवस्था से बाहर नहीं निकलना चाहते थे। भर्तृहरि ने विवेक ज्ञान से कैवल्य की स्थिति पाली थी और धर्म मेघ समाधि की ओर अग्रसर हो रहे थे। कई दिनों बाद भर्तृहरि ने गुरु चरणों में दंडवत प्रणाम किया। अब न प्रश्न शेष थे, न क्लेश। दृश्य व दृष्टा अपने स्वरूप में थे। गुरु ने अब भर्तृहरि को दर्शनी दीक्षा देने का मन में निश्चय किया। दर्शनी दीक्षा में उनके कण में छेदकर पक्के कुण्डल धारण करवाए गए। भभूत लगाया गया। पंञ्च संस्कार पूर्ण किये गए। राजा ने अलख निरंजन का घोष किया, जिसे आश्रम में सभी ने दुहराया। यह उद्घोष 'दिग्-दिगन्त' में गुंजायमान हो उठा और इसके बाद वह साधु से कनफटा योगी बन गए थे। साथ ही अब वह 'क्रम' में अवस्थित थे। वह अनुभव कर चुके थे कि आत्मा का अपने मूल स्वरुप में स्थित हो जाना ही मोक्ष है। इनके अंदर बाहर का भेद समाप्त हो गया था। यह सब करते हुए बारह वर्ष कब व्यतीत हो गए पता ही नहीं चला। जब उन्हें ज्ञान हो गया तब फिर आदेश से भर्तृहरि ने वैराग्य शतक की रचना प्रारम्भ की। 

'संयम' पर विजय प्राप्त करने पर बुद्धि समाधि परक प्रकाश में आलोकित हो जाती है। भर्तृहरि ने संयम का अभ्यास पहले स्थूल से शुरू किया। फिर सूक्ष्म भूमियों काम करके संयम को साधा। इससे भर्तृहरि के चित की भूमियां क्षिप्त, विक्षिप्त एवं मूढ़ आदि का नाश हो गया तथा एकाग्रता का उदय हुआ। संयम से पदार्थ के अतीत, वर्तमान एवं भविष्य में एक तत्व समान रहता है। वहीं तत्व उस पदार्थ का धर्म है। यह भर्तृहरि को अच्छे से ज्ञात हो गया। पदार्थ के तीनों परिणामों धर्म, लक्षण तथा स्थान का ज्ञान होने से पदार्थ की भूत तथा भविष्य को जानने में सक्षम हो गए। शब्द एवं उनके अर्थ अभिधा, लक्ष्णा और व्यंजना का जुड़ाव जान जाने से अब भर्तृहरि सभी जीवों के शब्द समझने में सक्ष्म हो गए।  संयम धारण करने से पूर्व जन्मों का ज्ञान प्राप्य हो गया। वह यह स्पष्ट देख सके कि योगी जब अनेक शरीरों का निर्माण करता है, तब वह अस्मिता का प्रयोग करके अनेक चित निर्मित कर लेता है। सभी चितों का विलय समाधि की अवस्था में हो जाने से उनके कर्म भी पाप पुण्य रहित हो गए।

पूर्व जन्मों के संचित संस्कारों कि अनुभूति भर्तृहरि को अभी भी आती जाती रहती है। कई दफा गहन अंधकार में गुफा के अंदर पिंगला की उपस्थिति महसूस करते। पिंगला की कातर आँखें स्पष्ट चमकती दिखती, तब वे पसीने से लथपथ हो जाते। भर्तृहरि को याद आता हैं कि “स्त्री किस प्रकार मनुष्य के संसार बन्धन का कारण है। जैसा भर्तृहरि ने कैसे शृंगारशतकम् में लिखा था कि मन्द मुस्कराहट से, अन्तकरण के विकाररूप भाव से, लज्जा से, आकस्मिक भय से, तिरछी दृष्टि द्वारा देखने से, बातचीत से, ईर्ष्या के कारण कलह से, लीला विलास से इस प्रकार सम्पूर्ण भावों से स्त्रियां पुरूषों के संसार-बंधन का कारण हैं।”

शृंगारशतकम् में भरथरी ने स्त्रियों के अनेक आयुध हथियार गिनाए हैं - “भौंहों के उतार-चढ़ाव आदि की चतुराई, अर्द्ध-उन्मीलित नेत्रों द्वारा कटाक्ष, अत्यधिक स्निग्ध एवं मधुर वाणी, लज्जापूर्ण सुकोमल हास, विलास द्वारा मन्द-मन्द गमन और स्थित होना - यह भाव स्त्रियों के आभूषण भी हैं और आयुध हथियार भी हैं।” किसी समय जीवन के पडाव पर वह इसी तरह के विचारों को सत्य मानते थे।

पिंगला का जन्म भर्तृहरि से मिलने के लिए ही हुआ था। वह जागीरदार की छोटी बेटी थी उसकी बड़ी बहन का नाम इड़ा था। इड़ा एवं पिंगला जुड़वाँ बहनें थी। उनकी माँ ने दोनों बहनों को बड़े लाड़ प्यार एवं जतन से पाल पोस कर बड़ा किया था। जागीरदार ने अपनी पुत्रियों की शिक्षा दीक्षा संदीपनि ऋषि के आश्रम के आचार्यों की देखरेख में 64 कलाओं में दिलवाई थी। पिंगला गान, वाद्य, नृत्य, नाट्य, चित्रकारी, श्रृंगार, इन्द्रजाल, कूटनीति, वशीकरण, चिकित्सा, उच्चाटन, विधि, सांकेतिक भाषा, रत्न शास्त्र एवं धूत कीड़ा आदि कलाओं में विशेष रूचि होने से अतिशय पारंगत थी। वह बचपन से ही महत्वाकांक्षी एवं नई चुनौतियाँ स्वीकार करने वाली थी। जीतने की असीम इच्छा एव पिता की लाड़ली होने से राजकाज एवं न्याय में पारंगत हो गई थी। 

भर्तृहरि को यह ध्यान था कि वह उम्र में छोटी थी, लेकिन विभिन्न ग्रहों से स्त्रियों की तुलना कितनी आकर्षक है- “स्तन भार के कारण देवगुरू बृहस्पति के समान, कान्तिमान होने के कारण सूर्य के समान, चन्द्रमुखी होने के कारण चन्द्रमा के समान और मन्द-मन्द चलने वाली अथवा शनैश्चर—शनैश्चर स्वरूप चरणों से शोभित होने के कारण सुन्दरियां ग्रह स्वरूप ही हुआ करती है।” पिंगला को देखकर उसे शृंगारशतकम् में लिखा अपना यह श्लोक बरवस याद आ गया था। 

राजा भर्तृहरि ने हटपूर्वक उससे विवाह किया था। पिंगला ने गुरुकुल में भर्तृहरि का शृंगारशतक पड़ा था। भर्तृहरि बहुत विद्वान, पराक्रमी तथा रसिक लगते थे। हालांकि उसकी माँ ने बहुत उत्साह नहीं दिखाया था, लेकिन पति हट तथा जिद के कारण उसकी नहीं चली थी। उसने पिंगला की विदा के पूर्व राजा की बढ़ती उम्र का हवाला दे कर ऊंच-नीच का ज्ञान करवाया था। 

जब वह महल में आई तब उसका वैसा स्वागत नहीं किया गया, जैसा उसने अपने मन में कल्पना की थी। राजा की दो पत्नियों तथा उनके बच्चों की व्यस्तता के कारण उसे अकेलेपन का सामना करना पड़ता था। महल में गृहकलह कभी - कभी बहुत कटु हो जाती थी। तब अक्सर वह अपने आप को अपने कमरे में बन्द कर लेती थी। राजा राजकाज में व्यस्त रहते थे। कभी रात को वह वेश बदलकर नगर में प्रजा का हाल चाल जानने जाते थे।

भर्तृहरि ने अपने अनुभवों के आधार पर नीतिशतकम् के कुछ श्लोक विक्रम को कहें। “धन का जीवन में महत्त्व कितना है। भर्तहरि ने कहा कि जिसके पास वित्त होता है, वही कुलीन, पण्डित, बहुश्रुत और गुणवान समझा जाता है। वहीं वक्ता और सुन्दर भी गिना जाता है। सभी गुण स्वर्ण पर आश्रित हैं।”

अज्ञानी व्यक्ति के सम्बन्ध में राजा भर्तृहरि ने कहा, “ हिताहित ज्ञान शून्य नासमझ को समझाना बहुत आसान है। उचित और अनुचित को जानने वाले ज्ञानवान को राजी करना और भी आसान है, किन्तु थोड़े से ज्ञान से अपने को पण्डित समझने वाले को स्वयं विधाता भी सन्तुष्ट नहीं कर सकता। यदि मनुष्य चाहे तो मकर की दाढ़ों की नोक में से मणि निकल लेने का उद्योग भले ही करे। यदि चाहे तो चञ्चल लहरों से उथल-पुथल समुद्र को अपनी भुजाओं से तैरकर पार करके जाने की चेष्टा भले ही करे, क्रोध से भरे हुए सर्प को पुष्पहार की तरह सर पर धारण करने का साहस करे तो भले ही करे, लेकिन हठ पर चढ़े हुए मूर्ख मनुष्य के चित्त की असत मार्ग से सात मार्ग पर लाने की हिम्मत कभी न करे।”

जब रात को पिंगला अकेली होती तब वह महल के झरोखे से क्षिप्रा नदी को निहारती। नदी की धारा निर्बाध अल्हड़पन से बहती रहती। नदी की धार नीरव में पिंगला के मन में कामनाओं की बाढ़ देती। सम्पूर्ण महल निद्रा की गोद में होता केवल द्वारपालों की आवाजें कभी नीरवता भंग करती थी। द्वारपाल अक्सर अपनी लाठी ठोककर आवाज करते। एक रात पिंगला जब महल के गवाक्ष में बैठकर नदी निहार रही थी तब उसे दूधिया चांदनी में नीचे सैनिक वेशभूषा में एक युवक दिखा। वह सैनिक वर्दी में वहुत आकर्षक, सुडौल एवं सुन्दर लग रहा था। 

उसे यह जानने की उत्सुकता हुई कि यह युवक कौन है? उसने अपनी दासी से सुबह पूछा तो दासी ने बताया कि यह नगर कोतवाल है, जो कभी - कभी महल की सुरक्षा व्यवस्था देखने रात में आता है। रानी मन मसोस कर रह गई कुछ न बोली। एक रात नींद नहीं आने के कारण वह छत पर अकेले टहल रही थी। कमरे में गर्मी अधिक होने से वह छत पर नदी की और से आ रही ठंडी हवा में आ बैठी थी।

तभी छत पर वह युवक आया। बड़ी विनम्रता से सिर झुकाकर उसने अभिवादन किया और अनुरोध किया कि रात्रि के दूसरे पहर अकेले छत पर जाना सुरक्षा की दृष्टि से ठीक नहीं है। इसके बाद रानी ने कहा कि महाराज राजकाज से बाहर गए है, कमरे में बड़ी गर्मी थी इस कारण वह अकेली छत पर आई थी। फिर रानी उससे इधर उधर के सवाल करती रही और वह युवक बड़ी विनम्रता से उत्तर दे रहा था। रानी ने उसके काम के बारे में जानना चाहा तो उसने बताया कि तीन वर्ष पूर्व उसने महाराज को शिकार के समय हुए हमले में संकट के समय उनकी रक्षा की थी, तभी उसके बाद से उसे इस पद पर नियुक्त किया गया था। उसका परिवार गॉव में है तथा वह अकेला राजमहल के पास राज्य से मिले आवास में रहता है। इसी तरह बात करते हुए समय  बीतता रहा, जिसका पिंगला को पता ही न चला। अधिक समय हुआ जानकर कोतवाल आज्ञा लेकर चला गया। 

पिंगला भी अपने कमरे में आ गई। पलंग पर लेटते ही उसे वह घटना याद आ गई जब एक दिन सुबह राजा को उसके घर घायल अवस्था में लाया गया था। कैसे उसने मन लगाकर उनकी सेवा की थी। सोचते हुए जाने कब उसे नींद आ गई पता ही नहीं चला।    

रानी जब अकेली होती तब वह रात में छत पर इस आशा में टहलती रहती की। शायद उसकी मुलाकात फिर कोतवाल से हो जाए, लेकिन कोतवाल कई दिनों तक उधर नहीं आया। पिंगला के मन से युवा कोतवाल का चेहरा हटता नहीं था, लेकिन उसे अपने पद की गरिमा का ख्याल आता तो वह कोई कदम नहीं उठा पाती। पिंगला राजा भर्तृहरि से बहुत प्यार था, लेकिन मन कभी इतना विचलित हो जाता कि वह अपने मन के सामने हारने लगती।

विचारों की उहापोह व संकल्प - विकल्प निरंतर चलता रहता। वह अपने आपसे लड़ रही थी, लेकिन इस बार महाराज भी महीनों से महल नहीं लौट सके थे। इस प्रकार में तीन दिन बीत गए, लेकिन अपनी अदम्य वासना के कारण उसने अपनी विश्वस्त दासी से कोतवाल को बुला भेजा। वह छत की जगह महल के एक खाली पड़े कक्ष में उससे मिली। फिर वे अक्सर मिलने लगे और कहते है कि दीवारों के भी कान होते है। एक कहावत है — “खैर, खून, खांसी, खुशी, वैर, प्रीत एवं मदपान छुपाने से भी नहीं छुपते है।” आखिरकार कहावत सत्य हो गई।

इन दोनों के मिलने की खबर महल के गलियारों से राजा भर्तृहरि के भाई विक्रम तक पहुँच गई। विक्रम ने अपने जासूस लगा दिए। एक रात खबर मिलने पर विक्रम ने रानी को रंगे हाथों पकड़ लिया। वह रानी को छुपकर देख रहे थे, लेकिन रानी को निकलते समय विक्रम दिख गए। वह रानी का बहुत सम्मान करते थे। इसलिए सामने से कुछ न कह सके। 

विक्रम ने कोतवाल को इधर न आने का हुकुम दिया। वह बहुत डर गया था। राजा भर्तहरि अभी भी बाहर ही थे।

कुछ दिन शांति से बीत गए, लेकिन पिंगला के हट के कारण बुलाने पर कोतवाल को विवश होकर आना ही पड़ता था, क्योंकि वह यह जानता था कि उसकी यह हरकत कभी भी उसका सिर धड़ से अलग करवा सकती है। रानी से एक दो बार उसने अपनी शंका रखने की कोशिश की, लेकिन रानी ने कुछ नहीं सुनने को तैयार थी। एक रात रानी ने उसे अस्तबल में मिलने के लिए बुला भेजा। जब वह उधर जा रहा था उसका सामना विक्रम से होने को था, लेकिन विक्रम की नजर उस पर पड़े उसके पहले ही वह एक खंभे की ओट में छिप गया, लेकिन सतर्क विक्रम को दिख ही गया। वह कुछ न कहे आगे बढ़ गया क्योंकि उसके साथ दूसरे लोग भी थे।  

उस दिन कोतवाल का शरीर पीला पड़ गया था। वह बहुत उदास था उसने कई बार सोचा कि वह वापस चला जाये, लेकिन वह रानी से बहुत डरता था। उसे डर था कि रानी कुछ उल्टा सीधा कांड न कर दे। रानी अनेक मौकों पर अपनी जान तक देने की बात कर चुकी थी। इस कारण वह रानी के त्रिया चरित्र से डरता हुआ पहुँचा। इसे इतना डरा देखकर रानी ने उससे कारण जानना चाहा तो डर के मारे उसने सही बात बता दी। रानी कोतवाल को अंक में भर कर शांत होने को कह रही थी। दोनों बहुत अस्त व्यस्त थे तभी कुछ आवाज हुई और रानी बदहवास हालत में अपने कमरे की ओर भागी तथा राजा से झूठ बोलकर विक्रम को राजमहल से बहार भिजवा दिया था। भर्तृहरि व विक्रम दोनों के एक ही पिता की दो पत्नियों से पैदा हुए थे। दोनों भाइयों में कभी मतभेद नहीं हुआ, लेकिन पिंगला के कारण दोनों भाइयो में मतभेद हुआ था। विक्रम के राजमहल से जाने के बाद पिंगला का राजकाज में दखल बढ़ गया था।

भर्तृहरि के प्रति राज्य में असंतोष बढ़ जाने के कारण गुरु गोरखनाथ तक यह खबर पहुंची थी तब वे फल का उपहार देने राजमहल आये थे और वह फल रानी से होता हुआ वैश्या द्वारा फिर भर्तृहरि तक आ गया था। तब भर्तृहरि को वैराग्य उत्पन्न हुआ और वह राजपाट विक्रम को देकर आश्रम आ गया था। भर्तृहरि ने तपोबल से सच्ची बात जान ली थी।

वैराग्यशतकम् के एक श्लोक में इस घटना को इस तरह लिखा था-  “मैं जिसका सतत चिन्तन करता हूँ, वह पिंगला मेरे प्रति उदासीन है। वह पिंगला जिसको चाहती है वह तो कोई दूसरी ही स्त्री राजनर्तकी में आसक्त है। वह राजनर्तकी मेरे प्रति स्नेहभाव रखती है। उस पिंगला को धिक्कार है! उस व्यक्ति को धिक्कार है! उस राजनर्तकी को धिक्कार है! उस कामदेव को धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है!”

पिंगला उस समय अपनी चाल में कामयाब रही थी और भर्तृहरि ने विक्रम की बातों पर भरोसा न कर उसे राजमहल से चले जाने को कहाँ था। हालांकि भर्तृहरि जानते थे,  “जिन्होंने न विद्या पढ़ी है, न तप किया है, न दान ही दिया है, न ज्ञान का ही उपार्जन किया है, न सच्चरित्रों का सा आचरण ही किया है, न गुण ही सीखा है, न धर्म का अनुष्ठान ही किया है - वह इस लोक में वृथा पृथ्वी का बोझ व मनुष्य की सूरत-शक्ल में चरते हुए पशु हैं।”

“बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है, लेकिन अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। अपने रिश्तेदारों के प्रति उदारता, दूसरों पर दया, दुष्टों के साथ शठता, सज्जनों के साथ प्रीति, राज सभा में नीति, विद्वानों के आगे नम्रता, शत्रुओं के साथ क्रूरता, गुरुजनों के सामने सहनशीलता और स्त्रियों में धूर्तता या चतुरता का बर्ताव करते हैं - उन्हीं कला कुशल नर पुंङ्गवों से लोक मर्यादा या लोक स्थिति है, अर्थात जगत उन्हीं पर ठहरा हुआ है।”

भर्तृहरि राजा राजपाट छोड़कर इतनी तपस्या कर चुके थे, लेकिन पिंगला की आँखें अभी भी पीछा करती थी। राजा भर्तृहरि ने अपने अनुभव के आधार पर वैराग्यशतकम् में लिखा — “मैंने अब तक बहुत देशों और विषम दुर्गों में भ्रमण सकया तो भी कुछ फल न मिला। अपनी जाति और कुल के अभिमान को छोड़कर दूसरों की सेवा भी व्यर्थ ही गई। अपने मान की चिन्ता न करते हुए पराये घर में काक के समान भोजन किया तो भी है, पापकर्म में निरंत दुरमति रूप तृष्णे! तू सन्तुष्ट नहीं हो सकी। हे तृष्णे! अब तो मेरा पीछा छोड़ देखो, तेरे जाल में पड़कर मैंने धन की खोज में पृथ्वी खोद डाली, रसायन-सिच्द्धी की इक्छा से पर्वत की बहुत सी धातुएं भस्म कर डाली, रत्नों की कामना से नदियों के पति समुद्र को भी पार किया और मन्त्रों की सिद्धि के उद्देश्य मन लगाकर अनेक रात्रियाँ श्मशान में बिताई तो भी एक कानी कौड़ी हाथ न लग सकी।”

“भोग करने पर रोग का भय, उच्च कुल मे जन्म होने पर बदनामी का भय, अधिक धन होने पर राजा का भय, मौन रहने पर दैन्य का भय, बलशाली होने पर शत्रुओं का भय, रूपवान होने पर वृद्धावस्था का भय, शास्त्र मे पारङ्गत होने पर वाद-विवाद का भय, गुणी होने पर दुर्जनों का भय, अच्छा शरीर होने पर यम का भय रहता है। इस संसार मे सभी वस्तुएँ भय उत्पन्न करने वालीं हैं। केवल वैराग्य से ही लोगों को अभय प्राप्त हो सकता है।”

एक दिन अवसर पाकर उन्होंने गुरु चरणों में अलख जगायी और आदेश का जयकार किया। गुरु समझ गए और उपदेश दिया कि वत्स जैसे पूर्व जन्मों के संचित कर्मो से चित में पाँच क्लेश उत्पन्न होते है, उसी तरह इस जन्म के संस्कारों को छटा क्लेश मान। विवेक ज्ञान होने के बाद भी बीच में संचित संस्कारों के कारण स्थिति विवेक ज्ञान के साथ आती जाती रहती है। विवेक ज्ञान से उत्पन्न सिद्धियों से अनासक्त हो जाने पर सर्वथा विवेक ख्याति होने से मेघ समाधि की प्राप्ति होती है, जिससे क्लेश मूलक कर्म समुदाय की समाप्ति हो जाती है। अतः इसे तुम उपेच्छा के भाव से ही देखो, क्योंकि गन अपने कारण में लीन हो जाने पर कैवल्य प्राप्त होकर तुम आत्मा के अपने वास्तिविक स्वरुप में स्थित हो जाओगे। भर्तृहरि की शंका का समाधान गुरुवाणी से होने के बाद उन्होंने आदेश कह अभिवादन किया। तब गुरु ने उन्हें उज्जैन छोड़कर परिभ्रमण करने का निर्देश दिया। भर्तृहरि ने वैराग्यशतकम् में अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर लिखा -

"भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।

कालो न यातो वयमेव यातास्त्रणा जीणाज वयमेव जीणाजः।" 

हमने विषयों को नहीं भोगा, वरन विषयों ने ही हमें भोग लिया। हमने तपस्या नहीं की, वरन तपस्या ने ही हमें तप्त कर दिया। हमसे काल व्यतीत न हुआ वरन हम ही व्यतीत हो गए। तृष्णा जीर्ण न हुई वरन हम ही जीर्ण हो गए।

साधु ने जैसे ही अगला सवाल पूछने के लिए मुँह खोल रहे थे, तभी रवि यकायक बोल पड़ा। रवि ने फिर पूछा — "कालजयी उज्जैनी का रहस्य क्या है? राजा भर्तहरि महाराज कौन थे?"

नाथ आश्रम के महंत ने रवि को राजा भर्तृहरि तथा उज्जैन के बारे में बताना शुरू किया। एक रात राजा को नींद नहीं आ रही थी। वह पलंग पर लेटता फिर खिड़की तक जाता, उसे समझ नहीं आ रहा है कि नींद क्यों नहीं आ रहीं है। मन इतना अशांत क्यों है? मन के अंदर विचार, बाहर विचार और विचारों की निरंतर शृंखला। शरीर कांप रहा था, लेकिन राजा के महल की खिड़की से क्षिप्रा नदी के पार दूर टिमटिमाते दीपक तक जाती, जो एक सन्यासी के आश्रम में जल रहा था और महाराज सोचता कि सन्यासी कितना सुखी है। रात पूर्णता निस्तब्ध थी और आसमान काला, केवल तारे टिमटिमा रहे थे। नीरव रात कितनी रहस्य मय होती है। केवल दूर से झींगुरों की आवाज आ रही है एवं नदी तट पर जुगनूं रह रह कर चमक रहे थे। कभी सुदूर जंगल से कोई जानवर आवाज कर अपने साथियों को खतरे से आगाह करता या महल के नीचे गली में कुत्ते भौंकते या लड़ते आवाज कर देते, जिससे राजा का ध्यान उधर चला जाता और विचार तन्द्रा टूट जाती। वह अक्सर सोचता की राजा बनकर मुझे क्या ही मिला है।

वह कल्पना करता की सन्यासी कितना सुखी होगा खूब गहरी नींद सो रहा होगा। यह सन्यासी नया था, राजा ने कुछ दिन पहले ही भिक्षा लेते महल के नीचे खिड़की से देखा था। जब कभी चिंताओं के कारण उसे नींद नहीं आती तब वह दूर नदी के उस पार टीले पर बने आश्रम के दीपक को अक्सर देखा करता। सन्यासी की तरफ उस का आकर्षण बढ़ता जा रहा था।

राजा को गर्व है कि वह उस उज्जयिनी राज्य के राजा है, जिसको स्कन्द पुराण के अनुसार त्रिपुर राक्षस का वध करके भगवान शंकर ने बसाया था। महाराज ने पड़ा था कि स्कन्द पुराण के अवंति खंड के अनुसार सनकादि ॠषियों द्वारा दिया उज्जयिनी नाम दिया गया है। महाकाल की उज्जयिनी कालजयी नगरी है। हमारे देस में सबसे प्रचीन नगरों को सप्त पूरी के रूप में जाना जाता हैं। इनमें अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, बनारस, कांचीपुरम, उज्जैन व द्वारका नगर हैं। वैदिक साहित्य में समय समय पर नगर को अनेक नामों से पुकारा गया, लेकिन सृष्टि के आरम्भ से उज्जैन का अस्तित्व मिलता है। नगर को सप्त पुरियों में स्थान दिया गया तथा कुम्भ मेले का आयोजन सिंहस्थ के रूप में हर बारह साल में क्षिप्रा के किनारे किया जाता है। इन सब के कारण उज्जैन को मोक्षदायनी मानते है। मोक्ष की अवधारणा सनातन धर्म का मूल आधार है।

उज्जैन को समय के विभिन्न कालों में भिन्न भिन्न नामों का उल्लेख मिलता है। इस समय भारत में सोलह जनपद थे, जिनमें अवंति जनपद भी एक था। अवंति उत्तर एवं दक्षिण इन दो भागों में विभक्त होकर उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन थी तथा दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति थी।

राजा भर्तृहरि के मन में विचारों की श्रृंखला चल निकली थी। इसने गुरु के आश्रम में नगर के इतिहास को पढ़ा था कि पूर्व महाभारत में विद और अनुविंद उज्जयिनी के शासक थे, जो कुरुक्षेत्र के युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे। बौद्धकाल में यह एक विस्तृत राज्य के रूप में था, जिसमें उज्जयिनी एक बड़ी व्यापारिक मण्डी के रूप में विकसित थी।

पाली साहित्यों के अनुसार यह नगरी राजा चंद्रप्रद्योत की राजधानी थी। यह राजा गौतम बुद्ध का समकालीन था। इसके तीन पुत्र तथा वासवदत्ता नामक एक पुत्री थी। वासवदत्ता ही बाद में कौशल सम्राट उदयन की प्रधान रानी हुई। धम्मपद की टीका में इसका उल्लेख है। प्रद्योत ने धीरे धीरे अपना राज्य खूब बढ़ा लिया। दूसरे राजा उसके विस्तार से डरने लगे, लेकिन प्रद्योत की नजर पड़ोस के कौशांबी राज्य पर थी। राजा उदयन जितना विलासी था उतना ही वीर भी, उसके बारे में कहा जाता था कि वह वीणा बजाने और हाथी के शिकार में बहुत कुशल था। वीणा बजाकर हाथी पकड़ा करता था। उसकी इस कमजोरी को प्रद्योत ने अपना हथियार बनाया। अवंती और उदयन के राज्य वत्स की सीमा पर नकली हाथी छोड़ा गया, जिसने उदयन को लुभा लिया। दरअसल इस हाथी के अंदर हथियारबंद सिपाही थे। जैसे ही उदयन ने इस हाथी को पकड़ा, वैसे ही उसके अंदर बैठे सिपाहियों ने बाहर आकर उसे कैद कर लिया। महिनों उदयन उज्जैन की कैद में रहा। दण्डिन ने इसी आधार पर वासवदत्ता लिखी। प्रद्योत की बेटी का नाम वासवदत्ता था, जिसकी खूबसूरती और संगीतकला की चर्चाएं पौराणिक कथाओं में हुई है। प्रद्योत ने कैदी राजा उदयन को अपनी बेटी को वीणा सिखाने का काम दिया। वीणा सिखाते समय दोनों में प्रेम हो गया। एक दिन हाथी पर वासवदत्ता को लेकर उदयन कौशांबी भाग गया और वत्स राज्य फिर आजाद हो गया।

उज्जैन पर मगध के नन्दों का राज हुआ। जब चाणक्य और चंद्रगुप्त ने मिलकर नन्दों का संहार किया तब उज्जैन पर भी उसका अधिकार हो गया। चंद्रगुप्त ने उज्जैन को अपनी राजधानी बनाया। सम्राट अशोक उसका पोता था और प्रसिद्ध राजा होने से पहले वह उज्जैन का ही शासक रहा। उज्जैन दक्षिण के व्यापारिक पथ का बड़ा केंद्र था। यह रास्ता श्रीवस्ती से विदिशा से उज्जैन या अवन्ति से महेश्वर या महिष्मति को भरुच या भृगु कच्छ के बंदरगाह द्रारा रोम तक को जोड़ता था। दक्षिण में उज्जैन से औरंगाबाद बड़ा व्यापारिक मार्ग भी जाता था। इस जमाने में उज्जैन समुद्र से आने वाले माल और उत्तर से समुद्र की ओर जाने वाले माल की सबसे बड़ी मंडी बन गया। पूरे एशिया से लेकर यूरोप तक उज्जैन की ख्याति फैलने लगी।

इसे पृथ्वी तथा आकाश की सापेक्षता के सन्दर्भ में उज्जैन की स्थिति मध्य में होने के कारण विश्व का नाभि स्थल माना गया। इसी कारण यहां समय या काल के अधिष्ठाता महाकाल के ज्योतिर्लिंग की स्थापना की गई। प्राचीन काल से ही उज्जैन को केंद्र मानकर काल गणना की जाती थी। उस समय के सभी पंचांग उज्जैन को केंद्र मन कर तैयार होते रहे है।

महाकाल की आराधना वाम मार्ग से होने के कारण यह तांत्रिको का मुख्य केंद्र है। उज्जैन नगर को तंत्र शास्त्रों में मणिपुर केंद्र माना गया है। मणिपुर चक्र को सिद्ध करने के कारण व्यक्ति की सृजन शक्ति बहुत बढ़ जाती है। इसी कारण आदि काल से उज्जैन विद्वानों, लेखकों, कवियों, गणतज्ञों, खगोलशास्त्रियों, ज्योतिष शास्त्री, चिंतक, साधकों, गायकों, कलाकारों का प्रमुख केंद्र बन गया। उज्जैन नगर का वास्तु शैव्य तांत्रिक आधार पर होने से यहाँ महाकाल, पार्वती, गणेश, कार्त्केय, काल भैरव के अलावा गणकाएं, मातृकाएं आदि शिव परिवार के मंदिर उस मान से बनाये गए।

वैदिक काल गणना के अनुसार युग एवं हर युग के 84 कल्पों के प्रतीक के तौर पर 84 महादेव मंदिर बनाए गए। पृथ्वी के प्रतिनिधत्व के लिए सप्त सागर बनाए गए। यह सब तांत्रिक सिद्धांतों तथा खगोलीय गणनाओं को आधार मन करके स्थापित किये गए। इन सबके कारण उज्जैन को अनादि माना गया है। इसलिए काल के अधिष्ठाता महाकाल का निवास देवताओं ने महाकाल वन में बनाया।

मेघदूत में महाकवि कालिदास ने उज्जयिनी का सुंदर वर्णन करते हुए कहा है कि जब स्वर्गीय जीवों को अपने पुण्य क्षीण होने की स्थिति में पृथ्वी पर आना पड़ा। तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने साथ स्वर्ग का एक खंड टुकड़ा भी ले चले, जब स्वर्गखंड उज्जयिनी है। महाकवि ने लिखा है कि उज्जयिनी भारत का वह प्रदेश है जहां के वृद्धजन इतिहास प्रसिद्ध अधिपति राजा उदयन की प्रणय गाथा कहने में पूर्ण दक्ष है। जैन ग्रंथों के अनुसार राजा खादिरसार का शासन मगध में था और उनकी राजधानी उज्जैन थी। उनके शासन का समय 386 ईसा पूर्व था। राजा खादिरसार के पिता का नाम कुणिका था, जो कि 414 ईसा पूर्व के दौरान मगध के राजा थे। राजा खादिरसार की पत्नी का नाम चेलमा था। प्रारंभ में राजा खादिरसार बौद्ध धर्म के अनुयाई थे, लेकिन रानी चेलामा के उपदेश से प्रभावित होकर उन्होंने जैन धर्म अपना लिया और महावीर स्वामी जी के प्रथम भक्त बन गए, जिसे महाराज ने पढ़ा था।

राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेख हुआ वराहमिहिर द्वारा निर्मित विक्रम संवत लागू किया गया। यह सर्वथा शुद्ध और वैज्ञानिक है। यह हमारी अस्मिता और स्वाधीनता के अनुरक्षण तथा शत्रुओं पर विजय का प्रतीक भी है। इसी संवत् के अनुसार हमारे सभी धार्मिक अनुष्ठान, तीज त्यौहार जैसे होली, दीवाली, दशहरा आदि मनाए जाते हैं। विक्रम संवत् सभी काल गणना से प्राचीन तो है ही, साथ ही वैज्ञानिक भी है और यहीं विक्रम संवत् की वैज्ञानिकता है। बारह महीने का एक वर्ष और सात दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत् से ही शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य एवं चन्द्रमा की गति पर रखा जाता है। यह बारह राशियाँ बारह सौर मास हैं। पूर्णिमा के दिन, चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। चंद्र वर्ष, सौर वर्ष से 11 दिन 3 घटी 48 पल छोटा है, इसलिए प्रत्येक 3 वर्ष में इसमें 1 महीना जोड़ दिया जाता है। ब्रह्मपुराण के अनुसार, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि बनी थी और इसी दिन भारतवर्ष में काल गणना भी शुरू हुई थी। विक्रम संवत की यह चंद्र और सौर गणना पर आधारित है। सूर्य सिद्धांत के अनुसार, पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाने में 365 दिन 15 घटी 31 विफल तथा 24 प्रति विफल लगाती है। विक्रम संवत में महीना 28, 29 और 30 दिन का होता है। पूरे विश्व में 12 महीने का एक वर्ष और सात दिन के एक सप्ताह की व्यवस्था है, जो विक्रम संवत की ही देन है। महीनों के नाम इस प्रकार हैं- चैत्र, बैसाखी, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन। सप्ताह के नाम है -रविवार - रवि का अर्थ है सूर्य,  सोमवार - सोम का अर्थ है चंद्रमा या चंद्र, मंगलवार - मंगल का हिंदी में अर्थ मंगल होता है, बुधवार - बुध का अर्थ है बुध, गुरुवार- बृहस्पति का अर्थ है गुरू या बृहस्पति, शुक्रवार - शुक्र का अर्थ है शुक्र, शनिवार - शनि का अर्थ शनि है। वैदिक ज्योतिष में सप्तग्रह (सात ग्रह) माने गए हैं, जैसा कि ऊपर बताया गया है - यह सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने में लगने वाले समय के क्रम में इस प्रकार हैं:- शनि जिसे शनि भी कहा जाता है, एक चक्कर लगाने में लगभग 30 वर्ष लेता है। बृहस्पति एक चक्कर लगाने में लगभग 12 वर्ष लेता है। मंगल एक चक्कर लगाने में लगभग 686 दिन लेता है। शुक्र सूर्य के चारों ओर अपनी परिक्रमा करने में लगभग 224 दिन लेता है। बुध सूर्य के चारों ओर अपनी परिक्रमा करने में लगभग 87 दिन लेता है। चंद्र लगभग 27 दिन लेता है। अब एक दिन में 24 होरा लेते हुए, पहली होरा हमेशा सूर्य रवि की मानी जाती है, क्योंकि यह सृष्टि के आरंभ में सबसे पहले दिखाई दिया था। इसलिए पहला दिन रविवार है। ऊपर दिए गए क्रम में दूसरी होरा शुक्र की, तीसरी होरा बुध की, चौथी होरा चन्द्र की, पांचवीं होरा फिर शनि की और इसी तरह आगे मानी जाती है। इस तरह 24वीं होरा बुध की होती है और अगला दिन पहली होरा से शुरू होता है जो चन्द्र या सोम होती है। इसलिए इसे सोमवार कहा जाता है। सप्ताह के अन्य दिनों के नाम भी इसी प्रकार रखे जाते हैं।

जीवन का सबसे कठिन अंतिम फैसला दरबार में सुना दिया था। खुद साधु के वस्त्र पहनकर राजमहल से उस दीपक की दिशा में क्षिप्रा के उस पर टीले की और चल दिया। पूर्व दिशा में उषा की लालिमा छा रही थी तथा आशुतोष पश्चिम में अस्त हो रहे थे और पूर्व में सूर्य देव उदित हो रहे थे। उसके मन में महाराज की छवि धूमिल हो रही थीं। नगरवासियों ने आश्चर्य से देखा कि उनका राजा जोगी का वेष धरकर क्षिप्रा के तट पर पहुंच गया था। क्षिप्रा की धारा शांत भाव से निरंतर बह रही थी। उसने देखा की उस और वही योगी खड़ा उसे इशारों से पुकार रहा हैं। नदी के इस पार एक जीवन छूट रहा है। एक बार नदी के पार जाने पर नया जीवन उसका इंतजार कर रहा है और वापस लौटना नहीं होगा। भर्तृहरि का मन यह दृश्य देखकर निर्मल हो उठा। पुराना कलुषित मन पीछे छूट गया। वह अब विरक्त भाव से नीचे सिर किए निर्भर गति से चला जा रहा था।

भर्तृहरि “आदेश” कहकर अकेले ही उज्जैन से चल पड़े। उनके पास कंधों पर दो जोड़ी कपड़ा, कम्बल, एक में हाथ कमण्डल तथा दूसरे हाथ में दण्ड था। पैरों में खड़ाऊ पहने थे। वह राहगीरों के मिलने पर “अलखनिरंजन” का उद्धोष करते और राजा चौदह साल बाद उज्जैन से बाहर जा रहे थे। जिस गॉंव में शाम हो जाती उसी जगह किसी से आश्रय मांगकर सो जाते या कभी पेड़ों के नीचे सो जाते। भूख लगने पर एक बार भिक्षा मांग कर खाते और लोगों के साथ सत्संग करते। बीमारी को दबा देते तथा बच्चों के साथ खेलते भ्रमण कर रहे थे।  पहली बार उन्होंने समाज को इतने करीब से जाना था। समाज में वर्ण व्यवस्था, जाति, गोत्र, धर्म, संप्रदाय तथा धार्मिक मान्यताओं में इतनी भिन्नताएँ थी, जो उनकी कल्पना से बाहर था। समाज पूर्णता विभाजित था। छुआ छूत, ऊच नीच, को कभी उन्होंने जाना नहीं था। हालांकि जब वे राजकुमार और बाद में महाराज के रूप में समाजजनों से निरंतर मिलना जुलना होता था पर वहाँ मर्यादा बहुत थी। राज औपचरिकताएँ हर किसी को पालन करना होती थी तो इतना विस्तार से जानकारी नहीं हो सकी थी।

ऊपर से हम समाज को सनातनी हिन्दू ही मानते है, लेकिन रोटी बेटी, चिलम, सुल्फी, हुक्का पानी आदि का बहुत पेचीदा तानाबाना है। इसे लोगों के बीच रहकर ही समझा जा सकता है। धर्म के नाम पर समाज में जितनी मत भिन्नता दिखीं उतने ही रीत रिवाज दिखें। इससे समाज के कुछ वर्ग विशेष के साथ बहुत अत्याचार व भेदभाव प्रचलित हो गए है। भर्तृहरि बहुत दुखी हुए और उन्होंने निश्चय किया कि वह धर्म के नाम पर समाज में व्याप्त कुरूतियों को दूर करने के लिए काम करेंगे। उन्हें गुरु का यही “आदेश” लगा जब उन्होंने भर्तृहरि को जाने का आदेश दिया।

भर्तृहरि घूमते हुए अरावली की पहाड़ियों में तथा थार मरुस्थल में बसे गॉवों में परिभ्रमण कर रहे थे। यहाँ ज्यादातर जनजातियों के कबीलों की बस्तियाँ थी। इनमें कुछ चरबाहे एवं घुमन्तु जातियाँ थी। इन में कूड़ा पंथ, चोली पंथ, कांचलिया पंथ आदि मान्यताओं की विभिन्न रीतियाँ प्रचलित थी।इनके अलावा सगुण एवं निर्गुण सम्प्रदाय, शैव व वैष्णव संप्रदाय मानाने वाले लोग बड़ी संख्या में रहते थे। इनके अलावा अनेकों साधू संतों के मानने वाले समाज के लोगों से भर्तृहरि की मुलाकातें  हुई।

रात के सन्नाटे में जब भर्तृहरि की नींद टूटी तो उसे मन में ख्याल आया कि कैसे उसके परिवार वालों ने मोह मुक्त कर दिया। राजपाट त्यागने के बाद भी कई सालों तक परिवार के लोग मिलने आते रहे। जब परिवार का जो मिलाने आता उसकी याद कई दिनों तक आती रहती। भर्तृहरि उनके किसी प्रयोजन का नहीं रहा तो लोगों ने आना बंद कर दिया। सब अपने संसार में व्यस्त हो गये। केवल उसका एक भतीजा गोपीचंद उससे प्रभावित होकर सन्यस्त हुआ।

वह निरंतर निर्भर महसूस कर रहा था। उसे पहली दफा अहसास हुआ कि पारिवारिक सम्बन्धों का मानसिक बोझ कितना होता है। गुरु की बात याद हो आई कि संस्कार नष्ट नहीं होते बल्कि तनु हो जाते है, क्योंकि प्रकृति में कोई ताकत ऐसी नहीं है जो संस्कारों को पूर्णतः नष्ट कर दे। गुरु ने कहा था कि इन्हें भी पाँच क्लेश की भाती समझना चाहिए।

भर्तृहरि जहाँ भी जाते अलख जागते और मढ़िया की स्थापना करते। धूनी जलाते कुछ दिन रहकर किसी योग्य शिष्य को गद्दी पर बैठाकर आगे चल देते। भर्तृहरि ऐसा करते करते वह पांच नदियों के प्रदेश में आ गये थे। यहां रावी, सतजल, चिनाब व सिन्धु नदियों के सहारे बस्तियां बसी हुई थी। इस क्षेत्र के सन्यासियों के स्थानों को डेरा कहा जाता है। हर चार पांच गावों के बीच में एक डेरा जरूर होता है। इन डेरों के भक्तों दिए दान से इनका खर्च चलता है। डेरा मुख्य गुरु होता है। भर्तृहरि लगातार एक डेरे से दूसरे डेरे में जाते रहे तथा अलख जागते रहे। इन डेरों के बीच झगडे भी खूब चलते रहते थे, जिन में खून खराबा, मार पीट, हत्या जैसी घटनाएं बहुत मामूली बात थी। भर्तृहरि की कोशिश से इन डेरों को व्यवस्थित किया जा सका।

बढ़ते हुए भर्तृहरि हिमालय पहुंचे। जहां उन्होंने अनेक वर्षों तक तपस्या की। जब मन विचलित होता तब वह ध्यान लगाते। कुछ दिन बाद गुरु की प्रेरणा से गंगा यमुना के मैदानी इलाके में विचरण करने लगे। वह हाथ में चिमटा और कमण्डल रखते। कानों में कुण्डल धारण करते और कमर में कमर बंध बांधते। जटाजूट रखते तथा गले में सिंगी सेली धारण करते। निरंतर चलते हुए काशी पहुंच गए और काशी ब्राह्मणों की नगरी है। वहां अनेक विद्वानों से विचार विमर्श चलता रहा।

तरह के लोग मिलने आते तथा भिन्न तरह की समस्याएं लेकर समाधान की उम्मीद में आते। लोगों  के चित अशांत होते। मन में अनचाहे विचार चलते रहते। विचार हवा के झोंके की तरह आते। इनके चित कई तरह की अनुभूतियाँ संगृहीत करते। जीवन को नकारात्मकता बहुत बुरी तरह प्रभावित करती। इन समस्यों के समाधान खोजते भर्तृहरि नए प्रयोग करते। लोगों को नई विधियां बताते। अभ्यास कर परिणामों का विश्लेषण करते एवं विधियों को कारगर बनाने के लिए संशोधन करते थे। जब उन्हें कोई समाधान न सूझता तब गुरु से पूछते रहते थे। गोरख पंथ में इतनी विधियां हो गई कि लोग इस पंथ का नाम ‘गोरखधंधा’ रख दिए। हालांकि यह कोई पंथ की प्रशंसा नहीं थी, लेकिन अलग लोगों की अलग प्रकृति होती है। इसलिए उन पर अलग विधियां काम करती है। इसका प्रभाव यह हुआ की पंथ आम लोगों में बहुत जल्दी प्रसिद्ध हो गया। समाज के कथित सबसे निचले तबके के लोग इस पंथ से सर्वाधिक आकर्षित हुए।

शुरु से ही इस पंथ में जाति प्रथा को मान्यता नही दी गई। समाज में उनकी जाति, महिला पुरूषों के लिए पूर्व से ही अनेक रीति रिवाज थे। इस कारण इन पंथ में महिला व पुरुषों में भेद नहीं किया गया और दोनों को समान अधिकार दिए गए। पहली बार यह स्थापित किया गया कि महिलायें भी मोक्ष की उतनी ही अधिकारणी है जितना पुरुष। इससे पहली बार समाज की विदुषी महिलाएं बड़ी संख्या में इस पंथ की तरफ आकर्षित हुई। महिलाओं के प्रयास की निरंतरता व लगाव बहुत गहरा था।

बड़ी संख्या में तथा सारे देस में पंथ की संख्या बहुत बढ़ने से बारह पन्थों का निर्माण शुरू हुआ। इनके नाम आई, सत्य नाथी, नटेश्वर, धर्म नथी, वैराग्य, कपलनी, पागल, गंग नाथी, मनो नाथी, रावल तथा ध्यज पंथ है। तरह का साहित्य लिखा जाने लगा और नाथ पंथ के माध्यम से लोग सिद्धि को प्राप्त कर सके। किसी और के माध्यम से प्राप्त नहीं कर सके। इस कारण इस पंथ में नौ नाथ व चौषट योगियों को मान्यता दी गई, जो साथी समाधि को उपलब्ध होती है तथा अन्य को अग्नि दी जाती।  

उज्जैन के राजा भर्तृहरि के पास 365 पाकशास्त्री यानी रसोइए थे, जो राजा और उसके परिवार और अतिथियों के लिए भोजन बनाने के लिए। एक रसोइए को वर्ष में केवल एक ही बार भोजन बनाने का मौका मिलता था, लेकिन इस दौरान भर्तृहरि जब गुरु गोरखनाथ जी के चरणों में चले गये तब भिक्षा मांगकर खाने लगे थे।

एक बार गुरु गोरखनाथ ने अपने शिष्यों से कहा, “देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है।”

शिष्यों ने कहा, ‘गुरुजी! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहां 365 तो बावर्ची रहते थे। ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आए हुए राजा और कैसे काम, क्रोध, लोभ रहित हो गए?”

गुरु गोरखनाथ ने राजा भर्तृहरि से कहा, ‘भर्तृहरि! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियां ले आओ।”

राजा भर्तृहरि नंगे पैर गए, जंगल से लकड़ियां एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे। गोरखनाथ ने दूसरे शिष्यों से कहा, “जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझ गिर जाए।”

चेले गए और ऐसा धक्का मारा कि बोझ गिर गया और भर्तृहरि गिर गए। भर्तृहरि ने बोझ उठाया, लेकिन न चेहरे पर शिकन, न आंखों में आग के गोले, न होंठ फड़के। गुरु ने चेलों से कहा,  “देखा! भर्तृहरि ने क्रोध को जीत लिया है।”

शिष्य बोले, “गुरुजी! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।”

थोड़ा सा आगे जाते ही गुरु ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ भर्तृहरि को महल दिखा रहे थे। युवतियां नाना प्रकार के व्यंजन आदि से सेवक उनका आदर सत्कार करने लगे। भर्तृहरि युवतियों को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गए।

गोरखनाथ जी ने शिष्यों को कहा, अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया है कि भर्तृहरि ने काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है। शिष्यों ने कहा, गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिए। गोरखनाथ जी ने कहा, अच्छा भर्तृहरि हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है। गुरू ने कहा, “जाओ, तुमको एक महीना मरुभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी।”

भर्तृहरि ने निर्दिष्ट मार्ग पर चल पड़े। पहाड़ी इलाका लांघते हुए राजस्थान की मरुभूमि में पहुंचे। धधकती बालू, कड़ाके की धूप मरुभूमि में पैर रखो तो बस जल जाए। एक दिन, दो दिन यात्रा करते छह दिन बीत गए। सातवें दिन गुरु गोरखनाथ अदृश्य शक्ति से अपने प्रिय चेलों को भी साथ लेकर वहां पहुंचे। गोरखनाथ जी बोले, “देखो, यह भर्तृहरि जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूं। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।”

अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते भर्तृहरि का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े, मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो। ‘मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया? छाया वाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया? गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की।”

कूदकर दूर हट गए। गुरु जी प्रसन्न हो गए कि देखो! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। “जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।’ गोरखनाथ दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए, लेकिन अन्य शिष्यों के मन में ईर्ष्या थी। शिष्य बोले, “गुरुजी! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।”

गोरखनाथ जी, रूप बदल कर, भर्तृहरि से मिले और बोले, “जरा छाया का उपयोग कर लो।’

भर्तृहरि बोले, “नहीं, मेरे गुरुजी की आज्ञा है कि नंगे पैर मरुभूमि में चलूं।”

गोरखनाथ जी ने सोचा, “अच्छा! कितना चलते हो देखते हैं।” थोड़ा आगे गए तो गोरखनाथ ने योग बल से कांटे पैदा कर दिए। ऐसी कंटीली झाड़ी कि गंदा फटे-पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र फट गया। पैरों में शूल चुभने लगे, फिर भी भर्तृहरि ने ‘आह’ तक नहीं की। भर्तृहरि तो और अंतर्मुख हो गए, ’यह सब सपना है, गुरु जी ने जो आदेश दिया है, वही तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है’।

अंतिम परीक्षा के लिए गुरु गोरखनाथ ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भर्तृहरि के प्राण कंठ तक आ गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी। एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरु आज्ञा भंग तो नहीं हो रही है। इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिए। भर्तृहरि ने दंडवत प्रणाम किया। गुरु बोले, ”शाबाश भर्तृहरि, वर मांग लो। अष्टसिद्धि दे दूं, नवनिधि दे दूं। तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिए, युवतियां तुम्हारे चरण पखारने के लिए तैयार थीं, लेकिन तुम उनके चक्कर में नहीं आए। तुम्हें जो मांगना है, वो मांग लो। भर्तृहरि बोले, ‘गुरुजी! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है। मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गए।”

गोरखनाथ बोले, “नहीं भर्तृहरि! अनादर मत करो। तुम्हें कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ मांगना ही पड़ेगा।’ इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सूई दिखाई दी। उसे उठाकर भर्तृहरि बोले, “गुरुजी! कंठा फट गया है, सूई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंठा सी लूं।”

गोरखनाथ जी और खुश हुए, ’हद हो गई! कितना निरपेक्ष है, अष्टसिद्धि-नवनिधियां कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ मांगो, तो बोलता है कि सूई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया। कोई अपेक्षा नहीं? भर्तृहरि तुम धन्य हो गए! कहां उज्जयिनी का सम्राट नंगे पैर मरुभूमि में। एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गए।’

जब वह उत्तर से दक्षिण की ओर जाने लगे तब वर्षा काल में चातुर्मास के लिए चुनार में रुक गए। इस यात्रा में उनके साथ उनके शिष्य गोपीचन्द साथ चल रहे थे, क्योंकि उनकी उम्र बहुत अधिक हो गई थी। एक रात उन्हें आभास हुआ कि अंत सयम निकट है और अपने प्रिय शिष्य गोपीचन्द को यह बात बताई। समय आने पर भर्तृहरि ने देह त्याग दी। इस स्थान पर उनके भाई विक्रमादित्य ने समाधि का निर्माण करवा दिया। शरीर छूट जाने के बाद अशरीर रूप में भर्तृहरि अब केवल उज्जैन में रहते हैं।  

साधु उठकर आश्रम के अंदर चले गए और रवि थक गया था। उसकी आँख आसन पर ही लग गई। सुबह आंख खुलने पर रवि ने देखा कि वही साधु उसके सामने खड़े है। रवि का सर शृद्धा से साधु के चरणों में झुक गया। साधु ने प्यार से पूछा "बच्चा! क्या जानना चाहते हो?"

रवि बोला "महाराज! समझ नहीं आ रहा कि जीवन कहाँ जा रहा?"

"सब संचित कर्मों का फल है बच्चा" साधु उसके सिर पर हाथ फिराते बोले।

रवि ने कहा — "महाराज अपनी शरण में ले लो। सफल होने की इच्छा भी समाप्त हो रही है।"

महाराज ने कहा — "बच्चा अभी तुम्हारे जीवन में 'अथ' का उदय नहीं हुआ है। अभी तुम्हारा फल कच्चा है। इसे पकने दो यदि अभी तोड़ लोगे तो घाव बन जायेगा।"

रवि ने फिर पूछा — "महाराज यह 'अथ' क्या है और यह जीवन में कब आता है?"

साधु ने समझाते हुए कहा — 'अथ' शब्द का शाब्दिक अर्थ है "अब' यह अथ जीवन के रास्ते के चयन में व्यक्ति के जीवन में तब आता है जब वह या तो अपने जीवन में अनके नौकरियाँ करने के बाद पूरी तरह से निराश और हताश हो गया है या अभी वह विद्यार्थी है और अपनी शिक्षा पूरी कर महाविद्यालय या विश्वविद्यालय से बाहर आने वाला है। व्यक्ति जब हर रिलेशन में फेल हो जाता है और दूसरे से सुख पाने की आशा समाप्त हो गई है, तब इन परिस्थितियों में हम एक ऐसे चौराहे पर अपने आप को खड़ा पाते है और यह निर्णय नहीं कर पाते है कि हमें किस दिशा में जाना है। यदि हमें सन्यास का पथ ज़्यादा आकर्षित कर रहा है तो यह क्षण आत्मलोकन करने का है कि यह आकर्षण कहाँ से आ रहा है? क्या यह आकर्षण लोगों की सफलता की कहानियां देख, सुन या पढ़कर आ रहा है या वास्तव में हम में वह मनोवैज्ञानिक कारक या तत्व है, जो सन्यास के लिए आवश्यक है।"

रवि ने जिज्ञासा रखी — "हम कैसे पता करें कि हमारी प्रकृति क्या है?"

साधु ने बैठते हुए कहा — "व्यक्ति जो कर्म करता है उसके मनोवैज्ञानिक लक्षण उस व्यक्ति की प्रकृति में ही होते हैं। इसलिए हम लोगों को देखकर, सुनकर एवं हाव भाव से लोगों की प्रकृति को बहुत हद तक जान जाते है।

इस प्रश्न का सबसे अच्छा उधारण गीता के अध्याय 2 के श्लोक 54  में अर्जुन श्री कृष्ण से प्रश्न करते है - “स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥” अर्थात स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के क्या लक्षण है स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?”

यह ही प्रश्न है जिसके बारे मेंं हमें जानना चाहिए कि हमारे क्या लक्षण है? सनातन धर्म में प्रकृति तीन गुणों सत, रज तथा तम से निर्मित मानी गई है। श्री कृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय के 13 वें  श्लोक में चार वर्णों का उल्लेख करते हुए कहा है — "चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः।” अर्थात् प्रकृति के तीन गुण - सत, रज और तम गुणों के अनुसार मेरे द्वारा चार वर्णों की रचना की है। सत गुण प्रधान व्यक्ति में शम, दम व तप कर्म की प्रवृति के कारण ब्राम्हण वर्ण, रजोगुण प्रधान शूरवीरता, तेज प्रवृति के कारण क्षत्रिय वर्ण, तमोगुण व रजोगुण के कारण व्यापार, उद्यम की प्रवृत्ति के कारण वैश्य वर्ण तथा तमोगुण की प्रधानता के कारण सेवक की प्रवृत्ति के कारण शूद्र वर्ण के कर्म करने में प्रवृत होता है।

वर्ण व्यवाथा का अर्थ जाति व्यवस्था से बिलकुल भी नहीं है। न ही कर्म का निर्धारण व्यक्ति के जन्म से है, बल्कि प्राकृतिक गुणों की प्रधानता होने पर ही व्यक्ति अपनी प्रकृति व स्वभाव से अपना कर्म अर्थात् व्यवसाय चुनता है। तभी वह न केवल अपने व्यवसाय में सफल होता है बल्कि अपने जीवन से संतुष्ट भी होता है। जब व्यक्ति की प्रवृति व वृत्ति में तालमेल नहीं रहता है, तब वह अपने कर्म को कुशलतापूर्वक नहीं कर पाता है। वह हमेशा अपने व्यवसाय एवं जीवन से असंतुष्ट ही रहता है, क्योकि गीता के अध्याय 2 श्लोक 50 में कृष्ण कहते है — "योग: कर्मेसु कौशलम्” कुशलता पूर्वक कर्म करना ही योग है। जब मन, बुद्धि व शरीर एक लय व दिशा में कार्य करते है तब व्यक्ति सहज मन से कर्म कर पाता है।"

"महाराज हम कैसे जाने कि हमारी प्रकृति क्या है?" रवि ने सकुचाते हुए प्रश्न किया।

महाराज ने धैर्य पूर्वक गम्भीर होते हुए कहा — "श्री कृष्ण गीता के तीसरे अध्याय के 35 वें श्लोक में कहते है — ''स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः'' यहाँ स्वधर्म का अर्थ है व्यक्ति का स्वभाव या प्रवृति। स्वभाव या प्रवृति में चलना श्रेयस्कर है। यदि आप क्षत्रिय वृति वाले है तो आप वैश्य वर्ण के कर्मों में सहजता अनुभव नहीं कर सकते। व्यक्ति को सन्यासी बनना है या नहीं उसे अपने स्वभाव के आधार पर ही निर्णय करना होगा।"

"अब तुम ही सोचकर बताओ कि क्या तुम्हारे मन में तुम्हारे स्टार्टअप को सफल बनाने की लालसा है या नही।" महाराज ने प्रतिप्रश्न किया।

रवि ने सर झुका लिया। वह बहुत देर सोचता रहा, लेकिन कोई उत्तर नहीं सूझा।

महाराज ने अपने योग बल से जानकर बताया — "तुम्हारे अंदर सफल होने की लालसा है। यह तामसिक गुण प्रधान व्यक्ति के लक्षण है, जो बहुत शुभ है। अभी तुम्हें सतोगुण का उत्कर्ष नहीं हुआ है। अतः अभी तुम्हारे कर्म बाकी है। तुम्हें सांसारिक दायित्व पूरे करने है। तुम्हें उन्हें निभाना ही होगा।"

रवि ने पूछा "अब हममें ताकत नहीं है, न ही उत्साह बचा है तो क्या करे?"

महाराज ने कहा — "कृष्णा ने गीता के 2 अध्याय श्लोक 41 में कहा है “व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन, बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्” जिनकी बुद्धि निश्चयात्मक होती है वे एक ही मार्ग का अनुसरण करते हैं, लेकिन संकल्पहीन मनुष्य की बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है। गीता के अध्याय 4 के श्लोक 40 में श्री कृष्ण कहते है — “अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥” इसका आशय है कि किन्तु जिन अज्ञानी लोगों में न तो श्रद्धा और न ही ज्ञान है और जो संदेहास्पद प्रकृति के होते हैं उनका पतन होता है। संदेहास्पद जीवात्मा के लिए न तो इस लोक में और न ही परलोक में कोई सुख है। इसलिए तुम्हारी प्रकृति उद्यमी बनने की है तो तुम  “अथ उद्यमॊ योगानुशासनम्" प्रारम्भ कर सकते हो।'

रवि को उसके प्रश्नों के उत्तर मिल गए थे। साधु महाराज अन्तर्ध्यान हो गये थे। उसने आखें खोली तो साधु प्रसाद लिए सामने खड़े थे।

रवि ने श्रद्धापूर्वक प्रसाद ग्रहण किया और उत्साहित मन से मोटर साइकिल से उज्जैन की ओर चल दिया। वह संकल्प से भरा था और उसके चेहरे पर ठंडी हवा ताजगी भर रही थी।

रवि व अमन को आगे यह निर्णय करना था कि अपने स्टार्टअप की रणनीति में क्या बदलाव लाये ताकि काम सही दिशा में चल सके। दोनों ने इंदौर में अपनी नेटवर्किंग बढ़ाना शुरू किया। इंदौर में स्टार्टअप सपोर्ट के लिए अनेक इन्कुवेशन सेंटर यूनिवर्सिटी में तथा कॉलेज में बनाना शुरू हो गए थे। इनके एक प्रोफेसर ने कॉलेज के इन्कुवेशन सेंटर में मेन्टोरिंग के रूप में स्टार्टअप्स को सपोर्ट करते थे। प्रोफेसर ने रवि व अमन को उनका ग्रुप ज्वाइन करने की सलाह दी तो दोनों ने उनके ग्रुप को ज्वाइन कर लिया। ग्रुप की हर रविवार को मीटिंग होती, जिस में शहर के दस बारह लड़के लड़किया आते। जो अलग तरह के या तो अपने स्टार्टअप्स चला रहे थे या चलना चाह रहे थे। इन मीटिंग्स में कई तरह के विषय विशेषज्ञ लोग भी आते। एक मीटिंग में इंदौर के चर्चित भास्कर सर आये। वह अपना एग्रीकल्चर सेक्टर का स्टार्टअप पिछले पांच साल से रन कर रहे हैं।

भास्कर सर ने अपने लेक्चर में बताया कि बहुत कम व्यक्ति होते है जिनमें किसी काम में सफल होने की जन्मजात प्रतिभा होती है, लेकिन अधिकांश लोगों को यह खोज करना होती है और एक ऐसा ही प्रश्न आजकल बहुत पूछा जाता है कि स्टार्टअप कौन शुरू कर सकता है? कोई कैसे जान सकता है कि वह जीवन में कौन से क्षेत्र में सफल होगा? यह बहुत गहन आत्मलोकन का विषय है।

'अथ'  शब्द का शाब्दिक अर्थ है "अब' यह अथ कॅरियर के चयन में व्यक्ति के जीवन में तब आता है जब वह या तो अपने जीवन में अनके नौकरियाँ करने के बाद पूरी तरह से निराश और हताश हो गया है या अभी वह विद्यार्थी है और अपनी शिक्षा पूरी कर महाविद्यालय या विश्वविद्यालय से बाहर आने वाला है। इन दोनों परिस्थितिया में हम एक ऐसे चौराहे पर अपने आप को खड़ा पाते है और यह निर्णय नहीं कर पाते है कि हमें कहाँ जाना है। यदि किसी को उद्यमिता का पथ ज़्यादा आकर्षित कर रहा है तो यह क्षण आत्मलोकन करना चाहिए कि यह आकर्षण कहाँ से आ रहा है? क्या यह आकर्षण लोगों की सफलता की कहानियां देख, सुन या पढ़कर आ रहा है या वास्तव में हम में वह मनोवैज्ञानिक कारक या तत्व है, जो उद्यमिता के लिए आवश्यक है। व्यक्ति जो कर्म करता है उसके मनोवैज्ञानिक लक्षण उस व्यक्ति की प्रकृति में ही होते हैं। इसलिए हम लोगों को देखकर, सुनकर व हाव भाव से लोगों की प्रकृति को बहुत हद तक जान जाते है।

इस प्रश्न का सबसे अच्छा उधारण गीता के अध्याय 2 के श्लोक 54 में अर्जुन श्री कृष्ण से प्रश्न करते है- “स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव। स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥” अर्थात स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के क्या लक्षण है स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?” ये ही वह प्रश्न है जो हमें जानना चाहिए कि उद्यमशील व्यक्ति के क्या लक्षण है?

अब उद्यमिता के अनुशासन को प्रारम्भ करते है। हमारे सनातन धर्म में प्रकृति तीन गुणों सत, रज तथा तम से निर्मित मानी गई है। श्री कृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय के 13 वें श्लोक में चार वर्णों का उल्लेख करते हुए कहा है — " चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः।” अर्थात् प्रकृति के तीन गुण- सत्व, रज और तम गुणों के अनुसार मेरे द्वारा चार वर्णों की रचना की है। सत गुण प्रधान व्यक्ति में शम, दम व तप कर्म की प्रवृति के कारण ब्राम्हण वर्ण, रजोगुण प्रधान शूरवीरता, तेज प्रवृति के कारण क्षत्रिय वर्ण, तमोगुण व रजोगुण के कारण व्यापार, उद्यम की प्रवृत्ति के कारण वैश्य वर्ण तथा तमोगुण की प्रधानता के कारण सेवक की प्रवृत्ति के कारण शूद्र वर्ण के कर्म करने में प्रवृत होता है। वर्ण व्यवाथा का अर्थ जाति व्यवस्था से बिलकुल भी नहीं है। न ही कर्म का निर्धारण व्यक्ति के जन्म से है, बल्कि प्राकृतिक गुणों की प्रधानता होने पर ही व्यक्ति अपनी प्रकृति व स्वभाव से अपना कर्म अर्थात व्यसाय चुनता है। तभी वह न केवल अपने व्यवसाय में सफल होता है बल्कि अपने जीवन से संतुष्ट भी होता है।

जब व्यक्ति की प्रवृति व वृत्ति में तालमेल नहीं रहता है तब वह अपने कर्म को कुशलतापूर्वक नहीं कर पाता है। वह हमेशा अपने व्यवसाय एवं जीवन से असंतुष्ट ही रहता है, क्योंकि गीता के अध्याय 2 श्लोक 50 में कृष्ण कहते है — "योग: कर्मसु कौशलम्” कुशलतापूर्वक कर्म करना ही योग है। जब मन, बुद्धि व शरीर एक लय व दिशा में कार्य करते है तब व्यक्ति सहज मन से कर्म कर पाता है। इसलिए जब व्यकि अपनी रुचि या शौक के काम करता है तो वह पूर्णतः सफल व जीवन में संतुष्ट होता है।

मिर्जा गालिब ने कहा है — 'जिस शख्स को जिस शगल का शौक हो और वो उसमें बेतकल्लुफ़ उम्र वसर करे, तो उसका नाम ऐश है।"

जब हम महान व्यक्तियों की जीवनी पढ़ते है या बहुत सफल लोगों की बातें सुनते है तब वे अपनी मेहनत से अपने व्यवसाय में तो सफल दिखते है, लेकिन हम अपने जीवन को असफल मानने लगते है। जैसे 20वीं सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने अमिताभ बच्चन कॉपरेशन लिमिटेड की स्थापना की और वह बुरी तरह कर्ज से घिर गये, लेकिन अभिनय के क्षेत्र में सफलतम व्यक्ति हैं। धीरूभाई अंबानी क्लर्क के रूप में काम करने यमन गये, लेकिन रिलायंस कंपनी बनाकर सफल उद्योगपति बने। महात्मा गांधी ने अपना कॅरियर बैरिस्टर के रूप में शुरू किया लेकिन सफलता राजनेता के रूप में मिली।

जेफ बेजोस ने अपना कॅरियर फिटेल कंपनी में नौकरी से शुरू किया, लेकिन सफलता अमेजन कंपनी से स्वयं का व्यवसाय करने पर ही मिली। जे. के. राउलिंग अनेक काम करके असफल होती रही, लेकिन हैरी पॉटर उपन्यास लिखकर सफल हो सकी। अल्बर्ट आइंस्टीन, अब्राहम लिंकन आदि की कहानियां भी अनेक असफ़लताओं के बाद सफल होने की है। बास्केटबॉल खिलाड़ी माइकल जॉर्डन, स्टीवन स्पीलवर्ग, बॉल्ट डिज्नी आदि लोगों के उदाहरण बताते है कि जब इन व्यक्तियों ने अपनी प्रकृति के अनुरूप कार्य का चयन किया तो सफल हो सकें। इसलिए अपनी आजीविका का चयन हमेशा अपनी प्रकृति के आधार पर करना चाहिए।

व्यक्ति जिस कार्य को स्वाभाविक ढंग से बिना तनाव के कर पाते है, वहीं काम या क्षेत्र व्यक्ति को उसका कॅरियर चयन करने का संकेत देता है। यदि आप अपनी प्रवृति के विपरीत रुचि का चयन कर लेते है तो आप स्वयं दुख और अशांति में जीवन जीते है। श्री कृष्णा गीता के तीसरे अध्याय के 35 वें श्लोक में कहते है कि ''स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः'' यहाँ स्वधर्म का अर्थ है कि व्यक्ति का स्वभाव या आपकी प्रवृति। अपने स्वभाव या प्रवृति में चलना श्रेयस्कर है।यदि आप क्षत्रिय वृति वाले है तो आप वैश्य वर्ण के कर्मों में सहजता अनुभव नहीं कर सकते। व्यक्ति को उद्यमी बनना है या नहीं इसका निर्णय भी उसके स्वभाव के आधार पर ही करना होगा। वरना कई असफल स्टार्टअप इसके उदाहरण है जैसे मोनिका रस्तोगी एवं शशांक शेखर सिंघल का डनजो, मिलिंद शर्मा व नवनीत सिंह का पेपर टेप, रूपल योगेन्द्र का स्टेजिला, अरनव कुमार का जूमो आदि।

अकुंश सचदेवा 17 बार असफल होने के बाद 18वीं बार शेयर चेट बनाकर सफल हो सके। विश्व में भी ऐसे अनेक उदाहरण है, जहां बड़ी-बड़ी फंडिंग मिलने के बाद भी स्टार्टअप बंद हो गये। मगर कई व्यक्ति असफलताओं के बाद सफल हो गये जैसे ट्यूटर के इवान विलियम्स, स्टार वर्क्स  के हॉवर्ड शलूट्ज़, यूवर के ट्राविस कालानिक एवं नेट फिल्किस के रीड हेस्टिंग्स आदि। ये लोग इस कारण सफल हो सके, क्योंकि इन्होंने दृढ़ संकल्प के साथ एक ही मार्ग का अनुसरण किया। श्री कृष्णा ने गीता के 2 अध्याय श्लोक 41 में कहा है — “व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन, बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्” जिनकी बुद्धि निश्चयात्मक होती है वे एक ही मार्ग का अनुसरण करते हैं, लेकिन संकल्पहीन मनुष्य की बुद्धि कई शाखाओं में विभक्त रहती है। गीता के अध्याय 4 के श्लोक 40 में श्री कृष्ण कहते है

“अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥” 

इसका आशय है कि जिन अज्ञानी लोगों में न तो श्रद्धा और न ही ज्ञान है और जो संदेहास्पद प्रकृति के होते हैं उनका पतन होता है। संदेहास्पद जीवात्मा के लिए न तो इस लोक में और न ही परलोक में कोई सुख है। इसलिए यदि आपकी प्रकृति उद्यमी बनने की है तो आप  “अथ उद्यमॊ योगानुशासनम्" प्रारम्भ कर सकते है।

यह बात रवि एवं अमन को बहुत रोचक लगी क्योंकि आधुनिक समय की समस्याओं का समाधान प्राचीन ग्रंथों में भी उपलब्ध होगा। इसकी कल्पना इन दोनों ने नहीं की थी तो ये लोग नियमित रूप से भास्कर जी के लेक्चर अटेन्ड करने लगे।

आगामी रविवार को जब सब लोग बैठ गए तो एक लड़की ने पूछा की सर एंट्रप्रोन्योर का मतलब क्या होता है तथा शुरू करने में कौन सी बाधाएं आती है? यह लड़की अपनी पढ़ाई पूरी करके अपना स्टार्टअप शुरू करना चाह रही थी।

इस पर भास्कर जी ने कहा कि यह प्रश्न ही मूल है कि उद्यमिता क्या है?

जो लोग यह निश्चय कर लेते है कि उन्हें अपना स्टार्टअप कर उद्यमी बनना है तो हम वह सब जानना ज़रूरी है कि इस यात्रा में आने वाले पड़ाव है।

स्टार्टअप का मतलब है, किसी नए संगठन की शुरुआत करने की भावना। स्टार्टअप में कोई व्यक्ति किसी मौजूदा या भविष्य के अवसर का पूर्व दर्शन करके मुख्य रूप से कोई कारोबारी संगठन शुरू करता है। स्टार्टअप में एक तरफ जहां भरपूर मुनाफा कमाने की संभावना होती है, वहीं दूसरी तरफ़ जोखिम, अनिश्चितता और अन्य ख़तरों की भी संभावना होती है।

अच्छी बात यह है कि उद्यमी पैदा नहीं होते हैं बल्कि बनते है। यदि आप चाहे तो अपने मनोविज्ञान में बदलाव करके अपनी प्रकृति को बदल सकते है। ऐसे कई फस्ट जनरेशन के सफ़ल व्यवसायी है जैसे सचिन बंसल, विजय शेखर शर्मा, फाल्गुनी नायर, आदेश अग्रवाल, दीपेन्द्र गोयल, कुणाल शाह, रितेश अग्रवाल, नितिन कामत, कैवल्य बोरा, कैलाश कातकर, पी.सी. मुशतफ़ा, नारायण मूर्ति, देवी सेट्टी इस वक्त के उदाहरण है। यदि आप आत्म-अवलोकन करने के बाद पाते है कि शायद आपमें वह सब गुण नहीं है, लेकिन फिर भी उद्यमी बनने का निर्णय कर उन गुणों को विकसित करने की शुरुआत करते है तो आप अपना व्यवसाय शुरु कर सकते हैं।

उद्यमिता शुरु करने की बाधाएँ

मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि यह रास्ता बहुत अकेला एवं अनिश्चितताओं से भरा होता है। स्टार्टअप शुरू करना वैसा बिलकुल नहीं होता जैसा प्रचारित किया जाता है। इसमें व्यक्ति स्वयं में बॉस बिल्कुल नहीं होता। यह यात्रा किसी तरह की नौकरी करने के बिलकुल विपरीत होती है जहां चौबीस घंटे इसे जीते है। व्यक्ति को उन बाधाओं से परिचित होना चाहिए ताकि व्यक्ति यह मन बना सके कि इन बाधाओं का सामना उसको करना ही होगा।

1. मनोवैज्ञानिक बाधाएँ - जो लोग ऐसे परिवारों से आते हैं जहां पहले से किसी तरह का व्यवसाय नहीं होता है, उन व्यक्तियों को निन्म मनोवैज्ञानिक बाधाओं का सामना करना होता है।

असफलता का डर - यह सबसे बड़ी मानसिक बाधाओं मे से एक है जिसका सामना हर उद्यमी करता ही है। इसलिए कहा जाता है कि “डर के आगे जीत है” यही भावना उद्यमी को निवेश, प्रतिष्ठा या वित्तीय स्थिरता का जोखिम उठाने की प्ररणा देती है। प्रत्येक असफलता को मूल्यवान सीख के अनुभव के रूप में देखना चाहिए।

आत्म संदेह - कई उद्यमी निरंतर अपनी क्षमताओं पर संदेह अनुभव करते रहते है। वह निरंतर स्वयं के निर्णयों पर पुर्नविचार करते हैं। आत्म संदेह उद्यमी की सफलता के लिए एक प्रमुख बाधा बन सकता है। अतः उद्यमी को मेंटर, रोल मॉडल एवं एक नेटवर्क का सहारा लेना चाहिए। जहां वह अपने आत्म संदेह पर दूसरों की राय ले सकते है एवं दूसरों के अनुभवों से सीख कर आगे बढ़ सकते है।

पूर्णतावादी होना- कोई भी उद्यम या उद्यमी पूर्ण नहीं होता है। यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया होती है। यदि उद्यम के संबंध में बहुत ज्यादा विश्लेषण करते है तो शायद स्वयं का व्यवसाय कभी शुरु ही न कर सके। जितनी कम दूरी पर नजर रखकर चलेंगे उतनी अधिक दूरी आप तय कर सकते हैं। समय के साथ प्रगति करने और अपने काम को निखारने पर ध्यान होना चाहिए और  निरंतर प्रयास एवं सुधार करते रहने से ही समय के साथ-साथ पूर्णता आती है। कोई भी जीवित व्यक्ति पूर्ण नहीं होता। केवल मृत व्यक्ति ही पूर्णता को प्राप्त होता है।

अस्वीकृति का डर - कोई भी उद्यम एक परिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा होता है, जहां बहुत सारे लोग भागीदार होते है। किसी भी उद्यमी को ग्राहकों, निदेशकों एवं भागीदारों से निरंतर संवाद करना होता है जहां अस्वीकृति ही अधिकांश समय आपको मिलती है। इसमें अस्वीकृति का डर उद्यमी को मन से निकालना ही होता है, क्योंकि विश्व का कोई भी उद्यमी यह नहीं कह सकता कि उन्होंने अस्वीकृतियों का सामना नहीं किया है। उद्यमी को 99% अस्वीकृत होने के लिए मानसिक रूप से तैयारी रखनी चाहिए। हेनरी फोर्ड फोर्ड मोटर कंपनी बनाने के पहले दिवालिया हो गये थे। जे.के. रोलिंग्स का उपन्साय हेरी पॉटर कितने सारे प्रकाशकों द्वारा अस्वीकृत किया गया था। स्टीव जॉब्स को उनकी ही कंपनी से निकल दिया गया था। चीन के जेक मॉ को हावर्ड बिजनिस स्कूल द्वारा 10 बार अस्वीकृत किया गया तथा 30 से ज़्यादा नौकरियों के लिए रिजेक्ट किया गया। अस्वीकृति उद्यमी की यात्रा का अनिवार्य हिस्सा है तथा प्रत्येक अस्वीकृति ही सफल उद्यमी को सही चुनाव का अवसर देती है।

इम्पोस्टर सिंड्रोम - इस भावना के तहत उद्यमी को लगता है कि वह सफलता के लायक नहीं है और उसको सफलता तुक्के से मिली है। यह भाव निरंतर उद्यमी को मानसिक बाधा के तौर पर परेशान करता है। एक अध्ययन के अनुसार भारत के 31% उद्यमी इम्पोस्टर सिंड्रोम से प्रभावित है। स्वयं के हुनर को नकारना इम्पोस्टर सिन्ड्रोम का प्रमुख लक्षण है। फेसबुक की पूर्व सीईओ शेरिल सैडवर्ग ने कहा था की हावर्ड यूनिवर्सिटी में हर परीक्षा के बाद लगता था कि उनका टेस्ट खराब हुआ है एवं उन्हें अच्छे नम्बर संयोगवश मिले है। मिशेल ओबामा, स्टारबक्स के सी.ई.ओ हॉवर्ड शुल्ज भी इस भावना से पीड़िता रहें है। इस समस्या से आपका आत्मविश्वास डिग जाता है। अतः अपनी काबलियत पहचाने एवं स्वयं को सफलता का श्रेय देना सीखे।

फोकस ही कमी - उद्यमियों के दिमाग में हमेशा बहुत सारे विचार और सामने बहुत सारे काम चलते रहते हैं जो उसका ध्यान आकर्षित करने के लिए प्रतिस्पर्धा करते रहते है। इस बाधा को दूर करने के लिए स्पष्ट लक्ष्य, प्राथमिकताएँ एवं समय प्रबंधन आवश्यक होता है। एक स्टेज के बाद उद्यमी को अपने काम का बँटवारा करके टीम के सदस्यों को वह सभी काम सौंप देना चाहिए जो वे स्वतंत्र रूप से अधिक कुशलता से कर सकते है।

अकेलापन - उद्यमी को अपना रास्ता ख़ुद बनाना पड़ता है। वह खग का दृष्टिकोण एवं ख़ुद की शर्तें बनाते है। इसलिए उद्यमी अक्सर अपने आप को अकेला पाता है। जब आप अपनी टीम के साथ होते है तब उसको लगता है कि उसे उसकी रैंक के कारण बहिष्कृत कर दिया गया है। अकेलापन आपके स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है।

अज्ञात का डर - जब उद्यमी अपने लक्ष्य निर्धारित करता है तब उन लक्ष्यों तक पहुँचने के अनेक रास्ते हो सकते है। इनमें बहुत से अनजान रास्तों में से एक का चुनाव करना हमेशा डरावना होता है, क्योंकि आपका एक ग़लत चुनाव पूरे बिज़नेस या पूरी टीम के भविष्य को दांव पर लगा सकता है। अज्ञात के भय से उबरकर ही उद्यमी सफल हो सकता है।

2. पारिवारिक बाधाएँ - नया व्यवसाय शुरू करना हमेशा रोमांटिक, रोमांचक एवं चुनौतीपूर्ण होता है। इसलिए जिन परिवारों में पूर्व से व्यवसाय नहीं हो रहा होता है, वह परिवार नौकरी जैसा सुरक्षित कॅरियर की सलाह देते है तथा जिन परिवारों में पूर्व से व्यवसाय हो रहा है वह परम्परागत व्यवसाय को करने की सलाह देते है। शुरू में उद्यमी को सफलता के लिए परिवार का समर्थन आवश्यक होता है, वरना उसे अंदर व बाहर दोनों जगह संघर्ष करना पड़ता है। यदि परिवार समर्थन करता है तो उद्यमी को अनेक लाभ होते है।

तनाव कम होना - उद्यमी हमेशा तरह-तरह के तनावों से निरंतर जूझते रहते है। हालाँकि सफल होने के लिए तनाव एक आवश्यक कारक है, लेकिन लम्बे समय तक अधिक तनाव के कारण मस्तिष्क की प्रतिक्रिया प्रणाली शरीर में कार्टीशोल व एंडरनल हार्मोन्स का स्राव करती है, जिससे स्पष्ट सोच व निर्णय लेने की क्षमता, जोखिम उठाने की क्षमता व उत्पादकता प्रभावित होती है। उद्यमी अवसाद ग्रस्त हो जाते है। यदि यह तनाव लम्बे समय तक चलता है तो उच्च रक्तचाप, ह्रदयघात, मांसपेशियों की समस्या या डायबटीज़ जैसी परेशानियाँ बढ़ जाती है। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। हार्मोनल असंतुलन के कारण अनेक प्रकार की समस्याएँ हो सकती है। एक उद्यमी ने हाल ही में अपने व्हाट्सऐप से अपने सभी ग्रुप्स में “आल आफ गुडनाइट एंड स्वीट ड्रीम्स” का सन्देश भेज कर आत्महत्या कर ली। वहीं दूसरे उद्यमी ने दस पेजों का सुसाइड नोट लिखा जिसमें उन्होंने फ़ैक्ट्री लगाने से सुसाइड की स्थिति तक पहुँचने की दास्तान लिखी कि किसने सहायता की, किसने धोखा दिया, किसने भुगतान नहीं किया, कौन परेशान कर रहा था, शासन के किसी विभाग से कोई मदद नहीं मिली। हालाँकि मीडिया या सोशल मीडिया पर इस तरह की घटनाओं की ज़्यादा चर्चा नहीं होती है। इन स्थितियों से उद्यमी को अकेले ही लड़ना पड़ता है, लेकिन जब कैफ़े काफ़ी डे के मालिक ने आत्महत्या की तब देश में खूब चर्चा हुई। एक अध्ययन के अनुसार हमारे देश में 49% उद्यमी तनाव से ग्रस्त पाए गए हैं, तो ऐसे में परिवार का साथ होता है तो उद्यमी संघर्ष कर सफल हो जाता है।

लचीलापन बढ़ना - लचीलापन असफलताओं से उबरने में मदद करता है। लचीलापन उद्यमी का बहुत बड़ा गुण है।

भावनाओं पर नियंत्रण- उद्यमी को भावनाओं के अति से हमेशा बचना चाहिए। श्री कृष्ण ने गीता के अध्याय 2 के श्लोक 38 में कहा है — “सुख दुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ” अर्थात् उद्यमी को सुख दुख को समतुल्य समझकर उनमें राग द्वेष न करके तथा लाभहानि को और जय पराजय को समान समझकर काम करना चाहिए। इसलिए परिवार उद्यमी को एक सुरक्षित स्थान दे सकता है।

3. क़ानूनी बाधाएँ - कोई नया उद्यम शुरू करना आसान काम नहीं होता। हमारे देश में उद्यम को शुरू करने के लिए इतने अधिक विभागों से लाइसेंस व अनुमतियाँ लेनी होती है जो किसी नये उद्यमी के लिए बहुत मुश्किल होता है। विश्व बैंक समूह द्वारा जारी ईज आफ डूईग बिज़नेस रैंकिग प्रणाली के तहत वर्ष 2019 में भारत को 190 देशों में 63 वाँ स्थान मिला था। इस रैंकिग में न्यूज़ीलैंड पहले, सिंगापुर दूसरे तथा डेनमार्क तीसरे स्थान पर रहे। हालाँकि भारत ने इस मामले में कई अहम कदम उठाए हैं तथा वर्ष 2023-24 का बजट पेश करते समय वित्त मंत्री ने इस सूचकांन में रैंकिग सुधारने की सरकार की प्रतिबद्धता दुहराई है। फिर भी उद्यम शुरू करने के पूर्व बिज़नेस लाइसेंस विभिन्न प्रकार के रजिस्ट्रेशन, सुरक्षा परमिट, एसटी रजिस्ट्रेशन, एमएसएमई रजिस्ट्रेशन एवं स्टार्टअप इण्डिया रजिस्ट्रेशन आवश्यक है। हालांकि कोई भी नया उद्यम कानून के दायरें में ही शुरू हो सकता है, लेकिन विग़त वर्षों में विश्व भर में ऐसे स्टार्टअप शुरु किये गये जो किसी क़ानून के दायरे में नहीं आते थे। जैसे ओला एवं उबर के पास एक भी टैक्सी नही है, एयरबीएनबी एवं ओयो के पास एक भी कमरा नहीं है, जोमेटो के पास एक भी रेस्टोरेन्ट नहीं हैं। नये उद्यमी मागते है कि शासन से परमीशन मांगने के बजाय छमा मांगना ज्यादा आसान होता है। इसी रणनीति पर बहुत से उद्यम प्रारंभ हो सके है, लेकिन जो लोग परम्परागत उद्यम करना चाहते है, उनके सामने कानूनी बाधाएँ हमेशा रहेगी जिनको पार करना कठिन, श्रमसाध्य, खर्चीला एवं अत्याधिक समय लेने वाला है। विभिन्न राज्यों की सरकारों ने सिंगल विंडो सिस्टम लगाकर इन बाधाओं को दूर करने की कोशिश निरंतर की जा रही है। कुछ राज्य सरकारों के बीच निवेश को आकृषित करने, रोज़गार के अवसर उत्पन करने एवं राज्य की आय बढ़ाने लिए निजी उद्यमियों को तरह—तरह की सुविधाएं देने की होड़ लगी है। भारत में हमेशा से हो व्यवसाय को बहुत अच्छी नज़र से नहीं देखा गया, लेकिन पहली बार भारत के प्रधामांत्री ने स्टार्टअप इंडिया, मेक इन इण्डिया जैसे कार्यक्रम शुरू का उद्यमियों के प्रति समाज व परिवार में एक सकारात्मक छवि बनाने का प्रयास किया। इन कारण युवाओं में नौकरी करने के स्थान पर अपना व्यवसाय शुरू की समझ बढ़ती जा रही है तथा भारत में विश्व का तीसरा सबसे बड़ा स्टार्टअप इको सिस्टम पिछले 9 वर्षों में खड़ा हुआ है।

4 . व्यवसाविक  बाधाएँ - नये उद्यमी को अपना कारोबार शुरु करने के लिए पूर्व से स्थापित औद्योगिक घरानों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं व्यापारिक संस्थानों के साथ कड़ी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। बाजार में स्थापित कंपनी तरह तरह की बाधाएँ एवं समस्या उत्पन्न करती है, जिससे नई कम्पनियां या तो प्रतिष्पर्धा से बाहर चली जाये या बड़ी कम्पनियों में विलय कर लें या बंद हो जाये। हमारे देश में भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग का नेटवर्क बहुत प्रभावी न होने के कारण अधिकांश सेक्टर में बड़ी कम्पनियों का एकाधिकार है। किसी कारोबार को शुरु करना उतना  मुश्किल नहीं है, जितना मुशिकल है उसे आसानी से आग़े बढ़ाते रहना। व्यापार में प्रतिस्पर्धा हमेशा अच्छी होती है तथा उपभोक्ताओं के हित में होती है, लेकिन जब असमान संगठनोंं वाली कंपनियों के बीच स्पर्धा हो तो मुश्किल होता है। यदि कोई उद्यमी सोचता है कि उसका कोई प्रतिद्वंदी नहीं है और वह दौड़ में अकेला है, तो यह उसकी सबके बड़ी भूल है। व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा जीतने के लिए आवश्यक है खुद पर भरोसा रखे, प्रतियोगी से बेहतर आईडिया लेकर  प्रोडक्ट की समझ रखें, ग्राहक को भगवान तुल्य माने, फाईनेंस पर नज़र रखे, टीम की कद्र  करें, फीडबैक लें, मार्केटिंग की नवीनतम तकनीकी को अपनाएं तथा हमेशा बदलाव के लिए तैयार रहें। यदि व्यक्ति शुरुआत कर रहे है तो बहुत कम संसाधनों के साथ कार्य शुरू करना है। इसलिए कभी भी अपने प्रतिभागी का मॉडल अपना कर प्रतियोगिता नहीं जीत सकते। उद्यमी को अपने प्रतिभागी से अलग बिज़नेस मॉडल तैयार करना होगा तथा उन कामों को चिन्हित करना होगा जो बाजार की मांग है एवं उपभोक्ताओं को बेहतर सेवाएँ देने के लिए आवश्यक है। उन  कार्यों को बिज़नेस मॉडल में शामिल करना होगा, जो बाज़ार में जो बड़ी कंपनी है उनकी मुश्किल यह है कि वह आसानी से बदलाव को लागू नहीं कर पाती है। वहीं नई एवं छोटी कंपनियों में इतना अधिक लचीलापन होता कि वह कभी भी बदलाव के लिए तैयार रहती है और यह ताक़त उन्हें जीतने में मदद करती है। सन 1980 के दौरान कोकवार में कोकाकोला के विरुद्ध पेप्सी, मैकडोनाल्ड के विरुद्ध बर्रगर किंग, फोर्ड के विरूद्ध जनरल मोटर्स, डॉकन डोनेट के विरुद्ध स्टारबक्स, नाइकी के विरुद्ध रीवोक आदि ऐसी ही लड़ाईयां है, जो व्यापारिक जगत में प्रसिद्ध है। कोलगेट, पोप्सेडेंट तथा दंतकांती, मैगी और पतंजलि आटा नूडल, पारले एवं ब्रिटानिया की जँग अभी जारी है। नये स्टार्टअप में पेटीएम, ओला उबर, ओयो, एयरबीएनबी, ज़ेप्टो, ब्लिंकिट, बिग बास्केट आदि की प्रतियोगिताएँ इसी तरह की है।

इस डिस्कशन से रवि एवं अमन बहुत अधिक रिलेट कर पा रहे थे, क्योंकि वह दोनों इन मनोस्थितियों से गुजरे थे। दोनों को यह डिस्कशन बहुत प्रैक्टिकल लगा।

पिछले दो सप्ताह से रवि एवं अमन को कई ऑर्डर मिल गया थे तो वह दोनों सप्लाई में व्यस्त रहे। इस रविवार वह भास्कर जी का सेशन मिस नहीं करना कहते थे तो वह कॉलेज समय पर पहुंच गये। बहस में भाग लेते हुए अमन ने अपना सवाल पूछा कि उद्यम की सफलता का आधार क्या हैं?

भास्कर जी ने बहुत खुश होकर बताना शुरू किया कि डॉ युवाल नोआ हरारी ने अपनी किताब 'सेपियन्स' में बताया है कि लगभग एक लाख साल पहले धरती पर मानव की कम से कम छह प्रजातियां बसती थीं, लेकिन आज सिर्फ होमो सेपियन्स ही बचे है। प्रभुत्व की इस जंग में आखिर हमारी प्रजाति ने कैसे जीत हासिल की? हमारे भोजन खोजी पूर्वज शहरों और साम्राज्यों की स्थापना के लिए क्यों एक जुट हुए? कैसे हम ईश्वर, राष्ट्र और मानव अधिकारों में विश्वास करने लगे? कैसे हम दौलत, किताबों और क़ानून में भरोसा करने लगे? कैसे हमने नौकरशाही, समय-सारणी और उपभोक्तावादी संस्कृति को अपना लिया? इन सब सवालों का जवाब है साझा विश्वास। कोई भी उद्यम तभी सफल एवं बड़ा बन सकता है जब उस संस्थान की टीम एवं उसके उपभोक्ता उस उद्यम के कांसेप्ट पर भरोसा करें। किस्से गढ़ जाते हैं, लेकिन किस्से गढ़ना आसान नहीं होता। फिर उन किस्सों पर लोगों का विश्वास क़ायम करना अधिक कठिन होता है। इसे कल्पित वास्तविकता कहते है। कम्पनियां - उद्यम इसी तरह स्थापित होती है। साझा विश्वास कम्पनियों की सफलता की वास्तविक ताकत बनती है। फिर छोटी कम्पनी बड़ी कम्पनियों को समाप्त कर देती है। यह सफल कंपनी सामूहिक विश्वास को अधिक से अधिक लोगों में फैलाते हैं और काल्पनिक वास्तविकता का निर्माण करते हैं।

हम एक गहरी भ्रांति में जीना - आशा की भ्रांति में। आदमी आत्म वंचनाओं के बिना जी नहीं सकता। नीत्से ने कहा है कि आदमी सत्य के साथ नहीं जी सकता, उसे चाहिए सपने, भ्रान्तियाँ और कई तरह के झूठ। मानव मन को गहराई से समझकर ही कम्पनियों को सफल बनाया जा सकता है। न्यूरो मार्केटिंग, विपणन और तंत्रिका विज्ञान के मिश्रण से जुड़ा विज्ञान है। इसका मक़सद, उपभोगताओं के व्यवहार, भावनाओं और निर्णय लेने की प्रक्रिया को समझना होता है। इस जानकारी का इस्तेमाल, विपणन रणनीति बनाने और बेहतर उत्पाद विकसित करने में किया जा रहा है। इस प्रकिया में आई ट्रैकिंग और आई गेजिंग, प्रभावी पैकेजिंग, रंग मनोविज्ञान, विज्ञापन दक्षता, निर्णय थकान, संतुष्टि का मूल्यांकन, हानि से बचना, एंकरिंग, गति और दक्षता तथा छपी हुई प्रतिक्रियाओं का अध्ययन किया जा रहा है। नीर ईयाल ने अपनी किताब हूक्ड में  कम्पनियों जैसे फ़ेसबुक, पिंटरेस्ट, ट्वीटर, येलप, ब्लागिंग जैसी तकनीकी कम्पनियों के उद्धरण देकर बताया है कि हेविट, टिगर, एक्शन व रिवार्ड के सिस्टम को बनाकर कैसे कम्पनियों को सफल बनाया है। टिकटॉक जैसी कम्पनियों छोटे छोटे वीडियों बनाकर करोड़ों लोगों को रोज़ छोटे वीडियो बनाकर डालने की आदत का गुलाम बना दिया। करोड़ों लोग अपने जीवन के अधिकांश घन्टे रील देखने या सोशल मीडिया पर बिताते है। मोबाइल गेम निर्माता कम्पनियों गेम खेलने वाले लोगों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर देती है।

हावर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. हेराल्ड जाटमैन कहते है कि मनुष्य का अवचेतन मन ही 95% खरीदारी के निर्णय करता है।

स्वतंत्र इच्छा की अवधारणा पर डॉ युवाल नोआ हरारी कहते है कि किसी व्यक्ति को विकल्प चुनने की स्वतंत्रता एक मिथ्या अवधारणा है, क्योंकि उपभोक्ता के व्यवहार पर तरह-तरह के प्रयोग एवं अध्ययन किए जा रहे है और अब कम्पनियाँ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के टूल्स का इस्तेमाल कर रही हैं और यह कोशिश है कि उपभोक्ता के ख़रीदारी के निर्णय को कैसे प्रभावित किया जाये। खरीदार को पता भी न चले कि कोई और उनके व्यवहार को प्रभावित कर उसकी इच्छा की स्वतंत्रता को प्रभावित कर रहा है। बाज़ार में ग्राहकों को मनाने के लिए ग्राहकों की बातें सुनना, सकारात्मक भाषा का उपयोग करना, ग्राहकों को विकल्प देना, उपहार देना, पीछे छूट जाने का डर दिखाना जैसी कई तकनीकों का उपयोग किया जा रहा है।

इसलिए सभी इन्टरनेट आधारित कम्पनियाँ के पास हमारी इतनी अधिक जानकारी है और वह हमारे व्यवहार के सम्बन्ध में बिल्कुल सही गणना कर अनुमान लगाने में माहिर हो गई है कि अब न केवल ख़रीदने के निर्णय प्रभावित किए जा रहे है, बल्कि देशों के चुनावों को भी सफलतापूर्वक प्रभावित किया गया है। दरअसल, हाल ही में फेसबुक के फाउंडर और मेटा के सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने 'जो रोगन पॉडकास्ट' में शिरकत की थी। इस दौरान उन्होंने चुनावों पर एक विवादास्पद टिप्पणी की थी। मेटा के सीईओ ने कहा था कि कोविड-19 महामारी के बाद भारत समेत दुनिया के कई देशों में चुनाव हुए और कई सरकार हारी हैं, जिसमें भारत भी शामिल है। जुकरबर्ग ने कहा था कि यह हार दिखाती हैं कि महामारी के बाद लोगों का भरोसा कम हुआ है। इस टिप्पणी पर भारी विवाद चल रहा है। इन्टरनेट डेटा बेचकर कम्पनियाँ खरबों रूपये कमा रहीं है।

बिना तकनीक का इस्तेमाल किये किसी भी बिज़नेस को सफल नहीं बनाया जा सकता है। किसी भी सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर अपनी कोई पोस्ट या फ़ोटो अपलोड कर तत्काल युज़र्स को इससे संबंधित विज्ञापन दिखाने लगते है, ईमेल व मैसेज आने लगते है। और तो और जब में अपने मोबाइल फ़ोन पर यह लेख टाईप कर रहा हूँ तो मेरा मोबाइल मेरा मन पढ़कर अगले शब्द का सजेशन दे रहा है। यदि में कोई शब्द टाइप करने में गलती करता हूं तो मोबाइल उस शब्द को लाल लाइन से दिखा देता है। यह सब इतनी तीव्रता से होता है कि मुझे लगता ही नहीं कि मेरे विचार मेरा मोबाइल कम्पनियाँ पढ़ कर स्टोर कर रहीं है। व्यक्ति को तकनीकी का जितना अधिक ज्ञान होगा और अपने बिज़नेस में जितना उपयोग करेगा तो की सफलता की सम्भावना उतनी ज़्यादा है, क्योंकि अब प्रतिस्पर्धा भौतिक जगत में न होकर वर्चुअल दुनिया में है।

अमन एवं रवि को सवालों के जबाब मिल गए थे। दोनों को यह भी समझ आ रहा था कि वे लोग क्या गलतियां कर रहे हैं।

मूल यक्ष प्रश्न एक उम्रदराज व्यक्ति ने पूछा कौन सा उद्यम कैसे किया जाए? यह है मिस्टर सुदेश भाटिया जो बचपन से अपने पिता जी के बिजनेस से जुड़े है। भास्कर जी ने बिना लाग लपेट के कहना शुरू किया कि बहुत सारे युवा स्टार्टअप शुरू करना चाहते है, लेकिन अधिकांश लोगों को पता नहीं होता कि उन्हें करना क्या है? या कई लोगों के मन में बहुत अस्पष्ट विचार होता है। किसी भी स्टार्टअप का जन्म विचार से ही होता है। हमें स्टार्टअप को भी अपना मानस पुत्र ही मानना चाहिए। ब्रम्हाण्ड की रचना का विचार सबसे पहले ब्रह्मा जी के मन में ही आने की कथा है। महात्मा बुद्ध ने कहा है कि मन सभी वृत्तियों का पुरोगामी है। इसलिए हमें मन की वृत्तियों की समझ होनी चाहिए। आधुनिक मनोविज्ञान यह सब समझने का प्रयास कर रहा है, लेकिन महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र में मन को चार आयामों को माना है- मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार। किसी भी विचार की अनुभूति सबसे पहले चित्त में होती है, जिसे महर्षि पतंजलि ने चित्त वृत्ति कहा है। चित्त की पाँच वृत्तियों का उल्लेख है- प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा व स्मृति। स्टार्टअप के संस्थापक को यह समझना चाहिए कि स्टार्टअप का विचार किस भाव दशा में कौनसी वृत्ति से आया है।

उद्यमी को यह समझना चाहिए कि उद्यम हो जो विचार उनके मन में आप है वह किस वृति व कौन सी भाव दशा में आया है। हर उद्यम की शुरुआत एक आइडिया या विचार से होती है। वे लोग स्टार्टअप शुरु करना चाहते है उन्हें सभी लोग उनके आईडिया के बारे में पूछते हैं। सामान्यतः, जो दूसरे की समस्या होती है वह उद्यमी के लिए बिजनेस करने का अवसर या आइडिया होता है। यह समस्या स्वयं एवं परिवार की या समाज की हो सकती है, जो व्यक्ति जितना संवेदनशील, चेतनावान होता है वह अपने आस-पास की समस्याओं को आसानी से महसूस कर पाता है। आम तौर पर लोग समस्या को देख कर अनदेखा करते है और सोचते है कि इस समस्या का समाधान खोजना उनका काम नहीं है। इस समस्या का समाधान या तो सरकार को खोजना चाहिए या किसी अन्य व्यक्ति को। ऐसे दृष्टिकोण वाले व्यक्ति उद्यमी होने की श्रेणी में नहीं आते है। उद्यमी होने के लिए पहली शर्त है कि जब भी कोई छोटी से छोटी समस्या को देखे तब उसका समाधान खोज कर क्रियान्वित करने की सोचें। वहीं सच्चा उद्यमी रजोगुण प्रधान होता है। बड़े व्यावसाय खड़े हुए है वह इसी तरह के लोगों द्वारा खड़े किए गए हैं। क़रीब एक दशक पहले सेन फ्रांसिस्कों में किराए के घर में रहने वाले ब्रायन चेस्की, जो गेब्बिया व नाथन ब्लेचारज़िक  अपने घर का किराया नहीं दे पा रहे थे एवं खुद खर्च के लिए पैसा नहीं होता था। तब उन्हें अपने एयर मैड्रेस किराये पर देकर अपना खर्च निकालने का विचार आया और इसी विचार ने 30 बिलियन डालर की कंपनी बना दी, जिसका नाम एयर बीएनबी है। इस छोटे से विचार से उत्पन्न कम्पनी आज 220 देशों में काम करती है।

कोरोना काल में जब लोगॊं के कारोबार डूब रहे थे और धंघे चौपट हो रहे थे, तब कैवल्य वोहरा एवं आदित पलीचा को खाना, किराना व अन्य जरूरी सामान लोगो के घरॊं में 10 मिनिट में पहुँचने का विचार आया। इसी विचार से जेप्टो कम्पनी की शुरुआत हुई जो आज 140 करोड़ डॉलर के वेल्यूएशन वाली कंपनी बन गई है। इस विचार के कारण ही भारत में क्विक कॉमर्स कम्पनियों का जन्म हुआ। इसी तरह नौकरी डॉट काम की शुरुआत जीव बिखचंदानी ने की जिसके बाद हमारे देश में स्टार्टअप कल्ट की शुरुआत हुई। फणींद्र शर्मा एवं उनके दोस्तों ने बस के टिकिट ऑनलाइन बेचने के विचार पर रेडबस डाँट कॉम की शुरुआत की। इसी तरह आर्देशिर गोदरेज को वर्ष 1897 में मुम्बई में चोरियां बढ़ने की खबर अखबार में पढ़कर ताला बनाने का विचार आया तब उन्होंने एक छोटी सी जगह में ताल बनाने की गोदरेज कम्पनी की शुरुआत की, जो आज 50 देशों में व्यापार कर रही है तथा इसका बाज़ार मूल्य रूपये 1.5 लाख करोड़ है। ऐसी कहानियां हर कम्पनी के बारे में उपलब्ध है जिन्हें जानकार लगेगा कि केवल एक व्यक्ति की समस्या से भी बहुत बड़ा उद्यम खड़ा हो सकता है। अकेले भारत मे आज 1,40,803 स्टार्टअप पंजीकृत है, जिन्होंने 15.53 लाख नौकरियां सृज़ित की है। प्रश्न यह है व्यक्ति कैसे जाने कि कौन सा विचार आप के लिए सही है, जिस पर काम कर आप अपना कारोबार प्रारंभ कर सकते है। इसका सीधा सरल जवाब है कि विचार से जिस समस्या का समाधान करना चाहते है तो उसके लिए क्या लोग भुग़तान करने को तैयार है? यदि हाँ तो आप सही रास्ते पर है और आप का विचार “बहुत अच्छा” है। इसके लिए आप अपनी पढ़ाई व नौकरी छोड़कर अपनी बचत का निवेश कर सकते है, लेकिन इस विचार को उद्यम में बदलने के लिए निम्न क़दम उठाना आवश्यक हैं:-

पहला कदम है कि वास्तविक समस्या की पहचान जब आप अपनी स्वयं के “भोगा हुआ यथार्थ” के समाधान के लिए कोई विचार विकसित करते है तब वह समस्या वास्तविक समस्या ही होती है। स्टार्टअप शुरू करने वाला दिन में स्वप्न नहीं देख रहे होता है। ऐसे कई उदाहरण है जैसे मेलिना पर्किन्स ऑस्ट्रेलिया की एक यूनिवर्सिटी में पार्ट टाइम पढ़ाने का काम करती थी उन्हें बच्चों को “डिज़ाइन सॉफ्टवेयर सिखाना” था। उस समय उपलब्ध सॉफ्टवेयर बहुत महँगे तथा जटिल थे। उनके मन में एक विचार आया कि क्या एक ऐसा साफ्टवेयर तैयार किया जाना चाहिए जो किसी भी बिना डिज़ाइन सीखे व्यक्ति को डिज़ाइन बनाना सिखा सके। इसी विचार से कैनवा का जन्म हुआ, जिसका इस दौर में सभी लोग आसानी से उपयोग करते है, लेकिन ऐसे बहुत उद्यम है जो पर्यात फण्डिंग होने के बावजूद भी असफल हो गये। इनमें बायजू, फूड पान्डा, फ्रीचार्ज, दूधवाला एवं डील शेयर शामिल है। आईबीएम के एक अध्ययन के अनुसार भारत में शुरू होने वाले स्टार्टअप में से 90% विफल हो जाते है। विफलता की दर फिनटेक में 75%, प्रौद्योगिकी में 63%, रियल स्टेट में 48% व निर्माण में 20% है। अमेरिका के एक इन्वेस्टर विल ग्रोस ने अपने टेड टॉक में स्टार्टअप की सफलता सही समय पर 42%, टीम व कियान्वयन पर 32% आइडिया पर 28% बिज़नस मॉडल्स पर 24% तथा फडिंग पर 14% निर्भर होती है।

दूसरा कदम - अपने लक्षित ग्राहकों को परिभाषित करना। यदि आपके पास एक “बहुत अच्छा” विचार है तो दूसरा चरण यह है कि आप अपने लक्षित ग्राहकों की पहचान करें। जब उद्यमी किसी विचार से प्यार करने लगता है तब लगता कि हर कोई उत्पाद या सेवा खरीदना चाहेगा, लेकिन यह सच नहीं होता है। जैसे भारत में कोई उद्यम जब शुरु करता है या कोई बहुराष्ट्रीय कम्पनी अपने उत्पाद बेचना चाहते है तो आम तौर पर भारत की 142 करोड़ जनसंख्या को उपभोक्ता बताते है। यह किसी भी तरह से सच नहीं होता है। कोई आपका उत्पाद या सेवा तभी ख़रीदेगा जब वह उसकी किसी ज़रूरत या समस्या की पूर्ति करती है। दूसरा उसकी क्रय शक्ति मूल चुनने की हो। तीसरा वह उसके पहुँच में समीप उपलब्ध हो तथा उनकी धार्मिक एवं सामजिक मान्यताओं के विपरीत न हों। जैसे पोपुल रिसर्च ऑन इंडियाज़ कंज्यूमर के अनुसार वर्ष 2004-2005 में जहां 30% परिवार गरीब थे, जो 2030 तक केवल 6% रहेंगे। मध्यम वर्ग 2004-2005 में 14% आबादी थी, जो 2030 तक 46% हो जायेगी। अमीरों की आय रूपये 30 लाख वार्षिक, मध्यम वर्ग की आय रूपये 5.30 लाख वार्षिक निम्न वर्ग की आय रूपये 1.25 लाख से 5 लाख वार्षिक एवं गरीब की आय रूपये 1.25 लाख वार्षिक से कम आंकी गई है। इन आँकड़ों के आधार पर उत्पाद एवं सेवा के मूल्य पर कितने प्रतिशत क्रय कर सकेंगे। यह आँकड़ा लक्षित वर्ग का हो सकता है। इस पर अन्य कारकों के प्रभाव का आंकलन कर “कुल बाज़ार” के आकार की गणना की जाना चाहिए।

तीसरा कदम- प्रतिस्पर्धा का विश्लेषण करना। यदि कोई व्यक्ति यह मानता है कि उसका कोई प्रतिस्पर्धी नहीं है तो यह ग़लत मान्यता है। यदि कोई समस्या है तो कोई किसी न किसी तरह का समाधान उपलब्ध करवा रहा होगा। कोई भी प्रतिस्पर्धी की नक़ल कर सफल नहीं हों सकते। समस्या के मौजूदा सभी समाधान उपलब्ध करवाने वाली कम्पनियों के बिज़नेस मॉडलों को समझना होगा और गैप को पहचान कर बेहतर समाधान उपलब्ध कराने की कोशिश करना चाहिए। स्टार्टअप किसी दूसरे देश या किसी अन्य सेक्टर के आईडिया की नक़ल कर सफल नहीं हो सकते। जैसे कृषि क्षेत्र में कृषि सप्लाई चैन को समझें बिना जिन्होंने एग्रोटेक फ़िलिप कार्ट या अमेजन कम्पनियों की नक़ल का स्टार्टअप शुरू किए था। वे बन्द हो गए या बहुत अधिक घाटा उठाकर चल रहें है। अधिकांश प्रदेशों में कारोबार बंद कर दिया हैं तथा अनेक वर्टिकल्स बंदकर कर्मचारियों की छंटनी कर दी है, क्योंकि इन लोगों को लगा कि वह फ़ीडिंग की दम पर कम क़ीमत पर माल बेचकर पूर्व की सप्लाई चैन को तोड़ देंगे, लेकिन करोड़ों करोड़ रुपए बर्बाद करने के बाद भी सफल नहीं हो सके, क्योंकि जितना मार्जिन इलेक्ट्रॉनिक, फ़ैशन एवं सौंदर्य प्रसाधन के सामान में जो मार्जिन है उसना मार्जिन कृषि आदान के उत्पादों में नहीं है। कृषि उत्पादक बेचने के मण्डियों के विकल्प के तौर पर विकसित ई-कॉमर्स ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म सफल नहीं हो पा रहे है, क्योंकि हमारे देश के 85% किसान लघु एवं सीमांत श्रेणी के है। यह बहुत कम मात्रा में कृषि आदान क्रय करते है एवं उनका उत्पाद भी बहुत कम मात्रा में होता है तथा इसकी गुणवत्ता भी अलग-अलग होती है। इन कारणों के कारण कोई भी एग्रीटेक स्टार्टअप सही विकल्प प्रस्तुत करने में सफल नहीं हो सका है।

चौथा कदम- बाज़ार में अवसरों की तलाश। जब अपने लक्षित ग्राहकों के आधार पर बाज़ार के आकार का आंकलन कर लेते हैं तब आपको यह समझना होगा कि इस लक्षित बाज़ार के कितने प्रतिशत लोगों को आकर्षित कर सकते हैं और अपने व सेवाओं को बेच सकते है। इसके लिए उपभोक्ताओं के व्यवहार को समझना चाहिए। अर्ली एडेप्टर उपभोक्ताओं की पहचान कर शुरू में उन्हें टार्गेट किया जाना चाहिए, फिर फ़ॉलोअर को। अपने बिज़नेस मॉडल में बदलाव के लिए शुरू से ही आँकड़ों का विश्लेषण कर स्टार्टअप की स्थिरता बड़ा कर लाभ को बढ़ा सकते हैं।

पाँचवा कदम- प्रोडक्ट मार्केट फ़िट की तलाश। प्रारंभ से ही बहुत बड़ी लागत लगाकर काम शुरू करने के स्थान पर आईडिया को छोटे स्तर पर टेस्ट कर प्रोडक्ट मार्केट फ़िट की तलाश करनी चाहिए। ग्राहकों की संख्या विस्तार करना एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। ग्राहकों के दर्द के बिन्दुओं को समझने के लिए प्रारंभिक ग्राहकों का फ़ीडबैक लेना चाहिए। कोविड के समय एडटेक स्टार्टअप एवं ई-कॉमर्स स्टार्टअप ने बहुत निवेश उठाकर बहुत व्यापक स्तर पर काम शुरू किया। उम्मीद थी कि वे ग्राहकों की आदतों को बदल में सफल होंगे, लेकिन लॉक डाउन ख़त्म होने पर ग्राहक अपनी पुरानी आदत के अनुसार आफलाइन चले गये। प्रोडक्ट मार्केट फ़िट को सस्ते में बेच कर नहीं परखा जा सकता है।

छटवॉ क़दम- परिवर्तन, परिवर्धन व पुनरावृत्ति। डिजिटल युग में मार्केट इंटेलीजेंस एवं ग्राहकों की प्रतिक्रिया के आँकड़ों को एकत्र करना, विश्लेषण करना एवं आगे के अनुमान लगाने के लिए बहुत सारे टूल्स उपलब्ध है। इसलिए स्टार्टअप को शुरू से ही अपनी ताक़त और अवसरों को पहचानें, कमज़ोरियों व जोखिमों को कम करने के लिए आंकड़ों पर नज़र रखने के साथ प्रतिद्वंद्वि की रणनीति एवं नई टेक्नोलॉजी को अपनाने के लिए स्टार्टअप को बहुत लचीलापन अपनाने की कोशिश करना चाहिए। बाज़ार में क्या चलेगा और क्या नहीं, परीक्षण एवं तुष्टियों को खोजने की प्रवृत्ति आप की सफलता की सम्भावना को बढ़ा देती है।

स्टार्टअप हमेशा से अनिश्चितता से भरा होता है, जिसमें निरंतर ऊपर-नीचे जाने का खेल चलता रहता है। प्रतिदिन नई चुनौतियों का सामना करना, टीम को उत्साहित रखना, समस्याओं का समाधान निकलना व्यक्ति को लीडर बनाता है। असफलताओं एवं नकार को सीखने एवं अनुभव लेने की प्रक्रिया समझना एवं पैसे का धोखा खाने को सीखने की क़ीमत जानना हमेशा सकारात्मक रखता है। यदि कोई विचार सम्पूर्ण प्रयास करने के बाद भी बाज़ार में सफल नहीं हो पा रहा है तो साहिर लुधियानवीं के गीत “वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा“ याद करें व इस विचार को छोड़कर कुछ और करें। हमारे देश में भगवान विष्णु का एक चित्र हर घर में होता है जिसमें वह क्षीर सागर में शेषनाग के उपर शांति से लेटे है तथा सर्प के हज़ार सिर उनके सिर के ऊपर है तथा लक्ष्मी पाँव दबा रही हैं। इसका अर्थ है कि स्टार्टअप का संस्थापक बाज़ार की उथल-पुथल में हज़ार समस्याओं में शांति से अपने काम को करना जारी रखेगा तो सफलता उसके कदम चूमेगी। एक स्टार्टअप संस्थापक को हरफ़नमौला बनाना पड़ता है। उसे यह गाना याद रखना चाहिए - मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया, हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।”

महिने का अंतिम सप्ताह आ गया था। अमन और रवि महीने के बिल चुकाने के लिये बहुत परेशान थे। दो महीने पहले एक इन्वेस्टर तो पिच डेक बनाकर भेजा था। आगामी सप्ताह उनकी टीम इन दोनों ने पहला डिस्कशन काने आने वाले थे। इसलिए अमन ने भास्कर जी से सवाल किया कि एंटरप्रेन्योर को मन शांत रखने के साधन क्या है?

भास्कर जी ने बताया कि उद्यमी को मनोविज्ञान की समझ होनी आवश्यक है, क्योंकि स्टार्टअप के जीवन में इतने ज़्यादा उतार-चढ़ाव होते है तथा इन्टर्नप्रोनर शुरू में अपने काम और जीवन में अंतर न रख पाने के कारण मन को प्रभावित होने से बचा नहीं पाता है। कभी-कभी किसी किसी इन्टर्नप्रोनर का मन पर नियंत्रण समाप्त हो जाने पर भयानक परिणाम होते है। वह चौबीसों घन्टा इसी विषय पर सोचता रहता है। श्री कृष्ण ने गीता में मनुष्य के नास होने की प्रक्रिया को समझाते हुए कहते है :. 

ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते |

सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते ||

क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम: |

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||

विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्यों की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है। बायजू स्टार्टअप की कहानी इस प्रक्रिया का जीता जागता उदाहरण है। वर्ष 2007 में बायजू रबीन्द्रन ने ट्यूशन के काम में मिली सफलता से उत्साहित होकर वर्ष 2011 में थिंक एण्ड लर्न नाम से एक स्टार्टअप कम्पनी शुरू की तथा आन लाइन पढ़ाने के लिए बायजू का प्लेटफ़ार्म शुरू किया। यह प्रयोग बहुत सफल रहा तो वर्ष 2015 में बायजू का एप लाया गया। वर्ष 2020 में बायजू विश्व का सर्वाधिक मूल्यवान एडटेक स्टार्टअप बन गया। कम्पनी का वैल्यूशन रूपये 85,000 करोड़ हो गया और आकाश एजुकेशन सर्विस को रूपये 7,300 करोड़ में ख़रीदा, व्हाइट हेड जूनियर, टॉपर एवं आई रोबोट ट्यूटर कम्पनियाँ ख़रीद करने के लिए बिलियन डॉलर से अधिक का क़र्ज़ लिया। बायजू ने कभी ऑर्गेनिक ग्रोथ के बारे में नहीं सोचा। एक समय कम्पनी की मासिक आय रूपये 30 करोड़ थी तथा खर्च रूपये 150 करोड़ था। ऐसे हालात में लोन चुकाने का बोझ बड़ता गया और कम्पनी का वैल्यूशन 22 बिलियन डॉलर से घटाकर 5 बिलियन डॉलर रह गया। इस वर्ष कम्पनी को रूपये 4,589 करोड़ का घाटा हुआ। इसके बाद कम्पनी के अकाउंट में गड़बड़ी सामने आने लगी। लोन देने वालों ने कोर्ट केस दायर कर दिया। कर्मचारियों की लगातार छँटनी की गई, कई देशों में आपरेशन बंद कर दिया। प्रवर्तन निदेशालय ने कम्पनी में छापा मारकर कैश दर्ज किया। बायजू के रबीन्द्रन भारत से दुबई जा कर रहने लगे। रबीन्द्रन की स्वयं की वेल्थ 17,545 करोड़ रूपये से शून्य हो गई। कम्पनी पर देश एवं विदेश में अनेक कोर्ट में प्रकरण चल रहे हैं। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा - “जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।” आदमी का केवल अकेले उसका चेतन मन ही नहीं है बल्कि उसके पास नौ गुना अचेतन मन भी है। इसलिए हमारी अनुभूतियाँ, विचार एवं निर्णय अवचेतन मन से प्रभावित होते है।

मन को शांत रखने के लिए महर्षि पतंजलि ने ‘अभ्यासवैराग्याअभ्यांतन्निरोधः’ अभ्यास एवं वैराग्य के सतत अभ्यास से मन शांत रखा जा सकता है। इसलिए स्टार्टअप के संस्थापक को स्वयं एवं स्टार्टअप को अलग समझने के लिए अभ्यास करना चाहिए, जिससे उनकी आसक्ति कम हो जाती है और वैराग्य भाव बढ़ने से कम्पनी अधिक कुशलता से चला सकते है। वैराग्य का आय आलसी पन नहीं है बल्कि इसका मतलब है अनासक्ति।

स्टार्टअप से अनासक्ति का भाव अवचेतन एवं अचेतन तक ले जाने के लिए सतत अभ्यास की आवश्यकता है। इस बात की बुद्धि गत समझ काम नहीं आती है। हर स्टार्टअप शुरू करने वाला यह अच्छे से समझता है कि स्टार्टअप उससे है वह स्टार्टअप नहीं है, लेकिन जब कम्पनी में गड़बड़ होती है तब यह समझ ग़ायब हो जाती है। उसका दिमाग़ हमेशा सोचता रहता है, नींद नहीं आती, खाना नहीं पचता, ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है एवं हार्मोन की गड़बड़ी होने से धीरे-धीरे वह अवसाद में चला जाता है। अनासक्ति चेतन मन के तल पर तो समझ रहा है, लेकिन अवचेतन व अचेतन मन के तल पर यह समझ नहीं होतीं है। कोई विचार अचेतन का हिस्सा तभी बनता है जबकि वह निरंतर दुहराया गया हो। यदि आप किसी भीड़ वाली जगह में कितनी गहरी नींद में सो रहे हो और कोई आप का नाम पुकारे तो आप जाग जाते है, जबकि दूसरे गहरी नींद में सो रहे होते है। इसी तरह तुम्हारी मात्रभाषा है। इसलिए सैनिक एवं खिलाड़ी निरंतर अभ्यास करते है। जब हम तैरना, साइकिल चलाना या गाड़ी चलाना सीख लेते है तब फिर मशल मेमोरी से ही कर पाते है। कम्पनियाँ लगातार विज्ञापन दिखातीं है, क्योंकि विज्ञापन से वह प्रोडक्ट आपके अवचेतन का हिस्सा बन जाता है और जब उपभोक्ता ख़रीदारी करने जाता है तो वहीं प्रोडक्ट उठा कर लाता है, क्योंकि जब कोई याददाश्त बन जाती है तो उसे नष्ट नहीं किया जा सकता है। इसलिए योग परंपरा में अभ्यास पर इतना ज़ोर दिया गया है। मन को शांत रखने के लिए स्टार्टअप संस्थापक को स्वस्थ व सफल होने के लिए यह अभ्यास आवश्यक है। रवि को भास्कर जी की बातें सुन कर भर्तृहरि की कहानी याद हो आई कि किस तरह प्रांरभ में गुरु के सानिध्य में योग अभ्यास किया था।

मनोज गोयल इंदौर के सफल व्यापारी है। मनोज ने भास्कर जी से पूछा कि व्यापार में क्या सफलता की कोई समय सीमा है? भास्कर जी ने गोयल की ओर देखा कर हंसते हुए पूछा कि क्या आप भी निश्चित नहीं है। गोयल ने सर हिला कर हामी भरी तो भास्कर जी ने कहने शुरू किया कि जीवन में कौन सफल नहीं होना चाहता? हर व्यक्ति अपनी श्रद्धा अनुसार काम करता है और वह जो काम करता है उसमें सफल होना चाहता है। द 7 हैबिट्स ऑफ हाइली इफेक्टिव पीपल के लेखक डॉ. स्टीफन आर कॉवे द्वारा अनेकों अति प्रभावशाली लोगों के जीवन का अध्ययन कर सात आदतें चिन्हित की है जो सफलता के लिए आवश्यक है-

सक्रिय बनिए (प्रोएक्टिव बनें) -  किसी भी परिस्थिति के नियंत्रण में रहने की बजाय हमें परिस्थितियों को नियंत्रित करना चाहिए। स्वयं निर्धारण, चुनाव और निर्णय लेने की क्षमता ही परिस्थितियों और हालात परिस्थिति और हालात को सकारात्मक रूप में परिवर्तित कर सकती है।

अंत को ध्यान में रख कर शुरुआत करें -  कठोपनिषद में यम और नचिकेता के संवाद में यम नें  जीवन जीने के लिए  श्रेय व प्रेय मार्ग का उल्लेख किया है। श्रेय मार्ग में शुरू में कष्ट होता है, लेकिन अंत सुखद होता है। प्रेम मार्ग में शुरुआत सुखद व प्रीतकर होती है लेकिन अंत कष्टप्रद होता है। डॉ. स्टीफन आर कॉवे अंत को ध्यान में रखकर निर्णय लेने की इस आदत को लीडरशिप की आदत कहते हैं जिसमें हमारा ख़ुद पर स्वयं का नियंत्रण होना चाहिए। हमेशा लक्ष्य पर ध्यान होने से सफलता हासिल कर पाते है।

प्राथमिक चीज़ों को महत्व दें - सबके पास समय सीमित है। स्वयं को प्रभावशाली बनाने के लिए कठोरता से अनुशासित करना आवश्यक है ताकि दिन प्रतिदिन की प्राथमिकताएं पूर्ण हो सके।

फायदे का सौदा विन - विन वाली सोच - हमेशा जीत के बारे में ही सोचे व प्रतिबद्ध रहे, जो दोनों तरफ़ से सन्तोषजनक एवं लाभकारी हो।

पहले समझने की कोशिश करें फिर समझे जाने की - किसी को सलाह, सुझाव और समाधान देने से पहले दूसरे इंसान के साथ प्रभावी तरीके से बातचीत करें, जिससे हम उनका परिप्रेक्ष्य  को ध्यान से सुने और समझे। संचार विशेषज्ञ बताते है कि बातचीत में हम 10% संवाद शब्दों से, 30% आवाज़ के उतार-चढ़ाव से तथा 60% बॉडी लैंग्वेज से करते है। इसलिए बौद्ध व जैन धर्म में सम्यक श्रवण पर ज़ोर दिया है।

तालमेल बिठाये - दूसरों के मूल्यों को समझने के लिए हमें तालमेल रखना होता है जो हमें नई संभावनाएं, खुलापन और रचनात्मकता का अवसर देती है। तालमेल नए विकल्प और नई संभावनाओं का सृजन करती है। ये हमें अनुमति देते हैं कि हम पुराने तरीकों को भूलकर नए विचारों पर काम करें।

नज़र को तेज करे- प्रभावी बनने के लिए हमें खुद को शारीरिक, आध्यात्मिक, मानसिक और सामाजिक रूप से बदलना होता है तथा जब हम खुद को निरंतर बदलने की अनुमति देते है तब जाकर हम सारी आदतों को अच्छे ताल-मेल के साथ अभ्यास कर पाते हैं।

महर्षि पतंजलि कहते है, “सफलता उनके निकटतम होती है, जिनके प्रयास तीव्र, प्रगाढ़ व सच्चे होते है।“ योग सूत्र में सफलता के चार स्तम्भ बताएँ हैं- श्रद्धा — विश्वास, वीर्य - जोश, ऊर्जा, स्मृति- याददाश्त व प्रज्ञा- जागरूकता। सफल होने के लिए लम्बी अवधि तक उत्साह व विश्वास के साथ काम करते रहना होगा। प्रयास की तीव्रता जितनी ज़्यादा होगी सफलता उतनी जल्दी मिलेगी। यह समय की लम्बाई का प्रश्न न होकर प्रयास की गहराई का है। मन की मत सुनो, मन प्रारम्भ में विरोध करेगा। इसलिए श्रद्धा भरी निष्ठा के साथ काम करना चाहिए। बिना निष्ठा के कोई परिणाम नहीं आयेगा। प्रयास तीन तरह के होते है- मृदु, मध्य व तीव्र, जो प्रयास जिस गति का होगा फल आने में उतना समय लगेगा। भास्कर जी ने बताया कि उद्यमी को मनोविज्ञान की समझ होनी आवश्यक है, क्योंकि स्टार्टअप के जीवन में इतने ज़्यादा उतार-चढ़ाव होते है तथा इन्टर्नप्रोनर शुरू में अपने काम और जीवन में अंतर न रख पाने के कारण मन को प्रभावित होने से बचा नहीं पाता है। कभी-कभी किसी किसी इन्टर्नप्रोनर का मन पर नियंत्रण समाप्त हो जाने पर भयानक परिणाम होते है। वह चौबीसों घन्टा इसी विषय पर सोचता रहता है। श्री कृष्ण ने गीता में मनुष्य के नास होने की प्रक्रिया को समझाते हुए कहते है :. 

ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते |

सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते ||

क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम: |

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||

विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्यों की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है। बायजू स्टार्टअप की कहानी इस प्रक्रिया का जीता जागता उदाहरण है। वर्ष 2007 में बायजू रबीन्द्रन ने ट्यूशन के काम में मिली सफलता से उत्साहित होकर वर्ष 2011 में थिंक एण्ड लर्न नाम से एक स्टार्टअप कम्पनी शुरू की तथा आन लाइन पढ़ाने के लिए बायजू का प्लेटफ़ार्म शुरू किया। यह प्रयोग बहुत सफल रहा तो वर्ष 2015 में बायजू का एप लाया गया। वर्ष 2020 में बायजू विश्व का सर्वाधिक मूल्यवान एडटेक स्टार्टअप बन गया। कम्पनी का वैल्यूशन रूपये 85,000 करोड़ हो गया और आकाश एजुकेशन सर्विस को रूपये 7,300 करोड़ में ख़रीदा, व्हाइट हेड जूनियर, टॉपर एवं आई रोबोट ट्यूटर कम्पनियाँ ख़रीद करने के लिए बिलियन डॉलर से अधिक का क़र्ज़ लिया। बायजू ने कभी ऑर्गेनिक ग्रोथ के बारे में नहीं सोचा। एक समय कम्पनी की मासिक आय रूपये 30 करोड़ थी तथा खर्च रूपये 150 करोड़ था। ऐसे हालात में लोन चुकाने का बोझ बड़ता गया और कम्पनी का वैल्यूशन 22 बिलियन डॉलर से घटाकर 5 बिलियन डॉलर रह गया। इस वर्ष कम्पनी को रूपये 4,589 करोड़ का घाटा हुआ। इसके बाद कम्पनी के अकाउंट में गड़बड़ी सामने आने लगी। लोन देने वालों ने कोर्ट केस दायर कर दिया। कर्मचारियों की लगातार छँटनी की गई, कई देशों में आपरेशन बंद कर दिया। प्रवर्तन निदेशालय ने कम्पनी में छापा मारकर कैश दर्ज किया। बायजू के रबीन्द्रन भारत से दुबई जा कर रहने लगे। रबीन्द्रन की स्वयं की वेल्थ 17,545 करोड़ रूपये से शून्य हो गई। कम्पनी पर देश एवं विदेश में अनेक कोर्ट में प्रकरण चल रहे हैं। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा - “जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।” आदमी का केवल अकेले उसका चेतन मन ही नहीं है बल्कि उसके पास नौ गुना अचेतन मन भी है। इसलिए हमारी अनुभूतियाँ, विचार एवं निर्णय अवचेतन मन से प्रभावित होते है।

मन को शांत रखने के लिए महर्षि पतंजलि ने ‘अभ्यासवैराग्याअभ्यांतन्निरोधः’ अभ्यास एवं वैराग्य के सतत अभ्यास से मन शांत रखा जा सकता है। इसलिए स्टार्टअप के संस्थापक को स्वयं एवं स्टार्टअप को अलग समझने के लिए अभ्यास करना चाहिए, जिससे उनकी आसक्ति कम हो जाती है और वैराग्य भाव बढ़ने से कम्पनी अधिक कुशलता से चला सकते है। वैराग्य का आय आलसी पन नहीं है बल्कि इसका मतलब है अनासक्ति।

स्टार्टअप से अनासक्ति का भाव अवचेतन एवं अचेतन तक ले जाने के लिए सतत अभ्यास की आवश्यकता है। इस बात की बुद्धि गत समझ काम नहीं आती है। हर स्टार्टअप शुरू करने वाला यह अच्छे से समझता है कि स्टार्टअप उससे है वह स्टार्टअप नहीं है, लेकिन जब कम्पनी में गड़बड़ होती है तब यह समझ ग़ायब हो जाती है। उसका दिमाग़ हमेशा सोचता रहता है, नींद नहीं आती, खाना नहीं पचता, ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है एवं हार्मोन की गड़बड़ी होने से धीरे-धीरे वह अवसाद में चला जाता है। अनासक्ति चेतन मन के तल पर तो समझ रहा है, लेकिन अवचेतन व अचेतन मन के तल पर यह समझ नहीं होतीं है। कोई विचार अचेतन का हिस्सा तभी बनता है जबकि वह निरंतर दुहराया गया हो। यदि आप किसी भीड़ वाली जगह में कितनी गहरी नींद में सो रहे हो और कोई आप का नाम पुकारे तो आप जाग जाते है, जबकि दूसरे गहरी नींद में सो रहे होते है। इसी तरह तुम्हारी मात्रभाषा है। इसलिए सैनिक एवं खिलाड़ी निरंतर अभ्यास करते है। जब हम तैरना, साइकिल चलाना या गाड़ी चलाना सीख लेते है तब फिर मशल मेमोरी से ही कर पाते है। कम्पनियाँ लगातार विज्ञापन दिखातीं है, क्योंकि विज्ञापन से वह प्रोडक्ट आपके अवचेतन का हिस्सा बन जाता है और जब उपभोक्ता ख़रीदारी करने जाता है तो वहीं प्रोडक्ट उठा कर लाता है, क्योंकि जब कोई याददाश्त बन जाती है तो उसे नष्ट नहीं किया जा सकता है। इसलिए योग परंपरा में अभ्यास पर इतना ज़ोर दिया गया है। मन को शांत रखने के लिए स्टार्टअप संस्थापक को स्वस्थ व सफल होने के लिए यह अभ्यास आवश्यक है। रवि को भास्कर जी की बातें सुन कर भर्तृहरि की कहानी याद हो आई कि किस तरह प्रांरभ में गुरु के सानिध्य में योग अभ्यास किया था। शीघ्र सफल होना चाहते है तो व्यक्ति को मनसा, वाचा व कर्मणा एक लाइन में फ़ोकस रखकर कार्य करने की कोशिश करना चाहिए, क्योंकि हमारी चेतना सीमित है। पूर्ण फ़ोकस चाहिए, जिन लोगों के पास प्लान बी होता है उनकी सफलता शीघ्र नहीं आतीं। मल्टीटास्किंग जैसी आदतों के साथ काम करना उत्पादक नहीं हो सकता, जो व्यक्ति जिज्ञासा या कौतुहल बस काम शुरू करते है उनके प्रयास मृदु होते है, जो व्यक्ति मुमुक्षु श्रेणी के है। प्रथम श्रेणी के व्यक्तियों से अच्छे होते है, लेकिन उनके प्रयास मध्यम श्रेणी के ही होते है। जो पूर्ण समर्पित शिष्य श्रेणी के व्यक्ति होते है वे तीव्र प्रयास करते है। श्रम की पराकाष्ठा तक मेहनत करते है। ये बहुत फ़ोकस होते है लोग ऐसे व्यक्तियों को पागल समझते है। ऐसे कई स्टार्टअप के संस्थापक है, जिन लोगों ने अच्छी टीम बनाई है वेनचर केप्टलिस्ट से इन्वेस्टमेंट उठाया हैं और पूर्ण समर्पण से काम कर रहे है।

अमन तथा रवि को दिशा मिल रही थी। दोनों ने भास्कर जी के अनुभव पर काम करना भी शुरू कर दिया था। इन्वेस्टर की टीम के सामने इन दोनों का प्रदर्शन बहुत अच्छा था। टीम के लोग इनके काम तथा जज्बे को देखकर बहुत आकर्षित हुए। अगली मीटिंग इन्वेस्टर के आफिस में करने के लिए दिन तथा समय फ़ोन पर बताने का कहा। बहुत दिन बाद किसी इन्वेस्टर की टीम से इतनी सकारात्मक मीटिंग हुई थी।

अभी तक इनवेस्टर के ऑफिस में होने वाली मीटिंग का दिन तथा समय निश्चित नहीं हुआ था, लेकिन दोनों के मन में शंका होने लगी। इसलिए रवि ने भास्कर जी से पूछा कि सफलता में बाधाएँ क्या है? भास्कर जी ने कहा कि यह बहुत रिलेवेंट सवाल है। उन्होंने बताया कि जब कोई इंटरप्रेन्योर स्टार्टअप शुरू करता है तब प्रारंभ में स्टार्टअप पूर्ण रूप से संस्थापक पर ही निर्भर करता है। लक्ष्य अभी बहुत दूर है और रास्ता लम्बा है। शुरू में संसाधन बहुत सीमित होते है और समस्याओं का अम्बार होता है। टीम नहीं होने से संस्थापक हमेशा अकेलापन महसूस करता है। इसलिए संस्थापक की स्थिति का प्रभाव संस्था पर बहुत अधिक होता है। महर्षि पतंजलि ने सफलता बाधाओं को चिन्हित किया है -

व्याधि- इंटरप्रेन्योर कई वार “वर्क लाईफ़ बैलेंस” न कर पाने से उनकी शरीर की ऊर्जा की प्राकृतिक लय बिगड़ जाती है तब वह बीमार हो जाता है। अपने मनोभावों एवं भावनाओं पर नियंत्रण न रख पाने के कारण इसका प्रभाव काम पर पड़ता है। “वर्क लाईफ़ बैलेंस” पर इन्फ़ोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने हाल ही में प्रति सप्ताह 70 घन्टे काम करने की बहस पर बोलते हुए कहा कि व “वर्क लाईफ़ बैलेंस” में विश्वास नहीं करते है और इस देश में हमें कड़ी मेहनत करने की ज़रूरत है। हार्ड वर्क का कोई विकल्प नहीं है। सोशल मीडिया पर यह बहस बहुत मज़ेदार हो गई है, जो लोग संस्थापक है वे मूर्ति का समर्थन कर रहे है और कर्मचारी पाँच दिन के सप्ताह की वकालत कर रहे है, लेकिन गौतम अड़ानी एवं आनंद महेंद्रा जैसे कुछ लोगों का कहना है कि “वर्क लाईफ़ बैलेंस” बहुत व्यक्तिपरक विषय है इसे किसी पर थोपा नहीं जाना चाहिए। यदि किसी को उनके किसी काम में आनंद आता है तो “वर्क लाईफ़ बैलेंस” है। संतुलन व्यक्तिगत प्राथमिकताओं पर निर्भर है। प्रश्न समय का नहीं है बल्कि व्यक्ति की उत्पादकता का है। जोनाथन फ़ील्ड ने उपने एक लिंकडिन पोस्ट में लिखा कि उनके एक स्पार्क पाँडकास्ट में स्नैप चैट के संस्थापक बेंजमिन से बात की, जो मानसिक स्वास्थ्य पर उद्यमिता के प्रभाव को उजागर करने के मिशन पर है। बेंजमिन ने स्टार्टअप के संस्थापकों का डिजीटल सर्वे कर निष्कर्ष निकाले है कि 72% संस्थापक मानसिक स्वास्थ्य से जूझते है, 54% अपने बिज़नेस को लेकर बहुत तनाव में रहते है, 37% चिन्ता से पीड़ित है, 36% वर्नआउट का अनुभव करते हैं तथा 10% को पैनिक अटैक आते है। इन सबमें सबसे भयानक बात यह है कि 81% संस्थापक अपने तनाव, भय और चुनौतियों को दूसरों से छिपाते हैं और आधे से अधिक सह संस्थापकों से भी छुपाते है। लगभग 77% संस्थापक पेशेवर मदद लेने से इनकार करते है। युवा संस्थापक प्रौढ़ संस्थापकों की तुलना में मदद लेने को कलंक मानते हैं तथा महिला संस्थापकों की तुलना में पुरुष संस्थापक दोगुनी मात्रा में कलंक मानते हैं। 50% से अधिक संस्थापक कम्पनी की स्थापना के साथ नींद खो देते हैं तथा फ़ंडिंग के अनुपात में यह बीमारी बड़ती जाती है। 47% से अधिक संस्थापक कम्पनी की स्थापना के साथ कम व्यायाम करते है एवं जीवन साथी के साथ 60% कम समय बिताते हैं। 58% बच्चों के साथ कम समय बिताते हैं। 73% कम समय दोस्तों एवं परिवार के सदस्यों के साथ बिताते हैं और अकेलेपन की भावना 10 में से 8 संस्थापकों में रहतीं है। मगर अच्छी बात यह है कि इतने सारे दुखों के बावजूद 93% संस्थापक फिर से यह सब शुरू करना चाहते है। इसलिए सफल होने के लिए संस्थापक का स्वस्थ रहना आवश्यक है।

आखिरकार इन्वेस्टर से इन्वेस्टमेंट की टर्मशीट मिल गई थी। इस पर वह दोनों लीगल एड़बाइजर के साथ दो दिन से बैठक कर रहे थे। स्टार्टअप फंडिंग के लिए निवेश टर्म शीट एक गैर-बाध्यकारी समझौता है, जो निवेश की मुख्य शर्तों को रेखांकित करता है। अंतिम कानूनी समझौते से पहले निवेश के लिए आधार तैयार करता है। टर्म शीट एक ऐसा दस्तावेज है, जो निवेश की शर्तों को बताता है, लेकिन यह कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होता है।

निवेश की शर्तें में निवेश की राशि, कंपनी का मूल्यांकन, शेयरहोल्डिंग, वोटिंग राइट्स और अन्य महत्वपूर्ण शर्तें शामिल होती हैं। फंडिंग का आधार पर यह स्टार्टअप और निवेशकों के बीच निवेश के लिए एक शुरुआती बिंदु के रूप में काम करता है। अंतिम समझौते का आधार पर यदि निवेश आगे बढ़ता है, तो टर्म शीट अंतिम कानूनी दस्तावेजों के लिए आधार के रूप में कार्य करती है। टर्म शीट में शामिल होता है निवेश की राशि, निवेशक द्वारा कंपनी में कितना निवेश किया जाएगा। कंपनी का मूल्यांकन और निवेश से पहले कंपनी का मूल्य कितना है। शेयर होल्डिंग, निवेशक को कंपनी में कितना हिस्सा मिलेगा। वोटिंग राइट्स, निवेशक को कंपनी के निर्णयों में कितना वोटिंग अधिकार मिलेगा। प्राइसिंग यानी शेयर की कीमत क्या होगी। निवेश की शर्तें, निवेशक को निवेश से पहले क्या शर्तें पूरी करनी होंगी। निवेश की अवधि यानी निवेश कितने समय के लिए होगा। निवेश की वापसी यानी निवेशक को अपना निवेश कैसे और कब वापस मिलेगा।

टर्म शीट का महत्व टर्म शीट निवेश की शर्तों को स्पष्ट करती है, जिससे स्टार्टअप और निवेशक के बीच गलतफहमी से बचा जा सकता है। समय की बचत यह अंतिम कानूनी समझौते से पहले बातचीत को आसान बनाता है, जिससे समय और पैसे की बचत होती है। इस कारण दोनों हर बात स्पष्ट रूप से समझ कर अंतिम रूप देना चाहते थे। इनको पैसों की बहुत जरुरत थी, इसलिए ये लोग इन्वेस्टर के साथ बहुत निगोशिएट नहीं कर सकते थे। साथ ही वह ऐसी कोई गलती भी नहीं करना चाहते है जो आगे परेशानी का कारण बने।

इन दोनों ने भास्कर जी से भी यह डिस्कस किया कि स्टार्टअप की विफलता के कारण क्या होते है? भास्कर जी ने बहुत सारे उदाहरण देते हुए समझाया कि हर स्टार्टअप इंटरप्रेन्योर का सपना होता है ‘यूनिकॉर्न स्टार्टअप’ कम्पनी बनाना, लेकिन मीडिया रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में दस में से नौ स्टार्टअप तीन साल के अंदर विफल हो जाते है। विफलता की हर इंटरप्रेन्योर की एक कहानी होती है, जिनसे पता चलता है कि विफलता किसी एक कारण से नहीं होती वरना यह रिपल इफ़ेक्ट होता है, जब कोई गड़बड़ी किसी कम्पनी की किसी एक प्रणाली में शुरू होती है और फिर बाहर की ओर फैलती है, जिससे कम्पनी के बड़े हिस्से पर असर पड़ता है और कई बार परिस्थितियाँ कॅन्ट्रोल के बाहर चली जाती है जिससे कम्पनी में अस्तित्व का संकट आ जाता है। इससे यह स्पष्ट है कि स्टार्टअप की विफलता कई कारणों का संयोजन होता है। जैसे आपका बिज़नेस माडल टिकाऊ या लाभदायक नहीं है तो आप जल्दी ही नक़दी खो देंगे - पैसे के बिना आगे नहीं बढ़ सकते- विकास के संकेत नहीं दिखने पर फ़ंडिंग प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है और इस तरह स्टार्टअप में रिपल इफ़ेक्ट का दुश्चक्र प्रारंभ होता है।

फॉर्च्यून पत्रिका के स्टार्टअप की असफलता के एक सर्वेक्षण के अनुसार कोई ख़रीदना नहीं चाहता 42%, कैश की कमी 29%, टीम में तालमेल की कमी 23%, प्रतिस्पर्धा में न टिक पाने से 19%, क़ीमत या लागत से जुड़े मसले 18%, गुणवत्ता की कमी 17%, बिज़नेस माडल की कमी 17%, कमजोर मार्केटिंग 14%, ग्राहकों को नज़रअंदाज़ करना 14%, समयबद्धता की कमी 13% कारणों से स्टार्टअप विगत वर्षों में बंद हो गये।

स्त्यान - धैर्य की कमी संकेत है कि इंटरप्रेन्योर की ऊर्जा बहुत निम्न तल पर है। महर्षि पतंजलि के समय “प्राण ऊर्जा” के सिद्धांत का जन्म हुआ। प्राण ऊर्जा या देह ऊर्जा मानव शरीर में निरंतर घूमती रहती है। शरीर की ऊर्जा में गड़बड़ी होने पर धैर्य की कमी हो जाती है। इंटरप्रेन्योर बैचेन रहता है। इसलिए इंटरप्रेन्योर की ऊर्जा हमेशा उच्च रहनी चाहिए तभी वह संतुलित सोच विचार कर निर्णय ले सकता है, टीम को प्रोत्साहित कर सकता है तथा दैनिक समस्याओं का हल निकाल सकता है। निर्जीवता या निम्न ऊर्जा के कारण इंटरप्रेन्योर हमेशा केवल बड़ी बड़ी बातें भर करता है और कुछ करके नहीं दिखा पाता। निर्धारित लक्ष्यों से पिछड़ जाने के कारण नकारात्मक ऊर्जा उत्सर्जित करता है। ऐसे व्यक्ति ध्यान कर अपनी ऊर्जा को सकारात्मक ऊर्जा में बदल सकते है।

संशय - अनिर्णय की स्थिति में इंटरप्रेन्योर स्टार्टअप के विरूद्ध संदिग्ध हो जाता है। खुद के भरोसे एवं आस्था पर शंका होने पर सफलता पर प्रभाव पड़ता है। श्री कृष्ण ने गीता में कहा है- ‘अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:||’ किन्तु जो अज्ञानी तथा श्रद्धाविहीन व्यक्ति शास्त्रों में संदेह करते हैं, वे भगवद्भावनामृत नहीं प्राप्त करते, अपितु नीचे गिर जाते है। संशयात्मा के लिए न तो इस लोक में, न ही परलोक में कोई सुख है।  ऐसे इंटरप्रेन्योर निश्चिय युक्त नहीं होते है। यह करना है या नहीं निर्णय न कर पाने के कारण विश्लेषण पक्षाघात “एनालिसिस पैरालिसिस” का शिकार हो जाते है। समय पर निर्णय न होने के कारण यह लाख से चूक जाते है। इंटरप्रेन्योर को स्टार्टअप शुरू कर लेने के बाद संशय को सहयोग नहीं करना चाहिए। जब इंटरप्रेन्योर संशय को सहयोग करता है तब वह अपनी चेतना की ऊर्जा देने लगता है तो अनिश्चितता बहुत बिगड़ती जाती है। यदि वह निर्णय नहीं कर पा रहा है तो वह काम कैसे कर सकता है। मनोवैज्ञानिक बैरी श्वार्टज़ ने अपनी किताब ‘द पैराडॉक्स ऑफ़ चॉइस: व्हाई मोरे इस लेस्स’ में लिखा है कि जब लोगों को अधिक विकल्प दिए जाने पर कभी-कभी वे कुछ भी नहीं चुना पाते है। इस अवस्था से बाहर आने के लिए बड़े लक्ष्यों को छोटे छोटे लक्ष्यों में विभाजित करना, कामों की प्राथमिकता सूची बनाना, टीम के सदस्यों की राय लेना चाहिए। अपनी सहज प्रतिक्रिया गट फ़ीलिंग को अति महत्व न देना तथा यह मान कर चलना कि कोई सर्वोत्तम निर्णय नहीं होता, केवल सीखने के अवसर होते है। संशय कुत्ते की भाँति पीछे आता ही है यदि हम ध्यान न दें तो समाप्त हो जाता है।

प्रमाद - असावधानी की अवस्था नींद में चलने जैसी होती है। इंटरप्रेन्योर कई बार अपने विचार से सम्मोहन ग्रस्त हो जाने पर सचेत नहीं रह पाता है। जैसे आज कल स्टार्टअप का टीवी, रेडियो, अख़बार, फ़िल्म व सोशल मीडिया पर इतना रोमांटिक तरीक़े से प्रचारित किया जा रहा है कि हर कोई स्टार्टअप शुरू कर इंटरप्रेन्योर बनना चाहता है, ताकि वह अपनी प्रोफ़ाइल में सह संस्थापक या सीईओ लिख सके। यदि तुम इस सबसे सम्मोहित हो कर इंटरप्रेन्योर बन रहे हो तो हो सकता है कि तुम अपनी पढ़ाई या कॅरियर चौपट कर सकते हो। इसलिए आजकल हर 10 में से 9 स्टार्टअप तीन साल के अंदर बंद हो जाते है। यदि सम्मोहनवश स्टार्टअप शुरू कर दिया तो कुछ दिन बाद दिन प्रतिदिन की चुनौतियों के कारण काम करने में मन नहीं लगता है। कुछ भी करने का तुक समझ में नहीं आता है। यदि तुम लगे भी रहते हो तो कुछ प्राप्ति नहीं होती है। हृदय में आलस्य बैठ जाता है। आलस्य का अर्थ है कि तुमने जीवन के प्रति उत्साह खो दिया है। इंटरप्रेन्योर की उत्सुकता, ऊर्जा व उत्साह बच्चों जैसी होना चाहिए, लेकिन इंटरप्रेन्योर के मन में बहुत सारे नकार, असफलताओं और हताशाओं की परतें जम जाने से प्रमाद बढ़ जाता है, जो असफलता को लाता है।

अविरति - विषयासक्ति इंटरप्रेन्योर में एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में सामने आती है। इंटरप्रेन्योर कई दफा कई कारणों से फ़र्ज़ी अकाउंट बनाते है। फ़र्ज़ी ग्रोथ दिखाते हैं। अपनी जीवनशैली बहुत लक्ज़री एवं आलीशान बनाने के लिए अनाप-शनाप खर्च करते है। फण्ड की हेराफेरी करते है। सहकर्मियों से ग़ैरक़ानूनी सम्बन्ध बनाते है और न जाने कितनी तरह की व्यभिचार की कहानियाँ आये दिन मीडिया में रहतीं है। गूगल को-फाउंडर की पत्नी निकोल शनाहन की कहानी, जिसके मस्क से अफेयर की ख़बरें, गंभीर व्यक्तिगत दुर्व्यवहार के आरोपों में घिरने के बाद सीईओ के पद से इस्तीफा देने वाले फ्लिपकार्ट के सीईओ बिन्नी बंसल का विवाद, अशनीर ग्रोवर भारतपे के को-फाउंडर के बीच का विवाद, हाउसिंग डॉट कॉम के सह-संस्थापक और सीईओ राहुल यादव को बोर्ड आफ डायरेक्टर द्वारा निकाले जाने का मामला, चर्चित मामले है। वीवर्क का चाहे जो भी हस्र हुआ हो, लेकिन कंपनी के पूर्व सीईओ और सह-संस्थापक एडम न्यूमैन की सम्पत्ति बढ़ती रही। उबर में यौन उत्पीड़न समेत अन्य विवादों के जोर पकड़ने के बाद सह संस्थापक कलानिक को जून, 2017 में कंपनी के मुख्य कार्यकारी का पद छोड़ना पड़ा था। एडटेक प्लेटफॉर्म बायजू की वर्थ जीरो होने की बात कंपनी के फाउंडर बायजू रबींद्रन ने मानने की कहानी के बाद स्टार्टअप जगत में कारपोरेट गवर्ननेन्स से सरकारें व इन्वेस्टर भी परेशान हैं। अविरति के कारण स्टार्टअप संस्थापक स्वयं का, कम्पनी के कर्मचारियों एवं कम्पनी का भविष्य संकट में डाल देते हैं।

भ्रांतिदर्शन -मिथ्या ज्ञान के कारण कंपनी के फाउंडर अपने बिज़नेस आइडिया, रणनीति एवं बाज़ार के बारे में भ्रम पाल लेते है। भ्रम का अर्थ है खुलीं आँख का सपना। कंपनी के फाउंडर के इन भ्रमों के कारण अनेकों स्टार्टअप को अपूरणीय क्षति हुई है। इसलिए कंपनी के फाउंडर को भ्रांतिदर्शन से बचने की कोशिश करना चाहिए। विलवर्ग लेब पर फ़िल सेंटोरो ने 150 स्टार्टअप संस्थापकों से सर्वे के अनुसार निष्कर्ष निकाला कि 64% टेक संस्थापकों ने बताया कि उनकी कंपनी को संभावित व्यावसायिक विफलता का सामना करना पड़ा था। औसतन, टेक कंपनियों को व्यवसाय में लगभग 17 महीने बाद अपनी संभावित विफलता का सामना करना पड़ा। संभावित व्यावसायिक विफलताओं का सामना करने वाले 75% संस्थापकों ने स्वीकार किया कि उनकी कंपनी व्यवसाय में बने रहने के लिए पर्याप्त रूप से तैयार नहीं थी।

अपलब्धभूमितत्व - लक्ष्य से भटक जाना स्टार्टअप के संस्थापक के स्वभाव में आ जाता है। प्रतिदिन उसे नये नये आइडिया आते रहते हैं तथा बाज़ार में काम करने की सम्भावनाओं के कारण वह अपने लक्ष्य से भटक जाता है। टीम अपने लीडर का अनुसरण करती है व लक्ष्य से भटके लीडर की टीम भी भटक जाती हैं। इसलिए स्टार्टअप में हमेशा प्रोडक्ट मार्केट फ़िट की अवधारणा पर ज़ोर देते है।

अनवस्थिततत्वानि - प्रकृति को बनाए रखने की अक्षमता की स्थिति तब आती है जब स्टार्टअप संस्थापक अपनी इंटरप्रेन्योर की भावना को बचाय रखने में सक्षम नहीं रह जाता है। इंटरप्रेन्योर की भावना नई सोच, नई समस्या का नया समाधान ढूँढने की होती है, जो दूसरे के लिए समस्या होती है। वह इंटरप्रेन्योर के लिए बिज़नेस ओप्पोरचोनिटी होतीं है, लेकिन जब वह अनवस्थिततत्वानि की अवस्था में आ जाता है तब वह यह मनोदशा बनाएँ रखने में विफल होने पर अपने स्टार्टअप की सफलता से दूर हो जाता है।

चित्तविक्षेप- चेतना में भटकाव उत्पन्न करने में रोग, उदासीनता, अनिर्णय, उपेक्षा, आलस्य, अपने स्वार्थ पर नियंत्रण न रख पाना, भ्रम में देखना व प्राप्त उपलब्धियों को सहेज न पाने की अक्षमता व प्राप्त प्रगति को बनाए रखने की विफलता के कारण चित्त में विक्षोभ बड़ जाते है, जो सफलता को पाने की मुख्य रूकावटें हो जाती है। इसलिए स्टार्टअप के संस्थापक को इनकी स्थिति को समझ कर निरंतर नियंत्रण की आवश्यकता होती है। इस डिस्कशन​को सुनकर रवि को ऐसा लगा कि वह पुनः भर्तृहरि की कहानी सुन रहा है। वह इन बातों से बहुत प्रभावित हुआ।

रवि हमेशा से खुद को दूसरों के साथ बातचीत करने में असहज महसूस करता रहा है। उसका उसके पिता से व्यवहार उतना अच्छा नहीं था, फिर स्मिता और अब अमन से कई अवसरों पर मन मुटाव हो जाता है। यह सवाल कई बार पूछने की हिम्मत की लईकिन नहीं पूछ पाया। उसने भास्कर जी से पूछा कि आपसी संव्यवहार के आधार क्या होने चाहिए? भास्कर जी ने हमेशा की तरह बिना प्रतिप्रश्न किया जबाब देना शुरू किया कि सोशल मीडिया, मोबाइल फ़ोन व इन्सटेंट मेसेज प्लेटफ़ॉर्म की वजह से आपसी संवाद बहुत तीव्र गति से करना सम्भव हो गया है, लेकिन टेक्नोलॉजी के जहॉ फ़ायदे हैं बहीं नुक़सान भी है। इस समय लोगों में धैर्य की कमी हो गई है। लोग जजमेन्टल हो गये है। बिना सोचे समझे सोशल मीडिया पर मेसेज फ़ॉरवर्ड करते है और लाईक डिसलाईक करते है। स्टार्टअप की दुनिया में प्रतिस्पर्धाओं का दौर चलता रहता है। मार्केट पर क़ब्ज़ा करने के लिए बहुत अफ़वाहों को फैलाया जा रहा है। इंटरप्रेन्योर को निरंतर अपनी टीम बनाने की ज़रूरत होती है। जैसे जैसे टीम बड़ती है वैसे वैसे आपसी विवाद भी बड़ते है। अधिकांश स्टार्टअप को फ़ाउन्डर के साथ शुरू होते है ऐसे में जैसे जैसे कम्पनी में फ़ंडिंग आतीं है, वैसे वैसे को फ़ाउन्डर के मध्य पद नाम, शेयर होल्डिंग्स, पावर व पर्कस को लेकर विवाद होने लगते है और जब कम्पनी में पैसे का नुक़सान होता है तब एक दूसरे पर दोषारोपण करने का सिलसिला शुरू हो जाता है।

यह स्वस्थ संवाद के लिए बहुत घातक हो सकता है। बिज़नेस के लिए को फ़ाउन्डर के अलावा पार्टनरशिप भी अलग-अलग लोगों के साथ की जाती है। ऐसे में पार्टनर के साथ बातचीत बहुत महत्वपूर्ण होती है। स्टार्टअप की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि हम स्पष्ट बातचीत करें, रोल्स व रिस्पांसबिलिटीस का स्पष्ट विभाजन हों तथा पार्टनरशिप डीड्स बहुत डीटेल व विधि अनुसार बनाना चाहिए। इस सब पूर्व सावधानियों के बावजूद हम हमेशा इतने सौभाग्यशाली नहीं होते है कि सब कुछ निर्वाध गति से चले। स्टार्टअप की सफलता में सह संस्थापकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। द फाउंडर्स डायलेमा संस्थापक की दुविधाएँ: स्टार्टअप को डुबो सकने वाले नुकसानों का पूर्वानुमान लगाना और उनसे बचना में किताब के लेखक नोम वासरमैन ने लिखा है कि अक्सर एक नया व्यवसाय शुरू करने के उत्साह में उद्यमियों के सामने आने वाले सबसे महत्वपूर्ण निर्णयों में से एक को कम महत्व दिया जाता है। क्या उन्हें अकेले आगे बढ़ना चाहिए या व्यवसाय को आगे बढ़ाने में मदद करने के लिए सह-संस्थापकों, कर्मचारियों और निवेशकों को लाना चाहिए? सिर्फ़ वित्तीय पुरस्कारों से ज़्यादा कुछ दांव पर लगा होता है। दोस्ती और रिश्ते प्रभावित हो सकते हैं। एक आशाजनक उद्यम की शुरुआत में गलत निर्णय इसके अंतिम विनाश की नींव रखते हैं।

द फाउंडर्स डिलेमास पहली किताब है जो उद्यमियों द्वारा शुरुआती निर्णयों की जांच करती है जो एक स्टार्टअप और उसकी टीम को बना या बिगाड़ सकते हैं।

एक दशक के शोध के आधार पर, नोम वासरमैन ने संस्थापकों के सामने आने वाली आम गलतियों और उनसे बचने के तरीकों के बारे में बताया। वह इस बात पर विचार करते हैं कि दोस्तों या रिश्तेदारों के साथ मिलकर सह-संस्थापक बनना एक अच्छा विचार है या नहीं, संस्थापक टीम के भीतर इक्विटी को कैसे और कब विभाजित किया जाए और कैसे पहचाना जाए कि एक सफल संस्थापक-सीईओ को कब बाहर निकल जाना चाहिए या निकाल दिया जाना चाहिए। वासरमैन बताते हैं कि कैसे विनाशकारी गलतियों का पूर्वानुमान लगाया जाए, उनसे बचा जाए या उबरा जाए जो संस्थापक टीम को विभाजित कर सकती हैं, संस्थापकों से नियंत्रण छीन सकती हैं और संस्थापकों को उनकी कड़ी मेहनत और अभिनव विचारों के लिए वित्तीय भुगतान के बिना छोड़ सकती हैं। वह स्टार्टअप को नियंत्रित करने और इसे विकसित करने के लिए सर्वोत्तम संसाधनों को आकर्षित करने के बीच प्रत्येक चरण में सावधानीपूर्वक संतुलन बनाने की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हैं, और प्रदर्शित करते हैं कि क्यों आसान अल्पकालिक विकल्प अक्सर दीर्घकालिक में सबसे खतरनाक होते हैं।

संस्थापक की दुविधाएँ ट्विटर के इवान विलियम्स और पेंडोरा के टिम वेस्टरग्रेन जैसे संस्थापकों की अंदरूनी कहानियों पर आधारित हैं, जबकि लगभग दस हज़ार संस्थापकों पर मात्रात्मक डेटा का विश्लेषण करती हैं। लोगों की समस्याएँ स्टार्टअप में विफलता का प्रमुख कारण हैं। आपसी व्यवहार बिज़नेस को सफल एवं असफल बनाने की ताक़त रखता है। ऐसा नहीं है कि यह समस्या आज की है। यह समस्या मानव समाज में शुरू से विद्यमान रहीं है। मेरी समझ से महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्र में इस बात का समाधान प्रस्तुत किया कि हमें किस अवस्था के व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य का मनुष्य से व्यवहार मैकेनिकल न हो कर  बायोलॉजीकल होता है जो देश, काल व परिस्थिति में निरंतर बदलता रहता है। इसलिए महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र के 33 वें श्लोक में लिखा- “ मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।।”

महर्षि पतंजलि ने लोगों को चार वर्गों में विभाजित किया है तथा उनके साथ कैसा व्यवहार करना है- आनंदित व्यक्ति के प्रति मैत्री, दुखी व्यक्ति के प्रति करूणा, पुण्यवान के प्रति मुदिता तथा पापी के प्रति उपेक्षा का भाव रखना चाहिए। ओशो रजनीश योग सूत्र की व्याख्या में इस श्लोक की व्याख्या करते हुए कहते है कि पहले हमें अपनी स्वाभाविक मनोवृत्ति के समझना होगा। जब तुम किसी को प्रसन्न देखते हो तब तुम ईर्ष्या अनुभव करते हो और दुख का अनुभव करते हो। यह स्वाभाविक है और महर्षि पतंजलि कहते है कि प्रसन्न के प्रति मैत्री भाव रखो। यह सरल नहीं है। हो सकता है कि यदि कोई हमारे क्षेत्र का स्टार्टअप सफलता से मुदित आनंदित हो और हम प्रसन्नता दिखाएं तो यह एक ऊपरी बात होगी। यह एक दिखावा या मुखौटा ही होता है। हम अपने अन्दर तो ईष्या ही अनुभव करते है क्योंकि वह हमारा प्रतिद्वंद्वी है। हम बाज़ार में उससे प्रतिस्पर्धा कर रहे है। यह भी हो सकता है कि उसके पास हम से ज़्यादा संसाधन हो, ज़्यादा बाज़ार का हिस्सा हो, वह ज़्यादा सस्ता सप्लाई कर रहे हो और वह हमारे बिज़नेस को भविष्य में संकट में डाल सकता हो तो ऐसी स्थिति में हमसे उस के प्रति ईर्ष्या का व्यवहार ही होगा, लेकिन यहाँ हमें समझना होगा कि प्रसन्नता धरती पर असीमित मात्रा में है तो यह हमारा चुनाव हैं। ओशो कहते है कि यदि तुम दूसरे की प्रसन्नता में प्रसन्नता अनुभव करो तो तुम स्वयं की प्रसन्नता के लिए एक द्वार खोलते हो।

दूसरी तरफ महर्षि पतंजलि कहते है कि दुखी के प्रति करूणा का भाव रखना। यहाँ समझने की बात है सहानुभूति करूणा नहीं है। जब कोई स्टार्टअप असफल हो रहा है तब आमतौर पर व्यक्ति सहानुभूति प्रकट करते है, लेकिन अगर हम गहरे में देखे तो सहानुभूति प्रकट करते समय हम अंदर प्रसन्नता का अनुभव करते है। जब हम करूणावश उसकी सहायता करते है तब इस अवस्था में हम न प्रसन्नता या दुख का अनुभव नहीं करते है तो करुणावान होना बिल्कुल अलग बात है तब सामने बाला भी हर्ट् फ़ील नहीं करता है।

तीसरी बात है पुणयवान के प्रति मुदिता का व्यवहार करना। जब कोई स्टार्टअप सफल होता है तब हम तुरंत उसकी आलोचना करने लगते है। बुराइयों को खोजने लगते है और किसी न किसी तरह नीचे लाना चाहते है, क्योंकि हम किसी अन्य को पुण्यात्मा नहीं मान सकते। इससे हमारे अहंकार को चोट लगती है। यदि हम यह मानने को तैयार नहीं है कि कोई भला है, नेक है, हमसे अच्छी तरह बिज़नेस कर रहा है तो हम प्रसन्नता पूर्वक कैसे व्यवहार कर सकते है। यदि किसी स्टार्टअप की सोशल मीडिया पर निंदा चल रही है तो हम सबूत नहीं माँगते हैं और यह मान कर ही चलते हैं कि वे बुरे है। सकारात्मक के लिए सबूत की ज़रूरत होती है, लेकिन नकारात्मक के लिए किसी सबूत की ज़रूरत नहीं होती। यह व्यवहार हम नेट पर सोशल मीडिया पर रोज़ देखते हैं, क्योंकि इससे हमारा अहंकार पोषित होता है। महर्षि पतंजलि कहते है कि पुण्यवान के प्रति मुदिता के भाव से व्यवहार करना अभी हमारे लिए स्वभाविक नहीं है, लेकिन यदि अभ्यास करें तो अपना ही भला करेंगे। सफल लोगों से हमारी नेटवर्किंग अच्छी हो सकती है जिससे हमें हमारे बिज़नेस की सफलता में मदद मिलेगी।

चौथी बात महर्षि पतंजलि कहते है कि बुरे के प्रति उपेक्षा का भाव रखना। निंदा नहीं करना, बुराई नहीं फैलाना। यदि हम बुरे की निंदा करते है तो धीरे-धीरे हम उसी तल पर पहुँच जाते है। हम ग़लत के साथ आसानी से अशक्त हो जाते है। मनोवैज्ञानिक नियम यह है कि हम जिस किसी चीज़ पर ज़्यादा ध्यान देते है तो हम उससे सम्मोहित हो जाते है। यह एक आकर्षण बन जाता है। महर्षि पतंजलि आंतरिक मन के तंत्र को जान कर ही कहते है कि पापी के प्रति उपेक्षा का भाव रखना। बाहर से तुम क्या हो इसका ज़्यादा मूल्य नहीं है सवाल है कि हमारे आंतरिक सम्मोहन कैसे है, वहीं हमारे जीवन के क्रम को निर्धारित करता है। बुराई के प्रति तटस्थ रहना, उपेक्षा का अर्थ भावशून्यता नहीं है, इसका इतना ही अर्थ है कि तुम मूल्यांकन न करो। ओशो कहते है कि जीवन इतना संश्लिष्ट है कि बुराई अच्छाई बन जाती है, यह परिवर्तनशील है। यदि सोशल मीडिया पर किसी स्टार्टअप की गड़बड़ी की कोई बहस चल रही है तो हमें अनावश्यक रूप से उसमें भाग नहीं लेना चाहिए। महर्षि पतंजलि की व्यवहार की यह सलाह मानने से बिज़नेस की सफलता के साथ साथ हमारे निजी सम्बन्ध भी मज़बूत होकर सफलता में योगदान देंगे। रवि को अहसास हुआ की वह अपनी सम्बन्धों में क्या गलतियां कर रहा था, जिन्हें उसे सुधारने की जरुरत है। रवि व अमन को अब यह निर्णय करना था कि अपने स्टार्टअप की रणनीति में क्या बदलाव लाये ताकि काम सही दिशा में चल सके। इंदौर में दोनों ने अपनी नेटवर्किंग को बढ़ाना शुरू किया। इंदौर में स्टार्टअप सपोर्ट के लिए अनेक इन्कुवेशन सेंटर यूनिवर्सिटी में तथा कॉलेज में बनाना शुरू हो गए थे। एक प्रोफेसर उनके कॉलेज के इन्कुवेशन सेंटर में मेन्टोरिंग के रूप में स्टार्टअप्स को सपोर्ट करते थे। उन्होंने रवि व अमन को उनका ग्रुप ज्वाइन करने की सलाह दी। तो दोनों ने उन के ग्रुप को ज्वाइन कर लिया। ग्रुप की हर रविवार को मीटिंग होती। जिस में शहर के दस बारह लड़के लड़किया आते। जो अलग - अलग तरह के या तो अपने स्टार्टअप्स चला रहे थे या चलना छह रहे थे। इन मीटिंग्स में तरह - तरह के विषय विशेषज्ञ लोग भी आते।  एक मीटिंग में भास्कर जी आये। ये अपना एग्रीकल्चर सेक्टर का स्टार्टअप पिछले पांच साल से रन कर रहे है। उन्होंने उस दिन अपने लेक्चर में बताया कि बहुत कम व्यक्ति होते है जिनमें किसी काम में सफल होने की जन्म जात प्रतिभा होती है। लेकिन अधिकांश लोगों को यह खोज करना होती है और एक ऐसा ही प्रश्न आजकल बहुत पूछा जाता है कि स्टार्टअप कौन शुरू कर सकता है? कोई कैसे जान सकता है कि वह जीवन में कौनसे क्षेत्र में सफल होगा? यह बहुत गहन आत्मलोकन का विषय है।

इन्वेस्टर के ऑफिस में बहुत सकारात्मक बैठक हुई बहुत दिन बाद दोनों बहुत खुश थे। लेकिन रवि ने फिर पैसों की बात उठा दी ओर वे लोग पुनः बहुत दुःखी हो गये वे बाते करते करते भास्कर जी मिलाने ही जा रहे थे। भास्कर जी से बातो - बातो में अमन ने पूछा कि दुख के कारण क्या है ? भास्कर जी आज बहुत फिलोस्पर के मूड में थे उन्होंने जबाब दिया कि स्टार्टअप की यात्रा रहस्यमय यात्रा होती है। इस यात्रा में सफलता अनायास नहीं मिलती बल्कि अर्जित करना होतीं है। इंटरप्रेन्योर को मेहनत करनी पड़ती है तथा बहुत सारे लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है। जिससे प्रतिदिन तरह-तरह के विवाद होते रहते है। यदि सह संस्थापकों में क्लेश हैं तो सब दुःखी रहते हैं। दुःख एक नकारात्मक भाव की अवस्था है। दुःख अंधकार की तरह है यह कोई अस्तित्वगत बात नहीं है। और यदि सह संस्थापकों के मध्य दुःखों से लड़ना शुरू कर देते है तो और दुःख निर्मित कर लेते है। तो यहाँ बात है हमारे चयन की हम नकारात्मक प्रतिक्रिया चुनते हैं या सकारात्मक। जो इंटरप्रेन्योर नकारात्मक प्रतिक्रिया चुनते हैं वे आपस में लड़ने लगते है एक दूसरे पर दोषारोपण करने लगते है तो वहीं दूसरी ओर सकारात्मक इंटरप्रेन्योर दुःख के कारणों की खोज कर उन कारणों को दूर करने की कोशिश करता है।

स्टार्टअप शुरू करना इंटरप्रेन्योर के लिए बड़े साहस का काम होता है। अधिकांश लोग स्टार्टअप शुरू करने के मार्ग पर आते ही नहीं है, केवल कुछ लोग शुरू करने की सोचते हैं और सोचते ही रहते है अवसर खो देते है, केवल विरले लोग शुरू कर पाते है और उन विरले लोगों में केवल चंद्र लोग सफल हो पाते है। तो अधिकांश लोगों को जीवन जो अवसर देता है वे उससे चूक जाते है। इंटरप्रेन्योर का जीवन सर्वाधिक असुरक्षित जीवन है इसमें सुरक्षा का कोई बीमा नहीं होता। ऐसे में अधिकांश लोग जीवन में सुरक्षा चुनने के कारण अपना कारोबार शुरू नहीं कर पाते। लेकिन वे जो भी काम चुनते हैं वहाँ भी दुखी ही रहते हैं और हमेशा अपनी परिस्थितियों के लिए दूसरों को दोष देते रहते हैं। जीवन का एक सिद्धांत है कि जो जितना जोखिम उठायेंगे उनके सफल होने के अवसर उतने अधिक होते है। उनकी अपनी कहानियाँ होतीं है वे अपने लिए एक संतुष्टि का जीवन जीने के साथ अन्य लोगों के लिए अवसर आधार तैयार करते है।

हर महिला पुरुष के गहरे तलों पर ख़तरों के बीच जीने की अंतःप्रेरणा होती है। इसलिए प्रेरणा के वशीभूत हो कर लोग दूसरे के व्यवसाय में शेयर ख़रीदते हैं और जोखिम उठाते है। आज भारत में 11 करोड़ से ज़्यादा लोग शेयर बाज़ार में निवेश करते है। इनमें से अधिकांश लोग बार-बार नुक़सान उठाने के बावजूद बार बार निवेश करते है। इसलिए महर्षि पतंजलि कहते है किविवेक पूर्ण व्यक्ति जानता है कि हर चीज दुःख की ओर ले जाती है।बुद्ध द्वारा प्रतिपादित चार आर्य सत्यों में पहल सत्य है कि जीवन दुख है। इसलिए स्टार्टअप के संस्थापक के जीवन का एक मात्र आधार है आशा। इसलिए इंटरप्रेन्योर सफल होने की आशा के सहारे सारे दुख सह जाता है। चीन के इंटरप्रेन्योर जैक मॉ कहते है किकभी हार मत मानो, आज कठिन है, कल और भी कठिन होगा लेकिन परसों सुन्दर होगा।यथार्थ हमेशा कठोर होता है लेकिन भविष्य हमेशा सुन्दर होता है। दुख का कारण जानने के लिए उसका सामना करना होता है। यदि हम उससे बच कर निकल भागते हो तो हम कभी भी उन कारणों को नहीं जान सकते और कभी-कभी दुख की कल्पना उसका सामना करने से भयंकर होती है। आशा का तंत्र एक नशे की तरह काम करता है। इंटरप्रेन्योर की यात्रा में दुख एक राजमार्ग जैसा है, इंटरप्रेन्योर कहीं से भी यात्रा शुरू करें दुख ही जातें है। इंटरप्रेन्योर इससे बच नहीं सकता। तो यदि इंटरप्रेन्योर दुख का साक्षात्कार करता है तो वह पाता है कि वास्तव में वह इतना बड़ा भी नहीं है जितने की कल्पना की गई थी।

समाज में दो तरह के लोग है एक वे जो समय ख़रीदते हैं और दूसरे वे जो समय बेचते हैं। तो इंटरप्रेन्योर समय ख़रीदने बाला है और नौकरी करने बाला समय बेचने बाला। तो क्या समय बेचने बाला दुखी नहीं है, बल्कि वह ज़्यादा दुखी है। तो इंटरप्रेन्योर को बदलना होता है। इस बात की परीक्षा तब होती है जब कठिन समय होता है, क्योंकि अच्छे समय में सभी बहादुर होते है। कठिन समय में ही सह संस्थापकों के बीच रिश्ते, भूमिकाएँ और पैसे से जुड़े संघर्ष, निवेशकों का रणनीति में हस्तक्षेप आदि की परीक्षा होती है। इन संघर्षों पर की बिज़नेस की सफलता या असफलता निर्भर करती है। यह बिज़नेस के जीवन चक्र को प्रभावित करता है। रिश्ते नष्ट हो जाते है, आर्थिक हानि होती है। हालाँकि मीडिया में स्टार्टअप के इस श्याह पक्ष को  कम करके दिखाया जाता है। केवल उजले पक्ष को उत्सव मनाया जाता है। तो इंटरप्रेन्योर का बिज़नेस रोमांटिक लव स्टोरी जैसा होकर शादीशुदा पति पत्नी के जीवन से भी जटिल होता है क्योंकि इंटरप्रेन्योर अपने जीवन साथी से ज़्यादा अपना समय स्टार्टअप में बिताते हैं। सबसे अच्छी टीम तब बनतीं है जब लोग एक दूसरे के कौशल कमियों के पूरक होते है। उनमें मत भेद हो सकते है लेकिन मन भेद नहीं होते है। यह बातें बहुत समय तक चलती लेकीन भास्कर जी को एक और मीटिंग में जाना था थो यह बातचीत यहीं समाप्त हो गई।

भारत में सन् 2024 में बंद होने वाले 12 स्टार्टअप्स हैं, जिनमें एग्रीटेक स्टार्टअप ग्रीनिक्क बढ़ते घाटे के आगे झुक गया। केले की खेती पर केंद्रित एग्रीटेक स्टार्टअप ग्रीनिक्क सितंबर में उत्पाद-बाजार में अपनी जगह बनाने में असमर्थता और बढ़ते घाटे के कारण बंद हो गया। एक ऐप विकसित करने और खुद को एक पारिस्थितिकी तंत्र सुविधाकर्ता के रूप में स्थापित करने के बावजूद स्टार्टअप को अंततः कार्यशील पूंजी की पेशकश करने वाले एक और विक्रेता के रूप में देखा गया। उस समय ग्रीनिक्क के सह-संस्थापक और सीईओ फारिक नौशाद ने बताया कि उधारकर्ताओं द्वारा ऋण वसूली न होना संचालन को बंद करने के निर्णय के पीछे प्रमुख कारणों में से एक था।

स्टार्टअप ने 100 यूनिकॉर्न से कुल 8.4 करोड़ रुपये जुटाए। एडटेक संकट के बीच ब्लूलर्न ने लॉन्च होने के तीन साल से ज़्यादा समय बाद सोशल लर्निंग प्लेटफ़ॉर्म को जुलाई में बंद कर दिया, क्योंकि वेंचर-स्केल व्यवसाय बनाने में चुनौतियों और तेज़ विकास हासिल करने में मुश्किलें आ रही थीं। 2021 में हरीश उथयकुमार और श्रेयांस संचेती द्वारा स्थापित ब्लूलर्न ने छात्रों के लिए एक टेलीग्राम चैनल के रूप में शुरुआत की, जहाँ वे एक-दूसरे के सामान्य सवालों पर मदद करते थे। एडटेक स्टार्टअप ने दावा किया कि उसके पास 20 से ज़्यादा देशों के 5,500 से ज़्यादा कॉलेजों के 1,50,000 से ज़्यादा सदस्यों का समुदाय है। बेंगलुरु स्थित इस स्टार्टअप ने एलिवेशन कैपिटल, लाइटस्पीड और अन्य से $3.95 मिलियन जुटाए थे।

जेन एआई स्टार्टअप InsurStaq.ai के संस्थापक मायन कंसल ने स्केलिंग संघर्षों के बीच परिचालन बंद कर दिया। भारत में जनरेटिव एआई क्षेत्र में चल रही उछाल का हिस्सा होने के बावजूद दिल्ली  स्थित स्टार्टअप ने व्यवसाय को स्केल करने में आने वाली चुनौतियों के कारण सितंबर में अपने परिचालन को बंद करने का फैसला किया।

गोल्डपे द्वारा स्थापना के एक साल बाद ही अपनी दुकान बंद करने का फैसला किया। दोषपूर्ण बिज़नेस मॉडल और नकदी संकट से प्रभावित पार्थ शाह और याग्नि रावलजी द्वारा स्थापित अहमदाबाद स्थित फिनटेक स्टार्टअप गोल्डपे ने स्थायी राजस्व प्रवाह की अनुपस्थिति, दोषपूर्ण व्यवसाय मॉडल और नकदी प्रवाह के मुद्दों के कारण स्टार्टअप के परिचालन को बनाए रखने के लिए अतिरिक्त पूंजी जुटाने में चुनौतियों का सामना करना पड़ा। शुरुआती फंडिंग खत्म होने के साथ दोनों ने गोल्डपे को चालू रखने के लिए नए निवेश की सक्रिय रूप से तलाश की, लेकिन असफल रहे। स्टार्टअप एक साल में केवल 1.5 लाख रुपये का राजस्व उत्पन्न कर सका।

पीक XV, BEENEXT समर्थित केनको हेल्थ ने परिचालन बंद करने का फैसला किया, क्योंकि उसके पास फंड खत्म हो गया था और वह भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण से बीमा लाइसेंस हासिल नहीं कर सका। शटडाउन के समय सह-संस्थापक अनिरुद्ध सेन ने एक ईमेल में साझा किया, जिसमें कहा गया था, "दुर्भाग्य से कंपनी के पास फंड खत्म हो गया है और हम विभिन्न आंतरिक कारणों से समय पर इक्विटी पूंजी डालने में असमर्थ थे। हमारी कंपनी को एक डेट फंड द्वारा राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण में ले जाया गया है, जिसने हमें ऋण दिया था।" शटडाउन के महीनों बाद, सेन ने आरोप लगाया कि भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण में लालफीताशाही उन घटनाओं के लिए जिम्मेदार थी, जिसके कारण स्टार्टअप का पतन हुआ।

2022 में आकाश गोयल और मोहित चितलांगिया द्वारा स्थापित फिनटेक स्टार्टअप ने परिचालन बंद करने का फैसला किया, क्योंकि इसे एक विश्वसनीय व्यवसाय मॉडल का पता लगाना मुश्किल हो गया था।

अप्रमेय राधाकृष्ण और मयंक बिदावतका द्वारा 2020 में स्थापित कू एक भारतीय माइक्रोब्लॉगिंग प्लेटफ़ॉर्म था और ट्यूटर का प्रतियोगी था। ऑनलाइन मीडिया फ़र्म डेलीहंट के साथ लंबे समय तक अधिग्रहण की चर्चा विफल होने के बाद इसने अपने बंद होने की घोषणा की। हालाँकि, कू के पतन का सबसे बड़ा कारण यह था कि यह पिछले दो वर्षों में भयंकर फंडिंग विंटर के बीच निवेशकों द्वारा अपने पर्स को कसने के कारण फंड जुटाने में विफल रहा। टाइगर ग्लोबल, एक्सेल, 3one4 कैपिटल, कलारी कैपिटल और ब्लूम वेंचर्स जैसे प्रमुख निवेशकों से $50 मिलियन से अधिक जुटाने के बावजूद, स्टार्टअप को अपने सीरीज़ सी राउंड के लिए कोई खरीदार नहीं मिला क्योंकि वित्तीय स्थिति पर्याप्त प्रभावशाली नहीं थी। इसके बंद होने का एक और बड़ा कारण इसकी बिगड़ती वित्तीय सेहत थी। शुरुआत से ही स्टार्टअप बढ़ते घाटे और न्यूनतम राजस्व से जूझ रहा था।

प्रमुख शेयरधारक और निवेशक सुब्रत रॉय के निधन के बाद आध्यात्मिक तकनीक स्टार्टअप माई तीर्थ इंडिया ने फंड की कमी के कारण अगस्त, 2024 में “अस्थायी रूप से” परिचालन बंद करने का फैसला किया। सहारा इंडिया परिवार के संस्थापक और प्रबंध निदेशक रॉय ने स्टार्टअप में लगभग एक मिलियन डॉलर का निवेश किया था।

अप्रैल में AI-संचालित डिजिटल स्वास्थ्य प्लेटफ़ॉर्म निंटी ने अपने बंद होने की घोषणा की, जबकि शेष पूंजी निवेशकों को वापस कर दी। सह-संस्थापक और सीईओ पारस चोपड़ा ने पीक XV पार्टनर्स समर्थित स्टार्टअप के बंद होने का कारण उपयोगकर्ता प्रतिधारण और स्केलिंग की चुनौतियों को बताया। यह निर्णय स्टार्टअप द्वारा अज्ञात निवेशकों से $3 मिलियन जुटाने के एक साल बाद लिया गया।

ऐसा नहीं है कि केवल बिना फंड के स्टार्टअप बंद हो जाते है बल्कि सच तो यह है कि फ़ंडिंग के बावजूद स्टार्टअप बंद हो जाते है, क्योंकि जितना अधिक फ़ंडिंग होती है समस्याएँ भी उतनी अधिक होती है। हैरानी की बात यह है कि फ़ंडिंड स्टार्टअप की विफलता पैसे से जुड़े मुद्दों के कारण हो जाती है। 2009 में हमारे देश की सफलता कम्पनी सत्यम के रामलिंग राजू ने चेयरमैन के पद से इस्तीफा देते समय कहा था, ‘यह बाघ की सवारी करने जैसा था, यह नहीं जानते हुए कि बिना खाए कैसे उतरना है।’ यह उनकी दुखद कहानी को समेटने के लिए एक बेहतरीन उद्धरण है। चीनी उद्यमी जैक माँ कहते है, ‘जब आप के पास पैसा होता है तो आप ग़लतियाँ करते है।’ जैक माँ ने ही कहा था, ‘जब आपके पास एक मिलियन डॉलर है तब एक भाग्यशाली व्यक्ति है, लेकिन जब आप के पास दस मिलियन डॉलर है तब आप संकट में है, बहुत बड़ा सर दर्द।’ 

समाज में तीन तरह के लोग है पहले वे जो दूसरों की ग़लतियों से सीख लेते है, दूसरे तरह के निरंतर स्वयं ग़लतियाँ करके सीखते हैं और ग़लतियाँ दुहराते नहीं है तथा तीसरे तरह के लोग न दूसरों की ग़लतियों से सीख लेते है और न स्वयं की ग़लतियों से। वे निरंतर एक जैसी ग़लतियाँ करते है। आंकलन करें कि आप किस तरह के इंटरप्रेन्योर है, क्योंकि जब आप कोई निर्णय लेते है तो या तो आप पैसे कमाते या गमाते है, बीच का कोई रास्ता नहीं होता है। इसलिए एक सफल इंटरप्रेन्योर को बिज़नेस में छोटी से छोटी बात को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। इंटरप्रेन्योर निरंतर दूसरों की ग़लतियों से सीखकर आगे बढ़े अन्यथा स्वयं ग़लतियाँ कर सीखने के लिए एक जीवन कम पड़ता है। इसलिए सफल इंटरप्रेन्योर निरंतर किताबें पढ़ते हैं, सोशल मीडिया पर अपने आप को अपडेट करते है और नेटवर्किंग करते रहते हैं।

एलोन मस्क $221,400 मिलियन की कुल संपत्ति के साथ, आज दुनिया के सबसे सफल व्यवसायियों में से एक हैं। उन्होंने PayPal की सह-स्थापना की, स्पेसएक्स की स्थापना की और टेस्ला मोटर्स के सीईओ हैं। मस्क को छोटी उम्र से ही विज्ञान-कथा उपन्यास पढ़ना पसंद था और वह रोजाना लगभग 10 घंटे पढ़ते थे। जब वह सिर्फ नौ साल के थे, तब उन्होंने पूरा एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका पढ़ लिया था।

माइक्रोसॉफ्ट के सह-संस्थापक बिल गेट्स कहते है, "प्रत्येक पुस्तक ज्ञान के नए रास्ते खोलती है," गेट्स अमेरिकी व्यवसायी, निवेशक, सॉफ्टवेयर डेवलपर और परोपकारी व्यक्ति को अपने खाली समय में किताबें पढ़ना पसंद है। गेट्स हर साल लगभग 50 किताबें पढ़ते हैं, जो लगभग एक सप्ताह में एक किताब है। वह आमतौर पर व्यवसाय, विज्ञान, सार्वजनिक स्वास्थ्य, विश्व मामलों और इंजीनियरिंग के बारे में गैर-काल्पनिक किताबें पढ़ना पसंद करते हैं। बर्कशायर हैथवे

वॉरेन बफेट बर्कशायर हैथवे के चेयरमैन और सीईओ को दुनिया के पांचवें सबसे धनी व्यक्ति का दर्जा दिया गया है। वॉरेन बफेट दुनिया के सबसे सफल निवेशकों में से एक हैं। बफेट ने जब एक निवेशक के रूप में अपना करियर शुरू किया था, तब वे प्रतिदिन 600-1,000 पेज पढ़ते थे। अब वे प्रतिदिन 500 पेज के वित्तीय दस्तावेज पढ़ते हैं और प्रतिदिन पांच-छह घंटे तक पांच अलग-अलग अखबार पढ़ते हैं।

अमेरिकी अरबपति उद्यमी और टेलीविजन व्यक्तित्व मार्क क्यूबान अमेरिकी बास्केटबॉल टीम डलास मावेरिक्स के मालिक हैं। वह खुद की सफलता में पढ़ने को एक प्रमुख कारक मानते हैं क्योंकि इससे उन्हें उस उद्योग के बारे में अधिक जानने में मदद मिली जिसमें वे शामिल हैं। क्यूबान हर रोज़ तीन घंटे पढ़ते हैं और कोई भी किताब या पत्रिका उठाकर पढ़ते हैं।

अमेरिकी अरबपति व्यवसायी डेविड रूबेनस्टीन वाशिंगटन स्थित निजी इक्विटी फर्म द कार्लाइल ग्रुप के सह-संस्थापक हैं, जो दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे सफल निजी निवेश फर्मों में से एक है।

3600 मिलियन डॉलर की कुल संपत्ति के वाले रूबेनस्टीन हर हफ्ते कम से कम छह किताबें और रोजाना आठ अखबार पढ़ते हैं। वह अपने दिमाग को केंद्रित करने के लिए हर दिन पढ़ने के माध्यम से नई चीजें सीखने के लिए जुनूनी है।

टोनी रॉबिंस शराबी माँ और कई अपमानजनक पिताओं के साथ बड़े हुए। वह किताबों को अपनी ज़िंदगी बचाने और वर्तमान दौर के नेता के रूप में आकार देने का श्रेय देते हैं। पढ़ने ने उनके अंदर एक जुनून जगाया। "मैंने एक स्पीड-रीडिंग कोर्स किया और सात सालों में 700 किताबें पढ़ीं- सभी मनोविज्ञान, शरीर विज्ञान, ऐसी किसी भी चीज़ पर जो जीवन में बदलाव ला सकती है।"

लिंकडिन के एक ब्लाग पोस्ट में सिद्धार्थ राजसेकर में लिखा, जब मैं सुपर सफल लोगों की पढ़ने की आदतों पर शोध कर रहा था, तो मुझे कुछ दिलचस्प आँकड़े मिले:

- 88% अमीर लोग हर दिन कम से कम 30 मिनट पढ़ते हैं।

- औसत सीईओ एक साल में 60 से ज़्यादा किताबें पढ़ता है और कंपनी की औसत आय का 319 गुना कमाता है।

- 63% अमीर लोग अपने ड्राइव टाइम के दौरान ऑडियो बुक सुनते हैं।

- 79% सुपर सफल लोग शिक्षा और करियर से जुड़ी सामग्री पढ़ते हैं।

- उनमें से 55% व्यक्तिगत विकास के लिए पढ़ते हैं।

- 94% सुपर अमीर लोग वर्तमान घटनाओं के बारे में पढ़ते हैं।

- उनमें से 51% इतिहास के बारे में पढ़ते हैं।

- 58% सफल लोग जीवनी पढ़ते हैं।

- केवल 11% अमीर लोग मनोरंजन के उद्देश्य से किताबें पढ़ते हैं।

निष्कर्ष यह है कि किताबें, आडियो, व्हिडिओ, पोडकास्ट, सोशल मीडिया पर अपने ज्ञान को बढ़ाने में उपयोग कर सकते है। अब एआई एप व टूल्स के कारण किसी भी तरह का ज्ञान आपके फ़िंगर टिप पर उपलब्ध है। पेरप्लेक्सिटी, ओपन एआई चैट जीपीटी, टिकटॉक, चीनी जनरेटिव एआई प्लेटफॉर्म डीपसीक एक निःशुल्क एआई-संचालित उत्तर इंजन है जो किसी भी प्रश्न का सटीक, विश्वसनीय और वास्तविक समय पर उत्तर देने की ओर निरंतर कुशलता हासिल कर रहे है।

भास्कर जी से बातचीत करना हमेशा लाभ कारी रहा है। अचानक एक दिन रवि के पास स्मिता का फ़ोन आया। हालांकि दोनों में ब्रेकअप हो गया था और बहुत महीनों से दोनों की बात नहीं हुई थी। रवि ने कई बार स्मिता का फ़ोन नम्बर अपनी फ़ोन बुक से डिलीट करने के बारे में सोचा, लेकिन ना जाने क्यों वह ऐसा नहीं कर पाया। स्मिता ने बताया की वह नई दिल्ली कंसल्टेन्सी के काम से आई है और उससे मिलना चाहती है। रवि ने यकायक कहा क्यों नहीं, जबकि वह कहना चाहता था क्यों? पता नहीं कई बार हमारे साथ ऐसा होता है कि हम सोचते कुछ और है। कहना कुछ और चाहते हैं और हमारे मुँह से कुछ और ही निकल जाता है। रवि बात को सुधारना चाहता था, लेकिन कहते है कि धनुष से चला तीर व मुँह से निकले शब्द को लौटाया नहीं जा सकता। इस लिए रवि ने चुप रहने में ही भलाई समझी। स्मिता ने बताया शाम की फ्लाइट से इंदौर आ रही है। स्मिता ने साधिकार कहा, तुम अपने घर का एड्रेस व लोकेशन मुझे व्हाट्सअप कर दो मैं पहुँच जाऊगी। रवि ने औपचरिकता बस कहा अरे नहीं तुम अपनी फ्लाइट के डिटेल भेज दो मैं एअरपोर्ट पर लेने आता हूँ। स्मिता ने डिटेल भेज दिया।

रवि के साथ समस्या यह है की वह बहुत फ़ास्ट निर्णय नहीं ले पाता है। रवि को अब समझ आया की वह तो अमन के साथ रहता है तो स्मिता को उस कमरे में कहाँ रखेगा। हालाँकि मकान में उनके दोनों के कमरे अलग है, लेकिन न जाने क्यों उसे लगा की स्मिता को ठहराने की व्यवस्था उसने पास के होटल में की। अगले दिन रवि शाम को एयरपोर्ट स्मिता को लेने गया तो रास्ते से उसने स्मिता के पसंद के पिंक गुलाबों का बुके ख़रीद लिया। स्मिता की फ्लाइट टाइम से आई। उसने मोबाईल से टैक्सी बुक की और दोनों होटल आये। स्मिता होटल में नहीं रुकना चाह रही थी। वह रवि के घर ही रुकना चाह रही थी। रवि समझ नहीं पा रहा था कि इन दिनों में वह इतनी कैसे बदल गई है? उसने उसे एयरपोर्ट पर उसे बुके दिया तो उसने मुस्करा के ले लिया। फूलों को प्यार से देखा और टैक्सी में बैठ गई। कमरा में फ्रेश हो कर रवि ने कॉफी बनाई। दोनों आमने सामने कुर्सियों पर बैठ कर कॉफी पीने लगे। रवि का मन स्मिता को गले लगाने का हो रहा था, लेकिन न जाने क्यों रवि को स्मिता से आने वाली ऊर्जा से लगा की वह भी गले मिलना चाह रही है, लेकिन सवाल यह था की पहल कौन करे। दोनों नीचे अपने कॉफ़ी के मग को देख रहे थे। एकाएक रवि उठा और उसने स्मिता को गले लगाने के लिए उसे कुर्सी से उठाया। वह तपाक से उठी और बहुत अरसे के बाद दोनों प्यार से गले मिले। रवि के दिल से ना जाने कितना बड़ा बोझ उतर गया जो वह ईंटे दिनों से दिन ही में ढ़ो रहा था। दोनों ने तय किया कि खाना कमरे में ही बुला लेंगे। इसके बाद दोनों इधर उधर की बातें करने लगे। ना जाने स्मिता रवि के स्टार्टअप में इतनी रूचि क्यों ले रही थी। रवि ने शुरू से अभी तक किन कहानी सुना दी। फंडिंग की बात भी बता दी। स्मिता ने पूछा कि यह कितने दिनों बाद होगा तो रवि ने बताया की  स्टार्टअप को उनकी वैल्यूएशन के अनुसार सफलता के विभिन्न स्तर पर रखा जाता है तथा अलग-अलग नाम दिए जाते है जो इस तरह है- मिनीकॉर्न स्टार्टअप जिन स्टार्टअप का वैल्यूएशन 10 लाख डॉलर यानी 8.3 करोड़ रुपये से अधिक है उन्हें मिनीकॉर्न स्टार्टअप कहा जाता है। आमतौर पर शुरुआती दौर के सभी स्टार्टअप की वैल्यू इतनी ही होती है और इस क्लब के स्टार्टअप में शामिल होना बेहद आसान है। सूनीकॉर्न स्टार्टअप की वैल्यूएशन 8.3 करोड़ से ज्यादा है और जल्द ही वह 10 लाख डॉलर यानी यूनिकॉर्न के स्तर पहुंचने वाले हैं। इस तरह के स्टार्टअप को सूनीकॉर्न स्टार्टअप कहते हैं। मौजूदा वक्त में भारत में कुल 50 ऐसे स्टार्टअप हैं, जो यूनिकॉर्न स्टार्टअप बनने की रेस में शामिल है। यूनिकॉर्न स्टार्टअप आमतौर पर जब भी स्टार्टअप की बात होती है तो यूनिकॉर्न स्टार्टअप का नाम सबसे ज्यादा लिया जाता है। यह एक प्रकार का स्टार्टअप है जिसकी वैल्यूएशन एक अरब डॉलर यानी 8,319 करोड़ रुपये से अधिक है। 2013 में सबसे पहले इस शब्द का इस्तेमाल काउबॉय वेंचर के फाउंडर एलिन ली द्वारा किया गया था।

भारत में मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक देशभर में यूनिकॉर्न स्टार्टअप की संख्या 108 है। वहीं साल 2025 तक इसकी संख्या 150 होने की संभावना है। डेकाकॉर्न स्टार्टअप की वैल्यूएशन 10 अरब डॉलर से अधिक होती है। दुनिया में इस तरह के स्टार्टअप की संख्या बेहद कम है। क्रंचबेस यूनिकॉर्न बोर्ड के जनवरी 2023 के डाटा के अनुसार विश्व भर में केवल 47 ऐसे कंपनियां हैं, जो डेककॉर्न स्टार्टअप की कैटेगरी में आती हैं। हेक्टोकॉर्न स्टार्टअप का वैल्यूएशन 100 अरब डॉलर यानी 8.32 लाख करोड़ रुपये से अधिक है उन्हें हेक्टोकॉर्न स्टार्टअप कंपनी कहा जाता है। 'होक्टो' एक ग्रीक शब्द है। इसे 'सुपर यूनिकॉर्न' भी कहा जाता है। एलन मस्क की स्पेसएक्स अक्टूबर 2021 में हेक्टोकॉर्न स्टार्टअप की कैटेगरी में शामिल होने वाली पहली कंपनी बनी थी, इस कैटेगरी में गूगल, एप्पल जैसी कंपनियों का नाम भी शामिल है। भारत की कोई भी कंपनी इस कैटेगरी में शामिल नहीं है।

दोनों ने बातों के बीच में ही खाने का आर्डर किया और फूड स्टार्टअप से खाना मंगाकर दोनों ने खाना खाया। बहुत रात हो गई थी तो रवि ने कहा की तुम्हारा दिन बहुत लम्बा रहा। अब तुम आराम करो मैं कल सुबह आता हूँ। वह झटके से उठा और दरवाजा खोलने वाला ही था कि पीछे से स्मिता ने उसे पकड़ लिया।

सुबह दोनों की नींद बहुत देर के खुली। रवि की नीद अभी भी पूरी नहीं हुई थी वह कितनी रातों के बाद ऐसा सोया था उसे खुद भी याद नहीं। स्मिता उठकर बाथरूम में चली गई। कमरे में शावर चलने की आवाज आ रही थी। रवि उठा और कॉफी बनाने लगा। दोनों ने कॉफी पीना शुरू किया ही था कि रवि ने पूछा आज का क्या प्लान है? स्मिता ने बताया की वह अमन से मिलना चाहती हैं। उनके स्टार्टअप का ऑफिस देखना चाहती है और क्या। रवि को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। वह ज्यादा पूछ नहीं रहा था। उसे डर था कि मुँह से कोई ऐसी बात न निकल जाये, जो स्मिता को बुरी लगे। रवि ने अमन को फ़ोन किया। अमन ने बताया कि वह ऑफिस पहुँच गया है तो दोनों को उसने वही बुला लिया।

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर एक दूसरे से जुड़ा होना कई बार बहुत लाभदायक रहता है। रवि एवं स्मिता ने एक दूसरे को लिंकडिन, फेसबुक आदि पर ब्लॉक नहीं किया था तो उन्हें लगभग सभी अच्छी बातें एक दूसरे के बारे में पता थी। लोगों की आदत है कि वह उनके जीवन के हर खुशगवार मूवमेंट सोशल मीडिया पर शेयर करते है। केवल दुख के क्षण कभी शेयर नहीं करते है। इसलिए रवि व स्मिता को एक दूसरे के बारे में और कुछ पूछने की जरुरत नहीं हुई और वह इन समय दुखभरी बातें जानकर समय खराब नहीं करना चाहते थे। 

स्मिता और रवि जब कम्पनी के ऑफिस पहुंचे तो वहां आलू की ग्रेडिंग हो रही थी। हरी सब्जियां धोने के बाद तोलकर प्लास्टिक के पैकिट्स में भरी जा रही थी। स्मिता को काम चलता देखकर अच्छा लगा। अमन आज पहली बार स्मिता से आमने सामने मिल रहा था। स्मिता को ऑफिस में देखकर अमन को अच्छा लगा। जब वे उसके केबिन में सेटिल हो गए तो स्मिता अमन के स्टार्टअप की कहानी पूछने लगी। हालांकि रवि की स्टोरी वह जानती थी। हर स्टार्टअप के फाउंडर के पास सुनाने को बहुत कुछ होता है और उनकी कहानी भी यूनिक होती है। वे हर किसी हो सुनाने के लिए हमेशा लालायित रहते है। अमन स्मिता को कहानी सुनाने लगा तो रवि काम देखने अंदर चला गया। मध्य प्रदेश के जबलपुर में पले-बढ़े अमन का जीवन बचपन से ही कहानियों से सराबोर था। वे कहानियां जो उन्होंने पढ़ीं और वे जो उन्होंने रोज़मर्रा की ज़िंदगी में देखीं। 

मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मा अमन हमेशा कहानियों की शक्ति में बदलाव लाने की शक्ति पर विश्वास करते थे और इसी विश्वास ने उन्हें उनका सोशल वेंचर की शुरुआत करने की प्रेरणा दी। अमन व रवि की कहानी कई भारतीय स्टार्टअप्स के लिए एक प्रेरणा है, जो तकनीक और नवाचार के माध्यम से कृषि क्षेत्र में क्रांति लाने के लिए काम कर रहे हैं। जब कोई अच्छी सैलरी वाली नौकरी छोड़कर बिजनेस शुरू करने की सोचता है तब सबसे पहले उसे परिवार का विरोध झेलना पड़ता है। हालांकि, अमन ने कहा कि इस मामले में वह लकी हैं। पापा इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन मम्मी ने उसका बहुत सपोर्ट किया, बल्कि मम्मी मेरे लिए किसी शील्ड से कम नहीं हैं। इनके अलावा तमाम रिश्तेदारों और दोस्तों ने भी उसके इस स्टार्टअप को सफल बनाने के लिए हर तरह से मदद की है।

नौकरी छोड़ने के बाद अमन ने एक साल का ब्रेक लिया और असली भारत को समझने का फैसला किया। इसके लिए वह एक स्टार्टअप से जुड़े, जो मध्य प्रदेश में किसानों के साथ काम करता है। वहीं से अमन ने एग्रीकल्चर के बारे में सब कुछ सीखा। अमन को पता चला कि किसानों का दिल इतना बड़ा होता है कि खुद का नुकसान होने के बावजूद वह अपने मेहमानों की खातिर करने में कोई कमी नहीं करते। वह कभी भी किसी भी किसान के घर चले जाते थे, जहां चाहे वहां खाना खा लेते थे और किसान भी उन्हें पूरे उत्साह के साथ अपना खेत दिखाया करते थे। अमन के मन में वहीं से किसानों के लिए एक प्यार पैदा हुआ। इसके बाद अमन ने एग्रीकल्चर सेक्टर को अच्छे से समझना शुरू किया। अमन ने देखा कि इस सेक्टर में किसानों से लेकर कंपनियों तक सामान पहुंचने के बीच में बहुत सारी दिक्कतें हैं। यहां उसे एक मौका दिखा, जिसके जरिए वह किसानों से जुड़े भी रह सकते थे और एक बिजनेस भी कर सकते थे। उसका एग्रीकल्चर सेक्टर में घुसने का प्लान तो नहीं था, लेकिन किसानों से मिले अपनेपन के बाद उन्होंने एग्रिटेक स्टार्टअप शुरू करने का मन बना लिया। किसानों के साथ उस स्टार्टअप के जरिए  बहुत कुछ सीखा।

सभी जॉब की तरह इस बिजनेस में भी कई चुनौतियां हैं। सबसे बड़ी चुनौती अमन व रवि को यही झेलनी पड़ी कि उन्हें पुराने सिस्टम को तोड़कर उसमें घुसना पड़ा। भले ही पुराना सिस्टम कम कारगर हो, लेकिन किसान एक सिस्टम के तहत अपनी फसल बेचा करते थे। अमन एवं रवि ने एक बेहतर सिस्टम तैयार तो किया, लेकिन पुराने सिस्टम को तोड़ना उनके लिए सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण रहा है। इसके अलावा खेती में एक बड़ी चुनौती होती है मौसम, जिस पर किसी का काबू नहीं। वहीं अमन व रवि के बिजनेस में तो खेती ही सब कुछ है। ऐसे में उन्हें इस चुनौती का भी सामना करना पड़ा। खैर उन्होंने इससे निपटने के लिए कुछ अगेती, कुछ पछेती और कुछ सूखे की फसलें उगाने की रणनीति बनाई है, ताकि नुकसान ना हो। वह शुरुआत से ही किसानों से जुड़ जाते हैं, उन्हें बताते हैं कि क्या उगाना चाहिए, कैसे उगाना चाहिए। साथ ही वह यह भी सुनिश्चित करते हैं किसानों से सारा सामान उचित दाम पर खरीदकर उपभोक्ताओं तक पहुंचाया जा सके। हालांकि फंड की कमी के कारण वह लोग अपने पुरे बिजनेस मॉडल को अभी तक लागू नहीं कर पाए है। उम्मीद है अब जल्द फंडिंग मिल जाएगी तो वह व्यवस्थित काम कर सकते हैं। वे अब टीम बढ़ाने की सोच रहे है।

इसी बीच कमरे में रवि आया। दोनों को साथ देखकर हिम्मत की और स्मिता ने पहली बार बताया की वह भी इंडिया आकर उनके साथ काम करना चाहती है।

रवि ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था तब अमन एकदम से उसे चुप करा कर बोला, "यह तो बहुत अच्छी बात है। हम लोग साथ मिलकर काम कर सकते है।" जो स्टार्टअप के फाउंडर होते है वे हमेशा अपनी टीम बढ़ाने के लिए उसी तरह लालयत रहते है जैसे क्वांरी लड़की के बाप को हर कुंवारा लड़के में अपना दामाद दिखता है। उसी तरह हर पढ़े लिखे में स्टार्टअप फाउंडर को टीम मेम्बर नजर आता है। रवि को अब स्मिता के बदले व्यवहार की बजह पता चली, लेकिन वह चुप रहा। अमन बताता है कि उनकी बूटस्ट्रैप्ड कंपनी है यानी इसे अभी तक कहीं से कोई फंडिंग नहीं मिली है या यूं कहें कि इस कंपनी ने अभी कहीं से फंडिंग ली नहीं है।

हालांकि, अमन ने मजाकिया अंदाज में कहा हैं कि इस बिजनेस के लिए उन्होंने सारी फंडिंग दोनों ने मिल कर की है। स्मिता के लिए यह हैरानी की बात थी कि वह दोनों कितनी मेहनत से काम कर रहे है। स्मिता रवि को कभी इतना जिम्मेदार कभी नहीं मानती थी, लेकिन यहाँ उसकी मेहनत देखकर उसकी धारणा बदल रही थी कि वह रवि को लेकर कितना गलत सोचती थी। रवि को उसने बहुत प्यार भरी नजरों से देखा। रवि को अपने रिश्ते की एक उम्मीद की किरण नजर आ रही थी। अमन को स्मिता ने गर्व के साथ देखा।

अमन अपनी धुन में कह रहा था कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। हमेशा से कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग रहा है और देश में कृषि प्रथाओं का समृद्ध इतिहास है। हालांकि बढ़ती आबादी के साथ, कृषि क्षेत्र में उत्पादकता एवं क्षमता बढ़ाने के लिए आधुनिक टेक्नोलॉजी को अपनाना बहुत ज़रूरी हो गया है। हाल के वर्षों में एग्रीटेक स्टार्टअप्स द्वारा पेश किए गए आधुनिक समाधानों के चलते भारतीय कृषि में बड़े बदलाव आए हैं, जो पारम्परिक तरीकों के दायरे से बढ़कर कृषि को अधिक प्रभावी बना रहे हैं।

वर्तमान में भारत में कई एग्रीटेक स्टार्टअप्स हैं, जो आधुनिक टेक्नोलॉजी का उपयोग कर कृषि को अधिक प्रभावी एवं स्थायी बनाने के लिए काम कर रहे हैं। ये स्टार्टअप किसानों को उनकी फसलों के बेहतर प्रबन्धन, उत्पादकता बढ़ाने, व्यर्थ कम करने में मदद करते हैं। वह लोग भी मध्य प्रदेश के सबसे बड़े स्टार्टअप बनना चाहते है, क्योंकि रवि का मानना है कि बड़े तालाब की छोटी मछली बनने से अच्छा है कि छोटे तालाब की बड़ी मछली बने।

स्मिता की रूचि स्टार्टअप में देख कर रवि ने बोलना शुरू किया, ”हमारे देश में 80% से अधिक किसान छोटे और सीमांत हैं, जिनके पास एक हेक्टेयर या उससे कम भूमि है। उनकी इनपुट आवश्यकताएँ कम हैं, इसलिए वे आमतौर पर अपने गाँवों के छोटे दुकानदारों से खरीदते हैं। हालांकि, इन दुकानदारों को आपूर्ति पाने में संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि बहुराष्ट्रीय और राष्ट्रीय कंपनियों सहित बड़े निर्माता छोटे खुदरा विक्रेताओं को डीलर या वितरक के रूप में नियुक्त नहीं करते हैं। ये कंपनियाँ रिकॉर्ड, खाते और आपूर्ति श्रृंखला बनाए रखने के लिए बड़े व्यापारियों के साथ काम करना पसंद करती हैं। इस समस्या को हल करने के लिए, हम एक फ्रैंचाइज़ी मॉडल विकसित करना चाहते है। स्टार्टअप के माध्यम से, छोटे दुकानदार फ्रैंचाइज़ी ले सकते हैं और अब उन्हें निर्माताओं से सीधे डीलरशिप या डिस्ट्रीब्यूटरशिप लेने की आवश्यकता नहीं है। उर्वरकों के लिए, हम ओ-फ़ॉर्म प्रमाणपत्र जारी कर सकते है और कीटनाशकों और बीजों के लिए, हम निर्माताओं से आपूर्ति की व्यवस्था करते हैं। इस तरह, छोटे दुकानदारों को सामग्री तक सीधी पहुँच मिलती है, जिससे आपूर्ति श्रृंखला से कम से कम दो बिचौलिए समाप्त हो जाते हैं। इससे लागत कम हो जाती है, हैंडलिंग कम हो जाती है और निर्माताओं या गोदामों से सीधे दुकानदारों तक सामग्री को कुशलतापूर्वक पहुँचाया जा सकता है, जिससे समय की बचत होती है। इस तरह से हमरे फ्रैंचाइज़ी मॉडल की संरचना इस तरह बनाना चाह रहे है।

कृषि बाजार में सबसे बड़ी चुनौती कृषि उपज को बेचना है। भारत में दो प्रमुख कारक इसे प्रभावित करते हैं। पहला है उत्तराधिकार का कानून- जब कोई ज़मीन मालिक मर जाता है तब उसकी ज़मीन कानूनी उत्तराधिकारियों में विभाजित हो जाती है। समय के साथ ज़मीन की जोत कम होती जा रही है और भारत सरकार के नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, औसत ज़मीन की जोत अब सिर्फ़ 0.5 हेक्टेयर रह गई है। इतनी छोटी ज़मीन होने के कारण, किसानों को कम इनपुट की ज़रूरत होती है, लेकिन चूँकि आपूर्ति श्रृंखला में चार बिचौलिए होते हैं, इसलिए उन्हें कृषि आदानों के लिए ज़्यादा कीमत चुकानी पड़ती है। दूसरी ओर, जब वे अपनी उपज बेचते हैं, तो उन्हें मंडी बाज़ार जाना पड़ता है, जहाँ कमोडिटी बाज़ार को तीन प्रकार के खरीदारों द्वारा नियंत्रित किया जाता है- राष्ट्रीय स्तर के स्टॉकिस्ट, प्रोसेसर और निर्यातक। इन खरीदारों की तीन बुनियादी ज़रूरतें होती हैं: बड़ी मात्रा, लगातार एकजैसी गुणवत्ता और प्रतिस्पर्धी मूल्य निर्धारण। छोटे और सीमांत किसान इन ज़रूरतों को पूरा नहीं कर सकते, इसलिए उनकी उपज अंतिम उपयोगकर्ता तक पहुँचने से पहले आपूर्ति श्रृंखला में कई व्यापारियों लगभग छह से सात बिचौलियों से होकर गुज़रती है। प्रत्येक चरण में उत्पाद को वर्गीकृत किया जाता है और फिर से बेचा जाता है, जिससे लागत बढ़ जाती है और किसानों को कम कीमत मिलती है। किसान बिना ग्रेड वाली उपज बेचते हैं, इसलिए व्यापारी इसे कम कीमत पर खरीदते हैं, खुद ग्रेड करते हैं और बाद में गुणवत्ता के आधार पर बेचते हैं, जिससे उन्हें ज़्यादा मुनाफ़ा होता है। ग्रेडिंग में पारदर्शिता की कमी के कारण किसानों की आय कम होती है, जिससे उनकी गुणवत्ता वाले बीजों, उर्वरकों और कीटनाशकों में निवेश करने की क्षमता प्रभावित होती है।’

लगातार स्टार्टअप का बिजनेस मॉडल सुनकर स्मिता का उत्साह और बढ़ गया। इसके बाद उसने रवि की ओर देख कर पूछा ".....तो हमारा स्टार्टअप किसानों को इन चुनौतियों से निपटने में कैसे मदद करता है और आगे का क्या प्लान है ?” रवि ने बताया, "हम व्यापार केंद्र स्थापित करने पर काम कर रहे हैं, जो एक पूर्ण विकसित केंद्र है और किसानों की सहायता करेगा। पिछले 25 वर्षों में भारत में अलग-अलग किसानों ने मैक्रो स्तर पर फसल-वार क्लस्टर बनाए हैं। इन क्लस्टरों में मक्का, धान, सोयाबीन, गेहूं, चना, अरहर, प्याज, आलू, लहसुन और धनिया जैसी फसलें शामिल हैं, जिनमें प्रत्येक राज्य का अपना क्लस्टर है।

इन समूहों में सभी किसान एक ही फसल उगाते हैं, लेकिन वे अलग-अलग किस्म के बीज और अलग-अलग खेती के तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, जिससे उनके लिए थोक विक्रेताओं या प्रोसेसर को सीधे बेचना मुश्किल हो जाता है।

इस समस्या को हल करने के लिए हर एक केंद्र में लगभग 400 किसान सदस्य होंगे जो एक विशिष्ट फसल और किस्म उगाने का फैसला करेंगे। फिर उन्हें एक सेम पैकेज ऑफ़ प्रैक्टिस प्रदान करेगा, यह सुनिश्चित करते हुए कि सभी 400 किसान एक ही एक सेम पैकेज ऑफ़ प्रैक्टिस से खेती करें। हालाँकि वे अपनी ज़मीन पर व्यक्तिगत रूप से काम करेंगे, लेकिन उनकी उपज में एक समान गुणवत्ता होगी और बड़ी मात्रा में उपलब्ध होगी, जिससे प्रतिस्पर्धी कीमतों पर बेचना आसान हो जाएगा। यह हमारे स्टार्टअप का पूर्ण मॉडल है, जिसे हम वर्तमान में आंशिक रूप से लागू कर रहे हैं। जैसे-जैसे हम अधिक संसाधन जुटाते जायगें, हम इन केंद्रों का विस्तार करेंगे और विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित करेंगे।"

यह डिस्कशन इतना गम्भीर हो जाएगा किसी ने उम्मीद नहीं की थी। उन्होंने रात का खाना साथ साथ खाने का निश्चय किया। तीनों होटल के डाईनिंग हाल में आ गये। स्टार्टअप को फंडिंग मिलने का ईमेल तभी उनके मेल बॉक्स में आया और दोनों के मोबाइल के स्क्रीन पर नोटिफिकेशन चमक उठा। तीनों ने इस मौके को सेलीव्रेट करने का सोच कर फिर सुले वाईन का आर्डर किया। रवि को लगा कि अब अच्छे दिन लौट आए है। 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 






 

 

 

 

 

 


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